Book Title: Shrutsagar 2018 11 Volume 05 Issue 06
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNEGUJMULI2014766126 19SN 2454-3705 श्रतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTILY) November-2018, Volume :05,15800:08, Annual Subscription Rs. 150/-Prive Per copy Rs. 18EDITOR:I Kiskere Dosal BOOK POST PRINTED MATTER ३. योद्धा १.शंख २.घोडा ४. हाथी ५.वृषभ ७.वासुदेव ८. चक्रवती 'ज्ञानपंचमी स्तवन' लेख में प्रयुक्त १६ उपमाओं के चित्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 2 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में दीपावली पर्व पर आयोजित शारदा व लक्ष्मी पूजन की कुछ झलकियाँ For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 SHRUTSAGAR RNI : GUJMUL/2014/66126 November-2018 ISSN 2454-3705 आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-५, अंक-६, कुल अंक-५४, नवम्बर-२०१८ Year-5, Issue-6, Total Issue-54, November-2018 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ नवम्बर, २०१८, वि. सं. २०७५, कार्तिक शुक्ल-७ आराधक श्री मस तकेन्द्र. अमृतं तू विद्या आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ अनुक्रम रामप्रकाश झा आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri 8 1. संपादकीय 2. आध्यात्मिक पदो 3. Awakening 4. १३ भवगर्भित पंचोटिमंडन श्रीआदिजिन स्तवन 5. दीपावलीपर्व सज्झाय 6. ज्ञानपंचमी स्तवन 7. सोळमा शतकनी गुजराती भाषा 8. पुस्तक समीक्षा 18 श्रीमती मैत्री शाह सुश्री मीनाक्षी आर. शिंदे श्री गजेन्द्र शाह मधुसूदन चिमनलाल मोदी डॉ. हेमन्तकुमार 23 30 33 इक पोथी इक पदमणि, नवि दीजै पर हथ। वा विगडे पंडित विना, वा विगडै पर सथ ॥१॥ हस्तप्रत क्र.२६७७० भावार्थ - पोथी (पुस्तक) और पद्मिनी (स्त्री) को दूसरे के हाथों में नहीं देनी चाहिए। पंडित के बिना पोथी और दूसरों का साथ पाकर पद्मिनी बिगड़ जाती है (भ्रष्ट हो जाती है)। * प्राप्तिस्थान* आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR November-2018 संपादकीय रामप्रकाश झा दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। प्रस्तुत अंक में योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “आध्यात्मिक पदो” की गाथा ६७ से ७९ तक प्रकाशित की जा रही हैं। इस कृति के माध्यम से साधारण जीवों को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए पूज्यश्री ने अहिंसा, सत्यपालन, आहारादि से संबंधित प्रतिबोध कराने का प्रयत्न किया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। अप्रकाशित कृति के रूप में सर्वप्रथम श्री संघविजय रचित “१३ भवगर्भित पंचोटिमंडन श्रीआदिजिन स्तवन” प्रकाशित किया जा रहा है। कुल ७१ गाथाओं की इस कृति में पाटण के पंचोटी में विराजमान आदिनाथ प्रभु की स्तवना की गई है। इस कति के माध्यम से प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान के १३ भवों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। द्वितीय कृति के रूप में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की विदुषी कार्यकर्ली सुश्री मीनाक्षी शिन्दे के द्वारा सम्पादित श्री समयसुंदर गणि कृत “दीपावलीपर्व सज्झाय” प्रकाशित किया जा रहा है। इस लघु कृति की कुल २२ गाथाओं में दीपावली पर्व की महिमा का सुन्दर वर्णन किया गया है। तीसरी कृति के रूप में उपाध्याय भावहर्ष द्वारा रचित “ज्ञानपंचमी स्तवन" प्रकाशित किया जा रहा है। इसके सम्पादक पंडित श्रीगजेन्द्रभाई शाह हैं। इस कृति के माध्यम से ज्ञान की महत्ता दर्शाते हुए ज्ञानपंचमी की आराधना की विधि बतलाई गई है। प्रस्तुत अंक से पुस्तक समीक्षा पुनः प्रारम्भ की जा रही है, इसके अन्तर्गत इस अंक में आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा रचित “ध्यान: आंतर यात्रा" पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित की जा रही है। पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में “सोलमा शतकनी गुजराती भाषा" नामक लेख का गतांक से आगे का भाग प्रकाशित किया जा रहा है। हम आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे आगामी अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ आध्यात्मिक पदो आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी (हरिगीत छंद) (गतांक से जारी...) निर्दोष जीवन जे करे ते वेद साचा आदरो, निर्दय विचारो ज्यां भर्या ते वेद जूठा परिहरो; निर्दोष वाणी वेद छे अमृतमयी भाषा भरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. दुःखी हृदयने ठारवा आशीः नीकळती वेद छे, ब्रह्मोपयोगी वेद ज्यां त्यां लेश पण नहि खेद छे; ब्रह्मोपयोगी योगीने वंदु नमुं चरणे पडी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. वेदो अनादि काळथी आत्मप्रदेशे छे भर्या, आत्मा स्वयं वेदो सही व्यक्तिए ते प्रगटे धर्या; आत्माविषे जे ज्ञानना ते क्यांय नहि जोशो जरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. आत्माविषे वेदो सकळ निश्चय करी प्रगटाववा, ज्यां आत्मज्योति झळहळे ते वेद मनमां भाववा; वेदो निहाळो आत्मामां चिन्ता विकल्पो संहरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. सत्ताथकी सहुजीवमां वेदो रह्या अनुभव करो, समज्या विना शब्दोविषे झघडा करीने क्यां मरो; ज्ञानी हृदयथी उठता ते शब्द वेदो ल्यो सुणी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. ज्यां वेद एवं नाम छे ते वेद नहि सहु जातना, पर्याय शब्दे वेदना वेदो ग्रहो सहु भातना; अध्यात्मविद्या ज्यां घणी ते वेद विद्या में गणी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir November-2018 SHRUTSAGAR प्रभुए कथ्या वेदो खरा ते वेदमां हिंसा नहीं, पशु रक्त ज्यां पीयूँ कथ्युं ते वेद नहि मानो सही; सर्वज्ञनो दुश्मन नहीं का एज साचो छे धणी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. कृतकर्म जीवो भोगवे सर्वज्ञ भाखे छे खरूं, सर्वज्ञ भाषित कर्मनी व्याख्या हृदयमांही धरूं; कर्मो शुभाशुभ प्रगटीने सुख दुःख आपे हरघडी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. ज्यां कर्म त्यां अवतार छे मरवूज कर्मे थाय छे, अवतार इश्वरना कथे कर्मो रह्यां परखाय छे: कर्मो थकी जे मुक्त ते छे सिद्ध व्यक्ति परवडी; एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. नोवेल गप्पांज्यां लख्यां इश्वर वचन ते नहि खरे, ज्यां मोह मिथ्या वास छे ते नहि प्रभु जाणो अरे; इश्वर वचन कहेवाय नहि अज्ञानता ज्यां बहु भरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. समभाव वचनो वेद छे ए वेदथी मुक्ति मळे, आधि उपाधि सहु टळे आनन्दनी वेळा वळे; समभावधारक वेद छे प्रणमुंज तेने लळी लळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. समता सरलताना विचारो वेद छे निश्चय कडं, निःस्वार्थता मन शुद्धतामां वेद हार्दज में लडं; चारित्र संयम वेद छे सहु वेदमां शिरोमणि, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. षट्कायरक्षाकारका अवधूत मुनियो जे दिसे, ललनापरिग्रह त्यागीनी, पासे खरा वेदो वसे, जे उन्मनीभावे रह्या ते वेद उपयोगी मणि, एवी अमारी वेदनी छे, मान्यता निश्चय खरी. 