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डिसेम्बर २०११
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आणंदवर्धन-रचित नवतत्त्व-चउपई
- साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
पत्र-७, शेठ डोसाभाई अभेचंद जैनसंघ भावनगरना संग्रहनी हस्तप्रतिनी झेरोक्स उपरथी आ सम्पादन कर्यु छे.
तेना कर्ता खरतरगच्छना श्री धनवर्द्धनसूरिना शिष्य श्री आणंदवर्द्धनसूरि छे. (गाथा २८४-२८५) रचना संवत १६०७ छे, लेखन संवत-१६०८ महा सुद-१-मंगळवार छे. लेखक-देवगुप्तसूरि छे.
आ नवतत्त्व चउपईनी रचना पछी १ वर्षमां ज आ प्रति लखायेली छे. आ चउपईनी कुल गाथा-२८९ छे.
जेमां गाथा १ थी ५८मां जीवतत्त्व । ५९ थी ९९मां अजीवतत्त्व । १००थी १२३मां पुण्यतत्त्व । १२४ थी १६१मां पापतत्त्व । १६२ थी १८४मां आश्रवतत्त्व । १८५ थी २१७मां संवरतत्त्व । २१८ थी २३०मां निर्जरातत्त्व । २३१ थी २४५मां बंधतत्त्व । २४६ थी २८०मां मोक्षतत्त्व- निरूपण छे । गाथा २८१ थी २८३मां नवतत्त्वने जाणवाथी थतो लाभ वगेरे दर्शाव्या छे । अन्ते गुरुपरम्परा अने लाभ बतावेल छे ।
श्री अरि[हं]तनां पह(द)युगल । प्रणमीय परमाणंदि । नवइतत्त्व विवरण कहुं । जे भाख्यां वीरजिणंदि ॥१॥ नवनिधांन चक्रवत्तिनां । जिम धन पार न होइ ।। तिम नवतत्त्व विचारनु । कहीय न पामइ कोइ ॥२॥ नव नंदे नव डुंगरी । कनकतणी जलनिधि । तिम नवतत्त्व विचारणा । राखुं हीयडा मधि ॥३॥ ग्रीवां नव ग्रीवेकि छई । लोकनालि ब्रह्मडि । मुखमंडण कंठिं धरिं । तत्त्व नवइ निज पिंडि ॥४॥ नव वाडिं रख्या करि । ब्रह्मचारि नीय ब्रह्म । तिम नवतत्त्वे राखज्यो । विनय मूल जिनधर्म ॥५॥
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अनुसन्धान-५७
हिव - चउपई ॥ जे सिद्धांति कहिउ विचार । सांभलतां लहीइ भवपार । भवियण अर्थ सयल संग्रहइ । अभव्य जीव ते नवि सद्दहइ ॥६॥ जीव अजीव अनइ पुण्य पाप । आश्रव संवर करिवू आप । निर्झर बंध मोक्ष ए नवइ । निसुणउ भेद कहुं जे हवइ ॥७॥ पहिलं चऊद भेद जीवना । सूखिम नइ बादर बेवना । पढवी अप्प तेउ नइ वाय । वणसय ए सूखिम कहिवराय ॥८॥ चऊदराज व्याप्यु इणि सही । दृष्टिगोचरि ते आविं नही । जिम जल मछ्यादिक गति गमण । तिम आकाशि खेचर परिभ्रमण ॥९॥ जिम तृणादि जल ऊपरि तरइ । तिम ज्योतिष पवने संचरइं । धन तन पवन थविर सुरलोक । तेम पृथिवीइं मानव लोक ॥१०॥ ए पांचइ थावर ते सही । विण चल्लाव्या चालई नही । माटी पाणी तेज पवन्न । बद्ध पिंड दीसइ वलि वन्न ॥११॥ पंचइ ए बादर इम लहियां । सूखिम बादर इणि परि कहियां ।
आंखि कांन मुख नाक जि नही । एकेंदी काया ते सही ॥१२॥ माटी पीली ऊस धावडी । आभूआं अरणेटु खडी । मणसिल हीगलो हरीआल । भोमल मीठा खाणि रसाल ॥१३॥ षाती धातु पषाणक सीस । पूढविकाय ए विश्वावीस ।। पाणी धुंइरि करहा हीम । ठार ओसादिक कणीआ सीम ॥१४॥ अप्यकाय हिव तेउकाय । वीज झरल धूउ कहिवराय । दीवु मुरमरा उलकापात । अगनि तणी छइं बहुली जाति ॥१५।। अति कपरिमा जे च्छई वाय । योनि सात सात लक्ष थाय । वणसय काय तणा बि भेद । भंग समु जे पाली छेत ॥१६॥ खंडोखंड करी वावीइ । ऊगइ ते अनंत साचीय । ऊगइ कंद न ऊगइ मूल । सूक्ष्म विचार नही ते थूल ॥१७॥ बाउल पीपल वडला आदि । ऊगइं डाल प्रत्येक बनी आदि । अनंत जीवनु बाधउ पिंड । चऊद लाख ते योनि अखंड ॥१८॥
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बीज फूल फल पान जेतलां । छालि काठ मूल तेलां । ते वनराई कहीइ प्रत्येक । वेद नपुंसक पंचइ एक ॥१९॥ अष्ट जोयण वडनु विस्तार । वेला सहस जोयण निस्तार । आहार सयर इंद्रय ऊसास । पर्याप्ति पूरी च्यारइ जास ॥२०॥ योनि लाख दस एहनी जाणि । एकेंद्रीना च्यारि प्राण । सासोसास काय बल आयु । स्पर्शनेंद्रय हिव कहुं परमायु ॥ २१ ॥ अठ पअंतर महूरत सवि सही । वर्ष सहस बावीसइ मही । सात सहस वच्छर अपकाय । त्रिण्णि दिवस हुताशन आय ॥२२॥ वच्छर त्रिणि सहस जे वाय । वर्ष सहस दश वणसइकाय । ए पंचइ हुंडक संस्थान । बावन लाख एकेंद्री मांन ||२३|| छाण योनि बाबति जूजूआ । जीव बहूपरि कुल इम हुआ । बार कोडि लख कुल पुढवीना । सात कोडि लख हुई आपना ||२४| त्रिणि तेऊ वाऊना सात । वणसय अट्ठावीस कुल जात ।
