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नित्य मंगल स्मरण और
गौतमस्वामी का रास
प्रेरक पं. श्री धरणेन्द्र सागरजी म. सा.
प्रकाशक
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा (जि. गांधीनगर, गुजरात)
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॥ श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमो नमः ॥
卐 नव स्मरणानि ।'
(१) प्रथमं नमस्कारमन्त्रस्मरणम् ।।
१
।
नमो
नमो अरिहंताणं
सिद्धाणं ॥२॥ नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं ॥ ४ ॥ नमो लोए सव्वसाहूण ॥ ५ ॥
'एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं'
॥१।।
ध्येय पाने को स्वयं पर बढाना होगा पथ के पत्थर को स्वयं दूर हटाना होगा दूसरा कौन तेरे प्रश्न का उत्तर देगा ? अपने ही मन तुझे दीप जलाना होगा
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(२) द्वितीयं उपसर्गहरस्मरणम् ।।
उर्वसगहरं पास पासं वदामि कम्मघणमुक्कं । विसहरविसनिन्नासं मंगलकल्लाणआवासं ॥१॥ विसहर फुलिंगमंत कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गहरोग-मारो-दुट्ठजरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दूरे मंतो तुज्झ पणामोऽवि बहुफलो होइ । नरतिरिएसुऽवि जीवा पावंति न दुक्खदोगच्च ।। ३ ।। तुह सम्मत्ते लद्ध चिंतामणिकप्प-पायवऽभहिए। पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इअ संथओ महायस ! भत्तिभर निब्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं भवे भवे पासजिणचंद ! ॥५।।
मन कभी गतिहीन कभी पंख बन जाता है पल भर का मौन कभी संख बन जाता है । क्षण क्षण में रंग बदलने वाला यह मन कभी राजा कभी रंक बन जाता है ।
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(३) तृतीयं सन्तिकरंस्मरणम् ।।
संतिकरं संतिजिणं जगसरणं जयसिरीइ दायारं । समरामि भत्तपालगनिव्वाणी - गरुडकयसेवं ॥१॥
ॐ नमो विप्पोसहिपत्ताणं संतिसामिपायाणं । नौं स्वाहामंतेणं सध्वा सिवदुरिअहरणाणं || २ || ॐ संतिनमुक्कारो खेलोसहिमाइलद्धिपत्ताणं । (स) नमो सव्वोसहिपत्ताणं च देइ सिरिं ।। ३ ।। वाणीतिहुअणसामिणिसिरिदेवीज क्ख रायगणिपिडगा । गहदिसिपालसुरिंदा सयावि रक्खंतु जिणभत्ते ||४|| रक्खंतु मम रोहिणि पन्नत्ती वज्जसिंखला य सया । वज्जंकुसि चक्केसरि नरदत्ता कालि महकाली ॥ ५ ॥ गोरी तह गंधारी महजाला माणवी अ वइरुट्टा । अच्छुत्ता माणसिआ महमाणसियाउ देवीओ || ६ ||
क्खा गोमुह महजक्ख तिमुह जक्खेस तुंबरू कुसुमो । मायंग विजयाऽजिअ बंभो मणुओ सुरकुमारो ||७||
छम्मुह पयाल किन्नर गरुलो गंधव्व तहय जक्खिदो । कूबर वरुणो भिडी गोमेहो पास मायंगा ||८||
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देवीओ चक्केसरि अजिआ दुरिआरि कालि महकाली। अच्चुअ संता जाला सुतारयाऽसोअ सिरिवच्छा ।।९।। चंडा विजयंकुसि पन्नइत्ति निव्वाणि अच्चुआ धरणी। वइरुट्टाछुत्त गंधारि अंब पउमावई सिद्धा ॥१०॥ इअ तित्थरक्खणरया अन्नेऽवि सुरासुरी य चउहावि । वंतरजोइणिपमुहा कुणंतु रक्खं सया अम्ह ।।११।। एवं सुदिट्ठिसुरगण-सहिओ संघस्स संतिजिणचंदो । मझ्झवि करेउ रक्खं मुणिसुंदरसूरिथुअमहिमा ।।१२।। इअ संतिनाहसम्म-द्दिट्ठी रक्खं सरइ तिकालं जो । सव्वोवद्दवरहिओ स लहइ सुहसंपय परमं ।।१३।।
रिक्त लौटा है न कोई साधना के द्वार से हर समय सब कुछ मिला सबको इसी भंडार से साम्राज्य सारी सिद्धियों का है सुरक्षित सर्वथा फिर तुम्हीं वंचित रहो क्यों दिव्य निज अधिकार से छोडो अतीत भविष्य का इतिहास अब आगे बढो क्यों रुके हो साधना के क्षेत्र में आगे बढो ।
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(४) चतुर्थं तिजयपहुत्तस्मरणम् ।।
तिजयपहत्तपयासय–अट्ठमहापाडिहेरजुत्ताणं । समयक्खित्तठिआणं सरेमि चक्कं जिणंदाणं ।।१।। पणवीसा य असीआ पन्नरस पन्नास जिणवरसमूहो। नासेउ सयलदुरिअं भविआणं भत्तिजुत्ताणं ।।२।। वीसा पणयालावि य तीसा पन्नत्तरी जिणवरिंदा । गहभूअरक्खसाइणि-घोरुवसग्गं पणासंतु ॥३॥ सत्तरि पणतोसाविय सट्ठी पंचेव जिणगणो एसो। वाहिजलजलणहरिकरि-चोरारिमहाभय हरउ ।।४।। पणपन्ना य दसेव य पन्नट्ठी तय चेव चालीसा। रक्खंतु मे सरीरं देवासुरपणमिआ सिद्धा ।।५।। ॐ हरहुंहः सरसुसः हरहुंहः तय चेव सरसुसः । आलिहियनामगब्भं चक्कं किर सव्वओभई ।।६।। ॐ रोहिणिपन्नत्ति वज्जसिंखला तह य वज्जअंकुसिआ। चक्केसरी नरदत्ता कालि महकाली तह गोरी ।।७।। गंधारी महजाला माणवि वइरुट्ट तह य अच्छुत्ता । माणसि महमाण सिआ विज्जादेवीओ रक्खंतु ।।८।।
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पंचदसकम्मभूमिसु उप्पत्नं .सत्तरि जिणाण सयौं । विविहरयणाइवन्नो-वसोहिअं हरउ दुरिआई ।।९।। चउतीस अइसयजुआ अट्ठमहापाडिहेरकयसोहा । तित्थयरा गयमोहा झाएअव्वा पयत्तेणं ॥१०॥ ॐ वरकणयसंखविद्द ममरगयघणसन्निहं विगयमोहं । सत्तरिसयं जिणाणं सव्वामरपूइअं वंदे स्वाहा ।।११।। ॐ भवणवइवाणवंतरजोइसवासी विमाणवासी अ । जे केवि दुठ्ठदेवा ते सव्वे उवसमंतु मम स्वाहा ।।१२।। चंदणकप्पूरेणं फलए लिहिऊण खालिअं पीअं । एगंतराइगहभुअसाइणिमुग्गं पणासेइ ॥१३।। इअ सत्तरिसय जंतं सम्मं मंतं दुवारि पडिलिहिअं । दुरिआरिविजयवंतं निभंतं निच्चमच्चेह ।।१४।।
