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(२) द्वितीयं उपसर्गहरस्मरणम् ।।
उर्वसगहरं पास पासं वदामि कम्मघणमुक्कं । विसहरविसनिन्नासं मंगलकल्लाणआवासं ॥१॥ विसहर फुलिंगमंत कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गहरोग-मारो-दुट्ठजरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दूरे मंतो तुज्झ पणामोऽवि बहुफलो होइ । नरतिरिएसुऽवि जीवा पावंति न दुक्खदोगच्च ।। ३ ।। तुह सम्मत्ते लद्ध चिंतामणिकप्प-पायवऽभहिए। पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इअ संथओ महायस ! भत्तिभर निब्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं भवे भवे पासजिणचंद ! ॥५।।
मन कभी गतिहीन कभी पंख बन जाता है पल भर का मौन कभी संख बन जाता है । क्षण क्षण में रंग बदलने वाला यह मन कभी राजा कभी रंक बन जाता है ।
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