लेश्या कृष्ण नील कापोत । सयर ऊदारिक कार्मण ज्योति ॥ २५ ॥ वाउकाय वैक्रय विशेष । इम एकेंद्र कहिया निःशेष ।
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हिव कहुं बिति चउरेंदी गुहिर । जेहं सरि हाड मंस नही रुहिर ||२६|| बेंद्रीनइ काया मुक्ख । अलस जलो सीपूना शंख ।
कृमि पुंरा ईअल गंडोल । कहितां पार नही इंडोल ॥२७॥
तेंद्र बोलु बहू छता । काया मुख नाशा अधिकता । कीडी मंकोडी जूअ लीख । मांकड चांचड मानव सीख ॥२८॥ कीडा ऊदेही घीमेलि । गीगोडा कातरा चूडेलि । गादहींआ खज्जूरा जूआ । केता कहु नामि जूजूआ ॥२९॥ हिव चउरिंदी बोलूं वयण । काया मुखनई नाशा नयण । वीछी ढंकण भमरा टीड । डांस मसा पंखाला कीड ॥३०॥ कोकीआ मच्छर पत्तंग | देखी ज्योति जेहं लागइ रंग । फाकां फूदी कूती भाति । माखी भमरीनी बहू जाति ॥३१॥ विगलेंदीय ए आगम भाख । प्रत्येकिं छइ बि बि लाख । बिति चउरेंदीनां कुल कोडि । सात आठ नव लाखह जोडि ||३२||
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अनुसन्धान-५७
बेंद्रीनइ छ एह प्राण । जीभ वचन बल अधिकां जणि । केंद्रीनइ घ्राण विशेष । चरिंद्रीनइ नेत्र नमेष ॥३३॥ असंनीआ पंचेंद्रय कांन । नवइ प्राण पणि न हुइ सांन । बि-ति-चउ-पंच समूच्छिम जेह । भाषा पर्याप्ति ऊपनी तेह ॥३४॥ विगलेंदीय नइ असंनीआ । तिरिय पंचिंदी इम वन्नीआ ।
औदारिक तेजस बेउ जाणि । कार्मण त्रीगँ सयर वखाणि ॥३५॥ एहतणुं नपुंसकवेद । हुइ आकार करइं बहु खेद । पढवी आप अनइ वनस्पती । बि-ति-चउरिंदी बेहू गती ॥३६।। मानव अनइ तिर्यंच मझारि । अगनि वाउ पुण तिरिय विचारि । नाना परि हुंडक संस्थान । देहतj हिव बोलुं मान ॥३७|| बेंद्री बार जोयण शंखादि । त्रिणि जोयण केंद्रीय आदि । ऊदेही आगमि एवडी । चरिंदी काया जोयणि च(व?)डी ॥३८॥ असंनीआ सनीआ तिर्यंच । जेहं तणइ हुई इंद्रय पंच । सहस जोयण मध्यादिक कहिआ । बि-ति-चउरिंदी असंनीआ ॥३९॥ एहनइं छेवट्ठी संघेण । च्यारइ गति पामइ तिरिएण । नर तिरि नारक नइ देवता । लाभइ अरथ सुगुरु सेवता ॥४०॥ माखिक मदिरा मांखण मंस । स्त्री सेवां मानव अवतंस । मरइ ऊपजइ बि घडीमाहि । समूच्छिम इम भव पूराय ॥४१॥ हिव गर्भज पंचेंद्रय सुणउ । एह विचार अछइ अतिघणउ । मानव तिरिय देव नारकी । पहिलुं चरच कही पारकी ॥४२॥ सुर-नर नारकनइ दश प्राण । पंचेंद्री मन वय काय जाणि । सासोसास अनइ परमायु । छइ पर्याप्ति अनेरी थाय ॥४३॥ आहार सयर इंद्रय ऊसास । भाषा मन महूरति ल्यि वास । सुर नारक वचन समकालि । मानव षट महूरत अंतरालि ॥४४॥ औदारिक वैक्रय आहार । तेजस कार्मण पंच प्रकार । मानव ए सुर नारक त्रिणि । औदारिक तेजस कार्मणि ॥४५।। पुरष नारि नपुंसकवेद । नर तिरि संनीआ नही भेद । सयर नारकी धणसय पंच । तेत्रीस सागर आयु अखंच ॥४६॥
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हाड रुहिर आमिरुं त्वचा - । रहित देह सुर मुनि कर वचा । दश सहसमाहिं नही आयु । सुर नारक बे सम वरसाय ॥४७॥ पंचानुत्तरनइ ग्रीवेकि । वैक्रय सयरनु हि ते छेकि ।
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लाख जोयण वैक्रय परमाण । अवर देवनुं ए करमाण ॥ ४८ ॥ मानव को त्रिहुंनु देह । पुंणा करमांहिं नही छेह ।
त्रिण्णि पल्योपमनुं परमायु । पूरवकोडि तिरि असंन्नी आयु ॥४९॥ सत्तिरि कोडि लाख वच्छरिं । छप्पन कोडि सहस ऊपरिं । एतिं एक पूरव निरमांण । इस्यां कोडि आउं परिमाण ॥५०॥ मानव सम संनीआ तिरियंच । जघन्य अंतरमहूरत अखंच । आरइ आयु देह निरमाण । भरहेरव जूजूआं बंधा ॥५१॥ युगलीआं सुरगति इक होइ । देव - नारकी बि गति जोइ । नर-तिर्यंच थाइं एह चवी । मानव पंचर गति केलवी ॥५२॥ दस संज्ञा सवि हुं जीवमाहि । नर छ लेश्या धरइ उच्छाहि । सुर तिरि नारक चउ चउ लाख । मानव चऊद लाख योनि भाख ॥ ५३॥ लाख चउरासी सविहुं तणी । जीव योनि सरवालइ भणी ।
नर- तिरि-गर्भज काय बंधाण । छ संघेण च्छई नर संस्ठाण ॥५४॥ जलचर बार लक्ख कुल कोडि । ऊपरि कोडि पंचासह जोडि । खेचर लाख कोडि कुल बार । दसइ कोडि लख कुल थलचार ॥५५॥ कोडि लाख नव भुजपरिसर्प । दाह कोडि लख उरपरिसर्प । बार कोडि लक्ष कुल मानवी । नारक पणवीसइ मानवी ॥५६॥ देव छव्वीस लक्ष कुल कोडि । सर्व थई सरवालु जोडि । पंच सात नव एक अपार । आगलि मीडा दिउ अग्यार ॥५७॥ १९७५०००००००००००.