79 (क्रमशः) For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ Awakening Acharya Padmasagarsuri (from past issue...) fr-lut arenTui” Tinnana Tarayanam An enlightened man swims across the ocean of samsar (the cycle of birth and death) and also helps others to cross it. Besides knowledge, there is the need for right action also. "Targhet 21 HTT:9 Jnana Kriyabhayam Mokshah The good man flies towards Moksha (deliverance) on the wings of knowledge and action. He does not forget to use the oil of action to burn the flame of knowledge. How can the light of knowledge burn without the oil of action? Knowledge gets satisfaction only from the food of right action. Knowledge comes to us through the sacred voice of the Lord. An enlightened Mentor can enable us to hear the Lord's voice. If we act in accordance with that sacred voice, our souls will reach the highest peaks of excellence and perfection. When the sacred voice of the Lord is raining, we should collect it in the vessel of our mind or memory. In case we are separated from the mentor (i.e. when he goes on his holy wanderings) we should open the vessel and drink the essence of knowledge and wisdom. If the Gurudev is not available; and if we have with us the collections of his discourses, we can study them repeatedly and with concentration. All can endeavor to lave their minds in the ambrosia of his precepts and can purify their minds. By this means we can acquire (Samyaktva) rightness; and get rid of our (Mithyatva) illusion. (Continue...) For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 9 श्री संघविजय कृत १३ भवगर्भित पंचोटिमंडन श्रीआदिजिन स्तवन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir November-2018 मैत्री शाह 1 आचार्य श्री शीलगुणसूरिजीना आशीर्वादथी वनराज चावडा द्वारा स्थापित, कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरि महाराजा जेवाथी पावन थयेल तथा कुमारपाळ महाराजा जेवा शासनभक्त गुरुभक्त राजा अने धर्मरसिक श्रेष्ठीवर्योथी वासित, तीर्थरूप शताधिक प्राचीन जिनालयोथी मंडित, प्रख्यात प्राचीन ज्ञानभंडारोनी भूमि, अनेक पोळपाडा अने महोल्लाथी मंडित एवी नगरी पाटण नी प्रभुताथी आज कोई अजाण नथी । आ ज भव्य पाटण मध्ये स्थित एक तीर्थनी स्तवना अत्रे करवामां आवी रही छे। 'पांचोटिमंडण श्री आदिजिणंद, दरिसन दीठड़ परमाणंद, जिनमंदिर सुरमंदिर जिस्युं, पेखतां मुझ हियडुं हस्युं' जेनुं दर्शन अनोपम आनंदनुं कारण छे, जेनुं मंदिर देवमंदिर जेवुं शोभे छे, एवा पाटणना पंचोटी महोल्लामां बिराजमान श्री आदिनाथजीनी स्तवना आ कृतिमां कराई छे । कृतिमां वर्णवेल प्रतिमा संप्रति महाराजाना समये निर्माण करायेल होवानुं कर्ता नोंधे छे तथा साथे-साथे ६६मी गाथामां लखे छे के- 'श्री श्रीमाली न्याति मंडाण, वसइ श्रावक तिहां चतुर सुजाण, पूजा भगति जिननी बहु करइ, पुण्य भंडार निज पोतइ भरइ' श्रीमाली ज्ञातिना चतुर श्रावक त्यां वसे छे अने आ प्रतिमानी पूजा बहु ज भक्तिभावथी करी पोताना पुण्यभंडार भरे छे। कर्ता परिचय: 'जैन गुर्जर कविओ' अने 'सम्राट अने सूरीश्वर' पुस्तकना आधारे मेघजी ऋषिए लोंकामतनो त्याग करी सं. १६८२मां आचार्य हीरविजयसूरि पासे दीक्षा लीधी अने मेघजी ऋषिनुं नाम उद्योतविजय राखवामां आव्युं । आ प्रसंगे अमदावादना जैन संघे मोटो उत्सव कर्यो हतो । आ दीक्षा- अवसरे मेघजीनी साथे तेमना त्रीस (मतांतरे अठ्यावीस) शिष्योए पण तपागच्छनी दीक्षा लीधी । ते त्रीसमां मुख्य आंबो, भोजो, श्रीवंत, नाकर, लाडण, गांगो, गणो, माधव अने वीरादि हता । तेमांथी 'गणो' नामना शिष्यनुं 'गुणविजय' एवं नाम राख्यं । अने तेमना शिष्य ते कवि संघविजय । जे आ कृति ना कर्ता कही शकाय । 1 For Private and Personal Use Only कर्ताए कृतिमां ते समये विद्यमान गच्छाधिपति तरीके श्रीविजयसेनसूरि महाराज तथा तेओश्रीना शिष्य आचार्य श्रीविजयदेवसूरि महाराजना नामनो उल्लेख कर्यो छे। एटले के तेमनी विद्यमानतामां कृतिनी रचना थई तेवुं कही शकाय । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर ॥४॥ 10 नवम्बर-२०१८ कृति परिचय: ७१ गाथायुक्त पद्यबद्ध आ कृतिनी भाषा देशी मारुगुर्जर छ । कृतिनी रचना 'संवतसशिरसकायनिधान' एटले के विक्रम संवत १६६९ आश्विन शुक्ल पक्षमा तृतीयाना दिवसे थयेली छ। कृतिना प्रारंभे कर्ताए मंगलाचरणमां अमृतवचननी देनारी कविओनी माता सरस्वती, शासनदेवी तथा गुरुनु स्मरण कर्यु छे। त्यार बाद पुनः स्तवना करतां पूर्वे आदिनाथजीने पण समर्या छे अने कह्यु के“जु सुगुर मुखि अवतरइ, कोडि पूरवनुं आय। कोडि रसना जु मुखि हुई, तुहि गुण कह्या न जाय अनंत गुण जिनजी तणा, कहितो न लहुं पार। तु हिई मुज उलट थयो, थुणवा श्री नाभि मल्हार" ॥५॥ ___जो सुगुरु मुखमां अवतरे, आयुष्य करोड पूर्व- थई जाय, मुखमां करोड जिह्वा होय तो पण नाभिनंदनना गुणनो पार न आवे। मंगल स्मरण पश्चात् प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथजीना १३ भव, पर्याय अने संपदाना उल्लेख पूर्वक १७मी सदीमा प्रवर्तमान मधुर भाषा शैलीमा प्रभुनी स्तवना करी छ । विशेषमां प्रतिमानी प्राचीनता दर्शावतां संप्रति महाराजाना सुकृत्योनी टुंकी नोंध पण कर्ताए मुकी छ। कृतिविषयगत आदिनाथजीना १३ भवनी टुंक नोंध प्रथम भवे महाविदेहक्षेत्रमा धना सार्थवाह थया अने मुनिने घी- दान आप्यु । द्वितीय भवे देवकुरुक्षेत्रमा युगलीया थया। लीजे भवे सौधर्म देवलोकमां देव थया। चोथे भवे महाविदेहमां महाबल राजा थया। पांचमे भवे ईशान देवलोकमां ललितांग नामे देव थया । छठे भवे महाविदेहमां वज्रजंघ नामे राजा थया । सातमे भवे उत्तरकुरुमां युगलीया थया। आठमे भवे सौधर्म देवलोकमां देव, नवमे भवे वैद्य थया त्यां साधुओनी सेवा करी तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कर्यु । दशमे भवे २२ सागर आयुष्य वाळा १२मा अच्युत देवलोके देव थया, अग्यारमे भवे महाविदेहमां पुंडरीगिणि नगरीमां वज्रसेन नामे चक्रवर्ती थया, अहिं कविए चक्रवर्तीनी ऋद्धिनुं वर्णन कर्यु छे। अंते चक्रवर्ती संयम स्वीकारी वीस स्थानकनी २०-२० वार आराधना करी बारमे भवे सर्वार्थसिद्ध नामना अनुत्तर विमाने ३३ सागरोपमना आयुष्यवाळा लवसत्तम नामे देव थाय छे अने तेरमे भवे प्रथम तीर्थंकर तरीके जन्म ले छे। For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 11 कृतिविषयगत संप्रति महाराजाना सुकृतोनी टुंकी नोंध“वीर निर्वाण पछी हवड़ जुओ, बिसइ वरसनइ अंतरि हुओ । संप्रति राजा नाम प्रसिद्ध, जेणि बहु उत्तम करणी कध लख्य बारनइ पंच हजार, नविन प्रासाद कराव्या सार । छत्रीस सहिस्स वली जीर्ण उधार, प्रासाद कराव्या अति उदार बि कोडी बिंब भराव्या तदा, पंचवीस लाख वली उपरि मुदा I ते वारानी प्रतिमा एह, चिति म धरस्यो अवर संदेह" November-2018 ॥६३॥ ॥६४॥ ॥६५॥ वीर निर्वाण पछी बसो वरसना अंतरे संप्रति नामे प्रसिद्ध राजा थयो जेणे अनेक उत्तम कार्यो कर्यां । तेमां I १२ लाख ५ हजार नूतन प्रासाद कराव्या । ३६ हजार जीर्णोद्धार कराव्या । २ करोड २५ लाख प्रतिमा भरावी। ते समयनी आ प्रतिमा छे, एमां कोई संशय नही । प्रत परिचय: प्रस्तुत कृतिथी संबंधित एक प्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामां प्रत संख्या-३१४४६ पर उपलब्ध छे । आ प्रत श्रीगुणविजयजीना शिष्य गणि श्रीसंघविजयजी द्वारा श्री अणहिल्लपुर पाटण मध्ये श्री खेतलवसही पाडामां रहेनार सुश्रावक, पुण्यप्रभावक, श्री देवगुरुभक्तिकारक साह नानजी ना पठन हेतु लख्यानो उल्लेख छे । For Private and Personal Use Only त्रण पनानी संपूर्ण प्रतमां आ एकमात्र कृति लखायेली छे। प्रत्येक पाने १५ थी १६ पंक्तिओ छे अने प्रति पंक्ति ४८ से ५० अक्षर संख्या छे । वि.