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प्रतिक्रमण
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प्रतिक्रमण
है। और यदि आप कच्चे पडें तो आपका नुकसान । समझदारी से कच्चे पड़ते ही नहीं न कभी?!
प्रश्नकर्ता : अंबालालभाई को तो छूए न? 'दादा भगवान' को तो वेदनीय कर्म नहीं छूता।
दादाश्री : नहीं, किसी को भी नहीं छूता। ऐसा यह विज्ञान है। छूता हो तो पागल ही हो जाये न? यह तो नासमझी के दुःख है। समझदारी हो तो इस फाइल को भी नहीं छूए। किसी को भी नहीं छूए। जो भी दुःख है वह नासमझी का ही है। यह ज्ञान यदि समझ ले न, तो दु:ख ही क्यों होगा? अशाता भी नहीं होगी और शाता भी नहीं होगी।
१३. विमुक्ति, आर्त-रौद्र ध्यान से प्रश्नकर्ता : आर्तध्यान और रौद्रध्यान क्षण-क्षण होते ही रहते हैं. तो आर्तध्यान किसे कहें और रौद्रध्यान किसे कहें, इसका जरा स्पष्टीकरण कर दीजिए।
दादाश्री : खुद, खुद को ही, किसी को बीच में लाये बिना, किसी को गोली नहीं लगे, ऐसे सम्हलकर खुद अपने आप दुःख झेलता रहे वह आर्तध्यान है और अन्य किसी को गोली दाग दें वह रौद्रध्यान है।
आर्तध्यान तो खुद को ज्ञान नहीं हो और 'मैं चन्दुलाल हूँ' ऐसा हो जाये, और मुझे ऐसा होगा तो क्या होगा? लड़कियाँ चौबीस साल की होने पर ब्याहनी पड़े। पर यह पाँच साल की हो तब से चिंता करे, वह आर्तध्यान किया कहलाये। आया समझ में?
खुद के लिए उलटा सोचना, उलटा करना, खुद की गाड़ी चलेगी या नहीं चलेगी, बीमार हुए और मर जायेंगे तो क्या होगा, यह सब आर्तध्यान कहलाये।
रौद्रध्यान तो हम दूसरों के लिए कल्पना करें कि इसने मेरा नुकसान किया, वह सब रौद्रध्यान कहलाये।
और दूसरों के लिए विचार करें, दूसरों का कुछ न कुछ नुकसान
हो ऐसा विचार आया, तो वह रौद्रध्यान हुआ कहलाये। मन में विचार आया कि कपड़ा खींचकर देना। तो खींचकर देना कहा तब से ही ग्राहकों के हाथ में कम कपड़ा जायेगा ऐसी कल्पना की और उससे ज्यादा पैसे मार लेंगे ऐसी कल्पना की, वह रौद्रध्यान कहलाये। दूसरों का नुकसान करने का ध्यान, वह रौद्रध्यान कहलाये।
अब जबरदस्त रौद्रध्यान किया हो, लेकिन प्रतिक्रमण से वह आर्तध्यान हो जाता है। दो व्यक्तियों ने एक ही तरह से रौद्रध्यान किया हो, दोनों ने कहा कि, 'फलाँ को मैं मार डालूँगा।' ऐसे दो व्यक्तियों ने मारने का भाव किया, वह रौद्रध्यान कहलाये। किंतु एक घर जाकर पछतावा करे कि 'मैंने ऐसा भाव क्यों किया?' इसलिए वह आर्तध्यान हो गया और वह दूसरे भाई को रौद्रध्यान रहा।
अर्थात् पछतावा करने पर रौद्रध्यान भी आर्तध्यान हो जाता है। पछतावा करने पर नर्कगति अटक कर तिर्यच गति होती है। और अधिक पछतावा करें तो धर्मध्यान होता है। एक बार पछतावा करने पर आर्तध्यान होगा और बार-बार पछतावा करता रहे तो धर्मध्यान हो जायेगा। अर्थात् क्रिया वही की वही, पर ध्यान बदलता रहता है।
प्रश्नकर्ता : 'हम' खुद अलग रह कर प्रतिक्रमण करवायें तो वह क्या हुआ कहलाये?
दादाश्री : ऐसा है न, हम शुद्धात्मा हुए, मगर इस पुद्गल का छुटकारा होना चाहिए न? इसलिए जब तक उसके पास प्रतिक्रमण नहीं कराओगे तब तक छुटकारा नहीं होगा। अर्थात् जब तक पुद्गल को धर्मध्यान में नहीं रखोगे तब तक छुटकारा नहीं होगा। क्योंकि पुद्गल को शुक्लध्यान होता नहीं है। इसलिए पुद्गल को धर्मध्यान में रखिए। अत: बार-बार प्रतिक्रमण करवायें। जितनी बार आर्तध्यान हो, उतनी बार प्रतिक्रमण करवायें।
आर्तध्यान होना वह पूर्व की अज्ञानता है इसलिए हो जाता है। तो 'हमें उसके पास प्रतिक्रमण करवाना है।