वस्तु १
सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर भेद केंद्र |
विगलेंदीय त्रिण्णइ कहिया । गर्भजात तिरि मणुअ देवा । संमूच्छिम पंचेदीआ पज्जत्ता अपजत्त लेवा ।
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अनुसन्धान-५७
भेद चऊद सुणतां सही । दुरी पणासिं दूरि । खरतरगच्छनायक भणइं श्री आणंदवर्धनसूरि ॥५८।।
हिव चउपई । भविआं निसुणउ बीजुं तत्त्व । अजीव ते जिहांनु हइ सत्त्व । धर्माधर्मआका[शा]स्थिकाय । त्रिण्णइ त्रिहु भेदे नव थाय ॥५९॥ खंधु देश प्रदेसिं करी । अद्धाकालदसु उद्धरी । चउद राज व्यापिउ इणि भरी । केवलि जाणिं एहनां चरी ॥६०॥ पुदगल थूल अच्छई चिहुं भेदि । छदमस्थ जाणी कहिं विछदि । खण्ड(न्ध) देश प्रदेश परमाण । अजीव चऊद भेद निरमाण ॥६१॥ खंधु चऊद राजनुं नाम । धर्मास्थिकाय पूरिउ अभिराम । राज खंड जोयण ते देश । तेहनु अणु सूखिम प्रदेश ॥६२॥ अधर्मकाय त्रिहु ए इम गणउ । आकाशास्थि इच्छां तिम मणउ । त्रिण्णि त्री नव भेदे जाणि । अद्धाकाल समय वक्खाणि ॥६३॥ अतीत अनागत नइ वर्तमांन । एकठा न मलिं ए अनुमांन । तेहना भेद खंधादिकनुं हइं । इणि कारणि ते दशमु कहिं ॥६४॥ घट पट थंभ डुंगर नइ वृक्ष । आखा खंध कहिंजे दक्ष । तेहना खंड देश ए सही । सूक्ष्म प्रदेश जे भेदइ नही ॥६५॥ खंधा देश प्रदेशा वस्त । दृष्टिगोचरि देखि छदमस्थ । पुदगल सूक्ष्म अत्थि अत्यंत । देखि तुजउ मलिं अनंत ॥६६॥ धर्म अधर्म आकाश ते किस्यु । तेह सरूप केवलि कहइ जिस्यु । सावधान हुई सुणिज्यो सहू । एह विचार अच्छइ पणि बहू ॥६७|| धर्माधर्म पुदगल नभ काल । ए पंचइ निरजीव विशाल । पुदगल टाली च्यारइ वस्तु । दृष्टिगोचरि नाविं छदमस्थ ॥६८॥ तउ किम जाणिं छइ अहिनाण । जीव पुदगल नि गमण प्रमाण । धर्मास्थि छइ तिहां जाई सकि । अधर्मास्थि आविउ तिहां लुकिं ॥६९।। जिम पाणी माहि माछलु । जां पाणी तां चालइ भलु । जीव अनइ पुदगल तिहां जाइ । चऊद राज धर्मास्थिकाय ॥७०॥
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धर्माधर्म अलोकिं नथी । पुदगल जीव गमण नवि कथी । जिम खोडा नर काठी थोभ । तावडि जातां च्छाया क्ष्योभ ॥७१।। पर्वत थांभा भीति पखाणि । पाणी खीला मूल अहिनाणि । थूल पदारथ करिं प्रवेश । तउ सघले आकाश प्रदेश ॥७२।। अलोकमाहि अनंतानंत । च्छइ आकाश न जीव भमंत । परमाणू खंधादिक च्यारि । वर्ण गंध रस फरिस विचारि ॥७३।। विविध वर्ण धरि बापडा । कृष्ण नील सित पीत रातडा । गंध सुगंध दुर्गंधा होइ । खारा खाटा मधुरा सोइ ॥७४॥ कडूआ तीखिण कसायला । सरस विरस लागि केतला । फरिस कठिन कोमल छई जेह । वर्ण स्वाद पालटीइं तेह ॥७५।। एक पुदगल पोला वाटुला । एक त्रिखूण चउखूणा भला ।। एक निघट भारी लघु सही । एक चीता एक लांबा कही ॥७६।। इम पुदगलना भेद अनंत । केवलन्यानी जाणइ अंत । काल भेद कहुं हिव सुणउ । समय मांन सूखिम घणउ ॥७७|| कमल पांन ऊपरि ऊपरी । सबल पुरुष तनुइं करी । वींधइ पांन सवे समकाल । पांन विचिं वहई एतु काल ॥७८॥ असंख्यात समय तिहां कहिय । भविक जीव तीणे सद्दहिया । वली वस्त्र जूनुं फाडीइ । त्रागिं त्रागि सोइ जि मांडीइ ॥७९॥ असंख्यात समयेकावली । बिसि छपन्न संख्यान ही अली ।। सूक्ष्मनिगोद जीव एह आयु । सासोसासि सतर भव जाय ॥८०॥ एक कोडिनइ सतसढि लाख । सहस सत्युत्तिरि बि शत भाख । सोलोत्तर एतली आवली । हुई बि घडी महूरत ते वली ॥८१॥ अवर मांन कहिं सूरीश । पांसठि सहस साढा छत्रीस ।। एतले निगोद क्षुल्लक भवे । बीजु महूरत इणिपरे मवे ॥८२॥ त्रीजुं त्रिण्णि सहस सातमि । ऊपरि त्रिहुतरि सासोससिं । ते महूरत त्रीसे अहोराति । तिणि पनरे पखवाडि जाति ॥८३।। बिहु पाखे मास ते बारि । वच्छर हुइ ते असंख विचारि । एक पल्ल्योपमि जाइ वही । एह विवक्षा आगमि कही ॥८४।।
