________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नवम्बर-२०१८
॥६॥
॥७॥
॥८॥
॥९॥
श्रुतसागर
28 अज्ञानी बहु वरससया कोडइ करम खपेइ । ज्ञानी त्रिहुं गुपतइ सहित सासोसासइ तेई ज्ञान अधिक जिणवर कहइ ए, तेहना पंच प्रकार। मय सुय अवहि तृतीय गिणि, मण केवल सुविचार जई वि हु केवलनाण वर, सवि हुं मांहि प्रधान । तउ ही जिनवर श्रुत भणीय, कहियउ अति बहुमान
॥ढाल॥ सांख(शंख) अनई खीरइ भर्यो ए, जिम अधिकओ सोहइ। जातिमंत हय वेगि करी, तिम जन मन मोहइ। सुभट नंदिघोषइ करी ए, जिम परदल जीपइ। तिम श्रुतज्ञानइ सहित, पुरुष जगि अधिकउ दीपइ साठि वरसनउ सपरिवार गज अति बलवंत । यूथाधिप जिम वृषभ सीह मृग मांहि महंत । वासुदेव जिम सुभट मांहि, शंखादिक सोहइ। तिम श्रुतज्ञानइ अधिक पुरुष सवि हुं मन मोहइ चवद रयणनउ अधिप जेम, नरदेव भणीजइ। देवमांहि जिम शक्र, जास सहसंख गिणीजइ। उपहरओ आवतउ, सूर जिम दीपइ तेजइ। तिम श्रुतधर सवि पुरुषमाहि, गुण अधिकउ रेजइ नक्षत्रइ परवर्यउ, चंद पूनिम दिन पूरउ। धान तणी बहुजाति भर्यउ, कोठार अणूरउ । वृक्षह मांहि जिम सदा फल फूल सणूरउ। तिम श्रुतधरनइ नव नवउ ए, नितु पुण्य अंकूरउ सलिला सीत वखाणीयइ, ए सवि नदीय मझारी। मेरु सुदंसण अवर मेरु थी, अवर विचार वडउ। सयंभूरमण उदधि, बहु रयणे भरीयउ। तेम बहुश्रुत पुरुष गुणे, सगले अणुसरियउ
॥१०॥
॥११॥
॥१२॥
॥१३॥
For Private and Personal Use Only