सं. १६७०ना माह शुक्लपक्ष १५ अने शनिवारना दिवसे कर्ताना स्वहस्ते लखायेली आदर्श प्रत छे । प्रतनी स्थिति सारी अने अक्षर सुवाच्य छे। मध्यमां खाली चोरस फुल्लिका तथा विशेष पाठने गेरु लाल रंगथी अंकित करेल छे । ग्रंथ रचना अने लेखन वच्चे मात्र चारेक महिनानुं अंतर जणाय छे। गणिश्रीए पाटण चातुर्मास कर्यं होय अने ते समये ज आ कार्य थयुं होय एवं अनुमान थई शके । आदर्श प्रत होवाथी पाठो प्रायः शुद्ध छे आ कृतिनी अन्य प्रत हजु सुधी उपलब्ध थवा पामी नथी । प्रत उपलब्ध करावा बदल आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबानो हार्दिक आभार व्यक्त करुं छु । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 नवम्बर-२०१८ ॥१॥ ॥२॥ ||३|| ||४|| श्रुतसागर श्री संघविजय कृत आदिजिन स्तवन GO॥ गणिश्री ५श्री गुणविजय परमगुरुभ्यो नमः। ॥हा॥ सरसति भग(व)ति भारती, कविजन केरी माय। अमृत वचन निज भगतनई, आपो करी पसाय शासनदेवी चित्ति धरु, प्रणमुं निज गुरु पाय । प्रथम तीर्थंकर वर्णवू, श्री रिसहेसर राय भव तेरह स्वामी तणा, हुं संक्षेपि भणोस (भणीस)। रचुं तवन रलीयामगुं, सफल जन्म करोस (करीस) जु सुरगुर मुखि अवतरइ, कोडि पूरवनुं आय। कोडि रसना जु मुखि हुई, तुहि गुण कह्या न जाय अनंत गुण जिनजी तणा, कहितो न लहुं पार । तु हिई मुज उलट थयो, थुणवा श्री नाभि मल्हार ॥ढाल चउपई राग रामगिरि ॥ पहिलइ भवि माहाविदेह मझार, सुगुणवंतनइ अति उदार। धनो नामि हुओ सारथवाह, जाणे पुण्य तणो परवाह दीधु मुनिनइ घृतनुं दान, तेहथी वाध्यो अधिको वान। भव बीजइ युगलीउं हवू, देवकुरु खेत्रि अभिनQ त्रीजई भवि अवतरीया देव, सुधर्मि देवलोकि देव। माहाविदेहइ माहाबल सोय, भव चउथइ नरपति ते होय ईशान देवलोकि ललतांग, देव हुआ भव पांचमइ चंग। वली माहाविदेहइ वज्रजंघ राय, छठ्ठइ भवि निज पूरी आय तिहांथी उत्तर कुरइ युगलीयुं, भव सातमइ अनोपम थयुं । देव(?) तणो भव आठमइ करइ, सुधर्मि देवलोकि अवतरइ हवइ नुमइ भवि गुणह निधान, हुआ वैद्य केशव राजान । कीधुं साधुं नइ बहु आशान, करी निरोग देहइ चडीओ वान ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 13 तेहथी त्रिभुवनि वाधी माम, तीर्थंकर पद बांध्यु ताम । तिहांथी चवीया दसमइ भवि, पुनरपि सुदगति इम योगवइ अच्युत देवलोकि बारमइ, बावीस सागर आय अनुक्रमई । सुरतणा तिहां भोगवइ भोग, पूरवकृत पुण्यनुं ए योग अग्यारमइ भवि ल्यइ अवतार, पुंडरगिणि महाविदेह मझार । वयरसेन चक्रवर्ति तिंहा थया, वयावच्च तणी ए मया बत्रीस सहिस मुगटधर राय, कोडि छिनुं सेवक नमइ पाय । चउसठि सहिस जस अंतेउरी, वीरांगना बिमणी सुंदरी लाख चुरासी मयगल मिल्या, लाख चुरासी हयवर भला । लाख चुरासी रथना धणी, ईत्यादिक ऋद्धि पामी घणी सुख संसारतणा विलसंत, इंणि परि चक्रधर राज करंत । अनित्य संसार मनि जाणी करी, भूपि चारित्र कमला वरी वीस स्थानक तप वीस वीस वार, तप जप संयम पालइ सार । अंति समय आराधन कीध, तिहांथी पहुता सर्वारथसिद्ध चउसठि मणनां मोती जिहां, काल न जातो जाणइ तिहां । लवसत्तमा सुर तेहनुं नाम, सुख संपूण तस अभिराम तेत्रीस सागर तेहनुं आय, तिंहाथी वलि चविआ सुरराय । जंबूद्वीप अनोपम ठाम, दक्षिण भरत तिहां अति अभिराम कोशल देश जिहां अवज्झापुरी, इंद्रि सुंदर रचना करी । कुलगर नाभि नरिंद सुजाण, जेहनी सघलइ वरती आण तास प्रियास शिवयणी सती, मरुदेवी राणी गुणवती । अंगि सोहइ शीयल शिणगार, अपत्सरा रूपि मनावइ हार सुंदर रूप मनोहर नारि, तस जामलि दूजी नही संसारी । निज प्रिउस्युं सुख विलसइ सती, दुःखनी वात न जाणइ रती भव तेरमइ तस उयरि मझारि, आषाढी वदि चउथि उदार । प्रथम तिर्थंकर जगदाधार, अवतर्या त्रिभुवन तारणहार For Private and Personal Use Only November-2018 ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ 112011 ॥२१॥ 112211 ॥२३॥ 112811 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 ॥२५॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ सुख सेजइ पुढी कामिनी, सपन पेखइ सा मध्ययामिनी। निर्मल चउद सपन सपन निरखीआ, मरुदेवी माडी हरखीयां सपन वात निज प्रिउनइ कही, नाभि नरिंद निज मनमां ग्रही। शुभ विचार कीधो क्षणि रही, तुम्ह सुत निश्चई होस्यइ सही ॥२६॥ त्रिभुवननइ मानीतो हस्यइ, सकल लोक तस शिर नामस्यइ। वात खरी जव भुपइ करी, मरूदेवी मनि उलट धरी कर जोडी प्रिउ प्रति ईम भणइ, वंछित फल होस्यइ आपणइ। गर्भ पोषइ शुभ डोहला धरइ, पुण्यइ नित कल्लोल ज करि चैत्र वदि आठमि शुभ वार, उत्तराषाढा नख्यत्र उदार । नव मास साढा दिन वली सात, जनम्या जगगुरु माझिम राति पूरव दिशि जिम उदयो भाण, तिम जनम्या सहित त्रिण नाण। दिशि कुमरी छपन्न तिहां मिली, सुतिकरम करई मननी रूली चऊसठि सुरपति सुरगिरिशृंगि, जन(जन्म)महोत्सव करइ मननइ रंगि। अमृत ठवइ अंगूठइ तदा, देव चीवरयुग कुंडल मुदा सचिपति आरोपइ प्रभु अंगि, जिननइ ठवइ मातानइ उछंगि। निज थानकि पहुचइ सुरराय, सवि कहइनइ मनि आणंद थाय ॥३२॥ नाभि भूप सुत जनम्या भणी, दीइ अमूल्यक वधामणी। धवल मंगल सुरपतिनी नारि, दीइ नाभि कुलगरनइ द्वारि ॥३३॥ सुत जनमि महोत्सव करइ बहू, सजन लोक मनि हख्र्यु सहू। नाम ठव्यु त्रिभुवनपति तणुं, ऋषभ निरूपम सुहामणुं कनकवानि जस सोहइ शरीर, सुरगिरिनी पिरि साहस धीर । धवल पख्यि जिम वाधइ चंद, तिम वाधइ मरुदेवी नंद इन्द्र कन्हइ इखु मागी लीध, इख्वाग वंश हुओ नाम प्रसिध। पदवी कुमरतणी जगदीस, भोगवी पूरव लाख ज वीस ॥३६॥ यौवन वइ जब प्रभु आवीया, सुनंदा सुमंगला परणावीया। राजतिलक जव इंद्रि दीउं, राज त्रिसठि पूरव लख्य कीउं ॥३७॥ ॥३१॥ ॥३४|| ॥३५॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 15 कला प्रगट कीधी अभिनवी, बहुतिर कला पुरुषनी हवी । महिला कला चउसठि वर्ष्णवी, अनुक्रमइ जिनजीइ सवि सीखवी भरथ बाहुबलि प्रमुख उदार, सो बेटा हुआ कुलि शिणगार । सकल सतीमां मूलगी हवी, ब्राह्मी सुंदरी पुत्री अभिनवी जिनजीनइ हुओ बहु परिवार, युगलाधर्म्म निवारणहार । पुनरपि लोकांतिक सुर जेह, संयम समय जणावइ तेह त्रिणसइ अठ्यासी कोडिनुं दान, इंसी लाख वली ऊपरि मान । आपइ हेम वंछित देई मान, तेहनुं वरस लगई कहिउं मान दान संवत्सरी देई जिनराज, सकल लोकनां सार्यां काज । राजभार निज पुत्रनई दीइं, अनोपम संयम प्रभुजी लीइ बईसी सुदंसणा पालखी मांह, आवइ सिधारथ वन छइ जिहां । अशोक तरूवर तिहां छइ भलो, ते हेठलि स्वामी गुण निलो ज्येष्ठ वदि आठमि मनि मुदा, लोच करइ चिहु मुष्टी तदा । च्यार सहिस पुरुषवर साथी, संयम लीधुं श्री जगन्नाथि देवदुष्य वस्त्र एक खंधि धरइ, तिहांथी प्रभुजी विहार ज करइ । छठ्ठ भगत तपनइ पारणइ, पहुचइ आहार तणई कारणइ दिन दिन प्रति षट्जीवन पाल, जिहां घरि पहुचइ देव दयाल । कनक अश्व गज आदर घणइ, ल्यो ऋषभजी इम जन भणइ केवि कन्या शिणगारी दीइ, जिनजी कछु भि ते नवि लीइ । किम दीजइ प्रभुनइ जल आहार, मुगध लोक नवि लहइ विचार वात सुणी श्रेयांस कुमार, ल्यो बावाजी इखुरस आहार । करु अम्हारु पवित्र घरबार, वरसीतप पूरण करी सार कर्तुं पारणुं इखुरस आहार, त्रिभुवनि वर्त्यो जयजयकार । एक सहिस वरस परमांण, कर्म खेपवइ चतुर सुजाण वदि एकादशी फागुण तणी, निग्रोध तरु तलि त्रिभुवन घणी । अट्ठमभक्त जण विण तप करइ, शुक्ल ध्यान मनमांहि धरइ For Private and Personal Use Only November-2018 113211 ॥३९॥ 118011 ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ 118811 ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ 114011 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 ॥५१॥ ॥५४|| ॥५५॥ ॥५६॥ श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ उपन्नु वर केवल नांण, महोत्सव करइ सुरासुर भांण। त्रिगडु रचइ सुरपति तिहां मिली, भविकजीवनी आस्या फली रयण जडित सिंघासण सार, तिहांकणि बइसई जगदाधार । अतिशय त्रीस अनइ वली च्यार, वाणी गुण पांत्रीस उदार ॥५२॥ छत्र शिर उपरि बिहु पखि चमर, वींजई हर्ष धरी करी अमर । धर्म उपदेश दीइं चिंहु मुखिइ, पर्षदा बार सुणइ अति सुखइ ॥५३॥ पुंडरीक प्रमुख हुआ अति भला, चउरासी गणधर गुण निला। उसभसेन प्रमुख मुनि कहुं, संख्या सहिस चुरासि लहुं ब्राह्मी सुंदरी प्रमुख माहासती, त्रिण लाख हुई गुणवती। श्रेयांस प्रमुख श्रावक सुजाण, लख्य त्रणि सहिस पंच प्रमाण सुभद्रा प्रमुख सुश्राविका कही, लख्य पंच चुपन सहिस सही। चउविह संघ थापइ जिनभाण, दिन दिन वाधइ अधिक मंडाण धनूष पंचसय प्रभुनु देह, वृषभ लंछन अति सोहइ तेह। गोमुख जख्य चक्केसरी सुरी, प्रभु शासन नित सानिधि करी त्र्याशी लाख पूरव गृहवाशि, वशिआ जगगुरु मन उल्हाशि। व्रत पाल्यूं पूरव लख्य एक, बुझव्या भविक जंतु अनेक ॥५८॥ सर्व आय पाल्यूं एटलुं, लाख चुरासी पूरव भलु। निर्वाण समय अष्टापद श्रृंगि, विश्वनाथ पहुचइ मनरंगि ॥५९॥ सहिस दस मुनिवरस्युं स्वामि, अणसण ल्यइ निज आतम कामि। माघ वदि तेरसी शुभ दिनई, बइठा ऋषभजी पर्यंकासणइ चउदसभक्त उपवाशि करी, मुगति वधू जेणि हेलां वरी। निर्वाण महोत्सव करइ सुर घणा, गुण गाइ श्री आदिजिन तणा पांचोटिमंडण श्री आदिजिणंद, दरिसन दीठइ परमाणंद। जिनमंदिर सुरमंदिर जिस्युं, पेखंतां मुझ हियडू हस्युं ॥६२॥ वीर निर्वाण पछी हवइ जुओ, बिसइ वरसनइ अंतरि हुओ। संप्रति राजा नाम प्रसिद्ध, जेणि बहु उत्तम करणी कीध ॥६३।। लख्य बारनइ पंच हजार, नविन प्रासाद कराव्या सार। छत्रीस सहिस्स वली जीर्ण उधार, प्रासाद कराव्या अति उदार ॥५७|| ॥६०॥ ॥६ ॥ ॥६४॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 17 November-2018 ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ SHRUTSAGAR बि कोडी बिंब भराव्या तदा, पंचवीस लाख वली उपरि मुदा। ते वारानी प्रतिमा एह, चिति म धरस्यो अवर संदेह श्री श्रीमाली न्याति मंडाण, वसइ श्रावक तिहां चतुर सुजाण । पूजा भगति जिननी बहु करइ, पुण्य भंडार निज पोतइ भरइ ए नित नाम सदा चिति धरो, भवसागर जिम हेलां तरो। जिनगुण गातां निर्मल बुद्धि, जिन गुण गातां वंछित ऋद्धि जिनगुण गाता कुटुंबनी वृद्धि, जिन गुण गातां अष्ट माहासिद्धि । रोग शोग(क) नु हइ आधि न व्याधि, जिन गुण गातां सुख समाधि संवत सशिरसकायनिधान, ए संवत्सर कह्यो परधान । आसो माशि तृतीया उजली, कर्यु तवन पूरण मनि रली जिहां हु अविचल मेरु गिरंद, जिंहा ग्रहगण तारा रवि चंद। तिहां लगई श्री ऋषभ चरित्र, भणइ गणिइ तस जन्म पवित्र ॥कलस॥ ए प्रथम नरपति प्रथम मुनिवर प्रथम भिख्याचर हवो। ए प्रथम जिनवर प्रथम केवली भाव आणी मइ स्तव्यो। तपगछपति श्रीविजयसेनसूरि श्रीविजयदेवसूरि पटोधरु। गणि गुणविजय शिष्य सिंघविजय कहि सयल संघ मंगल करूं ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७९॥ इति श्री ऋषभदेवाधिदेवजिनराज स्तवनं संपूर्णं । लिखितं संवत १६७० वर्षे माघ मासे शुक्लपक्षे पुर्णिमा तिथौ सूर्यसुत दिवसे गणि श्रीगुणविजय शिष्य गिणि सिंघविजयेन लिखितं । श्री अणहिल्लपत्तन मध्ये श्री खेतलवसही पाटके वास्तव्य सुश्रावक । पुण्य प्रभावक । श्री देवगुरु भक्ति कारक साह नानजी पठन कृतेति भद्रं भूयात् ।श्रीः For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 18 नवम्बर-२०१८ श्री समयसुंदर गणि कृत दीपावलीपर्व सज्झाय मीनाक्षी आर. शिंदे प्रस्तावनाः जैन शासनमां दर्शावेलां प्रत्येक पर्व आत्मविकासनी साधनामां विविध प्रकारे उपकारक बनतां होय छे। चरम तीर्थपति श्रमण भगवान श्रीमहावीरस्वामीना निर्वाण कल्याणक साथे संकळायेलं 'दीपोत्सवपर्व' अनेक आत्माना जीवनने अनेरा आध्यात्मिक प्रकाशथी झळहळां करतुं होय छे । आ दीपोत्सवपर्वने ध्यानमा राखीने अनेक महापुरुषोए संस्कृत, प्राकृत अने गुजराती भाषामां गद्य के पद्यस्वरूपे अनेक ग्रंथोनी रचना करी छ। __ भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान होवाना कारणे अहीं प्रत्येक पर्वनी पोत पोतानी आगवी विशेषता छ । ए पर्वोनो संबंध प्रायः कोई ना आराध्य देव अथवा कोई महान पुरुषोनी साथे छे। तात्पर्य ए छे के भारतीय पर्व महापुरुषोथी संबंधित छे अने ए एमना संदेश, स्मृति अने उपासना हेतु स्थापित थया होय छे । आ धार्मिक अने नैतिक पर्वो तेनी साथे रहेल संदेश तथा उपदेशने पोताना जीवनमां उतारवा माटे छे अने तेना ज माध्यमे व्यक्ति पोतानी उन्नति, कल्याण अने मोक्षसुखने प्राप्त करी शके छे। ____ अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामी कार्तिक कृष्णपक्ष (गुजराती आसो कृष्णपक्ष) अमावसना दिवसे स्वातिनक्षत्रमां पावापुरी नगरीमा निर्वाण पाम्या हता। आ महान अने पावन दिवसने जैन परंपरामां 'वीरनिर्वाण' पर्वनां रूपमा उजववामां आवे छे। कृति परिचयः प्रस्तुत कृति श्री समयसुंदर गणि द्वारा राजस्थानी भाषामां पद्यबद्ध २२ गाथाओमां रचायेली छे। आ कृतिमां दीवालीपर्वनो महिमा बहु सुंदर रीते वर्णवामां आव्यो छे । कर्ताए प्रथम गाथामां 'भजन करो भगवानरा, गणधर गोतमस्वाम' कहीने परमात्मा तथा गणधर श्रीगौतमस्वामीन मंगल स्मरण कर्यु छे. त्यारबाद दीपावलीनी आराधनानो उपदेश देतां कडं के आ दिवसे भगवान महावीरस्वामीनी मुक्ति अने गौतमस्वामीने केवलज्ञान थयु होवाथी आ दिवस मोटो छे अने आ दिवसे निंदा, विकथा, परवंचना वगेरे तथा अन्य पण मोटा पापोनो त्याग करी सामायिक, For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 19 November-2018 प्रतिक्रमण, पौषध अने जापमां मग्न रही दुर्लभ एवा मानवजन्मने सफल करवो जोईये । ज्ञानरूपी दीवडो, कायानी वाट, समकितरूपी ज्योतनी वात करीने कर्ताए आध्यात्मिक दीपावलीनी बहु ज सुंदर वात जणावी छे । साथे-साथे भावपूजानुं वर्णन करतां कहे छे के दयारूपी जलथी स्नान, शीलरूपी सुंगधित चंदनथी विलेपन, दानशील - -तप-भावनारूपी अक्षत, धीरजरूपी धूप अने तपरूपी अगर उखेववुं जोईये। दयाना दहीवडा, क्षमाना खाजा, नवतत्त्वना नैवेद्य करी जिनेश्वरनी पूजा करवी जोईये । प्रस्तुत कृतिना गाथा क्रमांक प्रतिलेखक द्वारा न अपायेल होई अमे आपेल छे. आ कृति अन्यकर्तृक तथा अज्ञात कर्तृक पण मळे छे, तेमां गाथा परिमाण ३२, ३९ अने ४३ एम भिन्न-भिन्न प्राप्त थाय छे। कर्ता परिचयः श्री समयसुंदर गणि जैन परंपराना एक समर्थ कवि छे । रास, चोपाई, प्रबंध गीत, सज्झाय, स्तवनादि मळी कुल ५०० थी अधिक तेमनी रचनाओ जोवा मळे छे। देशी उपरांत नानी-मोटी संस्कृत - प्राकृतादि भाषाबद्ध रचनाओ पण ५० थी अधिक छे। कविनी रचनाओमां कविनां पांडित्य, भाषाप्रभुत्व, बहुश्रुतता उपरांत विशिष्ट कवित्वनां दर्शन थाय छे। समयसुंदरनो जन्म राजस्थानना सांचोरमां थयो हतो एवो उल्लेख 'सीताराम चोपाई' मांथी मळे छे। एमना जन्मवर्ष अंगे जे अनुमानो थयां छे, तेमां श्रीमोहनलाल दलीचंद देसाईनो अभिप्राय समुचित जणाय छे। तेओ सं. १६२० थी १७०० एटले के ई.स.१५६४ थी ई.स.१६४४ सुधीना गाळाने कविनो जीवनकाळ गणावे छे। समयसुंदर पोताने खरतरगच्छना अनुयायी तरीके ओळखावे छे। नेमिचंद्रसूरिथी आरंभी सकलचंद्रगणि सुधीनी गुरुपरंपरा कविए 'अष्टलक्षी अर्थरत्नावली' नामना पोताना संस्कृत ग्रंथनी प्रशस्तिमां गणावी छे। समयसुंदरनी दीर्घ रचनाओमांथी केटलीक नोंधनीय कृतिओनो अहीं उल्लेख कर्यो छे। जैन कवि समयसुंदर सत्तरमा शतकना एक उत्तम गीतकार हता । समयसुंदरनी गीतरचनाओ संख्यादृष्टिए घणी छे । एटलुंज नहि, गुणवत्तानी दृष्टि पण केटलीक तो अजोड छे । एमनां गीतो गुजरात राजस्थानना जैन समाजमां खूब प्रचार पाम्यां। राजस्थानमां तेमनी गीतरचनाओना संदर्भमां एक लोकोक्ति प्रचलित छे। “समयसुंदररा गीतडां, कुंभे राणेरा भींतरां” कुंभा राणाए करावेल स्थापत्यो अद्भुत छे तेम समयसुंदरनां गीतो पण ध्यानाकर्षक छे। For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 20 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ समयसुंदरनी गीतरचनाओना सातेक विभाग पाडी शकाय :- (१) प्रासंगिक गीतरचनाओ (२) तीर्थंकरोनी बाळलीला वर्णवतां गीतो (३) गुरुगीत ( ४ ) स्तवन, सज्झाय आदि (५) उपदेशगीतो (६) रूपकगीतो अने (७) हरियालीओ। कविना काळधर्मना वर्ष अंगे क्यांय आधारभूत