Book Title: Pratikraman
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में देहधारी के मन-वचन काया के योग, भावकर्मद्रव्यकर्म - नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आपकी साक्षी में आज दिन तक जो जो ....' ** हुए है, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ, हृदयपूर्वक पश्चाताप करता हूँ । आलोचना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता हूँ और ऐसे दोष फिर से कभी भी न करूँ ऐसा दृढ निश्चय करता हूँ। मुझे क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो। दोष * हे दादा भगवान ! मुझे ऐसा कोई भी दोष न करने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। • जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम लेना। ** जो जो दोष हुए हो, वे सारे दोष मन में जाहिर करना। [ आप शुद्धात्मा है और जो दोष करता है, उसके पास प्रतिक्रमण करवाना है। चन्दुभाई (पाठक चन्द्रभाई की जगह खुद का नाम समझे) के पास दोषों का प्रतिक्रमण करवाना है ]। ISBN 978-81-89933-07-4 9788189 933074 दादा भगवान प्ररूपित प्रतिक्रमण Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAP दादा भगवान प्ररूपित प्रकाशक : श्री अजीत सी. पटेल महाविदेह फाउन्डेशन 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद -३८००१४, गुजरात. फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ E-Mail: info@dadabhagwan.org प्रतिक्रमण All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India. प्रथम आवृत्ति : २००० प्रतियाँ, जुलाई २००७ भाव मूल्य : 'परम विनय' और ___ 'मैं कुछ भी नहीं जानता', यह भाव! द्रव्य मूल्य : २० रुपये लेज़र कम्पोज : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद. मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन मुद्रक अनुवाद : महात्मागण : महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नये रिजर्व बैन्क के पास, इन्कमटैक्स, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) ३०००४८२३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण अतिक्रमण का कारवाँ अनंत; कर्मों का पल पल हो रहा बंधन! मोक्ष तो कहाँ, धर्म धरे मौन; चढाएँ डगर, पार करे कौन! अक्रम विज्ञानी दादा तारणहार; प्रतिक्रमण का दिया हथियार! मोक्ष मार्ग का सही साझीदार; ताज़ बन कर सोहाया दादा दरबार! त्रिमंत्र 'प्रतिक्रमण' संक्षिप्त में क्रियाकार; छुड़ाये बंधन मूल अहंकार! प्रतिक्रमण विज्ञान अत्र साकार; समर्पित विश्व को मचाओ जय जयकार! -डॉ. नीरूबहन अमीन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन आत्मज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली, उसको रिकार्ड करके संकलन तथा संपादन करके ग्रंथो में प्रकाशित की गई है। प्रतिक्रमण' पुस्तक में अपने दोषों को कैसे धोया जाये तथा कैसे उससे मुक्ति पायी जाये उसके बारे में सारी बुनियादी बातें संक्षिप्त में संकलित की गई हैं। सुज्ञ वाचक के अध्ययन करते ही आत्मसाक्षात्कार की भूमिका निश्चित बन जाती है, ऐसा अनेकों का अनुभव है। 'अंबालालभाई' को सब'दादाजी' कहते थे। 'दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे भीतरवाले परमात्मा को कहते थे। शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी है और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर है। प्रस्तुत अनुवाद में यह ख्याल रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिश्चर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।" ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसी हमारी नम्र विनती है। अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप के क्षमाप्रार्थी हैं । ( दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें ) हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर २. सर्व दुःखों से मुक्ति ९. टकराव टालिए ३. कर्म का विज्ञान १०. हुआ सो न्याय ४. आत्मबोध ११. चिंता ५. मैं कौन हूँ? १२. क्रोध ६. वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामी १३. प्रतिक्रमण ७. भूगते उसी की भूल English 1. Adjust Everywhere 14. Ahimsa (Non-violence) 2. The Fault of the Sufferer 15. Money 3. Whatever has happened is Justice 16. Celibacy : Brahmcharya 4. Avoid Clashes 17. Harmony in Marriage 5. Anger 18. Pratikraman 6. Worries 19. Flawless Vision 7. The Essence of All Religion 20. Generation Gap 8. Shree Simandhar Swami 21. Apatvani-1 9. Pure Love 22. Apatvani-2 10. Death : Before, During & After... 23. Noble Use of Money 11. Gnani Purush Shri A.M.Patel 24. Life Without Conflict 12. Who Am I? 25. Spirituality in Speech 13. The Science of Karma 26. Trimantra दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में ७० से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में दादावाणी मेगेज़ीन प्रकाशित होता है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन। प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उनको विश्व दर्शन हुआ। मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण | रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रैक्ट का व्यवसाय करने वाले, | फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष! उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य ममक्ष जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, लिफ्ट मार्ग. शॉर्ट कट और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानीपुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं। सभी में हैं। आप में अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्हों ने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्हों ने किसी के पास से पैसा नहीं | लिया। बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे। आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लींक ! 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?" - दादाश्री परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् जारी रहेगा। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं। ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शक के रूप में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान पाना जरूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति आज भी जारी है, इसके लिए प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी को मिलकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करे तभी संभव है। प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय का प्रयोग कैसे करें कि जिससे जल्दी मोक्ष तक पहुँच पाये? कायरता किसे कहना? पापी पुण्यशाली हो सकें? कैसे हो सकें? इस आर.डी.एक्स जैसी अगन में सारी जिंदगी जलती रही, उसे कैसै बुझायें? रात-दिन पत्नी का प्रभाव, पुत्र-पुत्रियों का ताप और पैसे कमाने का उत्पात-इन सभी तापों से कैसे शाता प्राप्त करके नैया पार उतारें? गुरु-शिष्यों के बीच, गुरुमाएं और शिष्यायों के बीच, निरंतर कषायों के फेरे में पड़े हए उपदेशक कैसे लौट सकें? अनाधिकार की लक्ष्मी और अनाधिकार की स्त्रियों के पीछे मन-वचन-वर्तन या दृष्टि से दोष हए तो उसका तिर्यच अथवा नर्कगति के सिवा कहाँ स्थान हो सकता है? उसमें से कैसे छुटकारा पाये? उसमें सचेत रहना हो तो कैसे रह सके और मुक्त हो सके? ऐसे अनेक उलझनभरे सनातन प्रश्नों का हल क्या हो सके? -डॉ. नीरूबहन अमीन हृदय से मोक्षमार्ग पर जानेवालों को. पल पल सताते कषायों को काटने, मार्ग पर आगेकूच करने, कोई अचूक साधन तो चाहिए कि नहीं चाहिए? स्थूलतम से सूक्ष्मतम टकराव कैसे टालें? हमें या हम से अन्यों को दुःख हो तो उसका निवारण क्या? कषायों की बममारी को रोकने के लिए या वह फिर से नहीं हो उसका क्या उपाय? इतना धर्म किया, जप, तप, अनशन, ध्यान, योगादि किये, फिर भी मन-वचन-काया से होनेवाले दोष क्यों नहीं रुकते? अंतरशांति क्यों नहीं होती? कभी निजी दोषों के नज़र आने के पश्चात् उसका क्या करना? उन्हें किस प्रकार हटाना? मोक्षमार्ग पर आगे बढने, और संसार मार्ग में भी सुख-शांति, मंद कषाय और प्रेमभाव से जीने के लिए कोई ठोस साधन तो होना चाहिए न? वीतरागों ने धर्मसार में जगत् को क्या बोध किया है? सच्चा धर्मध्यान कौन-सा है? पाप से वापस लौटना हो तो उसका कोई अचूक मार्ग है क्या? अगर है तो नज़र क्यों नहीं आता? धर्मशास्त्रों से बहुत पढ़ा जाता है, फिर भी वह जीवन में आचरण में क्यों नहीं आता? साधु, संत, आचार्य, कथाकार इतना उपदेश करते हैं फिर भी क्या कमी रहती है उसे चरितार्थ करने में? प्रत्येक धर्म में, प्रत्येक साधु-संतो की जमातों में कित-कितनी क्रियाएँ होती हैं? कित-कितने व्रत, जप, तप, नियम हो रहे हैं, फिर भी क्यों फलदायक नहीं होता? कषाय क्यों कम नहीं होते? दोषों का निवारण क्यों नहीं होता? क्या, इसकी जिम्मेदारी गद्दी पर बैठे उपदेशकों की नहीं होती? ऐसा यह जो लिखा जाता है वह द्वेष या बैरभाव से नहीं लेकिन करूणाभाव से हैं, फिर भी उसे धोने के लिए कोई उपाय है या नहीं? अज्ञान दशा में से ज्ञान दशा और अंतत: केवलज्ञान स्वरूप दशा तक पहुँचने के लिए ज्ञानियों ने, तीर्थंकरों ने क्या निर्देश दिया होगा? ऋणानुबंध वाले व्यक्तियों के साथ राग या तो द्वेष के बंधनों से मुक्त होकर वीतरागता कैसे प्राप्त हो? 'मोक्ष का मार्ग है वीर का, नहीं कायर का काम' लेकिन वीरता प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनकाल दरमियान कभी-कभी संयोगो के दबाव में ऐसी परिस्थिति में फँस जाता है कि संसार व्यवहार में भूलें नहीं करनी हो फिर भी भूलों से मुक्त नहीं हो सकता, ऐसी परिस्थिति में हृदय से सच्चे पुरुष लगातार उलझन में रहते हैं, उनको भूलों से छुटकारा पाने का और जीवन जीने का सच्चा मार्ग मिल जाये, जिससे अपने आंतरिक सुख-चैन में रहकर प्रगति कर सके, उसके लिए कभी भी प्राप्त नहीं हुआ हो ऐसा अध्यात्म विज्ञान का एकमेव अचूक आलोचना-प्रतिक्रमणप्रत्याख्यान रूपी हथियार तीर्थंकरों ने, ज्ञानीओं ने जगत् को अर्पण किया है। इस हथियार के द्वारा दोषरूपी विकसित विशाल वृक्ष को मुख्य जड़ समेत निर्मूलन करके अनंत जीव मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर सके हैं। ऐसे मुक्ति देनेवाले यह प्रतिक्रमण रूपी विज्ञान का रहस्योद्घाटन यथार्थरूप से ज्यों का त्यों प्रकट ज्ञानी पुरुष श्री दादा भगवान ने केवल ज्ञान स्वरूप में देखकर कही गई वाणी द्वारा किया है, जो प्रस्तुत ग्रंथ में संकलित हुई है, जो सज्ञ पाठक को आत्यंतिक वे सारी बातें कल्याण के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। ज्ञानी पुरुष की वाणी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा भिन्न-भिन्न Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पेज नं. निमित्तों के अधीन निकली हुई है, उस वाणी के संकलन में भासित क्षतियों को क्षम्य मानकर ज्ञानी पुरुष की वाणी का अंतर आशय प्राप्त करें यही अभ्यर्थना! ज्ञानी पुरुष की जो वाणी निकली हुई है, वह नैमित्तिक रूप से जो मुमुक्षु-महात्मा सामने आये उसके समाधान के लिए निकली होती है और वह वाणी जब ग्रंथरूप में संकलित हो तब कभी कुछ विरोधाभास लगे। जैसे कि एक प्रश्नकर्ता की आंतरिक दशा के समाधान के लिए ज्ञानी पुरुष द्वारा 'प्रतिक्रमण यह जागृति है और अतिक्रमण डिस्चार्ज है' ऐसा प्रत्युतर प्राप्त हो और दूसरे सूक्ष्म जागृति की दशा तक पहुँचे महात्मा को सूक्ष्मता में समझाने के लिए ज्ञानी पुरुष ऐसा खुलासा करें कि 'अतिक्रमण डिस्चार्ज है और प्रतिक्रमण भी डिस्चार्ज है, डिस्चार्ज को डिस्चार्ज से भाँजना है।' तो दोनों खुलासा नैमित्तिक तौर पर यथार्थ ही हैं। लेकिन सापेक्ष तौर पर विरोधाभासी लगे। ऐसे प्रश्नकर्ता की दशा में फर्क होने की वजह प्रत्युत्तर में विरोधाभास नजर आये फिर भी सैद्धांतिक तौर पर उसमें विरोधाभास है ही नहीं। सज्ञ पाठकों को ज्ञान वाणी की सक्ष्मता आत्मसात करके बात को समझे इसलिए साहजिक रूप से यह सूचित किया गया है। जय सच्चिदानंद नोंध : 1. इस पुस्तक में स्वरूप ज्ञान नहीं पाये हुओं के प्रश्न मुमुक्षु के तौर पर पूछे गये हैं, उस पूरे शीर्षक के नीचे की बात उसकी ही समझे। उसके सिवा प्रश्नकर्ता के तौर पर पूछनेवाले अक्रम मार्ग के स्वरूप ज्ञान प्राप्त महात्माओं के हैं ऐसा सझ पाठक समझें। जहाँ जहाँ चन्दुभाई नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ वहाँ सुज्ञ पाठक स्वयं को समझे। १. प्रतिक्रमण का यथार्थ स्वरूप २. प्रत्येक धर्म प्ररूपित प्रतिक्रमण ३. नहीं है 'वे' प्रतिक्रमण महावीर के ४. अहो! अहो ! वह जागृत दादा ५. अक्रम विज्ञान की रीत ६. रहें फूल, जायें काँटे... ७. हो शुद्ध व्यापार ८. 'ऐसे' टूटेगी शृंखला ऋणानुबंध की ९. निर्लेपता, अभाव से फाँसी तक १०. टकराव के प्रतिपक्ष में ११. पुरूषार्थ - प्राकृत दुर्गुणों के सामने... १२. छूटे व्यसन, ज्ञानी के कहे अनुसार १३. विमुक्ति, आर्त-रौद्र ध्यान से १४. निकाले कषाय की कोठरी में से १५. भाव अहिंसा की डगर पर... १६. दु:खदायी बैर की वसूली... १७. मूल, अभिप्राय का १८. विषय विकार को जीते वह राजाओं का राजा १९. झूठ के आदी को २०. जागृति, वाक्धारा बहे तब... २१. प्रकृति दोष छूटे ऐसे... २२. निपटारा, चिकनी फाइलों से २३. मन मनाये मातम तब ... २४. आजीवन बहाव में बहते को तारे ज्ञान २५. प्रतिक्रमण की सैद्धांतिक समझ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण १. प्रतिक्रमण का यथार्थ स्वरूप मुमुक्षु : मनुष्य को इस जीवन में मुख्यरूप से क्या करना चाहिए? दादाश्री : मन में जैसा हो, ऐसी वाणी बोलना, ऐसा वर्तन करना। हमें जो वाणी से कहना है, और उसके लिए मन बुरा हो तो उसका प्रतिक्रमण करना। प्रतिक्रमण किसका करोगे? किसकी साक्षी में करोगे? तब कहे, 'दादा भगवान' की साक्षी में प्रतिक्रमण करें। जो दिखते हैं वे 'दादा भगवान' नहीं हैं। ये तो भादरण के पटेल हैं, ए. एम. पटेल हैं। 'दादा भगवान', जो भीतर चौद लोक का नाथ प्रकट हो गया है वे हैं। इसलिए उनके नाम से प्रतिक्रमण करें कि हे दादा भगवान, मेरा मन बिगडा उसकी क्षमा माँगता हूँ। मुझे क्षमा करो। मैं भी उनका नाम लेकर प्रतिक्रमण करता हूँ। अच्छे कर्म करें वह धर्म कहलाये और बुरा कर्म करें वह अधर्म कहलाये। और धर्म-अधर्म से परे हो जाना वह आत्मधर्म कहलाये। अच्छे कर्मों की वजह से क्रेडिट (जमाराशि) उत्पन्न होता है और वह क्रेडिट भोगने जाना पड़ेगा। बुरे कर्म करोगे तो डेबिट (उधारराशि) उत्पन्न होगा और वह डेबिट भोगने जाना पड़ेगा। और जिस बहीखाते में क्रेडिट-डेबिट नहीं है, वहाँ आत्मप्राप्ति होगी। मुमुक्षु : इस संसार में आये इसलिए कर्म तो करने ही होंगे न, जानेअनजाने में बुरे कर्म हो जायें तो क्या करना? दादाश्री : हो जाये तो उसका उपाय होगा न फिर। हमेशा बुरा कर्म होने पर तुरन्त पछतावा होता है, और सच्चे दिल से, सिन्सियारिटी से (निष्ठा से) पछतावा करना चाहिए। पछतावा करने के उपरांत फिर से ऐसा हो जाये तो उसकी चिंता मत करें। फिर से पछतावा करना चाहिए। उसके पीछे क्या विज्ञान है उसका आपको खयाल नहीं आता, इसलिए आपको ऐसा लगे कि यह पछतावा करने पर भी बंद नहीं होता है। क्यों बंद नहीं होता, उसके पीछे भी विज्ञान है। इसलिए आप पछतावा करते ही रहें। सच्चे दिल से पछतावा करनेवाले के सारे कर्म धो जाते हैं। बुरा लगा इसलिए पछतावा करना ही चाहिए। प्रश्नकर्ता : शरीर के धर्मों का आचरण करते हैं तो उसके प्रायश्चित करने होंगे? ___दादाश्री : हाँ बिलकुल! जब तक 'मैं आत्मा हूँ' ऐसा भान नहीं होता तब तक पछतावा नहीं होने पर कर्म ज्यादा चिपकेंगे। पछतावा करने से कर्म के बंधन ढिले हो जाते है। वरना उस पाप का फल बहुत बुरा आता है। मनुष्यपन भी चला जाये, और अगर मनुष्य हो तो भी पर उसे हर तरह की मुसीबतें झेलनी पड़े। खाने की, पीने की और मान-प्रतिष्ठा तो कहीं कभी दिखाई नहीं पड़ती। सदैव अपमान। इसलिए यह पछतावा आदि अन्य सभी क्रियाएँ करनी पड़ती है। इसे परोक्ष भक्ति कहते हैं। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक परोक्ष भक्ति करनी जरूरी है। अब पछतावा किसकी उपस्थिति में करना चाहिए? किसकी साक्षी में करना चाहिए? आप जिसे मानते हैं, कृष्ण भगवान को मानते हैं या दादा भगवान को मानते हैं, जिसे भी मानते हो उसे साक्षी मान कर करना चाहिए। किंतु, उपाय न हो ऐसा इस दुनिया में होता ही नहीं है। उपाय का जन्म पहले होता है, उसके बाद दर्द पैदा होता है। यह संसार खड़ा कैसे हुआ? अतिक्रमण से। क्रमण में कोई हर्ज नहीं है। हमने हॉटल में कोई चीज़ मँगवाकर खाई. और दो रकाबियाँ अपने हाथों टूट गई, पर उसके पैसे देकर बाहर निकलें तो उसमें कोई अतिक्रमण नहीं हुआ, तो फिर उसके प्रतिक्रमण की जरूरत नहीं है। पर रकाबी टूटने Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण पर हम कहें कि तुम्हारे आदमी ने तोड़ी है, तो हो गया शुरू फिर, अतिक्रमण किया, उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। और अतिक्रमण हुए बिना रहता नहीं, इसलिए प्रतिक्रमण करें। बाकी सब क्रमण है। सहज बात हुई वह क्रमण है, उसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन अतिक्रमण हुए बगैर नहीं रहता। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करें। प्रश्नकर्ता : यह अतिक्रमण हुआ ऐसा खुद को कैसे मालूम हो? दादाश्री : वह खुद को भी मालूम होगा और सामनेवाले को भी मालूम होगा। हमें मालूम होगा कि उसके चेहरे पर असर हो गया है और आपको भी असर हो जाये। दोनों को असर होता है। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना अनिवार्य होगा ही। क्रोध-मान-माया-लोभ वे सभी अतिक्रमण कहलाये। यह अतिक्रमण हुआ, उसका प्रतिक्रमण किया, तो क्रोध-मान-माया-लोभ गये। अतिक्रमण से यह संसार खड़ा हुआ है और प्रतिक्रमण से नष्ट होता निमित्त है और हमारा ही हिसाब है। यह तो निमित्त को काटने दौड़ते है और इसी के झगड़े हैं सभी। उलटे चले उसका नाम अतिक्रमण और वापस लौट आये उसका नाम प्रतिक्रमण। जहाँ झगड़ा है वहाँ प्रतिक्रमण नहीं है और जहाँ प्रतिक्रमण है वहाँ झगड़ा नहीं है। लड़के को पिटने का कोई अधिकार नहीं है, समझाने का अधिकार है। फिर भी लड़के की पीटाई कर दी और प्रतिक्रमण नहीं किया तो सारे कर्म चिपकते ही रहेंगे न? प्रतिक्रमण तो होना ही चाहिए। __'मैं चन्दुभाई हूँ' यही अतिक्रमण। फिर भी व्यवहार में उसे 'लेट गो' (सनी-अनसनी) करेंगे। लेकिन आपसे किसी को दुःख होता है? दु:ख नहीं होता तो वह अतिक्रमण नहीं हुआ। दिनभर में खद से किसी को दुःख पहुँचा हो तो वह अतिक्रमण हुआ। उसका प्रतिक्रमण कीजिए। यह तो वीतरागों का विज्ञान है। अतिक्रमण अधोगति में ले जायेगा और प्रतिक्रमण उर्ध्वगति में ले जायेगा और अंततः मोक्ष तक प्रतिक्रमण ही हेल्प करेगा। प्रतिक्रमण किसे नहीं करना होगा? जिसने अतिक्रमण नहीं किया हो उसे। प्रश्नकर्ता : व्यवहार, व्यापार और अन्य प्रवत्ति में अन्याय होता लगे और उससे मन में ग्लानि हो, उसमें यदि व्यवहार को नुकसान पहुँचे तब उसके लिए क्या करना? हम से अगर ऐसा अन्याय होता हो तो उसका प्रायश्चित क्या? दादाश्री : प्रायश्चित में आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान होना चाहिए। जहाँ-जहाँ किसी को अन्याय होता हो वहाँ आलोचना, प्रतिक्रमण होना चाहिए और फिर अन्याय नहीं करूँगा ऐसा तय करना चाहिए। जिस भगवान को मानते हो, उनके पास पश्चाताप लेना चाहिए। आलोचना करनी चाहिए कि मुझ से लोगों के साथ ऐसा बुरा दोष हुआ है, अब फिर से प्रश्नकर्ता : तो प्रतिक्रमण माने क्या? दादाश्री : प्रतिक्रमण अर्थात् सामनेवाला हमारा जो अपमान करता है, तो हमें समझ लेना चाहिए कि इस अपमान का गुनहगार कौन है? वह जो अपमान करता है, वह गुनहगार है या भुगतनेवाला गुनहगार है। पहले हमें यह डिसीझन (निर्णय) लेना चाहिए। तो इसमें अपमान करनेवाला कतई गुनहगार नहीं होता। एक सेन्ट (प्रतिशत) भी गुनहगार नहीं होता। वह निमित्त होता है और हमारे ही कर्म के उदयाधीन वह निमित्त इकट्ठा होता है। अर्थात् यह हमारा ही गुनाह है। अब प्रतिक्रमण इसलिए करना है कि उस पर बुरे भाव होते हो तो प्रतिक्रमण करने चाहिए। उसके प्रति, वह नालायक है, लुच्चा है, ऐसा विचार मन में आ गया हो तो प्रतिक्रमण करने का। और ऐसा विचार नहीं आया हो और हमने उसे उपकारी माना हो तो प्रतिक्रमण करना जरूरी नहीं है। बाकी कोई भी गाली दे तो वह हमारा ही हिसाब है, देनेवाला तो निमित्त है। जेब काटे वह काटनेवाला Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण ऐसा नहीं करूँगा। हमें बार-बार पश्चाताप करना पड़े। और फिर ऐसा दोष हो जाये तो फिर से पश्चाताप लेना चाहिए। ऐसा करते-करते दोष कम होगा। आपको नहीं करना हो फिर भी अन्याय हो जायेगा। हो जाता है वह अभी प्रकृतिदोष है। यह प्रकृतिदोष आपके पूर्वजन्म का दोष है, आज का दोष नहीं है। आज आपको सुधरना है, पर यह हो जाता है वह आपका पहले का दोष है। वह आपको परेशान किये बगैर रहेगा नहीं। इसलिए आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान करते रहना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : हमें सहन करना पड़ता है, तो उसका रास्ता क्या? दादाश्री : हम तो सहन कर ही लें, बिना वजह शोरगुल नहीं मचायें। सहन करें वह भी फिर समतापूर्वक सहन करें। सामनेवाले को मन में गालियाँ देकर नहीं, पर समतापूर्वक कि भैया, तूने मुझे कर्म से मुक्त किया। मेरा जो कर्म था, वह मुझे भुगताया और मुझे मुक्त किया। इसलिए उसका उपकार समझना। वह कुछ मुफ्त नहीं सहना पड़ता, हमारे ही दोष का परिणाम है। प्रश्नकर्ता : और प्रतिक्रमण तो, दूसरों के दोष नज़र आये उसके ही प्रतिक्रमण? दादाश्री : केवल दूसरे के दोषों का नहीं, प्रत्येक मामले में, झूठ बोलना पड़ा हो, उलटा हो गया हो, जो कुछ हिंसा हो गई हो, पंच महाव्रत का भंग हुआ हो, उन सभी का प्रतिक्रमण करें। २. प्रत्येक धर्म प्ररूपित प्रतिक्रमण भगवान ने कहा है कि, आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के सिवा दूसरा व्यवहार धर्म ही नहीं है। पर वह कैश (नगद) होगा तो, उधार नहीं चलेगा। किसी को गाली दी, किस के साथ क्या व्यवहार हुआ, इसे लक्ष्य में रख और आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान कैश कर। भगवान ने उसे व्यवहार-निश्चय दोनों कहा। किंतु वह होगा किससे? समकित होने के पश्चात्। तब तक करना चाहे तो भी नहीं होगा। वह समकित होता भी नहीं न! फिर भी कोई हमारे यहाँ से आलोचना प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान सिख जायेगा, तो भी काम बन जायेगा। चाहे बिना आधार सिख जायेगा तो भी हर्ज नहीं है। उसे समकित सामने आकर खड़ा रहेगा!!! जिसके आलोचना, प्रतिक्रमण सच्चे हो, उसे आत्मा प्राप्त हुए बगैर रहेगा ही नहीं। प्रश्नकर्ता : पछतावा करता हूँ यह प्रतिक्रमण और ऐसा नहीं करूँगा वह प्रत्याख्यान? दादाश्री : हाँ, पछतावा यह प्रतिक्रमण कहलाये। अब प्रतिक्रमण किया तो फिर से ऐसा अतिक्रमण नहीं होगा, तो 'फिर से अब ऐसा नहीं करूँगा' उसका नाम प्रत्याख्यान। फिर ऐसा नहीं करूँगा, इसका प्रोमिस (वचन) देता हूँ। ऐसा मन में तय करना और फिर ऐसा हो जाये तो एक परत तो गई, उसके बाद दूसरी परत आयी तो उसमें घबराने की जरूरत नहीं, बार-बार यही करते ही रहना। प्रश्नकर्ता : आलोचना माने क्या? दादाश्री : आलोचना माने हमने कोई बुरा काम किया हो तो जो हमारे गुरुजी हो अगर तो ज्ञानी हो उनके पास इकरार करना। जैसे हुआ हो उसी स्वरूप में इकरार करना। अर्थात हमें प्रतिक्रमण किसका करना? तब कहें, 'जितना अतिक्रमण किया हो', जो लोगों को स्वीकार्य योग्य नहीं हो, लोग निंदा करे ऐसे कर्म, सामनेवाले को दु:ख हो ऐसा हुआ हो वे सब अतिक्रमण। वैसा हुआ हो तो प्रतिक्रमण करना जरूरी है। कर्म कौन बाँधता है? उसे हमें जानना चाहिए। आपका क्या नाम मुमुक्षु : चन्दुलाल। दादाश्री : तो 'मैं चन्दुलाल हूँ' वही कर्म का बाँधनेवाला। फिर रात Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण में सो जायें, तो भी सारी रात कर्म बँधते हैं। 