Book Title: Stotratmaka tatha Updeshatmaka Chotris Laghu Krutiono Samucchaya
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ श्री बलसिंहसूरिकृत स्तोत्रात्मक तथा उपदेशात्मक चोंबीस लघु कृतिओनो समुच्चय विजयशीलचन्द्रसूरि विक्रमना १३मा शतकमां विद्यमान जैन आचार्य श्रीरत्नसिंहसूरिए रचेली, ३४ जेटली लघु रचनाओनो संग्रह धरावती एक ताडपत्रीय पोथीना अक्षरंशः ऊतारारूप आ कृति-समुच्चय यथामति सम्पादित करीने अत्रे प्रकाशित करवामां आवे छे. कोई एक ज कर्तानी रचेली रचनाओनो संग्रह करवामां आव्यो होय एवी संग्रहपोथीओ आपणा भण्डारोमा घणीवार मळी आवती होय छे. घणा भागे आवी पोथी रचनाकारे पोते ज लखी होय छे. क्वचित् तेमना शिष्यादि द्वारा पण लखाई होय छे. आ पोथीनी मने प्राप्त नकलमां लेखक के ले. संवत् वगेरेनो उल्लेख धरावती पुष्पिका नहि होवाथी ते बाबतो विषे कोई विधान करवू मुश्केल छे. वळी, मूळ पोथी पण सामे न होवाथी अनुमान-संवत् कहेवार्नु पण शक्य नथी. छतां, १३मा शतकमां ज आ पोथी लखाई होय अने कर्ताए ज लखी होय, तेम मानवाचं मन अवश्य थाय छे. आ ताडपत्र-पोथी सूरतना श्री मोहनलालजी जैन उपाश्रयना ज्ञानभण्डारनी छे, अने वि.सं. २०१६मां, स्वर्गस्थ जैन विद्वान श्रीयुत अगरचन्द नाहटाए तेनी नकल पोताना हाथे ऊतारी हती, जे अत्यारे मारी समक्ष छे. श्रीनाहटाजीए प्रतिलिपिना अन्तभागमां लखेली नोंध आ प्रमाणे छे. "श्रीमोहनलालजी ज्ञानभण्डार, गोपीपुरा, सूरत सत्क ताडपत्रीय पत्र७३ प्रतिको नकल । सं. २०१६ मिती वैशाख बदि १२ सोमवार प्रारम्भ कर वै.व. १५ बृहस्पतिवारको पूर्ण की ।" पोताना ज्ञान-प्रवास दरमियान सूरत-निवासना दिवसोमां नाहटाजीए आ नकल फक्त ४ ज दिवसमां करी, ते वांचतां तेमनी ज्ञानोपासना तेमज जिज्ञासा माटे सहज बहुमान जागे छे.आवा विद्वान श्रावक आजे क्या मळे ?| Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसथान ४४ नाहटाजीनी आ प्रतिलिपिनी नोटबुक मुनिश्री मृगेन्द्रविजयजीए पोताना संग्रहमा साचवी राखी छे. 'अनुसन्धान ना प्रकाशनथी प्रमुदित ए वृद्ध मुनिश्रीए ते नोंधपोथी पोतानी पासे होवानु, अने प्रकाशित करवानी अनुकूलता होय तो मोकलवानुं प्रेम तथा औदार्यपूर्वक सूचव्यु. तेनो हकारात्मक प्रत्युत्तर अपातां तुर्तज ते नोंधपोथी तेमणे मोकली; ते नोंधपोथीने यथासम्भव शोधीने अत्रे प्रकाशित करवामां आवे छे. मध्यकालना प्रारम्भ वखतनी, कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यना समकालीन आचार्यनी रचनाओनुं सागमटे प्रकाशन करवानो अवसर, एक ल्हावारूप अने रोमांचक अवसर लागे छे. आ नोंधपोथी आपवा बदल मुनिश्री मृगेन्द्रविजयजी प्रत्ये आभारनी लागणी व्यक्त करूं छु. अने आवी बीजी पण सामग्री तेमना संग्रहमां होय तो मोकले, तेवी प्रेमभरी भलामण करुं छु. आ रचनाओमां जिनस्तोत्रो छे, गुरु-स्तुतिओ छे, उपदेशक कृतिओ छे, अने आत्माने हितशिक्षा आपती वैराग्यवाहक रचनाओ पण छे. रचनाओना काव्य-प्रकारो जोईए तो कुलक, चूलिका, विज्ञप्तिका, षट्त्रिंशिका, गीत, छप्पय, स्तोत्र,स्तवन, एवा विविध प्रकारो आ संग्रहमां छे. छन्दोवैविध्य जूज छे. मुख्यत्वे आर्या के गाथा, अनुष्टप, शार्दूल जेवां त्रण-चार छन्दो छे. एक रचना छप्पय छन्दमां छे. अपभ्रंश रचनाओमां तदनुरूप छन्दप्रयोग छे. भाषाओ संस्कृत, प्राकृत (मरहट्ठी) अने अपभ्रंश एम त्रण प्रयोजाई छे. क्रमाङ्क १, २, १३, २३, ३२ ए पांच रचनाओ संस्कृतमा छे. क्र. १०, ११, २७, २८, ३०, ३१, ३३ - ए रचनाओ अपभ्रंशमां छे. तो ते सिवायनी २२ रचनाओ प्राकृत भाषाबद्ध छे. रचनाकार पासे साहित्य ज्ञान खूब ऊंचुं छे. भाषाबोध तथा शब्दभंडोळ पण विपुल मात्रामां छे. रजूआतनी शैली कहो के कसब, ते पण मर्मस्पर्शी छे. वैराग्यनो बोध आपवामां कर्ता खूब निपुण पण छे, भावुक पण. पोतानी निन्दा के स्वदोषवर्णन करतां पण तेमने जरा पण खचकाट थतो नथी. तेथी तेमनी प्रस्तुति एकदम सरल, भाववाही तथा असरकारक बनी जती जणाय छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ तेमनी बधी रचनाओ पर एक ऊडतो दृष्टिपात करीए : रचना क्र. १ नुं शीर्षक छे आत्मतत्त्वचिन्ताभावनाचूलिका. आमां 'जीव' ने उद्देशीने आपवानो उपदेश छे तेना बीजा पद्यमां कर्ता चोखवट करे छे के "हुं वक्ता नथी. कवि नथी. सज्जनोनुं ध्यान खेंचाय तेवी कशी विशेषता पण मारी पासे नथी. हुं आमां नवी कोई ज वात कहेवानो नथी; छतां हुं जे कहुं ते (तमे) सांभळजो जरूर. " ३ आ ज मुद्दाने वधु ममळावता कर्ता त्रीजा - चोथां पद्योमां कहे छे: "काव्य ते व्युत्पत्ति करावतुं (व्युत्पन्न बनावनाएं), 'रस' - रूपी प्राणनुं मन्दिर, 'वक्रोक्ति' नुं धाम अने 'वैदर्भी' नामक भाषा - रीतिना नृत्यमण्डप - समान पदार्थ छे. शब्द - अर्थना सोहामणा गुंफ जेवा अने 'प्रसाद' रूप अमीरस छलकता आवा काव्यनी रचना तो गुरु-तुल्य कोईक व्यक्ति ज सहजभावे रची शके छे; अर्थात्, मारुं - मारा जेवानुं तेमां काम नथी; हुं तेवुं कांई (काव्य) रचवा शक्तिमान नथी ज." "परन्तु ज्यारे तत्त्वदृष्टिथी विवेक केळवाय छे, त्यारे आ बधुं ज (काव्यरचनादि ) वृथा भासे छे; केमके तेनी मददथी आपणुं चित्त कांई संसारनो उच्छेद करवा सक्षम नथी बनतुं ! (पद्य ५ ) " प्रारम्भ ज एटलो उत्तेजक अने रसप्रद बन्यो छे के आखी रचना वांचवा भावक ललचाय ज. पद्य १४ मां सूरः ना स्थाने सूरोऽ एम सुधारो कर्यो तो छे, पण ते उचित छे के केम, ते विषे मन साशङ्क छे. आ कृतिमां २१मुं पद्य मन्दाक्रान्ता छन्दमां छे. २४ पद्यो धरावती आ कृतिमां क्यांय तेनुं शीर्षस्थ नाम गुंथायेलुं नथी. एम लागे छे के दरेक कृतिना आरम्भे तथा अन्ते, पोथीना लेखके, आमां लखेलां कृतिनामो लख्यां होवां जोईए. जोके घणी कृतिओमां कृतिनुं नाम गुंथी दीघेलुं जोवा मळे पण छे, अने तेवे घणे ठेकाणे श्री नाहटाजीए शीर्षक प्रयोज्यं होय तो ते बनवाजोग छे. २. बीजी रचनानुं नाम छे 'आत्मानुशास्ति' तेना अन्तिम श्लोकमा आ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ नाम जोवा मळे छे. कर्ता स्वयं तेने 'संवेगामृतभावना' तरीके ओळखावे छे. आनो प्रारम्भ ज केवो वेधक छे ! कर्ता कहे छे के "प्राकृतनो वा संस्कृतनो - कोई पण पाठ काम आवे तेम नथी. जे थकी संवेग अने वैराग्य प्रगटे, ते ज साचो रहस्य-पाठ गणाय." लागे छे के कर्ता वैराग्यभावनी तीव्र संवेदनाथी छलकाता हशे. १५मा पद्यमां श्रीजिनेश्वरसूरिनुं तथा तेमना रचेला ग्रन्थ 'आत्मानुशासन'नुं स्मरण करी तेनुं अवगाहन करवानी शीख आपे छे. ते रचनामां वैराग्यनो हृदयस्पर्शी बोध हशे, अने कर्ताना चित्त पर तेनी गाढ असर पडेली हशे, तेम मानी शकाय. १७मा पद्यमां 'कोट्या गृह्णन्ति काकिनीम्' पद छे, तेमां 'कोटी'शब्द आपणे जेने 'कोडी' (रमवानी कोडी) कहीए ते अर्थमा प्रयोजायो छे, त्रीजी रचनामां श्रीऋषभदेव भगवान प्रत्ये कर्ताए अत्यन्त दीनभावे, पोतानी करुणाजनक स्थिति, हृदयद्रावक वर्णन करवापूर्वक पोताने संसारथी उगारवा माटेनी करेली विज्ञप्ति छे. ३० प्राकृत पद्योमा छवायेली विज्ञप्तिका खरेखर हृदयने भावाई बनावी मूके तेवी छे. चोथी रचना छे 'अप्पाणुसासणं' - आत्मानुशासन. पोताना आत्माने एक भवभीरु अने आत्मार्थी आचार्य केवी रीते शिक्षा आपे छे, तेनो ख्याल, आ,अपेक्षाकृत दीर्घ रचनानी, केटलीक गाथाओनो अभ्यास करतां आवी शके प्रारम्भे ज बीजी गाथामां सरस्वती देवीनी स्तुति कर्ताए अलग ज अंदाजमां करी छे : "गीत, अमृत अने इष्ट (वहाली व्यक्ति), आमांनी एक पण वस्तु एवी मीठी नथी लागती, जेटली कोई उत्तम पुरुषना मुखमांधी प्रगटती भारती देवी (वाणी) मीठी लागे छे !" एक ज वाक्यमां वाणीनी अने सज्जननी केवी मधुर स्तुति ! वैराग्यनी अने आत्मानी वातो निरन्तर कर्या करनारा जनोने कर्ताए Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ केवा टपार्या छे ते जुओ : 'उपशम, विवेक अने संवर' आ ३ पदोना अर्थने कोण नहि जाणतुं होय ? परन्तु आ ३ पदो सांभळीने चिलातीपुत्रने जेवू आत्मभान थयुं तेवू बीजा कोईने थयुं होय तेवू सांभळ्युं नथी ! (गा. ३) "तत्त्वनुं व्याख्यान धणा करे छे; सांभळे छे; जाणे छे ने माधुं पण डोलावे छे; पण रोमहर्षपूर्वक, ते थकी कोईनो मनोवेध थयो-थतो होय तेवू ज जोवा मळतुं नथी !" (गा. ६) "जे लोको बोले छे के 'हे लोको, प्रमाद-शत्रुने तमे बराबर छेतरजो, ताबे न थता; ते लोको ज प्रमादने परवश पडता जोवा मळे छे; हुं कोने शु कहुं ?" (गा. १०) "वातो करती वेळाए 'बधुं अनित्य छे' एवं सहु कोई बोले छे, पण हैयामां तेमने ते वातनो बोध थतो होय तेवू जणातुं नथी; अन्यथा, तेमना मनवचन-कायानां कृत्योमां साव विरोधाभास केम होय ?" (गा. १२) समकालीन मुनिजीवनना प्रमुख दोषोनुं वर्णन कर्तार आ शब्दोमां कर्यु छे : "क्रीत दोष, आधाकर्म दोष, नित्य एकस्थानमा रहेवू, गृहस्थो पर ममत्व, विपुल परिग्रह- आ पांच साधुओने वळगेला दोषो छे. आमांनो एकेक दोष पण भारे छे, तो जेनामां ते बधा दोष होय, तेनी तो वात ज शी करवी ? जे साधु आ बधा दोषोथी पर छे, तेने मारो नमस्कार हो !" (गा. ३४-३५) गा. ३६मां कर्ता पारकी चिन्ता छोडीने पोतानी वात करवानी सूचना पोताने आप्या पछी, आगळनी थोडीक गाथाओमां पोतानी अंगत वात वर्णवे छे : "हुं पण आवो ज छु. परन्तु मारी टेक छे के शुद्धमार्गनी ज प्ररूपणा करवी; आथी हुँ संविग्नपाक्षिक बनीने मारी जातने धन्य अनुभवू छु, बीजा कोईने आ वातनी प्रतीति थाय के न पण थाय; पण मारो आत्मा तो आ वातमां साक्षी छे ज. मने एक ज वातनुं दुःख छ के हुं वाणीथी जे बोलुं छु ते प्रमाणे काया थकी लेश पण आचरण करतो नथी." (गा. ३७-३९). पोतानी घेरी मनोव्यथा व्यक्त करतां कर्ता एक हलावी मूके तेवी वात करे छे : "दिवस तो गमे ते रीते पसार थई जाय छे, पण रात वीताववी बहु कठिन पडे छे; मारा आत्मानु शुं थशे? तेनी तालावेलीमां - चिन्तामां,अल्प Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ जलमा माछलीनी जे हालत थाय तेवी मारी हालत थाय छे." (गा.४४) आत्महित-चिन्तामां सर्वभावे सरी पडेला कर्ता पोतानी वात केटली सहज सरलताथी करे छे ते जोवा जेतुं छे. कहे छे :"आवी (उत्तमअनित्यादि) भावना भावतो होउं ने मारुं मृत्यु जो आवी जाय तो हुं खूब धन्य होईश; बीजुं कांई मने जोईतुं नथी."(गा. ४९) "कोईवार कर्माधीन एवा मारा चित्तमां, भावनानुं आ अमृत न उल्लसे तो भले; पण बीजाओने ते भावना भावता जोईने पण, क्यारेक हुं तेने बूंटुं, एव॒ये बने तो केटलुं सारं थाय !" (गा. ५०) गा. ४५-४६ वे अपभ्रंशमां छे. गा. ३२ मां बे चूलिकानुं चिन्तन करवानी शीख आपी छे ते दशवैकालिक सूत्रनी अन्तिम बे चूलिका विषे हशे तेम अटकळ थाय छे. ५६ गाथानी आ रचना वि.सं. १२३९ना वैशाख शुदि पांचमना दिने रच्यानो उल्लेख गा. ५६मां छे. रचना, समग्रपणे, प्रेरणादायी अने भावनानो उल्लास जगाडनारी छे.. ५-६. पांचमी रचनाने 'हितशिक्षाकुलक' नाम आपेल छे. ते प्राकृत तथा अपभ्रंश-उभय भाषानी मिश्र रचना जणाय छे.पोताना आत्माने उद्देशीने आपेली शीखामण आमां पद्यबद्ध थई छे, जे मननीय छे. छठ्ठी रचना 'संवेगचूलिका' छे. आमां स्त्री-शरीरासक्त मनुष्यने, स्त्रीनां अंगोनां बाह्य स्वरूपने जोतां जेटलो उल्लास ऊपजे छे, तेनी सामे, ते ज अंगोनां आन्तरिक स्वरूपनां दर्शन थाय तो तेनी दशा केवी थाय तेनुं वर्णन करतां, वैराग्यनो बोध आपवामां आव्यो छे. ७-१३. आ तमाम रचनाओ श्रीनेमिनाथ तथा श्रीपार्श्वनाथनां विज्ञप्ति-स्तोत्रात्मक रचनाओ छे. आमां १०-११ बे रचनाओ अपभ्रंशमां छे, १३मी रचना संस्कृतमा छे. ९मी रचनामां कर्ताए शृङ्खलायमक ( प्रत्येक गाथानां चारेचार पदोमां) नियोजीने पोतानुं अलङ्कारपाण्डित्य तथा रचनाकौशल्य प्रगटाव्युं छे. ११मी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ रचनामां गा. ६मां करेलो अणहिलवाड नो उल्लेख तथा वर्णन जोतां, पाटणना नेमिनाथ-चैत्यने अनुलक्षीने थयेली ते रचना जणाय छे. १२ मा स्तोत्रमा भगवाननी अनेकविध पूजा सरस वर्णन थयुं छे, जे ते कालमां पण आ बधा पूजाप्रकारो चलणमां होवानो संकेत आपी जाय छे. प्रभुनी रत्नादिथी आंगीनो उल्लेख जेने 'शृङ्गार' (गा. ५) तरीके ओळखावेल छे, ते नोंधपात्र छे. न्हवण, विलेपन, मण्डन, उद्ग्राहण, धूप, वस्त्र, वाद्य, गीत, नाट्य आदि अनेक प्रकारोनो आमां निर्देश छे. पोताना गुरु श्रीधर्मसूरिनी गुणस्तुतिरूप आ रचना ३६ पद्योमां विस्तरेली छे. समग्र रचनानुं अवलोकन करतां ते एक विरह-रचना होय अने आचार्यना स्वर्गगमन बाद तुरतमां रचवामां आवेल होय तेवी छाप पडे छे. कर्तानो गुरु प्रतिनो लगाव आवा शब्दो द्वारा छतो थाय छे : "हे प्रभु ! आ जगतमां मारु प्रिय काई होय, मारा माटे मंगलकारी काई होय, के मारा माटे श्लाघास्पद काई होय तो ते फक्त तमे अने तमे ज छो; तमारा सिवाय काई नथी." (गा. १४). गुणकीर्तनमा क्वचित् अतिशयोक्तिभर्यु वर्णन थाय तो ते पण क्षम्य छे, एम कही शकाय. कवि गा. ११ मां गुरुनी गच्छ-संचालन-क्षमतानुं वर्णन आम करे छे : "स्वामिन्! तमे गच्छरूप समुद्रने एवी तो मर्यादामां बांधी राखीने पाळ्यो छे, के तेने लीधे ते (गच्छ) ते ज भवमां के पछी त्रीजा भवमां मोक्षे जाय ज." समग्र ट्त्रिंशिकामां वीखरायेला पडेला ऐतिहासिक तथ्यो कांईक आवां छे : १. एमणे गुणचन्द्र नामना वादीने जीत्यो हतो (गा. ७)२. राजसभामां तेओ वादमां वादीओने जीतता हता (गा. १८). ३. एक प्रहरमां ५०० गाथा याद करी शके तेवी तेमनी प्रज्ञा हती (गा. १६). ४. तेमणे घणी जिनप्रतिमाओनी प्रतिष्ठा करी हती (गा. १७). ५. तेमनां मातानुं नाम 'लक्ष्मी' हतुं (गा. २५). ६. ९ वर्षनी वये दीक्षा लीधी; ९ वर्षना संयमपर्याय पछी सूरिपद पाम्या; ६० वर्ष सूरिपद भोगव्यु, ७८ वर्ष आयु पाळी, संवत् १२३७ ना भादरवा शुदि एकादशीने सोमवारे तेओ स्वर्गस्थ थया हता (गा. ३३-३४). Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ १५-१६. क्र. १५नी रचना पाछी आत्महितचिन्ता-विषयक कुलकरूप रचना छे. प्रथम गाथांगत 'अप्पहियं' शब्द आ नाम-परक छे. ३२मां पद्यमां 'कुलक' शब्द पण छे ज. गा. ६मां 'दुरंजो' शब्द 'दुःखे रंगी शकाय' के 'रंगवो दुष्कर' एवा अर्थमां प्रयुक्त छे, ते ध्यानार्ह लागे छे. क्र. १६ नी रचना 'मनोनिग्रहभावना' नामे छे. आ नामनुं सूचन प्रथम गाथामां तेमज ४४ मी गाथामां प्राप्त छे. कर्ता मननी विषमतानुं वर्णन आम करे छे : “ज्यां सुधी केवलज्ञान सांपडे नहि त्यां सुधी, मननो निग्रह थई जाय तो पण, विश्वास कराय नहि." (गा. ७). "कोई इन्द्रजालिक (जादुगर) कोई पण चीज आपणी सामे लावीने देखाडे, पण ज्यां आपणी मुठीमां मूके त्यां ज ते चीज नष्ट थती होय छे; तेनी जेम, 'मन' नामनी चीज, संयम रूपी मुठीमां घणा प्रयत्न वडे पकडी लईए तो पण, ते कोई पण पळे पार्छ छटकी शके छे." (गा. १५-१६). गा. ३६-३७ मां कर्ता पोतानी मन-विषयक विडम्बनानुं निखालस वयान करता जणाय छे. १७. आ रचना गुरुभक्तिनो महिमा वर्णवती रचना छे. आमां केटलीक वातो वांचीने हेरान रही जवाय छे. कर्ता कहे छे : "कोईक वार एवं बने के शिष्य, गुरु करतां अधिक गुणसंपन्न होय; तो पण, तेवा शिष्ये पण, ते गुरुनी आज्ञा शिरोधार्य करवी ज जोईए" (गा. ३). "गुरु कठोर शिक्षा करे; नानी भूल बदल पण मोटी रीस करे; कर्कश वेण कहे; क्यारेक दंडवती मारी पण दे; वळी, ते गुरु सुखशील अने प्रमादी होय तो पण, शिष्योए तो तेमने देवनी जेम ज पूजवामानवा जोईए" (गा.४-५). "गुरुना इंगितने समजीने चाले ते ज 'शिष्य'. जेने वाणीथी टोकवो के आदेश करवो पडे, ते तो 'नोकर' गणाय !" (गा.६). "जे प्रत्यक्षमां के परोक्षपणे, गुरुनो अवर्णवाद करे, तेने जन्मान्तरमां जिन-प्रवचन दुर्लभ बने छे." (गा. ८) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ साधुचर्यामां आवता 'बहुवेलं' ना आदेशो परत्वे समजण आपतां कवि लखे छे : "खंजवाळवं, थूकवू, श्वास लेवा-मूकवा, इत्यादि लघु कार्यो माटे 'बहुवेलं'ना आदेश छे; बाकी तो अन्य कोई पण क्रिया के कार्य करवानां होय त्यारे दरेक वखते पूछीने-रजा लईनेज ते करवानां छे. एक काम अंगे पूछीने बे-त्रण बीजां काम पण साथे करी लेवाय नहि, एवी साधुनी मर्यादा छे" (गा. १६-१७). "गुरुनी आराधनाथी वधीने कोई अमृत नहि, अने तेमनी विराधनाथी वधीने कोई विष नथी" (गा. २८) समग्रपणे समजवालायक रचना. १८-१९. पण्डितमरणनी अभिलाषावाळाने मार्गदर्शनरूप अढारमी 'पर्यन्ताराधनाकुलक' नामे रचना छे. क्र. १९मी रचना 'उपदेशकुलक' ते संसारनी नश्वरता वर्णवती वैराग्योत्पादक रचना छे. कर्तार्नु समग्र संवेदन प्रधानतया वैराग्यवाहक होवार्नु आ बधी रचनाओ थकी स्पष्ट छे. २०-२१. आ बन्ने क्रमश: नेमिनाथजिन तथा श्रीपुण्डरीकस्वामी गणधरना स्तोत्रो छे, जे वारंवार वागोळवां गमे तेवां छे. २२. 'श्रीअणहिलपुर रथयात्रा स्तवन' शीर्षकनी आ रचनामां, रथयात्राना धार्मिक उल्लासना वर्णन उपरांत, कोई ऐतिहासिक तथ्यनोंध न होवा छतां, आ लघु रचना ऐतिहासिक एटला माटे छे के तेमां वर्णित रथयात्रा खुद कुमारपाल राजा द्वारा काढवामां आवेली होवानो तेमां इशारो सांपडे छे (गा. ५ तथा १०). मतलब के आ रचना सं. १२२९ करतां पूर्वे रचवामां आवेली छे. रथयात्रानुं वर्णन खूब उद्दीपक तथा अहोभावभर्यु थयुं छे. २३. २४. शार्दूलविक्रीडित छन्दमां निबद्ध आ संस्कृत रचना भारतीदेवीना स्तोत्ररूप रचना छे. आमां अशुद्धिनुं प्रमाण वधु जणाय छे. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ क्र. २४ ते भरूचमण्डन श्रीमुनिसुव्रतजिननी स्तोत्र-रचना छे. प्राकृत भाषामां छे. २५. आ रचना नामे 'बावत्तरि जिन स्तवन' अर्थात् 'कुमारविहारस्तवन' ए एक ऐतिहासिक तथ्यने उजागर करती महत्त्वपूर्ण रचना छे... पाटणमां राजवी कुमारपाल द्वारा निर्मित 'कुमारविहार' नामे जिनचैत्य होवानुं तो इतिहास-प्रसिद्ध छे. सम्प्रदाय प्रमाणे तो तेमां मुख्य प्रतिमा सोनानी होवानुं ख्यात छे. परन्तु ते जिनालय कया प्रकार- हतुं तथा तेमां कुल केटली जिनप्रतिमाओ हती, अने ते कया कया जिननी हती, ते बधी विगतो क्यांयथी प्राप्त नथी थई. ते बधी विगतो आ स्तोत्र द्वारा कर्ता तरफथी मळे छे, जे एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि गणाय. आ स्तोत्र प्रमाणे, कुमारविहारमा ७२ प्रतिमाओ हती, जेमां प्रत्येक देरीमा ३-३ प्रतिमाओनो समावेश थयो हतो. तेमां जैन परम्परा अनुसार अतीत चोवीशीना, वर्तमान चोवीशीना तथा अनागत चोवीशीना - एम त्रणे चोवीशीना एक एक जिननी प्रतिमाओ एक एक देरीमां प्रतिष्ठित हती, तेम फलित थाय छे. त्रणे काळना, प्रथम जिनोनी ३ प्रतिमा एक देरीमां, द्वितीय त्रण जिनोनी प्रतिमाओ एक देरीमां, एम सम्भवतः २४ देरीओमां थईने २४ x ३=७२ प्रतिमाओ प्रतिष्ठित हती. ते ७२ तीर्थंकरोनां नामो आ स्तवनमा कर्ताए आलेख्यां छे. आवी ऐतिहासिक तथ्यात्मक विगत आपणने आपवा बदल कर्तानो उपकार मानीए तेटलो ओछो छे. अने हा, आखाये स्तोत्रमा क्यांय सोनानी प्रतिमा होवानो अछडतो पण निर्देश मळतो नथी. लागे छे के जो तेवी प्रतिमा होत तो कर्ता तेनी नोंध अवश्य लेत. २६. क्र. २६ ते श्रीपार्श्व-जिनस्तवनरूप रचना छे. कर्ताने नेमिनाथपार्श्वनाथ प्रत्ये विशेष लगाव होय तेम जणाई आवे खरं. २७. 'श्रीधर्मसूरिदेशना-गुणस्तुति' नामे आ २७ मी रचना, कर्ताना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ गुरुजीनी देशना (प्रवचन) मां वर्तता गुणोनुं वर्णन आपे छे. श्रीधर्मसूरिना गुरु श्री शीलसूरि हता, तेम प्रथम गाथाथी स्पष्ट थाय छे. रचना अपभ्रंश भाषामय छे. पोताना गुरु धर्मसूरिनी देशनाशक्तिनुं वर्णन करतां कर्ता कहे छे के "केटलाय नवयुवानो, जुवान पत्नीओनो त्याग करीने दीक्षा लई ले छे धर्मसूरिनी देशना सांभळीने. " (गा. १३) "धर्मसूरिनी देशनाथी, सुवर्णदण्डमण्डित अनेक विधिचैत्योनी स्थापना थई" (गा. १४ ) . २८-३२. आ पांच रचनाओ श्रीशङ्खेश्वर पार्श्वनाथनां स्तोत्रो छे.क्र. २८, ३०, ३१ त्रण अपभ्रंशमां, क्र. ३२ संस्कृतमां, क्र. २९ प्राकृत भाषामां छे. क्र. २९नी गा. क्र. २ मांनुं "रन्नम्मि सग्गसरिसं " ए पद, शङ्खेश्वर- क्षेत्रनी तत्कालीन स्थितिनो संकेत आपी जतुं जणाय छे. - ११ ३३. क्र. ३३ नी रचना 'श्रीधर्मसूरिछप्पय' नामे गुरुस्तवनात्मक रचना छे. 'छप्पय' छन्दनो श्रेष्ठ विनियोग कर्ताए कर्यो छे, छप्पयनो उपयोग केटला प्राचीन काळथी आपणे त्यां थयो छे, ते आ रीते जाणवा मळे छे. अपभ्रंश भाषा अने छप्पय - बेनो सुमेळ अद्भुत थयो छे. कर्ताना गुरु श्रीधर्मसूरि, 'चन्द्रगच्छ 'ना हता, ते स्पष्टता प्रथम छप्पयनी प्रथम पंक्तिथी थाय छे. छप्पय क्र. ३मां प्रयोजायेल 'जिण रि' शब्दनुं आवर्तन, तो क्रा ७मां 'अरि रि' पदनुं पुनरावर्तन काव्यने चमत्कृतिथी भरी दे छे. ३४. आ संग्रहना अन्तिम एवा ३४मा स्तोत्रमां कर्ताए शासनदेवीनी स्तुति करी छे. तेमां कर्ताए शासनदेवी समक्ष, शिष्यगणसमेत पोताना गुरुने शान्ति करवानी प्रार्थना करी छे (गा. ३). तो गा. ५ मां देवीनी विविध उत्तम पदार्थो वडे पूजा करवानी वात पण करौ छे. आम, आ पोथीनी रचनाओनुं अछडतुं अवलोकन अहीं समाप्त थाय छे. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ आ तमाम लघु रचनाओना कर्ता श्रीरत्नसिंहसूरि छे, जे लगभग तमाम रचनाओना छेवाडे आवता नामाचरण थकी निश्चित छे, तेमनी परम्परा चन्द्रगच्छनी होवानुं 'धर्मसूरि छप्पय' नामक रचना द्वारा स्पष्ट ज छे. "जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास" (ई. १९३३, कर्ता : मो.द.देशाई, मुम्बई)ना पृष्ठ ३२४ मां मळता उल्लेख प्रमाणे, "चन्द्रगच्छना धर्मसूरि-रत्नसिंहसूरि-देवेन्द्रसूरिना शिष्य कनकप्रभे हैमन्याससारनो उद्धार कर्यो छे." कर्ताए सं. १२३७, १२३९ जेवी संवतो नोंधी छे उपरांत 'कुमारविहार' तेमज 'कुमारपालनी रथयात्रा'नुं वर्णन पण ते आपे छे, तेथी तेओ १३ मा शतकना पूर्वार्धमां विद्यमान होवानुं निश्चित थाय छे. क्र. १६, २१, २२, २५, ३३ - आ पांच रचनाओमां कर्तानुं नामाचरण 'पउमनाह' एवं जोवा मळे छे. आ ५मां 'कुमारविहार' वाळी अने 'रथयात्रावर्णन' वाळी रचनाओ पण समाविष्ट छे. एटले एवा अनुमान पर आववानुं थाय छे के कर्ता- दीक्षानुं मूळ नाम 'पउमनाह-पद्मनाभ' होवू जोईए, अने सूरिपदप्राप्ति-वेळाए तेमने 'रत्नसिंहसूरि' नाम आपवामां आव्युं होवू जोईए. वळी, सं. १२३० पूर्वे तेओ 'पउमनाह' तरीके ओळखाता हशे, अने ते गाळामा तेमने गणिपद पण मळ्युं हशे, जेनो संकेत २५ क्र.नी कृतिमांना 'पउमनाहगणिणा' एवा पदथी मळे छे. अने १२३० थी १२३७ ना वचगाळामां क्यारेक तेओ सूरिपदारूढ थया होवा जोईए. क्र. २७ वाळी रचनामां कर्ताना नामनो उल्लेख जोवा नथी मळतो, ते नोंधपात्र छे. अत्रे आपवामां आवेल आ रचनाओनी अनुक्रमणिका पण श्री अगरचन्द नाहटाए ज तैयार करेली छे, ते स्पष्टता करवी जोईए. प्रान्ते, वाचकवर्ग आ रचनाओने खूब माणशे तेवी आशा. चपात्र छ. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ १३ सूचनिका क्रम आदिपदः गाथा कृतिनामः कर्ता ताड पृष्ठवंक संख्या पत्रांक १. कल्याणशस्यपाथोदं २४ आत्मचिन्ताभावनाचूलिका रत्नसिंहसूरि १ २. प्राकृतः संस्कृतो वापि २५ आत्मानुशास्ति रत्नसिंहसूरि ४ ३. जय जय भुवण दिवायर ३० ऋषभदेव विज्ञप्तिका रत्नसिंहसूरि ६ ४. सिरि धम्मसूरि सुगुरुं ५६ अप्पाणुसासणं रत्नसिंहसूरि १० सं. १२३९ वै.सु. ५ अणहिलपुर ५. जइ जीव तुज्झ सम्म १२ हितशिक्षाकुलक। रत्नसिंहसूरि १६ ६. नारीण बाहिरंगे १२ संवेगचूलिका कुलकम् । रलसिंहसूरि १८ ७. अमियमऊहं नेमि १३ नेमिनाथ स्तोत्र रत्नसिंहसूरि १९ ८. मंगलवरतरुकंदं ११ श्रीपार्श्वनाथ स्तोत्रम् रत्नसिंहसूरि २१ ९. सिरिपास तिजयसुंदर १३ श्रीपार्श्वनाथ स्त० रत्नसिंहसूरि २२ १०.जय जय नेमि जिणिंद तुहु १३ श्रीनेमिनाथ स्त० रत्नसिंहसूरि २३ ११.जय जय नेमि जिणंद पहु ८ श्रीनेमिनाथ स्त० रत्नसिंहसूरि २५ अणहिलवाडा १२.सिरि नेमिनाह सामिय १२ श्री नेमिनाथ स्त० रत्नसिंहसूरि २६ १३.मूर्तयस्ते ८ श्रीनेमिनाथ स्तोत्र रत्नसिंहसूरि २७ १४.जयइ स जएक्कदोवो ३६ श्रीधर्मसूरिगुणस्तवन षट्त्रिंशिका '' १५.नियगुरुपायपसाया ३२ आत्महितचिन्ताकुलक रत्नसिंहसूरि ३२ १६.सिरिधम्मसूरिपहुणो ४४ मनोनिग्रहभावनाकुलक पउमनाह । १७.नमिउं गुरुपयपउमं ३४ गुरुभक्ति कुलक रत्नसिंहसूरि ४० १८.सुहिओ वा दुहिओ वा १६ पर्यन्तसमयाराधनाकुलक ४४ १९.चिंतसु उवायमेसं २६ उपदेश कुलक रत्नसिंहसूरि २०.सयलतियलोकतिलयं २७ नेमिनाथ रत्नसिंहसूरि ४८ २१.पणमिय पढमजिणंद १० श्रीपुंडरीकगणधर स्तोत्र । पउमनाह २२.सिरिचरिमतित्थनाहं ११ अणहिलपुर रथयात्रा स्त० पउमनाह ५२ २३. यन्नामस्मृतिरप्यशेष ९ श्रीभारती स्तोत्र रत्नसूरि २४.तिहुयणजणमणलोयण १३ श्रीभरुयच्छमुणिसुव्रत स्त० रत्नसूरि २५. चउवीसंपि जिणिदे १४ बावत्तरिजिनकुमर विहार स्त० पउमनाहगणि ५६ २६.जय जय पास सुहायर १५ पार्श्वजिन स्त० । रत्नसिंहसूरि ५७ २७.सिरिसिलसूरिगुरु गणहरह २१ श्रीधर्मसूरिदेसणागीत ४६ ५२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ २८.जयजय संखेसर तिलय १३ श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त० २९.सिरि संखेसरसंठिय निट्ठिय १३ श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त० ३०.संखेसर पुरसंठिय पासह ९ श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त० ३१.संखपुरे सिरि वंदहु देउ ९ श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्त. ३२.यस्त्रैलोक्यगतं ततं गुरुतम ११ श्रीसंखेश्वर पार्श्व स्तोत्र ३३.सिरिधम्मसूरिचंदो ९ श्रीधर्मसूरि छप्पय . ३४.चउवीसंपि जिणिदे १० शासन देवी स्तोत्र श्री रत्नसिंहसूरि ६१ श्री रत्नसिंहसूरि ६३ श्री रत्नसिंहसूरि ६४ श्री रत्नसिंहसूरि ६५ श्री रत्नसिंहसूरि ६६ पउमनाह ६९ श्रीरत्नसिंहसूरि ७२ (१) आत्मतत्त्व चिन्ता भावना चूलिका कल्याणशस्यपाथोदं, दुरितध्वान्तभास्करं । श्रीमत्पार्श्वप्रभुं नत्वा, किञ्चिज्जीवस्य दिश्यते ॥ १ ॥ नाहं वक्ता कवि:व, सतां नाक्षेपकः क्वचित् । अपूर्वं नैव भाषिष्ये, श्रव्यं किञ्चित्तथापि मे ।। २ ।। व्युत्पत्तेर्भाजनं काव्यं, रसप्राणस्य मन्दिरं । वक्रोक्तेः परमं धाम वैदा लास्यमण्डपः ॥ ३ ॥ शब्दार्थयोः परो गुम्फः प्रसत्तेस्तु सुधारसः । गुरोस्तुल्येन केनापि, दृभ्यते लीलया स्फुटम् ॥४॥ सर्व्वमेतद्वथा मन्ये, तत्त्वबुद्ध्या विवेचयन् । यतः कर्तुं भवोच्छेदं, चेतश्चेन प्रगल्भते ॥ ५ ॥ संसाराऽनित्यता धन्य ! त्वया स्वतोऽन्यतोऽपि वा । दृश्यते ज्ञायते भूयः श्रूयते चानुभूयते ।। ६ ।। भोगतृष्णाकृतध्यानै-रसम्पूर्णमनोरथैः । जलबुद्धदसादृश्यं प्राप्य कैः कैर्न गम्यते ॥ ७ ॥ जैनधर्मगुणोपेतां, सामग्री प्राप्य निर्मलाम् । धर्मोद्यमस्तथा कार्यः प्रमादो न यथा भवेत् ।। ८ ।। भावितात्मा क्षणं भूत्वा स्थित्वैकान्ते समाहितः । नाशावंशे दृशौ धृत्वा भाव्यमित्थं मुहुर्मुहुः 11 ९ ।। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ आयातोऽस्मि कुतः स्थानद्गन्तव्यं क्व पुनर्मया ? । सुखदुःखविधौ हेतुः को वा तत्र भविष्यति? ॥ १० ॥ पुण्यं पापमिहोपात्तं ध्रुवं परत्र भुज्यते । इति मत्वा महाभाग ! प्रमादो नैव युज्यते ॥ ११ ॥ क्वेदं ते मानुषं जन्म चिन्तितार्थप्रसाधकं । धर्मसाधनसामग्री कासौ सर्वापि हस्तगा ।। १२ ।। तूर्णं तूर्णं तु धावंस्त्वं, कृत्यकोटिसमाकुलः । विस्मृत्य पृष्टतः कोटी, पुरः पश्यसि काकिनीम् ।। १३ ।। सूरः(रोऽ) कातरतां यातो जैनैरूचे स उत्तमः । एतद्द्वयविहीनस्तु मध्यमः प्रणिगद्यते ॥ १४ ॥ मिथ्यादृक्, श्रावको, भव्य-श्चारुचारित्रवान् यतिः । जानीहि व्यवहारेण, मध्यमोत्तमहीनकान् ।। १५ ।। के के वैराग्यसंवेगौ नाख्यान्ति घोषयन्ति च । व्यङ्ग्यौ तौ बाष्परोमाञ्चैः पुण्याद्वर्षेषु कस्यचित् ।। १६ ॥ वर्षेपि बहुशः स्यातां नित्यं तौ वा महात्मनः । उत्थायोत्थाय तस्याऽऽस्यं द्रष्टव्यं पुण्यमिच्छुभिः ।। १७ ।। जानन्तः शतशो व्यर्थं शमादेवं हवो (शमादेर्बहवो ?) जनाः । यतो वैराग्यसंवेगौ तमर्थं तु न जानते ॥ १८ ।। दैवादात्मन्नहं जाने प्रमादीति यदि स्वकं । तथाप्युद्यन्तुमासेव्यः सदा स्वान्तेन कन्दलः ॥ १९ ।। माऽवधीरय मे वाचं कुरु किञ्चित्तथाविधम् । जन्मान्तरं गतो येन वत्स वत्स ! न शोचसि ॥ २० ॥ हंहो चेतः ! प्रकटविकटं मोहजालं किमेतच्छून्यालापैः प्रलपितमिदं कार्य हीनं विजाने । स्मारं स्मारं किमिति मुषितं सुप्रसिद्धं यदेतत् भोज्यातस्य क्षुदपगमनं दृष्टमात्रे न भोज्ये ।। २१ ।। मज्जिह्वायै ततश्चेतो यच्छादेशं सदाशयः । हित्वा कण्डूलतां वक्तुं मूकत्वं येन सेवते ॥ २२ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ भावानां तत्त्वतः कर्त्तुं न शक्तश्चेत्तथाप्यहम् | रत्न ! धन्येषु मन्ये स्वं यत्तस्यां व्यसनी सदा ॥ २३ ॥ श्रीरत्नोपपदाः सिंहा सूरयो धर्म्ममङ्गलम् । तत्तत् किञ्चित्तथाचख्याः प्राप्यते निर्वृतिर्यथा ॥ २४ ॥ छः ॥ आत्मतत्त्वचिन्ताभावना चूलिका ॥ छ ॥ छ ॥ 2003 अनुसन्धान ४४ (२) आत्मानुशास्ति प्राकृतः संस्कृतो वापि पाठः सर्व्वेप्यकारणम् । यतो वैराग्यसंवेगौ तदेवं परमं रहः ॥ १ ॥ अहो ! मूढं जगत्सर्व्वं भ्राम्यदेव बहिर्बहिः । आकुलव्याकुलं नित्यं धिक्किमाश्रित्य धावति ॥ २ ॥ संप्राप्य शासनं जैनं युक्तं किं मम नत्तितुम् । किंवा प्रमाद्यतो युक्तं रोदितुं मे मुहुर्मुहुः || ३ || आत्मन्नहो ! न ते युक्तं कर्तुं गजनिमीलिकाम् । प्रातर्गतं तु सन्ध्यायां स्थातुं कस्तव निश्चयः ॥ ४ ॥ एतं भवं परत्राहो ! नवं स्मृत्वा प्रमादिनः | बाढमाक्रन्दतो मूढ ! मूर्द्धा यास्यति खण्डशः ॥ ५ ॥ कस्मैचिन्नास्मि रुष्यामि इष्याम्यात्मन एव हि । यद्वच्मि तत्र (न) जानामि तत्सम्बोध्यः परः कथम् ॥ ६ ॥ ये वाचाऽऽरव्यान्ति वैराग्यं यान्ति भेदं न मानसे । ह हा हा ! का गतिस्तेषां कारुण्यास्पदभागिनाम् ॥ ७ ॥ किं करोमि क्व गच्छामि क्व तिष्ठामि शृणोमि किम् । संसारभयभीतस्य व्याकुलं मे सदा मनः ॥ ८ ॥ ध्यात्वा किं वच्मि किं तूष्णीं कोऽहं भीतोऽपि निर्भयः । अहो ! मे नटविद्येयं हहा हुं काप्यलौकिकी ॥ ९ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ . विमुच्य निष्फलं खेदं धर्मे यत्नं ततः कुरु । एवं जातं न चेत्किञ्चिच्छक्तो दैवं न लवितुम् ॥ १० ॥ यः कोपि दृश्यते किं वा श्रद्धानुष्ठानबन्धुरः । तत्रानुमोदनं युक्तं कर्तुं त्रेधापि नित्यशः ॥ ११ ॥ आत्मारामं मनो यस्य मुक्त्वा संसारसंकथाम् । अमोघामृतधाराभिः सर्वाङ्गीणं स सिच्यते ॥ १२ ॥ एवं ध्यानरता येऽत्र तेऽपि धन्या गुणोन्मुखाः । वेषमात्रेण ये तुष्टास्तेऽनुकम्प्या मनस्विनाम् ॥ १३ ॥ उद्यमे धर्तुमात्मानं ध्येयं स्मर्तुं प्रतिक्षणम् । हितं वाञ्छन् जनः सोऽप्येतद्ध्यानपरो भवेत् ।। १४ ।। धर्मं कर्तुं यदीच्छास्ति तदा वीक्षस्व सादरम् । आत्मानुशासनं सूरेः श्रीजिनेश्वरसंज्ञिनः ॥ १५ ॥ संसारानित्यतां बुद्धा ये तिष्ठन्ति निराकुलाः । ते नूनं वह्निना दीप्ते शेरते निर्भरं गृहे ।। १६ ॥ यौवनैश्वर्य-भूपाल-प्रसादप्रमुखैर्मदैः ।। भूयांस: स्वं स्थिरं मत्वा कोट्या गृह्णन्ति काकिनीम् ।। १७ ॥ गतानुगतिको भूत्वा मा त्वं स्वपिहि निर्भरम् । पतन्तं वीक्ष्य कूपेऽन्धं सज्जाक्षस्तत्र कि विशेत् ? ॥ १८ ॥ देहो यन्त्रमिदं मूढा ! बह्वपायं प्रतिक्षणम् । दृष्टान्तं शकटं दृष्ट्वा बुध्यध्वं किं न सत्वरम् ? ॥ १९ ।। हुं हुं हा ! दैव ! धिम् धिग् मे जानतोऽपि न चेतना । बद्धायुः श्रेणिकः किं वा नाऽगच्छन् प्रथमां महीम् ।। २०|| भुक्त्वा ज्ञात्वा च धिग् भोगान् महद्भिनिन्दितं तथा । यथा देही विदेहः सन् निवृत्तौ निर्वृतः कृतः ॥ २१ ।। राकाशशाङ्कसंकाशं प्राप्य जैनेश्वरं वचः । जन्तो ! सद्भावपीयूषं स्तते:(सूते?) स्वान्तविधूपलः ॥ २२ ॥ दृष्टादृष्टैर्मम त्रैधं क्षन्तव्यं सर्वजन्तुभिः । स्वल्पेनाप्यपराधेन सिद्धा मे सन्तु सक्षिणः ॥ २३ ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ सर्वमप्येतदाख्यात-मयोग्यं नैव सेवते । क्षुत्क्षामापि जलौका किं पाषाणं चुम्बितुं स्पृशेत् ? |॥ २४ ॥ सूरिः श्रीरत्नसिंहाख्यः संवेगामृतभावनाम् । चक्रे स्वस्योपकारार्य-मात्मानुशास्तिसंशिकाम् ॥ २५ ॥ छ ।। Hos (३) श्रीऋषभदेव विज्ञप्तिका जय जय भुवणदिवायर ! तिहुयणगुणरयणसायर ! जिणिंद ! । सिरि रिसहनाह ! सामिय ! विन्नत्ति मज्झ निसुणेहि ॥ १ ॥ जोसि तुम जयबंधव ! थुणिओ सुरराय-फणिवइ-गुरूहि । तस्स तुहं नियहिययं पयर्डतो किंपि जंपेमि ॥ २ ॥ भव-भमण-भीरुओ हं किंपि रगन्नो (कंपिरगत्तो?) जिणिंद ! तुह पुरओ। सरिउं पि हु अतरंतो हिययदुहं तहवि साहेमि ।। ३ ।। नरयाईण दुहाणं अच्छउ दूरे कहावि किर ताव । गब्भंमि वि जावत्था कलमलयं सावि तं जणइ ॥ ४ ॥ जेण न पावेमि रई कत्थवि लीणो खणं पि हे नाह ! । ता अहह कुण परितं अणंतसामत्थ ! कारुणिय ! ।। ५ ॥ तुह संपत्ति-रहंगी-रहिओहं नाह ! चक्कवाओव्व । संसारसरे सुइरं भमिओ दीणाई विलवंतो ॥ ६ ॥ मह मण-उदयगिरिमी सूरम्मि व संपयं तए फुरिए । आसासिओ तहाहं जह पुब्बि नेव कइयावि ।। ७ ॥ सिद्धंतभावणाहिं भावितो वि हु सयावि अप्पाणं । भूएण व रागेणं होहामि कहं च्छलिज्जतो ।। ८ ।। वइरसिलाए नूणं मह हिययं नाह ! निम्मियं विहिणा । जं मरणं नाऊणं सयखंडं फुर(ड)इ न तडत्ति ॥ ९ ॥ जम्मंतर-सय-दुलहं सासणमेयं जिणिद ! दुहपत्तं । पत्तं पि पुण न पत्तं पमायरिउकिंकरो जमहं ।। १० ।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ भवकूवमज्जिरेणं हत्थालंबो मए तुमं पत्तो । मोहवसा उव्वलिउं निवडतं अहह मं रक्ख ॥ ११ ॥ जइ सम्मं मह सामिय ! सव्वंगं फुरइ भवदुहसरूवं । ता नीरंपि न पाउं कमइ मणे किं पुणऽनकहा ? ॥ १२ ॥ तुह आणाए सामिय ! एगत्तो अम्ह माणसं फुरइ । अन्नत्तो विसएसुं डमरुयगंठिन किं करिमो ।। १३ ।। पवणपणुल्लिरनीरे रविपडिबिंबं व चंचलं भुवणं । अणुसमयं पि नियंतो जं नवि रज्जामि ही विसया ! ॥ १४ ।। अवहीरिओवि तुमए पत्थेमी तहवि कलुणवयणेहिं । पइ मुक्को अहह भवे सामिय ! होहं कहमहति ।। १५ ॥ अहह ! अहं नो सामिय ! सरणागयवच्छलेवि पई पत्ते । मह जं न परित्ताणं ता हं दीणो कहं होहं ? ॥ १६ ॥ कत्थ कया कह पुणरविमाइ सद्धाइ नाह ! तं दच्छं । ता मज्झ हे दयालुय ! दिट्ठिपसायं पणामेसु ॥ १७ ॥ जं कि पि हु संसारे पगरिसपत्तं मणम्मि सुहज्झेयं । तह जीहाइ थुणिज्जतं पि हु मह नाह ! तं चेव ॥ १८ ॥ तुह पयसेवं मुत्तुं न हु अवरं किंपि नाह ! पत्थेमि । ता किं मं अवहीरसि करुणाभरमंथरं नियसु ॥ १९ ॥ जइ तुडिवसेण तुम्हं नयणंबुयकरपरायपिंजरिओ । होहं कहमवि ता जिण ! ननो धन्नो जए नूणं ॥ २० ॥ तुह सिद्धंतरहस्सं नाउं संवेगसंगयमणोवि । विसएसु जं घुलामी तं सल्लं हलइ महल्लं ॥ २१ ॥ वर्सेतो वि उवाए जमहं न तरामि लंघिउं देव्वं । का तत्थ मज्झ अरई पुणो पुणो तहवि भिज्जामि ।। २२ ।। तुह समयसमुद्दाओ मइमंदरमंथणेण सामि ! मए । उवसमरयणं लद्धं बद्धं नियहिययगंठीए ॥ २३ ॥ तिहुयणरज्जाओ वि हु अहिओ मह जाव फुरइ आणंदो । विसयाइ-तक्करहिं ता हीरइ ही नियंतस्स |॥ २४ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ ता किं करेमि कस्स व कहेमि इय पुण पुणोवि रुंटतं । दुक्खपलित्तं धावइ मह हिययं दससु वि दिसासु ॥ २५ ॥ दीणोसु संतजीहो भमंतनयणो घुलंतसव्वंगो। विसयविसातविओहं हरिणोव्व न निवडिओ कत्थ ? || २६ ॥ दुहदावतावियंगो नहम्मि सुन्ने करे भमाडतो । कत्थवि रइमलहंतो तुह विरहे नाह ! कह होहं? ॥ २७ ।। एयंपि वियाणंतो जं न सहो रंजिउं खणं पि मणं । ता नाह ! कालथक्को ही ही! पविसामि कत्थ अहं? ॥ २८ ॥ इय विन्नत्तिं सोउं जइ अप्पा आरुहइ खणं रंगे। जह नवणीयं जलणे तह ता वियलइ फुडं कम्मं ।। २९ ।। इय तिहुयण-भाल-रयण ! सूरीहिं जिणिंद ! विनविज्जत ! । निरुवमकल्लाणनिहिं कुणसु असेसंपि जियलोयं ।। ३० ॥ छ । . (४) अप्पाणुसासणं सिरि धम्मसूरि सुगुरुं पुणो पुणो पणमिऊण भावेणं । तिहुयणसारं तत्तं अप्पहियं किंपि जंपेमि ॥ १ ॥ गीयं अमियं इ8 नहु मिटुं किंपि जीवलोगम्मि । पुरिसविसेसस्स मुहे जह मिट्ठा भारई देवी ॥ २ ॥ उवसम-विवेय-संवर-पयाण अत्थं न को मुणइ एत्थ? । सुव्वइ न कोइ अवरो चिलाइपत्तो जहा भयवं ॥ ३ ॥ तरतमजोगो भेए रसो पयासेइ धाउविसयम्मि । ता जाव सद्दवेहो अओ परं नत्थि रससिद्धी ।। ४ ।। धाउव्व उवसमाई रसोव्व चित्तं इमाण संजोओ। ता जाव सिद्धि-सिद्धी सो भन्नइ सद्दवेहविही ॥ ५ ।। वक्खाणंति सुणंति य मुणंति तत्तं सिरंपि धूणति । रोमंचवाहइंधं भिज्जइ न मणो न तो किंपि ।। ६ ।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ जो पुण विरतचित्तो भावणवंसग्गसंठिओ होउं । अप्पाणं झूरंतो स इलापुतो धुवं होइ ॥ ७ ॥ मुत्तूण लोयचितं जइ जिय ! झाएसि अप्पणो तत्तं । ता तुह जम्मो सहलो अहवा झूरसि बहुं पच्छा ॥ ८ ॥ भवचारयवेरग्गं विसयाइदुगुंछणं च इच्चाई | वयणे च्चिय सव्वेसि हियए केसिंचि धन्नाणं ॥ ९ ॥ जे एवं जंपंती पमायवेरिं च्छलेह भो लोया ! | ते वि च्छलिज्जति जया तया अहं कस्स किं काहं ? ॥ १० ॥ अन्नोनं जोयंता मन्नंता अत्तणो य धन्नत्तं । संसारइंदयालं दरिसंता जे भांति इमं ॥ ११ ॥ चेयइ न कोइ हियए वयणेहिं अणिच्चयं भणइ सव्वो । अन्नह मण-वइ-काए अन्नोन्नं कह विसंवाओ ? ॥ १२ ॥ एएवि कहं कहगा अत्तपमायं न चितयंति फुडं ? । जं दूसमाइ सव्वं छोढुं वच्वंति वज्जसिरा ॥ १३ ॥ परगरिहं मुत्तूणं अहवा चिंतेसु अत्तणो तत्तं । अन्नह तुमंपि होहिसि पुव्वाणं मूढ ! सारिच्छो ॥ १४ ॥ जा न विहायइ रयणी ताव य चिंतेसु जीव ! किंपि तुमं । अह आउम्मि गए झीणा चिंताइ तुज्झ कहा ॥ १५ ॥ कामवियारविहूणो धन्नो इह चितए परं तत्तं जइ पत्तोवि वियारं चितइ धन्नाण सो राओ ॥ १६ ॥ काऊण गुरुपइन्नं मणमोहण - करिवरम्मि जह चडिओ | चुक्क नियवयणाओ धन्नोवि तहा वियारगओ ॥ १७ ॥ ता पढमं पि वियारं मणमोहण करिवरस्स सारिच्छं । वारह दुहसयमूलं जइ इच्छह सुहसमिद्धीओ ॥ १८ ॥ पंचहि वि इंदिएहिं अनंतसो नत्थि जं किर न भुत्तं । तह विन जाया तित्ती ता चेयसि हा कया मूढ !? ॥ १९ ॥ अह चेयसि कइयावि हु थेवो वि हु जत्थ नत्थि कोइ गुणो । एसा पुण सामग्गी कयाइ होहित्ति को मुणइ ? ॥ २० ॥ २१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनुसन्धान ४४ सयलंपि भवसरूवं नाऊणं गुरुमुहाउ मुणिणोवि । वटुंति जं अकज्जे अहह महामोहविप्फुरियं ! ॥ २१ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं तत्तं अइसुंदरं तुमं जीव ! । जं न कुणसि काएणं तं मन्ने गरुयकम्मोसि ॥ २२ ॥ चिट्ठइ राई पासइ न कोइ हवउ जह तह वणुट्ठाणं । इय मूढ ! लोयरंजय ! कुणमाणो किं पि न लहेसि ॥ २३ ॥ जइ एगो च्चिय रागो निग्गहिओ होज्ज जीव ! संसारे । अट्ठण्हवि कम्माणं ता उच्छेओ कओ झत्ति ।। २४ ॥ को दिव्वं लंघेउं अहवा सक्कइ वियाणमाणोवि । तह वि हु उज्जमसीलो होज्ज सया रायविजयम्मि ॥ २५ ॥ जो चिंतइ न परत्तं देइ कुबुद्धि वयाउ भंसेइ । तेण समं संसरिंग वज्जह दूरेण मणसावि ॥ २६ ॥ पाएण दूसमाए धम्मे संसग्गिया इह पमाणं । तेण सुमित्तेहि समं संसरिंग कुणसु जा जीवं ।। २७ ।। जइ पुच्छह निच्छयओ न गिही साहूवि पावइ भवन्नं (न्त)। भावेण केवलं पि हु लभ्रूणं जाइ निव्वाणं ।। २८ ।। गाहाण सिलोगाणं अत्थं नाऊण सव्वभंगेहिं । तत्थवि तं न हु नायं भावण-अमियं जओ झरइ ।। २९ ।। अवहियहियओ होउं खणे खणे अप्पयं विभावेसु । कत्तो अहमायाओ गंतूण कहि किमणु होहं ? ।। ३० ॥ सव्वगुणाणं जोग्गं अप्पाणं जियपमाइणं नाउं। किं न भयंतो(भवत्तो?)विरमसि सत्तीए उज्जमं काउं? ॥ ३१ ॥ धम्मे परमरहस्सं रे जिय ! संवेगचोयणासारं । चूलियजुयलं झायसु जइ अ - -- -- - - ३२ ॥ एएणवि बीएणं कयावि धम्मुज्जवो(मो?) तुहं हुज्जा। अन्नह दुहसयबुड्डो पायालं जासि सत्तमयं ॥ ३३ ।। कीयं आहाकम्मं नीआवासो गिहीसु पडिबंधो । अमिओ परिग्गहो तह हुंति जईणं इमे दोसा ॥ ३४ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ seat विहु गुरुओ मिलिआ सव्वेवि जइ पुणो हुंति । अद्दंसणेण तेसि साहू [णं] मह नमुक्कारो ॥ ३५ ॥ नाणं चिअ साहू साहूसु न ताण होइ अवयारो | किं परविकत्थणेणं अहवा चिंतेसु अप्पाणं || ३६ || अहयंपि एरिसो अह सुद्धं मग्गं च इह परूवितो । संविग्गपक्खि अत्ता, धन्नं मन्नामि अप्पाणं ॥ ३७ ॥ एवं ठियस्स सययं मणस्स भावस्स पत्तिअइ को वा । पच्चाइएण किं वा अप्पा चिअ सक्खिओ इत्थ ॥ ३८ ॥ जं पुण वायाए च्चिअ भणामि कारण किं पि न करेमि । तत्थत्थि गुरु अदुक्खं मणमंदिरंसंठिअं मज्झ ॥ ३९ ॥ सुद्धाला अणदाणं काउं मित्तिं च सव्वसत्तेसु । अप्पाणं गरिहंतो भावेसु अहं कया तत्तं ? ॥ ४० ॥ एगं चिअ मह सलयइ जं न सहाए लहामि मणइट्टे । एवं ज्झायंतस्स उ को जाणइ किंपि होहित्ति ॥ ४१ ॥ आणंद दाऊणं समग्गसंघस्स गहियआसीसो । अप्पाणं भावितो विहरेसु जया तया अहयं ॥ ४२ ॥ जइ कहवि जाइ दियहं रत्ती न हु जाइ अप्पचिंताए । थोवजले मच्छस्स व तल्लोवेल्लि कुणंतस्स ॥ ४४ ॥ चेयहु चेयहु चेयहु हंहो मूढ मइ ! कहिय कहाणि सव्वपयारिहिं तुम्ह मई । हिय ताविवि पुणु पुणु खोट्टेसुहु धरणि, परत न केणवि होस तर्हि पत्तइ मरणि ॥ ४५ ॥ हियड़इ रंगुन जाहं तहं सउ वक्तु सुपडिहाई | जइ पुणु केवइ रंगु तउ नयणिहि नीरु न माइ ॥ ४६ ॥ जलसमं कामीणं नीरसलोयाण तुसवुससमाणं । विरयाणं अमियसमं एयं सव्वंपि जं भणियं ॥ ४७ ॥ गंतव्वं कत्थ मए कह एसो चंदिणो य जियलोओ । कह माइ सयण - विहवो इय झूरसि हा हयास ! तया ॥ ४८ ॥ २३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ एयाए भावणाए जइ अवसानंपि मज्झ किर होज्जा । ता अहयं चिय धत्रो नहु अनं पत्थणिज्जंति ॥ ४९ ॥ भावण-अमियं अहवा कम्मवसा मा समुलसउ मुज्झ । अन्नस्सवि दट्ठूणं एयं घुंटेसु किं कइया ? ॥ ५० ॥ वेरग्गभावणाए किंवा वच्चंतु मज्झ दियहाई | निययियचितियाई लब्धंति नवत्ति को मुणइ ? ॥ ५१ ॥ एयं भावणतत्तं सव्वंगं तुज्झ जीव ! जइ प्फुरइ । पंचुत्तरवासीणं वि सोक्खं मन्नामि ता तुच्छं ॥ ५२ ॥ एग होऊणं मुहुत्तमेत्तं विसिटुमंतं व । पइदियहं झाज्जह एयं उवएसवरतत्तं ॥ ५३ ॥ जह दीवाओ दीवो बोहिज्जइ भावणाए तह भावो । इय पढह गुणह झायह भविया एयं सया तत्तं ॥ ५४ ॥ सिरि रयणसिंहसूरी भावण - सिहरम्मि आरुहेऊणं । अप्पाणुसासणं भो ! जंपइ जिणसासणे सारं ॥ ५५ ॥ बारसअउणत्ताले वइसाहे सेयपंचमिदिणम्मि । अणहिलवाडनयरे विहियमिणं अप्पसरणत्थं ॥ ५६ ॥ छ ॥ 2005 (५) हितशिक्षा कुलक जइ जीव ! तुज्झ सम्मं परलोयपयाणयं वसइ हियए । ता धम्मंमि माओ होज्ज मणागंपि न कयावि ॥ १ ॥ मोहविज्जाहि रत्ताण गुरुम्मि जाण बहुमाणो । धित्तेसिं बहुमाणो जइ नो संवेगरंगाओ ॥ २ ॥ मण नयणह अनुजीह क्रिय तीहं विरलीकरेसु । संजमवंतु सुवासणड जउ मुणि कोइ कहेसु ॥ ३ ॥ किरियपरायण बहुय मुणि दीसहि वेसु धरंत । विरला केइ सुवासणा जे रंजहिं पुण संत ॥ ४ ॥ अनुसन्धान ४४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ २५ जाणंता अगहिल्ला कह भुल्लाइं दियालजियलोए । विसएहि भोलिया अह मह वयणं ही कुणंतु कहं ? 11 ५ ।। अज्जवि किंपि न नटुं जइ चेयसि हंदि किंपि अप्पाणं । विलवणमेत्तट्ठिओ पुण अरन्नरुन्नं समायरसि ।। ६ ।। कन्नि धरेविणु दिन्न मई इय सक्खिय लोइ । हं केणवि न हु जग्गविउ मन जंपसि परलोइ ॥ ७ ॥ चिंतहि हियडं दज्झिसइ पच्छायावु करेसि । होसइ कांइवि नेव तुहु पर हत्थड़ा म लेसि ।। ८ ।। एएहिंवि वयणेहिं तह जिय ! मन्ने न भावसब्भावं । जा नेव पुलइयंगो रेल्लसि अंसूहि महिवलयं ॥ ९ ॥ जस्स मणदप्पणंमी भावत्थो फुरइ एयभणियस्स। सो देवाण वि पुज्जो कि पुण मणुयाण जियलोए ? |॥ १० ॥ गिरिसिहरग्गिहि वरसियइ रहइ न पाणिउ जेव । पत्थर-सरिसह नीरसह कहिउ सुणिज्जह तेव ॥ ११ ॥ वयणेणं भणियमिणं तरामि नो सिक्खिउं च बेडाए । सिरि धम्मसूरि सीसो जंपइ एयं रयणसूरी ।। १२ ॥ (६) संवेगचूलिका कुलकम् नारीण बाहिरंगे जह दिढे माणसं समुल्लसइ । तह अंतरसयलंगे जं दिढे होइ तं सुणह ॥ १ ॥ रणरणओ दीणत्तं महाभउव्वेय तास कलमलयं । एयं अणहविऊणं अप्पा वि हु उडणं महइ ॥ २ ॥ विरलो च्चिय धावंतो धम्मो धम्मोत्ति कोवि मज्झम्मि । अप्पाणं रंजंतो जो मुंचइ विसयगहिलत्तं ।। ३ ॥ ता नस्थि इह कहाओ ते दिटुंता न ताउ जुत्तीओ। संसारुव्वेयकरा मह कने जा न पत्ताओ ।। ४ ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ ता नत्थि इह कलाओ पररंजणविम्हएक्कजणणीओ। जाणामि जा न पयर्ड मुत्तुं नियरंजणं एक्वं ॥ ५ ॥ किं गहिलो कि सज्जो कि मुक्खो पंडिओ य किं अहयं । मासाहससउणिसमो किं वा चिट्ठामि घंघलिओ ॥ ६ ॥ गरुयनिकाइयकम्मो कि ठगिओ चुन्निओ य सुन्नो वा । किं गद्ध-सूयरोहं रंजेमि मणो न जं धम्मे ॥ ७ ॥ परिदेवणमेत्तं चिय अहयं पेच्छामि अत्तणो एवं ! जं उज्जमे न सत्ती ही ही ! होहं कहमहंति ? ।। ८ ॥ अज्जं करेमि कल्लं, करेमि धम्मुज्जमं तुमं भणसि । इय निप्पलवंछाहिं समप्पिही जम्मपरिवाडी ॥ ९ ॥ जाणइ देक्खइ संभलइ सउ भम्मलु ववहारू । धम्मि न लग्गइ अहह तुहं कुणइ जु सव्व असारू ॥ १० ॥ दिम्मि वि दिटुंते खणभंगुरजीवियस्स पच्चक्खं । थेवपि न चेइज्जइ जीवेहिं गरुयकम्मेहिं ॥ ११ ॥ सिरि धम्मसूरि मुणिवइ-सीसेहिं रयणसिंहसूरीहि । संवेगमेरुसिंगे भमिया विलसंतु कहियमिणं ॥ १२ ॥ छ ।। संवेगचूलिका कुलकम् ॥ छ ।। లం (७) श्री नेमिनाथस्तोत्र अमियमऊहं नेमि सुररायथुयपि जइविहं जलही । दटुं उल्लसियंगो थुणामि तो सायरो संतो ।। १ ॥ मेसुम्मेसपवित्ती जा पुठिच परिचियासि अच्चंतं । पई पेच्छिय नयणाणं सावि कहं मज्झ पम्हुछा ॥ २ ॥ तुह सामि ! देहपउमे पलोइडं चारुरूवमयरंदं । आजम्म पि पियंतो मह मणभमरो न संतुट्ठो ।। ३ ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ तुह नाह ! रूवहरए, दुब्बलगोणिव्व निवडिया दिट्ठी । गरुपयन्ना वि महं नीहरिडं कहवि नो तरइ ॥ ४ ॥ कामियतित्थे रूवे तुह जिण ! मह महइ निवडिउं दिट्ठी । पत्थंती पइजम्मं पदं विरहो मा हु मे होज्जा ॥ ५ ॥ मुत्तं पिव मुत्तिसुहं तुह मुहरूवं पलोइउं सामि ! । पावेमि जइ सयावि ह तो सिवसोक्खं णवि अलाहि ।। ६ ।। हु पईं नेमिनाह ! सामिय! पेच्छंतो अणमिसाइ दिट्ठीए । अप्पाण-पर-विसेसं न लक्खिमो थेवमेत्तंपि ॥ ७ ॥ तुह रूवदंसणाओ निरुवमआणंदनिब्भरमणस्स । थोउमणस्स वि मह जिण ! कह जीहा मोणमल्लीणा ? ॥ ८ ॥ सिरिनेमिनाह ! सामिय ! परं पेच्छंतो मणंसि तक्केमि ! अन्नं पाणं पि विणा जइ जम्मं इह समप्पेमि ॥ ९ ॥ सांगचंगिमा तु सा कावि जिणिंद ! जीइ मह दिययं । वाउचलं पिह जायं निष्कंदं मेरुसिंग व ॥ १० ॥ तिहुयणविम्हयजणणं तुह रूवं नाह ! पेच्छिऊण अहं । चित्तलिहिउव्व जाओ ज्झायंतो जन अणुहूयं ॥ ११ ॥ जइ मग्गियं पि लब्भइ ता निसुणह सामि ! पत्थणं एयं । इय वित्रत्तिसमुब्भव - आणंदो मह सया होउ ॥ १२ ॥ इय रयणसिंहसूरी थोडं तं नाह! पुलइयसरीरो । अंसुजलुल्लियनयणो तुह पाए नमइ साणंदं ॥ १३ ॥ छ ॥ 2008 (८) श्री पार्श्वनाथ स्तव मंगलवरतरुकंदं सुहभावसमुद्दपुन्निमायंदं । थुणिमो पासजिणिदं जणमणपंकेरुहदिणिदं ॥ १ ॥ अच्छरियाण निवासो सीमा तं चेय पेच्छियव्वाण । सिरि आससेणनंदण ! तं दिट्टो गरुयपुन्नेहिं ॥ २ ॥ २७ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जंपणमणा वि जीहा उवमाणं नो लहइ तुह थुई काउं । आलालंबवसाओ चंदाइसु कीस धावेइ || ३ || सायर - चंद-दिवायर - चिंतामणि- कप्पपायवाईहिं । हीणेहिं अणतेणं कह तेहिं पास ! तुह उवमा ॥ ४ ॥ देहं चिय भइ बहिं जीयं मह पास ! तुम्ह पयमूले ! अणमिसनयणेहिं अहं तित्तिं न लहामि ऐच्छंतो ॥ ५ ॥ अप्प च्चिय मह सक्खी जयंमि नन्नो पिओ तुमार्हितो ! वम्मादेवि - समुब्भव ! नाणेण तुमंपि तं मुणसि ॥ ६ ॥ एगेiमिवि अंगे सा का वि हु पास ! चंगिमा तुज्झ । जत्थ निविट्टा दिट्ठी तत्तो बीए न संकमइ ॥ ७ ॥ अह सहसा सव्वंगे दिट्ठे रहसेण एक्कहेलाए | तइया मह आणंदो मन्त्रे भुवर्णमि न हु माइ ॥ ८ ॥ खुद्दोवद्दव- साइणि-विसहर - चोराइ दुरियनिग्घायं । सिरिपासनाह ! नामं चितियमेत्तं कुणइ सिग्धं ॥ ९ ॥ नवनीलुप्पलसामल ! नवहत्थुन्नय ! फणिंद कय सेव ! । सिरि पासनाह ! वासं भवदुहनासं लहुं देहि ॥ १० ॥ सिरि धम्मसूरि मुणिव सीसो सिरिरयणसिंहमुणिनाहो । फासिंतो धरणियलं तिक्खुतो नमइ सीसेणं ॥ ११ ॥ छ ॥ 2003 अनुसन्धान ४४ (९) श्री पार्श्वनाथ स्तव सिरिपास ! तिजयसुंदर ! दरमेत्तं पि हु दुहं महं गलियं । गलिया से भवन्नव ! नवघणसम ! जं सि सच्चविओ ॥ १ ॥ चविओ नियभिप्पाओ पाओ न इओ हवेज्ज संसारे । सारे तुह जिणचरणे चरणंपि अहं तया पत्तो ॥ २ ॥ पत्तं ननं भवओ भवओ सरणे समत्थयं मन्ने । मन्त्रेसु तेण सिवरयवरयाणंदं पयं देव ! ॥ ३ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ २९ देवासुरसत्थेहिं सत्थेहिं वि तं जिणिंद ! संथविओ। थवियंपि वत्थुअत्थं अत्थोयं पि हु वियाणंतो ॥ ४ ॥ आणतो आणंदं आणं दंसेसु तं नियं मज्झ । मज्झत्थभाववत्ती बत्तीससुरिंदनय ! नाह ! ॥ ५ ॥ नाह ! महं नो संपइ पइं जिण ! लहिउँ पइं जयब्भहियं । हियमवरं अलहंतो हंतो नन्नं नमसामि ॥ ६ ॥ सामि ! तुमं जयदीवो दीवो आसासओ भवसमुद्दे । मुद्देमि कुणइ वारं वारं एक्कंपि जइ दिट्ठो ॥ ७ ॥ दिटुं ताण सुहाणं सुहाण जिण ! सासयाण तं भवणं । भवणं भवंमि पूणरवि रविसम ! किं मह तए पत्ते ? ॥ ८॥ पत्ते नलिणिनिलीणे जलबिंदु(दू)ए जह चलतं । लत्तं तह जिण ! जीयं जीया किं तो पमायंति ॥ ९ ॥ मायं तिहावि तिरसिय सियवायं नाह ! तुह धरतेण । ते णमिउं पयकमलं मलरहियप्पा मए नाओ ॥ १० ॥ नाओ जिणिदकहिओ हिओ समग्गंमि जीवलोगंमि । लोग मिच्छाभिरयं रयरहियं कुणसु तत्तेण ।। ११ ।। तत्तेण मए बहुसो बहुसोयानलपलित्तभावेण । भावेण कहवि सुहओ सुहओ तं नाह ! संपत्तो ।। १२ ।। इय गहिय-मुक्क-रयणेहिं थुणियजिण ! रयणसूरि नियरेहिं । पत्थिज्जमाण ! जयगुरु ! सुहियमिणं कुणसु जियलोयं ।। १३ ।। 003 (१०) श्री नेमिनाथ स्तव जय जय नेमि जिणिद ! तुहु मंडणु आहरणाई। भवियजणह जंपंति फुडु पुण्णह आहरणाई ॥ १॥ घणसामलि जिण ! देहि तुहु किह सिय सोहइ कति । घणसारह मंडणमिसिण एह बलायहपंति ॥ २ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अनुसन्धान ४४ तिजयह-मउडु जिणिंद ! तुहु हं पुणु तुज्झवि मउडु । जिणि किउ कंतिच्छलि भणइ सुवि होसइ जइ मउडु ॥ ३ ॥ उभयट्ठियससि-सूर जिणकुंडलछलिण सहति । कणयाहरण विराइयह तुह सुरगिरि-कयभंति ॥ ४ ॥ किह जिण दीसइ कुंडलिहिं हीरावलि दिप्पंत । नं तुह धणमुत्तिहि सहइ विज्जुलडिय झलकंत ॥ ५ ।। गीवाहरणु जिणिंद ! तुहु इउ केरिसु पडिहाइ । सिद्धि-पुरंधियबाहुलय कंठि निवेसिय नाइ ॥ ६ ॥ तुह जिण उरि उरमालडी नाणाविहरयणेहिं । नं गयणंगणि धणुहलय दीसइ भवियगणेहिं ।। ७ ॥ तुह कणयह संकल नियवि मूदु भणइ इउ लोउ ! जइ पुनह संकल न इह त कि जिण एरिसु भोउ ॥ ८ ॥ तुह जिण ! थुइहि जु अज्जियउ महु देयण सिवगेहु । पुनपिंडु विज्जउरमिसि पई करि धारिउ सु एहु ॥ ९ ।। दुग्गइ मज्जिर तिहुयणह तुह भुयरक्ख पयंड । बाहुरक्ख इउ भूसणवि नामु धरहिं भुयदंड ॥ १० ॥ गह नक्खत्तह मंडली तारायण संजत्त । फुल्लमालमिसि नाह ! तुहु मेरुहु भमइ निरुत्त ॥ ११ ॥ तोरणु नाह ! सुवन्नु किर सिवनयरह पइसारि । पई वंदंत सुणंति जण अम्हि संठिय भवपारि ॥ १२ ।। मई लद्धा चिंतिय रयण-सूरिहि उग्गइ अज्जु । हूउ तुरंत जु मज्झु मणु नेमिहि वंदणु सज्जु ।। १३ ॥ లం (११) श्रीनेमिनाथ स्तव जय जय नेमि जिणिंद पहु पई पिक्खिवि नयणेहिं । हियडइ रंगु सु कोइ भणि जु न सक्कं वयणेहिं ॥ १ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ अइय तरुयडा नेमिजिण ! तुह जगि आमर हूलु । तिहुयण मई सउ जोइया दीठु न तुह परि तूलु ॥ २ ॥ काइ सचंगिम अंगिम तुह जावत्रणह न जाइ। जेत्थु निविट्ठी दिट्ठिडी तिहिविय अंगि न ठाइ ॥ ३ ॥ दोहगि दूमिय तरुणियण सोहगु लहइ नमंति । हियड़इ भत्ति-समाउलिण नेमिहि पय जि नमंति ॥ ४ ।। अगर-कपूर-कथूरियहं जे तुहु भत्ति कुणंति । मुत्तिवहूइ ति कंठुलइ मुत्तियहारि तुलंति ॥ ५ ॥ अणहिलवाडं सग्गपुर अह महु इंदह रज्जु । जहिं जिणु दीसइ नेमि मई, कुण इजु चिंतियकज्जु ।। ६ ।। रलिय रंगि वद्धावणं मह मणि नच्चिउ तेव । पत्थिवि एत्थुवि नेमि मइं सिवसुह पाविउ जेव ॥ ७ ॥ रयणसिंहसूरिहिं थुणिउ तिहुयणतिलक जु देउ । भत्तिपरायण भवियणहं मणवंछउ सो देउ ॥ ८ ॥ (१२) श्री नेमिनाथ स्तव सिरि नेमिनाह ! सामिय ! जइवि न विहवो तहाविहो मज्झ । सब्भावगब्भसारं मणोरहे महवि जंपेसि ।। १ ॥ कुंकुमपललक्खेहि निरुवममयनाहिपलसहस्सेहि। कप्पूरपलसएहि कालागुरुअगणियपलेहि ॥ २ ॥ न्हवण विलेवण मंडण उग्गाहण पमुहचारुकिच्चाई । काऊण जहिच्छाए नियकरकमलेहिं तुह सामि ! ॥ ३ ।। एयं कुणमाणेणं मइं जिण ! आणंदअंसुनिवहेण । जं तुह तविओ देहो खमियव्वं तं पुणो मज्झ ॥ ४ ॥ हीरय-सुवन्न-मोत्तिय-फुरंत-रयणेहि कोडिमुल्लेहिं । तुह जिण ! आहरणेहिं सिंगारं काउमिच्छामि ।। ५ ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसन्धान ४४ केयइ-चंपय-करणिय-सयवत्तिय-जाइ-बउल-पुप्फेहिं । वालय-विल्लय-पाडल-पमुहेहिं कोडिसंखेहिं ।। ६ ।। वरकप्पूराहिय महमहंत वियसंत-कुसुमनियरेहिं । नियपाणिपल्लवेहिं पूयं काहामि तुह नाह ! ।। ७ ।। नाणापट्टसुय-देसागय-विविहवत्थलक्खेहिं । देवाण व दूसेहिं परिहविस्सं सहत्थेहिं ॥ ८ ॥ आउज्ज-गीय-नट्टाइएहिं तुह देव ! उच्छवं काउं । कप्यूरदीवियाहिं काहं आरत्तियं सामि ! ॥ ९ ॥ दव्वथए वटुंतो भवियजणो जा न सेवए चरणं । ताव मणोरहवल्लिं पइदियहं नेउ सहलत्तं ॥ १० ॥ जह मह मणोरहा पहु ! तह जइ पुज्जति दइवजोएण। ता तं सुक्खं मन्ने तिजयंपि न जस्स पड़िछंदो ।। ११ ।। विहिणा देवे वंदिय भूमि तह चुंबिऊण भालेणं । भवियाण भावहेऊ इय थुणिओ रयणसूरीहिं ॥ १२ ॥ (१३) श्री नेमिनाथ स्तोत्र मूर्तयस्ते क्व नेक्ष्यन्ते श्रीनेमे ! त्वत्प्रभावतः । रूपलावण्यसौभाग्यै-हल्लेखैकधुरन्धराः ॥ १ ।। मुक्तिसौख्यमनाख्येयं त्रैलोक्येऽपि शरीरिभिः । गम्यं चानुभवस्यैव यत्सिद्धैरेव वि(वे?)द्यते ॥ २ ॥ उक्तं श्रद्धीयते नान्यः स्याद्वादात्किन्तु मन्यते । चित्रं चित्रं कथं नाथ ! तदद्य वेद्यते मया ।। ३ ।। त्वयि दृष्टे मनो हृष्टं नेमे ! मुक्त्वाऽन्यसंकथाम् । प्रेत्येहापि तथा याचे यथा नाथ ! ममाधुना ।। ४ ।। नेमे ! मम मनो जज्ञे त्वय्यानन्दसुधामयम् । दृष्ट्वा कर्पूरपूरस्य मण्डनं पापखण्डनम् ।। ५ ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ ३३ स्तोतुमास्याम्बुजं नाथ ! यावदुत्सहते मम । सौख्याधिक्याय मन्येऽहं तावद्वाचो मनःश्रिताः ।। ६ ॥ देवाकर्णय विज्ञप्ति किमन्यैर्भूरिभाषितैः । सुधां हालाहलं मन्ये नेमे ! त्वदर्शनात्पुरः ।। ७ ।। नरं न (न रत्न?) सिंहवन्मन्ये न तं सूरि ब्रवीम्यहम् । यः प्रीतः प्रातरुत्थाय श्री नेमे ! त्वां न पश्यति ॥ ८ ॥ छः ।। (१४) श्रीमद्धर्मसूरि गुण स्तुति षट्त्रिंशिका जयइ स जएक्कदीवो वीरो सिवगमणलद्धअस्थमणो । जस्स विओए अज्जवि मोहतमंधो जणं रुयइ ॥ १ ॥ तयणु जयइ तं तित्थं गणहारिसुहम्मसामिणो भुवणे । मिच्छतविसपसुत्तं तिजयं पि हु बोहियं जेण ।। २ ॥ निरुवमसव्वगुणेणं ठाणं विहिणा विणिम्मियं देहं । बहुअच्छेरयभूयं चरियं जस्सेह वित्थरियं ॥ ३ ॥ जंगमतित्थं संपइ कयजुग-लब्भपि कहवि अवयरियं । सिरिधम्मसूरि सुगुरुं तं चिंतामणिसमं थुणिमो ।। ४ ।। तुम्ह गुणाणं सामिय ! पडिछंदं महियले पलोयंतो । अप्पाणं धीरविउं कत्थ न भमिओ चिरं बहुसो ।। ५ ।। सयलजलं जलहीओ कोइ कुसग्गेण इह तए घेत्तुं । जह तह जीहाइ अहं घेच्छं सामिय ! गुणे तुम्ह ॥ ६ ॥ तं नत्थि नाह ! तुम्हं कित्तीए जं न धवलियं ठाणं । गुणचंदवाइ वयणं एगं मुत्तूण तिजयंमि ॥ ७ ॥ पइ विरहतावियाए महिलाए पेइयं जहा ठाणं । दक्खिण(ण्ण)याए सुहगुरु ! तुम्ह विणा तह निओ सद्दो ।। ८ ।। सिरि धम्मसूरि ! कह तुह सिंधू गंभीरिमोवमं जाओ । दट्टण कोमुई कामुओव्व जं भिंभलो सो हु ॥ ९ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसन्धान ४४ तुह कित्तीए जउणा धवला गंगत्ति सिंधुणा भणिया । ईसालुत्तं सामिय ! ठिया वहंती खणं कुविया ॥ १० ॥ सग्गं गयंमि तुमए को अन्नो नाह ! एत्थ विउसाणं । संसय-गिरि-निद्दलणं उत्तर-दंभोलिणा काही ? ॥ ११ ।। सिरि धम्मसूरि-जलहर ! तुह देसणमहरनीरमलहंतो । भवियणमणबप्पीहो तिसिउच्चिय भमइ भुवणयलं ॥ १२ ।। पई देसणं कुणंते नाह ! इमं भवियणेण विनायं । किं नयणा अह सवणा सव्वं माणिवि मह हवंतु ॥ १३ ॥ जं किंपि पियं मइ पहु ! जं किंपि हु मंगलं पि भुवर्णमि । जं किंपि सलहणिज्नं तं सयलं पि हु तुमं चेव ॥ १४ ॥ वाणीइ कन्नपूरो देसणलच्छीइ मउड़पडितुल्लो । चरणसिरीए हारो सामि ! कया कत्थ दीसिहिसि ? ॥ १५ ।। पंचसयाई पहरे पढिऊणं तह पवासिया पत्रा। जइ मन्निज्जइ पुव्वि पाठो हुँतो अलिहिओत्ति ।। १६ ।। तुह पहु ! बुहावि सीसा सन्निहिया अवहियावि अणवरयं । मूलपडिमापइट्ठा-संखं पखलंति कुणमाणा ।। १७ ।। रायसहासुं तुह पहु ! वाइंदमइंददप्पनिद्दलणो। पंचाणणपडितल्लो जयसद्दो कस्स अवरस्स? । १८ ।। अप्पडिबद्धविहारं नाह ! कुणंतेण विविहदेसेसु । सूरेण व कमलवणं भुवणमिणं बोहियं तुमए ॥ १९ ॥ सोहग्गसंपयाए कि तुम्ह कलिमि सामि ! वन्नेमि । गोयमपहुव्व जीए पडिच्छिओ भवियलोएणं ।। २० ।। गच्छसमुद्दो सामिय ! तुमए तह पालिओ सुमज्जाए। जह लब्भइ निव्वाणं तम्मि भवे अहव तइयंमि ।। २१ ॥ जे सज्जणगुणहीणा जाण मुहाओ गुणो न नीहरिओ । ते वि करिति थुइं तुह इयरथुईसुं पहु ! न चोज्जं ॥ २२ ।। आजम्मं पि न दिज्जे जहिं तुमं पहु ! गुणेहिं परसिट्ठो । ताणवि मणे निविट्ठो एसो च्चिय गुणिगणगरिठ्ठो ।। २३ ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ ३५ नामुच्चारणसवणे तुम्ह गुणा पहु ! फुरंति हेलाए। जह दीवदंसणे च्चिय संतपयत्था पयासंति ॥ २४ ॥ जा तिहुयणेवि पुज्जा ठाणं नीसेसगुणगणाणंपि। तीसे लच्छीइ सुओ जं पहु ! तं एरिसगुणोसि ।। २५ ।। सुरभुवणगओवि तुमं नाह ! मए गुणमणीहिं भासंतो। सूरोव्च विप्फुरंतो हिययजले दीससि सयावि ।। २६ ।। अच्छंतु गुणा अवरे तुह पहु ! गंभीरिमा वि जा दिट्ठा । सा कयजुगंमि सामिय ! पलोइयव्वा जइ कर्हिपि || २७ ।। हा हा कयंत ! निग्घिण ! मुणिरयणं कह तए इमं हरियं । जस्स गुणा घोलंता खणं पि हियए न मायंति ? ॥ २८ ॥ दीणाई नयणाई तुह दंसणलोलुयाइं भवियाणं ।। जच्चंधगो भयाइं व कत्थ न भमियाई तुह विरहे ? ॥ २९ ।। सुहगुरु ! तुम्ह विओए दुहदवसंतावियाण भवियाणं । जं हिययं न हु फुडियं अहह ! विही तत्थ दुललिओ ।। ३० ॥ परतित्थियलोएहि जेहि तुमं पहु ! पलोइओ आसि | बाहाउलनयणेहि तेहिं वि परिदेवियं बहुसो ॥ ३१ ॥ सग्गदिणे तुह सामिय ! कंदंते सयलभुवणवलयंमि । सुय-सालहियगणेहिं वि मन्ने तइया खणं रुन्नं ॥ ३२ ॥ नव नव वरिसे ठाउं गिहवासे साहुभावएज्जाए । सर्द्धि सूरिपयंमी अडसयरिं सव्वआउंमि ॥ ३३ ॥ बारस सत्तत्तीसे सुद्धाए एकारसीइ भद्दवए । चंददिणे सामि ! तुमं सुरमंदिरमंडणं जाओ ॥ ३४ ॥ कंठमि जाण विलसइ गुणरयणेक्कावली इमा निच्चं । ताण मणचिंतियाई इह परलोए य हुंति फुडं ॥ ३५ ।। इय धम्मसूरिपहुणो नियगुरुणो गुणलवं पयासिंतो । सिरि रयणसिंहसूरी भवियणमणनिव्वुई. कुणइ ॥ ३६ ॥ छ । इति श्रीमद्धर्मसूरि गुणस्तुति षट्त्रिंशिका समासा ॥ छ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ (१५) आत्महित चिन्ता कुलक नियगुरुपायपसाया नाउं संसारविलसियविवागं । सम्मं विरत्तचित्तो अप्पहियं किंपि चितेमि ॥ १ ॥ कालोच्चिय जिणआणं काउं तन्हालुयस्स मह सययं । हा जिय ! पमायवेरी न देइ धम्मुज्जमं काउं ॥ २ ॥ जइ एयं सामरिंग धम्मे लहिऊण कहवि हारेसि । ता तं पच्छायावा विहलं विलवेसि परलोए ॥ ३ ॥ रागंधी मोहंधी कज्जाकज्जं न याणसि हयास ! | धत्तूर भामिओ इव सव्वं पेच्छसि सुवन्नमहो ॥ ४ ॥ वेरगमग्गलीणं खणमेगं जइ करेमि अप्पाणं । चंचलचित्तेण पुणो विहलिज्जइ ही नियंतस्स ॥ ५ ॥ एक्को चेव दुरंजो नियचरियं जो वियाणई अप्पा । सो ताव रंजियव्वो जइ इच्छसि साहिउं धम्मं ॥ ६ ॥ जइ इच्छसि अप्पसुहं खिन्नोसि दुहाण तो कुण उवायं । मा को वे ववंतो सालीण गवेसणं कुणसु ॥ ७ ॥ जं आसि धम्मबीयं पुव्वभवे वावियं तए जीव ! । तं इह लुणासि संपइ वावियमिहि लुणसि अग्गे ॥ ८ ॥ इय नाऊण अकज्जं दूरे वज्जेसि किं न हु अणज्ज ! | अह कालपासबंद्धो जुत्ताजुत्तं कह मुणेसि ? ॥ ९ ॥ इंदियचोरेहिं अहं मा भवरन्नंमि भणसु जं मुसिओ । जाणिय चोरेहिं तुमं जो गहिओ तस्स किं भणिमो ? ॥ १० ॥ परजणरंजणहेडं भणेसि अन्नं करेसि अवरं च । अनुसन्धान ४४ तत्थवि पयडं कवडं हा ! दीसइ तुज्झ सव्वत्थ ॥ ११ ॥ लहुएवि धम्मकज्जे तइया साहूहिं चोइओ संतो । असमत्थो भणिय ठिओ अहुणा सोएसि किं तम्हा ? ॥ १२ ॥ चिट्ठइ राई, पासइ न कोई, हवउ जह तह वणुट्ठाणं । इय मूढ ! लोयरंजय ! कुणमाणो किं पि न लहेसि ॥ १३ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ गुणिएसु मच्चरितं वहसि पओसं च निग्गुणजणम्यि । पररिद्धीए तम्मसि परिपरिवार्य तह करेसि ॥ १४ ॥ निच्चं पमायसीलो सुहाभिलासी य चोइओ कुवसि । सोहग्गमंजरी जं अप्पंमि तहावि बहुमाणो ॥ १५ ॥ इय सयलं जाणेमी काउं न तरामि भणसि गुरुकम्पो 1 कंठ-मण- सोसणेणं धिरत्थु तुह मूढ ! नाणेणं ॥ १६ ॥ अज्जं करेमि कल्लं करेमि धम्मुज्जमं तुमं भणसि । इय निष्फलवंच्छाहिं समप्पिही जम्मपरिवाडी ॥ १७ ॥ पेच्छंतो पच्चक्खं जियलोयं जीव ! इंदि (द) यालसमं । ठगिओ इव धुत्तेहिं हा चेयसि किं न अप्पाणं ? ।। १८ ।। साणं जह रुक्खे पहियाणं जह य देसियकुडीरे । मेलावग अणिच्चो मणुयाणं तह कुटुंबंमि ॥ १९ ॥ अज्जवि किंपि न नवं जइ चेयसि हंदि किंपि अप्पाणं । विलवणमेत्तठिओ पुण अरन्नरुन्तं समायरसि ॥ २० ॥ सुहाई तिरिया विहु भोए भुंजंति भोयणं तह य । एरिसचरियनराणं को संखं कुणइ पुरिसेसु ॥ २१ ॥ जे एवं जंपंती पमायवेरिं छलेह भो लोया ! । ते वि छलिज्जंति जया तया अहं तस्स किं काहं ? ॥ २२ ॥ बाहुल्लेणं लोओ पेच्छइ नयणेहिं नेव हियएणं । तेणं विसहितो कहं विरत्तो कुणउ धम्मं ! ॥ २३ ॥ एयाए दुम्मईए माहप्पं भंजिऊण रे जीव ! । धम्मारामे रम्मे उज्जमदक्खाफलं चरसु ॥ २४ ॥ गुरुआणाए सम्मं परोवयारंमि संजमे नाणे । खाओसमयभावे सयावि एएसु उज्जमसु ॥ २५ ॥ एयं खु धम्मरज्जं कहमवि लद्धूण गणिय दियहाई । सपरोवयारहीणो खणंपि मा सुयह वीसत्थो || २६ ॥ अह एत्तियभणिएण वि होइ अहं जाण ( अहम्माण ? ) को गुणो भणसु । असुई मुत्तूण किमी अन्नत्थ रई किह करेइ ? ।। २७ ।। ३७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनुसन्धान ४४ एयं मुत्तूण भवं पत्तो संसारसायरे घोरे । को जाणइ किर कइया गुरुपाए हं लहिस्सामि ॥ २८ ॥ ओ ! तं जीव ! अलज्जिर ! भणिओ धम्मोवएसलक्खेहिं । जइ नेव किंपि लग्गं ता सरणं मज्झ किर मोणं ।। २९ ॥ विसयविरत्ता मुणिणो कालोच्चिय संजमंमि जे निरया ! आजम्मंपि तिसंक(झं) पयहूलि वंदिमो ताण ॥ ३० ॥ पइदियहं पइसमयं खणंपि मा मुयसु एयमुवएसं । जइ भवदुहाण तित्तो तिसिओ उण परमसोक्खाण ॥ ३१ ।। सिरि धम्मसूरिपहुणो निम्मलकित्तीइ भरियभुवणस्स । सीसलवेहि कुलयं रइयं सिरि रयणसूरीहिं ।। ३२ ॥ छ ।। NX3 (१६) श्री मनोनिग्रह भावना कुलकम् सिरि धम्मसूरि पहुणो उवएसामयलवं सुणेऊणं । तं चेव तिहा नमिउं मणनिग्गहभावणं भणिमो ॥ १॥ संसारभवणखंभो नरयानलपावणंमि सरलपहो । मणमणिवारियपसरं किं किं दुक्खं न जं कुणइ ? ॥ २ ॥ वायाए कारणं मणरहियाणं न दारुणं कर्म । जोयणसहस्समाणो मुच्छिममच्छो उयाहरणं ॥ ३॥ वइ-कायविरहियाण वि कम्माणं चित्तमेत्तविहियाणं । अइघोरं होइ फलं तंदुलमच्छोव्व जीवाणं ।। ४ ।। गलियविवेयाण मणो निग्गहिउं दुक्करं फुडं ताव । संजायविवेगाण वि दुक्करमेयंपि किर होउ ।। ५ ।। करयलगयमुत्तीणं तित्थयरसमाणचरणभावाणं । ताणं पि हु जं दुक्कर-मेयमहो ! मह महच्छरियं ! ।। ६ ।। मणनिग्गहवीसासो कइयावि न जुज्जए इहं काउं । अप्पडिवायं नाणं उप्पन्नं जा न जीवाणं ॥ ७ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ थेव-मणदुक्कियस्सवि जाणतो अइवदारुणविवागं । जइ कहवि खंचिय मणं धारेमी एगवत्थुमि ॥ ८ ॥ पाणिपुडनिविडपीडियरसं व पेच्छामि तहवि झत्ति गयं । अहह उवायं पुणरवि केरिसमन्नं अणुसरामि ? || ९ ॥ भयमत्तं पिव हत्थि धम्मारामं पुणोवि भंजतं ।। दटुं विवेयमिठो सुझाणखंभं समल्लियइ ॥ १० ॥ उल्लसिओ आणंदो खगमेगं जाव ताव चिंतेमि। ता सिद्धमंतिओ इव दीसइ अन्नत्थ किं करिमो? ॥ ११ ॥ मणमक्कडेण सुइरं मह देहं तावियं अहो बाढं । ता कह निग्गहिऊणं होहामि अहं सुही एत्थ ?॥ १२ ।। सिद्धिपुरीए सिद्धी जाव फुडं तुज्झ होइ रे जीव ! । ता मणराएण समं मा विग्गह-उवरमं कुणसु ।। १३ ।। अह विग्गहमि चत्ते पत्ते निक्कंटगम्मि रज्जमि । एस तुहं तं काही सयावि जह दुक्खिओ होसि ।। १४ ॥ जह इदंजालिएणं काउं मुट्ठीइ दंसियं वत्थू । धरिओ जणेण मुट्ठी दिटुं नटुं तयं वत्थू ।। १५।। एवं चिय मणवत्थू संजममुट्ठीइ धारियं कहवि । सुहभावलोयधरिओ ही नटुं हीणपुन्नस्स ॥ १६ ।। न हु अत्थि किपि नूणं चंचलमन्नं मणाउ भुवर्णमि । तं पुण उवमामेत्तं पवणपडागाइ जं भणियं ।। १७ ॥ साहूण सावगाण य धम्मे जो कोइ वित्थरो भणिओ ! सो मणनिग्गहसारो जं फलसिद्धी तओ भणिया ॥ १८ ॥ जत्थ मणो तरलिज्जइ सो संगो दूरओवि चइयव्वो । बहुरयणसणाहेणं दुज्जयचोराण जह पंथो ।। १९ ॥ जिय ! अज्जं अह कल्ले परलोए तुह पयाणयं होही । दीहरसंसारकए निरंकुसं कह मणं कुणसि ? || २० ॥ किमहं करेमि? कस्स व कहेमि? चिंतेमि अहव किं तत्तं ? । जेण मणो पसरंतं धारेमी मत्तहत्थिव्व ॥ २१ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० संपइ सत्थसरीरे सुमरंति न जीव ! पुव्वदुक्खाई । कहिएसु न उव्वेओ कह होसि तं न याणामि ॥ २२ ॥ जाणियतत्तंपि मणो धारिज्जइ दुक्करं सरलमग्गे । दुक्खं खु सिक्खविज्जइ एसो अप्पा दुरप्पा हु ॥ २३ ॥ आवडिए जिय ! दुक्खे जाणसि किर सुंदरी हवइ धम्मो । संपइ पुण गयधम्मो परलोए होसि अहह ! कहं ॥ २४ ॥ इंदियलोलो को विहु वट्टइ सद्दाइएस विसएसु । तहवि हु न होइ तित्ती तन्हच्चिय वित्थरइ नवरं ॥ २५ ॥ इंदियधुत्ताण अहो तिलतुसमेत्तं पि देसु मा पसरं । अह दिन्नो तो नीओ जत्थ खणो वरिसकोडिसमो ॥ २६ ॥ धत्तूर भामिओ इव ढगचुत्रेणं व चुन्निओ संतो । भूएण व संगहिओ वाएण व दिट्टिमोहेणं ॥ २७ ॥ जह एए अवरेहिं जुत्तिसहस्सेण पन्नविज्र्ज्जता । ताणं चिय गहिलत्तं अवियप्पं वाहरंति सया ॥ २८ ॥ तह रागाइवसट्टो न मुणसि थेवंपि कज्जपरमत्थं । अह मुणसि तो पयंपह चरिएणं कहवि संचयसि ।। २९ ।। दुग्गंध असुइपुन्नो वाहिं सव्वत्थ चिन्तिओ करगो । पट्टसूयनत्तणयं दाडं पिहिओ य पुप्फेहिं ॥ ३० ॥ दिट्ठो हरेइ चित्तं गंधो असुईए सरइ तं चेव । मूढो वि तं न गहिडं कुणइ मणं किं पुण विवेगी ॥ ३१ ॥ एवं चिय नारीसुं वत्थालंकारभूसियंगीसु । आवायमेत्तरूवं पेच्छिय तत्तं विभावेसु ॥ ३२ ॥ असुईए अट्ठीगं लोहिय - किमिजाल - पूत- मंसाणं । नापि चिंतियं खलु कलमलयं कुणइ हिययंमि ॥ ३३ ॥ पच्चक्खमिणं पेच्छह वन्नियमेत्तं तु जइ न पत्तियह । एक्कारससोएहिं नीहरमाणं सया चैव ॥ ३४ ॥ इय तत्तभावणगओ सयावि भणनिग्गहं करेमाणो । पच्चक्खरक्खसीणं नारीण न गोयरो होसि ॥ ३५ ॥ अनुसन्धान ४४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ ४१ जिणवयणभाविएण सस्थत्थसमग्गपारगेणं पि । भवभमणभीरुगेणं सुहसंसग्गि पवनेणं ।। ३६ ॥ अवगयपरमत्थेणं निच्चं सुहझाणज्झायगेण मए । तहवि गयं चिय अपहे मणमेयं ही ! कहं दिटुं ? ।। ३७ १५ जह लद्धलक्खचोरो हरमाणो नेव नज्जए दविणं । तहवि गयं चिय दीसइ मणंपि एवं, कहं होमि? || ३८ ।। हुं दुक्करेवि मग्गे एगो एत्येव अस्थि हु उवाओ। खणमेत्तं पि न दिज्जइ जइ मणपसरो पमायस्स ।। ३९ ॥ परमत्थं जाणंतो दंसियमग्गे सयावि वढ्तो । जइ खलइ कोइ कहमवि सरणं भवियव्वया तत्थ ।। ४० ॥ केत्तियमेत्तं बहुसो मणनिग्गहकारणं पयंपेमि । धन्नाण एत्तियं पि हु जायइ चिंतामणिसमाणं ।। ४१ ॥ गुरुकम्माणं एयं पुणरवि जाणावियंपि किर कहवि । पत्तंपि वरनिहाणं वियलियपुनस्स व न ठाइ || ४२ ।। पइदियहं जइ एवं ज्झाएमी तुह जिणिंद ! आणाए । तो जयथुयपाए पउमनाहं बीहेमि भवरन्ने ।। ४३ ।। सद्धासंवेगजुओ मणनिग्गहभावणं इमं जीवो। झायंतो निम्विग्धं कल्याणपरंपरं लहइ ॥ ४४ ॥ ॥ छ । मनोनिग्रहभावनाकुलकं समाप्तं ॥ छ (१७) गुरुभक्तिमहिमा कुलक नमिउं गुरु-पय-पउमं धम्माइरियस्स निययसीसेहिं । जइ बहुमाणो जुज्जइ काउमहं तह पयंपेमि ॥ १ ॥ गुरुणो नाणाइजुया महणिज्जा सयलभुवणमझमि । किं पुण नियसीसाणं आसन्नुवयारहेऊहिं ॥ २ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनुसन्थान ४४ गुरुयगुणेहिं सीसो अहिओ गुरुणो हवेज्ज जइ कहवि । तहवि ह आणा सीसे सीसेहि तस्स धरियव्वा ॥३॥ जइ कुणइ उग्गदंडं रूसइ लहुएवि विणयभंगमि । चोयइ फरुसगिराए ताडइ दंडेण जइ कहवि ।। ४ ।। अप्पसुहोवि सुहेसी हवइ मणागं पमायसीलोवि । तह वि हु सो सीसेहिं पूइज्जइ देवयं व गुरू ॥ ५ ॥ सोच्चिय सीसो सीसो जो नाउं इंगियं गुरुजणस्स । वट्टइ कज्जमि सया सेसो भिच्चो वयणकारी ॥ ६ ॥ जस्स गुरुम्मि न भत्ती निवसइ हिययम्मि वज्जरेहव्व । किं तस्स जीविएणं विडंबणामेत्तरूवेणं ? ।। ७ ।। पच्चक्खमह परोक्खं अवन्नवायं गुरूण जो कुज्जा । जम्मन्तरेवि दुलहं जिणिंदवयणं पुणो तस्स ।। ८ ।। जा काओ रिद्धीओ हवंति सीसाण एत्थ संसारे । गुरुभत्तिपायवाओ पुप्फसमाओ फुडं ताओ ।। ९ ।। जलपाणदायगस्सवि उवयारो नेव तीरए काउं । किं पुण भवन्नवाओ जो तारइ तस्स सुहगुरुणो ॥ १० ॥ गुरुपायरंजणत्थं जो सीसो भणइ वयणमेत्तेण । मह जीवियंपि एवं जं भत्ती तुम्ह पयमूले ॥ ११ ॥ एयं कहं कहंतो न सरइ मूढो इमंपि दिटुंतं । साहेइ पंगणं चिय घरस्स अब्भिन्तरा लच्छी ।। १२ ।। एस च्चिय परमकला एसो धम्मो इमं परं तत्तं । गुरुमाणसमणुकूलं जं किज्जइ सीसवग्गेण ।। १३ ।। जुत्तं चिय गुरुवयणं अहव अजुत्तं च होज्ज दइवाओ। तहवि हु एवं तित्थं जं हुज्जा तंपि कल्लाणं ॥ १४ ।। कि ताए रिद्धीए चोरस्स व वज्झमण्डणसमाए । गुरुयणमणं विराहिय जं सीसा कहवि वंछंति ॥ १५ ॥ कंडूयण निट्ठीवण ऊसासपमोक्खमइलहुयकज्जं । बहुवेलाए पुच्छिय अन्नं पुच्छेज्ज पत्तेयं ।। १६ ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ मा पुण एगं पुच्छिय कुज्जा दो तिन्नि अवरकिच्चाई । लहुएसु वि कज्जेसुं [ए] सा मेरा सुसाहूणं ॥ १७ ।। काउं गुरुंपि कज्जं न कर्हिचिय पुच्छि[ या] विगोविति । जे उण एरिसचरिया गुरूकुलवासेण किं ताण ? ॥ १८ ।। जोग्गाजोग्गसरूवं नाउं केणावि कारणवसेण । सम्माणाइविसेसं गुरुणो दंसंति सीसाणं ॥ १९ ॥ एसो सया विमग्गो एगसहावा न हुंति जं सीसा । इय जाणिय परमत्थं गरूँमि खेओ न कायव्वो ॥ २० ॥ मा चिंतह पुण एवं किंपि विसेसं न पेच्छिमो अम्हे। रत्ता मूढा गुरुणो असमत्था एत्थ किं कुणिमो? ॥ २१ ।। रयणपरिक्खगमेगं मुत्तुं समकंतिव्व न(वन)रयणाणं । किं जाणंति विसेसं मिलिया सव्वेवि गामिल्ला ? ॥ २२ ।। एयं चिय जाण मणो ते सीसा साहयंति परलोयं । इयरे उव(य)रं भरिउं कालं वोलिंति महिवलए ॥ २३ ।। एवं पि हु मा जंपह गुरुणो दीसंति तारिसा नेव । जे मज्झत्था होउं जहट्ठियवत्थु वियारंति ॥ २४ ॥ समयाणुसारिणो जे गुरुणो ते गोयमं व सेवेज्जा । मा चिंतह कुविकप्पं जइ इच्छह साहियं(उ) मोक्खं ॥ २५ ॥ वक्क-जड़ा अह सीसा के वि हु चिंतंति किंपि अघडंतं । तहवि हु नियकम्माणं दोसं देज्जा न हु गुरूणं ।। २६ ।। चक्कित्तं इंदत्तं गणहर-अरहंतपमुहचारुपयं । मणवंछियमवरं पि हु जायइ गुरुभत्तिजुत्ताणं ॥ २७ ॥ आराहणाओ गुरुणो अवरं न हु किंपि अस्थि इह अमियं । तस्स य विराहणाओ बीयं हालाहलं नस्थि ।। २८ ।। एयं पि हु सोऊणं गुरुभत्ती नेव निम्मला जस्स । भवियव्वया पमाणं किं भणिमो तस्स पुणरुत्तं ! ॥ २९ ॥ साहूण साहुणीणं सावय-सड्ढीण एस उवएसो । दुन्हं लोगाण हिओ भणिओ संखेवओ एत्थ ॥ ३० ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान ४४ परलोयलालसेणं किंवा इह लोयमत्तसरणेणं । हियएण अहवुरोहा(अहुवरोहा ?) जह वा तहवेत्थ सीसेण ।। ३१ ।। जेण न अप्पा ठविओ नियगुरुमणपंकयम्मि भमरोव्व । किं तस्स जीविएणं जम्मेणं अहव दिक्खाए ॥ ३२ ॥ जुत्ताजुत्तवियारो गुरुआणाए न हुज्जए काउं । दइवाउ मंगुलं पुण जइ होज्जा तंपि कल्लाणं ॥ ३३ ।। सिरि धम्मसूरि पहुणो निम्मल कित्तीए भरियभुवणस्स। सिरिरयणसिंहसूरी सीसो एवं पयंपेइ ।। ३४ ॥ छ ॥ छ ।। (१८) पर्यन्तसमयाराधनाकुलकम् सुहिओ वा दुहिओ वा थोवं जीवित्तु अह बहुं लोए । मा सो करेउ रवेयं जइ पावइ पंडियं मरणं ॥ १ ॥ जे संसारे पुव्वं मणुयभवा पाविया तएणंता । सव्वाणवि ताण अहो एसोच्चिय लहइ तिलयत्तं ॥ २ ॥ जेणेसा सामग्गी पत्ता तुमए अणंतसुहजणणी । ता धीरत्तं काउं ठावसु चंदे नियं नामं ॥ ३ ॥ परहत्थगएण तए पुव्वि रे जीव ! किं न जं सहियं । संपइ सुहडो होउं किं न ह गिण्हसि जयपडायं? ।। ४ ।। जइ पीडाए तुझं विहुरत्तं अत्थि जीव ! अइगरुयं । तहवि हु कन्नं दाउं एग चिय सुणह मह वयणं ॥ ५ ॥ अइकडुओ वि हु लिंबो अच्छी [नि]मीलित्तु साहसं काउं । खणमेगं छुटिज्जइ जह दीहं जीव(वि)यत्थीहिं ।। ६ ॥ तह सुहभावो होउं परमिट्टि सरसु कुणसु धीरत्तं । चइउं कुटुंबमोहं परिभावसु एरिसं तत्तं ।। ७ ।। जिणधम्मो मह सरणं गुरुचलणे भावओ नमसामि । सव्वजिएसुं मित्त(त्ति) नियदुच्चरियं च गरिहामि ।। ८ ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ आजम्मं जं तुमए तीसु वि संझासु मग्गियं भद्द ! | राहावेहसमं तं साहिय गिण्हसु जयपडायं ॥ ९ ॥ जइ जिय ! तुह नवकारो होही हिययंमि भावणासहिओ । ता सग्ग-सिवसुहं मह जाणसु करसंठियं अज्ज ॥ १० ॥ एयं परमरहस्सं तं निसुण महाणुभाव ! एकमणे । जिणमयभावियचित्तो जं अज्ज करेसि सुहडत्तं ॥ ११ ।। दाणं दाऊण बहुं तवंपि तविउं सुदीहरं कालं । सीलं चरिऊण चिरं पढिउं तहणेगसत्थाई ॥ १२ ॥ कू(का)रिय जिणभवणाई सद्धाए सेविऊण गुरुपाए । सव्वस्स वि फलमेयं जं अज्ज करेसि धीरत्तं ॥ १३ ॥ एयं काऊण तुमं मा पत्थसु मणुयसग्गरिद्धीओ। मग्गसु पुणोवि एवं सुहाण सव्वाण वरबीयं ॥ १४ ॥ मंगलनिहिपायपउमनाहमि जिणेह कज्जपडिवत्ती । जिणधम्ममि गुरुसु य चिंतिज्ज तुम इमं जीव ! ॥ १५ ॥ इय तं पंडियविहिणा काउं आराहणं चरिमसमए । तं नत्थि किंपि नूणं कल्लाणं जं न पाविहसि ॥ १६ ।। इति पर्यन्त समयाराधना कुलकम् ॥ छ । & (१९) उपदेशकुलकम् चिंतसु उवायमेसं संसारे गरुयमोहनियलाओ। चिरकालसेवियाओ रे ! मुच्चसि इह कहं जीव !? || १ ॥ मोहविसं अवणेउं गुरुदेसण-संतसंगमवसाओ । परिभावितो तत्तं उवएसामयरसं पियसु ॥ २ ॥ कुणसु दयं भणसु पियं मुंच परधणं चएसु परमहिलं । इच्छइ निलंभिऊणं इंदियपसरं तह जिणेसु ॥ ३ ।। सयलं पि हु सामग्गि धम्मे लहिऊण कहवि रे जीव!। सययं चोइज्जतो मा हारह एरिसं जम्मं ॥ ४ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कह एवं मणुयत्तं कह एसो तुज्झ जीव ! जिणधम्मो । हद्धी पमायजडिओ मा वच्चह घोरसंसारं ॥ ५ ॥ का माया को य पिया को पुत्तो पणइणीवि का तुज्झ ? 1. जह विज्जुलाझुलुक्क दीसइ एयं तहा सयलं ॥ ६ ॥ किं गेहं किं दविणं देहं पि हु तुज्झ जीव ! किं एयं ? | नडपेच्छणयसरूवं नाउं तं चयसु मयमोहं ॥ ७ ॥ एक्को चिय जीव ! तुमं भमिओ अइदुक्खिओ अणाहो य । नो तुज्झ परित्ताणं विहियं केणइ मणागंपि ॥ ८ ॥ निसुतो तं धम्मं हुंकारं देसि वायरहिओव्व । थेवं पि जं न कज्जे वट्टसि तं अहह मूढत्तं ॥ ९ ॥ पेच्छसि तुच्छे भोए नो पाससि नरयगरुयदुक्खाई । जीव ! बिरालोव्व तुमं पेच्छसि दुद्धं न उण लट्ठि ॥ १० ॥ अन्नभवे विहुरमणो कंपंतो दुस्सहाए वियणाए । हा ! हा !! करुणसरेणं पच्छा बहुयं विसूरिहसि ॥ ११ ॥ सव्वोवि तुहुवएसो दिनो तत्तंमि जाइ जह बिंदू | पेरिज्जतो सययं न हु चेयसि कीस अप्पाणं ? ॥ १२ ॥ दूरे सहणं दंसणमच्छउ नरउब्भवाए वियणाए । सुव्वंतीए विजिए उक्कंपो जायए गरुओ ॥ १३ ॥ सावि तए सहियव्वा कहं तए हियय ! कहसु सब्भावं । कंटे णवि परिभग्गे जं कंदंतो तहा हिट्ठो ॥ १४ ॥ जइ वियरसि परपीडं नाऊण वि दुक्खकारणं विउलं । तं जाणिय पाणहरं हा ! परिभुंजसि विसं मूढ ! ॥ १५ ॥ इह काऊणं पावं संपत्तो घोरनरयठाणेसु । नो दीणं विलवंतो छुट्टसि चोरो इव सलोहो ॥ १६ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं नत्तं अइसुंदरं तुमं जीव !! जं न कुणसि काएणं तं मन्ने गरुयकम्मोसि ॥ १७ ॥ जावय इंदियगामो वट्टइ आणाइ तुज्झ रे जीव ! । ता सुमरसु अप्पाणं मा तप्पसु अहव पच्छाओ ।। १८ ।। अनुसन्धान ४४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ ४७ रे ! गिहकज्जेसु सया दक्खो छेओ अईव सूरोसि । भविउं कायरदेहो सुनो विव सुणसि गुरुवयणं ॥ १९ ॥ किं चिंताए कि पलविएण किं तुज्झ जीव ! रुनेणं । नो कत्थइ कल्लाणं धम्माओ विणा तुम लहिसि ॥ २० ॥ देहमिणं गेहं पिव जं गहियं भाडएण पणदियहं । झरइ सया सव्वत्थवि पडितल्लं असुइधाऊहिं ॥ २१ ॥ निच्चं अपोसियं पुण जं मेल्लइ सत्तिनियममज्जायं। तत्थवि का तुज्झ रई रे जीव ! निलक्खणसहाव ! ॥ २२ ॥ जं जं भणामि अहयं सयलंपि बहिं पलाइ तं तुज्झ । भरियघडयस्स उवरि जह खिवियं पाणियं किंपि ॥ २३ ॥ इह जिय ! मुणसि पलोयसि संसारे तं विडंबणं सयलं । मन्ने जं नवि रज्जसि तं वंछसि नारयदुहाई ॥ २४ ।। वयणेणं भणियमिणं तरामि नो सिक्खिउंचवेडाए । सम्मं विभाविऊणं जं जुत्तं तं करेज्जासु ।। २५ ।। एवं उवएसकुलं जो पढइ सुणेइ अहव सद्धाए । सो उवमिज्जइ तेए दुह एणे (तेणं दुहिएणं?) रयणसिंहेणं ॥२६॥ छ । . (२०) श्री नेमिनाथ स्तव सयलतियलोक्कतिलयं निलयं विउलाण मंगलकलाण । वियलियकलुसकलकं नेमि थोसामि किंपि अहं ॥ १ ॥ तेत्तीसं अयराई वसिउं अवराइयंमि सामि ! तुमं । कत्तियदुवालसीए किन्हाए इह समोइन्नो ॥ २ ॥ सोरियपुरंमि नयरे भवणे सिरिसमुद्दविजयस्स । सिवएवि-कुच्छिकमले वसिउ(ओ) हंसोव्व जयनाह ! ।। ३ ।। उज्जोयंतो भुवणं सावणसियपंचमीए तं जाओ। गोयमगोत्ते जयगुरु चित्ताए कन्नरासिंमि ।। ४ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुसन्धान ४४ बत्तीसं इंदेहिं सुरसिहरिसिरम्मि सायरं न्हविओ। तिनि य वाससयाई कुमरत्तं पालियं तुमए ॥ ५ ॥ करुणसरं विलवंती निरुवमरूयाणुरायपुन्नावि । रायमई कह चत्ता नाह ! तए एक्कहेलाए ।। ६ ।। वियरियवच्छरदाणो छट्रेण तमं सहस्सपरिवारो। सावणसियछट्ठीए निक्खंतो नाह ! उज्जिते ।। ७ ।। चउपन्नं दिवसाइं छउमत्थो विहरिऊण उज्जिते । आसोयमावसाए संपत्तो उत्तिमं नाणं ।। ८ ।। मिच्छत्तविसाइन्नं भुवणं देसणसुहाइ बोहितो । सत्तसए वरिसाणं जाव तुमं विहरिओ एत्थ ॥ ९ ॥ पंचहिं छत्तीसेहिं सहिओ साहूण रेवयगिरिम्मि । आसाढअट्ठमीए सुद्धाए ते(तं) सिवं पत्तो ॥ १० ॥ धन्नोहं जयबंधव ! जमज्ज नयणाण गोयरं पत्तो । दुहदावतावियाणं निव्वावणअमियकुल्लसमो ।। ११ ॥ तुह मुहचंदे दिढे लोयणकुमुएहि विहसियं अज्ज । असुहमणपंकएणं सहसच्चिय मीलियं नाह ! ॥ १२ ॥ नवजलयसमे दिढे तणुमहिरोमंकुराण हेउंमि । भवभीरुत्तणहंसो सामिय ! मह माणसं सरइ ॥ १३ ॥ पई दिढे मह सामिय ! हरिसविसर्दृतसयलदेहस्स | नयणेहिंतो नीरं हिययाउ मलं गलइ जुगवं ॥ १४ ।। तुह उवरि अवन्नाए ईसालुत्तं वहति जे हियए । सिद्धिपुरंधी तेच्चिय निब्भरनेहो पलोएइ ।। १५ ॥ किं कि मए न पत्तं संसाए नाह ! दंसणे तुज्झ । चिंतामणिमि लद्धे अह चोज्जं केरिसं एयं ।। १६ ।। दो-सहस-जीहजुत्तो नाह ! सुवन्नोवि तुह गुणे थोउं । असमत्थो त्ति रि(वि?)याणिय नं लज्जाए वसइ हेट्ठो ॥ १७ ॥ तेच्चिय सवणा सवणा जे तुम्ह गुणे सयावि निसुणंति । तेच्चिय नयणा नयणा जे तुह रूअं नियच्छति ॥ १८ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ ४२ सच्चिय जीहा जीहा जा तुह थोत्ते समुज्जया नाह ! । तं चिय भालं भालं जं पयकमलं तुह नमेइ ॥ १९ ॥ मेरुपि व अइगरुयं खमाहरं देव ! तं धरं ठावि । जं संसारसमुदं तरंति भविया तमच्छरियं ॥ २० ॥ हिययजलहिमि सामिय ! जाण तुमं मंदरोव्व परिभमिओ। भावणअमियं जावइ निरुवमसुहकारणं ताण ।। २१ ॥ पई दिटे जयबंधव ! जं मह जायं मणमि किंपि सुहं । तं मोक्खंमि वि होही ई मह हिययं न सद्दहइ ।। २२ ॥ तुह पयकमलनिरूवण-निच्चुज्जुयमाणसो अहं सामि ! | नयणनिमेसंपि तया मन्ने विग्धं समोइन्नं ।। २३ ।। जेहिं तुमं गुणसायर ! धरिओ हियए खणपि सद्धाए । ते वि हु हुंति कयत्था आजम्मं किं पुण थुणंता ॥ २४ ॥ तुज्झ सरूवे नाए संपत्ते नाह ! दंसणे तह य । तं एगं मह मोत्तुं अन्नत्थ मणं न हु रमेइ ।। २५ ।। एसा तियलोयलच्छी एसोच्चिय मह महसवो परमो । जं पयकमलं सामिय ! भमरेण व तुह मए दिटुं ॥ २६ ।। इयु रयणसिंहसूरीहिं संथुयं जे थुणंति नेमिजिणं । ते दुत्तरभवसायरपारं पाविय लहंति सिवं ॥ २७ ॥ छ । छ । 8 (२१) श्री पुण्डरीकगणधर स्तोत्र पणमिय पढमजिणिदं सीसं तस्सेव सयलजयपयडं । अगणियमंगलनिलयं पुंडरियं गणहरं थुणिमो ॥ १ ॥ जेण इह भरहखेत्ते चउदस पुवाइं भवियकुमुयाणं । पढमं पयासिऊणं चंदेण व वियरिओ हरिसो ॥ २ ॥ तं भरहचक्कवइणो पुत्तं कोडीहि पंचहि समेयं । सेत्तुज्जे सिद्धिगयं पुंडरियं गणहरं वंदे ।। ३ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ ते धन्ना जेहिं तुमं विहरंतो भारहमि वासंमि। हरिसभरनिब्भरेहिं पलोइओ नयणनलिणेहिं ॥ ४ ॥ सिरिपंडरीयगणहर ! भुवणस्सवि मणहरं तुह सरूवं । अहवा अमियस्स रसो किं कस्स न सुंदरो होइ ! ॥ ५ ॥ रविणा करनियरेणं सयलंपि पयासियं जहा भुवणं । सिरिपुंडरीय गणहर ! तह नाणेणं तए वि जयं ॥ ६ ॥ तुह चंदसियगुणोहं सुमरंताणं मणमि अम्हाणं । सिवरमणीवच्छयले विलसंतो देसि आणंदं ॥ ७ ॥ जे पुंडरियतवेणं तुम्हं आराहयंति पयपउमं । ते सुरभवणे रज्जं मोक्खंपि लहंति अन्नभवे ॥ ८ ॥ एत्थ पुणो सोहग्गं आरोग्गं पवरपुत्तसंपत्ती । सयलजयवल्लहत्तं लहंति मणवंछियं सयलं ॥ ९ ॥ इय संथुयपायपउम ! नाह ! तुह पुंडरीय ! गुणकमले । मज्झ मणरायहंसो आसंसारं लहउ हरिसं ॥ १० ॥ छ ।। Pos (२२) श्री अणहिलपुर (कुमरनबिंद) रथयात्रा स्तवन सिरिचरिमतित्थनाहं पणमिय सिवरमणिकंठवरहारं । हरिसभरनिब्भरंगो जिणरहजत्तं थुणिस्सामि ।। १ ।। जिणसासणभवणसिरे छज्जइ जत्ता रहस्स कलसोव्व । आणंदं वियरंती वयणाणमगोयरं संघे ।। २ ॥ जिणसासणपरममहो ! जिणसासणउन्नई इमा पवरा । जिणसासणवद्धावणमेयं जिणसासणे सारं ।। ३ ।। जिणसासणनवणीयं जिणसासणजीवियं इमं परमं । जं कीरइ रहजत्ता संपइरन्ना जहा पुचि ॥ ४ ॥ छत्तनिरूभियरविकर-नरिंदपमुहेहिं नायरजणेहिं । तह विहिया रहजत्ता जह जाओ जयचमुक्कारो ।। ५ ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ जिणरहजत्तं पेच्छिय मणमि हरिसो तjमि रोमंचो। नयणेसुवाहजलं न हु जेसिं ताण किं भणिमो? ।। ६ ।। कलिकालंमि वि दीसइ जिणरहजत्ता पुरंमि एत्थेव । इंदेणवि नो तीरइ जह वन्नेउं मणागपि ॥ ७ ॥ कोऊहलाण सीमा अवही तह पेच्छियव्ववत्थूणं । मूलं पुत्रतरूणं अणहिलपुरंमि रहजत्ता ॥ ८॥ जम्मोवि ताण सहलो संसारे लोयणाण ताण फलं । अणहिल्लवाडनयरे रहजत्ता जेहिं सच्चविया ॥ ९ ॥ अणहिल्लनयरगयणे नंदउ कयवरविमाणवरजत्तो । कुमरनरिंदमयंको संघसमुदं सुहावितो ॥ १० ॥ इय पउमनाहसंथुय-रहजत्तं जे सरंति पइदियहं । ताण सुहं होइ फुडं अमियवसेणं वसित्ताणं ।। ११ ॥ छ । छ ।। (२३) श्री भारती स्तोत्रम् यन्नामस्मृतिरप्यशेषजगतीसंकल्पकल्पगुमं सद्बोधाम्बुधि --- पार्वणविधुर्मेधासुधासारिणः । खेलल्लक्ष्मिविलासकेलिवलभीसत्काव्यपण्यापणस्तामुद्दाममुदाऽवदातहृदयः स्तोतुं यते भारतीम् ।। १ ।। आनन्दाम्बुधिमध्यमग्नहदयः प्रोद्भूतरोमाङ्करः प्रोत्सर्पत्परितोषबाष्पसलिलैरालुष्यमानेक्षणः । देवि ! त्वत्पदपङ्कजभ्रमरतां धत्ते जनो यः सदा तस्याशेषसमीहितानि सपदि क्रीडन्ति हस्ताम्बुजे ।। २ ।। श्रीमद्देवि ! तव प्रसादसुभगा दृष्टिः किरन्ती सुधां मूर्ति चुम्बति भाविभाग्यललितां धन्यस्य यस्य क्षणम् । उद्यद्वादिविनिद्रदर्पदलना प्रोद्भूतसत्तेजसस्तस्यालिङ्गनमातनोति रभसाद्विद्या जगत्कार्मणम् ।। ३ ।। डिम्भेनापि च सारदे ! तव वरान्मूद्धिर्न प्रदत्ते करे काव्यं कारयते कृती मदहरं श्रीकालिदासस्य यत् । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ संप्राप्यातिशयं कुतोऽपि निखिलत्रैलोक्यविस्मापकं कुम्भोद्भूरथवा पपौ न जलधीन् सप्ताधि किं हेलया ? ।। ४ ।। निःश्वासोद्गतगन्धबन्धुरतया सोत्कण्ठबद्धस्पृहा धावन्ती मधुपालिरास्यकमले ब्राह्मि ! त्वया कौतुकात् । नूनं या करपल्लवेन विधृता प्राप्य स्मितैः शुभ्रतां ब्रूतेऽसौ कथमत्र मूढहृदयस्तामक्षमालां जनः ॥ ५॥ एतद्भारति ! पङ्कजं तव कराम्भोजे दधन् मित्रतां यत्पश्यामि हरिप्रियैकसदनं सच्छाययालङ्कृतम् । तन्मन्येऽस्मि करोषि यत्र मनुजे वासं प्रसन्ना सती तत्राद्यापि रुषा विषण्णहृदया धत्ते न लक्ष्मीः स्थितिम् ॥ ६ ॥ पाणिः सूर्यसमस्तम: परिभवी ते वाणि! यस्य क्षणं साम्मुख्यं भजते स्म नेत्रनलिनस्यानन्दमुद्रां दधत् । तस्याशाः सकलाधिक्श्चरदशां संप्रापयन्नन्वहं धत्तां मा वरदाभिधां कथमसावुत्तानलीलां वहन् ॥ ७ ॥ दोषाश्लेषजुषोपि विश्वमखिलं प्रीतिं नयन्तः परां राकाचन्द्रगभस्तयो जडतया सन्तप्तपद्यश्रियः । चञ्चत्पुस्तककैतवादहमिदं शङ्के गिरामीश्वरि ! पिण्डीभूय जडत्वसङ्गहतये भेजुस्त्वदीयं करम् ॥ ८ ॥ इत्थं निर्यदमन्दभूरिपुलकः प्रीतिप्रसन्नाशयः पाण्यम्भोजयुगं ललाटसरिति प्राप्य स्थितस्ते पुरः । देवि ! प्रार्थयते वरं प्रविदधच्छ्रीरत्नसूरिः स्तवं विश्वं क्षिप्तसमस्तमोहगहनं सर्व्वत्र भूयादिति ॥ ९ ॥ छः ॥ 203 अनुसन्धान ४४ (२४) श्री भरुयच्छ मंडण मुनिसुव्रतस्तवनम् तिहुयणजणमणलोयणपंकेरुहवणवियासणदिणिंद ! | भरुयच्छनयरमण्डण ! जय जय मुणिसुव्वयजिदि ॥ १ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ जेहि तुमं जयबंधव ! हरिसविसर्टेतनयणनलिणेहिं ।। एगंपि खणं दिट्ठी तिच्चिय धन्ना जए नूणं ॥ २ ॥ तेहि चिय मणुएहि पत्तं नियजम्मजीवियाण फलं । भरुयच्छनयरसंठिय ! मुणिसुव्वय ! जेहिं तं दिट्ठो ॥ ३ ॥ तुह नामसिद्धमंतं तिहुअणसिरितिलय ! सुव्वयजिर्णिद ! । जे झायंति तिसंझं ताणमसेसं वसं भुवणं ॥४॥ जाइसरणाइ नाउं पच्छिमजम्म सदसणाइ फडं। भरुयच्छे कारवियं मुणिसुव्वयसामियं वंदे ॥ ५ ॥ न हु अस्थि किंपि नूणं एत्थ असझं कयावि मह नाह ! । आणंदबाहनिब्भरनयणेहिं जं तुमं दिह्रो ।। ६ ॥ सव्वंगं रोमंचो जाण न फुरिओ जिणिद ! पइ दिढे । लद्धमि वि मणुयत्ते का हुज्जा निव्वुई ताण ? ।। ७ ।। परउवयारं मुत्तुं न हु सारं किंपि जीवलोगंमि । इय काउमस्सबोहं तं जिण ! भरुयच्छमोइन्नो ।। ८ ।। पइं पेच्छिऊण पहु ! महु(ह) अमंदआणंदगज्जयगिरस्स । अप्पा वि हु वीसरिओ किमहं अवरं थुणामि तओ? ॥ ९ ॥ जे परमाणू नूणं संसारे सारयं समावना । तेहिं तुमं निम्माओ नयणाणं तेण अमियसमो ॥ १० ।। तं चिय नयणाण सुहं मणनिव्वुयमंदिरंपि तं चेव । मह जीवियंपि तं चिय सव्वस्सं पि य तुमं अहवा ।। ११ ।। अज्जं चिय कप्पतरू लद्धो चिन्तामणी वि अज्ज मए । अज्जं चिय ससिणेहा सिद्धिवहू मं पलोएइ ॥ १२ ॥ एवं वद्धावणयं एसो मह अज्ज ऊसवो परमो । जं भुवणरयण! सूरीहि थुव्वसि सयावि तं नाह ! ॥ १३ ॥ छ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ (२५) श्री बावत्तरिजिन (कुमरविहार) स्तवनम् चउवीसंपि जिणिदे वोलीणे-वट्टमाण-भविए य । जहसंखं संखाए नामग्गहणेण वंदामि ॥१॥ केवलनाणि रिसहं महपउमं पढमयं नमसामि । निव्वाणमजियनाहं सूरद्देवं तहा बीयं ।। २ ।। वंदे सागरनाहं संभवमित्तो सुपासयं तइयं । अह महज्ज(ज)स मभिन्न(न)दण मित्तो य सयंपहं तुरियं ॥ ३ ॥ वंदे विमलं सुमई सव्वाणुभूई थुणामि पंचमयं । सव्वाणुभूई पउमं देवसुयं छट्ठयं वंदे ॥ ४ ॥ सिरिहरमहो सुपासं उदयं वदामि सत्तमजिणिदं । दत्तं चंदप्पहमह पेढालं अद्रमं वंदे ।। ५ ॥ दामोयरं च सुविहिं पोट्टिलनाहं थुणामि नवममहं । वंदे सुतेयनाहं सीयल सयकित्तियं दसमं ॥ ६॥ सामि तह सेयंसं सुव्वयमेकारसं च वंदेहं । मुणिसुव्वय चसुपुज्जं अममं वंदामि बारसमं ।। ७ ।। सुमई विमलं च तहा निकसायं तेरसं नमसामि । सिवगइमणंतनाहं चउदसमं निप्पुलायजिणं ।। ८ ।। अस्थायं धम्मजिणं निम्ममनाहं थुणामि पनरसमं । निम्मीसरं च संतिं सोलसमं चित्तगुत्तं च ॥ ९ ॥ अनिलं कुंथु च तहा समाहिनाहं नमामि सतरसमं । वंदे जसोहरनरं संवरमट्ठारसं वंदे ।। १० ।। वंदे कयग्घ-मल्लिं जसोहरं एक्कऊणवीसइमं । तत्तो जिणेसरं सुव्वयं च विजयं च वीसइमं ।। ११ ।। सुद्धमई नमिनाहं मल्लं थोसामि एगवीसइमं । सिवयरमरिठ्ठनेमिं देवं वंदामि बावीसं ।। १२ । संदणमह पासजिणं तेवीसइमं अणंतविरियं च । तह संपइ-महावीरं भई पणमामि चउवीसं ॥ १३ ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ इय पउमनाहगणिणा बावत्तरि जिणवराण संथवणं । कुमरविहारट्ठियाणं विहियमिणं कुणउ कल्लाणं ।। १४ ।। (२६) श्री पार्थजिनस्तवनम् जय जय पास ! सुहायर ! तं पेच्छिय सामि ! कुवलयं च अहं । आणंदं पयडंतो नियभावं किंपि जंपेमि ॥ १ ॥ अज्जं चिय गरुयमहो ! अज्जं चिय मज्झ मंगलं परमं । निरुवमसोहग्गनिही जं दिट्ठो सामि ! नयणेहिं ।। २ ॥ अज्जं चिय जाओ हं अज्जं चिय जीवियं अहं मन्ने । जं अमियकुंडतुल्लो नयणपहं पहु ! तुमं पत्तो ॥ ३ ॥ अज्ज चिय निहिलाहो अज्ज चिय दसदिसाउ पयडाओ। जं नाह ! जलहर ! मए मोरेण व तं सि सच्चविओ ।। ४ ।। अज्ज चिय उच्छाहो अज्जं चिय कामधेणुसंपत्ती । धणयपुरीरज्जोवमरोरेण व जं तुमं लद्धो ॥ ५ ॥ अज्ज चिय कप्पतरू अज्जं चिय अमियपूरिओ अप्पो । मंजरियचूयवणसम-कलयंठेणं व जं दिट्ठो ॥ ६ ॥ अज्ज चिय अच्छेरं अज्ज चिय हिययवल्लहं लद्धं । जं पहु ! तुह पयपउमे भमराइज्जइ महच्छीहिं ।। ७ ।। अज्ज चिय चक्किपयं अज्जं चिय इंदसंपया पत्ता। जं चरणसरे तुम्हं हंसो इव रमइ नयणजुयं ।। ८ ॥ अज्जं चिय रससिद्धी अज्जं चिय विधिया मए राहा। मुहचंदचंदिमा तुह जं पिज्जइ नयणचउरेहिं ।। ९ ।। अज्ज चिय मुत्तिसुहं अज्जं चिय तिहुयणे वि मह रज्जं । लायन्नजलं तुह पहु ! जं पिज्जइ नयणपुडएहि ॥ १० ॥ अज्जं चिय वद्धावणमज्जं चिय नच्चियं मह मणेणं । जयजयपडायसरिसं जं पत्तं दंसणं तुम्हा ॥ ११ }। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ तुह पयपंकयलीणं काऊण मणं जिणिंद ! पत्थेमि । जम्मे जम्मे वि पुणो होज्जमहं किंकरो तुम्ह ॥ १२ ॥ जह वयणेणं तह जइ मणमि मह पहु ! न एरिसा भत्ती । ता एत्थ तुमं सामिय ! नवरि पमाणं किमन्नेणं । १३ ।। इय रोमंचियगत्तो आणंदवसुल्लसंतबाहजलो । जोड़ियकरकमलोहं समग्गयं खलियवयणपरो ॥ १४ ॥ अज्ज कयत्थो धन्नो संपुन्नमणोरहो य जाओहं । भूमीइ सिरं काउं इय थुणिओ रयणसूरीहि ॥ १५ ॥ छ । || इति पार्श्वजिनस्तवनम् ।। ENGE (२७) श्रीधर्मसूरि देशनागुणस्तुति सिरिसिलसूरिगुरुगणहरह, पयपंकय पणमेवि । धमसूरि सूरिहि रलिय हउं, देसण गुण वन्नेवि ॥ १ ॥ परउवयारह मूलु जगि, देसणसरिसु न दाणु । सा धमसुरि तुहु वन्नियइ, जिण(म)जायइ सुहझाणु ॥ २ ॥ जिणवरधम्मु सुहावणउ, जोइ भासइ इहलोइ । जेत्तिउ अंतरु हवइ पुणु, तेत्तिउ पिच्छहु तोई ।। ३ ।। नीरह पिंडु पसिद्ध जगि, पोइणि ठवियउ जाव । मोत्तिय केरिय भंतविय, कवणह न करइ ताव ।। ४ ।। अलिउ पयंपइ एउ जणु, कलिजुगि वट्टइ लोइ । धमसुरिसन्निहु वररयणु, कयजुगु मिल्लि कि कोइ ।। ५ ।। धमसुरिझुणि जो अमियसम, कनंजलिहिं पिएइ। . सो छिदिवि भवबंधणई, सिवसोक्खई सेवेइ ।। ६ ।। धमसूरि देसण-महिम तुहु, पेच्छवि नियनयणेहि । बोल्लहिं बाल परोप्परवि, नाणाविहवयणेहिं ।। ७ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ सूसम जाइय अज्जु हलि, अमियहि वरिसिय मेह । पयपंकेरुह धमसुरिहि, भवियहु भत्ति नमेहु ॥ ८ ॥ हरिसपफुल्लियनयण हउ, अज्जु न मायइ अंगि। धमसुरि धम्मु कहताह, हियडइ नच्चिउ रंगि ।। ९ ॥ बहिणुलि कंतु न पुच्छियउ, मई आवंतिय अज्जु । जि मिल्लिवि गिह संगुहउं, साहउ सिवपय कज्जु ॥ १० ॥ नयण सलूणिय हेल्लि पुणु, काहिसु सफलउ जम्मु । गुरु पडिवज्जिवि धमयसूरि, गिण्हिसु सावयधम्मु ।। ११ ।। अच्छउ दंसणु दूरि तुहु, सव्वगुणंगणट्ठाणु । धमसुरि नाउंवि तुज्झु मह, अमियरसेण समाणु ।। १२ ।। नवजोयणि विलसंतियहि, घरणिहि घरु मेल्लेवि । दिक्ख लियहिं धमसूरि किवि, तुहु देसण निसुणेवि ॥ १३ ॥ कणयदंडमंडियपवर, सोहिय थंभसएहि । विहिचेइय किवि कारवहिं, नाणाविह ठाणेहिं ॥ १४ ॥ जंगम सरसइ मज्झु गुरू, सुरगुरु अह पच्चक्खु ।। धमसुरि सूरिहि तिलउ अह एह विसयहं निरवेक्खु ॥ १५ ।। हियड़ड निब्भर पूरियउं, महु धमसूरि गुणेहिं । एवहिं किज्जउ काई सहि महु उवएसु भणेहिं ।। १६ ।। भावण भावहिं केवि पुण, किवि दाणिण वरिसंति ।। सीलु कुणंति तवंति तवु, किवि धमसूरि थुणंति ॥ १७ ।। जयउ जयउ वक्खाण महि, जहि एरिस आलाव । पावारंभवि जेत्थु नर, संजायहिं सुह भाव ॥ १८ ॥ जो जणनयणाणंदयरु, सरउन्निव जिव चंदु । सो धमसुरि पणेमहु जण, सिवसाहणसुहकंदु ॥ १९ ॥ लडहकति सुकुमार-तणु दुद्धकवउ धारेइ । धमसुरिसरिसा एत्थु जगि, विरलउ गुरु पावेइ ।। २० ।। इय महुरवाणि जे गुणहि धमसुरि गुणथुइ एह । तेहिय वंछिउ सयलु सुह, पावहिं गयसंदेह ।। २१ ॥ छ ।। . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ (२८) श्री संखेश्वर पार्श्व स्तवनम् जय जय संखेसर तिलय देव, जगु सउ वट्टइ तुहतणिय सेव । विणु भत्तिहि तूसइ कसुवि नेव, तुट्ठउ पुणु जिव मणु देहि तेव ॥ १ ॥ संखेसरसंठिय पाससामि, वियलंति दुरिय तुहतणइ नामि । तहं धण कण कंचण तुरय धामि, हुंति जि झायहिं पई हंसगामि ॥ २ ॥ सुणि आससेण-नरवइहि पुत्तं, संखेसरमंडण मज्झु वुत्त । भवि भवि मग्गंतु तुम्ह पाय, संसारि न लग्गहि जिव आ(अ)पाय ॥३॥ कलिकालि असंभवु जसु पहाव, जग हवि उप्पायइ सु कु वि भावु । कसुवि न भावइ धरिहि वासु, संखेसरि वंदिउ जा न पासु ॥ ४ ॥ हं मन्नं किं पि न कप्परुक्खु, चिंतामणि वियरइ तं न सुक्खु । दुहुँ लोयह दूरि खिवेवि दुक्खु, संखेसरि पासु जु दितु मोक्खु ॥ ५ ॥ हलहलिउ लोउ वंदणह रेसि, चउसुवि दिसासु सव्वहिं विदेसि । अवरुप्परु जंपइ मइ वि नेसि, हअच्छ पउणउ कियइ वेसि ॥ ६ ॥ आवंति न लब्भइ मग्गु लोइ, संखेसरि पासह भवणि जोइ । गायंतइ नच्चिरि उद्धबाहु, पइसिवि पुज्जिज्जइ पासनाहु ।। ७ ।। कप्पूर कथूरिय कुंकुमेहिं, कई किज्जइ सव्विहिं कारिमेहिं । निक्कारिम एक जि भत्ति होइ, तो तुरियं वंछिउ हुतु जोइ ॥ ८ ॥ सउं भत्तिण जइ पुणु पूय होइ, जा कत्थवि दीसइ नेव लोइ । तो तसु उवमाणु न देइ कोइ, विलसंतउ भवियणु गुरु पमोइ ।। ९ ।। किवि मग्गहिं चंग सलोणनयण, किवि वंछहि कामिणि चंदवयण । किवि पुणु पत्थहि वरपुत्तरयण, किवि ईहहि सिवसुहु भत्तिपवण ॥१०॥ जइ कहवि निरंजण एक्कभत्ति, ता सयलु समीहिउ होइ झत्ति । माणुसह परिक्खइ देउ सत्ति, तर कुणइ सयल तसुतणिय तत्ति ।। ११ ।। सिरि धम्मसूरि गणहरहसीसु, सिरि रयणसिंह मुणिगणहईसु । न मुणइ थुणंतु निसि तह व दीसु, पासु सु निम्मलु जिव रवि अभीसु ।। १२ ॥ इय संखेसर पुरि विहियवासु, संपूरियतिहुपणसयलआसु । हं मग्गं एत्तिउ एक्कु पासु, महु निच्चवि वियरउ अप्पपासु ॥ १३ ॥ ws Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ (२९) श्री संखेश्वर पार्श्व स्तवनम् सिरि संखेसर संठिय ! निट्ठियकम्मट्ठगंठि ! पहु ! पास ! । नियकिंकरस्स मज्झं, विन्नत्तिं देव ! निसुणेहि ॥ १ ॥ रनंमि सग्गसरिसं, पड़िहासइ सयलभुवणवलयस्स । जत्थच्छरियनिहाणं, दीससि तं पास ! सुहवास ! ॥ २ ॥ संखेसरंमि पासो वासो सुसिणिद्धफलसमिद्धीए । कलिकालमरुमहीए, समुग्गओ कप्परुक्खोव्व ।। ३ ।। आणंदामयसारणि-तुल्लो मह मणकियारभूमीए । संखेसरम्मि पासो पसरंतो वंछियं देउ ॥ ४ ॥ जइ निरुवममणपसरो तुह पयकमलंमि पइखणं होज्जा । दूरेवि तस्स ता जिण ! अचिंतचिंतामणी सिद्धो ॥ ५ ॥ जं होसि पह ! पसन्नो दुत्थियदुहियाण रोयविहुराण ! करुणारसमयरहरो अज्जवि तं पास ! दीसिहसि ॥ ६ ॥ रणझणिरकणयकंकण-विप्फारियकरयलाहिं रमणीहिं । नच्चंतीहिं य मग्गो न हु लब्भइ पास ! तुह भवणे ॥ ७ ।। लखूण पुत्तजम्मं विलसिरआणंदवियसियच्छीओ। तियसाण वि सुहजणयं काउ वि गायंति महरसरं ।। ८ ।। भवजलहिपाणतुल्लो तिहुयणउद्धरणलग्गणाखंभो। सयलमणोरहपूरण-ठाणं तं चेव पास ! जए ॥ ९ ।। को वन्निउं त - - - पढिम संखेसरंमि तुह पास ! । जीहासहस्सजुयलं जइवि धरेज्जा अहिवइ- - || १० ।। -निद्धम्माचारवंदिय अनायवंताण दुट्ठहिययाण । संखेसर पास ! तुहं नामं पि हु सासणं कुणइ ॥ ११ ।। जिणसासणभत्ताणं सरलसहावाण सुद्धहिययाणं । संखेसरपास ! तुहं नाम पि ह वंछियं देइ ॥ १२ ॥ इय रयणसिंहसूरी संखेसरनयरभूसणं पासं । पत्थइ थोऊण इमं तिजयस्सवि कुणसु कल्लाणं ॥ १३ ॥ छ ।। Ng Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अनुसन्धान ४४ (३०) श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवनम् संखेसरि पुरि संठियह, पासह पाय जु झाइ । सो दूरिवि चितिउ लहइ, किं पुणु थुणइ जु जाइ ॥ १ ।। संखेसरि पासह चरण, नमइ जु एक्कमणेण । तसु निच्छई वंछिय सयल जायहिं एक्कखणेण ॥ २ ॥ लग्गु त काई वि साहियं, संखेसरि तुहु देव ! । जिणि तिहुयणु सउ मोहियं, कुणइ तहारियसेव ॥ ३॥ महु मुहि एक्क जि जीहडिय, तुह गुण लहं न अंतु । किव संखेसरि पास पई, पाविस तोसु थुणंतु ।। ४ ।। संखेसरु कप्पे वि सरुपउमु व पासजिर्णिदु । सो झाइज्जइ पइदियहु जसु पय नमइ फर्णिदु ॥ ५ ।। पुन्निम केरउ चंदुलउ, भवियहु पासु करेहु । मणु पुणु जलहि छवेवि तउ पिउ लहरिहिं पूरेउ ॥ ६ ॥ संखेसरि पासह पुरउ जीविउ तुलह धरेहु । इगनिच्छइ जउ तुट्ठ तउ वरु भावंतु वरेहु ।। ७ ॥ चिंतामणि चिंतिउ दियइ, पासु अचिंतिउ देइ । संखेसरि जो एक्कमणि, तसु पय पुणु वंदेइ ॥ ८ ॥ इय रयणसिंहपहुथुणिउ, संखेसरि जिणु पासु । मणवंछिउ पूरेवि जगि देउसु सिवपुरि वासु ॥ ९ ॥ (३१) श्री संखेश्वर पार्थ स्तवनम् संखपुरेसरि वंदहु देउ, जो जग भत्तिहि जाणइ भेउ । कासुवि न तुल्लउ जासु न तेउ, तासु न वंछिउ दितह खेउ ॥ १ ।। संखपुरेसरि पास जिणिंदु, उग्गउ लोयहु एक्कु दिसिंदु । किं नवु पुन्निम केरउ चंदू जेत्थु न अत्थु न कत्थवि फंदू ।। २ ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ खोणि-सरोवर किं सयवत्तू कप्पतरू कि जु सूसमवुत्तू । हुं इहु राणिय वंमह पुत्तू संखपुरेसरि पासु निरुत्तू ॥ ३ ॥ संखपुरेसरि पासु वसंतू जा मण काणणि हू विलसंतू । तं वणु तेव फलि वियसंतू जोइ ज नंदुणु तं पि हसंतू ॥ ४ ॥ संखपुरेसरि पासु जु वन्नं पच्छिमसंमुहु तं न हु मन्त्रं । माणुसु जिं न त दिड्ट्टु अदंनं जं वरि देव न तुज्झु रवन्नं ॥ ५ ॥ संखेपुरे सिरिपासह थोत्तु, जंपइ निम्मल भत्ति जु जुत्तू । तासु विक्खणु जायइ पुत्तू मंडई जो गुणवग्गिण गोत्तू ॥ ६ ॥ देउ गुरु किर भत्तिय तो, चितिउ एउ ज तं पुण पोसं । संखपुरेसरि पासु विसेसं, जाणइ अंतु न कोइ असेसं ॥ ७ ॥ संखपुरेसर मंडण देवा, पास जिणेसर तुह कय सेवा । हं जडु सक्कु न जंपिसि लोया, भत्ति परायण नच्चहु लोया ॥ ८ ॥ रतनसिंह मुणीसरु देवा, थुत्ति तुम्ह करेप्पिणु सेवा । जंपइ अज्जवि अम्ह उमाहा, जांहि न दंसणि नो पणमेवा ॥ ९ ॥ छ ॥ 800 (३२) श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तोत्र यस्त्रैलोक्यगतं ततं गुरुतमः स्तोमं निहन्तुं क्षमः प्रौढातङ्कभृतां नृणां जिनपतिस्तापं विलुप्य क्षणात् । सर्व्वस्याऽमृतपूरपूरणरतिं विस्फारयन्नेत्रयोर्नव्यः शंखपुरेश्वराम्बरमणिः कुर्यात्स वः कामितम् ॥ १ ॥ अत्यन्ताद्भुतसंमदाम्बुदततिप्रोद्भूतरोमाङ्करै दृष्टे यत्र बभूव [ नेत्र ? ] वसुधा सत्पुण्यपुष्पाञ्चिता । श्रीशंखेश्वरमण्डनैकतिलकः कुर्व्वन् वसन्तोत्सवं स श्रीपार्श्वजिनेश्वरः स्फुरतु नः स्फूर्जन् मनः कानने ॥ २ ॥ येन त्वं स्मृतिमात्रतोऽपि मनसा ध्यातः प्रभो ! सादरं कुर्व्वाणेन गिरा स्तुतिं निरुपमां बाष्पोम्मिलक्ष्यां स्फुटम् । ६१ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ४४ कायेनापि हि संनतिं विदधता पञ्चाङ्गभङ्गस्पृशा स श्री शंखपुरस्थपार्श्व ! लभते लोकद्वये निर्वृतिम् ।। ३ ।। आधिव्याधिसमस्तकुष्टपिटकश्वासार्तिकण्डूज्वरप्रेतोद्भूतजलोदरप्रभृतयो ये सन्ति रोगाः क्षितौ । यद्वत्तीव्रतमांसि यान्ति विलयं मार्तण्डतेजस्ततेस्तद्वत्तेऽपि यजु(यु)स्तव स्मृतिवशाच्छंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। ४ ।। हेलास्फालितकुम्भिकुम्भदलनप्रोद्भूतगर्वोद्धुरं दृष्यं(श्य)तं किल कोऽपि कोपितममुं सिंहं निहन्तु क्षमः । त्वां पार्श्व ! स्तुवता प्रतापकलने त्वं येन तुल्यः कृतः खद्योतं स रवेः समं वितनुते शंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। ५ ।। धृत्वादौ प्रणवं सुनादकलितं मायाख्यबीजान्वितं पर्यन्ते च नमस्ततो निजयुतं काम्यार्थसम्पादकम् । हर्षोल्लासवशेन शुद्धमनसा यद्यस्ति सत्यं वचो विज्ञप्ति: फलदा तदा मम भवेच्छंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। ६ ।। दिग्भ्यः क्षुभ्यदबिभ्यदं च न धिया भक्तिं दधद्वन्धुरां प्राप्याभ्यर्थितमर्थसार्थमसकृद्यति नन्तुं जनः । आनन्दामृतसिन्धुवीचिजनकं नित्यं नृणां पश्यतां तं त्वां स्तौमि मुदा शशाङ्कसदृशं शंखेश्वरस्थ प्रभो ! ॥ ७ ॥ लुभ्यल्लोलविलासकेलिललनासंभोगरंगस्पृशः श्रुत्वा तेऽपि तव प्रभावमतुलं - - ति द्रष्टुं भृशम् । हित्वा वेश्मकथां प्रथामवितथा सद्ध्यानधर्म्य दधद् वक्तुं कश्चिदलंगु - - मु भवेच्छंखेश्वरस्थ प्रभो ! ॥ ८ ।। स श्री पार्श्व ! मम प्रकारवशतः किं वास्तु भावस्तवा ।* दद्याद्वयः (?) पुरुषागता जनततेः शंखेश्वरस्थ प्रभो ! । दृश्यद्वेषगजेन्द्रदर्पदलनप्रादुर्भवद्विस्मयं प्रोद्यत्कर्मकुरङ्गभङ्गजनकं शार्दूलविक्रीडितम् ।। ९ ॥ * स मम संबन्धी उल्लासरूपविच्छित्तिवशात् भावौस्तु ममैवयः कु० सार्दू किंवा पार्श्व तव संबंधी ऽस्तु प्रशब्द्वशात् प्रभावः यः पुरु० कु० सार्दू० (ताडपत्रप्रतिगतेयं टि०) । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ त्रैलोक्यं सकलं मया प्रतिकलं दृष्टान्तमन्वेषितुं देव ! त्वगुणवर्णनां विदधता विस्फारितं मानसम् । एकस्यापि गुणस्य तत्त्वतुलया लेभे क्वचिन्नोपमा हर्षात्सर्वमिदं विलंध्य गदितं शंखेश्वरस्थ प्रभो ! ।। १० ॥ संस्तुत्येत्थमसौं जिनेश्वर ! तव श्री पार्श्व ! पादाम्बुजं स्वीयस्वान्तसमुत्थदौस्थ्यदलनैः सद्भावगभैः पदैः । विश्वं शर्मपदं नयेति निगदन्नभ्यर्थनासार्थकं मूर्धानं भुवि सनिधाय नमति श्रीरत्नसिंहप्रभुः ॥ ११ ॥ छ । లయ (३३) श्री धर्मसूरि छप्पय श्रीधम्मसूरिचंदो सो नंदउ चंदगच्छ गयणंमि । निय जसजोन्हापसरेण जेण धवलीकयं भुवणं ।। १ ॥ कामकरडिघडवियडकुंभविहडणपंचाणणु मुणियसत्थपरमत्थु वीरतित्थह वित्थारणु । सयलतक-साहित्त-कव्व-लक्खणिहि सुनिच्चलु पयड पठल पडिवक्ख दप्प कप्परण सुपच्चलु ।। जो सीलसूरि वर गणहरह गरुयगच्छवित्थारकरु सो धम्मसूरि इह चिर जयउ निम्मलगुणपब्भारधरु ।। १ ।। किं सुरकरि गुलगुलइ पहु ! सग्गह अवयरियउ किं सुम्मइ दुंदुहिनिग्घोसु इहु जगि वित्थरियउ । किं सायरु धडहडइ एह बहिरंतदियंतरु किं गलगज्जइ सजलु एहु अहिणवु धाराधरु ।। छणचंदकुंदकप्पूरसमु कित्तिनियंबिणिकेलिगिहु । हुं नाउ नाउ देसणह भरि धम्मसूरिमुणिरायु बुहु ।। २ ।। जिणरि दलिवि वद्दियहं दप्यु जयसिरि अवमंडिय जिणरि कुतित्थियसत्थकंति तक्खणि फुडु खंडिय । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जिरि वयणविन्नाणि झत्ति कंपाविय पंडिय । जिरि वसुंधर सयल एह नियकित्तिहि मंडिय । अह धम्मसूरि परमेसरह किं वन्नणु इय गुणिहि तहि । उद्दाम करिंदेह केलिवणु भंजंतह थुइ कवण कहि ॥ ३ ॥ उवसमलच्छिहि पथडु कंठकंदलि विलसंतउ । नं सोहइ मोत्तियह हारु तेइण दिप्पंतउ || 'नं वइदेविहि देहमाणु जोयंतिय दप्पणु । नं पयडइ मल्हंतु एह देवहगुरु अप्पणु ॥ इ धम्मसूरि पेक्खेवि जगि कवणि कवणि न हु वंनियइ । इउ चितिवि सग्गि पुरंदरिण नं आणंदहि नच्चियइ ॥ ४ ॥ कुमुयहुयासणु पज्जलंतु जलहरु जिंव तज्जइ । कामकर्रिदह सिंह जेव भंजणि कमु सज्जइ । देसणलहरिहि उच्छलंतु सायरु जिव गज्जइ । वाइडप्फरु निम्महंतु जो गुरु जिव छज्जइ । तसु धम्मसूरि जयसेहरह वियड भुवण रंगावणिहि उद्दाम परिहि हल्लप्फलिण नच्चि कित्तिनियंबिणिहिं ॥ ५ ॥ कप्पूरुज्जलगुणिहि जेण इह भुवणु चमक्किउ | दुद्दमवद्दियबिंदु जेण जुत्तिहि फुडु हक्किउ || पंडियवग्गिण नियवि झत्ति सुरगुरु जो संकिउ । तो तक्खणि पडिवक्खु सयलु नियहियइ धसक्किउ || तसु धम्मसूरि मुणिराय ! तुहु फुडु जि विलंबं संथवणु तो हरिसवियंभिउ मज्झ मणु लहइ न निव्वुइ एक्क खणु || ६ || अरिरि सुदुद्धरु जित्तु जेण वद्दिउ रायगणि अरिरि निवेसिड नाउं जेण कोमुइ मयलंछणि । अरिरि वियंभइ कित्ति जासु अइधवल दियंतरि अरिरि सरस्सइ वसइ जासु ससि [सिरिचंद] गच्छ चूडारयणु जिणसासणउन्नइकरणु । ।। इय जयउ तित्थ [ यरतुल्ल धम्मसुरि] भवियहं सरणु ॥ ७ ॥ अनुसन्धान ४४ - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००८ मोहमल्ल निम्महण कुमयमयगलपंचाणणु उवसमअमियपवाहु हरिसफुल्लह वरकाणणु । संवेगदुमपढमकंदु गुणकुमुयसुहायरु जणमणचिंतियकामधेणु दुहतिमिरदिवायरु || निसुणंत जइत्थुवि भवियजण अच्छहि विलसिर सिद्धिसुहि । सा धम्मसूरि-देसणलहरि वन्नि कु सक्कइ एक्कमुहि ।। ८ ।। पुहइपुरंदर हिययमोरनच्चण घणु नज्जइ गुणगणमणिरोहणगिरिंदु बुहयणिहि सुणिज्जइ । सज्जण जणमणजलहिचंदु जगि पयडु मुणिज्जइ भवियनलिणबोहणदिणिंदु जो महियलि गिज्जइ ।। तसु धम्मसूरि हं तुयचरण पउमनाह वनेवि किह ओ जहं जगि कित्ति समुच्छलिय महमहंत कप्पूर जिह ।। ९ ॥ छ । छ । (३४) श्री शासनदेवी स्तोत्रम् चउवीसंपि जिणिदे वंदिय आणंदनिब्भरमणेणं । सासणदेवि थुणिमो जणणि पिव सयलसंघस्स ॥ १ ॥ नीसेसविग्घसंघं सिग्धं संघस्स हरउ कुणउ सिवं ।। एसा सासणदेवी अतुलबला विजयविक्खाया ॥ २ ॥ सीसे मण(सीसगण ?) संजुयाणं अम्ह गुरूणं विसेसओ संति । स - - - - - कालं सासणदेवी समायरउ ॥ ३ ॥ धम्मपभावणहेडं अपुत्तमहिलाण पुत्त -- - - - - हिया समाणा सासणदेवी कुणइ नूणं ।। ४ ।। कप्पूरागुरुकुंकुमसुगंधपुप्फाइपूइया संती । मोयगनिघरं दाउं सकारिय पवरवत्थेहिं ।। ५ ।। जो जं पत्थइ वत्थु दुल्लहलंभंपि तिहुयणे सयले । सासणदेवी विहरइ भत्तिसणाहस्स तं तस्स ॥ ६ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान 44 सासणदेवी निसुणउ अहं विनत्तियंति भणइ जणो / लहु दुक्खड़ाई तुट्ठा जइ कह वि हु भावसाराए / / 7 // ता जिणहरम्मि अम्हे पोसहसालाइ सयणवग्गंमि / आरुग्गं अब्भुदयं धणरिद्धि देउ सयकालं / / 8 / / को माहप्पं तुम्हं वन्नेउं तरइ देव (वि !) भुवणंमि। जइ जंपइ धरणिंदो अहव सुरिंदो अह गिरिंदो // 9 // इय रयणसिंहसूरी सासणदेवीए संथवण काउं / धम्मियजणाण भई रुद (?) कुणसु त्ति पच्छेइ // 10 // // इति शासनदेवी स्तोत्रं समाप्तं / / छ / /