माहिती मळती नथी । राजसोमना एक अंजलिगीतमां समयसुंदरनुं अवसान संवत १७०२ना चैत्र मासनी सुद १३ ना रोज अमदावादमां थयुं होवानो उल्लेख छे। संवत १६५९मां रचायेल 'शांब - 1 -प्रद्युम्न चोपाई' थी आरंभीने 'द्रौपदी चोपाई' जे सं. १७०० मां रचाई होवानुं नोंधायुं छे ते गाळाने कविनो कवनकाळ गणावी शकाय । आम शब्द अने भावनी फूलगूंथणीमां मध्यकालीन जैन गीतकारोमां श्री समयसुंदर अद्वितीय छे। प्रत परिचयः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत कृतिथी संबंधित प्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामां उपलब्ध छे। हस्तप्रत संख्या ३८४४९ने आधार मानीने आ कृतिनुं संपादन करवामां आव्युं छे। आ प्रतनुं प्रतिलेखन वर्ष विक्रम सं. १८५१ कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष, १० तिथि, स्थळ ढानलामां, प्रतिलेखक मतिसागरे लखी छे । प्रतमां कुल २ पत्त्रो छे। प्रत्येक पत्रमां १२ पंक्तिओ अने प्रत्येक पंक्तिमा २८ थी ३१ अक्षरो छे। प्रतनी लेखनशैली सुंदर, स्पष्ट अने सुवाच्य छे। श्री समयसुंदर गणि कृत दीपावलीपर्व सज्झाय भजन करो भगवानरा, गणधर गोतमस्वाम । तरण तारण पुरषा तणा, लीजें नीतपत नाम दीवालीरो दन वडो, राखो धरमस्युं सीर । गोतम केवल पांमीया, मुगत गया महावीर जो दीन दीवालीरो वडो, तो मत कर जाडा पाप । नंद्या वगता परहरो, कीजो ज (जि) णवर जाप सामाईक पोसा करो, पडिकमणु दोय काल । इम आतमनें अवधारो, छोड द्यो झुटो झंकार काति वदि अमावस्यें, संखे करम कर सोय । भव जीवाने तारनें, श्रीवीर पोहता मोख For Private and Personal Use Only दीवाली दिन मोटको ॥१॥ दीवाली...॥२॥ दीवाली... दीवाली... ॥३॥ 11811 दीवाली.......॥५॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21 November-2018 दीवाली... ॥६॥ दीवाली... ॥७॥ दीवाली... ॥८॥ दीवाली... ॥९॥ दीवाली... ॥१०॥ दीवाली... ॥११॥ SHRUTSAGAR नव मलीने नवलखी, देस अठाराना राय। वीरस्वामीये आयने, दीधा पोसा ठाय देव-देवी तिहां आवीया, लागी झगमग जोत । वली व(वि)सेष हुओ घणो, रतना तणो उद्योत देवस्वामण प्रतबोधवा, गया छे गौतमस्वाम। वीरमुक्त गया जांणनें, आया ठामो ठाम मोहन आइ तिहां टालवा, धाया छे सुकल ध्यांन । अनंतपणे ए साधव्या(वा), पांम्या केवलग्यांन मोख नगरना डायचा(?), भगवंत श्रीमहावीर। जीहां रे मुख आगल हुआ, गोतमस्वाम वजीर मोटा ज(जि)ण सासण धणी, पोहता सीवपुर ठांम। गोतम लबध तणा धणी, राख्यो जगमें नाम वारवार मनखा जनम, पांमस्ये नही रे गमार। भोग छोडो वीषय सारीखो, सफल करो अवतार डेरा डांडा राखडी, मल्या मीत्रने माय । जीहांरा झपटा मत करो, स(शु)द्ध गणो नोकार ग्यांन रुप दीवलो करो, कायाइ वाट वणाय । समकित जोत उजालने, मथ्या आघेरी गमाय काया हाट उजालने, माहे वस्त अमोलीक च्यार। भव जीव ग्राही कवण जता, जीहांरा नफानो उपगार भाव पुजा करो भगवानरी, सुण तुं चीत लगाय। दया रुप जल आंणनें, ए तोअ(य) सनान कराय सील सुगंध चंदण करेह, एतु लेप लगाय। दानशीलतपभावना, आखा तु एह चढाय धीरज करेनें धुपणो, तप कर अगर उखेव। ज्ञान दर्शन चारित्र तणो, सेवा करो नीतमेव दीवाली.. ॥१२॥ दीवाली... ॥१३॥ दीवाली... ॥१४॥ दीवाली... ॥१५॥ दीवाली... ॥१६॥ दीवाली... ॥१७॥ दीवाली... ॥१८॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 22 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ दयारा करने दहीव्वडा, खीमारा खाजा वणाय। नवतत्व पुरण नेवज करो, इम पुजो ज(जि)णराय दीवाली... ॥१९॥ ............., जीवनें संतावें कोय । दुख किणनें देणो नही, परवचनां सांमो जोय दीवाली... ॥२०॥ उलटी गत संसारनी, धान लच्छमीनें काज। डचकरो करती थकी ठेठे कुटे साज दीवाली... ॥२१॥ भासें श्रीजिनराजनी, मोख उघाडे मझार । दीप अढाइ में प्रगट्या, जयवंता जगदीस ॥ भजन करो भगवानरा, ज्युं सुधरे थाहरा काज। समयसुंदर कहें वीरजी, आवागमण नीवार दीवाली... ॥२२॥ इति दीवाली सीझाय संपूर्ण ॥ सं.१८५१ मती काती वदी १० लि. मतिसागरः ढानला मध्ये ॥ * * * - श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. प. गरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे. आशा है जिनशासन के इस महत्त्वपूर्ण कार्य में आपका सहयोग प्राप्त होगा. निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर) १. एक चरण अनुपलब्ध है। For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 23 November-2018 उपाध्याय भावहर्ष रचित ज्ञानपंचमीस्तवन श्री गजेन्द्र शाह प्रस्तावना:___उद्योत, विद्युत, प्रभा, प्रकाश, उज्ज्वलता, तेज, रोशनी आदि शब्द अंधकार के प्रतिपक्षी हैं। ये सभी खद्योत से लेकर दीपक, तारा, नक्षत्र, चंद्र, सूर्यादि हेतु प्रयुक्त होते हैं। जगत के बाह्य अंधकार को दूर करने के लिए प्राकृतिक व कृत्रिम कई संसाधन उपलब्ध हैं। यहाँ जिस उद्योत की बात हम करने जा रहे हैं, वह बाह्याभ्यंतर, भौतिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार के अन्धकारों को दूर करने वाली अचिंत्य शक्ति-ज्ञान की बात है। ज्ञान को सर्वप्रकाशक व सर्वसुखकारक कहा गया है। शास्त्रों में 'पढमं नाणं तओ दया' कहकर ज्ञान की प्रधानता दर्शाई गई है। ज्ञान-क्रिया में पहले ज्ञान है, रत्नत्रयी में भी ज्ञान ही प्रधान है, जो प्रस्तुत कृति में भली-भांति दर्शाया गया है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी म.सा. ने तो यहाँ तक कह दिया है कि 'कत्थ अम्हारिसा पाणि, सम दोस दुसिया। हा अणाहा कहं हुंता, जइ न हुज्ज जिणागमो' दुषम काल के दोष से ग्रसित हमारा क्या होता ! यदि जिनागम नहीं होते ! यह बात आज से हजारों साल पहले की है, जिस समय विपुल मात्रा में श्रुत उपलब्ध था, स्वयं हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रंथों की रचना की थी। आज उसमें से क्या बचा है, वह हम सब जानते हैं। इस परिस्थिति में ज्ञान व ज्ञानी की सेवा, सुरक्षा हेतु कदम नहीं उठायेंगे तो हमारा क्या होगा ??? श्रुत व श्रुतधर के प्रति बहुमान भाव प्रगट करना आज के समय में अत्यंत आवश्यक है और वह भाव हृदय में उत्पन्न करने का एक प्रबल साधन यहाँ प्रकाशित की जाने वाली प्रायः अप्रगट 'ज्ञानपंचमी स्तवन' कृति है, जिसमें पहले ज्ञान की महत्ता दर्शाई गई है, तत्पश्चात् ज्ञानी की महत्ता बतलाकर अंत में ज्ञान हेतु ज्ञानपंचमी की आराधना कैसे करनी चाहिए, वह सुंदर ढंग से दर्शाया गया है। ___कृति में बहुश्रुत की महत्ता के सूचक १६ दृष्टांत नामों को हमने Bold किया है और कृति परिचय में उन सभी का क्रमशः परिचय दिया है, जिससे विषय को आसानी से ग्रहण किया जा सके। आशा है कि यह लेख पाठकों को ज्ञान व ज्ञानी के प्रति बहुमान भाव जगाने वाला व श्रुतप्रेमियों की भावना में अभिवृद्धि करने वाला बनेगा। For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 24 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ कृति परिचय: प्रस्तुत कृति की भाषा मारुगुर्जर है। पद्यबद्ध इस कृति में २३ गाथाएँ हैं। प्रारंभ में विषय की भूमिकारूप ८ दोहे व तत्पश्चात् दो ढाल दी गई हैं। कर्ता ने कृति के प्रारंभ में मंगलाचरण के रूप में त्रिशलानंदन, शासनपति भगवान महावीर की स्तवना की है। कृतिगत मुख्य विषय की प्रस्तुति के पूर्व कर्ता ने भूमिकारूप रत्नत्रयी की बात करते हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र में से सर्वप्रथम दर्शन की महत्ता बताई और कहा कि चारित्र (द्रव्य चारित्र) के बिना मुक्ति मिल सकती है, लेकिन दर्शन के बिना नहीं। इसकी पुष्टि के लिए कर्ता ने 'उत्तरज्झयण जोइ' कहकर उत्तराध्ययनसूत्र का संदर्भ दिया है। शास्त्रों में आता है कि 'सिज्झंति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिज्झंति ।' बाद में कर्ता ज्ञान की प्रधानता को दर्शाते हुए कहता है कि 'जइ वि हु दरसण अति भलउ ए, तोई पहिलउ नाण। भले ही दर्शन श्रेष्ठ हो, परन्तु ज्ञान उसमें प्रथम है, क्योंकि दर्शन की प्राप्ति भी ज्ञान से ही होती है। इस बात की पुष्टि हेतु कर्ता धर्मदास गणि का संदर्भ देते हुए कहते हैं कि-'धरमदास गणि इम कहए, वरतर नाण संपन्न ।' क्रिया के साथ ज्ञान की तुलना करते हुए कहा कि क्रिया सुवर्ण है तो ज्ञान उसमें जड़ित रत्न है. 