हम नीचा अपना नाम नहीं होने देंगे । हम कभो सुबह को शाम नहीं होने देंगे । है नहि बन की कमी प्राण दे डालेंगे, हम अपने समाज को बदनाम नहीं होने देंगे ।
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(५) पश्चम नमिऊणस्मरणम् ।। नमिऊण पणयसुरगणचूडामणिकिरणरंजिअ मुणिणों। चलणजुअलं महाभयपणासणं संथवं वुच्छं ॥१॥ सडियकरचरणनहमुह निबुड्डनासा विवन्नलायन्ना । कुछमहारोगानल फुलिंगनिद्दडढ्सव्वंगा ॥२॥ ते तुह चलणाराहणसलिलंजलिसेयवुडिढउच्छाहा । वणदेवदंडढा गिरिपा-यवब्व पत्ता पुणो लच्छि ॥३॥
युग्मं दुव्वायखुभियजलनिहिउन्भडकल्लोलभीसणारावे । संभंतभयविसंठुल निज्जामयमुक्कवावारे ।।४।। अविदलिअजाणवत्ता खणेण पावंति इच्छिअं कुलं । पासजिणचलणजुअलं निच्चं चिअ जे नमंति नरा ॥५॥
युग्म खरपवणुद्ध यवणदवजालावलिमिलियसयलदुमगहणे । डझंतमुद्धमयवहुभीसणरवभीसणम्मि वणे ॥६॥ जगगुरुणो कमजुअलं निव्वाविअसयलतिहुअणाभो । जे संभरंति मणुआ न कुणइ जलणो भयं तेसि ।।७।।
युग्मं विलसंतभोगभीसण फुरिआरुणनयणतरलजीहालं । उग्गभुअंगं नवजलय सत्थहं भीसणायारं ॥८॥
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दूरपरिच्छूढविसमविसवेगा ।
मन्नंति कीडसरिसं तुह नामक्खर फुडसिद्धमंतगुरुआ नरा लोए || ९ ||
युग्मं अडवीसु भिल्ल-तक्कर - पुलिंद-सद्द लसद्दभीमासु । भयविहरवुन्नकायर - उल्लूरि अपहिअसत्थासु ॥ १० ॥ अविलुत्तविहवसारा तुह नाह ! पणाममत्तवावारा । aarयविग्धा सिग्धं पत्ता हियइच्छिय ठाणं ॥ ११ ॥ युग्मं
पज्जलिआनलनयणं दूरवियारियमुहं महाकाय । नहकुलिसघायविअलिअगइंदकु भत्थलाभोअं ।। १२ ।। पण यस संभमपत्थिवनमणिमाणिक्कपडिअपडिमस्स । तुह वयणपहरणंधरा सीहं कुद्ध पिन गणंति ॥ १३ ॥
युग्मं
1
ससिधवलदंतमुसल दिहकरुल्लालवुड्दिउच्छाह् महुपिंगनयणजुअलं ससलिलनवजलहरारावं ।। १४ ।।
भीमं
महागइंदं अच्चासन्नंपि ते नवि गणंति । जे तुम्ह चलणजुअलं मुणिवइ ! तुरंगं समल्लीणा ।। १५ ।।
युग्मं
समरम्मि
तिक्खखग्गाभिग्धायपविद्धउद्ध यकबंधे ।
कु तविणिभिन्नकरिकलह मुक्कसिक्कारपउरम्मि ॥ १६ ॥
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निज्जियदप्पुद्ध ररिउनरिंदनिवहा भडा जसं धवलं । पावंति पावपसमिण ! पासजिण ! तुह प्पभावेण ।१७।
युग्मं रोगजलजलणविसहरचोरारिमइंदगयरणभयाई पासजिणनामसंकित्तणेण पसमंति सव्वाइं ॥१८॥ एवं महाभयहरं पासजिणिंदस्स संथवमुआरं । भवियजणाणंदयरं कल्लाणपरंपरनिहाणं ॥१९।। रायभय-जक्ख-रक्खस-कुसुमिण-दुसुमिण-रिक्खपीडासु । संझासु दोसु पंथे उवसग्गे तह य रयणीसु ।।२०।। जो पढइ जो अ निसुणइ ताणं कइणो य माणतुंगस्स । पासो पावं पसमेउ सयलभुवणच्चिअच्चलणो ।२१॥ उवसग्गंते कमठा-सुरम्मि झाणाओ जो न संचलिओ। सुर-नर-किन्नरजुवईहिं संथुओ जयउ पासजिणो ।२२। एअस्स मज्झयारे अट्ठारसअक्खरेहिं जो मंतो । जो जाणइ सो झायइ परमपयत्थं फुडं पासं ।।२३।। पासह समरण जो कुणइ संतुठे हियएण । अछुत्तरसय वाहिभय, नासेइ तस्स दुरेण ॥२४।।
आज पढ़ना सब जानते हैं पर क्यों पढना चाहिये यह कोई नहि जानता ।
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Achi
(६) षष्ठं अजितशान्तिस्मरणम् ॥
अजिअं जिअसव्वभय संति च पसंतसव्वगयपावं । जयगुरु संतिगुणकरे दोऽवि जिणवरे पणिवयामि ।।
॥१॥ गाहा ।। ववगयमंगुलभावे ते हं विउलतवनिम्मलसहावे । निरुवममहप्पभावे थोसामि मुदिट ठसब्भावे
॥२।। गाहा ॥ सव्वदुक्खप्पसंतीणं, सवपावप्पसंतीणं । सया अजियसंतोणं, णमो अजिअसंतीणं
॥३॥ सिलोगो ॥ अजियजिण! सुहप्पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम नामकित्तणं । तह य धिइमइप्पवत्तणं, तव य जिणुत्तम ! संतिकित्तणं
॥४॥ मागहिआ ।। किरिआविहिसंचिअकम्मकिलेसविमुक्खयर, अजिअ निचिअंच गुणेहिं महामुणिसिद्धिगय । अजिअस्स य संतिमहामुणिणोऽविअ संतिकर, सयय मम निव्वुइकारणय च नमसणय
।।५।। आलिंगणय ।।
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पुरिसा ! जइ दुक्खवारणं, जइ अ विमग्गह सुक्खकारणं। अजिअ संति च भावओ, अभयकरे सरणं पवजहा
मागहिआ ॥ ।।६।। अरइ-रइतिमिरविरहिअमुवरयजरमरणं, सुर-असुर-गरुल-भुयगवइपययपणिवइअ । अजिअमहमविअ सुनयनयनिउणमभयकरं सरणमुवसरिअ भुवि-दिविजमहिअ सययमुवणमे
।। ७ ।। संगययं ।। तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं, अज्जव-मद्दव-खंति-विमुत्ति-समाहिनिहिं । संतिकरं पणमामि दमुत्तमतित्थयरं, सतिमुणी ! मम संतिसमाहिवरं दिसउ
।। ८ ।। सोवाणयं ।।
सावत्थिपुव्वपत्थिवं च वरहत्थिमत्थयपसत्थविच्छिन्नसंथि, थिरसरिच्छवच्छ मयगललीलायमाणवरगंधहत्थिपत्थाणपत्थिय संथवारिहं । हत्थिहत्थबाहुधंतकणगरुअगनिरुवहयपिंजरं पवरलक्खणोवचिअसोमचारूरुवं, सुइमुहमणाभिरामपरमरमणिज्जवरदेवदुदुहिनिनायम
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हुरयरसुहगिरं
।। ९ ।। वेड्ढओ।। अजिअ जिआरिगणं, जिअसव्वभय भवोहरिउ । पणमामि अहं पयओ, पावं पसमेउ मे भयवं !