'मैं चन्दुलाल हूँ' इसलिए सोते सोते भी कर्म बँधते हैं। उसकी वजह क्या? क्योंकि वह आरोपित भाव है। इसलिए गुनाह लागू हुआ। 'खद' वाकई चन्दलाल नहीं है और जहाँ आप नहीं हैं वहाँ 'मैं हूँ' ऐसा आरोपण करते हैं। वह कल्पितभाव है, और निरंतर उसका गुनाह लागू होगा न! आपकी समझ में आता है?! फिर मैं चन्दुलाल, इसका ससुर होता हूँ, इसका मामा होता हूँ, इसका चाचा होता हूँ ये सभी आरोपित भाव हैं, उन से निरंतर कर्म बँधते रहते हैं। रात को नींद में भी कर्म बँधते रहते हैं। उससे अब कोई छूटकारा ही नहीं है पर यदि अज्ञान दशा में भी 'मैं चन्दुलाल हूँ' उस अहंकार को यदि आप निर्मल कर दें तो आपको कम कर्म बंधेगे। अहंकार निर्मल करने के पश्चात् फिर क्रियाएँ करनी होंगी। कैसी क्रियाएँ करनी पड़ेगी? कि सवेरे आपकी पुत्रवधू के हाथों कप-रकाबी टूट गये, इस पर आपने कहा कि, 'तेरे अक्ल नहीं है।' इसलिए उसे जो दुःख हुआ, उस समय हमारे मन में ऐसा होना चाहिए कि यह जो मैंने उसे दःख दिया, उसका प्रतिक्रमण होना चाहिए। दु:ख दिया वह अतिक्रमण कहलाये और अतिक्रमण पर प्रतिक्रमण करें तो वह धुल जाये। वह कर्म हलका हो जाये। उसे कुछ दुःख हो ऐसा आचरण करें तो वह अतिक्रमण कहलाये और अतिक्रमण का प्रतिक्रमण करना चाहिए। और वह बारह महिने बाद करते है वैसा नहीं, 'शूट ऑन साइट' (दोष होते ही तुरंत) ऐसा होना चाहिए। तब ये दु:ख कुछ कम होंगे। वीतराग के कहे गये मतानुसार चलें तो दुःख जायेंगे। वरना तो दु:ख जायेंगे नहीं। प्रश्नकर्ता : वह प्रतिक्रमण कैसे किया जाये? दादाश्री : हमने यदि ज्ञान प्राप्त किया हो तो उसका आत्मा हमें मालूम होगा। इसलिए आत्मा को संबोधित करके करने का, अथवा तो भगवान को संबोधित करके करने का; हे भगवान! पश्चाताप करता हूँ, माफ़ी माँगता हूँ और अब फिर से नहीं करूँगा। बस वह प्रतिक्रमण! प्रश्नकर्ता : वह धुल जायेगा क्या? दादाश्री : हाँ, हाँ, निश्चितरूप से धुल जायेगा !! प्रतिक्रमण किया इसलिए फिर रहता नहीं न! बहुत भारी कर्म हो तो जली हुई रस्सी के भाँति दिखेगा मगर हाथ से छुने पर झड़ जायेगा। प्रश्नकर्ता : यह पछतावा कैसे करूँ? सबके सामने करूँ या मन में करूँ? दादाश्री : मन में, मन ही मन दादाजी को याद करके कि यह मेरी भूल हुई है, अब फिर से नहीं करूँगा ऐसा मन में स्मरण करके करने का, अर्थात् फिर ऐसा करते-करते वह दु:ख सारा विस्मृत हो जायेगा। वह भूल निकल जाती है। किंतु ऐसा नहीं करें तो फिर भूलें बढ़ती जायेंगी। यह एक ही रास्ता ऐसा है कि खुद के दोष नज़र आते जायें और शूट (खत्म) होते जायें, ऐसा करते-करते दोष खतम होते जायें। प्रश्नकर्ता : एक ओर पाप किया करें और दूसरी ओर पछतावा किया करें। ऐसा तो चलता ही रहें। दादाश्री : ऐसा नहीं करना है। जो मनुष्य पाप करे और वह यदि पछतावा करे तो वह नकली पछतावा कर ही नहीं सकता। उसका पछतावा सच्चा ही होगा और पछतावा सच्चा होने पर प्याज की परत की तरह एक परत दूर होगी, उसके बाद फिर दिखने में तो परी प्याज़ दिखे। बाद में दूसरी परत हटेगी। हमेशा पछतावा व्यर्थ जाता नहीं है। प्रश्नकर्ता : मगर सच्चे मन से माफ़ी माँगे न? दादाश्री : माफ़ी माँगनेवाला सच्चे मन से ही माफ़ी माँगता है। और झुठे मन से माँगेगा तो भी चलाया जायेगा। तब भी माफ़ी माँगना। प्रश्नकर्ता : तब तो फिर उसे आदत-सी हो जायेगी? दादाश्री : आदत हो जाये तो भले हो जाये। मगर माफ़ी माँगना। बिना माफ़ी माँगे तो शामत आई समझो!!! माफ़ी का क्या अर्थ है? वह प्रतिक्रमण कहलाता है। और दोष को क्या कहते है? अतिक्रमण। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण १० प्रतिक्रमण कोई ब्रान्डी पीता हो और कहे कि मैं माफ़ी माँगता हूँ। तो मैं कहूँगा कि माफ़ी माँगना। माफ़ी माँगते रहना और पीते रहना। लेकिन सच्चे दिल से मन में तय करना कि मुझे छोड़ देनी है। एक दिन उसका अंत आयेगा। यह मेरा शत-प्रतिशत का विज्ञान है! यह तो विज्ञान है !!! फलित हुए बिना नहीं रहता। तुरन्त ही फल देनेवाला है। 'दीस इझ दी कैश बैन्क ऑफ डिवाईन सोल्यशन'"कैश बैन्क' यही सही! दस लाख वर्ष में निकला ही नहीं ऐसा बैन्क ! दो घंटे में मोक्ष ले जाईए!! यहाँ पर तू जो माँगेगा वह देने को तैयार हूँ। तू माँगता भूले। एक मनुष्य को चोरी करने के पश्चात् पछतावा होता है, उसे कुदरत नजरअंदाज करती है। पश्चाताप किया, उसका भगवान के यहाँ कोई गुनाह नहीं है। मगर जगत् के लोग दंड करें वह इस जनम में भुगत लेना पड़ता चाहिए । आज्ञा यही ही धर्म और आज्ञा यही ही तप। मगर वह गड़बड़ किये बिना रहता नहीं न! अनादि से बुरी आदत जो पड़ी है। ३. नहीं है 'वे' प्रतिक्रमण महावीर के प्रश्नकर्ता : अनादिकाल से प्रतिक्रमण तो करता आया है, फिर भी छुटकारा नहीं हुआ। दादाश्री : सच्चे प्रतिक्रमण नहीं किये हैं। सच्चे प्रत्याख्यान और सच्चे प्रतिक्रमण करे तो उसका हल निकले। प्रतिक्रमण शूट ऑन साइट होना चाहिए। अब मुझ से एक शब्द जरा टेढा निकल गया, इसलिए मझे भीतर प्रतिक्रमण हो ही जाना चाहिए। तुरन्त ही, ऑन दी मोमेन्ट (उसी क्षण)। इसमें उधार नहीं चलता। यह तो बासी रखा ही नहीं जाता। प्रतिक्रमण माने पछतावा करना, तो पछतावा आप किसका करते हो? प्रश्नकर्ता : पछतावा नहीं कर सकते। क्रियाएँ करते रहते हैं सभी। दादाश्री : प्रतिक्रमण माने वापस लौटना, पाप जो किये हो, क्रोध किया हो, उसका पछतावा करना उसे प्रतिक्रमण कहते है। प्रतिक्रमण किसे कहेंगे? कि जो करने से दोष कम हो। जो करने से दोष बढते रहें, उसे प्रतिक्रमण कैसे कहेंगे? अर्थात् भगवान ने ऐसा नहीं कहा था। भगवान कहते हैं, समझ सको उस भाषा में प्रतिक्रमण करो। अपनी-अपनी भाषा में प्रतिक्रमण कर लेना। वरना लोग प्रतिक्रमण नहीं समझ पायेंगे। तब यह मागधी भाषा में रख छोड़ा है। अब जो गुजराती अपनी भाषा ठीक से नहीं समझते, उसको मागधी में प्रतिक्रमण करने से क्या फ़ायदा होगा? और साधु-आचार्य भी समझते नहीं, उनमें भी कोई दोष कम नहीं हुआ। इसलिए इसमें ऐसी परिस्थिति हो जाती है। _ 'ये सब गलत है, ऐसा नहीं करना चाहिए', ऐसा सभी बोलते हैं मगर ऊपर-ऊपर से बोलते हैं। 'सुपरफ्लुअस' बोलते हैं, 'हार्टिली' (दिल से) नहीं बोलते। बाकी यदि ऐसा 'हार्टिली' बोलें तो उसे कुछ समय में गये बिना छुटकारा ही नहीं! आपका कितना भी बरा दोष हो किंतु उसका आपको 'हार्टिली' बहुत पछतावा होगा तो वह दोष फिर नहीं होगा। और फिर से हो जाये तो भी उसमें कोई हर्ज नहीं, मगर उसका पछतावा बहुत करना। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण और पश्चाताप में क्या अंतर? दादाश्री: पश्चाताप अस्पष्ट रूप से है. क्रिश्चियन इतवार को चर्च में पश्चाताप करते हैं। जो पाप किये थे उसका अस्पष्ट रूप से पश्चाताप करते हैं। और प्रतिक्रमण तो कैसा हे कि जिसने गोली दागी, जिसने अतिक्रमण किया, वह प्रतिक्रमण करे, तत्क्षण! 'शूट ऑन साइट' उसे धो डाले!! आलोचना-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान महावीर भगवान के सिद्धांत का सार है। और अक्रम मार्ग में 'ज्ञानी पुरुष' वह सार है, इतना ही समझना भगवान ने मागधी भाषा में केवल एक नवकार मंत्र अकेला ही बोलने को कहा था और वह भी समझकर बोलना। अर्थात् मागधी में रखने जैसा केवल यह नवकार मंत्र अकेला ही है, क्योंकि वे भगवान के शब्द Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण हैं। प्रतिक्रमण में पहले तो उसका अर्थ समझना चाहिए कि यह मैं प्रतिक्रमण करता हूँ! किसका? किसी ने मेरा अपमान किया अथवा मैंने किसी का अपमान किया, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। प्रतिक्रमण माने कषायों को समाप्त कर देना। ये लोग साल में एक बार प्रतिक्रमण करते हैं, तब नये कपड़े पहनकर जाते हैं। वह प्रतिक्रमण क्या शादी-ब्याह है कि क्या है? प्रतिक्रमण करना माने कितना गहरा पछतावा करना! वहाँ नये कपड़ो का क्या काम है?! वहाँ कुछ ब्याहना है? ऊपर से रायशी और देवशी (प्रतिक्रमण)। जब सुबह का खाया शाम को याद नहीं आता, तब प्रतिक्रमण किस प्रकार करेंगे? वीतराग धर्म किसे कहते है कि जिसमें प्रतिदिन पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करें। जैन धर्म तो हर जगह है पर वीतराग धर्म नहीं है। बारह महीने में एक बार संवत्सरी पर प्रतिक्रमण करे. उसे जैन कैसे कहेंगे? फिर भी संवत्सरी प्रतिक्रमण करे उसका हमें विरोध नहीं है। हम ऐसा कठोर बोलते हैं, लेकिन हमने तो बोलने से पहले ही प्रतिक्रमण कर लिया होता है। आप हमारे जैसा मत बोलना। हम ऐसा सख्त बोलते हैं, भूल निकालते हैं, फिर भी हम सभी को निर्दोष देखते हैं। लेकिन संसार को समझाना तो होगा न? यथार्थ, सच्ची बात तो समझानी होगी न? आत्मज्ञान यह मोक्षमार्ग है। आत्मज्ञान प्राप्ति के पश्चात् के प्रतिक्रमण मोक्षमार्ग देंगे, उसके पश्चात् की सभी साधनाएँ मोक्षमार्ग देंगी। प्रश्नकर्ता : तो वह प्रतिक्रमण उसे आत्मज्ञान होने का कारण बन संसार के लोग प्रतिक्रमण करते हैं, जो जागृत हैं वे रायशी-देवशी दोनों प्रतिक्रमण करते हैं, इसलिए उतने दोष कम हो गये। पर जब तक दर्शन-मोहनीय है तब तक मोक्ष नहीं होगा, दोष उत्पन्न होते ही रहेंगे। जितने प्रतिक्रमण होंगे उतने दोष जायें। अर्थात इस काल में हाल 'शूट ऑन साइट' की बात तो रही ही नहीं लेकिन शाम को कहते है कि, सारे दिन का प्रतिक्रमण करना। वह बात भी कहाँ रही? सप्ताह में एकाधबार करने की बात भी कहाँ चली गई? और पाक्षिक भी कहाँ गया? और बारह महीने में एक बार करे, उसकी भी समझ नहीं है और अच्छे कपड़े पहनकर घूमते रहते हैं। अर्थात् ऐसे रियल (सच्चा) प्रतिक्रमण कोई नहीं करता। इसलिए दोष बढ़ते ही चले जाते हैं। प्रतिक्रमण तो उसे कहे कि दोष घटते ही जायें। यह नीरूबहन को आपके लिए जरा-सा उलटा विचार आया कि 'ये फिर आयें और मेरे लिए मुसीबत क्यों खडी की?' उतना विचार भीतर आये लेकिन आपको पता नहीं चलने देगी। मुँह हँसता रखेगी। उस समय प्रतिक्रमण करेगी। उलटा विचार करे वह अतिक्रमण किया कहलाये। वह प्रतिदिन पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करती हैं। प्रश्नकर्ता : वह तो भाव प्रतिक्रमण है, क्रिया प्रतिक्रमण तो होगा ही नहीं न? दादाश्री : नहीं, क्रिया में प्रतिक्रमण होता ही नहीं, प्रतिक्रमण तो भाव प्रतिक्रमण की ही जरूरत है, जो कार्य करें। यहाँ क्रिया प्रतिक्रमण नहीं होता। प्रश्नकर्ता : द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण माने क्या यह थोड़ा समझाइए। दादाश्री: भाव ऐसा रखना कि ऐसा नहीं होना चाहिए। यह भाव प्रतिक्रमण कहलाता है। और उस द्रव्य से तो पूरे शब्द-शब्द बोलने पड़े। जितने शब्द लिखे हो वे सभी हमें बोलने पड़े, वह द्रव्य प्रतिक्रमण कहलाये। सके? दादाश्री : नहीं। यह पुरानों का प्रतिक्रमण करे और फिर मोह के नये अतिक्रमण खड़े होते हैं। मोह बंद नहीं हुआ न? मोह रहा है न? दर्शन मोह है, इसलिए पुराने सभी प्रतिक्रमण करे, वे विलय हो जाये और नये पैदा होते रहें। प्रतिक्रमण करे उस घडी पुण्य बँधेगा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण १३ तो यह प्रतिक्रमण देख कर, यदि आज भगवान होते तो, इन सभी को जेल में अंदर कर देते । प्रतिक्रमण माने एक गुनाह की माफ़ी माँग लेना, साफ़ कर देना। एक दाग़ लगा हो, उस दाग़ को धो कर साफ़ कर डालना। वह जैसी थी वैसी कि वैसी जगह स्वच्छ कर देना उसका नाम प्रतिक्रमण । अब तो निरी दाग़वाले कपड़े नज़र आते है। यह तो एक दोष का प्रतिक्रमण किया ही नहीं और निरे दोषों के भंडार हो गये हैं। यह नीरूबहन है, उसके सभी आचार-विचार कैसे उच्च हुए है? तब कहें, प्रतिदिन पाँच सौ पाँच सौ प्रतिक्रमण करती थी और अब तो बताती है, कि भीतर बारह सौ बारह सौ प्रतिक्रमण होते हैं। और इन लोगों से एक भी प्रतिक्रमण नहीं होता ! हमेशा ही जो करते है उसका आवरण आता है। आवरण आने से भूल ढँक जाती है, इसलिए भूल नज़र ही नहीं आती। भूल तो आवरण हटने से नज़र आयेगी और ज्ञानी पुरुष के पास वह आवरण टूटेगा, वरना खुद से आवरण टूटता नहीं। ज्ञानी पुरुष तो सारे आवरण फ्रेक्चर करके (तोडकर) उड़ा दें! प्रश्नकर्ता: प्रतिक्रमण को कैसे शुद्ध मानें? सच्चा प्रतिक्रमण कैसे होता है? दादाश्री : समकित होने के पश्चात् सच्चा प्रतिक्रमण होगा । दृष्टि सुलटी होने के बाद, आत्मदृष्टि होने के पश्चात् सच्चा प्रतिक्रमण हो सके। लेकिन तब तक प्रतिक्रमण करें और पछतावा करें तो उससे सब कम हो जाये। आत्मदृष्टि नहीं हुई हो और संसार के लोग, गलत होने के बाद पछतावा करें और प्रतिक्रमण करें तो इससे पाप कम बँधेंगे। आया समझ में? प्रतिक्रमण, पछतावा करने से कर्म नष्ट हो जायें! कपड़े पर चाय का दाग़ लगते ही तुरन्त उसे धो डालते हो ऐसा क्यों? १४ प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता: दाग़ निकल जाये इसलिए। दादाश्री : वैसे ही भीतर दाग़ लगने पर तुरन्त धो डालना चाहिए। यह दाग़ लोग तुरन्त धो देते हैं। कोई कषाय उत्पन्न हुआ, कुछ हुआ तुरन्त धो डाले तो साफ़ ही साफ़, सुन्दर ही सुन्दर! आप तो बारह महीने में एक दिन करते हैं, उस दिन सारे कपड़े डूबो दें ! हमारा प्रतिक्रमण शूट ऑन साइट कहलाये। अर्थात् आप जो करते हैं वह (सच्चा) प्रतिक्रमण नहीं कहलाये। क्योंकि आपका एक भी कपड़ा धुलता नहीं है। और हमारे तो सभी धुलकर स्वच्छ हो गये । प्रतिक्रमण तो उसका नाम कहलाये कि कपड़े धुलकर स्वच्छ हो जायें । कपड़े रोजाना एक-एक करके धोना पड़े। तब जैन क्या करते हैं? बारह महीने होने पर बारह महीनों के कपड़े एक साथ धोते हैं! भगवान के वहाँ तो ऐसा नहीं चलेगा। ये लोग बारह महीने पर कपड़े उबालते हैं कि नहीं? यह तो एक-एक करके धोना पड़े। पाँच सौ पाँच सौ कपड़े (दोष) रोजाना धुलेंगे तब काम होगा। जितने दोष दिखाई पड़े, उतने कम होंगे। इनको रोजाना पाँच सौ दोष दिखाई पड़ते हैं। अब दूसरों को नहीं दिखाई पड़ते, उसकी क्या वज़ह ? अभी उतना कच्चापन है, क्या कुछ बिना दोष का हो गया है, जो नहीं दिखाई पड़ते ? ! भगवान ने रोजाना (अपने दोषों का ) बहीखाता लिखने को कहा था, अभी बारह महीने पर बहीखाता लिखते है, जब पर्युषण आता हैं तब । भगवान ने कहा था कि सच्चा व्यापारी हो तो रोजाना लिखना और शाम को लेखा-जोखा निकालना। बारह महीने पर बहीखाता लिखता है, फिर क्या याद होगा? उसमें कौन सी रकम याद होगी? भगवान ने कहा था कि सच्चा व्यापारी बनना और रोज का बहीखाता रोज लिखना और बहीखाते में कुछ गलती हो गई हो, अविनय हुआ हो तो तुरन्त ही प्रतिक्रमण करना, उसे मिटा देना । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण ४. अहो! अहो! वह जागृत दादा इस दुनिया में सभी निर्दोष हैं। पर देखिए ऐसी कठोर वाणी निकलती है न?! हमने तो इन सभी को निर्दोष ही देखे हैं, दोषित एक भी नहीं है। हमें दोषित नज़र ही नहीं आता, केवल दोषित बोला जाता है। ऐसा बोलना हमें शोभा देगा? हमारे लिए बोलना क्या अनिवार्य है? किसी के भी बारे में नहीं बोलना चाहिए। उसके पश्चात् तुरन्त ही उसके प्रतिक्रमण चलते रहें। यह हमारी चार डिग्री की कमी है, उसका यह परिणाम है। किंतु प्रतिक्रमण किये बगैर नहीं चलेगा। हम (सामनेवाले का रोग निकालने ) दखलंदाजी करें, कठोर शब्द बोलें, वह जान-बुझ कर बोलते हैं पर कुदरत के प्रति हमारी भूल तो हुई ही न! इसलिए हम उसका प्रतिक्रमण (ए.एम.पटेल के पास) करवायें। प्रत्येक भूल का प्रतिक्रमण होता है। सामनेवाले का मन ट नहीं जाये ऐसा हमारा अभिगम होगा। मुझ से जो 'है' उसे 'नहीं है' ऐसा नहीं कहा जायेगा और 'नहीं है' उसे 'है' ऐसा नहीं कहा जायेगा। इसलिए मुझ से कुछ लोगों को दु:ख होगा। यदि 'नहीं है' उसे मैं 'है' कहूँ तो आपके मन में भ्रम पैदा होगा। और ऐसा बोलने पर वे लोग (प्रतिपक्षियों) के मन में उलटा असर होगा कि ऐसा क्यों बोलते हैं? इसलिए ऐसा बोलना पडे तो मुझे रोजाना उस ओर का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा! क्योंकि उसको दुःख तो होना ही नहीं चाहिए। वह माने कि यहाँ इस पीपल के पेड़ में भूत है और मैं कहूँ कि भूत जैसी वस्तु नहीं है इस पेड़ में, उसका उसे दु:ख होगा, इसलिए फिर मुझे प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। वह तो हमेशा करना ही पड़ेगा न! प्रश्नकर्ता : दूसरों की समझ से गलत लगता हो तो उसका क्या करना? दादाश्री : ये जितने सत्य हैं वे सभी व्यावहारिक सत्य हैं। वे सभी गलत हैं। व्यवहार के जरिये सत्य हैं। मोक्ष में जाना हो तो सभी गलत हैं। सबका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। मैं आचार्य हूँ' उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। 'हं, मैंने अपने आपको आचार्य माना' उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। क्योंकि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' इसलिए ये सब झूठ हैं। तेरी समझ में ऐसा आये कि नहीं आये? प्रश्नकर्ता : आये ही। दादाश्री : सब झूठा। सब लोग नहीं समझने की वजह से कहते हैं कि 'मैं सत्य कहता हूँ'। अरे, सत्य कहें तो कोई प्रत्याघात ही न हो। ऐसा है न, हम जिस समय बोलते हैं उसी समय हमारे जोरदार प्रतिक्रमण चलते हो, बोलते वक्त साथ में ही। प्रश्नकर्ता : किंतु जो सच्ची बात है वह आप कहते हैं उसमें क्या प्रतिक्रमण करना? दादाश्री : नहीं, फिर भी प्रतिक्रमण तो करने ही होंगे न। किसी का गुनाह तूने क्यों देखा? निर्दोष होने पर भी दोष क्यों देखा? निर्दोष है फिर भी उसकी निंदा तो हुई न? निंदा हो ऐसी सच्ची बात भी नहीं बोलनी चाहिए, ऐसी सच्ची बात वह गुनाह है। (किसी को दुखदायी हो) ऐसी सच्ची बात संसार में बोलना वह गुनाह है। सच्ची बात हिंसक नहीं होनी चाहिए। यह हिंसक बात कहलाये। आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान वह मोक्षमार्ग है। हमारे महात्मा क्या करते हैं? सारा दिन आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ही किया करते हैं। अब उन्हें कहेंगे कि 'आप इस ओर चलें। व्रत-नियम करें।' तो कहेंगे, 'हमें व्रत-नियम को क्या करना है? हमारे भीतर ठंडक है, हमें चिन्ता नहीं है। निरंतर समाधि में रहा जाता है। फिर किस लिए उपधान तप और फलाँ तप?' वह क्लेश कहलाये। वह तो दुविधावाले लोग करें सब। जिसे जरूरत हो, शौक़ हो। इसलिए हम कहते हैं कि यह तप, वह तो शौक़ीन लोगों का काम है। संसार के शौक़ीन हो, उन्हें तप करने चाहिए। प्रश्नकर्ता : किंतु ऐसी मान्यता हो कि तप करने से कर्मों की निर्जरा होती है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान। वही हमारा यह मोक्षमार्ग है। उसमें क्रियाकांड और ऐसा सब नहीं होता न! आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान वही यह मोक्षमार्ग। कितने ही अवतारों से हमारी यह लाइन (मार्ग), कितने ही अवतारों से आलोचनाप्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करते करते यहाँ तक पहुँचे हैं। कषाय नहीं करना और प्रतिक्रमण करना वे दो ही धर्म हैं। और पूर्वकर्म के अनुसार कषाय हो जाये उनके प्रतिक्रमण करना यही धर्म है। बाकी और कोई धर्म जैसी चीज़ नहीं है। और ये दो आइटम (चीज़े) ही इन सभी लोगों ने निकाल दी है! दादाश्री : ऐसा कभी नहीं होता। किस तप से निर्जरा होगी? आंतरिक तप चाहिए। अदृश्य तप, जो हम कहते हैं न कि ये सब हमारे महात्मा अदृश्य तप करते हैं; जो तप आँखों से नहीं दिखाई पड़ता। और आँखों से नज़र आनेवाले तप और जाने गये तप उन सबका फल पुण्य और अदृश्य तप अर्थात् भीतरी तप, आंतरिक तप, बाहर देखने में नहीं आता, उन सबका फल मोक्ष। ये साध्वीजियाँ जानती हैं कि हमें सारा दिन कषाय होते हैं, तो उन्हें क्या करना चाहिए? शाम को बैठकर एक पूरा गुणस्थान, इसके साथ यह कषाय भाव हुआ, उसके साथ यह कषाय भाव हुआ, ऐसे बैठकर उनके प्रतिक्रमण करें और फिर प्रत्याख्यान करें कि ऐसा नहीं करूँगी, ऐसा नहीं करूँगी, तो वे मोक्षमार्ग पर चल रहीं हैं। ऐसा तो कुछ करते नहीं वे बेचारें, फिर क्या हो? ऐसे मोक्षमार्ग समझें तो उस पर चल सकें न, समझने की जरूरत है। प्रश्नकर्ता : जब तक उससे प्रत्यक्ष क्षमा नहीं माँगें, तब तक उसको खटका तो रहेगा ही। इसलिए प्रत्यक्ष क्षमा तो माँगनी ही पड़े न? दादाश्री : प्रत्यक्ष क्षमा माँगनी जरूरी नहीं है। भगवान ने ना कही है। यदि आप प्रत्यक्ष क्षमा माँगोगे, तो भला आदमी हो तो उससे क्षमा माँगना और कमजोर मनुष्य होगा तो क्षमा माँगने पर सिर पे चपत लगायेगा। और वह ज्यादा कमजोर होगा। इसलिए प्रत्यक्ष प्रतिक्रमण मत करना और प्रत्यक्ष करना हो तो बहुत भला मनुष्य हो तो करना। कमजोर तो ऊपर से मारेगा। और संसार सारा कमजोर ही है। बदले में चपत लगायेगा. 'हं. मैं कहती थी न, तू समझती नहीं थी, मानती नहीं थी, अब आई ठिकाने।' अरे मुए, वह ठिकाने पर ही है, वह बिगड़ी नहीं। तू बिगड़ी है, वह सुधरी है, सुधर रही है। मोक्षमार्ग में क्रियाकांड या ऐसा कुछ नहीं होता है। केवल संसारमार्ग में क्रियाकांड होता है। संसारमार्ग माने, जिसे भौतिक सुख चाहिए, अन्य कुछ चाहिए, उसके लिए क्रियाकांड है। मोक्षमार्ग माने क्या? आलोचना, अब आपने उनसे उलटा कहा तो आपको प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। लेकिन उन्हें भी आपका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। उनको क्या प्रतिक्रमण करना चाहिए कि, 'मैंने कब भूल की होगी कि इनको मुझे गाली देने का प्रसंग उत्पन्न हुआ?' अर्थात् उनको अपनी भूल का प्रतिक्रमण करना होगा। उन्हें अपने पूर्व जनम का प्रतिक्रमण करना होगा और आपको अपने इस जनम का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा! ऐसे प्रतिक्रमण रोजाना पाँच सौ-पाँच सौ करें तो मोक्ष में जाये! यदि इतना ही करो तो दूसरा कोई धर्म नहीं खोजोगे तो भी हर्ज नहीं। इतना पालन करो तो काफ़ी है और मैं तुझे गारन्टी देता हूँ, तेरे सिर पर हाथ रख देता हूँ। जा, मोक्ष के लिए, अंत तक मैं तुझे सहकार दूंगा! तेरी तैयारी चाहिए। एक ही शब्द का पालन करेगा तो बहुत हो गया! ५. अक्रम विज्ञान की रीत हमारा अक्रम क्या कहता है? उसे पूछे कि, 'तू कई दिनों से चोरी करता है?' तब वह कहे कि, 'हाँ'। प्रेम से पूछने पर सब बतायेगा। कितने सालों से करता है?' तो वह कहे, 'दो-एक साल से करता हूँ।' फिर हम कहें, 'चोरी करता है उसमें कोई हर्ज नहीं।' उसके सिर पर हाथ फिरायें। 'किंतु प्रतिक्रमण करना इतना।' प्रतिक्रमण किया, तो सारी चोरी धूल गई। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण अभिप्राय बदल गया। यह जो कर रहा है उसमें खुद का अभिप्राय एक्सेप्ट (स्वीकार) नहीं करता। नोट हीझ ओपीनियन (खद का अभिप्राय नहीं)! दादाजी का नाम लेकर उसका फिर पछतावा करना। चोरी की, यह गलत किया है और अब ऐसा दुबारा नहीं करूँगा, ऐसा उसे सिखलायें! ऐसा उसे सिखलाने के पश्चात् फिर उसके माता-पिता क्या कहते हैं? 