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प्रतिक्रमण
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प्रतिक्रमण
दादाश्री : अनजाने में हिंसा हो जाये किंतु मालूम होने पर हमें तुरन्त ही पश्चाताप होना चाहिए, कि ऐसा न हो। फिर से ऐसा न हो उसकी जागृति रखना। ऐसा हमारा उदेश्य रखना। भगवान ने कहा था, किसी को मारना नहीं है ऐसा दृढ भाव रखना। किसी जीव को जरा-सा भी दुःख नहीं देना है, ऐसी हररोज पाँच बार भावना करना। 'मन, वचन, काया से किसी जीव को किंचित्मात्र दुःख न हो' ऐसा पाँच बार सबेरे बोल कर संसारी प्रक्रिया शुरू करना। अत: जिम्मेदारी कम हो जायेगी। क्योंकि भाव करने का अधिकार है, वह क्रिया अपनी सत्ता में नहीं है।
प्रश्नकर्ता : भूल से हो गया हो तो भी पाप लगेगा न? दादाश्री : भूल से आग में हाथ डालें तो क्या होगा? प्रश्नकर्ता : जल जाये। दादाश्री : छोटा बच्चा नहीं जलेगा? प्रश्नकर्ता : जलेगा।
दादाश्री : वह भी जलेगा? अर्थात् कुछ छोड़ेगा नहीं। अनजाने में कीजिए या जानबूझ कर कीजिए, कुछ छोड़ेगा नहीं।
प्रश्नकर्ता : किसी महात्मा को ज्ञान के पश्चात्, रात में मच्छर काटतें हो तो वह रात में जागकर मारने लगे, तो उसे क्या कहेंगे?
दादाश्री : वह भाव बिगड़ा कहलाये। ज्ञान जागृति नहीं कहलाये। प्रश्नकर्ता : वह हिंसक भाव कहलाये?
दादाश्री : हिंसक भाव तो क्या, पर जैसा था वैसा हो गया कहलाये। लेकिन बाद में प्रतिक्रमण करे तो धुल जायेगा।
प्रश्नकर्ता : दूसरे दिन फिर ऐसा ही करे तो? दादाश्री : अरे, सौ बार करे तो भी प्रतिक्रमण से धुल जायेगा।
मार डालने को तो सोचना भी नहीं। कोई भी चीज़ अनुकूल न आये तो उसे बाहर छोड़ आना। तीर्थंकरों ने 'मार' शब्द ही निकाल बाहर किया था। 'मार' शब्द का उच्चारण भी नहीं करना, कहते हैं। 'मार' जोखिमवाला शब्द है, इतना सारा अहिंसामय, इतनी मात्रा में परमाणु अहिंसक होने चाहिए।
प्रश्नकर्ता : भावहिंसा और द्रव्यहिंसा का फल एक ही प्रकार का आयेगा?
दादाश्री : भावहिंसा की फोटो दूसरा कोई नहीं देख सकता और जो सिनेमा की तरह यह जो बाहर चलता है न, उसे हम देखते हैं वह सब द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा में तो वैसे सूक्ष्म (भीतर) बरते और द्रव्यहिंसा तो नजर आये। प्रत्यक्ष, मन-वचन-काया से जो जगत् में दिखाई पड़ता है, वह द्रव्य हिंसा है। आप कहें कि जीवों को बचाने जैसा है, फिर बचे या न बचे, उसके जिम्मेदार आप नहीं हैं! आप कहें कि ये जीवों को बचाने जैसा है, आपको सिर्फ इतना ही करना है। फिर हिंसा हो गई, उसके जिम्मेदार आप नहीं है ! हिंसा हुई उसका पछतावा-प्रतिक्रमण करना, फिर जिम्मेदारी सारी चली गई।
प्रश्नकर्ता : आपकी किताब में पढा कि, 'मन, वचन, काया से किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो' परंतु हम तो ठहरे किसान, इसलिए तंबाकु की फसल उगाते हैं, तब हमें प्रत्येक पौधे की कोंपल, माने उसकी गरदन तोड़नी पड़ती है। तो इससे उसको दुःख तो हुआ न? उसका पाप तो लगेगा ही न? ऐसे लाखों पौधों की गरदने कुचल देते हैं। तो इस पाप का निवारण किस तरह किया जाये?
दादाश्री: यह तो भीतर मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसा धंधा हमारे हिस्से में कहाँ से आया? बस इतना ही। पौधे की कोंपल काटे। किंतु मन में पश्चाताप होना चाहिए। ऐसा धंधा नहीं करना चाहिए, ऐसा मन में होना चाहिए, बस।
प्रश्नकर्ता : किंतु यह पाप तो होगा ही न?