॥१०॥ रासासुद्धओ। कुरुजणवयहत्थिणाउरनरीसरो पढमं तओ महाचक्कवट्टिभोए महप्पभावो, जो बावत्तरिपुरवरसहस्सवरनगरनिगमजणवयवई बत्तीसारायवरसहस्साणुयायमग्गो । चउदसवररयण-नवमहानिहि-चउसट्ठिसहस्सपवरजुवईण सुदरवई, चुलसीहय-गय-रह-सयसहस्ससामी, छण्णवइगामकोडिसामि आसी जो भारहम्मि भयवं!
।। ११ ।। वेड्ढओ। तं संति संतिकर, संतिण्णं सव्वभया । संति थुणामि जिणं, संति विहेउ मे
।। १२ ।। रासानंदिअयं ॥ युग्मं । इक्खाग ! विदेहनरीसर ! नरवसहा ! मुणिवसहा !, नवसारयससिसकलाणण ! विगयतमा ! विहुअरया !
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अजिउत्तम ! तेअगुणेहिं महामुणिअमिअबला ! विउलकुला !, पणमामि ते भवभयमूरण ! जगसरणा मम सरणं
॥ १३ ॥ चित्तलेहा ॥ देव-दाणविंद-चंद-सूरवंद! हट्ठ-तुट ठ-जिट ठपरम !, लट ठरूव ! धंतरुप्प-पट्ट-सेअ-सुद्ध-निद्ध-धवल ! दंतपंति ! संति! सत्ति-कित्ति-मुत्ति-जुत्ति-गुत्ति-पवर !, दित्ततेअवंद ! धेअ! सव्वलोअभाविअप्पभाव ! अ! पइस मे समाहिं
।। १४ ।। नारायओ॥
विमलससिकलाइरेअसोम, वितिमिरसूरकराइरेअते। तिअसवइगणाइरेअरूवं, धरणिधरप्पवराइरेअसारं
॥१५॥ कुसुमलया । सत्ते अ सया अजिअ, सारीरे अ बले अजिअं । तवसंजमे अ अजिअ, एस थुणामि जिणं अजिअ
॥१६ ।। भुअगपरिरिंगि ॥ युग्मं । सोमगुणेहिं पावइ न तं नवसरयससी, तेअगुणेहिं पावइ न तं नवसरयरवी । रूवगुणेहिं पावइ न तं तिअसगणवई,
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सारगुणेहिं पावइ न तं धरणीधरवई
।। १७ ।। खिज्जिअय ।। तित्थवरपवत्तय तमरयरहि, धीरजणथुअच्चि चुअकलिकलुसं । संतिसुहप्पवत्तय तिगरणपयओ, संतिमहं महामुणि सरणमुवणमे ।
॥१८॥ ललिअय॥ विणओणयसिररइअजलिरिसिगणसंथुअथिमि, विबुहाहिव-धणवइ-नरवइथुअमहिअच्चि बहुसो । अइरुग्गयसरयदिवायरसमहिअसप्पभं तवसा, गयणंगणवियरणसमुइअचारणवंदि सिरसा
॥१९॥ किसलयमाला ।। असुर-गरुलपरिवंदिअ, किन्नरोरगणमंसि । देवकोडिसयसंथुअ, समणसंघपरिवंदिअ॥
॥२० ।। सुमुहं ॥ अभयं अणहं, अरयं अरुयं । अजिअ अजिअ, पयओ पणमे ॥
॥ २१ ॥ विज्जुविलसि ।। त्रिभिविशेषकम् । आगया वरविमाणदिव्वकणगरह
तुरयपहकरसएहिं हुलि ।
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ससंभमोअरणखुभिअलुलिअचलकुडलंगयतिरीडसोहंतमउलिमाला
॥ २२ ।। वेड्ढओ।। जं सुरसंघा सासुरसंघा वेरविउत्ता भत्तिसुजुत्ता, आयरभूसिअसंभमपिंडिअसुट्ठसुविम्हिअसव्वबलोघा । उत्तमकंचणरयणपरूवियभासुरभूसणभासुरिअगा, गायसमोणयभत्तिवसागयपंजलिपेसियसीसपणामा
॥२३ ।। रयणमाला ॥ वंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं। पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पमुइआ सभवणाइँ तो गया
॥२४॥ खित्तयं ।। तं महामुणिमहंपि पंजली, रागदोसभयमोहवज्जि। देवदाणवनरिंदवंदिअ, संतिमुत्तममहातवं नमे
।। २५ ।। खित्तयं ॥ अंबरंतरविआरणिआहिं, ललिअहंसवहुगामिणिआहिं । पीणसोणिथणसालिणिआहिं, सकल कमलदललोअणिआहिं ।
।। २६ ।। दोवयं । पीणनिरंतरथण भरविण मियगायलआहि, मणिकंचणपसिढिलमेहलसोहिअसोणितडाहिं ।
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वरखिखिणिनेउरसतिलयवलयविभूसणिआहिं, रइकरचउरमणोहरसु दरदंसणिआहि
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।। २७ ।। चित्तक्खरा ||
देवसुंदरीहिं पायवंदिआहिं,
वंदिआ य जस्स ते सुविक्कमा कमा अपणो निडालएहिं मंडणोड्डणप्पगारएहि केहि केहि वीअवंगतिलयपत्तलेहनामएहि चिल्लएहिं संगयंगयाहि भत्तिसन्निविट्ठवंदणागयाहि हुंति ते वंदिआ पुणो पुणो
।। २८ ।। नारायओ ||
तमहं जिणचंद, अजिअ जिअमोहं । धुअसव्वकिलेसं, पयओ पणमामि
।। २९ ।। नंदिअयं ॥
थुअवंदिअयस्सा रिसिगणदेवगणेहिं, तो देववहुहिं पयओ पणमिअस्सा | जस्स जगुत्तमसासणअस्सा, भत्तिवसागयपिडिअयाहि । देववरच्छरसाव हुआहिं, सुरवररइगुण पंडिअयाहि ।। ३० ।। भासुरयं ।
वंससद्दतंतितालमेलिए तिउक्खराभिरामसद्दमीसए कए अ, सुइसमाणणे अ सुद्धसज्जगी अपायजालघंटिआहिं ।
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वलयमेहलाकलावनेउराभिरामसद्दमीसए कए अ, देवनट्टिआहिं हावभावविब्भमप्पगारएहिं । नच्चिऊण अंगहारएहिं वंदिआ य जस्स ते सुविक्कमा
कमा, तयं तिलोअसव्वसत्तसंतिकारयं पसंतसव्वपावदोसमेसहं
नमामि संतिमुत्तमं जिणं
॥३१ ।। नारायओ।। छत्तचामरपडागजूअजवमंडिआ, झयवरमगरतुरयसिरिवच्छसुलंछणा । दीवसमुद्दमंदरदिसागयसोहिआ, सत्थिअवसहसीहरहचक्कवरंकिया
॥३२॥ ललिअय॥
सहावलट्ठा समप्पइट्ठा, अदोसदुट्ठा गुणेहिं जिट्ठा । पसायसिट्ठा तवेण पुट्ठा, सिरीहिं इट्ठा रिसीहिं जुट्ठा
।। २३ ।। वाणवासिआ ।। ते तवेण धुअसव्वपावया, सव्वलोअहिअमूलपावया । संथुआ अजिअसंतिपायया, हुतु मे सिवसुहाणदायया
।। ३४ ।। अपरांतिका ।। एवं तवबलविउलं, थुमए अजिअसंतिजिणजुअलं ।
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ववगयकम्मरयमलं, गई गय सासय विउलं
।। ३५ ॥ गाहा ॥
तं बहुगुणप्पसाय, मुक्खसुहेण परमेण अविसाय । नासेउ मे विसाय, कुणउ अ परिसाऽविअ पसायं
।। ३६ ।। गाहा ॥
तं मोएउ-अ-नंदि, पावेउ अ नंदिसेणमभिनंदि । परिसाऽविअ सुहनंदि, मम य दिसउ संजमे नंदि
।। ३७ ।। गाहा ।। पक्खिअचाउम्मासिअसंवच्छरिए अवस्स भणिअव्वो। सोअव्वो सब्वेहिं, उवसग्गनिवारणो एसो
। ३८ ।।
जो पढइ जो अ निसुणइ, उभओकालंपि अजिअसतिथयं । न हु हु ति तस्स रोगा, पुव्वुप्पन्नावि-णासंति
॥ ३९ ॥ जइ इच्छह परमपयं, अहवा कित्ति सुवित्थड भुवणे। ता तेलुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ।। ४० ।।
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(७) सप्तमं भक्तामरस्मरणम् ।।
भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रभाणा मुद्द्योतकं दलित पापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् यः संस्तुतः सकलवाङमयतत्त्वबोधाद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्र गर्जस्त्रितयचित्तहरैरुदारैः स्तोष्ये किलाहमपितं प्रथमं जिनेन्द्रम् बुद्धया विनाऽपि विबुधचितपादपीठ !, स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ? वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशाङ्ककान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धधा ? । कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र',
को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ? ॥ ४ ॥
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !, कर्त्तु ं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ।
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
।। ३ ।।
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. २०
प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ? ॥ ५ ॥
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः
त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्ध, पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्या शुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७ ।।
मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ।।८।।
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥
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२१
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नात्यद्भुतं भुवनभूषणभूत ! नाथ !, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ।
