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प्रतिक्रमण
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प्रतिक्रमण
है। हमारी भूल से सामनेवाले को कुछ भी असर हो, यदि कुछ उधारी हो जाये तो तुरन्त ही मन से माफ़ी माँगकर जमा कर लेना। हमारी भूल हो तो उधारी होगी लेकिन तुरन्त ही कैश-नगद प्रतिक्रमण कर लेना। और यदि किसी के प्रति हम से भूल हो तो भी आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करके मन, वचन, काया से प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में क्षमा माँग-माँग करते रहना।
प्रश्नकर्ता : क्रमिक के प्रतिक्रमण करते थे तब दिमाग़ में कुछ बैठता नहीं था और अब यह करते हैं तो हलके फूल जैसे हो जाते हैं।
दादाश्री : पर वह (सच्चा) प्रतिक्रमण ही नहीं है न! वे सभी तो आपने नासमझी में खड़े किये हुए प्रतिक्रमण! प्रतिक्रमण माने तुरन्त दोष कम होना चाहिए। उसका नाम प्रतिक्रमण कहलाये। हम उलटी दिशा में गये थे, वहाँ से वापस लौटे उसका नाम प्रतिक्रमण कहलाये। यह तो वापस मडे नहीं और वहीं के वहीं है! वहाँ से आगे बठे उलटी दिशा में!!! अत: उसे प्रतिक्रमण कैसे कहा जाये?
जब जब गुत्थी उलझने लगे, तब तब 'दादाजी' अवश्य याद आ ही जायें और गुत्थियाँ नहीं उलझे। हम तो क्या कहते हैं कि गुत्थियाँ मत उलझाना, और कभी गुत्थी उलझ जाये तो प्रतिक्रमण करना। यह तो 'गुत्थी' शब्द तुरन्त ही समझ में आये। ये लोग 'सत्य, दया, चोरी मत करो' सुनसुन कर थक गये हैं।
गुत्थी रख कर सो नहीं जाना चाहिए। गुत्थी भीतर उलझी पड़ी हो तो उस गुत्थी को बिना सुलझाये सो नहीं जाना चाहिए। गुत्थी का हल निकालना चाहिए। आखिर कोई हल नहीं निकले तो भगवान के पास क्षमा माँग-माँग करना कि इसके साथ गुत्थी उलझ गई है उसकी बार-बार क्षमा माँगता हूँ, उससे ही निकाल (निपटारा) आ जाये। क्षमा ही सबसे बड़ा शस्त्र है। बाकी दोष तो निरंतर होते ही रहते हैं।
सामनेवाले को डाँटते हो उस समय आपको ऐसा ख़याल क्यों नहीं आता की आपको डाँट पडे तो कैसा लगेगा? यह ख़याल में रखकर डाँटिए।
सामनेवाले का ख़याल रखकर प्रत्येक कार्य करना उसका नाम मानव अहंकार और हमारा ख़याल रखकर प्रत्येक के साथ वर्तन करना और परेशान करना, तो उसका नाम क्या कहलाये?
प्रश्नकर्ता : पाशवी अहंकार।
दादाश्री : ऐसा कोई कहे कि, 'तेरी भूल है' तो हमें भी कहना चाहिए, 'चन्दुभाई, आपकी भूल हुई होगी तभी वे कहते होंगे न? वरना वैसे यु ही कहता है कोई?' क्योंकि यूँ ही कोई कहेगा नहीं, कुछ भी भूल होनी चाहिए। अतः हमें खुद से कहने में हर्ज क्या? भैया, आपकी कुछ भूल होगी इसलिए कहते होंगे। अतः क्षमा माँग लो, और 'चन्दुभाई' किसी को दु:ख देते हों तो हम कहें कि प्रतिक्रमण कर लिजिए। क्योंकि हमें मोक्ष में जाना हैं। अब हमारी मनमानी नहीं चलेगी।
दूसरे का दोष देखने का अधिकार ही नहीं है। इसलिए उस दोष का प्रतिक्रमण करना। परदोष देखने की तो पहले से उसे हेबीट (आदत) ही थी, उसमें नया क्या है? वह हेबीट एकदम से नहीं छूटेगी। वह तो इस प्रतिक्रमण से छूटेगी। जहाँ दोष नज़र आया, वहाँ प्रतिक्रमण कीजिए, शूट ऑन साइट!
प्रश्नकर्ता : अभी प्रतिक्रमण जितने होने चाहिए उतने होते नहीं है। दादाश्री : वह तो जो करना हो न, उसका निश्चय करना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : निश्चय करना अर्थात् उसमें करने का अहंकार आया न फिर यह क्या चीज़ है वह जरा समझाइए।
दादाश्री : कहने हेतु है, कहने खातिर है मात्र।
प्रश्नकर्ता : महात्माओं में से कई लोग ऐसा समझते हैं कि हमें कुछ भी करने का है ही नहीं, निश्चय भी नहीं करने का है।
दादाश्री : नहीं, मुझ से पूछेगे तो मैं उन्हें कहूँगा कि, वह निश्चय माने क्या कि डिसाइडेड रूप से करना। डिसाइडेड माने क्या? यह नहीं और 'यह' ही बस।