Book Title: Aagam Manjusha 40 Mulsuttam Mool 01 Aavassay Nijjuttisah
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar

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Page 38
________________ - सिआर्यचो। वासे तिचि पयारा बमजतबज फसिए अ॥२२०॥दसतं पिय व खिसे जहियं त जचिरं काले। ठाणा भास भावे मन उस्सास उम्मेसे ॥१॥ भाष्यं । वासत्ताणाबरिया निकारण ठंति कणि जयणाए। हत्थत्यंगुलिसमा पुत्तावरिया व भासंति ॥ ७॥ पंसू य मंसरुहिरे केससिलावुट्टि तह रउग्घाए। मंसरहिरे अहोरत्त अबसेसे जचिरं मुत्तं ॥८॥ पंसू अचित्तरओ स्सस्ससओ दिसा रउग्धाओ। तस्य सवाए निधायए य मुक्तं परिहरंति ॥९॥ साभाविय तिचि दिणा सुगिम्हए निक्खिवंनि जड जोगं । तो तंमि पडतंमी करति संबच्छरझायं ॥१४३० ॥ गंधपदिसापिनुकगजिएजूअजक्खालिने। इफिक पोरिसी गजियं तु दो पोरिसी हणइ॥१॥ दिसिदाह छिपमूलो उक सरेहा पगासजुना वा। संझाछेयावरणो उ जुवओ सुकि दिण तिमि ॥२॥केसिंचि हुँतिऽमोहा उ जुनओ ता य इति आइन्ना। जेसिं तु अणाइमा तेसि किर पोरिसी तिनि॥३॥ चंदिमसमवरागे निग्घाए गुजिए चउ पाडिवया जं जहिं सुमिम्हए नियमा॥४॥ आसाढी रंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोदके। एए महामहा खल एएसिं चेव पाडिवया ॥५॥ काम सुओवओगो नवोवहाणं अणुनरं भणियं । पडिसेहियंमि काले तहावि खलु कम्मबंधाय ॥६॥ छलया व सेसएणं पाडिवएसु छणाऽणुसजंति। महयाउलनणेणं असारिआणं च सम्माणो ॥ ७॥ अन्नयरपमायजुर्य उलिज अप्पिढिओ न उण जुत्त। अद्धोदहिट्टिई पुण छलिज जयणोवउत्तंपि॥८॥ उक्कोसेण दुवालस चंदु ज ण पोरिसी अट्ठ। सूरो जहन बारस पोरिसी उकोस दो अट्ठ॥९॥ सरगह निबुइड एवं सूराई जेण हुतिहारत्ता। आइषं दिणमुके सुञ्चिय दिवसो अराई य॥१४४०॥ बुग्गह दंडियमादी सखोह दंडिए य कालगए। अणरायए य सभए जचिर निदोषऽहोरतं ॥१॥ सणाहिबईभोइयमयहरपुंसिस्थिमजुद्धे या लोट्टाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥शातदिवसभोइआई अंतो सतह जाय समाओ। अणहस्स य हत्यसयं दिदि विवित्तमि मुदं तु ॥३॥ मयहर पगए बहुपक्खिए य सत्तघरजंतरमए वा (यमि)। निदुक्खनि य गरिहा न पढ़ति सणीयगं बावि ॥ ४॥ सागारियाइकहणं अणिच्छ रति वसहा विगिचंति। विक्खित्ते व समंता जं दिट्ठ सयरे सुदा ॥५॥ सारीरपि य दुविहं माणुस तेरिच्छियं समासेण । तेरिच्छे तत्थ तिहा जलथलखहजं चउदा उ॥६॥ पंचिदियाण दरे खेत्ते सट्ठिहस्थ पुग्गलाइ । ति कुरत्थ महंतेगा नगरे बाहिं तु गामस्स ॥ ७॥ काले तिपोरसिऽट्ट व भावे सुत्तं तु नंदिमाईय। सोणिय मंस चम्मं अट्ठीविय हुँति चत्तारि ॥८॥ अंतो पहिच धो सहित्थाउ पोरिसी तिमि । महकाएं अहोरत्तं रखे बूढे असुदं तु ॥९॥ बहियोयरद्वपके अंतो धोए उ अवयवा हुंति। महकाय बिरालाई अविभिन्न केइ इच्छंति ॥