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अनुसन्धान-५७
छेद्यु भेधु जे जाइ नही । ते अणु आठे त्रसरज कही । तिणि आठे रथरेणु विचारी । रेणु आठ वालाग्रउ धारि ॥८५॥ वालुकाग्गि आठे एक लीख । आठ लीखि एक जूका सीख । जूका आठे एक जव कहिउ । जव आठे उच्छेधांगुल लयु ॥८६॥ तिणि षट अंगुलि पाउ प्रमाण । बिहु पाऊए बि हत्थि निर्माण । बि हत्थि जोड एक हाथ समान । बिहुं हाथे धणुहानुं मांन ॥८७॥ बि सह धनुषे गाऊ एक । चिहुं गाऊ ए जोयण छेक । कूउ एक ऊंडु एतलइ । पहुलउ लांबउ सम तेतलइ ॥८८॥ रोम खंड एहवां लेई भरे । सिद्धांति कहिउं ते करे । युगल जण्यां सातइ दिन बाल । उच्छेधांगुल लिई सर वाल ॥८९॥ आठ आठ साते पावडी । खंड कीधां ते संख्या चडी । वीस लाख सत्ताणुं सहस । बावन ऊपरि अधिकां कहिंसु ॥९०॥ केवलन्यानी आगलि गयां । रोम खंड संख्यातां थयां । पुनरपि न होइ ए स्वल्पना । असंख्यात करि मन कल्पना ॥९१॥ तीणे ते इम कूउ भरू । निश्चल ठांसी गाढउ करु । जलि भेदइ नवि आगिं बलइ । बइठु तिम वाइं न ऊललइ ॥९२॥ वरस एकिं काढत अंश । यदा तदा ते हुइ निःसंश । एह पल्योपम नाम उद्धार । कोडा कोटि (डि) दशे एक सार ॥९३।। ते सागर दश कोडाकोडि । एक उत्सपिणि एहवी जोडि । कालचक्र ते एतिं भयु । ते पुदगलपरावर्त्ति गयु ॥९४॥ अढाई दीपनु एह विचार । जिहां हुइ चंद सूरजनउ चार । ए नरक्षेत्रतणी बांधणी । राति अनइ वासर सांधणी ॥९५।। अवर दीपि नही राति नइ दीह । थावर चंद सूरज विचि लीह । चंद्र ज्योति जिहां तिहां चंद्रमा । तावड हुइ तिहां सवितार्यमा ॥९६।। सहस पंचास जोयण हुइ तेज । नही मांहिं शशि-रविनां हेज । देवलोकि अजूआलु सदा । नरगि अंधारुं तेज न कदा ॥९७|| काल पल्योपम सागर तणी । त्रिभुवनि लेज्यो ए बांधणी । राति दिवस कांई नही जिहां । सुर नारक आऊखइ तिहां ॥९८॥
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वस्तु - २ ॥ देवलोकहिं देवलोकहिं आयु परिमाण । सुर असुर नारकतणां उरग ज्योति व्यंतर विद्याधर । भवन धांम वैमांणना नयर देह धनु पल्यसागर । आपिं एहजि बांधणी श्रीमुखि श्रीजगनाथ । आणंदवर्द्धन इम कहइ तु सुणिवू जोडीय हाथ ॥९९।।
हिव दूहा ॥ पुण्य तत्त्व त्रीजुं सुणउ । भेदे बइतालीस । पहिलु सातावेदनी । सुख पामइ निसि दीसि ॥१००॥ बीजुं गोत्र उंचुं लहइ । निश्च लहइ नर मांन । नरभव मुंकी नर हवइ । त्रीजुं साभिन्यांन ॥१॥ चउधुं करम सु बांधीउं । अवर गती जिणि होइ । मुन(मनु)क्षानुपूरवी ते कही । अंतिकालि नर सोइ ॥२॥ पुण्यप्रकृति गुण पांचमु । नर वैमानिक किद्ध । छटुं कर्म गति अवरनुं । बद्धअंति सुरलद्ध ॥३॥ देवानुपूरवी ए कही । सत्तम पणिदीय सार । पुण्य पसाइं आठमुं । पंच देह अनिवार ॥४॥ नवमुं सुरनारकतणुं । वैक्रय सयर कहाइ । चऊदपूरवधर दाहमुं । सयर आहारक जाइ ॥५॥ अदभुत रूप समय भणुं । एक हाथ परिमाण । सीमंधरस्वामी कह्नइ । पूछी आवइ जाण ॥६॥ तेजस नइ कारमण बिहू । दृष्टिगोचरि नवि थाय । अनादिकाल प्राणी कह्नइ । मुगति लहइ तव जाय ॥७॥ तेजस सयर तणइ बलिं । उदक आहारइ भात । पुण्यप्रकृति अग्यारमी । भेदइ सातइं धातु ॥८॥
चउपई ॥ कार्मण सयर आठइ जे कर्म । जिणि आधारि रहियां ए मर्म । एतिं भेद हुआ छई बार । उदारिक वैक्रय आहार ॥९॥
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अनुसन्धान-५७