3
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा ? भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।। १० ।।
सृष्ट्वा
भवन्तमनिमेषविलोकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ! ॥ ११ ॥ शान्तरागरुचिभि: परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत ! |
यैः
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्त समानमपरं
नहि
रूपमस्ति ॥ १२ ॥
सुरनरोरगनेत्रहारि,
वक्त्रं क्व ते निःशेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम् ? ।
बिम्बं कलङकमनिलं क्व निशाकरस्य ?, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥
सम्पूर्णमण्डल शशाङ्ककलाकलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं लव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर ! नाथमेकं, कस्तान्निवारयति
संचरतो यथेष्टम् ? ।। १४ ।
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चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् ? । कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादिशिखर चलितं कदाचित् ? ।। १५ ।। निधू मवतिरपवजिततैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिद प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ।। १६ ।। नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ।। १७ ।। नित्योदयं दलितमोहमहान्धकार, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति, विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङबिम्बम् ।। १८ ।। किं शर्वरोषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सु ? नाथ ! । निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियजलधरैर्जलभारनम्र : ? ।। १९ ।।
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२३
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ।। २० ।। मन्ये वर हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदय त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता ? भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ।। २१ ।। स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतौं त्वदुपम जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मि, प्राच्चेव दिग् जनयति स्फुरद शुजालम् ॥ २२ ।। त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ।। २३ ।। त्वामव्यय विभुमचिन्त्यमससंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ गकेतुम् । योगीश्वर विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४॥
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बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात्, त्वं शंकरोऽसि-भुवनत्रयशंकरत्वात् । धाताऽसि धीर! शिवमार्गविधेविधानाद् , व्यक्त त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ।। २५ ।। तुभ्य नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ ! , तुभ्य नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्य नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्य नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय ।। २६ ।। को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेष स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया ! मुनीश ! । दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७ ।। उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववति ।। २८ ।। सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे. विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितान, तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥
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२५
कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशाङ कशुचिनिर्झरवारिधार मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ ३०॥ छत्रत्रय तव विभाति शशाङककान्त मुच्चैः स्थित स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभं, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ।। ३१ ॥ उन्निद्रहेमनवपंकजपुंजकान्ति पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः; पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३२॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र !, धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । याक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, ताहा कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ? ॥ ३३ ॥ श्च्योतन्मदाविल विलोलकपोलमूल मत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं, दृष्टवा भय भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३४॥
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२६
भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रखरभूषितभूमिभागः । बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते
कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्फुलिंगम् । जिघत्सुमिव
विश्वं
तवन्नामकीर्तनजलं
रक्तक्षणं समद कोकिलकण्ठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्कणमापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः
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वल्गतुरंग गजगजितभीमनाद माजौ बलं उद्यद्दिवाकरमयूखशिखाऽपविद्ध ं, त्वत्कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह वेगावतारतरणातुरयोधभीमे । युद्ध े जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा स्त्वत्पादपंकजवनाश्रयिणो लभन्ते
सम्मुखमापतन्तं,
शमयत्यशेषम् ।। ३६ ।।
बलवतामपि भूपतीनाम् ।
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।। ३५ ।।
।। ३७ ।।
।। ३८ ।।
।। ३९ ।।
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अम्भोनिधौ क्षुभितभोषणनऋचक पाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ । रंगत्तरंगशिखरस्थितयानपात्रा स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।। ४० ॥ उद्भुतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशा: । त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः । ४१ ।। आपादकण्ठमुरुशृंखलवेष्टितांगा, गाढ़ बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघा: । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्य: स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ।। ४२ ॥ मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि संग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ।। ४३ ।। स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र ! गनिबद्धां, भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्त्रं, तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः
।।४४।।
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(८) अष्टमं कल्याणमन्दिरस्मरणम् ।।
कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीताभयप्रदमनिन्दितमंघ्रिपद्मम् । संसारसागरनिमज्जदंशेषजन्तु पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य
यस्य स्वयं . सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशे., स्तोत्र सुविस्तृतमतिर्न विभुविधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ।। २ ।। युरमम् ।। सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप मस्माद्दशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः ? । धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदिवा दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मे: ? ।।३।।
मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मयों, नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मान्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशि : ? ॥४॥
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अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि; कर्त स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाऽम्बुराशेः ? ॥५॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश !, वक्तं कथं भवति तेषु ममावकाश: ? । जाता तदेवमसमीक्षितकारितेय, जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ? ।।६।। आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनान् निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ।। ७ ।। हृत्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते . वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।।८।। मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र !, रौद्ररुपद्रवशतैस्त्वयि . वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि द्दष्टमात्रे, चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥९॥
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३०
त्वं तारको जिन ! कथं भविनां ? त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्त । यद्वा इतिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ १०॥
यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपि
हतप्रभावाः,
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन ।
विध्यापिता हुतभुजः पीतं न किं तदपि
स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि
प्रपन्ना
स्त्वां जन्तवः कथमहो ! हृदये दधानाः । तरन्त्यतिलाघवेन ?,
पयसाऽथ येन,
दुर्धरवाडवेन ? ।। ११ ।।
जन्मोदधिं लघु
चिन्त्यो न हन्त ! महतां यदि वा प्रभावः ।। १२ ।।
क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा बत कथं किल कर्मचौराः ? |
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिराऽपि लोके, नीलद्रमाणि विपिनानि न कि हिमानी ? ।। १३ ।।
त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे । पूतस्य निर्मलरुचेर्य दि वा किमन्यदक्षस्य सम्भवि पद ननु कणिकाया: ? ।। १४ ।।
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ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव . धातुभेदाः ।। १५ ।। अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् ? । एतत्स्वरूपमथ मध्यविवत्तिनो हि, यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ।। १६ ।। आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धया, ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ? ।। १७ ।। त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नून विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । किं काचकामलिभिरीश ! सितोऽपि शंखो, नो गृह्यते विविधवर्णविपर्य येण ? ॥१८॥ धर्मोपदेशसमये सविधानुभावादास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि, किंवा विबोधमुपयाति न जोवलोकः ? ।।१९।।
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३२
चित्र विभो ! कथवमाङमुखवृन्तमेव, विष्वक पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः ? । तद गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !, गच्छन्ति नूनमध एव ही बन्धनानि ।। २० ।। स्थाने गभीरहृदयोदधिसम्भवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पोत्वा यतः परमसम्मदसंगभाजो, भव्या व्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम् ।। २१ ।। स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्ध भावाः ।। २२ ।। श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेम रत्नसिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन : नदन्तमुच्चैइचामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ।। २३ ।। उद गच्छता तव शितिधतिमण्डलेन, लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !, निरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ? ॥२४ ।।
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भो भोः ! प्रमादमवधूय भजध्वमेनमागत्य निवृतिपुरि प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव ! जगत्त्रयाय, मन्ये नदन्नभि नभः सुरदुन्दुभिस्ते ॥ २५ ॥ उद्दयोतितेषु भवता भुवनेषु नाथ !, तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः । मुक्ताकलापकलितोच्छ्वसितातपत्र व्याजात् त्रिधा धृततनुर्धवमभ्युपेतः ॥२६ ।। स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन, कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७ ।। दिव्यस्रजो जिन ! नमत्रिदशाधिपानामुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्सङ् गमे सुमनसो न रमन्त एव ।। २८॥ त्वं नाथ ! जन्मजलधेविपराङ मुखोऽपि, यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठिलग्नान् । युक्त हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्यः ।। २९॥
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विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं, किंवाऽक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ! । अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव, ज्ञान त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः ।। ३०॥ प्राग्भारसम्भृतनभांसि रजांसि रोषा दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायाऽपि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव पर दुरात्मा ।। ३१ ।। यद गर्जदूजितघनौघमदभ्रभीम, भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरघारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दघ्र, तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ।। ३२॥ ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृताकृतिमर्त्यमुण्डप्रालम्बभृद्भयदवक्त्रविनिर्यदग्निः । प्रेतव्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः, सोऽस्याभवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्यमाराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः, पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः ।। ३४ ।।