१४५०॥ मूसाइ महाकायं मजाराईहयाघयण केई। अविभिन्ने गिण्हेउं पढ़ति एगे जइऽपलोओ (इपलाइ)॥२२२शामा। अंतो बहिं च भिन्नं अंडगबिंदू तहा विआया आरायपह बूट र मुद्दे परवयणे साणमादीणं ॥१॥अंडगमुजिमय कप्पेनय भूमि खणंविइहरहा तिन्नि असज्झायपमाण मच्छियपाओ जहिं (न) बरडे॥२२३भाका अजराउ तिनि पोरिसि जराउआणं जरे पडे तिनि । रायपह बिंदु पडिए कप्पइ बूढे पुणऽनत्य ॥४॥ जइ फुसइ तहिं तुंई अहबा लिच्छारिएण संचिस्खे। इहरा न होइ चोयग! वन वा परिणय जम्हा ॥२२५।। माणुसर्य चउदा अढि मुत्तूण सयमहोरत्तं । परिआवन्नविवन्ने सेसे तिय सत्त अट्टेव ॥१४५२॥ स्तुकडा उ इत्थी अट्ठ दिणा तेण सत्त सुकहिए। तिन्नि दिणाण परणं अणोउगंतम्मऽहोरत्तं ॥३॥ दंते दिहि बिगिचण सेसट्ठी बारसेव वासाई। झामिय बूढे सीआण पाणरूदे य माइहरे ॥४॥सीयाणे जं दिट्ट(दइड) तं तं मुत्तूणऽनाहनियाणि । आडंबरे य रूहे माइसु हिट्टिया चार ॥५॥ आवासियं च बूढं सेसे दिट्ठमि मग्गण विवेगो। सारीर गाम वाडग साहीइ न नीणियं जाव ॥६॥ असिवोमाघायणेसुं बारस अविसोहियमि न करंति। झामिय बूढे कीरइ आवासिय सोहिए चेव ॥२२६|भा०ाडहरगवाममए वा न करेंती जा णनीणिय होइ।पुर गामेव महंते वाडगसाही परिहती।२२७॥ भा०ा निजतं मुसूर्ण परवयणे पुष्फमाइपडिसेहो। जम्हा चउप्पगारं सारीरमओ न वजंति ॥७॥ एसो उ असज्झाओ ताजिउज्झाउ तन्थिमा मेरा । कालपडिलेहणाए गंडगमएहिं दिटुंतो ॥८॥ पंचविहअसज्झायस्स जाणणट्ठाय पेहए कालं। चरिमा चउभागवसेसिसाइ भूमि तओ पेहे ॥९॥ अहियासियाई अंतो आसन्ने चेव मज्झि दूरे या तिमेव अणहियासी अंतो उच्छच्च वाहिरओ॥१४६०॥ एमेव य पासवणे वारस चउवीसति तु पेहेत्ता। कालस्स य तिन्नि भवे अह सूरो अत्यमुवयाई ॥१॥ अह (जइ) पुण निघाघाओ आवासं तो करंति सवेऽवि। सड्ढाइकहणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठंति॥२॥ सेसा उ जहासतिं आपुच्छित्ताण ठति सहाणे। सुत्तत्वहरणहेउं आयरिएँ ठियंमि देवसियं ॥३॥जो हुज उ असमत्यो बालो बुड्ढो गिलाण परितं(सं)नो । सो विकहाइविरहिओ अच्छिजा निजरापेही॥४॥ आवासगं तु काउंजिणोबइई गुरूवएसेणं । तिणि थुई पडिलेहा कालस्स इमो विही तत्थ ॥५॥ दुविहो उहोइ कालो वाघाइम एतरो य नायत्रो। वाघातो घंघसा| लाएँ घट्टणं सड्ढकहणं वा ॥६॥ वाघाए तहओ सिं दिजइ तस्सेव ते निवेएंति। इयरा पुच्छति दुवे जोगं कालस्स घेच्छामो ॥७॥ आपुच्छण किहकम्मे आवासिय पडियरिय (ललिय पडिय) वाघाते। इंदिय दिसा अ तारा वासमसज्झाइयं चेच ॥८॥ जइ पुण गच्छंतार्ण छीयं जोई न(च)तो नियत्तेति। निशाधाए दोषिण उ अच्छंति दिसा निरिक्खंता ॥९॥ १२११आवश्यकं सनियु- सूक्तिक मूलसूत्रं, निति , मुनि दीपरत्नसागर 18

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