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प्रतिक्रमण
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प्रतिक्रमण
नहीं जाये उनके प्रतिक्रमण करते रहे। और घर के सारे सदस्यों को संतोष दे, समभाव से निपटारा करके। फिर भी घर के सभी उछलकूद करें तो हम देखा करें। हमारा पिछला हिसाब है इसलिए उछलकूद करेंगे। यह तो आज ही तय किया। अर्थात् घर के सभी को प्रेम से जीतें। वह तो फिर खुद को भी पता चलेगा कि अब सब ठिकाने लग रहा है। फिर भी घर के लोग अभिप्राय दें तभी तो मानने योग्य कहलाये। आखिर तो उसके पक्ष में ही होंगे, घर के लोग।'
प्रश्नकर्ता: हम जो प्रतिक्रमण करते हैं उस प्रतिक्रमण का परिणाम इस मूल सिद्धांत पर है कि, 'हम सामनेवाले के शद्धात्मा को देखते हैं तो उसके प्रति जो भाव है, बुरा भाव है, वे कम होंगे न?'
दादाश्री : हमारे बुरे भाव टूट जायें। हमारे खुद के लिए ही है यह सब। सामनेवाले को लेना-देना नहीं है। सामनेवाले में शद्धात्मा देखने का इतना ही हेतु है कि हम शुद्ध दशा में, जागृत दशा में हैं।
प्रश्नकर्ता : तो उसको हमारे प्रति जो बुरा भाव होगा वह कम होगा न?
दादाश्री : नहीं, कम नहीं होगा। आप प्रतिक्रमण करें तो होगा। शुद्धात्मा देखने से नहीं होता, पर प्रतिक्रमण करें तो कम होगा।
प्रश्नकर्ता : हम प्रतिक्रमण करें तो उस आत्मा को असर होगा कि नहीं?
दादाश्री : असर होगा। शुद्धात्मा देखने पर भी फायदा होगा लेकिन तुरंत फायदा नहीं होगा। बाद में आहिस्ता, आहिस्ता, आहिस्ता! क्योंकि शुद्धात्मा रूप से किसी ने देखा ही नहीं है। अच्छा आदमी और बुरा आदमी इस दृष्टि से देखा है। बाकी शुद्धात्मा दृष्टि से किसी ने देखा नहीं है।
यदि बाघ के साथ प्रतिक्रमण करें तो बाध भी हमारे कहने के मुताबिक काम करे। बाघ में और मनुष्य में कुछ फर्क नहीं है। फर्क आपके
स्पंदनो का है, जिसका उसको असर होता है। बाघ हिंसक है ऐसा आपके ध्यान में होगा, वहाँ तक वह खद हिंसक ही रहेगा और बाघ शुद्धात्मा है ऐसा लक्ष में रहे तो वह शुद्धात्मा ही है और अहिंसक रहेगा। सब कुछ संभव है।
एक बार आम के पेड़ पर बंदर आया हो और आम तोड डाले तो परिणाम कहाँ तक बिगड़ेगा? कि यह आम का पेड़ काट देतें तो अच्छा। ऐसा सोच डालें। अब भगवान की साक्षी में निकली वाणी क्या व्यर्थ थोड़ी जायेगी? परिणाम नहीं बिगड़ता तो कुछ भी नहीं है। सब शांत हो जाये, बंद हो जाये। ये सभी हमारे ही परिणाम है। हम आज से किसी के लिए स्पंदन करने का, किंचित्मात्र किसी के लिए सोचना बंद कर दें। विचार आने पर प्रतिक्रमण करके धो डालना। अतः सारा दिन बिना किसी स्पंदन के गया! इस प्रकार दिन गुजरा तो बहुत हो गया, यही पुरुषार्थ है।
यह ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् नये पर्याय अशुद्ध नहीं होते, पुराने पर्यायों को शुद्ध करने है और समता रखनी है। समता माने वीतरागता। नये पर्याय बिगड़ते नहीं, नये पर्याय शुद्ध ही रहेंगे। पुराने पर्याय अशुद्ध हुए हो, उसका शुद्धिकरण करें। हमारी आज्ञा में रहने से उसका शुद्धिकरण होगा और आपको समता में रहना होगा।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, ज्ञान प्राप्ति से पहले के इस जीवन के जो पर्याय बँध गये हो, उसका निराकरण कैसे होगा?
दादाश्री : अभी हम जीवित है, वहाँ तक पश्चाताप करके उन्हें धो डालें, पर वे कुछ ही, सारा निराकरण नहीं होगा। पर ढीला तो जरूर हो जायेगा। ढीला पड़ने पर अगले जनम में हाथ लगाया कि तुरन्त गांठ खुल जायेगी।
प्रश्नकर्ता : आपका ज्ञान प्राप्त होने से पहले नर्क का बंध पड़ गया हो तो नर्क में जाना होगा न?