'फिर से चोरी की?' फिर से चोरी हो जाये तब भी फिर से पछतावा करना। पछतावा करने से क्या होता है, यह मैं जानता हूँ। छूटने के लिए और कोई चारा ही नहीं। अर्थात् यह अक्रम विज्ञान ऐसा सिखाता है कि यह जो बिगड़ गया है, वह सुधरनेवाला नहीं है, मगर इस तरीके से उसे सुधार। सभी धर्म कहते हैं कि, 'आप कर्म के कर्ता हैं, त्याग के कर्ता हैं। आप ही त्याग करते हैं। आप त्याग नहीं करते।''नहीं करते' कहना वह भी 'करते हैं', कहने के समान है। इस प्रकार कर्तापन का स्वीकार करते हैं। और कहेंगे, 'मुझ से त्याग नहीं होता' यह भी कर्तापन है। और कर्तापन का स्वीकार, वह सब देहाध्यासी मार्ग है। हम कर्तापन का स्वीकार ही नहीं करते। हमारी पुस्तक में किसी जगह 'ऐसा करो' ऐसा नहीं लिखा होगा। अर्थात् करने का रह गया और 'नहीं करने का' करवाते हैं। 'नहीं करने का' होता नहीं फिर। होगा भी नहीं और बिना वजह भीतर वेस्ट ऑफ टाइम एण्ड एनर्जी (समय और शक्ति का दुर्व्यय), क्या करने का है वह अलग चीज़ है। जो करने का है वह तो आपको शक्ति माँगनी है। और पहले जो शक्ति माँगी थी वह अभी हो रहा है। प्रश्नकर्ता : पहले का तो इफेक्ट (परिणाम) में ही आया है। दादाश्री : हाँ। इफेक्ट में आया। अर्थात् कॉझिझ रूप में आपको शक्ति माँगने की है। हमने नौ कलमों में शक्ति माँगने का कहा है, उसमें पूरा शास्त्र आ जाये। उतना ही करने का। दुनिया में करने का कितना? इतना ही। शक्ति माँगना, अगर कुछ कर्ताभाव से करना हो तो। प्रश्नकर्ता : वह शक्ति माँगने की बात है न? दादाश्री : हाँ। क्योंकि सभी मोक्ष में थोड़े जाते हैं?! किंतु कर्ताभाव से करना हो तो इतना कीजिए, शक्ति माँगिए। शक्ति माँगने का कर्ताभाव से कीजिए, ऐसा कहते हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान नहीं लिया हो उसके लिए यह बात है? दादाश्री : हाँ। ज्ञान नहीं लिया हो, यह जगत् के लोगों के लिए है। वरना अभी लोग जिस रास्ते पर चल रहे हैं न, वह बिलकुल उलटा रास्ता है। इसलिए कोई भी मनुष्य अपना श्रेय ज़रा भी नहीं प्राप्त करेगा। 'करना है मगर होता नहीं', कर्म का उदय टेढ़ा हो तो क्या हो सकता है? भगवान ने तो ऐसा कहा था कि उदय अधीन रहकर इसे जानिए। करने का नहीं कहा था। 'इसे जानिए' इतना ही कहा था, उसके बजाय 'यह किया मगर होता नहीं। करते हैं मगर होता नहीं। इच्छा बहुत ही है मगर होता नहीं' कहते हैं। अरे, लेकिन उसे बिना वजह गा-गा क्यों करता है. निकम्मा, 'मुझ से होता नहीं, होता नहीं।' ऐसा चिंतन करने से आत्मा कैसा हो जाये? पत्थर हो जाये। और यह तो क्रिया करने ही चला है और साथ में 'नहीं होता, नहीं होता, नहीं होता' बोलता है। मैं कहता हूँ कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए। 'नहीं होता' ऐसा तो बोल ही नहीं सकते। तू तो अनंत शक्तिवाला है, हमारे समझाने पर तो 'मैं अनंत शक्तिवाला हूँ' बोलता है। वरना अब तक नहीं होता' ऐसा ही बोलता था। क्या अनंत शक्ति कहीं चली गई है?! मनुष्य स्वभाव कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि मनुष्य कर सके ऐसा नहीं है, क्योंकि करनेवाली परसत्ता है। ये जीव केवल जाननेवाला ही हैं। इसलिए आपको यह जानते रहना है और आप यह जानोगे तो गलत पर जो श्रद्धा हुई थी वह नहीं रहेगी। और आपके अभिप्राय में परिवर्तन होगा। क्या परिवर्तन होगा? 'झूठ बोलना अच्छा है', वह अभिप्राय नहीं रहेगा। वह अभिप्राय नहीं रहा, उसके समान इस दुनिया में और कोई पुरूषार्थ नहीं है। यह बात सूक्ष्म है, पर गहराई से विचार ने योग्य है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण २१ प्रश्नकर्ता: नहीं, किंतु बात लॉजिकल (तार्किक ) है सारी । दादाश्री : संडास जाना भी परसत्ता के हाथ में है तो 'करने का ' आपके हाथ में कैसे हो सकता है? ऐसा कोई मनुष्य पैदा नहीं हुआ कि जिसके हाथ में कुछ भी करने की सत्ता हो। आपको जानना है और निश्चय करना है, इतना ही आपको करने का है। यह बात समझ में बैठ गई तो काम निकल जायेगा । अभी समझ में बैठ जाये इतनी आसान नहीं है। आपकी समझ में आता है? कुछ करने के बजाय जानना बेहतर? करना तुरन्त हो सकता है? प्रश्नकर्ता: आप जो कहते हैं वह समझ में आया। बात सही है। मगर यह समझने के बाद भी 'करने का' तो रहता ही है न? जैसे करने की सत्ता नहीं है वैसे जानने की भी सत्ता तो नहीं है न? दादाश्री : नहीं, जानने की सत्ता है, करने की सत्ता नहीं है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। इतनी बात अगर समझ में आ जाये तो बहुत हो गया। एक लड़का चोर हो गया है। वह चोरी करता है। मौका मिलने पर लोगों के पैसे चुरा ले। घर पर गेस्ट आये हो उसे भी नहीं छोड़ता । अब उस लड़के को हम क्या सिखायेंगे? कि तू दादा भगवान के पास इस जनम में, चोरी नहीं करने की शक्ति माँग । अब, इसमें उसका क्या लाभ हुआ? कोई कहेगा, इसमें क्या सिखाया? वह तो शक्ति माँगता रहता है और चोरियाँ भी करता रहता है। 'अरे, भले चोरियाँ ही करता हो, पर यह शक्तियाँ माँग-माँग करता है कि नहीं?' हाँ, शक्तियाँ माँग-माँग करता है। तो हम जानते हैं कि यह दवाई क्या काम कर रही है। आपको कैसे पता चले कि दवाई क्या काम कर रही है ! प्रश्नकर्ता: हक़ीकत वे जानते नहीं हैं कि दवाई क्या काम रही है। इसलिए माँगने से लाभ होता है कि नहीं यह भी नहीं समझते। दादाश्री : अर्थात् इसका भावार्थ क्या है? कि एक तो वह लड़का २२ प्रतिक्रमण माँगता है कि मुझे चोरी न करने की शक्ति दीजिए। अर्थात् एक तो उसने अपना अभिप्राय बदल दिया। 'चोरी करना बुरी बात है और चोरी नहीं करना अच्छा है।' ऐसी शक्तियाँ माँगता है, इसलिए चोरी नहीं करनी चाहिए ऐसे अभिप्राय पर आ गया। सबसे बड़ी बात तो यह अभिप्राय बदल गया ! और जब से अभिप्राय बदल गया तब से वह गुनहगार होने से बच गया। फिर दूसरा क्या हुआ ? भगवान से शक्ति माँगता है, इसलिए उसका परम विनय प्रकट हुआ । हे भगवान! शक्ति दीजिए। इससे वे तुरन्त शक्ति दें। और कोई चारा ही नहीं न! सबको दें, माँगनेवाले चाहिए। इसलिए कहता हूँ कि माँगना न भूलें। आप तो कुछ माँगते ही नहीं। कभी नहीं माँगते । शक्ति माँगे यह बात आपकी समझ में आई? दादा के पास माफ़ी माँगना, साथ ही साथ जिस वस्तु के लिए माफ़ी माँगे, उसके लिए मुझे शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए। ऐसे शक्ति माँग लेना । अपनी खुद की शक्ति खर्च मत करना, वरना अपने पास जो है वह खतम हो जायेगी और माँग कर खर्च करोगे तो खत्म नहीं होगी और बढ़ेगी, आपकी दुकान में कितना माल (शक्ति) होवे ? हर एक बाबत में, 'दादा, मुझे शक्ति दीजिए, ऐसे शक्ति माँग-माँग करके ले ही लेना । प्रतिक्रमण चूक जाये तो प्रतिक्रमण पद्धति अनुसार करने की मुझे शक्ति दीजिए। सारी शक्तियाँ माँग लेना। हमारे पास तो आप माँगते भूलें इतनी शक्ति है। ६. रहें फूल, जायें काँटे..... प्रकृति क्रमण से पैदा हुई है, लेकिन अतिक्रमण से फैल जाती है, उसकी शाखा प्रशाखाएँ सभी ! और प्रतिक्रमण से वह सारा फैलाव कम हो जाता है, इसलिए उसे सभानता आती है। अर्थात् मैं क्या कहना चाहता हूँ कि अभी हम किसी जगह दर्शन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण २३ प्रतिक्रमण माँग लेना और वह दोष सही है ऐसा कभी भी मत बोलना वरना वह डबल हो जायेगा। गलत करने के पश्चात् क्षमा माँग लो। प्रश्नकर्ता : जिसने ज्ञान नहीं लिया हो, उसे अपनी भूलें नज़र आये तो वह कैसे प्रतिक्रमण करें? दादाश्री : ज्ञान नहीं लिया हो, किंतु ऐसे थोड़े जागृत मनुष्य हो कि जो प्रतिक्रमण को समझते हैं, वे यह करेंगे। दूसरे लोगों का यह काम ही नहीं है, लेकिन प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ हम उसे पश्चाताप करने को कहें। प्रतिक्रमण करने से क्या होता है? कि आत्मा अपने 'रिलेटिव' पर अपना दबाव डालती है। क्योंकि, अतिक्रमण अर्थात क्या हआ कि रियल पर दबाव करता है। जो कर्म अतिक्रमण है, अब उसमें इन्टरेस्ट (रस) हो गया तो फिर बढ़ जाता है। इसलिए हम गलत को गलत नहीं समझें, वहाँ तक गुनाह है। इसलिए यह प्रतिक्रमण करवाने की जरूरत है। करने गये, और वहाँ मालूम हुआ कि हमारी धारणा ज्ञानी की थी और ये तो निकले ढोंगी! अब हम वहाँ गये यह तो प्रारब्ध का खेल है, और वहाँ उसके लिए मन में जो बुरे भाव पैदा हुए कि अरेरे, ऐसे नालायक के यहाँ क्यों आया? वह हमारे भीतर नेगेटिव (निषेधात्मक) पुरुषार्थ हुआ। उसका फल हमें भुगतना पड़ेगा। उसे नालायक कहने का फल हमें भुगतना होगा, पाप भुगतना पड़ेगा। और विचार आना स्वाभाविक है, किंतु तुरन्त भीतर क्या करना चाहिए फिर? कि अरेरे, मुझे क्यों ऐसा गुनाह करना चाहिए? ऐसा तुरन्त ही, सुलटा विचार करके, हमें पोंछ देना चाहिए। हाँ, 'महावीर' भगवान को याद करके या किसी को भी याद करके, 'दादाजी' को याद करके, प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए कि, अरेरे ! वह कैसा भी हो, मेरे हाथों उलटा क्यों हुआ? अच्छे को अच्छा कहने में दोष नहीं, किंतु अच्छे को बुरा कहना दोष है, और बुरे को बुरा कहने में भी भारी दोष है। जबरदस्त दोष! क्योंकि वह खुद बरा नहीं है, उसके प्रारब्ध ने उसे बुरा बनाया है। प्रारब्ध माने क्या? उसके संयोगों ने उसे बुरा बनाया, उसमें उसका क्या दोष? यहाँ से स्त्रियाँ सभी जा रही हो, उनमें से कोई हमें दिखायें कि, देखो वह वेश्या, यहाँ आई है, कहाँ से घुस गई? ऐसा वह कहेगा, इसलिए हमने भी उसे वेश्या कहा, तो वह भयंकर गुनाह हमें लगेगा। वह कहती है कि संयोगवश मेरी यह हालत हुई है, उसमें आप यह गुनाह सिर पर लेने जैसा क्यों करते हैं? आप क्यों गुनाह करते हैं? मैं तो अपना फल भुगत रही हूँ किंतु आप गुनाह कर रहे हैं? वह वेश्या अपने आप हुई है? संयोगों ने बनाई है। किसी जीवमात्र को बरा होने की इच्छा ही नहीं होती। संयोग ही करवाते हैं सब, और फिर उसकी प्रेक्टिस (आदत) सी हो जाती है। शुरूआत उसे संयोग करवाते हैं। प्रश्नकर्ता : जिसे ज्ञान नहीं हैं, वे कुछ प्रकार के दोष ही देख सके? दादाश्री : वह बस इतना ही, दोष की माफ़ी माँगना सिखें ऐसा संक्षिप्त में कह देना। जो दोष आपको नज़र आये, उस दोष की माफ़ी प्रश्नकर्ता : हम से अतिक्रमण हो गया, मैं उसका प्रतिक्रमण करूँ, मगर सामनेवाला मुझे माफ़ नहीं करे तो? दादाश्री : सामनेवाले की चिन्ता मत करें। आपको कोई माफ़ करे या न करे, यह देखने की जरूरत नहीं है। आप में से यह अतिक्रमण भाव उड़ जाना चाहिए। आप अतिक्रमण के विरोधी हैं, ऐसा होना चाहिए। प्रश्नकर्ता : और सामनेवाले को दु:खता रहता हो तो? दादाश्री : सामनेवाले का कुछ देखने का नहीं। आप अतिक्रमण के विरोधी हैं ऐसा तय होना चाहिए। अतिक्रमण करने की आपकी इच्छा नहीं है। अभी जो हुआ उसके लिए पछतावा होता है और अब आपको फिर से ऐसा करने की इच्छा नहीं है। प्रतिक्रमण तो हमें उस अभिप्राय को निकालने के लिए करना है। अब हम उस मत में नहीं रहें, हम इस मत से विरूद्ध हैं ऐसा दिखाने के लिए प्रतिक्रमण करना है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : हमारे पापकर्मों को अभी किस प्रकार धोए? दादाश्री : पापकर्म के जितने दाग़ लगे हो उतने प्रतिक्रमण करना, वह दाग गहरा हो तो फिर बार-बार धोते रहना। प्रश्नकर्ता : वह दाग़ निकल गया या नहीं निकला यह कैसे मालूम हो? अतिक्रमण करें उतना ही प्रतिक्रमण करना हैं। यदि प्रतिक्रमण न करें तो हमारा स्वभाव नहीं बदलेगा, वैसा का वैसा ही रहेगा! तेरी समझ में आया कि नहीं आया समझ में? वरना विरोधी के रूप में यदि जाहिर नहीं हुए तो फिर वह मत आपके पास रहेगा। क्रोध करने पर हम क्रोध के पक्ष में नहीं हैं, इसलिए प्रतिक्रमण करना है। वरना क्रोध के पक्ष में हैं ऐसा तय हो गया हैं और प्रतिक्रमण करें तो हम क्रोध के पक्ष में नहीं हैं ऐसा जाहिर हुआ कहलाये। अर्थात् उसमें से हम अलग हो गये। मुक्त हो गये हम, जिम्मेदारी कम हो गई। हम उसके विरोधी हैं। ऐसा जाहिर करने के लिए कुछ साधन होना चाहिए न? क्रोध हम में रखना है कि निकालना है? प्रश्नकर्ता : वह तो निकालना है। दादाश्री : यदि निकालना है तो प्रतिक्रमण करें। तो फिर हम क्रोध के विरोधी हैं। वरना क्रोध से सहमत है, यदि प्रतिक्रमण नहीं करते हैं तो। प्रतिक्रमण कब कहलाये कि भीतर हलका हो जाये. हलकापन महसूस हो, फिर से वह दोष करते समय उसे भीतर बहुत कष्टदायी लगे। जबकि यह तो अतिक्रमण करके दोष का गुणन करता है। आपने कोई सच्चा प्रतिक्रमण देखा, एक भी दोष कम हो ऐसा? प्रश्नकर्ता : नहीं, वह यहीं देखने में आया। दादाश्री : ज्ञान लेने के पश्चात् हमें भीतर मालूम होगा कि यह दोष हुआ है, तभी प्रतिक्रमण होगा। वहाँ तक प्रतिक्रमण नहीं होगा! ज्ञान लेने के पश्चात् उसकी जागृति रहेगी कि, जैसे अतिक्रमण हो कि तुरन्त आपको मालूम होगा कि यह भूल हुई, इसलिए तुरन्त ही प्रतिक्रमण करें। अत: उसके नाम का सब पद्धति अनुसार प्रतिक्रमण होता ही रहेगा। और प्रतिक्रमण हुआ कि धुल गया। धुल जाने से फिर सामनेवाले को दंश (वैरभाव) नहीं रहेता। वरना फिर जब हम दुबारा मिले तो सामनेवाले के साथ भेद पड़ता जाये। दादाश्री: वह तो भीतर मन स्वच्छ हो जाये, तो मालम हो जाये। चेहरे पर मस्ती छा जाये। आपको मालूम नहीं हो कि दाग़ निकल गया? क्यों मालूम नहीं होगा? हर्ज क्या है? और नहीं धुलाई हुई तो भी हमें हर्ज नहीं है। तू प्रतिक्रमण कर। तू साबुन लगाते ही रहना ! पाप को तू पहचानता है? पाप की तुझे पहचान है क्या? प्रश्नकर्ता : दादा की आज्ञा का पालन नहीं हो माने पाप? दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। उसे पाप नहीं कहते। सामनेवाले को दु:ख हो वह पाप; किसी जीव को, फिर चाहे वह मनुष्य हो, जानवर हो, या पेड़ हो। पेड़ को भी, बिना वजह पत्ते तोड़-तोड़ करें तो उसे भी दुःख होगा, अत: वह पाप कहलाये। और आज्ञा पालन नहीं हो तो वह आपको ही नुकसान होगा। पापकर्म तो किसी को दु:ख हो वह कहलाये अर्थात् किसी को जरा-सा भी, किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो ऐसा होना चाहिए। हम प्रतिक्रमण करें तो बहुत अच्छा। हमारे कपड़े स्वच्छ होंगे (दोष धुलेगें) न? हमारे कपड़ों में क्यों मैल रहने दें? दादाजी ने ऐसा रास्ता दिखाया है तो क्यों स्वच्छ नहीं कर डालें?! किसी को हम से किंचित्मात्र दु:ख हो तो समझना कि हमारी भूल है। हमारे भीतर परिणाम ऊपर-तले हो अतः भूल हमारी है ऐसा समझ में आये। सामनेवाला व्यक्ति भुगत रहा है इसलिए उसकी भूल तो प्रत्यक्ष है लेकिन निमित्त हम हुए, हमने उसे झिड़काया इसलिए हमारी भी भूल। दादा को क्यों भुगतना नहीं पड़ता? क्योंकि उनकी एक भी भूल रही नहीं Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण २८ प्रतिक्रमण है। हमारी भूल से सामनेवाले को कुछ भी असर हो, यदि कुछ उधारी हो जाये तो तुरन्त ही मन से माफ़ी माँगकर जमा कर लेना। हमारी भूल हो तो उधारी होगी लेकिन तुरन्त ही कैश-नगद प्रतिक्रमण कर लेना। और यदि किसी के प्रति हम से भूल हो तो भी आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करके मन, वचन, काया से प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में क्षमा माँग-माँग करते रहना। प्रश्नकर्ता : क्रमिक के प्रतिक्रमण करते थे तब दिमाग़ में कुछ बैठता नहीं था और अब यह करते हैं तो हलके फूल जैसे हो जाते हैं। दादाश्री : पर वह (सच्चा) प्रतिक्रमण ही नहीं है न! वे सभी तो आपने नासमझी में खड़े किये हुए प्रतिक्रमण! प्रतिक्रमण माने तुरन्त दोष कम होना चाहिए। उसका नाम प्रतिक्रमण कहलाये। हम उलटी दिशा में गये थे, वहाँ से वापस लौटे उसका नाम प्रतिक्रमण कहलाये। यह तो वापस मडे नहीं और वहीं के वहीं है! वहाँ से आगे बठे उलटी दिशा में!!! अत: उसे प्रतिक्रमण कैसे कहा जाये? जब जब गुत्थी उलझने लगे, तब तब 'दादाजी' अवश्य याद आ ही जायें और गुत्थियाँ नहीं उलझे। हम तो क्या कहते हैं कि गुत्थियाँ मत उलझाना, और कभी गुत्थी उलझ जाये तो प्रतिक्रमण करना। यह तो 'गुत्थी' शब्द तुरन्त ही समझ में आये। ये लोग 'सत्य, दया, चोरी मत करो' सुनसुन कर थक गये हैं। गुत्थी रख कर सो नहीं जाना चाहिए। गुत्थी भीतर उलझी पड़ी हो तो उस गुत्थी को बिना सुलझाये सो नहीं जाना चाहिए। गुत्थी का हल निकालना चाहिए। आखिर कोई हल नहीं निकले तो भगवान के पास क्षमा माँग-माँग करना कि इसके साथ गुत्थी उलझ गई है उसकी बार-बार क्षमा माँगता हूँ, उससे ही निकाल (निपटारा) आ जाये। क्षमा ही सबसे बड़ा शस्त्र है। बाकी दोष तो निरंतर होते ही रहते हैं। सामनेवाले को डाँटते हो उस समय आपको ऐसा ख़याल क्यों नहीं आता की आपको डाँट पडे तो कैसा लगेगा? यह ख़याल में रखकर डाँटिए। सामनेवाले का ख़याल रखकर प्रत्येक कार्य करना उसका नाम मानव अहंकार और हमारा ख़याल रखकर प्रत्येक के साथ वर्तन करना और परेशान करना, तो उसका नाम क्या कहलाये? प्रश्नकर्ता : पाशवी अहंकार। दादाश्री : ऐसा कोई कहे कि, 'तेरी भूल है' तो हमें भी कहना चाहिए, 'चन्दुभाई, आपकी भूल हुई होगी तभी वे कहते होंगे न? वरना वैसे यु ही कहता है कोई?' क्योंकि यूँ ही कोई कहेगा नहीं, कुछ भी भूल होनी चाहिए। अतः हमें खुद से कहने में हर्ज क्या? भैया, आपकी कुछ भूल होगी इसलिए कहते होंगे। अतः क्षमा माँग लो, और 'चन्दुभाई' किसी को दु:ख देते हों तो हम कहें कि प्रतिक्रमण कर लिजिए। क्योंकि हमें मोक्ष में जाना हैं। अब हमारी मनमानी नहीं चलेगी। दूसरे का दोष देखने का अधिकार ही नहीं है। इसलिए उस दोष का प्रतिक्रमण करना। परदोष देखने की तो पहले से उसे हेबीट (आदत) ही थी, उसमें नया क्या है? वह हेबीट एकदम से नहीं छूटेगी। वह तो इस प्रतिक्रमण से छूटेगी। जहाँ दोष नज़र आया, वहाँ प्रतिक्रमण कीजिए, शूट ऑन साइट! प्रश्नकर्ता : अभी प्रतिक्रमण जितने होने चाहिए उतने होते नहीं है। दादाश्री : वह तो जो करना हो न, उसका निश्चय करना पड़ता है। प्रश्नकर्ता : निश्चय करना अर्थात् उसमें करने का अहंकार आया न फिर यह क्या चीज़ है वह जरा समझाइए। दादाश्री : कहने हेतु है, कहने खातिर है मात्र। प्रश्नकर्ता : महात्माओं में से कई लोग ऐसा समझते हैं कि हमें कुछ भी करने का है ही नहीं, निश्चय भी नहीं करने का है। दादाश्री : नहीं, मुझ से पूछेगे तो मैं उन्हें कहूँगा कि, वह निश्चय माने क्या कि डिसाइडेड रूप से करना। डिसाइडेड माने क्या? यह नहीं और 'यह' ही बस। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ३० प्रतिक्रमण दादाश्री : तो उसका प्रतिक्रमण कर लेना कि यह जागृति नहीं रही, उसके लिए प्रतिक्रमण करता हूँ। हे दादा भगवान, मुझे क्षमा करना। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने का बहुत देर के बाद याद आये कि, इस मनुष्य का प्रतिक्रमण करना था। दादाश्री: लेकिन याद तो आता है न? सत्संग में अधिक बैठने की जरूरत है। सब कुछ पूछ लेना चाहिए, बारीकी से। यह तो विज्ञान है। सब कुछ पूछ लेने की आवश्यकता है। प्रश्नकर्ता : भीतर उत्पात होता हो, तब 'शूट ऑन साइट' उसका निकाल करना नहीं आये, लेकिन शाम को दस-बारह घंटे पश्चात् ऐसा विचार आये कि, यह सब गलत हुआ तो उसका निकाल हो जाता है क्या? देर से ऐसा हो तो? दादाश्री : हाँ, देर से हो तो भी उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। गलत हुआ फिर प्रतिक्रमण करना कि, हे दादा भगवान ! यह मेरी भूल हुई। अब फिर से नहीं करूँगा। तुरन्त नहीं होता तो दो घंटे बाद करें। अरे, रात को करें, रात को याद करके करें। रात को याद करके नहीं हो सकता कि आज किस से टकराव में आये? अरे, सप्ताह के अंत में करें। सप्ताह के बाद सभी साथ में कीजिए। सप्ताह में जितने अतिक्रमण हुए हो, उन सभी का इकट्ठा हिसाब कीजिए। प्रश्नकर्ता : किंतु वह तुरन्त होना चाहिए न? दादाश्री : तुरन्त हो जाये उसके समान तो कोई बात ही नहीं। हमारे यहाँ तो बहुतेरे सभी 'शूट ऑन साइट' ही करते हैं। देखे वहाँ गोली मारिए । देखा वहाँ गोली मारी। प्रश्नकर्ता : मैं जब दादा का नाम लूँ या आरती करूँ तो भी मन कहीं और भटकता है। फिर आरती में कुछ और ही गाता हूँ। फिर पंक्तियाँ अलग ही गाने लगूं। फिर तन्मयाकार हो जाऊँ। विचार आये उसमें तन्मयाकार हो जाता हूँ। फिर थोड़ी देर के बाद उसी में वापस आ जाता दोष दिखना आसान वस्तु नहीं है! फिर हम तो एकदम खुला कर देते हैं, किंतु उसे दृष्टि हो कि मुझे देखने हैं तो नज़र आया करें। अर्थात् खुद को भोजन करते समय थाली से हाथ तो ऊपर उठाना होगा न? ऐसे ही खाना मेरे मुँह में जाये! सिर्फ ऐसी इच्छा करने से मुँह में थोड़ा जायेगा? प्रयत्न तो करना ही चाहिए न! मनुष्य से दोष होना स्वाभाविक है। उससे विमक्त होने का रास्ता क्या? अकेले 'ज्ञानी पुरुष' ही वह रास्ता दिखायें, 'प्रतिक्रमण'। भीतर प्रतिक्रमण अपने आप होता रहे। लोग कहते हैं, 'क्या अपने आप प्रतिक्रमण हो जाता है?' मैंने कहा, हाँ. तब ऐसा कैसा मशीन मैंने लगाया है? जिससे सारा प्रतिक्रमण शुरू हो जाता है। तेरी वृत्ति चौकस हो तब तक सब तैयार हो। दादाश्री : वह हकीकत है दादाजी, प्रतिक्रमण साहजिक हुआ करता है और दूसरा यह विज्ञान ऐसा है कि जरा-सा भी द्वेष नहीं होता। प्रश्नकर्ता : यह भाई कहता है कि मुझ जैसे से प्रतिक्रमण नहीं होता वह क्या कहलाये? दादाश्री : वे तो भीतर होतें हो मगर ख़याल नहीं आता। अत: एक बार ऐसा बोलने पर कि 'मुझ से नहीं होते', वह बंद हो जाये। जैसा भजन वैसी भक्ति, वह तो भीतर होती रहे। कुछ समय के बाद होगी। दादाश्री : ऐसा है न, उस दिन प्रतिक्रमण करना। विचार आये तो उसमें कोई हर्ज नहीं। विचार आने पर हम 'चन्दुलाल' को अलग देख सकते हैं, कि चन्दुलाल को विचार आते हैं, ये सब देख सकते हैं तो 'हम' और वे दोनों अलग ही हैं। पर उस समय जरा कच्चे पड़ जाते है। प्रश्नकर्ता : उस समय जागृति ही नहीं रहती। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : हमसे किसी को दु:ख हो यह बात हमें पसंद नहीं आती। बस इतना ही रहता है। फिर आगे नहीं बढ़ता है। प्रतिक्रमण जैसा नहीं होता। दादाश्री : वह तो हम भीतर जैसा बोलें ऐसा मशीन लगा रखा है, वह चलता है! जैसी भजना वैसा हो जाये। आप कहेंगे कि. 'मझे ऐसा नहीं होता है' तो वैसा होगा। और कहेंगे, 'इतने सारे प्रतिक्रमण होते हैं कि मैं थक जाता हैं।' तो भीतर वह थक जायेगा। अतः प्रतिक्रमण करनेवाला करता है। तू अपने आप चलाता रहे आगे, पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण हो रहे होते हैं। तू चलाता रहे न कि 'मुझ से प्रतिक्रमण होते हैं।' हो सके तब तक 'शूट ऑन साइट' रखना यानी दोष होते ही प्रतिक्रमण करना। और न हो सके तो शाम को साथ में करना। किंतु ऐसा करने से दो-चार रह जायेंगे। उन्हें कहाँ रखेंगे?! और कौन रखेगा उन्हें? वह तो 'शूट ऑन साइट' का अपना धंधा है! है। जिस लाइफ में मैं जो व्यवस्थित देता हूँ उस व्यवस्थित में बदलाव हो सके ऐसा नहीं है। अतः ही मैं आपको खुला छोड़ देता हूँ। अर्थात् मैं देखकर कहता हूँ. और इसलिए मुझे डाँटना भी नहीं पडता, कि घरवाली के साथ क्यों घूमते थे? और क्यों ऐसा-वैसा?! अत: मझे कभी डाँटना नहीं पड़ता। दूसरी लाइफ के लिए नहीं, पर यह एक लाइफ के लिए। यु आर नोट रिस्पोन्सिबल एट ऑल! (आप बिलकुल ही जिम्मेदार नहीं) इतना सब कुछ कहा है फिर। प्रश्नकर्ता : ब्याज खा सकते हैं कि नहीं खा सकते? दादाश्री : ब्याज चन्दुलाल को खाना हो तो खायें, पर उसे कहना कि बाद में प्रतिक्रमण करना। इस प्रतिक्रमण से सामनेवाले पर असर पडे और वह पैसे लौटा दे। सामनेवाले को ऐसी सद्बुद्धि उत्पन्न होगी। प्रतिक्रमण से यों सुलटा असर होता है। तब हमारे लोग घर जाकर उधारीवाले को गालियाँ देते हैं तो उसका उलटा असर होगा कि नहीं होगा? उलटा लोग अधिक से अधिक उलझाते हैं। सारा असरग्रस्त संसार है। प्रश्नकर्ता : हम किसी लेनदार का प्रतिक्रमण करें तब भी वह माँगता तो रहेगा न? दादाश्री : माँगने-न माँगने का सवाल नहीं है, राग-द्वेष नहीं होने चाहिए। लेना तो रहेगा भी सही! जब से दोष दिखाई पड़ा तब से ही समझ लेना कि अब मोक्ष में जाने का टिकट मिल गया। खुद का दोष किसी को नज़र नहीं आता। बड़ेबड़े साधु-आचार्यों को भी अपना दोष नज़र नहीं आता। मूलत: बड़ी से बड़ी कमी यह है। और यह हमारा विज्ञान ही ऐसा है कि, वह आपको निष्पक्षपात रीति से जजमेन्ट(निर्णय) देता है। हमें अपने सारे दोष दिखा दें। भले ही दोष होने के बाद दिखाई दें, किंतु दोष खुला कर देता है न! अभी जो हुआ सो हुआ! वह बात अलग है, गाड़ी की स्पीड (गति) तेज़ हो तो कट जायेगा लेकिन तब मालूम तो हुआ न! ७. हो शुद्ध व्यापार प्रश्नकर्ता : आप ऐसे चन्दुभाई को खुला छोड़ दें तो वह तो कुछ भी करें? दादाश्री : नहीं, वह इसीलिए ही मैंने व्यवस्थित कहा था कि एक बाल जितना भी बदलाव करने का अधिकार एक जिन्दगी के लिए नहीं एक आदमी कहता है, 'मुझे धर्म नहीं चाहिए। मैं भौतिक सुख चाहता हूँ।' उसे मैं कहूँगा, 'प्रामाणिक रहना, नीति का पालन करना।' मंदिर जाने को नहीं कहूँगा। दूसरे को तू देता है वह देवधर्म है। किंतु दूसरे का, अनाधिकार लेता नहीं है वह मानवधर्म है। अर्थात् प्रामाणिकता वह सबसे बड़ा धर्म है। 