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अस्मिन्नपारभववारिनिधौ मुनीश !, मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकणिते तु तव गोत्रपवित्रमन्त्रे, किंवा विपद्विषधरी सविधं समेति ? ॥ ३५ ॥ जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव !, मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकृदपि प्रक्लिोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः, प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते ? ॥ ३७ ।। आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्र, यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या: ।। ३८ ।। त्वं नाथ! दुःखिजनवत्सल ! हे शरण्य !, कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य ! । भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय, दुःखाङ्क रोद्दलनतत्परतां विधेहि ।। ३९ ।।
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३६
निःसङ ख्यसारशरणं शरणं शरण्यमासाद्य सादितरिपु प्रथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो, वध्योऽस्मि चेद भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि ॥ ४० ॥ देवेन्द्रवन्ध ! विदिताखिलवस्तुसार !, संसारतारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ! । त्रायस्व देव ! करुणाह्रद ! मां पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥ ४१ ।। यद्यस्ति नाथ ! भवदङिघ्रसरोरुहाणां, भक्त: फलं किमपि सन्ततिसंचितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥ ४२ ॥ इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र !, सान्द्रोल्लसत्पुलकक चुकिताङ गभागाः । त्वबिम्बनिर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्षा, ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः ॥ ४३ ।। जननयनकुमुदचन्द्र !, प्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचयाः .. अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ ४४॥ युग्मम् ॥
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३७ (९) नवमं बृहच्छान्तिस्मरणम् ॥
भो ! भो ! भव्याः ! श्रृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतद, ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोराहता भक्तिभाजः । तेषां शान्तिर्भवतु भवतामहदादिप्रभावादारोग्यश्रीधृतिमतिकरी क्लेशविध्वंसहेतुः ॥१॥
___ भो ! भो ! भव्यलोका ! इह हि भरतैरावतविदेहसम्भवानां समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासनप्रकम्पानन्तरमवधिनां विज्ञाय सौधर्माधिपतिः, सुघोषाघण्टाचालनानन्तरं सकलसुरासुरेन्द्रः सह समागत्य सविनयमहद भट्टारकं गृहोत्वा गत्वा कनकाद्रिशृङगे विहितजन्माभिषेकः शान्तिमुद्घोषयति यथा ततोऽहं कृतानुकारमितिकृत्वा ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः' इति भव्यजनैः सह समेत्य स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय शान्तिमुद्घोषयामि, तत्पूजायात्रास्नात्रादिमहोत्सवानन्तरमितिकृत्वा कणं दत्त्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा ।
___ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रीयन्तां भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वदशिनस्त्रिलोकनाथास्त्रिलोकमहितास्त्रिलोकपूज्यास्त्रिलोकेश्वरास्त्रिलोकोद्योतकराः ।
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ॐ ऋषभअजितसम्भवअभिनन्दनसुमतिपद्मप्रभसुपाश्र्वचन्दप्रभसुविधिशीतलश्रेयांसवासुपूज्यविमलअनन्तधर्मशान्तिकुन्थुअरमल्लिमुनिसुव्रतनमिनेमिपाववर्धमानान्ता जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा ।
ॐ मुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजयदुर्भिक्षकान्तारेषु दुर्गमार्गेषु रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ।
ॐ ह्रीं श्री धृतिमतिकीतिकान्तिबुद्धिलक्ष्मीमेधाविद्यासाधनप्रवेशनिवेशनेषु सुगृहीतनामानो जयन्तु ते जिनेन्द्राः ।
ॐ रोहिणीप्रज्ञप्तिवज्रश्रृङखलावज्राङ्क शीअप्रतिचक्रापुरुषदत्ताकालीमहाकालीगौरीगांधारीसस्त्रिा. महाज्वालामानवीवैरोटयाअच्छुप्तामानसीमहामानसी षोडश विद्यादेव्यो रक्षन्तु वो नित्य स्वाहा ।
ॐ आचार्योपाध्यायप्रभृतिचातुर्वर्णस्य श्रीश्रमणसङ्घस्य शान्तिर्भवतु तुष्टिर्भवतु पुष्टिर्भवतु । . ॐ ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ गारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतुसहिताः सलोकपालाः सोमयमवरुणकुबेरवासवाऽऽदित्यस्कन्दविनायकोपेता ये चान्येऽपि ग्राम
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नगरक्षेत्रदेवतादयस्ते सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्तां अक्षीणकोषकोष्ठागारा नरपतयश्च भवंतु स्वाहा ।
ॐ पुत्रमित्रभ्रातृकलत्रसुहृत्स्वजनसम्बन्धिबन्धुवर्गसहिता नित्य चाऽऽमोदप्रमोदकारिणः, अस्मिँश्च भूमण्डलायतननिवासिसाधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणां रोगोपसर्गव्याधिदुःखदुभिक्षदौर्मनस्योपशमनाय शान्ति
र्भवतु ।
ॐ तुष्टिपुष्टिऋद्धिवृद्धिमांगल्योत्सवाः, सदा प्रादुर्भूतानि पापानि शाम्यन्तु दुरितानि, शत्रवः पराङ मुखा भवन्तु स्वाहा । श्रीमते शान्तिनाथाय, नमः शान्तिविधायिने । त्रैलोक्यस्यामराधीश मुकुटायचितांघ्रये ॥१॥ शांतिः शांतिकरः श्रीमान्, शांतिं दिशतु में गुरुः । शांतिरेव सदा तेषां, येषां शांतिगुहे गृहे ॥२॥
उन्मृष्टरिष्टदुष्टदग्रहगतिदुःस्वप्नदुनिमित्तादि। सम्पादितहितसम्पन्नामग्रहणं जयति शान्तेः ।।३।। श्रीसङ घजगज्जनपदराजाधिपराजसन्निवेशानाम् । गोष्ठिकपुरमुख्याणां,व्याहरणैाहरेच्छान्तिम् ॥ ४॥
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श्रीश्रमणसङ्घस्यशान्तिर्भवतु, श्रीपौरजनस्य शान्तिर्भवतु, श्रीजनपदानां शान्तिर्भवतु, श्रीराजाधिपानां शान्तिर्भवतु, श्रीराजसन्निवेशानां शान्तिर्भवतु, श्रीगोष्ठिकानां शान्तिर्भवतु, श्रीपौरमुख्याणां शान्तिभवतु, श्रीब्रह्मलोकस्य शान्तिर्भवतु ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा, ॐ श्रीपार्श्वनाथाय स्वाहा । एषा शान्तिः प्रतिष्ठायात्रास्नात्राद्यवसानेषु शान्तिकलशं गृहीत्वा कुङ, कुमचन्दनकर्पू राऽगरुधूपवासकुसुमांजलिसमेतः स्नात्रचतुष्किकायां श्रीसंघसमेतः शुचि शुचिवपुः पुष्पवस्त्राचन्दनाऽऽभरणालंकृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति ।
मणिपुष्पवर्षं,
नृत्यन्ति नृत्यं सृजन्ति गायन्ति च मंगलानि । स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान्, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके
शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवतु लोक:
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।। १ ।।
।। २ ।।
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अहं तित्थयरमाया, सिवादेवी तुम्ह नयर निवासिनी । अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवममं मिवं भवन्तु ॥ ३ ।। स्वाहा ।। उपसर्गाः क्षयं यान्ति, च्छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ।।४।। सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ।। ५ ।।
श्रीगौतमस्वामीरास.