एहतणां विवरण सांभले । हाथ पग नख नइ आंगले । ऊदारिक उपांग तेरमु । वैक्रय कहीइ छइ चऊदमुं ॥१०॥ पनरसमु आहारकोपांग । पुण्यप्रकृति लहइ अंग उपांग । तेजस कार्मण सदा अनंग । निरमल पामइ सयर पंचांग ॥११॥ हाड सवे हुई मर्कट बंध । जिहां जिहां सयरतणी छई संधि । पाटु विचि खीली बंधेण । वज्रऋषभनाराच संघेण ॥१२॥ भेद एह सोलसमु कहिउ । संस्थान समचउरस लहिउ । सतरसमउ गौरादिक वर्ण । सुंदर रूप नयण आकर्ण ॥१३॥ धुरि अड्डार हुआ ओगणीस । देह सुगंध रस कहीइ वीस ।। एकवीसमु सयर सुकुमाल । अति भारे नही हलूउ बाल ॥१४॥ बावीसमु दीसइ दुद्धर्ष । रूपिं सहू आकंपइ पुरूष । त्रेवीसमउ ए पुण संपजइ । सासोसास सुरभि ऊपजइ ॥१५॥ पुण्यपसाइं एह चउवीस । आतपकर्म कहूं पंचवीस । सभा सोभावइ नर एकलु । तेजकर्म सविहुंथी भलु ॥१६।। छव्वीसमु ए पुण्य प्रकृति । सत्तावीस मंथर गजगति । अट्ठावीसम कर्म निर्माण । नर तिर्यंच अवयव शुभ जाणि ॥१७॥ दस त्रसादि कर्म फल एह । छाया तावड जाणइ बेह । भय त्रासिं ज विगलेंदिआ । ओगणत्रीस भेद ए कहिआ ॥१८॥ बादरकर्म दीसइं तिसु देह । बांधइ भेद त्रीसमु एह । पूरी पर्याप्ति हुइ एकत्रीसमइ । सयरि जीव एक बत्रीसमइ ॥१९॥ थिरकर्म अस्थ्यादिक दंत । तेत्रीसमु दृढ होइ जंत । नाभि ऊंचा अवयव जेतला । सरि लागि हरखि केतला ॥२०॥ भेद चउत्रीसम बोल्यु सोइ । शुभ कर्म सोभागी होइ । ए पणत्रीस छत्रीसम छती । सुसरकर्म वाणी रसवती ॥२१॥ आदेय कर्म सहू मानइ कहिउ । भेद सा[ड]त्रीसम इम निरवहिउ । यशःकर्म पुंठिं गुणग्राम । बोलिं ते अठत्रीसम नाम ॥२२॥ सुरनर तिरिय संपूरण आयु । त्रिण्णि भेद एहू पुण थाय । तीरथंकर जीव हुइ जगदीश । पुण्यतत्त्व ए बइतालीस ॥२३॥
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पाप तत्त्व हिव ब्यासी भेद । ते कहितां कोइ म धरु खेद । पहिलूं जोईइ नरनइं न्यांन । ते पांचइ जिणि कीधां यान ॥२४॥ मतिन्यान मति सुंदर नही । श्रुतन्यान जाइ श्रुत वही । अवधिन्यान पापि न ऊपजइ । मनपर्यव अंतराई भजइ ॥२५॥ अढाई दीपि नर तिरि जेतला । मनोगत भाव जाणइं तेतला । न्यान पंचम छइ केवलनाण । चऊद राज आमला प्रमाण ॥२६॥ भव कोटी भाजिं संदेह । ते जिणि पापि दीधु छेह । छती लाछि अवसर पामीइ । दिवराइ नही जिणि ठा(वा)मीइ ॥२७॥ उद्यम करतां लाभ न होइ । पोतानी नीमी सवि खोइ । घरि खावा छइ संपत्ति घणी । पणिं रोगिं काया रेवणी ॥२८॥ भोगांतराइं विलसइ नही । सकल लाछि जास्यइ ते सही । हिव उपभोग कहुं जिणि रुलिउ । दंपति योग सरीसु मिलिउ ॥२९॥ हुइ नपुंसक कइ रूसणुं । जोड विहंडइ लाजइ घणुं । नव ए दशमुं वीर्यांतराय । समरथ रोगि बल नवि थाय ॥३०॥ पापकर्मि अंतराई दसइ । अदाप देखइ हाथ जि घसइ । नव आवरण बीजां छई जिस्यां । कहुं छतां दीपिं नही तिस्यां ॥३१॥ चक्षुदर्शन नयण निलाडि । उरम छायादिक आविं आडि । अचक्षुदर्शन अभिप्राय । अपर इंद्रय बल हीणां जाय ॥३२॥ एक भेद हिव बीजउ कहइ । विशेष वस्तु न्यानि निरवहइ । ए चिहुंनइं पातक आवरण । निद्रा पंच कहितां दिउ कर्ण ॥३३॥ निद्रा ते संचलि जागीइ । सुखि समाधि वतइ लागीइ । निद्रानिद्रा बीजी सुणउ । जागइ जुधं धूणइ घणउ ॥३४॥ प्रचुला नामिं हिव सांभलउ । बइठां ऊभां नर घांघलउ । प्रचुला प्रचुला नामि नरींद्र । हीडइ हालइ नयणे नीद्र ॥३५॥ पंचम निद्रा छइ थीणधी । तेहना गुण न कहिं खीणधी । दृढ संघेण धणीनइं तेह । वासुदेव बल आधुं जेह ॥३६॥ गजेंद्र विणासइ निद्रा समइ । नारि नरगि छ नर सातमइ । बांधइ कर्म हुइ नारकी । पापकर्म ओगणीसइ बकीं ॥३७॥
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अनुसन्धान-५७