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' उक्ति सुविदित है। बिना ज्ञान की अकेली क्रिया मोक्ष नहीं दे पाती है। अज्ञानी करोड़ों भवों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतना तीन गुप्तियुक्त ज्ञानी एक श्वासोश्वास में क्षय कर देता है। तत्पश्चात् कर्ता ने ५ ज्ञान का नामोल्लेख करके श्रुतज्ञान की प्रधानता को बताते हुए कहा है कि 'जई वि हु केवलनाण वर, सवि हुं मांहि प्रधान। तउ ही जिनवर श्रुत भणीय, कहियउ अति बहुमान ॥' भले ही पांचो ज्ञान में केवलज्ञान श्रेष्ठ हो, परन्तु जिनेश्वरों ने श्रुतज्ञान के प्रति विशेष बहुमान दर्शाया है, क्योंकि केवलज्ञान तक पहुँचने के लिये भी पहले श्रुतज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार कर्ता ने भूमिका में श्रुतज्ञान की महत्ता दर्शाई है और फिर जो बहुश्रुत हैं, ज्ञानी हैं , उनकी महिमा, तेजस्विता, आंतरिक शक्ति, कार्यक्षमता, अजेयता व श्रेष्ठता की तुलना शंख, अश्व, गज, सिंह आदि विविध उपमाओं से की है। इससे हमें ज्ञानी के प्रति बहुमान भाव प्रगट होता है व ज्ञानार्जन हेतु प्रेरणा भी मिलती है। For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR November-2018 कृति के अंत में गाथा १५ से ज्ञानपंचमी की आराधना के बारे में कहा गया है कि- गुरु परंपरा से जिस प्रकार मैंने सुना है, उसके आधार पर विधि बताऊँगा, ऐसा कहकर विधि बताई है कि 'चेत्र अनइ चउमासि, पोसे सहित छ य मासा। वरजी ए तप लीजई, निज भव सफल करीजइ॥' चैत्रमास, चातुर्मास के चार मास तथा पोस मास इन ६ महीनों को छोड़कर शेष महीनों में तप प्रारंभ करना चाहिए । विस्तार से नाण स्थापना करके गुरु निश्रा में तप उच्चरना (प्रारंभ करना) चाहिए। तप में ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक उपवास करते हए ५ मास में लघुपंचमीतप पूर्ण होता है. कोई लघुपंचमी हेतु ५ वर्ष व ५ मास भी कहते हैं। उत्कृष्टी यावज्जीव कर सकते हैं । तप की पूर्णाहूति में यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिए। पंचमी के दिन उपवास करके उल्लास के साथ पुस्तक की पूजा, ज्ञान का चैत्यवंदन, ज्ञान व ज्ञानी का बहुमान, आशातना का त्याग, गुरुवाणी का श्रवण करते हुए जो तप करता है, वह संसारसागर को पार करके सरलतापूर्वक सिद्धिरमणी को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार कृति के अंत में तपफलश्रुति एवं अंतिम गाथा में प्रतिलेखन पुष्पिका देते हुए कृति को पूर्ण किया गया है। कृतिगत बहुश्रुत, ज्ञानी हेतु दी गई उपमाएँ जो उत्तराध्ययनसूत्र के ११वें बहुश्रुतपूजा अध्ययन में भी पाई जाती हैं, उसका विवरण निम्न प्रकार है ज्ञानी हेतु दी गई उपमाएँ१. शंख - जिस प्रकार शंख में रखे हुए दूध से शंख व दूध दोनों ही एक-दूसरे से सुशोभित होते हैं. उसी प्रकार बहुश्रुत व्यक्ति स्वयं को तथा स्वयं में रहे हुए श्रुतज्ञान को शोभायमान करता है। २. घोड़ा - जिस प्रकार कम्बोज देश के अश्वों में कन्थक घोड़ा श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार ज्ञानवान् व्यक्ति भी श्रेष्ठ होता है। ३. योद्धा - जिस प्रकार जातिमान् घोड़े पर आरूढ दृढ पराक्रमी शूरवीर योद्धा दोनों ओर से जय-विजयादि नन्दिघोषों से अर्थात् जय-जयकार शब्दों से, विजय वाद्यों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति सुशोभित होता है। ४. हाथी - जिस प्रकार हथिनियों से घिरा हुआ ६० वर्ष का बलवान् हाथी किसी से पराजित नहीं होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी किसी से पराभूत नहीं होता है। For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 26 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ ५. वृषभ - तीक्ष्ण सींगों वाले व ताकतवर कंधोंवाले यूथाधिपति बैल की तरह ज्ञानवान् व्यक्ति भी गण के अधिपति के रूप में देदीप्यमान होता है। ६. सिंह - तीक्ष्ण दाँतों वाला, पूर्ण युवा, दुष्पराजेय सिंह जैसे पशुओं में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी अन्यतीर्थियों के बीच सुशोभित होता है। ७. वासुदेव - शंख, चक्र एवं गदा को धारण करने वाले वासुदेव की तरह अधिक ज्ञान को धारण करने वाला ज्ञानी भी अपराजित एवं बलवान् होता है। ८. चक्रवर्ती - १४ रत्नों के स्वामी, महान् ऋद्धिवान्, चातुरंत चक्रवर्ती की तरह ज्ञानी भी १४ पूर्वो की विद्या से समृद्ध होते हैं। ९. इन्द्र - जिस प्रकार हजार आंखों वाला, हाथ में वज्र को धारण करने वाला पुरन्दर शक्र (इन्द्र) देवों का अधिपति होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी धर्मनिश्चलता से देवों के द्वारा पूजनीय होता है। १०. सूर्य - जिस प्रकार अन्धकार का नाशक उदयमान सूर्य तेज से देदीप्यमान होता है, वैसे ही ज्ञानी ज्ञानतेज से देदीप्यमान होता है। ११. चंद्र - जैसे नक्षत्रों के परिवार से परिवृत पूर्णिमा का पूर्ण चंद्र सुशोभित होता है, उसी प्रकार अनेक साधुगण से परिवृत बहुश्रुत ज्ञानी भी अपनी ज्ञानकलाओं से पूर्णरूप से सुशोभित होता है। १२. कोष्ठागार - जिस प्रकार सामाजिक किसान या व्यापारी आदि का धान्य भंडार सुरक्षित व विविध प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, वैसे ही ज्ञानवान् व्यक्ति भी अंग, उपांग, प्रकीर्णकादि विविध प्रकार के ज्ञान से परिपूर्ण होता है। १३. जम्बूवृक्ष - जैसे जम्बूद्वीप के अधिपति ‘अनादृत' देव का 'सुदर्शन' नामक जम्बू वृक्ष अन्य वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी साधुओं में श्रेष्ठ होता है। १४. नदी - जिस प्रकार नीलवंत वर्षधर पर्वत से निकली हुई जलप्रवाह से परिपूर्ण, समुद्रगामिनी सीता नदी सभी नदियों में श्रेष्ठ है, वैसे बहुश्रुत ज्ञानी भी श्रेष्ठ हैं । १५. मेरु पर्वत - जिस प्रकार विविध औषधियों से दीप्त मेरु पर्वत अन्य पर्वतों में श्रेष्ठ है, वैसे ही बहुश्रुत सभी साधुओं में श्रेष्ठ हैं। १६. समुद्र - सदैव अक्षय जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र जिस प्रकार नानाविध रत्नों से परिपूर्ण रहता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir November-2018 SHRUTSAGAR 27 कर्ता परिचय: प्रस्तुत कृति की रचना साधुचंद्र गणि के प्रशिष्य व कुलतिलक गणि के शिष्य उपाध्याय भावहर्ष ने की है। कर्ता के हाथों लिखित सिद्धहेमशब्दानुशासन आख्यात अवचूरि' की प्रत के प्रतिलेखन वर्ष से विद्वान का समय विक्रम संवत १५९४ मिलता है। कर्ता की अन्य कृतियों में ७ सगपण गीत, आदिजिन स्तवन व वीसस्थानक विधि गर्भित शांतिजिन स्तवन प्राप्त होता है। प्रत परिचय: आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा की एकमात्र हस्तप्रत क्रमांक ३७७९७ के आधार पर प्रस्तुत कृति का संपादन किया गया है. दो पन्नों की प्रत में पहला पत्र अनुपलब्ध है। अवशेष रहे दूसरे पन्ने पर यह कृति उल्लिखित है। प्रतिलेखन पुष्पिका व लेखन वर्ष की सूचनाएँ प्रत में नहीं दी गई हैं। अनुमान से यह प्रत विक्रम की १८वीं सदी के पूर्वार्ध की संभव है। प्रत की लिखावट स्वच्छ, सुंदर व सुवाच्य है। गाथांक व विशेष पाठ को गेरु लाल रंग से अंकित किया गया है तथा पदच्छेदक लकीरों का भी उपयोग किया गया है। प्रत में ‘पांचमतवन' हंडी दी गई है, जो खंडित है। ॥१॥ उपाध्याय भावहर्ष रचित ज्ञानपंचमीस्तवन ॥॥ वीरजिणेसर वंदीयइ ए, त्रिसलादेवि मल्हार । वरतइ शासन जिह तणण(उ), वसमइ पंचम काल तिहां रत्नत्रय सार गिणि, दंसण नाण चरित्त । मुगति नहीं दंसण पखइ ए, ए जिनशासन तत्त चारित्र विण सिवपद काउ ए, नवि दंसण विण होइ। एह वात प्रगटी अछइ ए, उत्तरज्झयणइ जोइ जइ वि हु दरसण अति भलउ ए, तोई पहिलउ नाण । दरिसण लाभ सरूप गिणि, ए पहिलउ गुण जाणि धरमदास गणि इम कहए, वरतर नाण संप्पन्न । क्रियावंत स्युं एकलउ ए, दुइ जिम हेमरत्न ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवम्बर-२०१८ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ श्रुतसागर 28 अज्ञानी बहु वरससया कोडइ करम खपेइ । ज्ञानी त्रिहुं गुपतइ सहित सासोसासइ तेई ज्ञान अधिक जिणवर कहइ ए, तेहना पंच प्रकार। मय सुय अवहि तृतीय गिणि, मण केवल सुविचार जई वि हु केवलनाण वर, सवि हुं मांहि प्रधान । तउ ही जिनवर श्रुत भणीय, कहियउ अति बहुमान ॥ढाल॥ सांख(शंख) अनई खीरइ भर्यो ए, जिम अधिकओ सोहइ। जातिमंत हय वेगि करी, तिम जन मन मोहइ। सुभट नंदिघोषइ करी ए, जिम परदल जीपइ। तिम श्रुतज्ञानइ सहित, पुरुष जगि अधिकउ दीपइ साठि वरसनउ सपरिवार गज अति बलवंत । यूथाधिप जिम वृषभ सीह मृग मांहि महंत । वासुदेव जिम सुभट मांहि, शंखादिक सोहइ। तिम श्रुतज्ञानइ अधिक पुरुष सवि हुं मन मोहइ चवद रयणनउ अधिप जेम, नरदेव भणीजइ। देवमांहि जिम शक्र, जास सहसंख गिणीजइ। उपहरओ आवतउ, सूर जिम दीपइ तेजइ। तिम श्रुतधर सवि पुरुषमाहि, गुण अधिकउ रेजइ नक्षत्रइ परवर्यउ, चंद पूनिम दिन पूरउ। धान तणी बहुजाति भर्यउ, कोठार अणूरउ । वृक्षह मांहि जिम सदा फल फूल सणूरउ। तिम श्रुतधरनइ नव नवउ ए, नितु पुण्य अंकूरउ सलिला सीत वखाणीयइ, ए सवि नदीय मझारी। मेरु सुदंसण अवर मेरु थी, अवर विचार वडउ। सयंभूरमण उदधि, बहु रयणे भरीयउ। तेम बहुश्रुत पुरुष गुणे, सगले अणुसरियउ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir November-2018 SHRUTSAGAR 29 ज्ञानमांहि श्रुत अधिक, गुणे इम जिनवर भाखइ। ते आराधन भणीय ज्ञान, पंच सविधि दाखइ। सगुरु परंपर थकीय, सुणी तिण परइ कहेस। विधि आराधन थकी, अधिक हुं ज्ञान लहेसु ॥१४॥ ॥ ढाल॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ चेत्र अनइ चउमासि, पोस सहित छय मासा। वरजी ए तप लीजई, निज भव सफल करीजइ विस्तर नांदि विचार, सह गुरु पासि उच्चार । बंभ सहित उपवास, लघुपंचम पण मास केई वलि लघु दाखइ, मास वरस पण भाखइ। दस वरसा दस मास, बीजी करइ उल्लास उतकृष्टी जावजीव, पामइ ज्ञान सदीव । उजमणा विधि जोइ, निज भावइ करइ सोहइ पंचमि दिन उपवास, पुस्तक पूजि उल्लासि । चेई वंदन नाण, विधिसउ करइ सुजाण ज्ञान विनय बहु कीजइ, ज्ञानी तेम गिणीजइ। आसातन वरजीजइ, गुरना वचन सुणीजइ ज्ञान दियइ नर जे य, तेहनइ नही य अदेय । पुलिंद तणउ अधिकार, सिवनी भगति संभारि एहना गुण कुण जाणइ, श्रुतकेवली य वखाणइ। तसु आराधन दाखइ, ज्ञान पंचमि तप भाखइ इम ज्ञानपंचमतप तणी, विधि सुणी य भवीयण जे करइ। संसारजलनिधि तरी, हेलइ सिद्धिरमणी ते वरइ। सिरि साधुचंद सुसीस, श्रीकुलतिलक कलि कलपत्तरे । तसु सीस वर उवझाय पभणइ, श्रीभावहरख सुहंकरो ॥ इति ज्ञानपंचमी स्तवनं ॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 30 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ सोळमा शतकनी गुजराती भाषा मधुसूदन चिमनलाल मोदी (गतांकथी आगळ...) पंदरमा सैकानी भाषाथी सोळमा सैकानी भाषा घणी रीते जुदी पडे छ । हाथप्रतोना पूरावा ध्यानमां लइए तो सोळमा सैकानी भाषानो ढाळ अत्यारनी गुजराती तरफ वधारे छे । रहइ, तउ, थउ इत्यादि विभक्तिदर्शक अनुषंगी शब्दो अदृश्य थाय छे; छइ अने होइ सहायकारक क्रियापद तरीके प्रयोग वधतो जाय छे अने धातुना काळनां रूपोना फेरफार पण अत्यारना ढाळ तरफ वळे छ। काठाआवाडी असरने लीधे ज आ होय एम मानवाने कांइ पण कारण नथी। __रा. शास्त्रीनी ऐतिहासिक दलील टकी शके एवी नथी। मुग्धावबोध-औक्तिक सं. १४५० नुं ने महमद बेगडाए काठिआवाडने गुजरात तल साथे जोडयु सं. १५१२मां एटले बासठ वर्षनो गाळो । काठिआवाडमां द्वारिका, शंखोद्धार, सोमनाथ ए हिंदुओनां पवित्र स्थानो ज्यां लोकोनी अवरजवर सारा प्रमाणमा हती। पालीताणा अने जूनागढ ए जैनोनां पवित्र स्थान ज्यां जैनोना अनेक संघ जता। आ काळना एक संघD वर्णन प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह (गा. ओ. सी.) मां पेथडरास मां आप्यु छे । ते उपरांत सं. १३७१ नो समरारास, सोलण नी चर्चरिका ते ज संग्रहमां जोवा । काठिआवाडनो अने गुजरातनो संबंध राजकीय अंधाधुंधी होवा छतांय पण लोकोना अवरजवरथी तो चालु ज हतो; एटले रा. शास्त्रीनुं ऐतिहासिक प्रमाण प्रमाणाभास ठरे छ। आथी तळ-गुजरातनी भाषा काठिआवाडी असरे नवा संस्कारने पामी ए दलील गळे उतरे एवी नथी ज अने वळी एम कहेवं के 'प्रेमानंदे ते नरसिंहनी वाणी पर मुग्ध थई सं. १८०० पछी नरसिंहनी भाषाने साहित्यनी भाषा तरीके स्वीकारी लीधी' - ए जरा उत्साहातिरेक छ। ४. संस्कृता गुर्जरी' अने प्राकृता गुर्जरी'-अथवा तो रा. शास्त्रीना भेद ‘प्राकृत प्रचुर तल गुजरातनी साहित्य भाषा' अने संस्कृत प्रचुर तल गूजरातनी साहित्य भाषा' ए भेद पण तद्दन अस्वीकार्य छ । आ भाषाभेदनुं निरसन मने तो पुनरुक्ति ज लागे छे; कारण के सं. १९२२ मां (इ. स. १८६६) लखेला स्व. व्रजलाल कालिदास शास्त्रीना 'गुजराती भाषानो इतिहास' (प्र. गु. व. सो. अमदावाद) मां पान ६३ पर विधान करवामां आव्यु छे “हवे जूनी तथा नवी गुजराती भाषा ते कई ते जणाववा माटे जूनां पुस्तकोनां थोडां थोडां वाक्य लख्यां छे । पूर्वे जैन अने ब्राह्मणो एक ज रीतिए लखता For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR November-2018 हता” त्यार पछी स्व. शास्त्रीजी दाखलाओ टांकी आ बाबत सिद्ध करी बतावे छे। आ पछी समजातु नथी के संस्कृत प्रचुर गुर्जरीना भेदतुं निरसन क्यारनु य थइ गएल छे छतांय आ भेद फरीथी ऊभा करी शाथी चर्चवामां आवे छे। जैनो पोताना धर्म संबंधी काव्यो लखे तेमां पोताना धर्मनी प्राकृत परिभाषा आवे एटले तेने प्राकृतप्रचुर गुजरातनी साहित्य भाषा ए नाम आपी जुदो भेद न पडाय। ए तो ब्राह्मणो पोतानां लखाणोमां पोतानी परिभाषा वापरे अने ते काळनो वैद्य-जैन होय के ब्राह्मण-वैदकनी परिभाषा वापरे तेथी कांइ भाषा भेद पडाय नहि। ब्राह्मण लेखकोर्नु सामान्य रीते तत्सम संस्कृत शब्दो तरफनु वलण खास देखाई आवतुं नथी दि. ब. के. ह. ध्रुव संपादित प्राचीन गुर्जर काव्यो' (गु. व. सो.) के ‘कान्हडदे प्रबंध' विगेरे काव्योमां तद्भव शब्दोनो प्रयोग ओछो नथी। भालणनी 'कादंबरी' संस्कृतमाथी गुजरातीमां ऊतारेली एटले तत्सम शब्दो तेमां वधारे छे। देशी, ढाल, राग इत्यादिमां तो जैनोए लखेलां तेम ब्राह्मणोए लखेलां लखाणो सरखां छे। एटले आ प्रकारना भेद निर्माल्य ठरे छ। आम छतांय पंदरमा अने सोळमा सैकामां ब्राह्मणे य नहि अने जैने य नहि एवा पारसीओनां गुजराती लखाणो मळे छे, जेना उतारा हुं सालवार नीचे आपुंछु । मने तो शैली के भाषा ए बन्नेमां य ए लखाणो ब्राह्मण के जैन लेखकोनां लखाणोथी जुदां पडतां लागता नथी, अग्विीरा Collected Sanskrit Writings of the Parsis Part V जूना गुजरातीनो विभाग [२४] : १ पछइं मई तेह पापी मनुष्यतणा आत्मा दीठा जे मंडक मांडा हाथ धरी शुनक-लुंडी-रहइं घाली अछइ। अनइ शुनक-लुंडी तेह मांडी नही पाइं अनइ तींह मनुष्यतणां हीआं-ऊपरि चडी पगे करी पेट विभाडइ फाडइ अछइ॥ २ मई पूछइउं जउ ईंहतणे तनु शरीरइ कइसउं पाप कीधउं जीणइ पाप करी आत्मा रहइ इसउ दोहिलउ निग्रह कीजइ अछइ॥ ३ पुण्यात्मक श्रोश अनइ आदर इअज्द बोलिया जउ एह तीह पापी मनुष्यतणा आत्मा जेहे पृथ्वीमांहि घइर राषणाहार लुंडी षाद्यतु आहारतु अन्यथा कोधां भूषआं मारइया अथवा हणइया मारइया ॥ अइ ने बदले ए : ईंहतणे; तेनी ज पछी आवता शरीरइ नुं पाठांतर शरीरे सदरग्रंथ [२७]; पगे-करी। आ उपरांत [३] जाणे करि-जाणइ= ज्ञायते. हाथप्रत लखाया संवत१५०७ गाम नवसारी। आ परथी बे वस्तु तरी आवे छे, शैलीमां फेरफार नथी। अइ ने अउ ने बदले ए के For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AC 32 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ ओ नी प्रथा एटली प्रचारमा नथी आवी; पण अइ परथी ए लखातो जाय छे। इत्यादि अनुषंगी शब्दो (Post-positions) व्याप्त छे; तरुणप्रभसूरि (सं. १४११) नी भाषाथी आ भाषा जुदी पडती नथी। अइ मांथी विभक्ति रूपोमां ए थयाना दाखला तरुणप्रभ मां पण मळे छे।। लेखनशैलीने अंगे आ हाथप्रतोमा स्वरो जुदा पाडवामां आवेला छ। दा.त. भूषआं=भूषां; हणइया हणिया; मारइया मारिया; घइर घरि (व्यत्यय). लखवामां आ शैली छे तेथी कंइ उच्चार आम छूटा ज थतां हशे एम धारवा- नथी; परंतु बीजी हाथप्रतो जोवाथी मने लागे छे के उच्चार 'या' तरफ वळतो होवाथी आ प्रमाणे लखातुं हशे । तरुणप्रभमां लेखनशैलीनी आ प्रकारनी विशिष्टता देख्यामां नथी आवती। अग्विीरानी हाथप्रत लखाएल सं.१५०७; परंतु मूळ गुजराती ग्रंथ विक्रमना पंदरमां शतकनो मध्यभाग होय एम लाग छ। खुईअवलस्तार्थः [Collected Sanskrit Writing of Parsis] Part I Note No.२२५. शुभ भला धर्म कार्यतणा सृजणहार नीपजावणहार स्वामी महाज्ञानी सर्व जाण तणा आराधनतणइ विषयइ हुं दिनमेक (?) सदा सर्वदा त्रिकाल नमस्कार स्तुति त्रिधा लिहुं प्रकार प्रहरकु करणहारू अवसर जालवणहार हउं किल साचिं शुभ भला धर्मकार्य पुहतां हुआं मने वचने कर्तव्ये करि लिहुं प्रकारे प्रहरऊ पहुरउं करूं आराधनातणुं पहर प्रहर अवरसर जालq इंत्रिकाल दिइन देवू जे कोई निकाल न जाळवे तहरहि स्वर्ग नही तेह नरकीउ तेह गर्दभ श्वान ॥ ऊपरनु अवतरण H1 नामे हाथप्रत (लख्या सं.१४७१) मांथी लेवामां आव्यु छे: आनुं आज लखाण NMRL1, नामे बीजी हाथप्रत जे नवी छे तेमां पण छे: परंतु संपादक H1 ऊपर ज आधार राखे छे एटले ऊपरनो पाठ H1 मांथी होय तो मने वचने कर्तव्ये; जालवु: जाळवे: इत्यादि. (जाळवे जाळवइ) । आ लखाणना काळy बीजु लखाण पण टांकुं छु। इजिस्नि [Collected Sanskrit Writing of Parsis II] आमांथी नीचे टांचण आपता पहेलां एक वात कही देवी जोइए. आ हाथप्रतना लखाणमां त्रण जुदां पड़े छे । एक तो पंदरमाना अंतनी अने सोळमानी शरुआतनी भाषानु, सोळमाना अंतनी अने सत्तरमानी शरुआतनी भाषानुं अने अढारमानी भाषानु संपादके तारीखवार भेद पाड्या नथी परंतु आ पडो संस्थापके वापरेली हाथप्रतोनी तीरीखने आशरे पाडु छु. (क्रमशः) For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 33 November-2018 पुस्तक समीक्षा डॉ. हेमन्तकुमार पुस्तक नाम : ध्यान : आंतर यात्रा (अन्य नाम- जैन ध्यान प्रक्रिया) कर्ता - : आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी महाराज प्रकाशक : आचार्य श्री ॐकारसूरि आराधना भवन, गोपीपुरा, सुरत प्रकाशन वर्ष : वि. सं. २०७२, आवृत्ति- प्रथम कुल पृष्ठ : ८+८८=९६, मूल्य- ३००/-, भाषा- गुजराती परम पावन महातीर्थ पालीताणा में पारणाभवन में वि. सं. २०७२ में आयोजित तपागच्छीय श्रमण सम्मेलन में प्रस्ताव संख्या- ४२ में जैन ध्यान प्रक्रिया से संबंधित एक साहित्य तैयार करने हेतु प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसके आलोक में परम पूज्य आचार्य श्री यशोविजयसूरीश्वरजी महाराज ने ध्यानशतक, ध्यानविचार आदि विभिन्न ग्रंथों से मोतियों को चुनकर गुजराती भाषा में “ध्यान : आंतर यात्रा” नामक ग्रंथ जैन ध्यान प्रक्रिया से संबंधित एक विस्तृत विवेचन लिखकर जैन ध्यान-योग गगन में एक देदीप्यमान नक्षत्र को स्थापित कर दिया है। पूज्यश्री ने प्रस्तुत ग्रंथ के माध्यम से ध्यान-योग के क्षेत्र में रुचि रखने वाले विद्वज्जनों के साथ-साथ सामान्य जनों को भी संतोष प्रदान करने का भरपूर प्रयास किया है। १३ अध्यायों में विभक्त प्रस्तुत कृति में ध्यान के विभिन्न प्रकारों एवं उनकी प्रक्रियायों को बहुत ही सुंदर एवं सरल पद्धत्ति से विवेचन किया है। ध्यान जैसे गूढ़ विषय के तत्त्वों (मोतियों) को विभिन्न शास्त्रों के महासागर से ढूँढ़कर एक माला में गूंथना अपने आप में एक बहुत ही श्रम, समय एवं धैर्य का कार्य है, फिर भी आचार्यश्रीजी ने इस कार्य को बहुत ही रोचक एवं सरलता से समझ में आ जाए वैसा तैयार किया है। ध्यान, यह एक अनुभव की बात है। मात्र विद्वत्ता के सहारे ऐसा ग्रन्थ लिखा नहीं जा सकता। पूज्यश्री की अनुभव यात्रा का परिपाक है यह ग्रन्थ । पूज्यश्रीजी ने ग्रंथ का नामकरण ही "ध्यान : आंतर यात्रा” किया है, जिससे ध्यान क्या है यह स्पष्ट हो जाता है। फिर भी आचार्यश्रीजी ने ध्यान की विशिष्टता को समझाते हुए लिखा है कि ध्यान समताभाव के साथ करने की प्रक्रिया है, अन्यथा वह तो आत्मप्रताड़ना कहलाएगी। अनेक मनीषियों एवं महापुरुषों ने ध्यान के संबंध में ग्रंथों की रचना की है। उनके द्वारा ध्यान के संबंध में वर्णित विषयों एवं प्रसंगों को For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 34 श्रुतसागर नवम्बर-२०१८ एकसूत्र में पिरोकर पूज्य आचार्यश्रीजी ने ध्यान करने की कला-प्रक्रिया के एक-एक चरण को विस्तारपूर्वक समझाया है । पुस्तक की छपाई बहुत सुंदर ढंग से की गई है। आवरण भी कृति के अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है। ग्रंथ का अवलोकन करते ही मन में ध्यान के भाव उत्पन्न होने लगता है। ग्रंथ में विषयानुक्रमणिका के साथ अनेक प्रकार के परिशिष्टों में अन्य कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का संकलन करने से प्रकाशन बहुपयोगी हो गया है। अनेक महान ग्रंथों की प्रस्तुति के पश्चात् पूज्यश्रीजी की यह एक और सीमाचिह्न रूप में प्रस्तुति है। संघ, विद्वद्वर्ग, जिज्ञासू इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं। सर्जनयात्रा जारी रहे ऐसी शुभेच्छा है। अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा । पूज्य आचार्यश्रीजी के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन । क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन- स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में लिखित विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित अतिविशाल बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह है, जो हमें किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देना है. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी. For Private and Personal Use Only प्रशासक ज्ञानमंदिर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में ज्ञानपंचमी के शुभ अवसर पर आयोजित ज्ञानपूजन की कुछ झलकियाँ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SURUTSACAR (MONTILY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City SO, and on 20th date nf every moath under Postal Regd. Na G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2021. 13. जम्बूवृक्ष 11. चंद्र 12. कोष्ठागार 14. नदी 16. समुद्र 15. मेरु पर्वत 'ज्ञानपंचमी स्तवन' लेख में प्रयुक्त 16 उपमाओं के चित्र BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री केस्वाससागरसूरिज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (070 23276204, 205, 252 फेक्स (071) 13276249 Website : www kobatirth.org omalligyanmandirtaioisatirth.org Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9. Punaji Industrial Estate, Dhoblghat. Dudheshwar,Ahmedabad-380004and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, Now Koba. Ta.& Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor: HIREN KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only