'डिसऑनेस्टी इझ धी बेस्ट फलीशनेस' (अप्रामाणिकता सर्वोत्तम मूर्खता है)!!! ऑनस्ट (प्रामाणिक) हो नहीं सकता, तो क्या मैं जाकर दरिया में छलाँग लगाऊँ? मेरे 'दादाजी' सिखाते हैं कि तू डिसऑनेस्ट Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ३३ प्रतिक्रमण हे उसका प्रतिक्रमण करना। अगला जनम तेरा उजागर हो जायेगा। डिसऑनेस्टी को, डिसऑनेस्टी जान ले और उसका पश्चाताप कर। पश्चाताप करनेवाला मनुष्य ऑनेस्ट है यह निश्चित है। अभी साझेदार के साथ मतभेद हो जाये, तो आपको तुरन्त मालूम हो जायेगा कि, यह जरूरत से ज्यादा बोलना हुआ, इसलिए तुरन्त उसके नाम का प्रतिक्रमण करना। हमारा प्रतिक्रमण कैश (नगद) पेमेन्ट होना चाहिए। यह बैन्क भी कैश कहलाता है और पेमेन्ट भी कैश कहलाता है। ऑफिस में परमीट (परवाना) लेने गये, मगर साहब ने नहीं दिया तब मन में होगा कि, 'साहब नालायक है, ऐसा है, वैसा है।' अब इसका फल क्या आयेगा यह मालूम नहीं है। इसलिए यह भाव बदल देना, प्रतिक्रमण कर डालना। इसे हम जागृति कहते हैं। इस संसार में अंतराय कैसे आता है यह आपको समझाता हूँ। आप जिस ऑफिस में नौकरी करते हैं, वहाँ आपके आसिस्टन्ट (सहायक) को कमअक्ल कहें, वह आपकी अक्ल पर अंतराय आया! बोलिए, अब इस अंतराय में सारा संसार फँस-फँसकर इस मनुष्य अवतार को व्यर्थ गँवाता है! आपको कोई राइट (अधिकार) ही नहीं है, सामनेवाले को कमअक्ल कहने का। आप ऐसा बोलेंगे अत: सामनेवाला भी उलटा बोलेगा, इसलिए उसको भी अंतराय आयेगा! बोलिए अब, इस अंतराय में से संसार कैसे छूट सकता है? किसी को आप नालायक कहेंगे तो आपकी लियाक़त पर अंतराय होता है ! आप इसके तुरन्त ही प्रतिक्रमण करें तो वह अंतराय आने से पहले धुल जाता है। प्रश्नकर्ता : नौकरी के फर्ज अदा करते समय मैंने बहुत कड़ाई से लोगों के अपमान किये थे, दुतकार दिया था। दादाश्री : उन सभी का प्रतिक्रमण करना होगा। उसमें आपका इरादा बुरा नहीं था, अपने खुद के लिए नहीं, सरकार के प्रति वह सिन्सियारीटी (वफ़ादारी) कहलाये। ८. 'ऐसे' टूटेगी शृंखला ऋणानुबंध की प्रश्नकर्ता : पूर्वजन्म के ऋणानुबंध से छूटने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : हमारा जिनके साथ पूर्व का ऋणानुबंध हो और वह हमें पसंद ही नहीं हो, उसके साथ सहवास अच्छा ही नहीं लगता हो और फिर भी सहवास में रहना पड़ता हो, अनिवार्य रूप से, तो क्या करना चाहिए? कि बाहर का व्यवहार उसके साथ जरूर से रखना चाहिए, पर भीतर उसके नाम के प्रतिक्रमण करने चाहिए। क्योंकि हमने पिछले जनम में अतिक्रमण किया था उसका यह परिणाम है। कोझिझ क्या किये थे? तब कहे, उसके साथ पूर्वभव में अतिक्रमण किया था। उस अतिक्रमण का इस अवतार में फल आया, इसलिए उसका प्रतिक्रमण करेंगे तो प्लस-माइनस (जोड़घटाव) हो जायेगा। अत: भीतर में आप उसकी क्षमा माँग लें। क्षमा माँगते रहो बार-बार कि मैंने जो-जो दोष किये हो उसकी माफ़ी चाहता है। किसी भी भगवान को साक्षी करके, तो सब खतम हो जायेगा। सहवास पसंद नहीं आने से बाद में क्या होता है? उसके प्रति दोषित दृष्टि से देखने से, किसी पुरूष को स्त्री पसंद नहीं होती तो बहुत दोषित नज़र आया करे, अत: तिरस्कार होगा। इस से डर लगेगा। जिसका हमें तिरस्कार होगा उसका हमें डर लगेगा। उसे देखते ही घबराहट होने लगे। अत: समझना कि यह तिरस्कार है। इसलिए तिरस्कार छोड़ने के लिए बारबार माफ़ी माँगते रहो, दो ही दिन में वह तिरस्कार बंद हो जायेगा। उसे मालूम नहीं हो किंतु आप भीतर बार-बार माफ़ी माँगा करें. उसके नाम की जिस के प्रति जो जो दोष किये हो, हे भगवान! मैं क्षमा चाहता हूँ। यह दोषों का परिणाम है, आपने किसी भी मनुष्य के प्रति जो जो दोष किये हो, तो भीतर आप माफ़ी माँग-माँग करें, भगवान के पास, तो सब धुल जायेगा। यह तो नाटक है। नाटक में बीबी-बच्चों को कायम के लिए खुद के बना लें तो क्या मुनासिब होगा? हाँ, नाटक में बोलें ऐसे बोलने में हर्ज Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण नहीं कि 'यह मेरा बड़ा बेटा, शतायु ।' लेकिन सभी ऊपर-ऊपर से, नाटकीय । यह सभी को सच्चे मान लिए उसी के ही प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। यदि सच नहीं समझे होते तो प्रतिक्रमण नहीं करने पड़ते। जहाँ सत्य मानने में आया, वहाँ राग और द्वेष शुरू हो जाते हैं और प्रतिक्रमण से ही मोक्ष है। यह 'दादाजी' दिखाते हैं वह आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान से मोक्ष है। ३५ किसी के हाथ में परेशान करने की भी सत्ता नहीं है और किसी के हाथ में सहन करने की भी सत्ता नहीं है। ये तो सभी पूतलें ही हैं। वे सभी काम किया करते हैं। हमारे प्रतिक्रमण करने पर पूतले अपनेआप सीधे हो जायेंगे। बाकी, कैसा भी पगला मनुष्य हो परंतु वह हमारे प्रतिक्रमण से सयाना हो सकता है। एक मनुष्य के साथ आपको बिलकुल अनुकूल नहीं आता, उसका यदि आप सारा दिन प्रतिक्रमण करें, दो-चार दिन करते रहें तो पाँचवे दिन तो वह आपको खोजता खोजता यहाँ आयेगा । आप के अतिक्रमण दोष की वजह से ही यह सब रूका हुआ है। प्रश्नकर्ता: इसमें कभी-कभी हमें दुःख होता है कि, मैं इतना कुछ करता हूँ फिर भी यह मेरा अपमान करता है? दादाश्री : हमें उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह तो व्यवहार है। इसमें हर तरह के लोग हैं। वे मोक्ष में नहीं जाने दें। प्रश्नकर्ता: वह प्रतिक्रमण हम किस लिए करें? दादाश्री : प्रतिक्रमण इसलिए करें कि इसमें मेरे कर्म का उदय था और आपको (सामनेवाले को) ऐसा कर्म बाँधना पड़ा। उसका प्रतिक्रमण करता हूँ और फिर से ऐसा नहीं करूँगा कि जिससे अन्य किसी को मेरे निमित्त से कर्म बाँधना पड़े ! जगत् किसी को मोक्ष में जाने दे ऐसा नहीं है। हर तरफ से अँकुड़े प्रतिक्रमण से यूँ खींच ही लायेगा। इसलिए हम प्रतिक्रमण करें तो अँकुड़ा छुट जायेगा, इसलिए महावीर भगवान ने आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ये तीन चीज़े एक ही शब्द में दी है। दूसरा कोई रास्ता ही नहीं। अब खुद प्रतिक्रमण कब कर सकता है? खुद की जागृति हो तब, ज्ञानी पुरूष के पास ज्ञान प्राप्त हो तब यह जागृति उत्पन्न होगी । हम प्रतिक्रमण कर लें, फिर हम जिम्मेदारी से मुक्त हुए। प्रश्नकर्ता: किसी मनुष्य के ऊपर से हमारा विश्वास उठ गया हो, उसने हमारे साथ विश्वासघात किया हो और हमारा विश्वास उठ गया हो । उस विश्वास को पुनः स्थापित करने के लिए क्या करना चाहिए? ३६ दादाश्री : उसके लिए जो बुरे विचार किये हो न, उनका पश्चाताप करना चाहिए। विश्वास उठ जाने के पश्चात् हमने जो जो बुरा विचार किये हो, उनका पश्चाताप करना होगा, फिर ढंग से चल निकलेगा। इसलिए प्रतिक्रमण करने होंगे। ९. निर्लेपता, अभाव से फाँसी तक प्रश्नकर्ता: सामनेवाले मनुष्य को दुःख हुआ यह कैसे मालूम होगा ? दादाश्री : वह तो उसका चेहरा देखने से मालूम हो जाये। चेहरे पर से हास्य चला जाये। उसका चेहरा उतर जाये। अत: तुरन्त मालूम होगा न कि सामनेवाले को असर हुआ है, ऐसा मालूम नहीं पड़ेगा? प्रश्नकर्ता: पड़ेगा। दादाश्री मनुष्य में इतनी शक्ति तो होती ही है कि सामनेवाले को क्या हुआ वह मालूम पड़े ! प्रश्नकर्ता: परंतु कई ऐसे सयाने होते हैं कि चेहरे पर एक्सप्रेशन ( हाव-भाव ) नहीं आने देते। दादाश्री : फिर भी हमें तो मालूम होता हैं कि ये शब्द भारी निकले Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ३७ प्रतिक्रमण हैं हमारे, इसलिए उसे लगेंगे जरूर। अत: इस समझदारी से प्रतिक्रमण कर डालना। भारी शब्द निकला हो तो हमें मालूम नहीं होगा कि उसे लगा होगा?! प्रश्नकर्ता : मालूम होगा। दादाश्री : यह भी उसके लिए करना नहीं है। पर हमारा अभिप्राय उसमें नहीं है। हमारे अभिप्राय से दूर होने के लिए है। प्रतिक्रमण माने क्या? वह पहले के अभिप्राय से दूर होने के लिए है और प्रतिक्रमण से क्या होता है कि, सामनेवाले को जो असर होता हो वह नहीं होगा, बिलकुल ही नही होगा। मन में तय करें कि, मुझे समता भाव से निपटारा करना है। तो उस पर असर होगा और उसका मन ऐसे सुधरेगा, और आप मन में तय करें कि इसका ऐसा कर डालूँ और वैसा कर डालूँ तो उसके मन में भी वैसा ही रीएक्शन (प्रतिक्रिया) होगा। प्रश्नकर्ता : किसी भी मनुष्य को दुतकार कर फिर पछतावा हो तो वह क्या कहलाये? दादाश्री : पछतावा होने पर फिर दतकारने की आदत छट जायेगी. थोड़ा समय दुतकारकर पछतावा नहीं करे। और मैंने कैसा अच्छा किया ऐसा माने तो वह नर्क में जाने की निशानी है। बुरा करने के पश्चात् पछतावा तो करना ही चाहिए। प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का दिल तोड़ा हो तो उससे छूटने के लिए क्या करें? दादाश्री : प्रतिक्रमण करें, और वह सामने आ जाये तो कहना कि भैया, मैं कमअक्ल हूँ, मुझ से भूल हो गई। ऐसा कहने से उसके घाव भर जायेंगे। प्रश्नकर्ता : क्या उपाय करना कि जिससे दुतकार के परिणाम भुगतने की बारी नहीं आये? दादाश्री : दुतकार के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है, एक प्रतिक्रमण किया करें बार-बार। जब तक सामनेवाले के मन का परिवर्तन नहीं हो तब तक करें। और रूबरू मिल जाये तो फिर मधुर भाषा में क्षमा माँगना कि, 'भैया, मुझ से तो भारी भूल हो गई, मैं तो मूर्ख हूँ, कमअक्ल हैं।' इससे सामनेवाले के घाव भरते जायेंगे। हम खुद की निंदा करें तो सामनेवाले को भला लगे, तब उसके घाव भरेंगे। हमें पिछले जनम की दुतकार का परिणाम नज़र आता है। इसलिए तो मैं कहता हूँ कि, किसी को दुतकारना नहीं। मजदूर को भी दुतकारना नहीं। अरे. आखिर साँप हो कर भी बदला लेगा। दुतकार से छुटकारा नहीं है। एक प्रतिक्रमण ही बचायेगा। प्रश्नकर्ता : किसी को हम दुःख पहुँचायें और फिर प्रतिक्रमण कर लें मगर उसे जबरदस्त आघात, ठेस पहुँची हो तो उससे हमें कर्मबंधन होगा न? दादाश्री: हम उसके नाम के प्रतिक्रमण करते रहें और उसे जितनी मात्रा में दुःख हुआ हो उसी मात्रा में प्रतिक्रमण करने होंगे। एक जज ने मुझ से कहा कि, 'साहब, आपने मुझे ज्ञान तो दिया, और अब मुझे वहाँ कोर्ट में देहान्तदंड की शिक्षा करनी या नहीं?' तब मैंने उसे कहा, 'देहान्तदंड की शिक्षा नहीं करोगे, तो उसका क्या करोगे?' वह कहे, 'पर मझे दोष लगेगा।' मैंने पूछा, "आपको मैंने 'चन्दुलाल' बनाया है कि 'शुद्धात्मा' बनाया है?" तब उसने कहा, 'शुद्धात्मा बनाया है।' तो चन्दलाल करते हो तो उसके आप जिम्मेदार नहीं है। और जिम्मेदार होना हो तो आप चन्दुलाल हैं। आप स्वेच्छापूर्वक साझेदार होते हैं तो हमें हर्ज नहीं है पर साझेदार मत होना। फिर मैंने उसे रीत बताई कि आप यह कहना कि, 'हे भगवान, मेरे हिस्से में यह काम क्यों आया' और उसका प्रतिक्रमण करना, दूसरे गवर्नमेन्ट (सरकार) के कानून अनुसार कार्य करते रहना। समझ में आया? प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने से छुटा जाये ऐसा खयाल यदि हम रखें तो सब लोगों को स्वच्छंदता का लायसन्स मिल जायेगा। दादाश्री : नहीं, ऐसी समझ मत रखना, बात ऐसी ही है। हमें Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण करना है। प्रतिक्रमण किया कि हम मुक्त। आपकी जिम्मेदारी से आप मुक्त। फिर वह चिंता करके, सिर फोड़कर, मर भी जाये, उसका आपको कुछ लेना-देना नहीं है। हम से भी किसी न किसी मनुष्य को दु:ख हो जाता है, हमारी इच्छा नहीं होती, फिर भी अब हम से ऐसा होता ही नहीं है, परंतु किसी एकाध मनुष्य के साथ हो जाता है। अब तक, पंद्रह-बीस साल में दोतीन मनुष्यों के साथ हुआ होगा। वह भी निमित्त होगा इसलिए न? हम पीछे फिर उसका प्रतिक्रमण करके उस पर फिर बाड़ लगा दें ताकि वह गिर नहीं जाये। जितना हमने उसको ऊपर चढ़ाया है वहाँ से नीचे नहीं आ जाये, उसके रक्षण के लिए सब आधार रख दें। हम सैद्धांतिक ठहरे, कि भैया, यह पेड़ लगाया, उसे लगाने के बाद रोड की लाइनदोरी में आता हो तो रोड को हटायेंगे मगर पेड़ को कुछ नहीं होने देंगे। ऐसा हमारा सिद्धांत होगा। ऐसे किसी को गिरने नहीं देते। प्रश्नकर्ता : कोई मनुष्य भूल करे, फिर हम से क्षमा चाहे, हम क्षमा कर दें, नहीं माँगने पर भी मन से क्षमा कर दें, किंतु घड़ी-घड़ी वह भूल करता रहे तो हम क्या करें? दादाश्री : प्रेम से समझायें, समझा सकें उतना समझायें, दूसरा कोई उपाय नहीं है और हमारे हस्तक कोई सत्ता नहीं है। हमारे क्षमा करने पर ही छुटकारा है इस संसार में। अगर नहीं माफ़ करोगे तो मार खाकर माफ़ करना पड़ेगा आपको। दूसरा उपाय ही नहीं है। हम समझायें, वह बारबार भूल नहीं करे, ऐसा भाव परिवर्तन हो तो बहुत हो गया। उसका भाव परिवर्तन हो जाये कि अब भूल नहीं करनी है। फिर भी हो जाये यह अलग बात है। लडके को सब्जी लेने भेजें और वह उसमें से पैसे सरका ले तो फिर जानने से क्या फायदा है? वह तो जैसा है वैसा ही निबाह लेना, उसे थोड़ा फेंक देंगे? क्या दूसरा लेने जायेंगे? दूसरा मिलेगा ही नहीं। कोई बेचता थोड़े है? १०. टकराव के प्रतिपक्ष में प्रश्नकर्ता : कभी कभार ज्यादा, बढ़-चढ़कर तकरार हो गई हो तो, लंबा बंधन होगा। उसके लिए प्रतिक्रमण दो-चार बार या अधिक बार करने होंगे या फिर एक बार करने से काम चल जायेगा? दादाश्री : जितना हो सके इतना करें और फिर सामूहिक कर डालें। प्रतिक्रमण बहुत सारे इकट्ठा हो जायें, तो सामूहिक प्रतिक्रमण करें। 'हे दादा भगवान! इन सभी का मैं साथ में प्रतिक्रमण करता हूँ।' फिर सुलझ गया सब कुछ। जिसे टकराव नहीं हो उसे तीन जनम में मैं मोक्ष की गारन्टी देता हूँ। टकराव हो जाये तो प्रतिक्रमण करना। टकराव पुद्गल का है और पुद्गल, पुद्गल का टकराव प्रतिक्रमण से नष्ट होता है। वह भाग करता हो तो हम गुणन करें, इससे रकम ऊड़ जायेगी। सामनेवाले के बारे में सोचना कि, 'उसने मुझे ऐसा कहा, वैसा कहा,' यही गुनाह है। यह राह चलते समय खंभा टकराने पर उसके साथ क्यों नहीं झगड़ते? पेड़ को जड़ (निश्चेतन) क्यों कहेंगे? जिससे चोट लगे, वे सभी हरे पेड़ ही हैं! प्रश्नकर्ता : स्थूल टकराव का उदाहरण दीजिए, फिर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम के उदाहरण। सूक्ष्म टकराव कैसा होगा? दादाश्री : तुझे फादर (पिताजी) के साथ होते हैं वे सारे सूक्ष्म टकराव। प्रश्नकर्ता : अर्थात् कैसा कहलाये? दादाश्री : उसमें मार-पीट करते हो? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : वह सूक्ष्म टकराव। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : सूक्ष्म माने मानसिक? वाणी से होता हो वह भी सूक्ष्म में जायेगा? दादाश्री : वह स्थूल में। जो सामनेवाले को मालूम नहीं पड़े, जो नज़र नहीं आये, वे सभी सूक्ष्म में जायें। प्रश्नकर्ता : वह सूक्ष्म टकराव टाले किस तरह? दादाश्री : पहले स्थूल, फिर सूक्ष्म, फिर सूक्ष्मतर और बाद में सूक्ष्मतम टकराव टालें। प्रश्नकर्ता : सूक्ष्मतर टकराव किसे कहेंगे? दादाश्री : तू किसी को मारता हो, और यह भाई ज्ञान में देखे कि मैं शुद्धात्मा हूँ, यह व्यवस्थित मारता है। ऐसे सब देखे पर मन से तुरन्त ज़रा-सा दोष देखे, वह सूक्ष्मतर टकराव। प्रश्नकर्ता : फिर से कहें, ठीक से समझ में नहीं आया। दादाश्री : यह तू सभी लोग के दोष देखता है न, वह सूक्ष्मतर टकरावा प्रश्नकर्ता : अर्थात् दूसरों के दोष देखना, वह सूक्ष्मतर टकराव। दादाश्री : ऐसा नहीं, खुद ने तय किया हो कि दूसरों में दोष है ही नहीं और फिर भी दोष देखे, वे सूक्ष्मतर टकराव। ऐसे दोषों का तुझे पता चलना चाहिए, क्योंकि वह है तो शद्धात्मा, और उसका दोष देखते प्रश्नकर्ता : मानसिक टकराव और जो दोष... दादाश्री : वे मानसिक नहीं हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह सूक्ष्मतर टकराव हो उस घड़ी सूक्ष्म टकराव भी साथ ही होगा न? दादाश्री : वह हमें नहीं देखना है। सूक्ष्म अलग होता है और सूक्ष्मतर अलग होगा। सूक्ष्मतम माने तो आखिरी बात। प्रश्नकर्ता : एक बार सत्संग में ही ऐसी बात की थी कि, चन्दुलाल के साथ तन्मयाकार होना वह सूक्ष्मतम टकराव कहलाये। दादाश्री : हाँ, सूक्ष्मतम टकराव! उसे टालें। भूल से तन्मयाकार हो जाये न! बाद में मालूम होता है कि, यह भूल हो गई। प्रश्नकर्ता : अब केवल शुद्धात्मा के सिवा इस संसार की कोई भी विनाशी चीज मझे नहीं चाहिए। फिर भी यह चन्दुभाई को तन्मयाकार अवस्था कभी-कभार रहती है। अतः वह सूक्ष्मतर टकराव हुआ न? दादाश्री : वह तो सूक्ष्मतम कहलाये। प्रश्नकर्ता : तो वह टकराव टालने का उपाय केवल प्रतिक्रमण ही है या और कुछ है? दादाश्री : दूसरा कोई हथियार है ही नहीं। प्रश्नकर्ता : परंतु दादाजी, हमें प्रतिक्रमण करना पड़े, वह हमारा अहम् नहीं कहलाये? दादाश्री : नहीं, अर्थात् हमें प्रतिक्रमण नहीं करना है। वह गुनाह चन्दभाई का है, शुद्धात्मा तो ज्ञाता है, शुद्धात्मा ने गुनाह नहीं किया है। इसलिए 'उसे' वह नहीं करना पड़ता। केवल गुनाह किया हो 'उसे', वह चन्दुभाई प्रतिक्रमण करेंगे और अतिक्रमण से ही संसार खड़ा हुआ है। अतिक्रमण कौन करता है? अहंकार और बुद्धि दोनों साथ मिलकर। हो? प्रश्नकर्ता : तो वे जो मानसिक टकराव किये वे? दादाश्री : वे सभी तो सूक्ष्म में गये। प्रश्नकर्ता : तो इन दोनों के बीच फर्क कहाँ पड़ता है? दादाश्री : यह तो मन से ऊपर की बात है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ४३ प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : सामनेवाले पर शंका नहीं करनी हो, फिर भी शंका होती है तो उसे कैसे दूर करना? दादाश्री : वहाँ फिर उसके शुद्धात्मा को याद करके क्षमा माँगना। उसका प्रतिक्रमण करना। यह तो पहले भूलें की थी इसलिए शंका होती ११. पुरूषार्थ - प्राकृत दुर्गुणों के सामने... बिना राग की तो लाइफ (जिन्दगी) ही कोई गई नहीं। जहाँ तक ज्ञान प्राप्त नहीं होता, वहाँ तक राग और द्वेष दो ही किया करते हैं। तीसरी वस्तु ही नहीं होती। प्रश्नकर्ता : किंतु दादाजी, द्वेष तो राग का ही फरजंद है न? दादाश्री : हाँ, वह फरजंद उसका है, परंतु उसका परिणाम है, फरजंद माने उसका परिणाम है। राग अधिक मात्रा में होने से, जिस पर राग होता है, वह एक्सेस (अधिक मात्रा में) हो जाये, परिणाम स्वरूप उस पर द्वेष होगा फिर। कोई भी चीज़ उसके प्रमाण से बाहर जायेगी तो हमें अप्रिय होने लगेगी और अप्रिय होना उसका नाम द्वेष! आया समझ में? प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आया। दादाश्री : वह तो हमें समझ लेना चाहिए कि, हमारे ही रीएक्शन (प्रतिक्रिया) आये हैं सभी। हम उसे (सामनेवाले को) सम्मान से बुलाएँ, और हमें लगे कि उसका मुँह फुला हुआ नज़र आये है तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह हमारा रीएक्शन है। इसलिए क्या करना? प्रतिक्रमण करना। दूसरा कोई उपाय नहीं है संसार में, तब इस संसार के लोग क्या करते हैं? उस पर अपना मुँह फुलाते हैं ऊपर से! अर्थात् फिर से जैसा था वैसा ही संसार खड़ा करें। हम शुद्धात्मा हुए, इसलिए समझा-बुझाकर हमारी भूल एक्सेप्ट (स्वीकार) करके भी छोड़ देना चाहिए। हम तो ज्ञानी पुरूष होकर भी सभी भूलें एक्सेप्ट करके केस पूरा कर देते हैं। प्रश्नकर्ता : जो ईर्ष्या होती है वह नहीं हो, इसलिए क्या करना? दादाश्री : उसके दो उपाय है। ईर्ष्या होने के बाद पश्चाताप करना और दूसरा, ईर्ष्या होती है वह ईर्ष्या आप नहीं करते। ईर्ष्या वह पूर्व जनम के परमाणु भरे हुए हैं। उसको एक्सेप्ट (स्वीकार) न करें। उसमें तन्मयाकार नहीं होने से ईर्ष्या उड़ जायेंगी। आपको ईर्ष्या होने पर पश्चाताप करना वही उत्तम है। जंगल में जाने पर लौकिक ज्ञान के आधार पर 'डकैत मिलेगा तो?' ऐसे विचार आये, अथवा शेर मिलेगा तो क्या होगा? ऐसा विचार आये तो उसी समय प्रतिक्रमण कर डालना। शंका हुई इसलिए बिगड़ा। शंका नहीं होने देना। किसी भी मनुष्य के लिए कुछ भी शंका आये तो प्रतिक्रमण करना। शंका ही दुःखदायी है। शंका होने पर प्रतिक्रमण करा लें। और हम ठहरे इस ब्रह्मांड के स्वामी, हमें शंका क्यों होगी?! मनुष्य हैं इसलिए शंका तो होगी। लेकिन भूल हुई अतः नक़द प्रतिक्रमण कर लें। जिसके लिए शंका हुई उसका प्रतिक्रमण करना। वरना शंका आपको खा जायेगी। किसीके लिए जरा-सा भी उलटा-सुलटा विचार आया कि, तुरन्त उसे धो डालना। वह विचार यदि थोड़ी देर के लिए रहेगा तो सामनेवाले को पहुँच जायेगा और फिर अंकुरित होगा। चार घंटे, बारह घंटे या दो दिन के बाद उसे असर होगा। इसलिए स्पंदन का बहाव उस ओर नहीं जाना चाहिए। हमेशा किसी भी बुरे कार्य का पछतावा करोगे, तो उस कार्य का फल बारह आने नष्ट हो ही जाता है। फिर जली हई रस्सी होती है न. उसके जैसा फल देगा। उस जली हुई रस्सी को अगले जनम में ऐसे ही हाथ में लेने से ही वह उड़ जायेगी। कोई भी क्रिया यूँ ही व्यर्थ जाती ही नहीं है। प्रतिक्रमण करने से वह रस्सी जल जाती है परंतु उसकी डिझाइन (आकृति) वैसी की वैसी ही रहती है। किंतु अगले जनम में क्या करना पड़ेगा? ऐसे ही झाड़ने से उड़ जायेगी। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : आपने सबेरे 'चाय' पीते समय कहा कि हमने प्रत्याख्यान करने के बाद चाय पी है। दादाश्री : हाँ, वैसे 'चाय' तो मैं पीता नहीं हूँ, फिर भी पीने के संयोग आ मिलते हैं और अनिवार्य रूप से खड़ा होता है। तब क्या करना पड़ता है? यदि प्रत्याख्यान किये बिना जो पीलूँ तो 'वह' आ चिपकेगी। इसलिए तेल लगाकर रंगवाला पानी उँडेलना। हाँ, हम प्रत्याख्यानरूपी तेल लगायें, फिर हरे रंगवाला पानी उँडेले परंतु भीतर चिपकता नहीं। इसलिए प्रत्याख्यान करने के पश्चात् मैंने चाय पी! यह इतना समझने जैसा है। प्रत्याख्यान करके कीजिए यह सब। समझ में आया न? प्रतिक्रमण तो जब अतिक्रमण हो तब कीजिए। चाय पीनी पड़े। वह अतिक्रमण नहीं कहलाता। वह तो प्रत्याख्यान नहीं करोगे तो, तेल नहीं लगाने पर थोड़ा चिपक जायेगा। अब तेल लगाकर ही करना सब! १२. छूटे व्यसन, ज्ञानी के कहे अनुसार प्रश्नकर्ता : मुझे सिगरेट पीने की बुरी आदत पड़ गई है। दादाश्री : तो उसके बारे में 'तू' ऐसा रखना, कि यह गलत है, बुरी चीज़ है, ऐसा। और यदि कोई कहे कि सिगरेट क्यों पीते हो? तो उसकी तरफदारी मत करना। बुरा है, ऐसा कहना। या तो यह मेरी कमजोरी है, ऐसा कहना तो किसी दिन छूटेगी वरना वह नहीं छूटेगी। हम भी प्रतिक्रमण करते हैं न, अभिप्राय से मुक्त होना ही चाहिए। अभिप्राय रह जाने में हर्ज है। प्रतिक्रमण करे तो वह मनुष्य उत्तम से उत्तम वस्तु पा गया। अर्थात् यह टेक्निकली है। सायन्टिफिकली उसमें जरूरत नहीं रहती लेकिन टेक्निकली जरूरत है। प्रश्नकर्ता : सायन्टिफिकली कैसे? दादाश्री : सायन्टिफिकली फिर उसका वह डिस्चार्ज है, फिर उसे जरूरत ही क्या है?! क्योंकि आप अलग हैं और वह अलग है। इतनी सारी शक्तियाँ नहीं हैं उन लोगों की! प्रतिक्रमण नहीं करने से वह अभिप्राय रह जाता है। और आपने प्रतिक्रमण किया इसलिए अभिप्राय से अलग हुए, यह बात चौकस है न?! क्योंकि जितना अभिप्राय रहेगा. उतना मन रहेगा। क्योंकि मन अभिप्राय से बंधा हुआ है। हमने क्या कहा कि अभी व्यसनी हो गया है उसका मुझे विरोध नहीं है, पर जो व्यसन हुआ हो, उसका भगवान से प्रतिक्रमण करना कि हे भगवान! यह शराब नहीं पीनी चाहिए. फिर भी पीता हूँ। उसकी माफ़ी माँगता हूँ। यह फिर से नहीं पीने की शक्ति देना। इतना करना भैया। तब लोग विरोध उठाते हैं कि तू शराब क्यों पीता है? अरे, तू उसे ऐसा करके ज्यादा बिगाड़ता है। उसका अहित कर रहा है। मैंने क्या कहा, तू कितना भी बड़ा गुनाह करके आया हो, तो इस तरह प्रतिक्रमण करना। हमें अशाता कम होगी। देखिए न, हमें महीना भर कैसा रहा कि दादाजी को एक्सिडन्ट का समय आया। फिर जो हुआ, मानों दीया बुझनेवाला हो ऐसा हो गया था। प्रश्नकर्ता : ऐसा कुछ होनेवाला नहीं है, दादाजी। दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं, 'हीराबा' (दादाजी की धर्मपत्नी) गयीं तो, 'यह' (ए.एम.पटेल) नहीं जानेवाले? वह तो कौन-सा वेदनीय कर्म आया? प्रश्नकर्ता : अशाता वेदनीय। दादाश्री : लोग समझते हैं कि हमें वेदनीय है, लेकिन हमें वेदनीय छूए नहीं, तीर्थंकरों को भी छूए नहीं। हमें हीराबा के जाने का खेद नहीं है। हमें असर ही नहीं होता कुछ, लोगों को ऐसा लगे कि हमें वेदनीय आया, अशाता वेदनीय आया। किंतु हमें तो एक मिनट, एक सेकन्ड भी अशाता छुई नहीं है, ये बीस साल से! और यही विज्ञान मैंने आपको दिया Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ४८ प्रतिक्रमण है। और यदि आप कच्चे पडें तो आपका नुकसान । समझदारी से कच्चे पड़ते ही नहीं न कभी?! प्रश्नकर्ता : अंबालालभाई को तो छूए न? 'दादा भगवान' को तो वेदनीय कर्म नहीं छूता। दादाश्री : नहीं, किसी को भी नहीं छूता। ऐसा यह विज्ञान है। छूता हो तो पागल ही हो जाये न? यह तो नासमझी के दुःख है। समझदारी हो तो इस फाइल को भी नहीं छूए। किसी को भी नहीं छूए। जो भी दुःख है वह नासमझी का ही है। यह ज्ञान यदि समझ ले न, तो दु:ख ही क्यों होगा? अशाता भी नहीं होगी और शाता भी नहीं होगी। १३. विमुक्ति, आर्त-रौद्र ध्यान से प्रश्नकर्ता : आर्तध्यान और रौद्रध्यान क्षण-क्षण होते ही रहते हैं. तो आर्तध्यान किसे कहें और रौद्रध्यान किसे कहें, इसका जरा स्पष्टीकरण कर दीजिए। दादाश्री : खुद, खुद को ही, किसी को बीच में लाये बिना, किसी को गोली नहीं लगे, ऐसे सम्हलकर खुद अपने आप दुःख झेलता रहे वह आर्तध्यान है और अन्य किसी को गोली दाग दें वह रौद्रध्यान है। आर्तध्यान तो खुद को ज्ञान नहीं हो और 'मैं चन्दुलाल हूँ' ऐसा हो जाये, और मुझे ऐसा होगा तो क्या होगा? लड़कियाँ चौबीस साल की होने पर ब्याहनी पड़े। पर यह पाँच साल की हो तब से चिंता करे, वह आर्तध्यान किया कहलाये। आया समझ में? खुद के लिए उलटा सोचना, उलटा करना, खुद की गाड़ी चलेगी या नहीं चलेगी, बीमार हुए और मर जायेंगे तो क्या होगा, यह सब आर्तध्यान कहलाये। रौद्रध्यान तो हम दूसरों के लिए कल्पना करें कि इसने मेरा नुकसान किया, वह सब रौद्रध्यान कहलाये। और दूसरों के लिए विचार करें, दूसरों का कुछ न कुछ नुकसान हो ऐसा विचार आया, तो वह रौद्रध्यान हुआ कहलाये। मन में विचार आया कि कपड़ा खींचकर देना। तो खींचकर देना कहा तब से ही ग्राहकों के हाथ में कम कपड़ा जायेगा ऐसी कल्पना की और उससे ज्यादा पैसे मार लेंगे ऐसी कल्पना की, वह रौद्रध्यान कहलाये। दूसरों का नुकसान करने का ध्यान, वह रौद्रध्यान कहलाये। अब जबरदस्त रौद्रध्यान किया हो, लेकिन प्रतिक्रमण से वह आर्तध्यान हो जाता है। दो व्यक्तियों ने एक ही तरह से रौद्रध्यान किया हो, दोनों ने कहा कि, 'फलाँ को मैं मार डालूँगा।' ऐसे दो व्यक्तियों ने मारने का भाव किया, वह रौद्रध्यान कहलाये। किंतु एक घर जाकर पछतावा करे कि 'मैंने ऐसा भाव क्यों किया?' इसलिए वह आर्तध्यान हो गया और वह दूसरे भाई को रौद्रध्यान रहा। अर्थात् पछतावा करने पर रौद्रध्यान भी आर्तध्यान हो जाता है। पछतावा करने पर नर्कगति अटक कर तिर्यच गति होती है। और अधिक पछतावा करें तो धर्मध्यान होता है। एक बार पछतावा करने पर आर्तध्यान होगा और बार-बार पछतावा करता रहे तो धर्मध्यान हो जायेगा। अर्थात् क्रिया वही की वही, पर ध्यान बदलता रहता है। प्रश्नकर्ता : 'हम' खुद अलग रह कर प्रतिक्रमण करवायें तो वह क्या हुआ कहलाये? दादाश्री : ऐसा है न, हम शुद्धात्मा हुए, मगर इस पुद्गल का छुटकारा होना चाहिए न? इसलिए जब तक उसके पास प्रतिक्रमण नहीं कराओगे तब तक छुटकारा नहीं होगा। अर्थात् जब तक पुद्गल को धर्मध्यान में नहीं रखोगे तब तक छुटकारा नहीं होगा। क्योंकि पुद्गल को शुक्लध्यान होता नहीं है। इसलिए पुद्गल को धर्मध्यान में रखिए। अत: बार-बार प्रतिक्रमण करवायें। जितनी बार आर्तध्यान हो, उतनी बार प्रतिक्रमण करवायें। आर्तध्यान होना वह पूर्व की अज्ञानता है इसलिए हो जाता है। तो 'हमें उसके पास प्रतिक्रमण करवाना है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : दूसरों के दोष देखने से आर्तध्यान-रौद्रध्यान होता है? दादाश्री : हाँ, वह दूसरों के दोष देखने का माल भीतर भरकर आया है, इसलिए ऐसा देखेगा। फिर भी वह खुद दोष में नहीं आता। उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है? ऐसा नहीं होना चाहिए। बस इतना ही। वह तो जैसा माल भरा होगा वैसा निकलेगा। उसे हम भरा हुआ माल' ऐसा सामान्य भाषा में कहते हैं। अब रात को दस-बारह व्यक्ति आये और 'चन्दुभाई है क्या?' ऐसा कहकर आवाज़ दें। आपके गाँव से आये हो और उनमें एक-दो आपके पहचानवाले हो, और दूसरे उनके पहचानवाले हो, और उनके आवाज़ देने पर रात के साढ़े ग्यारह बजे आप उन लोगों को क्या कहेंगे? दरवाजा खोलेंगे या नहीं खोलेंगे? अब फिर भी हम क्या कहेंगे? हमारे संस्कार छोडेंगे नहीं न? धीरे से कहें कि, 'थोड़ी... थोड़ी... थोड़ी...' अरे मगर क्या थोड़ी? तब कहें, थोड़ी-सी चाय... तब ऐसे खुला कहनेवाले होते हैं वे कहेंगे, 'चन्दुभाई, इस वक्त चाय रहने दीजिए, इस वक्त खिचड़ी-कढ़ी बनाइए, बहुत हो गया।' अब देखो तेरी घरवाली की हालत ! रसोईघर में हुडदंग मच जायेगा न? अब भगवान की आज्ञा क्या है? जिसे मोक्ष में जाना है उसे क्या करना चाहिए? इस वक़्त कहाँ से टपके, ऐसा भाव आ ही जायेगा मनुष्य को; इस समय तो इस दुषमकाल का दबाव ऐसा है, वातावरण ऐसा है, अतः उसे (ऐसा विचार) आ जायेगा। रईस होगा उसे भी आ जायेगा। अब यह तू किस लिए भीतर ऐसा चित्रित करता है? बाहर अच्छा दिखावा करता है और भीतर उलटा चित्रित करता है। अर्थात् हम यह जो अच्छी तरह से बुलाते हैं वह पिछले अवतार का फल भुगतते हैं और यह अंदर के हिसाब से 'इस वक्त कहाँ से टपके'। (ऐसा मन में भाव बिगाड़कर) उलटा बाँधते हैं। ऐसे नये अगले जनम का कर्म बाँधते हैं। अतः वहाँ उस वक्त हम भगवान से क्षमा माँगकर कहें कि, भगवान, मेरी भूल हो गई। इस वातावरण के दबाव में आकर बोल गया परंतु मेरी ऐसी इच्छा नहीं है। वे भले ही रहें। ऐसे आप पोंछ दें, वह आपका पुरूषार्थ कहलाये। ऐसा होगा तो सही, ऐसा तो बड़े-बड़े संयमधारियों को भी होगा। यह काल ऐसा विचित्र है। किंतु यदि आप पोंछ दें तो आपको ऐसा फल मिलेगा। प्रश्नकर्ता : सामान्यतया एक घंटे में पाँच-पचीस अतिक्रमण हो जाते प्रश्नकर्ता : हाँ, खोलेंगे। दादाश्री : और फिर क्या कहेंगे, उन लोगों को? वापस जाईये ऐसा कहेंगे? प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, वापस जाईये, ऐसा कैसे कह सकते हैं? दादाश्री : तब क्या कहोंगे? प्रश्नकर्ता : अंदर बुलायेंगे हम। 'आइए अंदर'। दादाश्री : 'आइए, पधारिए, पधारिए।' हमारे यह संस्कार है न? इसलिए 'आइए, पधारिए' कहेंगे, सभी को सोफासेट पर बिठाएँगे। सोफे पर बच्चा सोया पड़ा हो तो जलदी-जलदी उठा लेंगे और सोफे पर बिठाएँगे। किंतु मन में ऐसा होगा कि, 'मुए, ये इस वक़्त कहाँ से आये?!' अब यह आर्तध्यान नहीं है, रौद्रध्यान है। सामनेवाले मनुष्य के प्रति हम यह भाव बिगाड़े; आर्तध्यान तो खुद अपनी ही पीडा भगतना उसे कहते है। यह तो दूसरों की पीडा खुद के ऊपर लेकर दूसरों पर यह 'ब्लेम' (आरोप) लगाया, 'इस वक्त कहाँ से टपके?' दादाश्री : वे इकट्ठा करके करें, एक साथ भी हो सकते हैं। वे सारे प्रतिक्रमण इकट्ठे करता हूँ, कहें। प्रश्नकर्ता : वह कैसे करना? क्या कहना? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण दादाश्री : ये सब बहुत अतिक्रमण हो गये हैं इसलिए इनका सामूहिक प्रतिक्रमण करता हूँ। दोष बोलकर कि इस दोष के सामूहिक प्रतिक्रमण करता हूँ, कहना। अतः हल निकल आया। और फिर भी बाकी रहा तो उसे धो डालेंगे। आगे धो देंगे। लेकिन उस पर समय मत गँवाना। समय बिगाड़ने से तो सारा का सारा (प्रतिक्रमण) ही रह जायेगा। गुत्थियाँ उलझाने की जरूरत नहीं है। १४. निकाले कषाय की कोठरी में से प्रश्नकर्ता : किसी पर बहुत गुस्सा आया, फिर बोलकर बंद हो गये, बाद में यह जो बोलना हुआ इसलिए जी बार-बार जला करे तो उसमें एक से ज्यादा प्रतिक्रमण करने होंगे? दादाश्री : उसमें दो-तीन बार सच्चे दिल से करें और एकदम चौकस हुआ तो समाप्त हो गया। 'हे दादा भगवान! भयंकर बाधा आई। जबरदस्त क्रोध हुआ। सामनेवाले को कितना दुःख हुआ! उसकी माफ़ी माँगता हूँ, आपकी साक्षी में बहुत जबरदस्त माफ़ी माँगता हूँ।' प्रश्नकर्ता : किसी के साथ जरूरत से ज्यादा विवाद हो गया. तो उससे मन में अंतर बढ़ता जाता है। और किसी के साथ कभी एकाधदो बार विवाद हो जाये, तो उसमें दो-चार बार, ऐसे अधिक बार प्रतिक्रमण करने होंगे कि एक बार करने से सब का समाविष्ट हो जायेगा? दादाश्री : वह नाबूद हो कि नहीं हो, यह हमें नहीं देखना। हम तो अपने ही कपड़े धो कर स्वच्छ रहें। आपको मन में नहीं भाता फिर भी हो जाता है न? प्रश्नकर्ता : क्रोध हो जाता है। दादाश्री : इसलिए हमें उसे नहीं देखना, हमें प्रतिक्रमण करना है। हम कहें कि, 'चन्दुभाई, प्रतिक्रमण कीजिए।' फिर वे जैसे कपड़ा बिगड़ा होगा, ऐसा धो डालेंगे! आप बहुत दुविधा में नहीं पड़ना। वरना हमारा फिर से बिगड़ेगा। प्रश्नकर्ता : अब निंदा की, तब भले उसे जागृति नहीं होती, निंदा हुई कि गुस्सा आया उस समय निंदा हो जाती है। दादाश्री : उसे ही कषाय कहते हैं। कषाय हुआ माने दूसरे के अंकुश में आ गया। उस समय वह बोले, परंतु फिर भी वह जानता हो कि, यह गलत हो रहा है। कभी मालूम हो और कभी बिलकुल ही मालूम नहीं हो, ऐसे ही चला जाये। फिर थोड़ी देर बाद मालूम हो। अर्थात् हुआ उस घड़ी 'जानता' था। प्रश्नकर्ता : हमारे ऑफिस में तीन-चार सेक्रेटरी हैं। उन्हें कहें कि ऐसे करना है, एक बार, दो बार, चार बार, पाँच बार कहने पर भी वही की वही गलती करते रहें। तब फिर गुस्सा आये, तो क्या करे उसका? दादाश्री : आप तो शुद्धात्मा हो गये हैं। अब आपको तो गुस्सा कहाँ आता है? गुस्सा तो चन्दुलाल को आयेगा। उस चन्दुलाल से फिर हम कहें, अब तो दादाजी मिलें हैं, जरा गुस्सा कम कीजिए न! प्रश्नकर्ता : लेकिन उन सेक्रेटरियों में कुछ इम्प्रुव (सुधार) नहीं होता। तो उनका क्या करें? सेक्रेटरी से कुछ कहना तो पड़ेगा न, वरना वे तो वैसी की वैसी भूल किया करेंगी, वे काम बराबर नहीं करतीं। दादाश्री : वह तो हम 'चन्दुभाई से' कहें, कि उनको डाँटिए, जरा समभाव से निकाल करके डाँटिए। यूँ ही नाटयात्मक रूप से डाँटना कि, दादाश्री : जितना हो सके उतना करना और अंत में सामुहिक कर देना। बहुत सारे प्रतिक्रमण करने इकट्ठे हो जायें तो सामुहिक प्रतिक्रमण करना कि इन सभी कर्मों के प्रतिक्रमण मुझ से अलग अलग नहीं होते। इन सभी का साथ में प्रतिक्रमण करता हूँ। हमें दादा भगवान से कह देना, वह पहुँच गया। प्रश्नकर्ता : हम सामनेवाले पर क्रोध करें फिर तुरन्त हम प्रतिक्रमण कर लें, फिर भी हमारे क्रोध का असर सामनेवाले मनुष्य पर से तुरन्त तो नाबूद नहीं होता न? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ५४ प्रतिक्रमण की गैरहाजिरी में भोक्ता हैं, इसलिए यह मिट जाये। और इस संसार में लोग कर्ता की हाजिरी में भोक्ता हैं। इसलिए प्रतिक्रमण करने पर उसे थोड़ा ढीला होगा, परंतु उड़ नहीं जायेगा। फल दिये बिना रहता नहीं और आपको तो वह कर्म ही उड़ जायेगा। ऐसा सब करोगी तो तुम्हारी सर्विस (नौकरी) चली जायेगी। प्रश्नकर्ता : लेकिन उस समय उसको दुःख होगा और आपने कहा है, कि दूसरों को दु:ख मत देना। दादाश्री : दुःख नहीं होगा। क्योंकि जब हम नाटयात्मक रूप से बोलेंगे तो उन्हें दुःख नहीं होगा, सिर्फ उनके मन में जागृति आयेगी, उनके निश्चय बदल जायेंगे। हम दुःख नहीं देते हैं। दुःख तो कब होगा? यदि हमारा इरादा दुःख देने का होगा न, कि उनको सीधी कर डालूँ, तो उन्हें दु:ख उत्पन्न होगा। किसी के दोष नहीं दिखे तो समझना कि 'सर्व विरती' पद है, संसार में रहने पर भी! ऐसा यह 'अक्रम विज्ञान का' 'सर्व विरती' पद अलग तरह का है। संसार में बैठे, सिर में तेल डालते, कान में इत्र का फाया डालकर घूमता हो फिर भी उसे किसी का दोष नज़र नहीं आयेगा। वीतद्वेष* हुआ वह एकावतारी कहलाता है। वीतद्वेष में जिसे कच्चा रहा हो, उनके दो-चार अवतार होंगे। १५. भाव अहिंसा की डगर पर... प्रश्नकर्ता : मोक्ष में जाने से पहले, किसी भी जीव के साथ लेनदेन हो तो हम उसके प्रतिक्रमण किया करें तो हमें छुटकारा मिल जाये? दादाश्री : हाँ। क्रोध का ज्ञाता-दृष्टा रहे, इसलिए शुद्ध हो कर क्रोध चला गया। वे परमाणु शुद्ध होकर चले गये। ज्ञाता-द्रष्टा रहना उतना आपका फर्ज है। प्रश्नकर्ता : क्रोध करने के पश्चात् प्रतिक्रमण करें तो वह पुरुषार्थ कहलायें या पराक्रम? दादाश्री : वह पुरुषार्थ कहलाये, पराक्रम नहीं कहलाता। प्रश्नकर्ता : तब फिर पराक्रम किसे कहेंगे? दादाश्री : पराक्रम तो इस पुरुषार्थ से भी ऊपर जायेगा। और यह पराक्रम नहीं है। यह तो जलन होती हो और दवाई लगायें. उसमें पराक्रम कहाँ से आया? उन सबको जाने, और यह जाननेवाला उसको जाने उसका नाम पराक्रम। और प्रतिक्रमण करें उसका नाम पुरूषार्थ। आखिरकार यह प्रतिक्रमण करते करते सब शब्दों का जंजाल कम होता जायेगा। सब कम होता जायेगा अपने आप। नियम से ही सब कम होता जायेगा। कुदरती रूप से सब बंद हो जाये। पहला अहंकार जाये, फिर बाकी सब जाये। सब अपने-अपने घर चले। और भीतर ठंडक है। अब भीतर ठंडक है प्रश्नकर्ता : पर उसके लिए क्या बोलना? दादाश्री : जिन-जिन जीवों को मुझ से कुछ भी दुःख हो, वे सभी मुझे क्षमा करें। प्रश्नकर्ता : जीवमात्र? दादाश्री : जीवमात्र को। प्रश्नकर्ता : अर्थात् उसमें फिर वायुकाय, तेउकाय सभी जीव आ जायें? न? प्रतिक्रमण से सारे कर्म मिट जायें। कर्ता की गैरहाजिरी है, इसलिए सर्वथा मिट जायें। कर्ता की गैरहाजिरी में ये कर्म हम भुगत रहे हैं। कर्ता दादाश्री : वह सब बोले, इसलिए उसमें सभी आ जाये। प्रश्नकर्ता : किसी जीव की अनजाने में हिंसा हो जाये तो क्या करें? * आत्मज्ञान पाने के बाद आज्ञापालन करनेवाले की दशा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ५५ प्रतिक्रमण दादाश्री : अनजाने में हिंसा हो जाये किंतु मालूम होने पर हमें तुरन्त ही पश्चाताप होना चाहिए, कि ऐसा न हो। फिर से ऐसा न हो उसकी जागृति रखना। ऐसा हमारा उदेश्य रखना। भगवान ने कहा था, किसी को मारना नहीं है ऐसा दृढ भाव रखना। किसी जीव को जरा-सा भी दुःख नहीं देना है, ऐसी हररोज पाँच बार भावना करना। 'मन, वचन, काया से किसी जीव को किंचित्मात्र दुःख न हो' ऐसा पाँच बार सबेरे बोल कर संसारी प्रक्रिया शुरू करना। अत: जिम्मेदारी कम हो जायेगी। क्योंकि भाव करने का अधिकार है, वह क्रिया अपनी सत्ता में नहीं है। प्रश्नकर्ता : भूल से हो गया हो तो भी पाप लगेगा न? दादाश्री : भूल से आग में हाथ डालें तो क्या होगा? प्रश्नकर्ता : जल जाये। दादाश्री : छोटा बच्चा नहीं जलेगा? प्रश्नकर्ता : जलेगा। दादाश्री : वह भी जलेगा? अर्थात् कुछ छोड़ेगा नहीं। अनजाने में कीजिए या जानबूझ कर कीजिए, कुछ छोड़ेगा नहीं। प्रश्नकर्ता : किसी महात्मा को ज्ञान के पश्चात्, रात में मच्छर काटतें हो तो वह रात में जागकर मारने लगे, तो उसे क्या कहेंगे? दादाश्री : वह भाव बिगड़ा कहलाये। ज्ञान जागृति नहीं कहलाये। प्रश्नकर्ता : वह हिंसक भाव कहलाये? दादाश्री : हिंसक भाव तो क्या, पर जैसा था वैसा हो गया कहलाये। लेकिन बाद में प्रतिक्रमण करे तो धुल जायेगा। प्रश्नकर्ता : दूसरे दिन फिर ऐसा ही करे तो? दादाश्री : अरे, सौ बार करे तो भी प्रतिक्रमण से धुल जायेगा। मार डालने को तो सोचना भी नहीं। कोई भी चीज़ अनुकूल न आये तो उसे बाहर छोड़ आना। तीर्थंकरों ने 'मार' शब्द ही निकाल बाहर किया था। 'मार' शब्द का उच्चारण भी नहीं करना, कहते हैं। 'मार' जोखिमवाला शब्द है, इतना सारा अहिंसामय, इतनी मात्रा में परमाणु अहिंसक होने चाहिए। प्रश्नकर्ता : भावहिंसा और द्रव्यहिंसा का फल एक ही प्रकार का आयेगा? दादाश्री : भावहिंसा की फोटो दूसरा कोई नहीं देख सकता और जो सिनेमा की तरह यह जो बाहर चलता है न, उसे हम देखते हैं वह सब द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा में तो वैसे सूक्ष्म (भीतर) बरते और द्रव्यहिंसा तो नजर आये। प्रत्यक्ष, मन-वचन-काया से जो जगत् में दिखाई पड़ता है, वह द्रव्य हिंसा है। आप कहें कि जीवों को बचाने जैसा है, फिर बचे या न बचे, उसके जिम्मेदार आप नहीं हैं! आप कहें कि ये जीवों को बचाने जैसा है, आपको सिर्फ इतना ही करना है। फिर हिंसा हो गई, उसके जिम्मेदार आप नहीं है ! हिंसा हुई उसका पछतावा-प्रतिक्रमण करना, फिर जिम्मेदारी सारी चली गई। प्रश्नकर्ता : आपकी किताब में पढा कि, 'मन, वचन, काया से किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो' परंतु हम तो ठहरे किसान, इसलिए तंबाकु की फसल उगाते हैं, तब हमें प्रत्येक पौधे की कोंपल, माने उसकी गरदन तोड़नी पड़ती है। तो इससे उसको दुःख तो हुआ न? उसका पाप तो लगेगा ही न? ऐसे लाखों पौधों की गरदने कुचल देते हैं। तो इस पाप का निवारण किस तरह किया जाये? दादाश्री: यह तो भीतर मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसा धंधा हमारे हिस्से में कहाँ से आया? बस इतना ही। पौधे की कोंपल काटे। किंतु मन में पश्चाताप होना चाहिए। ऐसा धंधा नहीं करना चाहिए, ऐसा मन में होना चाहिए, बस। प्रश्नकर्ता : किंतु यह पाप तो होगा ही न? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ५७ दादाश्री : वह तो होगा ही। वह आपको नहीं देखना है। होता रहता है वह पाप नहीं देखना यह नहीं होना चाहिए ऐसा आपको तय करने का, निश्चय करना चाहिए। यह धंधा क्यों मिला? दूसरा अच्छा मिला होता तो हम ऐसा नहीं करते। पहले पश्चाताप नहीं होता। यह जाना नहीं हो न वहाँ तक पश्चाताप नहीं होता। खुश होकर पौधे उखाड़ फेंके। आपको समझ में बैठता है? हमारे कहने के मुताबिक करना। आपकी सारी जिम्मेदारी हमारी पौधा उखाड़ फेंके उसमें हर्ज नहीं है, पश्चाताप होना चाहिए कि यह मेरे हिस्से में कहाँ से आया? | खेतीबाड़ी में जीव-जन्तु मरेंगे उसका दोष तो लगेगा। इसलिए खेतीबाड़ीवालों को प्रतिदिन पाँच-दस मिनट भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि ये दोष हुए उसकी माफ़ी चाहता हूँ। किसान से कहते हैं कि तू यह धंधा करता है उसमें जीव मरते हैं, उसका इस तरह प्रतिक्रमण करना। तू जो गलत करता है उसमें मुझे हर्ज नहीं है परंतु तू उसका इस तरह प्रतिक्रमण कर । प्रश्नकर्ता: आपने वह वाक्य कहा था कि किसी जीवमात्र को मन, वचन, काया से दुःख न हो। इतना सबेरे बोले तो चलेगा या नहीं चलेगा? दादाश्री : वह पाँच बार बोले तो चलेगा, परंतु यह इस तरह बोलना होगा कि पैसे गिनते समय जैसी स्थिति हो, उस तरह रुपये गिनते समय जैसी चित्त की अवस्था हो, जैसा अंतःकरण हो ऐसा बोलते समय रखना पड़ेगा। १६. दुःखदायी वैर की वसूली.... प्रश्नकर्ता: हम प्रतिक्रमण न करें तो फिर किसी समय सामनेवाले के साथ चुकता करने जाना पड़ेगा न? दादाश्री : नहीं, उसे चुकता नहीं करना है। हम बंधन में रहे। सामनेवाले से हमें कुछ लेना-देना नहीं। प्रश्नकर्ता: किंतु हमें चुकता करना पड़ेगा न? प्रतिक्रमण दादाश्री : इससे हम ही बँधे हुए हैं। इसलिए हमें प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रतिक्रमण से मिट जाये। इसलिए तो आपको हथियार दिया है न, प्रतिक्रमण ! ५८ प्रश्नकर्ता: हम प्रतिक्रमण करें और बैर छोड़ दें परंतु सामनेवाला बैर रखे तो ? दादाश्री : भगवान महावीर पर कितने सारे लोग राग करते थे और द्वेष रखते थे, उसमें महावीर को क्या ? वीतराग को कुछ छूएगा नहीं । वीतराग माने शरीर पर बिना तेल लगाये बाहर घूमते हैं और अन्य सभी तेल लगाकर घूमते हैं। इसलिए तेलवालों को सब धूल लगेगी। प्रश्नकर्ता: इन दो व्यक्तियों के बीच जो बैर बंधता है, राग-द्वेष होता है, अब उसमें मैं खुद प्रतिक्रमण करके मुक्त हो जाऊँ, परंतु दूसरा व्यक्ति बैर नहीं छोड़ता, तो वह फिर अगले जनम में आकर उस रागद्वेष का हिसाब तो पूरा करेगा न? क्योंकि उसने तो अपना बैर छोड़ा नहीं है न? दादाश्री : प्रतिक्रमण से उसका बैर कम हो जायेगा। एक बार में प्याज़ की एक परत जायेगी, दूसरी परत, जितनी परतें होंगी उतनी जायेंगी। आपको समझ में आया? प्रश्नकर्ता: प्रतिक्रमण करे उसी समय ही अतिक्रमण हो जाये तो क्या करे? दादाश्री : फिर थोड़ी देर के बाद करना। हम आतिशबाज़ी बुझाने गये तब एक पटाखा और छूटा तो हम फिर से जायें। फिर थोड़ी देर के बाद फिर से बुझाना, ऐसे तो पटाखे छूटते ही रहेंगे। उसीका नाम संसार । वह उलटा करे, अपमान करे तब भी हम रक्षा करेंगे। एक भाई मेरे साथ घृष्टतापूर्वक पेश आये थे। मैंने सभी से कहा, एक अक्षर भी उलटा मत सोचना। और उलटा विचार आये तो प्रतिक्रमण करना। वे अच्छे आदमी हैं किंतु वे लोग किसके अधीन हैं? कषायों के अधीन हैं। वे आत्मा के Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ५९ अधीन नहीं हैं। जो आत्मा के अधीन होगा वह ऐसा सामने नहीं बोलेगा । अतः कषाय के अधीन मनुष्य किसी भी तरह का गुनाह करे वह क्षमा के पात्र है। वह खुद के अधीन ही नहीं बेचारा ! वह कषाय करे उस समय हमें ढीला छोड़ देना चाहिए। वरना उस घड़ी सब उलट-पुलट कर देगा । कषाय के अधीन माने उदयकर्म के अधीन, जैसा उदय होगा वैसा फिरेगा। १७. मूल, अभिप्राय का सामनेवाला कैसा भी भाव, अच्छा या बुरा भाव लेकर आपके पास आया हो, लेकिन उसके साथ कैसे पेश आना वह आपको देखना है । सामनेवाले की प्रकृति टेढ़ी हो तो उस टेढ़ी प्रकृति के साथ माथापच्ची नहीं करनी चाहिए। प्रकृति से ही वह चोर हो, हम दस साल से उसकी चोरी देखतें हों और वह आकर हमारे पैर छूए तो क्या हमें उसका विश्वास करना चाहिए ? नहीं, चोरी करनेवाले को हम क्षमा कर दें कि जा तुझे छोड़ दिया, हमारे मन में तेरे लिए कोई दुर्भाव नहीं है, लेकिन उसका विश्वास नहीं कर सकते और फिर उसका संग भी नहीं कर सकते। यद्यपि संग किया और फिर विश्वास नहीं किया तो वह भी गुनाह है। वास्तव में संग करना ही नहीं चाहिए और किया तो उसके प्रति पूर्वग्रह