Book Title: Aagam Manjusha 40 Mulsuttam Mool 01 Aavassay Nijjuttisah
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar

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Page 29
________________ अहछंदोऽविय एए अवदणिजा जिणमयंमि॥२०॥पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ। कायकिलेसं एमेव कुणई तह कम्मबंधं च ॥११२०॥जे बंभचेरभट्ठा पाए उड्डंति बंभयारीण। ने हॉनि कु(द)टमुंटा बोही य सुदुल्लहा तेसिं॥१॥ सुटुतरं नासंती अप्पाणं जे चरित्तपम्भट्ठा । गुरुजण वदाविति सुसमण जहुत्तकारिं च ॥२॥ असुइट्टाणे पडिया चंपग. माला न कीरई सीसे। पासस्थाईठाणेसु वहमाणा तह अपुजा ॥३॥ पकणकुले वसंतो सउणीपारोऽवि गरहिओ होइ । इय गरहिया सुविहिया मज्झि वसंता कुसीलाणं ॥४॥ सुचिरंपि अच्छमाणो वेलिओ कायमणीय उम्मीसो। नोवेइ कायभावं पाहण्णगुणेण नियएणं ॥ ५॥ भावुगअभावुगाणि य लोए दुविहाणि हॉति दवाणि। वेरुलिओ तत्थ मणी अभावुगो अन्नदोहि ॥६॥ जीवो अणाइनिहणो तम्भावणभाविओ य संसारे। खिप्पं सो भाविजइ मेलणदोसाणुभावेणं ॥७॥ अंबस्स य निंबस्स य दुष्हपि समागयाई मूलाई । संसग्गी वि. णट्ठो अंबो निबत्तर्ण पत्तो॥८॥ सुचिरंपि अच्छमाणो नलथंभो उच्छवाडममंमि। कीस न जायइ महुरो जइ संसम्गी पमाणं ते? ॥९॥ ऊणगसयभागेणं किंवाई परिणमंति तब्भावं। लवणागराइसु जहा वजह कुसीलसंसम्गि ॥११३०॥ जह नाम महुरसलिलं सायरसलिलं कमेण संपत्तं। पावेइ गणपरिहाणि मेलणदोसाणभावेणं ॥२॥खणमविन खमं काउं अणाययणसेवणं सुविहियाणं । हंदि समद्दमइगयं उदयं लवणतणमवेड॥३॥ सबिहियद-17. विहियं वा नाहं जाणामि हं खु छउमत्थो। लिंगं तु पूययामी तिगरणसुद्धेण भावेणं ॥ ४॥ जइ ते लिंग पमाणं वंदाही निण्हवे तुमे सके। एए अवंदमाणस्स लिंगमवि अप्पमाणं ते ॥५॥ जइ लिंगमप्पमाणं न नजई निच्छएण को भावो ?। दठूण समणलिंग किं काय तु समणेणं ? ॥ ६॥ अप्पुष्ठं वळूणं अम्भुट्ठाणं तु होइ कायनं । साहुम्मि दिट्टपुधे जहारिहं जस्स जं जोरगं ॥७॥ मुकधुरासंपागडसेवी चरणकरणपभडे । लिंगावसेस मित्ते जं कीरइ तं पुणो वोच्छं ॥८॥ वायाइ नमोकारो हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च। संपुच्छणं छोभवंदणं चावि॥९॥ परियाय परिस पुरिसे खितं कालं च आगमं नच्चा। कारणजाए जाए जहारिहं जस्स जं जुग ॥११४०॥ परियाय बंभचेरं परिस विणीया सि पुरिस णचा वा। कुलकजादायत्ता आघवओं गुणागमसुयं वा॥२०६॥भाष्य। एताई अकुवंतो जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे।न भवइ पवयणभत्ती अभत्तिमंतादओ दोसा ॥१॥तित्थयरगुणा पडिमासु नत्थि निस्संसर्य बियाणंतो। तित्थयरेति नमंतो सो पावइ निजरं विउलं ॥२॥लिज जिणपण्णत्तं एव नर्मतस्स निजरा विउला। जइवि गुणविप्पहीणं बंद अज्झप्पसोहीए॥३॥ संता तित्थयरगुणा तित्थयरे तेसिमं तु अज्झप्पं । न य सावजा किरिया इयरेसु धुवा समणुण्णा ॥४॥ जह सावजा किरिया नत्थि य पडिमासु एवमियरावि। तयभावे नस्थि फलं अह होइ अहेउगं होइ ॥५॥ कामं उभयाभावो तहवि फलं अस्थि मणविसुद्धीए। तीए पुण विसुद्धीइ कारण होति पडिमाउ ॥६॥ जइविय पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंग। उभयमवि अस्थि लिंगे | न य पडिमासूभयं अस्थि ॥७॥ नियमा जिणेसु उ गुणा पडिमाओ दिस्स जे मणे कुणइ। अगुणे उ वियाणंतो के नमउ मणे गुणं काउं? ॥८॥जह वेलिंबगलिंगं जाणंतस्सनमओ | हवइ दोसो। निबंधसमिय नाऊण वंदमाणे धुवो दोसो ॥९॥ रुप्पं टंक विसमाहयक्खरं नविय रूवओ छेओ। दोण्हपि समाओगे रूबो छेयत्नणमुवेइ ॥११५०॥ कप्पं पत्तेयबुद्धा टंक जे लिंगधारिणो समणा। दव्वस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगे ॥१॥ कामं चरणं भावो तं पुण णाणसहिओ समाणेई । न य नाणं तु न भावो नेण र णाणिं पणिवयामो ॥२॥ तम्हा ण बझकरण मज्झ पमाण न याविचारित्त। नाण मज्झ पमाण नाण य ठिअंजओ तित्थं ॥३॥ नाऊण यसब्भावं अहिंगमसंमंपि होइ जीवस्सा जाईसरणनिसग्गग्गयावि न निरागमा दिट्ठी ॥४॥ नाणं सविसयनिययं न नाणमित्तेण कजनिष्फत्ती। मगण्णू दिलुतो होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥५॥ आउज्जनकुसलावि नटिया तं जणं न तोसेइ । जोग अजुंजमाणी निदं खिंसं च सा लहइ ॥६॥ इय लिंगनाणसहिओ काइयजोगं न जुंजई जो उ । न लहइ स मुक्खसुक्खं लहइ य निंदं सपक्खाओ॥७॥ जाणतोऽविय तरिउं काइ. यजोगं न जुंजइ नईए। सो बुज्झइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो ॥८॥ गुणअहिएवंदणयं छउमस्थ गुणागुणे अयाणंतो। बंदिजा गुणहीणं गुणाहियं वावि वंदावे ॥९॥ आलएणं विहारेणं, ठाणाचंकमणेण य। सको सुविहिओ नाउं, भासावेणइएण य॥११६०॥ आलएणं विहारेणं ठाणाचंकमणेण या न सको सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य॥१॥ भरहो पसन्नचंदो सम्भितरवाहिरं उदाहरणं । दोसुप्पत्तिगणकरं न तेसि बज्ज्ञ भये करणं ॥२॥ पत्तेयबद्धकरणे चरणं नासंति जिणवरिंदाण। आहबभावकहणे पंचहिं ठाणेहिं पासत्या ॥३॥ उम्मम्गदेसणाए चरणं नासिति जिणवरिंदाणं । वावण्णदसणा खलु न हुलम्मा तारिसा दट्टुं ॥४॥ जह णाणेणं न विणा चरणं नादसणिस्स इय नाणं। न य दंसणं न भावो तेन र दिढि पणिवयामो ॥५॥जुगर्वपि समुप्पन सम्मत्तं अहिगम विसोहेइ । जह कयगमंजणाई जलदिट्ठीओ विसोहति ॥६॥जह २ सुज्झइ सलिलं तह २ रुवाई पासई दिट्ठी। इय जह जह तत्तसई तह तह तत्तागमो होइ ॥७॥ कारणकजविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि। जुगवुप्पन्नपि तहा हेऊ नाणस्स सम्मत्तं ॥८॥ नाणस्स जइवि हेऊ सविसयनिययं तहावि १२०२ आवश्यक सनियु- सूक्तिक मूलसूत्र, निcिri मुनि दीपरत्नसागर

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