पापि नीचइ कुलि अवतरइ । दुर्गतिमाहिं असातां फिरइ । नरग तिर्यचि दुख भोगवइ । पापोदय एकवीसइ हवइ ॥३८॥ साचा देव अनइ गुरु धर्म । आस्ता नावइ पातक कर्म । कुगुरु कुदेव अनइ कुधर्म । तेह ऊपरि सद्दहणा शर्म ॥३९॥ बावीसमु जे भेद मिथ्यात । थावर दसइ कहुं सुणि वात । पाप बहुल एकेंद्री थाय । तावडथी च्छायां न जवाय ॥४०॥ गमण छांहथी तावडि नही । एक भेद एहु ते सही । सूखिमकर्म निगोदी हुआ । ए बिहू भेद अच्छि जूजूआ ॥४१॥ अनंतकाय मिली एक शरीर । थावर च्यारि भेदि सुणि वीर । कर्म अथिर जीव सघलां अंग । अशुभकर्म पुरुषारथ भंग ॥४२॥ दरशन दीर्छ कहि न सुहाइ । कर्म दुभागी ए कहिवराइ । दुःस्वरकर्म वचन कर्णमूल । अनादेय कहण समतूल ॥४३॥ अयशकर्म यश नु इह निटोल । दशइ भेद थावरना बोल । नरय त्रिक्क होइ नारकी । मरवा वंछइ नारक थकी ॥४४॥ न मराइ पूरइ नरकायु । नरगानुपूरवी ते कहिवराय । अंत समइ ऊरधगति करइ । कर्म ताणीनइ नारकि धरइ ॥४५॥ विचिं भव पूरी तिरिआं तणउ । कर्म बहुल जीव नरकिं घणउ । पातक भेद कहिया पांत्रीस । हिव कसाय सुणिज्यो पंचवीस ॥४६॥
वस्तु - ३ च्यारि चउकुं च्यारि चउकुं भेद इम जाणि । नोकसाय नव अपर छइं क्रोध मान मायातिलोभी । पक्ष चउमासुं वरसनइ जन्म शुद्ध ते रहइं थोभी । संज्वलनु पचखाणनइ अपच्चखाणु अनुबंध । आणंदवर्द्धन इम कहइ सोल कसाय बंध ॥४७॥
हिव - दूहा । अनंतानु नामि सबल । क्रोध मांन माया लोभ । समकित ते पामइ नही । मरणिं नारकि थोभ ॥४८॥
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च्यारइ ए अपच्चखाणीआ । देशविरति हुइ हाणि । वर्षावधि परमायु जे । गति तिर्यंची जाणि ॥४९।। चउमासी पच्चखाणीआ । नामि च्यारि कसाय । भाव चारित पामइ नही । मानवनी गति जाय ॥५०॥ संज्ज्वलना पखवाडीआ । न हवइ ते अरिहंत । वैमानिकपद पामस्यइं । मोक्ष न जाइ जंत ॥५१॥ नोकसाय नव सांभलु । हास्यकर्म नितु हास । रतिकमि (मि) मन थिर करइ । मनोहर दीठिं ठांम ॥५२॥ अरतिकर्म कीही रति नही । वनि निवरां पुरि लोक । शोककर्म अहनिसि धरइ । स्नेह वियोगि शोक ॥५३।। भय कर्मि बीहइ बहुल । जोइ दुगंछा कर्म । मुह मचकोडी थुकीइ । विरूउं देखी मर्म ॥५४॥ पुरुषवेद पूला समु । हेलां भटकी जाय ।। स्त्रीवेद कोऊ जसिउ । बलती किम न ओल्हाय ॥५५॥ नयरदाह नपुंसकी । अहनिसि जलण न जाय । पापिं पंचवीसइ लहइ । साठि भेद इम थाय ॥५६॥ तिरियागति बेहू कही । जीव तिरिजं च जाइ । तिरियानुपूरवी अवरथी । ताणिउ त्तिरिया थाइ ॥५७।। एक बि ति चउरिंदिआ । कर्मबद्ध गति च्यारि । च्छइ भेद ए भोगवइ । पुनरपि कुगति मझारि ॥५८॥ रासभ ऊंटतणी परिं । चालइ विरुई चालि । उपघातकर्म पीडा घणी । कंठि दशनि पुण गालि ॥५९।। वर्ण गंध रस फरसणा । विरूआं पामइ पापि । कालु कडूउ खार पण । देह दुगंधिं व्यापि ॥६०॥ बाहुत्तरि हुआ हवि । पढम एकीका टालि । पंच संघेण संस्थान पण । ब्यासी भेद संभालि ॥६१॥
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अनुसन्धान-५७
हिव चउपई । एकसउ वीस शुभाशुभ कर्म । पुण्य प्रकृति बइतालीस शर्म । वर्ण गंध रस फरिस विचारि । शुभ कइ अशुभ गणउ एक ठारि ॥६२।। ब्यासी भेद पातक जे समुं । आश्रव तत्त्व कहुं पांचमुं । जेहना छइ बइतालीस भेद । किंचनमात्र विचार विछेद ॥६३॥ काया कांन आंखि नासिका । भव रलवु सवि रसना थका । ए पांचइ इंद्री मोकलां । प्रेरक च्यारि कसाय ओकलां ॥६४॥ नवइ एह आश्रव मूलगां । पंचाणुव्रत छइ ओलगां । हणइ जीव जंपइ अलीक । चोरी चांब चोरी निरभीक ॥६५॥ अलकसमल कस मेलु करइ । ए पांचइ आश्रव आचरइ । मन वचन काया त्रिण्णि योग । सतर भेद संयम संयोग ॥६६॥ जेह वैरागी रुंधइ सहू । पापी ते प्रवर्त्तावइ बहू । सहजिं लागि क्रिया पंचवीस । कहितां कोइ न धरज्यो रीस ॥६७॥ पहिली जे कायाकी क्रिया । चपलपणिं चालइ विक्रिया । बीजी अधिकरणिं ऊपजइ । खटक शाल पांचे नीपजइ ॥६८॥ त्रीजी कहीइ प्रद्वेषिकी । राग-द्वेष आणइ मन थकी । पारितापनकी चउथी खरी । आपघात परघाति करी ॥६९॥ प्राणातिपातकी मांड अजाण । स्वर्ग वांछता काढिं प्राण । ए पांचइ क्रिया मूलगी । वीस ऊपजिं एहं लगी ॥७०॥ गाडावाही खेत्रारंभ । आरंभकी क्रियानां थंभ । दास दीकोलां ढोर अन्नादि । वहुरइ वेचइ गृही बनीआदि ॥७१॥ जैनधर्म मायां आचरइ । मिथ्या श्रुत सद्दहणा करइ । नही पचखाण अवरती होइ । हड कूकड कलि जोणां जोइ ॥७२।। पृष्टिकी क्रिया सुकुमाल । फरसइ रोम पशू स्त्री बाल । प्रातिकी परघरि जे घटइ । रूडी वस्त देखी आवटइ ॥७३॥ निज सामंतोपात अवास । लोक वखाणिं धरइ उल्हास । अथवा दूध दही घी तेल । पडि जीव ते पातल वेलि ॥७४॥