(ढाळ १ ली-भाषाछंद.) वीरजिणेमरचरणकमलकमलाकरवासो, पणमवि पभगिसु मामिसालगोयमगुरुरासो । मणतणुवयणेकंत करवी निसुणो भो भविया, जिम निवसे तुम्ह देहगेह, गुणगण गहगहीया ।।१।। जंबूदीव सिरिभरहखित्त खोणीतलमंडण, मगधदेश सेणियनरेस रिउदलबलखंडण । धणवर गुब्बरगाम नाम जिहां जण गुणसज्जा, विप्प वसे वसुभूइ तत्थ तसु, पुहवी भक्जा ।।२।।
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ताण पुत्त सिरिइंदभूइ भूवलय पसिद्धो, चउदहविज्जा विविहरूव नारीरस विद्धो । विनयविवेकविचारसार गुणगणह मनोहर, सातहाथसुप्रमाणदेह् रूपहिं रंभावर ||३||
नयणवयणकरचरण जिणवि पंकज जळ पाडिय, तेजे ताराचंदसुर आकाश भमाडिय । रूवे मयण अनंग करवी मेल्ह्यो निरधाडोय, धीरिम मेरु गभीर सिंधु चंगिमचयचाडिय ॥४॥ पेखवि निरुवमरूव जास जण जंपे किंचिय, एकाकी कलिभीत इत्थ गुण म्हेल्या संचिय । अहवा निश्चे पुव्वजम्म जिणवर इणे अंचिय, रंभापउमा गौरीगंगरति विधिआ वंचिय ॥५॥ बुध गुरु कवि न कोई जसु आगल रहिओ, पंचसया गुणपात्रछात्र हिंडे परवरिओ । करे निरंतर यज्ञकर्म मिथ्यामतिमोहिय, इण छळ होशे चरण नाण दंसणह विसोहिय ||६|| वस्तुछंद - जंबूदोवह जंबूदीवह भरहवासंमि, खोणीतलमंडण मगधदेस सेणिय नरेस | वर गुब्बरगाम तिहां, विप्प वसे वसुभूइ सुंदरतसु भज्जा पुहवी सयलगुणगणरूवनिहाण | ताण पुत्त विज्जानीलो, गोयम अतिहि सुजाण ||७||
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( ढाळ २ जी-भाषा )
चरमजिणेसर केवलनाणी, चउविहसंघ पइट्ठा जाणी । पावापुर सामी संपत्तो, चउविहदेवनिकायहि जुत्तो
कीजे,
देवे समवरण तिहां जिण दीठे मिथ्यामति खीजे | त्रिभुवनगुरु सिंहासन बइठा, ततखिण मोह दुगंते पइठा
क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाठा जिम दिन चौरा । देवदुदुहि आकाशे वाजे, धर्मन रेसर आव्या गाजे
कुसुमवृष्टि विरचे तिहां देवा, चोसठ इंद्र जसु मागे सेवा | चामरछत्र शिरोवरि सोहे, रूपहि जिणवर जग सहु मोहे
उवसमरसभरभरो वरसंता, जोजनवाणि वखाण करता ।
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।। ८ ।।
॥ ९ ।।
।। १० ।।
।। ११ ।।
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।। १२ ।।
।।१४।।
जाणेवि वद्धमाणजिणपाया, सुरनरकिन्नर आवे राया कांतिसमूहे झलझलकता, गयण विमाणे रणरणकंता । पेखवि इंदभूई मन त्रिते, सुर आवे अम्ह जगन होते तीरतरंडक जिम ते वहता, समवसरण पुहता गहगहता । तो अभिमाने गोयम जंपे, इणि अवसरे कोपे तणु कंपे मूढा लोक अजाणुं बोले, सुर जाणंता इम कांई डोले। मू आगळ को जाण भणीजे ? मेरु अवर किम ओपम दीजे वस्तुछंद- वीर जिणवर वीर जिणवर नाणसंपन्न, पावापुरी सुरमहिय पत्त नाह संसारतारण , तहिं देवेहिं निम्मविय, समवसरण बहुसुखकारण
।। १५ ।।
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जिणबर जग उज्जीय करे, तेजे करि दिनकार | सिंहासन सामी ठव्यो, हुओ सु
जयजयकार
( ढाळ ३ जी - भावा.)
।। १६ ।।
तब चढिओ घणमानगजे, इदभुई भूदेव तो । हुकारो करि संचरिअ, कवणस, जिणवरदेव तो ? ॥१७॥ जोजनभूमि समवसरण, पंखे प्रथमारंभ तो । दहदिसि देखे विबुधवधू, आवंती सुरररंभ तो ।।१८।। मणिमयतोरणदंडधज, कोसीसे नवघाट तो । वैरविवजित जंतुंगण, प्रातिहारज आठ तो ।।१९।। सुरुनरकिन्नर असुरवर, इंद्र इंद्राणी राय तो । चित्त चमक्किय चितवे ए, सेबंता प्रभुपाय तो ।। २० ।।
ससहकिरण सम वीरजिण, पेखवि रूपविशाळ तो । एह असंभव संभवे ए, साचो ए इंद्रजाळ तो ||२१||
तो बोलावे त्रिजगगुरु, इंद्रभूई श्रीमुख संशा सामि सवे, फेडे मान मेल्ही मदठेली करी, भगते नामे सीस तो । पंचसयासुं व्रत लीयो ए, गोयम पहिलो सीस तो |२३|
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नामेण तो । वेदपण तो ||२२||
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बंधवसंजम सुणवि करी, अगनिभूई आवेइ तो। नाम लेइ आभास करे, ते पण प्रतिबोधेइ तो ।।२४।। इण अनुक्रमे गणहररयण, थाप्या वीर अग्यार तो। तव उपदेशे भुवनगुरु, संजमशुं व्रत बार तो ।।२५।। बिहुउपवासे पारणं ए, आपणपे विहरंत तो । गोयम संजम जग सयल, जयजयकार करंत तो ।।२६।। वस्तुछंद- इदभइअ इदभूइअ चढिय बहुमान हुकारो कर कंपतो, समवसरण पहोतो तुरंतो। इह संसा सामि सवे, चरमनाह फेडे फुरंतबोधिबीज संजाय मने, गोयम भवह विरत्त । दिक्ख लेइ सिक्खा सहिय, गणहरपय संपत्त ।।२७।।
(ढाळ ४ थी-भाषा.) आज हुओ सुविहाण, आज पचेलिम पुण्यभरो । दीठा गोयमसामि, जो नियनयणे अमियभरो ।२८। सिरिगोयमगणहार, पंचसयां मुनिपरिवरिय, भूमिय करे विहार, भवियां जण पडिबोह करे ।।२९।। समवसरण मोझार, जे जे संसा उपजे ए । ते ते परउपगार, कारण पूछे मुनिपवरो ।। ३० ।।
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जिहां जिहां दीजे दिक्ख, तिहां तिहां
