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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१८ सुख सेजइ पुढी कामिनी, सपन पेखइ सा मध्ययामिनी। निर्मल चउद सपन सपन निरखीआ, मरुदेवी माडी हरखीयां सपन वात निज प्रिउनइ कही, नाभि नरिंद निज मनमां ग्रही। शुभ विचार कीधो क्षणि रही, तुम्ह सुत निश्चई होस्यइ सही ॥२६॥ त्रिभुवननइ मानीतो हस्यइ, सकल लोक तस शिर नामस्यइ। वात खरी जव भुपइ करी, मरूदेवी मनि उलट धरी कर जोडी प्रिउ प्रति ईम भणइ, वंछित फल होस्यइ आपणइ। गर्भ पोषइ शुभ डोहला धरइ, पुण्यइ नित कल्लोल ज करि
चैत्र वदि आठमि शुभ वार, उत्तराषाढा नख्यत्र उदार । नव मास साढा दिन वली सात, जनम्या जगगुरु माझिम राति पूरव दिशि जिम उदयो भाण, तिम जनम्या सहित त्रिण नाण। दिशि कुमरी छपन्न तिहां मिली, सुतिकरम करई मननी रूली चऊसठि सुरपति सुरगिरिशृंगि, जन(जन्म)महोत्सव करइ मननइ रंगि। अमृत ठवइ अंगूठइ तदा, देव चीवरयुग कुंडल मुदा सचिपति आरोपइ प्रभु अंगि, जिननइ ठवइ मातानइ उछंगि। निज थानकि पहुचइ सुरराय, सवि कहइनइ मनि आणंद थाय ॥३२॥ नाभि भूप सुत जनम्या भणी, दीइ अमूल्यक वधामणी। धवल मंगल सुरपतिनी नारि, दीइ नाभि कुलगरनइ द्वारि
॥३३॥ सुत जनमि महोत्सव करइ बहू, सजन लोक मनि हख्र्यु सहू। नाम ठव्यु त्रिभुवनपति तणुं, ऋषभ निरूपम सुहामणुं कनकवानि जस सोहइ शरीर, सुरगिरिनी पिरि साहस धीर । धवल पख्यि जिम वाधइ चंद, तिम वाधइ मरुदेवी नंद इन्द्र कन्हइ इखु मागी लीध, इख्वाग वंश हुओ नाम प्रसिध। पदवी कुमरतणी जगदीस, भोगवी पूरव लाख ज वीस
॥३६॥ यौवन वइ जब प्रभु आवीया, सुनंदा सुमंगला परणावीया। राजतिलक जव इंद्रि दीउं, राज त्रिसठि पूरव लख्य कीउं
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