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हिव पनरमी नेसत्थिकी । परवसि कीजइ राजा थकी ।
अरहट पावट जंत्र पखाण । क्रिया ऊपजइ नही तस माण ॥७५॥ चीत्रे स्वानि आहेडु करइ । अथवा जे कारूं आचरिं ।
मारइ जीव हाथिं हथीआरि । स्वाहस्तिकी क्रिया अनिवारि ॥७६॥ आन्यापनिकी दिइ आदेश । जीव मरावइ पाप निवेश । अपर करावइ न करइ धणी । क्रिया कहुं हिव वीआरणी ॥७७॥ अहिंड वस्त वखाणइ घणुं । वेचावी नर बहइ आपणुं । दो भासु दल्लाली करइ । बेहू जण वंची बूडइ मरइ ॥७८॥ वस्तह लावइ सूनई मन्नि । ओघसंज्ञा ते आप अन्न । निद्धंधस दया नही योग । ते कहीइ क्रिया अणभोग ॥ ७९ ॥ लोकविरुद्ध जे कीधइ कांमि । वध बंधन पामइ जस नामि । परलोक्किं नारकगति लहइ । ते अणवकंखपच्चईआ कहइ ॥८०॥ आर्त्तरौद्र ध्यांन मनि धरई । काया कठमर्द अहनिसि करइ । वयणि उच्छृंखल वाणी सही । अनापउग क्रिया ते कही ॥८१॥ सामुदानकी क्रिया ए वली । हाट अवांस करिं सहू मिली । कहि ऊपरि आवइ अतिनेह । क्रिया प्रेमकी कहीइ तेह ॥८२॥ कोपि निरंतर कीजइ द्वेष । बांधइ कर्म क्रिया प्रद्वेष । यति रहिं ईर्यापथिकी क्रिया । बोलइ चालइ ते विक्रिया ॥८३॥ सूक्ष्मकर्म बोधइ केवली । समय बिहुं ताई ते वली ।
ए पंचवीस क्रिया पातकी । आश्रव ते बइतालीस की ॥८४॥ पांच तत्त्व ए गृहीनई छविं । साधु तण ते नावि लंबिं । हिव बहुं संवर तत्त्व कहुं । बोधिबीज जिम मन शुद्धि हुं ॥ ८५ ॥ जेहना छई सत्तावन भेद । तिणि आचरणि कर्म हुइ च्छेद । पंच सुमतिनइ त्रिणि गुपत्ति । धर्मतणा दश भेद संयत्ति ॥८६॥ परीसह बावीस अखंच । बार भावना चारित्र पंच ।
द्वार कहिया ए सत्तावन्न । आणइ संवर प्राणी धन्न ॥८७॥ युग झुंसर दृष्टि अवलोकि । चालइ पगि पगि जयणां लोकि । डाबुं जिमणुं जोइ नही । पहिली ईर्यासुमति एकही ॥८८॥
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अनुसन्धान-५७
भाषासुमति राखइ पर आप । सत्यवचन बोलइ निपाप ॥ दोष बयालीस छई जे तणा । ल्यइ आहार रहित एषणा ॥८९।। कांई वस्त मुकइ ल्यइ जिहां । आदानसुमति पुंजीजइ तिहां । मल मातरं सलेखम थुक । परठतां पुंजवू अचूंक ॥९०॥ आर्त रौद्र न करइ मनि ध्यांन । धर्म शुक्ल धरतां हुइ ग्यांन । मौन करइ जव काढइ वाणि । धर्मकथा मुखि वस्त्र वराणि ॥९१॥ बार आगारे काउसग धरइ । कायगुपति संचल नवि करइ । आठइ प्रवचनमाता कही । हिव बावीस परीसह सही ॥९२।। क्षुधा खमइ अशुद्ध नवि ग्रहइ । सचित न पीइ तृषा सहइ । आगि न तापइ सीतल खमइ । स्नान नवायु ऊन्हाला समइ ॥९३।। डांस मसा सहि काउसगि रहियां । वस्त्र न वांछइ जूना लहियां । अशुभ ठाम च्छइ नही आरत्ति । सरूप देखी न धरइ चिति ॥९४|| गाम क्षेत्र कुल ठाम न मोह । करइ नवकल्पि विहारिं सोह । का[उ]सगध्यांन जिहां नैषेधकी । भय न करइ सादिक थकी ॥९५।। पाटि पीढ सिय्या लंपणी । दुख नाणइ संकीरण भणी । अजाण लोक बोलि वैभाख । आक्रोस परीषह खमीइ लाख ॥९६।। लोहि लाकडि कोइ मारइ दुष्ट । छांडइ प्राणपणिं खेद न कष्ट । मोटां कुल मुझ किम याचना । दुःख न आणइ मनि वासना ॥९७|| न लहूं भिक्षा हूं सूझती । अपर लहिं दुख नाणइ यती । व्याधि परीसह सबलु रोग । सहइ पुण न करइ सावद्ययोग ॥९८॥ धर्म पणइं मल टालइ नही । गुण सतकारि न गरबी लही । न्यांन भणिउ पणि न धरइ मांन । विद्या नावइ खेद न अन्यान ॥९९।। देवगुरुनइ धर्म आचरइ । समकित लही साचु नवि करइ । ए बावीस परीसा खमइ । साधु सदा आत्माइ दमइ ॥२००॥ हिव दश भेद यतीनु धर्म । क्षमानिधि क्रोध नही ए मर्म । आर्जव माया नही सुकुमाल । मार्दव वाणी अमीय रसाल ॥२०१॥ मुगति मुंक्या संसारी सुक्ख । बार भेदि तप सहवा दुक्ख । संयम सर्वजीव साचवइ । सत्य वचन सिद्धांत जि लवइ ॥२०२॥