__ केवल उपजे ए । आप कन्हे अणहुंत, गोयम दीजे दान इम ।।३१।। गुरु उपरे गुरुभत्ति, सामी गोयम उपनीय । इण छल केवलनाण, रागज राखे रंगभरे ॥३२।। जो अष्टापदशैल, वंदे चढी चउवीश जिण । आतमलबधिवसेण, चरमसरीरी सोय मुनि ।।३३।। इअ देसण निसुणेवि, गोयमगणहर संचलिअ । तापसपनरसएण, तो मुनि दीठो आवतों ए ॥३४।। तवसोसिय नियअंग, अम्ह शगती नवि उपजे ए। किम चढशे दृढकाय, गज जिम दिसे गाजतो ए? (३५। गिरुओ एणे अभिमान, तापस जा मन चितवे ए। तो मुनि चढीयो वेग, आलंबवि दिनकरकिरण ॥३६।। कंचणमणिनिप्फन्न, दंडकलसधजवड सहिय । पेखवि परमाणंद, जिणहर भरहेसरमहिय ।।३७।। नियनियकायप्रमाण, चउदिसि संठिअ जिणह बिंब । पणमवि मनउल्लास,गोयमगणहर तिहां वसिय ।३८। वयरस्वामीनो जोव, तिर्यगज़ंभक देव तिहां । प्रतिबोधे पुंडरीककंडरीकअध्ययन भणी ।।३९॥
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वळता गोयमसामि, सवि तापम प्रतिबोध करे। लेई आपण साथ, चाले जिम जूथाधिपति ।४॥ खोरखांडघत आण, अमिअवट अंगठठ दवि । गोयम एकण पात्र, करावइ पारणं सवे ।।४१।। पंचमयां शुभभाव, उज्ज्वल भरियो खीरमीसे । माचागम संजोग, कवळ ते केवळरूप हुओ ॥४२।। पंचसयां जिणनाह, समवसरण प्राकारत्रय । पेखवि केवल नाण, उत्पन्न उज्जोय करे ॥४३॥ जाणे जिणवि पियूष, गाजंती घणमेघ जिम । जिणवाणी निमुणेवि, नाणी हुआ पंचसयां ॥४४॥ बस्तुछंद-इणे अनुक्रमे इणे अनुक्रमे नाणसंपन्न, पन्नरह मय परिवरिय हरियदुरिय जिणनाह वंदड, जाणवि जगगुरुवयण तिगह नाण अप्पाण निदइचरमजिणेसर इम भणइ, गोयम म करिस खेउ। छेडे जड आपण सही, होसु तुल्ला बेउ ।।४५।।
(ढाळ ५ मी-भाषा.) सामिओ ए वोरजिणंद पुनिमचद जिम उल्लसिअ, विहरिओ ए भरहवामम्मि बरिस बहोतेर संवमि। ठवतो ए कणयपउमेसु पायकमळ संघहिं सहिअ, आविओ ए नयणाणंद नयर पावापुरी सुरमयि ।४६।
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पेखिओ ए गोयमसामी देवशर्मा प्रतिबोध करे, आपणो ए त्रिशलादेवीनंदन पहोतो परमपए । वळतां ए देव आकाश पेखवि जाणिय जिणसमे ए, तो मुनि मनि विखवाद नादभेद जिम ऊपनो ए ।४७। कुण समो ए सामिय देखि आप कन्हे हटालिओ ए, जाणतो ए तिहुअणनाह लोकविवहारु न पालिओ ए। अतिभलं ए कीधलं सामि जाण्यु केवल मागशे ए, चितवियु ए बालक जेम अहवा केडे लागशे ए ।४८॥ हु किम ए वीर जिणंद ! भगते भोळो भोळव्यो ए, आपणो ए उचिओ नेह नाह ! न संपे साचव्यो ए। साचो ए एक वीतराग नेह न जेणे लालिओ ए, इण समे गोयमचित्त रागवैरागे वाळिओ ए ।४९। आवतुं ए जो ऊलट्ट रहेतु रागे साहिउ ए, केवल ए नाण उप्पन्न गोयम सहेजे उमाहिओ ए। तिहुअण ए जयजयकार केवलमहिमा सुर करे ए, गणहरए करय वखाण भवियण भव जिम निस्तरे ए ५० वस्तुछंद-पढमगणहर पढमगणहर वरिसपंचास, गिहिवासे संवसिय तीसवरिस संजम विभूसिय, सिरिकेवलनाण पुण बारवरिस तिहुयण नमंसियरायगिहि नयरीहिं ठविअ, वाणुंवयवरिसाउ.। सामी गोयम गुणनिलो, होशे शिवपुर ठाउ ।५।
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५०
(ढाळ ६ ठी-भाषा.) जिम सहकारे कोयल टहुके, जिम कुसुमह वन परिमल महके,
जिम चंदन सोगंधनिधि । जिम गंगाजळ लहेरे लहके, जिम कणयाचल तेजे. झलके,
तिम गोयम सौभाग्यनिधि ।। ५२ ।। जिम मानससर निवसे हंसा, जिम सुरवरसिरि कणयवतंसा,
जिम महुयर राजीववने । जिम रयणायर रयणे विलसे, जिम अंबर तारागण विकसे,
तिम गोयम गुणकेलि वने ॥५३ ।। पुनमनिशि जिम शशहर सोहे, सुरतरु महिमा जिम जग मोहे,
पूरवदिसि जिम सहसकरो । पंचानन जिम गिरिवर राजे, नरवइघर जिम मयगल गाजे,
तिम जिनशासन मुनिपवरो ।। ५४॥ जिम सुरतरुवर सोहे शाखा,
जिम उत्तममुख मधुरी भाषा,
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५१
जिन वनकेतकी महमए ।
जिम भूमीपति भुयबल चमके, जिम जिनमंदिर घंटा तिम गोयम लब्धे
चिंतामणि कर चढिओ आज,
सुरतरु
कामगवी पूरे मनकामिय,
वंछितकाज,
सारे कामकुंभ सौ वश हुओ ए ।
अष्ट महासिद्धि आवे धामिय,
पणवक्खर पहेलो पभणीजे, मायाबीजइ सो
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सामिय गोयम अणुसरो ए ।। ५६ ।।
रणके, गहगहेए ।। ५५ ।।
देवह धुरि अरिहंत नमीजे, विनय पहुत्त उवझाय इण मंत्रे गोयम
निसुणीजे,
श्रीमति शोभा संभवे ए ।
परि परि वसतां कांइ करीजे,
देश
प्रह उठी गोयम समरीजे,
काज
थुणीजे, नमो ए ।। ५७ ।।
देशांतर कांइ भमीजे कवण काज आयास करो ।
समरगह ततखण सीझे, नवनिधि विलसे तास धरे ।। ५८ ।।
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चउदह सय बारोत्तर वरसे, गोयमगणहरकेवलदिवसे,
किओ कवित उपगारपरो । आदेहि मंगल एह भणीजे, परवमहोच्छव. पहिलो कीजे,
ऋद्धिवृद्धिकल्याण करो ।। ५९ ।। धन्य माता जिणे उदरे धरिया, धन्य पिता जिणे कुल अवतरिया,
धन्य सहगुरु जिणे दिकिखया ए। विनयवंत विद्याभंडार, जस गुण कोइ न लब्भे पार,
विद्यावंत गुरु वीनवे ए ।। ६० ॥ गौतमस्वामितणो ए रास, भणतां । सुणतां लीलविलास,
सासय सुख निधि संपजे ए । गौतमस्वामिनो रास भणीजे, चउविहसंघ रलियायत कीजे,
ऋद्धिवृद्धिकल्याण करो ।। ६१ ।। इति ।। प्रतिवर्षारंभटिनेऽधुना मुनीन्द्रः समक्षमार्याणाम् । संघस्थानां . मंगलहेतुतया पठ्यते सर्वैः ।।१।। सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥२॥
॥ श्रीगौतमस्वामीरास संपूर्ण ।।
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