नहीं रखना चाहिए। जो होगा वह सही ऐसा रखें। प्रश्नकर्ता: फिर भी उलटा अभिप्राय हो जाये तो क्या करना ? दादाश्री : हो जाये तो माफ़ी माँग लें। जिसके लिए उलटा अभिप्राय हो गया हो उसकी माफ़ी माँग लें। प्रश्नकर्ता: अच्छा अभिप्राय देना या नहीं देना? दादाश्री : कोई अभिप्राय ही मत दें। और अगर दे दिया तो उसे मिटा देंगे हम मिटाने का साधन हैं, आपके पास। आलोचना-प्रतिक्रमणप्रत्याख्यान का अमोघ 'शस्त्र'। प्रश्नकर्ता: गाढ़ अभिप्राय कैसे मिटाये ? ६० प्रतिक्रमण दादाश्री : जब से तय किया कि मिटाने हैं, तब से वे मिटने शुरू हो जायेंगे। बहुत गाढ़ हो उन्हें प्रतिदिन दो-दो घंटे उखाड़ते रहें तो वे मिट जायेंगे। आत्मप्राप्ति के पश्चात् पुरूषार्थ धर्म प्राप्त हुआ कहलाये, और पुरूषार्थ धर्म पराक्रम तक पहुँच सके, जो कैसे भी अवरोध को उखाड़कर फेंक सके। किंतु एक बार समझ लेना चाहिए कि इस कारण से यह पैदा हुआ है, फिर उसके प्रतिक्रमण करें। अभिप्राय न बांधा जाये इतने जरा सावध रहिए। सबसे ज्यादा संभलना है अभिप्राय से और कोई हर्ज नहीं है। किसी को देखने के पहले ही अभिप्राय बांधा जाये, यह संसार जागृति इतनी भारी है कि अभिप्राय बांधा ही जाये। इसलिए अभिप्राय होते ही उसे मिटा दें। अभिप्राय के बारे में बहुत सावधान रहने की जरूरत है। अर्थात् अभिप्राय बंधेगे जरूर, पर तुरन्त हमें मिटा देना चाहिए। प्रकृति अभिप्राय बांधती है और प्रज्ञाशक्ति अभिप्राय से छूड़ाती रहती है। प्रकृति अभिप्राय बांधती रहेगी, कुछ समय तक बांध बांध करेगी लेकिन हम उन्हें मिटाते रहें। अभिप्राय बंधा गया उसका तो यह सब झंझट है। प्रश्नकर्ता: अभिप्राय बंधा जाये, उसे मिटाना कैसे ? दादाश्री : अभिप्राय मिटाने के लिए हमें क्या करना चाहिए कि, 'यह भाईजी के लिए मेरा ऐसा अभिप्राय बंधा गया, वह गलत है, हम से ऐसा क्यों हो?' ऐसा कहने पर अभिप्राय मिट जायेगा। हम जाहिर करें कि 'यह अभिप्राय गलत है। इस भाईजी के लिए ऐसा अभिप्राय कहीं बंधा जाएगा भला? यह आप क्या कर रहे हैं?' इस तरह उस अभिप्राय को गलत करार दिया, इसलिए वह मिट जायेगा। प्रतिक्रमण नहीं किया तो आपका अभिप्राय कायम रहा, इसलिए आप बंधन में रहें। जो दोष हुआ उसमें आपका अभिप्राय रहा। यह प्रतिक्रमण करने पर आपका अभिप्राय टूट गया। अभिप्रायों से मन पैदा हुआ है। देखिये, मुझे किसी मनुष्य के लिए कोई भी अभिप्राय नहीं है, क्योंकि एक ही बार देख लेने के बाद मैं अभिप्राय बदलता नहीं हूँ। कोई Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ६२ प्रतिक्रमण मनुष्य संयोगानुसार चोरी करे, और मैं खुद देखू तो भी मैं उसे चोर नहीं कहूँगा, क्योंकि (यह) संयोगानुसार है। जगत् के लोग क्या कहते हैं कि जो पकड़ा गया उसे चोर कहते हैं। संयोगानुसार था या कायमी चोर था, ऐसा जगत् के लोग कुछ परवाह नहीं करते। मैं तो कायमी चोर को चोर कहता हूँ। और संजोगानुसार (हुए चोर) को मैं चोर नहीं कहता हूँ। अर्थात् मैं तो एक अभिप्राय बंधा जाये, फिर दूसरा अभिप्राय बदलता ही नहीं हूँ। किसी भी मनुष्य के लिए मैंने आज तक अभिप्राय बदला नहीं है। हम शुद्ध हुए और चन्दुभाई को शुद्ध करना यह हमारा फर्ज है। यह पुद्गल क्या कहता है कि भैया, हम शुद्ध ही थे। आपने भाव करके हमें बिगाड़ा और इस हालत तक हमें बिगाड़ा। वरना हमारे में लहू, पीब, हड्डियाँ कुछ नहीं था। हम शुद्ध थे, आपने हमें अशुद्ध किया। इसलिए अगर आपको मोक्ष में जाना हो तो आपके अकेले शुद्ध होने से गुज़ारा नहीं होगा। हमारी शुद्धि करोगे तो ही आपका छुटकारा होगा। १८. विषय विकार को जीते वह राजाओं का राजा प्रश्नकर्ता : एक बार विषय का बीज पड़ गया हो, तो वह रूपक में तो आयेगा ही न? दादाश्री : बीज पड़ ही जायेगा और वह रूपक में आयेगा किंतु जहाँ तक उसकी जड़े जमी नहीं, वहाँ तक कम-ज्यादा हो सकता है लेकिन मरने से पहले वह शुद्ध हो जायेगा। इसलिए हम विषय के दोषवालों से कहते हैं कि, विषय के दोष हुए हो, अन्य दोष हुए हो, तो तू इतवार को अनशन करना और सारा दिन यही सोच-विचार कर उसे बार-बार धोते रहना। ऐसे आज्ञापूर्वक करेगा न, इससे कम हो जायेगा। अभी केवल आँख का खयाल रखना। पहले तो बहुत नेकीवाले मनुष्य विषय-विकार के दोष होते ही आँखें फोड़ डालते थे। हमें आँखें नहीं फोड़नी है। वह मूर्खता है। हमें आँखें फिरा देनी है। ऐसा करते भी, देख लिया तो प्रतिक्रमण कर लेना। एक मिनट के लिए भी प्रतिक्रमण मत चूकना। खाने-पीने में उलटा हुआ होगा तो चलेगा। संसार का सबसे बड़ा रोग ही यह है। इसे लेकर ही संसार खड़ा रहा है। इसकी जड़ों पर संसार खड़ा है। यही उसकी जड़ है। हक़ का खाये तो मनुष्य में आयेगा, बिना हक़ का (हराम का) खाये तो जानवर में जायेगा। प्रश्नकर्ता : हमने हराम का तो खाया है। दादाश्री : खाया है तो प्रतिक्रमण कीजिए, अब भी भगवान बचायेंगे। अब भी देरासर (मंदिर) में जाकर पश्चाताप कीजिए। हराम का खाया हो तो अब भी पश्चाताप कीजिए, अभी जीवित हो। इस देह में हो वहाँ तक पश्चाताप कीजिए। प्रश्नकर्ता : एक डर लगा, अभी आपने कहा कि सत्तर प्रतिशत लोग वापस चार पैर में जानेवाले हैं तो अब भी हमारे पास अवकाश है कि नहीं? दादाश्री : नहीं, नहीं। अवकाश रहा नहीं है, इसलिए अब भी सावधानी बरतो कुछ... प्रश्नकर्ता : महात्माओं की बात करते हैं। दादाश्री : महात्मा, यदि मेरी आज्ञा में रहे तो उसका नाम इस दुनिया में कोई लेनेवाला नहीं है। अर्थात् लोगों से क्या कहता हूँ कि अब भी सावधान हो सकें तो हो जाइए। अब भी माफ़ी माँग लेंगे न, तो माफ़ी माँगने का रास्ता है। हमने किसी रिश्तेदार को, इतना लम्बा कागज़ लिखा हो, और अंदर हमने बहुत सारी गालियाँ लिखी हो, सारा खत केवल गालियों से ही भरा हो, और फिर नीचे लिखें कि आज वाइफ के साथ झगडा हो गया है, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण इसलिए आपको ऐसा लिख दिया है पर मुझे क्षमा कर दीजियेगा। तो सारी गालियाँ मिट जायेंगी या नहीं मिट जायेगी? अर्थात् पढ़नेवाला सारी गालियाँ पढ़ेगा, खुद गालियाँ स्वीकार भी करेगा और फिर माफ़ भी करेगा ! अर्थात् ऐसी यह दुनिया है। इसलिए हम तो कहते हैं न कि माफ़ी माँग लेना, आपके इष्टदेव से माँग लेना। और नहीं तो मुझ से माँग लेना। मैं आपको माफ़ कर दूंगा। पर बहुत विचित्र काल आ रहा है और उसमें चन्दुभाई अपनी मनमानी करते है, उसका कोई अर्थ नहीं है न! जीवन जिम्मेदारी से भरा है ! इसलिए सत्तर प्रतिशत तो मैं डरते-डरते कहता हूँ । अब भी आपको चेतना हो तो चेत जाइए। यह आखिरी भरोसा आपको देते हैं। भयंकर दुःख ! अभी भी प्रतिक्रमण रूपी हथियार देते हैं। प्रतिक्रमण करेंगे तो अभी भी बचने का कुछ अवकाश है और हमारी आज्ञा से करेंगे तो आपका तुरंत कल्याण होगा। पाप भुगतने होंगे मगर इतने सारे नहीं । ६३ हजारों लोगों की उपस्थिति में कोई कहे कि, 'चन्दुभाई में अक्ल नहीं है।' तब हमें उन्हें आशीर्वाद देने का दिल हो कि अहो, अहो, हम जानते थे कि चन्दुभाई में अक्ल नहीं है पर यह तो वे भी जानते हैं, तब जुदापन रहेगा! यह चन्दुभाई को हम रोज बुलायें कि आइए, चन्दुभाई आइए ! और फिर एक दिन नहीं बुलायें, उसकी क्या वजह? उसे विचार आयेगा कि आज मुझे आगे नहीं बुलाया। हम उसे चढ़ाये-गिरायें, चढ़ाये- गिरायें, ऐसा करते-करते वह ज्ञान पायें। हमारी प्रत्येक क्रिया ज्ञान प्राप्त कराने हेतु होती है। प्रत्येक के साथ अलग-अलग होगी, उसकी प्रकृति निकल ही जानी चाहिए न ! प्रकृति तो खतम करनी ही होगी। परायी चीज़ कहाँ तक हमारे पास रहेगी? प्रश्नकर्ता: सच बात है, प्रकृति खतम किये बगैर छुटकारा नहीं है। दादाश्री : हं। हमारी तो कुदरत ने खतम कर दी, हमारी तो ज्ञान से खतम हुई। और आपकी तो हम खतम कर देंगे, हम निमित्त हैं न ! न? प्रतिक्रमण १९. झूठ के आदी को प्रश्नकर्ता : हम झूठ बोलें हो, वह भी कर्मबंधन हुआ ही कहलाये दादाश्री : अवश्य ही ! पर झूठ बोलने से भारी कर्म तो झूठ बोलने का भाव करें, वह कहलाये। झूठ बोलना तो मानों कर्म फल है। झूठ बोलने का भाव ही, झूठ बोलने का हमारा निश्चय, उससे कर्मबंधन होता है। आपकी समझ में आया? यह वाक्य आपकी हेल्प (मदद करेगा कुछ ? क्या हेल्प करेगा? प्रश्नकर्ता: झूठ बोलने से थमना चाहिए। दादाश्री : नहीं, झूठ बोलने का अभिप्राय ही छोड़ देना चाहिए। और झूठ बोल दिया तो पश्चाताप करना चाहिए कि 'क्या करूँ? ऐसा झूठ बोलना नहीं चाहिए।' लेकिन झूठ बोला जाना बंद नहीं हो सकेगा, पर वह अभिप्राय बंद हो जायेगा। 'अब आज से झूठ नहीं बोलूँगा, झूठ बोलना यह महापाप है, महा दुःखदायी है, और झूठ बोलना वही बंधन है।' ऐसा आपका अभिप्राय यदि हो गया तो आपके झूठ बोलने संबंधी पाप बंद हो जायेंगे। 'रीलेटिव धर्म' कैसा होना चाहिए? कि झूठ बोला जाय तो बोलिए, मगर उसका प्रतिक्रमण कीजिए। न? २०. जागृति, वाक्धारा बहे तब .... मन का उतना हर्ज नहीं, वाणी का हर्ज है। क्योंकि मन तो गुप्त रीति से चलता होगा, पर वाणी तो सामनेवाले की छाती में घाव करे। इसलिए इस वाणी से जिन-जिन लोगों को दुःख हुआ हो उन सभी की क्षमा चाहता हूँ, ऐसे प्रतिक्रमण कर सकते हैं। प्रश्नकर्ता: प्रतिक्रमण से वाणी के वे सारे दोष माफ़ हो जायेंगे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ६५ ६६ प्रतिक्रमण दादाश्री : इस वाक्य का आधार ले ही नहीं सकते। उस समय तो आपको प्रतिक्रमण का आधार दिया गया है। सामनेवाले को दु:ख हो ऐसा बोला जाये तो प्रतिक्रमण कर लेना। और सामनेवाला कुछ भी बोले, तब वाणी पर है और पराधीन है, उसका स्वीकार किया, इसलिए आपको सामनेवाले का दु:ख रहा ही नहीं न? दादाश्री : दोषों का अस्तित्व रहेगा, पर जली हुई रस्सी के समान रहेगा। यानी अगले जनम में हमने 'यु' किया कि सब जायें, प्रतिक्रमण से, उसमें से सत्त्व ऊड़ जाये सारा। कर्ता का आधार होने पर कर्म बंधेगे। अब आप कर्ता नहीं है. फिर भी पिछले कर्म जो थे, वे फल दे कर जायेंगे। नये कर्म बंधेगे नहीं। प्रश्नकर्ता : मनुष्य अकुलाकर बोले वह अतिक्रमण नहीं हुआ? दादाश्री : अतिक्रमण ही कहलाये। प्रश्नकर्ता : किसी को दुःख हो ऐसी वाणी निकल गई और उसका प्रतिक्रमण नहीं हुआ तो क्या होगा? दादाश्री : ऐसी वाणी निकल गई, तब उससे तो सामनेवाले को घाव होगा, इसलिए उसे दु:ख होगा। सामनेवाले को दुःख हो यह हमें कैसे भाये? प्रश्नकर्ता : उससे बंधन होगा? दादाश्री : यह कानून के विरुद्ध कहलाये न। कानून के विरूद्ध सही न? कानून के विरूद्ध तो नहीं होना चाहिए न? हमारी आज्ञा पाले, वह धर्म कहलाये। और प्रतिक्रमण करने में नुकसान क्या है हमें? माफ़ी माँग लें और फिर से नहीं करूँगा ऐसे भाव भी रखना। बस इतना ही। थोड़े में निबटाना, उसमें भगवान क्या करे? उसमें न्याय कहाँ देखने को जाये? यदि व्यवहार को व्यवहार समझा, तो न्याय समझ लिया! पड़ोसी उलटा क्यों बोल गये? क्योंकि हमारा व्यवहार ऐसा था इसलिए। और हम से वाणी उलटी निकले तो वह सामनेवाले के व्यवहार के अधीन है। पर हमें तो मोक्ष चाहिए, इसलिए उसका प्रतिक्रमण कर लें। प्रश्नकर्ता : सामनेवाला उलटा बोले तब अपने ज्ञान से समाधान रहता है, लेकिन मुख्य सवाल यह है कि, हमारे से कडुआ निकलता है, उस समय हम 'वाणी पर है और पराधीन है' इस वाक्य का आधार लें तो हमें उलटा लायसन्स मिल जाता है। प्रश्नकर्ता : परमार्थ हेतु थोड़ा झूठ बोलने पर दोष लगेगा? दादाश्री : परमार्थ अर्थात आत्मा के लिए जो कछ भी किया जाये. उसमें दोष नहीं लगता और देह के खातिर जो कुछ भी किया जाये, कुछ गलत किया तो दोष लगेगा और अच्छा किया तो फायदेमंद लगेगा। आत्मा के लिए जो कुछ भी किया जाये उसमें हरकत नहीं है। हाँ, आत्महेतु हो, उसके संबंधी जो जो कार्य हो, उसमें कोई दोष नहीं है। सामनेवाले को हमारे निमित्त से दुःख पहुँचे तो दोष लगता है। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण का असर नहीं होने का कारण क्या है? हमने पूर्ण भाव से नहीं किया या सामनेवाले व्यक्ति के आवरण है? दादाश्री : सामनेवाले व्यक्ति को हमे नहीं देखना है। वह तो पागल भी होगा। हमारे कारण उसको दु:ख नहीं होना चाहिए, बस! प्रश्नकर्ता : अर्थात् किसी भी तरह, उसे दुःख होने पर, उसका समाधान करने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। दादाश्री : उसे दुःख होने पर समाधान अवश्य करना चाहिए। वह हमारी 'रिस्पोन्सिबिलिटि' (जिम्मेदारी) है। हाँ, दु:ख नहीं हो उसके लिए तो हमारी लाइफ (जिन्दगी) है। प्रश्नकर्ता : पर मान लिजिए कि ऐसा करने पर भी सामनेवाले का समाधान नहीं होता हो, तो फिर हमारी जिम्मेदारी कितनी? दादाश्री : रूबरू जाकर यदि आँखों से बन सके तो आँखों में नरमी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ६८ प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : वह तो विनोद कहलाये। ऐसा तो होता रहता है न? दादाश्री : नहीं, फिर भी हमें प्रतिक्रमण करने होंगे। आप नहीं करे तो चलेगा। पर हमें तो करने होंगे। वरना हमारा यह ज्ञान, यह टेपरिकार्ड बजता है (जो वाणी निकलती है) न, वह फिर धुंधला निकले। बाक़ी, मैंने हर तरह के मज़ाक किये थे। हमेशा हर तरह का मज़ाक कौन करेगा? बहुत टाइट ब्रेन (तेज दिमाग़) होगा वह करेगा। मैं तो मौज में आकर सभी का मजाक किया करता था, अच्छे-अच्छे लोगों का, बड़ेबड़े वकीलों का, डॉक्टरों का मजाक उडाता था। अब वह सारा अहंकार गलत ही था न ! वह हमारी बुद्धि का दुरुपयोग ही किया न! मजाक उड़ाना यह बुद्धि की निशानी है। प्रश्नकर्ता : मज़ाक उड़ाने में क्या-क्या जोखिम है? किस तरह के जोखिम आते है? दिखाना। फिर भी ऐसे माफ़ी माँगने पर भी ऊपर से चपत लगाये तो समझना कि यह नालायक है। फिर भी निपटारा करने का है। माफ़ी माँगने पर चपत पड़े तो समझना कि इसके साथ भूल तो हुई है, पर नालायक मनुष्य है इसलिए झूकना बंद कर दें। प्रश्नकर्ता : हेतु अच्छा हो तो फिर प्रतिक्रमण करने का? दादाश्री : प्रतिक्रमण तो करना पड़ेगा, उसको दुःख हुआ इसलिए। व्यवहार में लोग कहेंगे कि देखिए यह औरत, मरद को कैसा धमकाती है। फिर प्रतिक्रमण करना पड़े। जो आँख से दिखाई पड़े उसका प्रतिक्रमण करने का। अंदर हेतु आपका सोने का हो मगर किस काम का? नहीं चलेगा ऐसा हेतु। हेतु नरदम सोने का हो फिर भी हमें प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। भूल होने पर प्रतिक्रमण करना होगा। यह सभी महात्माओं की इच्छा है। अब जगतकल्याण की भावना है। हेतु अच्छा है पर फिर भी नहीं चलेगा। प्रतिक्रमण तो पहले करना होगा। कपड़े पर दाग़ लगने पर धो डालते हो न? ऐसे ये कपड़े पर के दाग़ हैं। प्रश्नकर्ता : व्यवहार में कोई गलत करता हो तो उसे टोकना पड़ता है। इससे उसे दु:ख होता है, तो उसका निपटारा कैसे करें? दादाश्री : व्यवहार में टोकना पड़े, पर उसमें अहंकार समेत होता है इसलिए प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रश्नकर्ता : टोके नहीं तो वह सिर पे चढ़ जाये न? दादाश्री : टोकना तो चाहिए पर कैसे कहे वह जानना चाहिए। कहना नहीं जाने, व्यवहार नहीं जाने, अत: अहंकार समेत टोकना होता है। इसलिए बाद में उसका प्रतिक्रमण करें। आप सामनेवाले को टोकेंगे इससे उसे बुरा तो लगेगा, पर उसका बार-बार प्रतिक्रमण करने पर, छह-बारह महीने में वाणी ऐसी निकलेगी की सामनेवाले को मीठी लगेगी। अब हम भी किसी का विनोद करें तो उसके भी प्रतिक्रमण हमें करने पड़ते हैं। हमें भी ज्यों का त्यों ऐसा नहीं चलेगा। दादाश्री : ऐसा है न, किसी को थप्पड़ मारा हो और जो जोखिम आये उससे अनेक गुना जोखिम मज़ाक उड़ाने में है। उसकी बुद्धि नहीं पहुँचती थी, इसलिए आपने उसे आपकी बुद्धि की लाइट (प्रकाश) से आपके क़ब्जे में किया। प्रश्नकर्ता : जिसे नया टेप नहीं उतारना हो, उसके लिए कौनसा मार्ग? दादाश्री : कुछ भी स्पंदन नहीं होने दें। सब कुछ देखा ही करें। पर ऐसा होता नहीं न! यह (देह) भी मशीन ही है और ऊपर से पराधीन है। इसलिए हम दूसरा रास्ता दिखाते हैं कि टेप उतरने बाद तुरन्त मिटा दें तो चलेगा। यह प्रतिक्रमण मिटाने का साधन है। इससे एकाध जनम में परिवर्तन होकर सब (फिजूल) बोलना बंद हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा का लक्ष्य होने से निरंतर प्रतिक्रमण जारी ही रहता है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ६९ दादाश्री : इसलिए आपकी जिम्मेदारी नहीं रहती। जो बोलना हुआ उसका प्रतिक्रमण करें इसलिए जिम्मेदारी नहीं रहेती। कड़ा बोलें मगर रागद्वेष रहित हो कर बोलें। कड़ा बोलने पर तुरन्त प्रतिक्रमण कर लें। मन-वचन-काया का योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म, चन्दुलाल और चन्दुलाल के नाम की सर्व माया से भिन्न ऐसे 'शुद्धात्मा' को याद करके कहना, 'हे शुद्धात्मा भगवन्, मेरे से ऊँची आवाज में बोला गया वह भूल हुई। अतः उसकी माफ़ी माँगता हूँ। और वह भूल अब फिर से नहीं करूंगा ऐसा निश्चय करता हूँ। ऐसी भूल नहीं करने की शक्ति दीजिए।' शुद्धात्मा को याद किया अथवा 'दादा' को याद किया और कहा कि, 'यह भूल हो गई' अर्थात् वह आलोचना, उस भूल को धो डालना वह प्रतिक्रमण और ऐसी भूल दोबारा नहीं करूँगा ऐसा निश्चय करना वह प्रत्याख्यान है। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण के पश्चात् हमारी वाणी बहुत अच्छी हो जायेगी, इसी जन्म में ही? दादाश्री : उसके पश्चात् तो कुछ और ही तरह की होगी। हमारी वाणी सर्वश्रेष्ठ कक्षा की निकलती है उसका कारण ही प्रतिक्रमण है और निर्विवादी है उसका कारण भी प्रतिक्रमण ही है। वरना विवाद ही होगा। सर्वत्र विवादास्पद वाणी ही होगी। व्यवहारशुद्धि के बगैर स्याद्वाद वाणी निकलेगी ही नहीं। व्यवहारशुद्धि पहले होनी चाहिए। २१. प्रकृति दोष छूटें ऐसे..... इस सत्संग का पोझन (जहर) पीना अच्छा है मगर बाहर का अमृत पीना बुरा है। क्योकिं यह पोझन प्रतिक्रमण युक्त है। हम जहर के सारे प्याले पीकर महादेवजी हुए हैं। प्रश्नकर्ता : आपके पास आने को बहुत सोचतें है मगर आ नहीं दादाश्री : आपके हाथ में कौन-सी सत्ता है? आने को सोचें, किंतु पाते। प्रतिक्रमण आ नहीं पाते उसका मन में खेद रहना चाहिए। हम उसे कहें कि चन्दुभाई, प्रतिक्रमण कीजिए, जल्दी हल निकलेगा। नहीं जा पाते इसलिए प्रतिक्रमण कीजिए, प्रत्याख्यान कीजिये, ऐसी भूल-चूक हुई, इसलिए अब दोबारा भूल-चूक नहीं करूँगा। ७० और अभी जो भाव आते हैं वे क्यों ज्यादा आते हैं? और कार्य क्यों नहीं होता? भाव आने की वजह यह है कि कमिंग ईवेन्टस कास्ट देर शेडोझ बीफोर (जो होनेवाला है उसका प्रतिघोष पहले पड़ेगा ) । ये सभी बातें होनेवाली है। प्रश्नकर्ता : यह चिंता हो जाये उसका प्रतिक्रमण कैसे करना ? दादाश्री : 'यह मेरे अहंकार के कारण चिंता होती है। मैं उसका कर्ता थोड़े ही हूँ? अतः दादा भगवान! क्षमा कीजिये।' ऐसा कुछ न कुछ करना तो पड़ेगा न? उस बिना कैसे टिके? प्रश्नकर्ता: हम 'बहुत ठंड पड़ती है, बहुत ठंड पड़ती है' कहें तो वह कुदरत के खिलाफ बोले तो उसका प्रतिक्रमण करने का ? दादाश्री : नहीं, प्रतिक्रमण तो जहाँ राग-द्वेष होता हो, 'फाइल' हो वहाँ करें। कढ़ी खारी हो उसका प्रतिक्रमण मत करें। लेकिन जिसने खारी बनाई उसका प्रतिक्रमण करें। प्रतिक्रमण से सामनेवाले की परिणति परिवर्तित होती है। पेशाब करने गया वहाँ एक चींटी बह गई तो हम प्रतिक्रमण करेंगे। उपयोग नहीं चूकते। बह गई वह 'डिस्चार्ज' रूप से है पर उस समय अतिक्रमण दोष क्यों हुआ? जागृति मंद क्यों हुई? उसका दोष लगेगा। पढ़ते समय पुस्तक को नमस्कार करके कहना कि, 'दादाजी, मुझे पढ़ने की शक्ति दीजिए।' और यदि कभी भूल गये तो उपाय करना। दोबार नमस्कार करना और कहना कि 'दादा भगवान, मेरी इच्छा नहीं थी, फिर भी भूल गया, इसलिए उसकी माफ़ी चाहता हूँ। अब फिर से ऐसा नहीं होगा।' Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ७२ प्रतिक्रमण समय पर विधि करना भूल जायें और बाद में याद आये तो बाद में प्रतिक्रमण करें। 'डिस्चार्ज में' जो अतिक्रमण हुए हैं उसके हम प्रतिक्रमण करते हैं। सामनेवाले को दुःख पहुँचाये ऐसे 'डिस्चार्ज' के प्रतिक्रमण करने हैं। यहाँ महात्माओं का अथवा दादाजी का कुछ भला किया हो उसके प्रतिक्रमण नहीं करने होंगे लेकिन बाहर किसी और का भला किया हो तो उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा क्योंकि स्व-उपयोग चूकने पर उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने पर सामनेवाले को पहुँचेगा? दादाश्री : सामनेवाले को पहुँचे, नरम होता जाये। उसे मालूम हो या न हो, लेकिन उसका हमारे प्रति भाव नरम होता जाये। हमारे प्रतिक्रमण तो बहुत असरकारी है। यदि एक घंटा प्रामाणिक रूप से हुए हो तो सामनेवाले में परिवर्तन आ जाता है। हम जिसका प्रतिक्रमण करें वह हमारे दोष तो नहीं देखेगा पर हमारे लिए उसको सम्मान उत्पन्न होगा। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करें तो नया 'चार्ज' नहीं करतें? दादाश्री : आत्मा कर्ता होने पर कर्म बंधेगा। प्रतिक्रमण आत्मा नहीं करता है। चन्दुभाई करें और आप उसके ज्ञाता-दृष्टा रहें। निजस्वरूप की प्राप्ति के पश्चात् सच्चे प्रतिक्रमण होंगे। प्रतिक्रमण करनेवाला चाहिए, प्रतिक्रमण करानेवाला चाहिए। हमारा प्रतिक्रमण माने क्या? कि गड़ारी खोलते समय जितने टूकड़े हो उसे जोड़कर स्वच्छ कर डालें वह हमारा प्रतिक्रमण है। प्रश्नकर्ता : नींद में से जागते ही प्रतिक्रमण शुरू होते हैं। दादाश्री : यह 'प्रतिक्रमण आत्मा' हुआ। शुद्धात्मा तो है पर यह प्रतिष्ठित आत्मा वह 'प्रतिक्रमण आत्मा' हो गया। लोगों को कषायी आत्मा है। इस संसार में कोई एक भी प्रतिक्रमण कर सके ऐसा नहीं है। जैसे जैसे नक़द प्रतिक्रमण होता जाये वैसे वैसे शुद्ध होता जाये। अतिक्रमण के सामने हम प्रतिक्रमण नक़द करें, अत: मन-वाणी शुद्ध होते जायें। प्रतिक्रमण माने बीज भुनकर बोना। आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान माने प्रतिदिन का लेखा-जोखा निकालना। जितने दोष दिखाई पड़े उतना कमाये। उतने प्रतिक्रमण करना। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण न हो वह प्रकृति दोष है या वह अंतराय कर्म है? दादाश्री : वह प्रकृति दोष है और वह प्रकृति दोष हर जगह नहीं होता। कुछ जगह दोष होगा और कुछ जगह नहीं होगा। प्रकृति दोष में प्रतिक्रमण नहीं हो, तो उसमें हर्ज नहीं है। हमें तो यही देखना है कि हमारा भाव क्या है? दूसरा कुछ हमें नहीं देखना है। आपकी इच्छा प्रतिक्रमण करने की है न? प्रश्नकर्ता : हाँ, पूर्णतया। दादाश्री : फिर भी प्रतिक्रमण नहीं होता, तो वह प्रकृति दोष है। प्रकृति दोष में आप जिम्मेदार नहीं है। कभी-कभी प्रकृति आवाज उठायेगी और कभी नहीं भी उठाये। यह तो बाजा कहलाये, बजेगा तो बजेगा, वरना नहीं भी बजता। इसे अंतराय नहीं कहते। प्रश्नकर्ता : 'समभाव से निपटारा' करने का दृढ निश्चय होने पर भी झगड़ा खड़ा रहता है, ऐसा क्यों? दादाश्री : कितनी जगह ऐसा होता है? सौएक जगह? प्रश्नकर्ता : एक ही जगह होता है। दादाश्री : तो वह निकाचित कर्म है। वह निकाचित कर्म कैसे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ७३ ७४ प्रतिक्रमण धुलेगा? आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान से। उससे कर्म हलका हो जायेगा। उसके पश्चात् ज्ञाता-द्रष्टा रहा जाये। उसके लिए तो प्रतिक्रमण निरंतर करना पड़ेगा। जितने 'फोर्स' (प्रबलता) से निकाचित हुआ हो, उतने ही 'फोर्स'वाले प्रतिक्रमण से वह धुलेगा। प्रश्नकर्ता : हम तय करें कि भविष्य में ऐसा नहीं करना। ऐसी भूल फिर करनी ही नहीं है। ऐसा हंडेड परसेन्ट (शत प्रतिशत) भाव के साथ तय करें, फिर भी ऐसी भूल दोबारा होगी कि नहीं होगी? वह अपने हाथ में है क्या? दादाश्री : वह तो होगी न दोबारा। ऐसा है न कि आप एक गेंद यहाँ लाये और मुझे दी। मैंने नीचे पटक दी। मैंने ऐसा एक ही बार किया। मैंने तो गेंद एक ही बार पटकी। अब मैं कहँ कि अब मेरी इच्छा नहीं है। तू उछलना बंद कर दे, तो क्या वह उछलना बंद कर देगी? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : तब क्या होगा? प्रश्नकर्ता : वह तो तीन-चार-पाँच बार उछलेगी। दादाश्री : अर्थात् अपने हाथ से फिर नेचर (कुदरत) के हाथों में गई। फिर नेचर जब बंद करे तब; तो ऐसा यह सब है। हमारी जो भूलें हैं, वे नेचर के हाथ में जाती है। _ 'ज्ञान' नहीं लिया हो तो प्रकृति सारा दिन उलटी ही चला करेगी और अब तो सुलटी ही चला करे। तू सामनेवाले को सुना देगा, पर भीतर से आवाज आयेगी कि, 'नहीं, नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। सुना देने का विचार आया उसका प्रतिक्रमण कीजिए।' और ज्ञान से पहले तो सुना ही देता और ऊपर से कहता कि और सुनाने जैसा था। मनुष्यों का स्वभाव कैसा है कि जैसी प्रकृति हो वैसा खुद हो जाये। जब प्रकृति में सुधार नहीं होता तो कहेगा, 'पीछा छोडो'! अरे, बाहर नहीं सुधरे तो कुछ हर्ज नहीं है, तू खुद को भीतर सुधार! फिर हमारी रिस्पोन्सिबिलिटी (जिम्मेदारी) नहीं है!! इतना भारी यह 'साइंस' (विज्ञान) है!!! बाहर कुछ भी हो उसकी रिस्पोन्सिबिलिटी ही नहीं है। इतना समझ में आ जाये तो हल आ जाये। २२. निपटारा, चिकनी फाइलों से बहुत से लोग मुझे कहते हैं कि, 'दादाजी, समभाव से निपटारा करने जाता हूँ मगर होता नहीं है!' तब मैं कहता हूँ, अरे भैया, निपटारा करने का नहीं है! तुझे समभाव से निपटारा करने का भाव ही रखने का है। समभाव से निपटारा हो या नहीं हो। तेरे अधीन नहीं है। तू मेरी आज्ञा में रहा कर न! उससे तेरा बहुतेरा काम पूरा हो जायेगा और पूरा न हुआ तो वह 'नेचर' के अधीन है। सामनेवाले के दोष दिखाई पड़ना बंद हो तो संसार छूटेगा। हमें गालियाँ सुनायें, नुकसान करें, पीटें तब भी दोष दिखाई नहीं पड़े तब संसार छूटेगा। वरना संसार छूटेगा नहीं। अब सभी लोगों के दोष दिखाई पड़ना बंद हो गये? प्रश्नकर्ता : हाँ, दादाजी। कोई बार दोष नज़र आने पर प्रतिक्रमण कर लेता हूँ। दादाश्री : रास्ता यह है कि 'दादाजी की आज्ञा में रहना है', ऐसा निश्चय करके दूसरे दिन से शुरूआत कर दें। और जितना आज्ञा में रहा प्रश्नकर्ता : नेचर के हाथ में गया, तो फिर प्रतिक्रमण करने से क्या लाभ होता है? दादाश्री : बहुत असर होगा। प्रतिक्रमण से तो सामनेवाले पर इतना भारी असर होता है कि यदि एक घंटा एक आदमी का प्रतिक्रमण करोगे तो उस आदमी के अंदर कुछ नई तरह का, भारी, जबरदस्त परिवर्तन होगा। प्रतिक्रमण करनेवाले ने तो यह ज्ञान प्राप्त किया हुआ होना चाहिए। शुद्ध हुआ, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसी समझवाला, तो उसके प्रतिक्रमण का बहुत भारी असर होगा। प्रतिक्रमण तो हमारा सब से बड़ा हथियार है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ७५ ७६ प्रतिक्रमण नहीं जाये उनके प्रतिक्रमण करते रहे। और घर के सारे सदस्यों को संतोष दे, समभाव से निपटारा करके। फिर भी घर के सभी उछलकूद करें तो हम देखा करें। हमारा पिछला हिसाब है इसलिए उछलकूद करेंगे। यह तो आज ही तय किया। अर्थात् घर के सभी को प्रेम से जीतें। वह तो फिर खुद को भी पता चलेगा कि अब सब ठिकाने लग रहा है। फिर भी घर के लोग अभिप्राय दें तभी तो मानने योग्य कहलाये। आखिर तो उसके पक्ष में ही होंगे, घर के लोग।' प्रश्नकर्ता: हम जो प्रतिक्रमण करते हैं उस प्रतिक्रमण का परिणाम इस मूल सिद्धांत पर है कि, 'हम सामनेवाले के शद्धात्मा को देखते हैं तो उसके प्रति जो भाव है, बुरा भाव है, वे कम होंगे न?' दादाश्री : हमारे बुरे भाव टूट जायें। हमारे खुद के लिए ही है यह सब। सामनेवाले को लेना-देना नहीं है। सामनेवाले में शद्धात्मा देखने का इतना ही हेतु है कि हम शुद्ध दशा में, जागृत दशा में हैं। प्रश्नकर्ता : तो उसको हमारे प्रति जो बुरा भाव होगा वह कम होगा न? दादाश्री : नहीं, कम नहीं होगा। आप प्रतिक्रमण करें तो होगा। शुद्धात्मा देखने से नहीं होता, पर प्रतिक्रमण करें तो कम होगा। प्रश्नकर्ता : हम प्रतिक्रमण करें तो उस आत्मा को असर होगा कि नहीं? दादाश्री : असर होगा। शुद्धात्मा देखने पर भी फायदा होगा लेकिन तुरंत फायदा नहीं होगा। बाद में आहिस्ता, आहिस्ता, आहिस्ता! क्योंकि शुद्धात्मा रूप से किसी ने देखा ही नहीं है। अच्छा आदमी और बुरा आदमी इस दृष्टि से देखा है। बाकी शुद्धात्मा दृष्टि से किसी ने देखा नहीं है। यदि बाघ के साथ प्रतिक्रमण करें तो बाध भी हमारे कहने के मुताबिक काम करे। बाघ में और मनुष्य में कुछ फर्क नहीं है। फर्क आपके स्पंदनो का है, जिसका उसको असर होता है। बाघ हिंसक है ऐसा आपके ध्यान में होगा, वहाँ तक वह खद हिंसक ही रहेगा और बाघ शुद्धात्मा है ऐसा लक्ष में रहे तो वह शुद्धात्मा ही है और अहिंसक रहेगा। सब कुछ संभव है। एक बार आम के पेड़ पर बंदर आया हो और आम तोड डाले तो परिणाम कहाँ तक बिगड़ेगा? कि यह आम का पेड़ काट देतें तो अच्छा। ऐसा सोच डालें। अब भगवान की साक्षी में निकली वाणी क्या व्यर्थ थोड़ी जायेगी? परिणाम नहीं बिगड़ता तो कुछ भी नहीं है। सब शांत हो जाये, बंद हो जाये। ये सभी हमारे ही परिणाम है। हम आज से किसी के लिए स्पंदन करने का, किंचित्मात्र किसी के लिए सोचना बंद कर दें। विचार आने पर प्रतिक्रमण करके धो डालना। अतः सारा दिन बिना किसी स्पंदन के गया! इस प्रकार दिन गुजरा तो बहुत हो गया, यही पुरुषार्थ है। यह ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् नये पर्याय अशुद्ध नहीं होते, पुराने पर्यायों को शुद्ध करने है और समता रखनी है। समता माने वीतरागता। नये पर्याय बिगड़ते नहीं, नये पर्याय शुद्ध ही रहेंगे। पुराने पर्याय अशुद्ध हुए हो, उसका शुद्धिकरण करें। हमारी आज्ञा में रहने से उसका शुद्धिकरण होगा और आपको समता में रहना होगा। प्रश्नकर्ता : दादाजी, ज्ञान प्राप्ति से पहले के इस जीवन के जो पर्याय बँध गये हो, उसका निराकरण कैसे होगा? दादाश्री : अभी हम जीवित है, वहाँ तक पश्चाताप करके उन्हें धो डालें, पर वे कुछ ही, सारा निराकरण नहीं होगा। पर ढीला तो जरूर हो जायेगा। ढीला पड़ने पर अगले जनम में हाथ लगाया कि तुरन्त गांठ खुल जायेगी। प्रश्नकर्ता : आपका ज्ञान प्राप्त होने से पहले नर्क का बंध पड़ गया हो तो नर्क में जाना होगा न? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ७७ दादाश्री : ऐसा है न कि यह ज्ञान ही ऐसा है कि सारे पाप भस्मीभूत हो जाते हैं, बंध खुल जाते हैं। नर्क में जानेवाले हो मगर वे प्रतिक्रमण करें, जीवित हो वहाँ तक, तो उसका धो जायेगा। पत्र पोस्ट में डालने से पहले आप लिख दे कि उपरोक्त वाक्य लिखते समय मन का ठिकाना नहीं था तो वह मिट जायेगा । प्रश्नकर्ता: प्रायश्चित से बंध खुल जायेगा ? दादाश्री : हाँ, खुल जायेगा। कुछ ही प्रकार के बंध हैं, जो कर्मों का प्रायश्चित करने से दोहरी गाँठ से ढ़ीले हो जायेंगे। अपने इस प्रतिक्रमण में तो बहुत शक्ति है। दादाजी को हाजिर रखकर करें तो काम बन जाये। कर्म के धक्के से जनम होने होंगे वे होंगे, शायद एक-दो जनम, पर उसके बाद सीमंधर स्वामी के पास ही जाना होगा। यह यहाँ का धक्का, पहले से बँधे हिसाब अनुसार, कुछ चिकना किया हुआ, वह पूरा हो जायेगा। उसमें छूटकारा ही नहीं! यह तो रघा सुनार की तराजू है। न्याय, जबरदस्त न्याय ! शुद्ध न्याय ! प्यार न्याय ! उसमें नहीं चलता पोलम्पोल । प्रश्नकर्ता: प्रतिक्रमण करने से कर्म के धक्के कम होंगे? दादाश्री : कम होंगे न! और जल्दी निबटारा हो जाये। प्रश्नकर्ता : जिसकी क्षमापना माँगने की है उस व्यक्ति का देहविलय हो गया तो क्या करें? दादाश्री : देहविलय हो गया हो, फिर भी हम उसकी फोटो हो, उसका चहेरा याद हो, तो कर सकते हैं। चहेरा जरा भी याद नहीं हो और नाम मालूम हो तो नाम लेकर भी कर सकते हैं, तो उसे सब पहुँच जाये। २३. मन मनाये मातम तब महात्माओं को भाव- अभाव होता है मगर वह निकाली कर्म है। भावकर्म नहीं है। क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष और भावाभाव, वे प्रतिक्रमण सभी निकाली कर्म हैं। उनका समभाव से निपटारा करने का है। इन कर्मों का प्रतिक्रमण के साथ निपटारा होता है, वैसे के वैसे निपटारा नहीं होगा । ७८ प्रश्नकर्ता: कभी हमारा अपमान हो जाये तो वहाँ मन का प्रतिकार जारी रहता है, वाणी से प्रतिकार शायद नहीं हो। दादा श्री उस वक्त क्या हो गया, उसमें हमें कोई हर्ज नहीं है। अरे, देह से भी प्रतिकार हो गया, तब भी वह जितनी जितनी शक्ति होगी, उसके अनुसार व्यवहार होता है। जिसकी संपूर्ण शक्ति उत्पन्न हो गई है, उसका मन का प्रतिकार भी बंद हो जायेगा। फिर भी हम क्या कहते हैं? मन से प्रतिकार जारी रहे, वाणी से प्रतिकार हो जाये, अरे! देह से भी प्रतिकार हो जाये। तो तीनों प्रकार की निर्बलता प्रकट हुई, इसलिए वहाँ तीनों तरह का प्रतिक्रमण करना होगा। प्रश्नकर्ता: विचार के प्रतिक्रमण करने होंगे? दादाश्री : विचारों को देखें, उसके प्रतिक्रमण नहीं करने होते । किसी के लिए बहुत बुरे विचार हो तो उसके प्रतिक्रमण करने होंगे। परंतु किसी का नुकसान करनेवाली चीज़ होने पर ही ऐसे ही आये, कहीं से कुछ भी आये, गाय- -भैंस के सभी तरह के विचार आये, वे तो ज्ञान हाजिर करके देखें तो उड़ जायें। उन्हें केवल देखना है। उसके प्रतिक्रमण नहीं होते। प्रतिक्रमण तो हमारा तीर किसी को लगा हो, तो ही करने होते है। यह हम यहाँ सत्संग में आयें और यहाँ कुछ लोग खडे हो, तो मन में होगा कि ये लोग यहाँ क्यों खड़े हैं? इससे मन के भाव बिगडेंगे, उस भूल के लिए उसका प्रतिक्रमण वहीं का वहीं करना पड़े। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण कर्मफल के करें या सूक्ष्म के करें? दादाश्री : सूक्ष्म के होंगे। प्रश्नकर्ता: विचारों के या भावों के? Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण प्रत्यक्ष होना चाहिए न? दादाश्री : प्रतिक्रमण पीछे से हो तो भी कोई हर्ज नहीं है। प्रश्नकर्ता : मैंने आपकी अवहेलना की हो, अशातना की हो तो मुझे आपके सम्मुख आकर प्रतिक्रमण करना चाहिए न? दादाश्री : भावों के। विचार के पीछे भाव होगा ही। अतिक्रमण हुआ तो प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। अतिक्रमण तो मन में बुरा विचार आये. इस बहन के लिए बुरा विचार आया, तब 'विचार अच्छा होना चाहिए।' ऐसा कहकर उसे फिरा दें। मन में ऐसा लगा कि यह नालायक है, तो ऐसा विचार आया ही क्यों? हमें उसकी लायकी-नालायकी देखने का राइट (अधिकार) नहीं है। और अस्पष्ट रूप से कहना हो तो बोलें कि 'सभी अच्छे हैं' अच्छे है, कहोगे तो कर्मदोष नहीं होगा, पर यदि नालायक कहोगे तो वह अतिक्रमण कहलायेगा, इसलिए उसका प्रतिक्रमण अवश्य करना होगा। शुद्ध मन से नापसंद सहा जायेगा तभी वीतराग हो सकोगे। प्रश्नकर्ता : शुद्ध मन माने क्या? दादाश्री : शुद्ध मन माने सामनेवाले के लिए बुरा विचार नहीं आये वह, माने क्या? कि निमित्त को काटने नहीं दौडे। कदाचित् सामनेवाले के लिए बुरा विचार आये तो तुरन्त ही प्रतिक्रमण करें और उसे धो डालें। दादाश्री : यदि सम्मुख आकर करें तो अच्छी बात है (जल्दी पूरा हो जायेगा) । प्रत्यक्ष नहीं होने पर पीछे से करने पर भी समान ही फल मिलेगा (लेकिन समय ज्यादा लगेगा और प्रतिक्रमण ज्यादा करना पड़ेगा)। हम क्या कहते हैं, 'आपको दादाजी के लिए ऐसे उलटे विचार आते हैं, इसलिए उसका प्रतिक्रमण किया करें।' क्योंकि उस बेचारे का क्या दोष? विराधक स्वभाव है। आज के सभी मनुष्यों का स्वभाव ही विराधक है। दुषमकाल में विराधक जीव ही होंगे। आराधक जीव सभी चले गये। तब आज जो बचे हैं, उनमें से सुधार हो सके ऐसे कई जीव हैं, बहुत उँची आत्माएँ हैं अभी इनमें! प्रश्नकर्ता : शुद्ध मन हो जाये वह तो अंतिम स्टेज की बात है न? और जब तक पूर्णतया शुद्ध नहीं हुआ तब तक प्रतिक्रमण करने होंगे न? दादाश्री : हाँ। वह सही है, पर अमुक विषय में शुद्ध हो गया हो और अमुक विषय में नहीं हुआ हो, वे सभी स्टेपिंग (सीढ़ियाँ) हैं। जहाँ शुद्ध नहीं हुआ हो वहाँ प्रतिक्रमण करना होगा। हम शुद्धात्मा का बही खाता शुद्ध रखें। अतः चन्दुभाई से रात को कहें कि जिन-जिन का दोष नजर आया हो, उनके साथ बही खाता शुद्ध कर डालों। मन के भाव बिगड़ जायें तो प्रतिक्रमण से सब शुद्धिकरण कर डालें, अन्य कोई उपाय नहीं है। इन्कमटैक्सवाला भी दोषी नजर नहीं आये ऐसा प्रतिक्रमण करके रात को सो जायें। सारा संसार निर्दोष देखकर फिर चन्दुभाई से सो जाने को कहना। हमारे लिए उलटा विचार आने पर प्रतिक्रमण कर डालें। मन तो 'ज्ञानीपुरुष का' भी मूल उखाड़ फेंके। मन क्या नहीं करता? दग्ध मन सामनेवाले को जलायेगा। दग्ध मन तो भगवान महावीर को भी जलायेगा। प्रश्नकर्ता : 'जो गये वे किसी का कुछ भला नहीं करते' तो भगवान महावीर का अवर्णवाद उनको पहुँचेगा? दादाश्री : नहीं, वे नहीं स्वीकारते। इसलिए रिटर्न वीथ थेंक्स (साभार परत), डबल (दो गुना) हो कर आये। इसलिए खद, खद के खातिर बार-बार माफ़ी माँगते रहें। हमें जब तक वह शब्द याद नहीं आता, तब तक माफ़ी माँग-माँग करें। महावीर का अवर्णवाद किया हो तो, माफ़ी माँग-माँग करें, इसलिए तुरन्त मिट जाये, बस। छोडा गया तीर पहुँचेगा जरूर मगर वे स्वीकार नहीं करते। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण २४. आजीवन बहाव में बहते को तारे ज्ञान प्रश्नकर्ता : याद करके पिछले दोषों को देख सकते हैं? दादाश्री : पिछले दोष वास्तव में उपयोग से ही नजर आयेंगे, याद करने से नहीं नजर आयेंगे। याद करने में तो सिर खुजलाना पड़ेगा। आवरण आये इसलिए याद करना पड़े न? किसी के साथ झंझट हुई हो तो उसका प्रतिक्रमण करने पर वह व्यक्ति (चित्त में) हाजिर हो जाये। वह उपयोग ही रखने का है, हमारे मार्ग में याद करने का तो है ही नहीं। याद करना तो 'मेमरी' (स्मृति)के अधीन है। जो याद आता है वह प्रतिक्रमण करवाने के लिए आता है, शुद्ध करवाने के लिए। 'इस संसार की कोई भी विनाशी चीज़ मुझे नहीं चाहिए' ऐसा आपने तय किया है न? फिर भी याद क्यों आता है? इसलिए प्रतिक्रमण कीजिए। प्रतिक्रमण करने पर फिर से याद आने पर हम समझें कि यह अभी फरियाद है! इसलिए फिर से प्रतिक्रमण ही करने का। याद राग-द्वेष की वजह से है। यदि याद नहीं आता तो उलझी गुत्थी भूल जाते। आपको क्यों कोई फोरेनर्स (विदेशी) याद नहीं आते? और मरे हुए याद आते है? यह हिसाब है और वह राग-द्वेष की वजह से है। उसका प्रतिक्रमण करने से चोंट मिट जाती है। इच्छाएँ होती हैं वह प्रत्याख्यान नहीं हुए इसलिए। याद आता है वह प्रतिक्रमण नहीं किये इसलिए। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण मालिकीभाव का होता है न? दादाश्री : मालिकीभाव का प्रत्याख्यान होता है और दोषों का प्रतिक्रमण होता है। प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने पर भी बार-बार वह गुनाह याद आये तो उसके माने, उसमें से अभी मुक्त नहीं हुए हैं क्या? दादाश्री : यह प्याज की एक परत निकल जाये तो दूसरी परत अपने आप आ कर खड़ी रहेगी, ऐसी कई परतोंवाले गुनाह है, इसलिए एक प्रतिक्रमण करने पर एक परत हटेगी ऐसा करतें करतें, सौ प्रतिक्रमण करने पर वह खतम होगा। कुछ दोषों के पाँच प्रतिक्रमण करें, तब वे खतम होंगे, कुछ के दस और कुछ के सौ होंगे। उसकी जितनी परतें हो उतने प्रतिक्रमण होंगे। लम्बा चले उतना लम्बा गुनाह होगा। प्रश्नकर्ता : याद आये उसका प्रतिक्रमण करना और इच्छा हो उसका प्रत्याख्यान करना, यह जरा समझाइए। दादाश्री : याद आने पर समझना कि यहाँ पर ज्यादा चिकना है, इसलिए वहाँ प्रतिक्रमण करते रहने से वह सब छूट जायेगा। प्रश्नकर्ता : वह जितनी बार याद आये उतनी बार करना? दादाश्री: हाँ, उतनी बार करना। हम करने का भाव रखें। ऐसा है न, याद आने के लिए समय तो चाहिए न! तो इसका समय मिलने पर, रात को कुछ याद नहीं आते होंगे? प्रश्नकर्ता : वह तो कोई संयोग होने पर। दादाश्री : हाँ, संयोगो को लेकर। प्रश्नकर्ता : और इच्छाएँ हो तो? दादाश्री : इच्छा होनी माने स्थूल वृत्तियाँ होना। पहले हमने जो भाव किये हो वे भाव अब फिर से प्रकट होते हैं, तो वहाँ पर प्रत्याख्यान करना। प्रश्नकर्ता : उस समय 'दादाजी' ने कहा है कि यह वस्तु अब नहीं होनी चाहिए। हर वक्त ऐसा कहा करें। दादाश्री : यह वस्तु मेरी नहीं है, उसे समर्पित करता हूँ। अज्ञानतावश मैंने इन सभी को बुलायी थीं। पर आज यह मेरी नहीं है, इसलिए समर्पित करता हूँ। मन-वचन-काया से समर्पित करता हूँ। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। यह सुख मैंने अज्ञानदशा में बुलाया था, किंतु आज यह सुख मेरा नहीं है, इसलिए समर्पित करता हूँ। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ८३ प्रतिक्रमण है? तब कहे, इन परिवारवालों को याद कर-करके करते है। आत्मा दृष्टा है, वह देखा ही करे। और कोई दखल है ही नहीं, इसलिए बहुत शुद्ध उपयोग रहेगा। प्रतिक्रमण तो एक बार करवाया था, मेरी उपस्थिति में खुद मैंने ही करवाया था, बहुत साल पहले की बात करता हूँ और वह विषय-विकार संबंधी प्रतिक्रमण करवाया था। तब वह करते करते सब इतनी गहराई में उतरे, बाद में घर जाने पर भी बंद नहीं होता था। उन सभी को तो सोते समय भी चलता रहता था और खाते समय भी चलता रहता था। फिर मुझे स्वयं बंद करवाना पड़ा। फँसे थे सभी, नहीं?! प्रतिक्रमण अपने आप निरंतर, रात-दिन चलता ही रहे। अब प्रतिक्रमण करने के बाद, 'बंद करो, अब दो घंटे हो गये' ऐसा कहने में आया, फिर भी अपने आप प्रतिक्रमण चलता रहे। बंद करने को कहे तो भी बंद नहीं हुआ। मशीनरी सब चालू हो गई, इसलिए भीतर चलता ही रहे। यह अक्रम विज्ञान का तात्पर्य ही सारा 'शूट ऑन साइट' (दोष देखते ही खतम करो) प्रतिक्रमण का है। उसके बेसमेन्ट (नीव) पर खड़ा रहा है। भूल किसी की होती ही नहीं है। सामनेवाले को हमारे निमित्त से यदि कोई नुकसान हो, तो द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से मुक्त ऐसी उसकी शुद्धात्मा को याद करके प्रतिक्रमण करें। प्रश्नकर्ता : लेकिन हर बार पूरा लम्बा बोलना होगा? दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं। शॉर्ट (संक्षिप्त) में निबटा लेना। सामनेवाले की शुद्धात्मा को हाजिर करके उसे फोन लगाना कि 'यह भूल हुई, क्षमा करें।' और दूसरा, घर के लोगों के भी रोजाना प्रतिक्रमण करने चाहिए। आपके माता-पिता, भाई-बहनें सभी का रोजाना प्रतिक्रमण करना पड़े। सारे कुटुंबियों का, क्योंकि उसके साथ बहुत चिकना फाइल होगा। इसलिए प्रतिक्रमण करोगे न, यदि एक घंटा कुटुंबियों के लिए प्रतिक्रमण करोगे न, अपने परिवारवालों को याद करके, नजदीक से लेकर दूर-दूर के सभी, भाईओं, उनकी औरतें, चाचा, चाचाओं के लड़के और वे सारे लोग, जो एक फेमिली (परिवार) होंवे न, तो दो-तीन-चार पीढ़ियों तक के, उन सभी को याद करके, प्रत्येक के लिए एक घंटा प्रतिक्रमण होगा न, तो भयंकर पाप भस्मीभूत हो जायेंगें। और हमारी ओर से उन लोगों के मन साफ हो जायेंगें। इसलिए हमारे नजदीकी, सभी को याद कर-करके प्रतिक्रमण करें। और रात नींद नहीं आती हो उस घड़ी यह प्रबंध किया कि चल पड़ा। ऐसा प्रबंध नहीं करते? ऐसी यह व्यवस्था, वह फिल्म शुरू हुई तो उस घड़ी बड़ा आनंद आयेगा। वह आनंद समाया नहीं जायेगा! क्योंकि जब प्रतिक्रमण करतें हैं न, तब आत्मा का पूर्णरूप से शुद्ध उपयोग रहता है, इसलिए बीच में किसी का दखल नहीं होता। प्रतिक्रमण कौन करता है? चन्दुभाई करते है, किसके लिए करते 'चन्दुभाई' से 'आपको' इतना कहना पड़े कि प्रतिक्रमण किया करें। आपके घर के सभी लोगों के साथ, आपको पहले कुछ न कुछ दुःख हुआ हो, उसके प्रतिक्रमण आपको करने हैं। संख्यात कि असंख्यात जन्मों में जो राग-द्वेष, विषय-विकार, कषाय से दोष किये हो उनकी क्षमा माँगता हूँ। ऐसे रोजाना घर के प्रत्येक व्यक्ति का एक-एक को ले लेकर करना। फिर इर्द-गिर्द के, पास पड़ोस के सभी का उपयोग रखकर यह करते रहना चाहिए। आपके करने पर यह बोझ हलका हो जायेगा। वैसे के वैसे हलका नहीं होता। हमने सारे संसार के साथ ऐसे निवारण किया था। पहले ऐसा निवारण किया, तब तो यह छुटकारा हुआ। जब तक हमारा दोष आपके मन में है, तब तक हमें चैन नहीं लेने देगा! इसलिए हम जब ऐसे प्रतिक्रमण करें तब वहाँ पर मिट जाये। प्रतिक्रमण तो आप लगातार किया करें, आपके सर्कल में पचाससौ जितने भी लोग हो, जिस-जिस के साथ आपने रगड़-रगड़ किया हो उन सभी के, फुरसत मिलने पर घंटा-घंटा भर बैठकर, एक-एक को Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण खोज-खोजकर प्रतिक्रमण करना। जितने लोगों को रगड़-रगड़ किया है वह फिर धोना पड़ेगा न? बाद में ज्ञान प्रकट होगा । ८५ फिर इस जनम, पिछले जनम पिछले संख्यात, पिछले असंख्यात जन्मों में, गत अनंत जन्मों में दादा भगवान की साक्षी में, कोई भी धर्म की, साधु आचार्यों की जो जो अशातना, विराधना करी - कराई हो तो उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। दादा भगवान की साक्षी में क्षमा माँगता हूँ। किंचित्मात्र अपराध नहीं हो ऐसी शक्ति दीजिए। ऐसे सभी धर्मों को लेकर करें। अरे, उस समय अज्ञान दशा में हमारा अहंकार भारी, 'फलाँ ऐसेवैसे' तब तिरस्कार, तिरस्कार, तिरस्कार ही तिरस्कार .... और किसी की तारीफ़ भी करे। एक की इस ओर तारीफ़ करे और दूसरे का तिरस्कार करे। फिर १९५८ में ज्ञान हुआ तब से 'ए. एम. पटेल' से कह दिया कि, 'ये जो तिरस्कार किये हैं, अब उन्हें साबून लगाकर धो डालिए', तब प्रत्येक को खोज - खोज कर सभी का बार-बार धोता रहा। इस ओर के पड़ोसी, उस ओर के पड़ोसी, इस ओर के कुटुम्बी, मामा, चाचा, सभी के साथ तिरस्कार हुए थे, उन सभी को धो डाला। प्रश्नकर्ता : तो मन से प्रतिक्रमण किया, रूबरू जाकर नहीं? दादाश्री : मैंने अंबालाल पटेल से कहा कि यह आपने उलटे काम किये हैं, वे सब मुझे दिखाई पड़ते हैं। अब वे सभी उलटे किये काम को धो डालिये! इस पर उन्हों ने क्या करना शुरू किया? कैसे धोयें? तब मैंने समझाया कि उसे याद कीजिए। नगीनदास को गालियाँ दी, सारी जिन्दगी डाँटा, तिरस्कार किये, उन सभी का वर्णन करके, और 'हे नगीनदास के मन-वचन-काया का योग, द्रव्यकर्म-भावकर्म- नोकर्म से भिन्न प्रकट शुद्धात्मा भगवान ! नगीनदास के भीतर बैठे शुद्धात्मा भगवान! यह नगीनदास की बार - बार माफ़ी माँगता हूँ, वह दादा भगवान की साक्षी में माफ़ी माँगता हूँ। फिर से ऐसे दोष नहीं करूँगा।' अर्थात् आप ऐसा कीजिए। फिर आप सामनेवाले के चेहरे पर परिवर्तन देख लेना। उसका चहेरा बदला हुआ नज़र आयेगा । यहाँ आप प्रतिक्रमण करें और वहाँ परिवर्तन होने लगे । प्रतिक्रमण हमने कितना धोया तब बहीखाता चुकता हुआ। हम तो लम्बे अरसे से खुद धोते आये हैं तब बहीखाता चुकता हुआ। आपको तो मैंने राह दिखाई, इसलिए जलदी छूट जायेगा । ८६ हम तो प्रतिक्रमण कर लें। इसलिए जिम्मेदारी से मुक्त हो गये! मुझे शुरू-शुरू में सभी लोग 'ऐटेक' करते थे न! पर फिर सब थक गये। यदि हमारा प्रतिआक्रमण रहेगा तो सामनेवाला नहीं थकेगा। यह संसार किसी को भी मोक्ष में जाने दे ऐसा नहीं है। इतनी सारी बुद्धिवाला संसार है। इसमें संभलकर चलें, समेटकर चलें तो मोक्ष में जायें। यह प्रतिक्रमण करके तो देखो, फिर आपके घर के सारे लोगों में चेन्ज (परिवर्तन) हो जाये, जादूई चेन्ज हो जाये। जादूई असर !!! ऐसा है, जब तक सामनेवाले का दोष खुद के मन में है तब तक चैन नहीं लेने देगा। यह प्रतिक्रमण करने पर वह धुल जायेगा। राग-द्वेषवाली प्रत्येक चिकनी 'फाइल' पर उपयोग रखकर, प्रतिक्रमण करके, शुद्ध करें। राग की फाइल होने पर उसके तो प्रतिक्रमण ख़ास करने चाहिए। हम गद्दे पर सो गयें हों और जहाँ-जहाँ कँकड़ चुभे, वहाँ से आप निकाल देंगे कि नहीं? यह प्रतिक्रमण तो, जहाँ-जहाँ चुभता हो वहीं ही करने हैं। आपको जहाँ चुभता हो वहाँ से निकाल फेंको, और उसको चुभता हो वहाँ से वह निकाल फेंके ! प्रतिक्रमण हर मनुष्य के अलग-अलग होंगे ! किसी के लिए भी अतिक्रमण हुए हो तो, सारा दिन उसके नाम के प्रतिक्रमण करने होंगे, तभी खुद की मुक्ति होगी। यदि दोनों ही आमनेसामने प्रतिक्रमण करेंगे तो जल्दी मुक्त होंगे। पाँच हजार बार आप प्रतिक्रमण करें और पाँच हजार बार सामनेवाला प्रतिक्रमण करे तो जल्दी छुटकारा होगा। किंतु यदि सामनेवाला नहीं करे और आपको छूटना ही हो तो, दस हजार बार प्रतिक्रमण करने होंगे। प्रश्नकर्ता: जब ऐसा कुछ रह जाता है तो मन में खटकता रहता है कि यह रह गया। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ८७ दादाश्री : ऐसा क्लेश नहीं रखने का फिर बाद में एक दिन बैठ कर सभी का साथ में प्रतिक्रमण कर डालना। जिस-जिस के हो, जानपहचानवालों के, जिसके साथ ज्यादा अतिक्रमण होता हो, उनके नाम दे कर एक घंटा कर डाला तो फिर सब उड़ जायेगा। लेकिन हमें ऐसा बोझ रखने की जरूरत नहीं है। यह अपूर्व बात है, पहले सुनी न हो, पढ़ी न हो, जानी न हो, ऐसी बातें जानने के लिए यह परिश्रम है। हम यहाँ प्रतिक्रमण करवाने के लिए बिठाते हैं उसके बाद क्या होता है? भीतर दो घंटे प्रतिक्रमण करवातें हैं न कि बचपन से लेकर आज तक जो जो दोष हुए हो उन सभी को याद करके प्रतिक्रमण कर डालिए, सामनेवाले के शुद्धात्मा को देखकर ऐसा कहे। अब छोटी उम्र से जब से समझशक्ति की शुरूआत होती है, तब से ही प्रतिक्रमण करने लगे, तो अब तक के प्रतिक्रमण करें। ऐसा प्रतिक्रमण करने पर उसके सभी दोषों का बड़ा हिस्सा आ जाये। फिर दूसरी बार प्रतिक्रमण करे। तब फिर छोटेछोटे दोष भी आ जायेंगे। बाद में फिर से प्रतिक्रमण करने पर उससे भी छोटे दोष आ जायेंगे, ऐसे उन दोषों का पूरा का पूरा हिस्सा ही खतम कर डालें। दो घंटे के प्रतिक्रमण में सारी जिन्दगी के पिछले चिपके दोषों को धो डालना, और फिर कभी ऐसे दोष नहीं करूँगा ऐसा तय करना । अर्थात् हो गया प्रत्याख्यान | यह आप प्रतिक्रमण करने बैठे न, तब अमृत के बिंदु टपकने लगें एक ओर, और हलकापन महसूस होने लगे। भैया, तुम्हारे से प्रतिक्रमण होते है? तब हलकापन महसूस होता है? क्या तुम्हारा प्रतिक्रमण करना शुरू हो गया है? पूरे जोर से प्रतिक्रमण चल रहे हैं? सभी दोष खोज, खोज, खोजकर प्रतिक्रमण कर डालना। खोज करने लगोगे तो बहुत कुछ याद आता जायेगा। आठ साल पहले किसी को लात मारी हो वह भी दिखाई देगा। तब रास्ता भी नजर आयेगा, लातें भी दिखाई पड़ेगी। यह सब याद प्रतिक्रमण कैसे आया? ऐसे तो याद करने पर कुछ याद नहीं आयेगा और प्रतिक्रमण करने लगे कि तुरन्त लिंकवार (क्रमानुसार) याद आ जायेगा । आपने बार सारी जिन्दगी का किया था? ८८ प्रश्नकर्ता किया था। : दादाश्री : अभी मूल भूल समझ में आयेगी, तब और आनंद होगा। प्रतिक्रमण से यदि आनंद नहीं होता तो प्रतिक्रमण करना नहीं आया। अतिक्रमण से यदि दुःख नहीं होता तो वह मनुष्य, मनुष्य नहीं है। पहले तो भूल ही नज़र नहीं आती थी। अब नज़र आती है वह स्थूल नज़र आती है। अभी तो आगे दिखेगा। प्रश्नकर्ता: सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम ... दादाश्री : जागृति से सारी भूलें दिखाई देगी। जब आप सारी जिन्दगी के प्रतिक्रमण करते हैं, तब आप ना ही तो मोक्ष में या ना ही संसार में होते हैं। प्रतिक्रमण के समय वैसे तो आप पिछले सभी का विवरण करतें हैं। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार सभी की फोन लाइनें ठप्प होती हैं। अंत:करण बंद होता है। उस वक्त मात्र प्रज्ञा ही अकेली काम पर होती है। आत्मा का भी इसमें कुछ काम नहीं होता । दोष होने के पश्चात् ढँक जाता है। फिर दूसरा लेयर (परत) आये। ऐसे लेयर पर लेयर आते जायें, और मृत्यु समय अंतिम एक घंटे में इन सभी का लेखा-जोखा आये। भूतकालीन सारे दोष वर्तमान में दिखाई दे वह 'ज्ञानप्रकाश' है; वह मेमरी (स्मृति) नहीं है। प्रश्नकर्ता: प्रतिक्रमण से आत्मा पर इफेक्ट होगा क्या? दादाश्री : मूल आत्मा पर तो कोई भी इफेक्ट (असर) होगा ही नहीं (व्यवहार आत्मा को असर होता है)। यह तो आत्मा है, जो हंड्रेड परसेन्ट डीसाईडेड (शत प्रतिशत निश्चित) है जहाँ मेमरी (याददास्त नहीं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण पहुँचती, वहाँ आत्मा के प्रभाव से होता है। आत्मा अनंत शक्तिमान है, यह उसकी प्रज्ञाशक्ति पाताल फोड़कर दिखाती है। इस प्रतिक्रमण से तो खुद हलकापन महसूस करे, कि अब हलका हो गया और बैर छूट जाये, नियम से ही छूट जाये। और इस प्रतिक्रमण करने के लिए वह सामनेवाला का साथ नहीं हो तो उसमें भी कोई हर्ज नहीं है। इसमें रूबरू दस्तखत की जरूरत नहीं है। जैसे यह कोर्ट में रूबरू दस्तखत की जरूरत है ऐसी जरूरत उसमें नहीं है क्योंकि ये गुनाह रूबरू नहीं हए हैं। यह तो लोगों की गैरहाजिरी में गुनाह हुए हैं। इस भांति लोगों के रूबरू में हुए हैं, परंतु रूबरू दस्तख़त नहीं किये हैं। दस्तखत अंदर के हैं, राग-द्वेष के दस्तखत हैं। किसी दिन एकांत में बैठे हो और ऐसे प्रतिक्रमण या ऐसा कुछ करते करते करते भीतर में थोड़ा आत्मानुभव हो जाये। उसका स्वाद आ जाये। वह अनुभव कहलाये। जब घर के लोग निर्दोष दिखाई दे तो समझना कि आपका प्रतिक्रमण सही है। वास्तव में निर्दोष ही है, सारा संसार निर्दोष ही है। उनके दोष से नहीं, आपके अपने दोष से ही आप बँधे हुए हैं। अब ऐसा जब समझ में आयेगा तब कुछ हल निकलेगा! प्रश्नकर्ता : निश्चय में तो विश्वास है कि जगत् सारा निर्दोष है। दादाश्री : वह तो प्रतीति में आया कहलाये। अनुभव में कितना आया? वह बात इतनी आसान नहीं है। वह तो खटमल घेर लें, मच्छर घेर लें, साँप घेर लें, तब निर्दोष नज़र आये तो सही। लेकिन हमें प्रतीति में रहना चाहिए कि निर्दोष है। हमें दोषित नज़र आते हैं यह हमारी भूल है। उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। हमारी प्रतीति में भी निर्दोष हैं और हमारे वर्तन में भी निर्दोष हैं। तुझे तो अभी प्रतीति में भी नहीं आया कि निर्दोष है, तुझे अभी दोषित लगते हैं। कोई कुछ करे, उसके लिए फिर प्रतिक्रमण करता है लेकिन शुरूआत में तो दोषित लगते हैं। प्रश्नकर्ता : शुद्ध उपयोग हो तो अतिक्रमण होगा? दादाश्री : होगा। अतिक्रमण भी होगा और प्रतिक्रमण भी होगा। हमें ऐसा लगे कि यह तो हम उपयोग चूक कर उलटें रास्ते चले। तब उपयोग चूके उसका प्रतिक्रमण करना पडेगा। उलटा रास्ता माने वेस्ट ऑफ टाइम एण्ड एनर्जी (समय और शक्ति का दुर्व्यय) होता है, फिर भी उसके प्रतिक्रमण नहीं करें तो चलेगा। उसमें बहुत ज्यादा नुकसान नहीं है। एक जनम अभी शेष है, इसलिए लेट गो किया था (जाने दिया था) पर जिसे उपयोग छोड़ना ही नहीं हो उसे उपयोग चूकने पर प्रतिक्रमण करना होगा। प्रतिक्रमण माने वापस लौटना। कभी भी वापस लौटा ही नहीं है न! हम किसी जगह विधि नहीं रखते। औरंगाबाद में हम अनंत अवतार के दोष धुल जायें ऐसी विधि रखते हैं। एक घंटे की प्रतिक्रमण विधि में तो सभी का अहंकार भस्मीभूत हो जाता है! हम वहाँ औरंगाबाद में तो बारह महिनों में एक बार प्रतिक्रमण करवाते थे। तब दो सौ-तीन सौ लोग रोया करे और उनका सारा रोग निकल जाये। क्योंकि औरत के उसका आदमी पैर छूएं, वहाँ पर माफ़ी माँगे। कितने ही जनमों का बंधन हुआ था, उसकी माफ़ी माँगे, तब बहुतेरा शुद्ध हो जाये। वहाँ हर साल, इसके पीछे हमें बहुत बड़ी विधि करनी पड़े, सभी के मन शद्ध करने के लिए, आत्मा (व्यवहार आत्मा) की शुद्धि के लिए, बड़ी विधि करके वहाँ रख छोडें, कि सभी शुद्ध हो जायें उस घड़ी। कम्पलीट क्लीअर (संपूर्ण शुद्ध), खुद के ध्यान में भी न रहे कि मैं क्या लिखता हूँ, पर सब स्पष्ट लिख कर लाये। फिर 'क्लीअर' हो गया। अभेदभाव उत्पन्न हुआ न, एक मिनट मुझे सौंप दिया कि मैं ऐसा हूँ साहिब, वह अभेदभाव हो गया। इसलिए उसकी शक्ति बढ़ गई। और फिर मैं तेरे दोष जानूँ और दोष के ऊपर विधि रखता रहूँ। यह कलियुग है, कलियुग में कौन-सा दोष नहीं होगा? किसी का दोष निकालना यही भूल है। कलियुग में दूसरों का दोष निकालना यही खुद की भूल है। किसी का दोष निकालना नहीं। गुण क्या है, यह देखने की Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण जरूरत है। उसके पास क्या बचा है? शेष क्या रहा है यह देखने की जरूरत है। इस काल में कुछ शेष ही नहीं रहता न! कुछ शेष रहा है ऐसे यह सारे हमारे (आत्मज्ञान पाये) महात्मा आत्मिक उँचाई पर हैं न! जो हमारी साथ हो, पहले भी थे और आज भी हैं, वे हमारे धर्मबंधु कहलायें और इन्ही धर्मबंधुओं के साथ ही कई जनमों के बैर बँधे होते हैं। उनके साथ कुछ बैर बंधा हो तो, उसके लिए हम आमने-सामने प्रतिक्रमण कर लें तो सारा हिसाब चुकता हो जाये। एक भी मनुष्य का आमने-सामने प्रतिक्रमण करना नहीं भूलें। सहाध्यायी के साथ ही ज्यादा बैर बँधता है, और उसके प्रत्यक्ष प्रतिक्रमण करें तो धुल जायें। यह औरंगाबाद में जो प्रतिक्रमण करवाते हैं ऐसे प्रतिक्रमण तो वर्ल्ड (दुनिया) में कहीं भी नहीं होंगे। प्रश्नकर्ता : वहाँ सभी रोते थे न! बड़े-बड़े सेठ लोग भी रो रहे थे। दादाश्री : हाँ, सब कितना रोते थे! अब ऐसा प्रतिक्रमण सारी जिन्दगी में एक ही किया हो तो बहुत हो गया। प्रश्नकर्ता : बड़े लोगों को रोने की जगह कहाँ है? यह कोई एकाध ही होगी। दादाश्री : हाँ, सच है। वहाँ तो सभी बहुत रोते थे। प्रश्नकर्ता : मैंने तो ऐसा पहली ही बार देखा कि ऐसे सभी समाज के प्रतिष्ठित कहलानेवाले लोग खुले मुँह वहाँ रोते थे!!! दादाश्री : खुले मुँह रोते थे और अपनी बीबी के पैरों में पड़कर माफ़ी माँगते थे, आपने वहाँ ऐसा नहीं देखा था? प्रश्नकर्ता : हाँ, अन्यत्र ऐसा दृश्य कोई जगह देखा नहीं था! दादाश्री : होगा ही नहीं न! और ऐसा अक्रम विज्ञान नहीं होगा, ऐसा प्रतिक्रमण नहीं होगा, ऐसा कुछ होगा ही नहीं। प्रश्नकर्ता : ऐसे 'दादाजी' भी नहीं होगें! दादाश्री : हाँ। ऐसे 'दादाजी' भी नहीं होगें। मनुष्य ने सच्ची आलोचना नहीं की है। वही मोक्ष में जाने में बाधारूप है। गुनाह में हर्ज नहीं, सच्ची आलोचना हो तो कोई हर्ज नहीं है। और आलोचना गज़ब के पुरुष के पास करनी चाहिए। खुद के दोषों की आलोचना जिन्दगी में किसी जगह की है? किसके पास आलोचना करते? और आलोचना किये बिना छुटकारा नहीं है। जहाँ तक आलोचना नहीं करोगे तो इसे माफ़ कौन करायेगा? ज्ञानी पुरुष चाहे सो कर सकते हैं, क्योंकि वे कर्ता नहीं हैं इसलिए। यदि कर्ता होते तो उन्हें भी कर्मबंधन होता। पर कर्ता नहीं है इसलिए चाहे सो करे। वहाँ हमें आलोचना गुरुजी के पास करनी चाहिए। पर आखिरी गुरुजी यह 'दादा भगवान' कहलाये। हमने तो आपको रास्ता दिखा दिया। अब आखिरी गुरुजी दिखा दियें। वे आपको उत्तर दिया करेंगे और इसलिए तो वे 'दादा भगवान' हैं। जब तक वे प्रत्यक्ष नहीं होते. तब तक 'यह' दादा भगवान को भजने होंगे। उनके प्रत्यक्ष होने के पश्चात् अपने आप आते-आते फिर वह मशीन चालु हो जायेगा। अर्थात् फिर वह खुद 'दादा भगवान' हो जाये। ज्ञानी पुरुष के पास बँक कर रखा माने खत्म हो गया। लोग खुल्ला करने के लिए तो प्रतिक्रमण करते है। वह भाई सब लेकर आया था न? तब उलटे खुला कर दे ज्ञानी के पास! तो वहाँ कोई इँकेगा तो क्या होगा?!!! दोष ढंकने पर वे डबल (दो गुने) होंगे। औरत के साथ जितनी जान-पहचान है, उतनी प्रतिक्रमण के साथ जान-पहचान होनी चाहिए। जैसे औरत भलाई नहीं जाती वैसे प्रतिक्रमण भुलाना नहीं चाहिए। सारा दिन माफ़ी माँग माँग माँग किया करे। माफ़ी माँगने की आदत ही हो जानी चाहिए। यह तो दूसरों के दोष देखने की दृष्टि ही हो गई है! जिसके साथ विशेष अतिक्रमण हुआ हो, उसके साथ प्रतिक्रमण Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण दादाश्री : प्रतिक्रमण करने पर हलके हो और प्रतिक्रमण नहीं करने पर वही का वही बोझ फिर से आये। फिर छटक जाये बाद में, बिना चार्ज हुए अर्थात् प्रतिक्रमण से हलके कर-करके बाद में निपटारा हुआ करेगा। प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि अतिक्रमण न्युट्रल (भावाभाव रहित) ही है, तो फिर प्रतिक्रमण करने का ही कहाँ रहा? दादाश्री : अतिक्रमण न्युट्रल ही है। पर उसमें तन्मयाकार होने की वजह से बीज पड़ता है। लेकिन अतिक्रमण में तन्मयाकार नहीं होते तो बीज नहीं पड़ता। अतिक्रमण कुछ भी नहीं कर सकता। और प्रतिक्रमण तो 'हम' तन्मयाकार नहीं होते तो भी करे। चन्दुभाई तन्मयाकार हो गये उसे भी आप जाने और नहीं हुए उसे भी आप जाने। आप तन्मयाकार होते ही नहीं। तन्मयाकार मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार होते हैं, उन्हें आप जानते हैं। यज्ञ शुरु कर देना। अतिक्रमण बहुत किये हैं और प्रतिक्रमण किये ही नहीं, उसका यह सब परिणाम है। यह प्रतिक्रमण तो हमारी सूक्ष्मातिसूक्ष्म खोज (आविष्कार) है। यदि यह खोज समझ में आ जाये तो किसी के साथ कोई झगड़ा नहीं रहेगा। प्रश्नकर्ता : दोषों की लिस्ट (सूचि) तो बहुत लम्बी होती है। दादाश्री : वह लम्बी हो तो, मान लो कि यह एक मनुष्य के साथ सौ तरह के दोष हो गये हो तो सब का साथ में प्रतिक्रमण कर डालना कि इन सभी दोषों की मैं आप से क्षमा चाहता हूँ! प्रश्नकर्ता : अब यह जिन्दगी का ड्रामा (नाटक) जलदी पूरा हो तो अच्छा! दादाश्री : ऐसा क्यों बोले? प्रश्नकर्ता : आप बीस दिन थे यहाँ, परंतु एक जगह भी नहीं आ सका। दादाश्री : इसलिए देह पूरी कर देनी चाहिए क्या? इस देह से 'भगवान' को पहचाना। इस देह का तो इतना उपकार है कि कोई भी दवाई करनी पडे तो वह करनी चाहिए। इस देह से तो 'दादाजी' की पहचान हुई। अनंत देह खो दिये, सभी व्यर्थ गये। इस देह से ज्ञानी को पहचाने, इसलिए यह देह मित्र समान हो गया। इसलिए उस देह का जतन करना।'देह जलदी समाप्त हो जाये' ऐसा कहा, उसकी माफ़ी माँगता हूँ। इसलिए आज प्रतिक्रमण करना। २५. प्रतिक्रमण की सैद्धांतिक समझ प्रश्नकर्ता : तन्मयाकार हो जाये इसलिए जागृतिपूर्वक पूरा-पूरा निपटारा नहीं होता। अब तन्मयाकार होने के पश्चात् खयाल आये, तो फिर उसका कुछ प्रतिक्रमण करके निपटारा करने का कोई रास्ता है क्या? प्रश्नकर्ता : तन्मयाकार चन्दुभाई हुए इसलिए चन्दुभाई से प्रतिक्रमण करने को कहना होगा न? दादाश्री : हाँ। चन्दुभाई से कहने का। प्रश्नकर्ता : सपने में प्रतिक्रमण हो सके? दादाश्री : हाँ, बहुत अच्छे हो सके। सपने में प्रतिक्रमण होंगे वे अभी होते हैं. उनसे अच्छे होंगे। अभी तो हम बिना सोचे-समझे कर डाले। सपने में जो काम होता है, वह सारा का सारा पद्धति अनुसार होता है। सपने में 'दादाजी' नज़र आये तो ऐसे 'दादाजी' तो हमने देखे ही नहीं हो ऐसे 'दादाजी' नज़र आये। जागृति में भी ऐसे दादाजी नहीं दिखते, ऐसे सपने में बहुत सुन्दर दिखे। क्योंकि सपना वह सहज अवस्था है और यह जागृत वह असहज अवस्था है। क्रमिक मार्ग में आत्मप्राप्ति के पश्चात् प्रतिक्रमण नहीं होता। प्रतिक्रमण 'पोइझन' (जहर) माना जाता है। हमारे यहाँ हमें भी प्रतिक्रमण Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण ९६ प्रतिक्रमण होता नहीं है। हम प्रतिक्रमण 'चन्दुभाई' के पास करवाते हैं। क्योंकि यह तो अक्रम, यहाँ तो सारा माल भरा हुआ। हम तो सामनेवाले के किस आत्मा की बात करते हैं? प्रतिक्रमण किस से करते हैं, वह जानते हो? प्रतिष्ठित आत्मा से नहीं करते, हम उसकी मूल शुद्धात्मा से करते हैं। यह तो शुद्धात्मा की हाजिरी में यह उसके साथ हुआ, उसके लिए हम प्रतिक्रमण करते हैं। अर्थात् उस शुद्धात्मा के पास हम क्षमा माँगते हैं। फिर उसके प्रतिष्ठित आत्मा से हमें लेना-देना नहीं है। प्रतिक्रमण भी अहंकार को ही करना है, पर चेतावनी किसकी? प्रज्ञा की। प्रज्ञा कहती है, 'अतिक्रमण क्यों किया? इसलिए प्रतिक्रमण कीजिए।' सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष हमारी दृष्टि के बाहर नहीं जाता। सूक्ष्म से सूक्ष्म, अति अति सूक्ष्म दोष का हमें तुरन्त ही पता चल जायें! आपमें से किसी को पता नहीं चलेगा कि मेरा दोष हुआ है। क्योंकि दोष स्थूल नहीं है। प्रश्नकर्ता : आपको हमारे भी दोष नज़र आये? दादाश्री : सारे दोष नज़र आये। पर हमारी दृष्टि दोषों के प्रति नहीं होती। हमें तुरन्त ही उसका पता चल जाये। पर हमारी तो आपके शुद्धात्मा के प्रति ही दृष्टि होगी। हमारी आपके उदय कर्म के प्रति दृष्टि नहीं होती। हमें मालूम हो ही जायेगा, सभी के दोषो का हमें पता चल जायेगा। दोष नज़र आये लेकिन हमें भीतर उसका असर नहीं होता। हमारे पास जितने दंड के योग्य हैं उनको भी माफ़ी होगी. और माफ़ी भी सहज होगी। सामनेवाले को माफ़ी माँगनी नहीं होगी। जहाँ सहज माफ़ किया जाता है वहाँ वे लोग शुद्ध होते हैं। और जहाँ ऐसा कहा जाता है कि, 'साहिब, माफ़ करना।' वहीं अशुद्ध हुए होते हैं। सहज क्षमा होगी वहाँ तो बहुत शुद्धि हो जाये। जब तक हमें सहजता होगी, तब तक हमें प्रतिक्रमण नहीं होता। सहजता में आपको भी प्रतिक्रमण करने नहीं होंगे। सहजता में फर्क आया कि प्रतिक्रमण करना होगा। हमें आप जब भी देखेंगे तब सहजता में ही देखेंगे। जब देखे तब हम वही स्वभाव में नज़र आयेंगे। हमारी सहजता में फर्क नहीं आता। हम आपको पाँच आज्ञा देते हैं, क्यों कि ज्ञान तो दिया, पर वह गँवा बैठोगे। इसलिए ये पाँच आज्ञा में रहोगे तो मोक्ष में जाओगे। और छठवाँ क्या कहा? कि जहाँ अतिक्रमण हो जाये वहाँ प्रतिक्रमण कीजिए। आज्ञा पालना भूल जाये तो प्रतिक्रमण करे। भूल तो जायेंगे, मनुष्य है। लेकिन भूल गये उसका प्रतिक्रमण करे कि 'हे दादाजी, ये दो घंटे भूल गया, आपकी आज्ञा भूल गया। पर मुझे तो आज्ञा पालनी है। मुझे क्षमा करें।' तो पिछला सभी पास, सौ के सौ अंक पूरे। यह 'अक्रम विज्ञान' है। विज्ञान माने तुरन्त फल देनेवाला। करना पड़े ऐसा नहीं हो, उसका नाम 'विज्ञान' और करना पड़े ऐसा हो, उसका नाम 'ज्ञान'! विचारशील मनुष्य हो उसे ऐसा तो लगे न, कि हमने यह कुछ भी किया ही नहीं, और यह क्या है?! यह अक्रम विज्ञान की बलिहारी है। 'अक्रम', क्रम-ब्रम नहीं। जय सच्चिदानंद Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (नमस्कार विधि * प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विचरते, तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधर स्वामी को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (४०) * प्रत्यक्ष दादा भगवानकी साक्षी में वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रो में विचरते' ॐ परमेष्टि भगवंतो' को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता है। * सारे ब्रह्मांड के जीवमात्र के 'रियल' स्वरूप को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * 'रियल' स्वरूप वही भगवद् स्वरूप है। इसीलिए सारे जग को भगवद् स्वरूप' में दर्शन करता हूँ। 'रियल' स्वरूप वही शुद्धात्मा स्वरूप है। इसीलिए सारे जग को 'शुद्धात्मा स्वरूप' में दर्शन करता हूँ। * 'रियल' स्वरूप वही तत्त्व स्वरूप है। इसीलिए सारे जग को 'तत्त्वज्ञान' से दर्शन करता हूँ। (वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामी को परम पूजनीय श्री दादा भगवान के माध्यम द्वारा प्रत्यक्ष नमस्कार पहूँचते है। कौसमें लिखी संख्या के अनुसार प्रतिदिन एक बार पढ़ें।) * प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते पंच परमेष्टि भगवंतो' को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रो में विहरमान तीर्थंकर साहिबों' को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (नौ कलमें ) * वीतराग शासन देव-देवीयों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। १) * निष्पक्षपाती शासन देव-देवीयों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कारकरता * चौबीस तीर्थंकर भगवंतो को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।(५) * 'श्री कृष्ण भगवान' को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (५) * भरत क्षेत्र में हाल विचरते सर्वज्ञ 'श्री दादा भगवान' को निश्चय से ___ अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * 'दादा भगवान' के सभी समकितधारी महात्माओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कर करता हूँ। हे दादा भगवान! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम न दुभाय, न दुभाया जाय या दुभाने के प्रति न अनुमोदना की जाय ऐसी परम शक्ति दो। मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम न दुभाय ऐसी स्यादवाद बानी, स्यादवाद वर्तन और स्यादवाद मनन करने की परम शक्ति दो। हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाय, न दुभाया जाय या दुभाने के प्रति न अनुमोदना की जाय ऐसी परम शक्ति दो। मुझे कोई भी धर्म का किंचित्मात्र भी अहम न दुभाय ऐसी स्यादवाद बानी, स्यादवाद वर्तन और स्यादवाद मनन करने की परम शक्ति दो। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4) हवा 3) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाय, न कराया जाय या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाये ऐसी परम शक्ति दो। हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली भाषा न बोली जाय, न बुलवाई जाय या बुलवाने के प्रति अनुमोदना न की जाय ऐसी परम शक्ति दो। कोई कठोर भाषा, तीली भाषा बोले तो मुझे मृदु-ऋजु भाषा बोलने की परम शक्ति दो। हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा के प्रति, स्त्री, पुरुष अगर नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचितमात्र भी विषय-विकार के दोष, ईच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किया जाय, न करवाया जाय या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाय ऐसी परम शक्ति दो।। हे दादा भगवान! मुझे कोई भी रस में लुब्धपना न हो ऐसी परम शक्ति दो। समरसी खुराक लेने की परम शक्ति दो। हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष या परोक्ष, जीवंत या मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाय, न कराया जाय या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाय ऐसी परम शक्ति दो। हे दादा भगवान! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो। (इतना आपको दादा के पास माँगने का है। यह हररोज पढ़ने की चीज नहीं है, दिल में रखने की चीज है। यह उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज है। इसमें तमाम शास्त्रो का सार आ गया है।) प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सीटी, अहमदाबाद- कलोल हाईवे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 3983 0100 E-mail: info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाई वे, तरघडीया चोकडी. पोस्ट : मालियासण, जी. राजकोट. फोन : 99243 43416 मुंबई : श्री मेघेश छेडा, फोन : (022) 24137616, 24113875 बेंग्लोर : श्री अशोक जैन, 9341948509 कोलकत्ता : श्री शशीकांत कामदार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 951-734-4715, E-mail : shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel. : 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel.:4166753543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org