________________
प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण
४. अहो! अहो! वह जागृत दादा इस दुनिया में सभी निर्दोष हैं। पर देखिए ऐसी कठोर वाणी निकलती है न?! हमने तो इन सभी को निर्दोष ही देखे हैं, दोषित एक भी नहीं है। हमें दोषित नज़र ही नहीं आता, केवल दोषित बोला जाता है। ऐसा बोलना हमें शोभा देगा? हमारे लिए बोलना क्या अनिवार्य है? किसी के भी बारे में नहीं बोलना चाहिए। उसके पश्चात् तुरन्त ही उसके प्रतिक्रमण चलते रहें। यह हमारी चार डिग्री की कमी है, उसका यह परिणाम है। किंतु प्रतिक्रमण किये बगैर नहीं चलेगा।
हम (सामनेवाले का रोग निकालने ) दखलंदाजी करें, कठोर शब्द बोलें, वह जान-बुझ कर बोलते हैं पर कुदरत के प्रति हमारी भूल तो हुई ही न! इसलिए हम उसका प्रतिक्रमण (ए.एम.पटेल के पास) करवायें। प्रत्येक भूल का प्रतिक्रमण होता है। सामनेवाले का मन ट नहीं जाये ऐसा हमारा अभिगम होगा।
मुझ से जो 'है' उसे 'नहीं है' ऐसा नहीं कहा जायेगा और 'नहीं है' उसे 'है' ऐसा नहीं कहा जायेगा। इसलिए मुझ से कुछ लोगों को दु:ख होगा। यदि 'नहीं है' उसे मैं 'है' कहूँ तो आपके मन में भ्रम पैदा होगा।
और ऐसा बोलने पर वे लोग (प्रतिपक्षियों) के मन में उलटा असर होगा कि ऐसा क्यों बोलते हैं? इसलिए ऐसा बोलना पडे तो मुझे रोजाना उस
ओर का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा! क्योंकि उसको दुःख तो होना ही नहीं चाहिए। वह माने कि यहाँ इस पीपल के पेड़ में भूत है और मैं कहूँ कि भूत जैसी वस्तु नहीं है इस पेड़ में, उसका उसे दु:ख होगा, इसलिए फिर मुझे प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। वह तो हमेशा करना ही पड़ेगा न!
प्रश्नकर्ता : दूसरों की समझ से गलत लगता हो तो उसका क्या करना?
दादाश्री : ये जितने सत्य हैं वे सभी व्यावहारिक सत्य हैं। वे सभी गलत हैं। व्यवहार के जरिये सत्य हैं। मोक्ष में जाना हो तो सभी गलत हैं। सबका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। मैं आचार्य हूँ' उसका भी प्रतिक्रमण
करना पड़ेगा। 'हं, मैंने अपने आपको आचार्य माना' उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। क्योंकि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' इसलिए ये सब झूठ हैं। तेरी समझ में ऐसा आये कि नहीं आये?
प्रश्नकर्ता : आये ही।
दादाश्री : सब झूठा। सब लोग नहीं समझने की वजह से कहते हैं कि 'मैं सत्य कहता हूँ'। अरे, सत्य कहें तो कोई प्रत्याघात ही न हो।
ऐसा है न, हम जिस समय बोलते हैं उसी समय हमारे जोरदार प्रतिक्रमण चलते हो, बोलते वक्त साथ में ही।
प्रश्नकर्ता : किंतु जो सच्ची बात है वह आप कहते हैं उसमें क्या प्रतिक्रमण करना?
दादाश्री : नहीं, फिर भी प्रतिक्रमण तो करने ही होंगे न। किसी का गुनाह तूने क्यों देखा? निर्दोष होने पर भी दोष क्यों देखा? निर्दोष है फिर भी उसकी निंदा तो हुई न? निंदा हो ऐसी सच्ची बात भी नहीं बोलनी चाहिए, ऐसी सच्ची बात वह गुनाह है। (किसी को दुखदायी हो) ऐसी सच्ची बात संसार में बोलना वह गुनाह है। सच्ची बात हिंसक नहीं होनी चाहिए। यह हिंसक बात कहलाये।
आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान वह मोक्षमार्ग है। हमारे महात्मा क्या करते हैं? सारा दिन आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ही किया करते हैं। अब उन्हें कहेंगे कि 'आप इस ओर चलें। व्रत-नियम करें।' तो कहेंगे, 'हमें व्रत-नियम को क्या करना है? हमारे भीतर ठंडक है, हमें चिन्ता नहीं है। निरंतर समाधि में रहा जाता है। फिर किस लिए उपधान तप और फलाँ तप?' वह क्लेश कहलाये। वह तो दुविधावाले लोग करें सब। जिसे जरूरत हो, शौक़ हो। इसलिए हम कहते हैं कि यह तप, वह तो शौक़ीन लोगों का काम है। संसार के शौक़ीन हो, उन्हें तप करने चाहिए।
प्रश्नकर्ता : किंतु ऐसी मान्यता हो कि तप करने से कर्मों की निर्जरा होती है।