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शौच अदत्त कांई नवि ग्रहइ । धर्मोपगरण चऊद संग्रहइ । द्रव्यादिक ममता नवि करइ । ब्रह्मचर्य नव भेदे धरइ ॥ २०३ ॥ ए दश भेद यतीना कहिया । भावन बार भेद संग्रहिया । घर घरणी धन वय अस्थिरं । माया म धरु इणि विस्तरि ॥४॥ आव्यइ मरण शरण नही कोई । नवि आपणु पिआरु लोइ । लाख चउरासी जीवा योनि । भमता भव नीगमीआ सुनिए ॥५॥ एकलु आविउ एकलु जाइ । को कहिनु साथी नवि थाइ । असुचिपणुं तुह देह मझारि । मूत्र परीखा श्लेष्म मलधारि ॥६॥ आश्रवद्वार मिथ्यातिं भरिउ । जीव कसाय अवरति आवरिउ । संवरभाव विरति शुभ ध्यांन । धरतां पामइ पंचम न्यांन ॥७॥ नवमी कर्मनीझर भावना । नारक दुक्ख सहियां मन विना । धर्मभावना इणिपरि धरइ । सार मनोरथ धर्मिं सइ ॥८॥ लोकभावना चऊदइ राज | चिंतइ पिडि सरइ सवि काज । बोधिभावना दुर्लभ लहइ । शिवपुरगामी ते सह ||९|| ए बारइ भावन भावीइ । चडती पदवी तु फावीइ । हिव पांचइ चारित्र विचार । पालइ ते पामइ भवपार ॥ १० ॥ पहिलं सामाइकु ऊचरइ । सर्व सावद्य मनसां परिहरइ । बीजु चरित च्छेदोपस्थान । पढम चरम वारइ जिन मांन ॥ ११ ॥ छजीवकाय जउ जाणइ खरइ । पंचमहाव्रत तउ ऊचरइ | त्रीजुं छइ परिहार विशुद्ध । अरण्यमाहि रइ जूउ बुद्ध ||१२|| नव जण सरसु जई तप करइ । अढार महीना जालइ खरइ । जउ उपसर्ग परीसह खमइ । तु गच्छमाहि आवीनइ जमइ ॥ १३॥ चउथुं चरित सूखिमसंपराय । दशमइ गुणठाणइ चडि जाय । क्रोध मांन माया परिहरइ । लोभ उदय अति सूखिम धरइ ॥ १४॥ मन परणाम चोथानी वातु । चारित पंचम जह ख्यात । कषाय सर्वनां काढियां मूल । उदय न आवइ सूखिम थूल ॥ १५ ॥ त्रिणि चारित्र हिवइ छतिं गयां । पहिलां बि चारित ते रहियां । इणि परि संवर सत्तावन्न । भेद आणइ जे हुइ कृतपुन्न ||१६||
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वस्तु ४
सुमति पंचइ सुमति पंचइ । तिन्नि गुपत्ति । परीसह बावीस छइं दशइ भेद यति धर्म आणउ । बारइ भावु भावना पंच भेद चारित्त जाणउ । परिहारादिक तिन्नि गय चारित वर्त्तई दुन्नि । श्री आणंदवर्द्धन इम कहिं संवर सत्तावन्न ॥१७॥
हिव
दू
तत्त्व नीझर जे सातमुं तेह तणा कहुं भेद । बार प्रकारे तप करू कर्म हुइ जिणि छेद ॥१८॥ छइ भेद तप बाह्यना । अनशन धुरि दिन एक । षटमासाविधि बोलीइ । जउ हुई हीइ विवेक ॥१९॥ ऊनोदरता पुरुषनिं । कवल कहिया बत्रीस । नारि अट्ठावीसइ घटिं । नपुंसक पणवीस ||२०||
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अनुसन्धान-५७
ए उतकृष्ट संखेपीइ । त्रीजुं वृत्तिसंक्षेप ।
साधु द्रव्यादिक नवि ग्रहिं । श्रावक एह आक्षेप ॥२१॥ चऊद नियम जे दिन प्रति संभारी पचखाण । संध्यां तेह संक्षेपीइ । जे भवियण हुइ जाण ॥२२॥ रसत्याग षटरसतणा । केता लेवा नीम । कायक्लेश लोचहतणु ताप सहइ अनुहीम ||२३|| संलीनता त्रिवधि कही इंद्रीय मन वच काय । ओही तेह संखेपीइ बादर तप इम थाय ॥२४॥ अब्भितर तप भेद छइ आलोयण गुरु पासि । तप दीधुं पहुचाडीइ मन शुद्ध गृहवासि ॥२५॥ विनय विशेषि कीजीइ थिवरां अनइ गुणवंत । अभ्युत्थान आस दीइ वंदइ विनई संत ॥२६॥ वेयावच्च दश तप करइ आयरीयोवज्झाय । ज्ञान तपश्वी बालनई अन्न पान गम खाय ॥२७॥
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पढq गुणवू पुच्छिवं चिंतनधर्म उपाय । चउथउ तप ए जाणिवउ जे पंचविधिं सज्झाय ॥२८॥ आर्त्तरौद्र टालइ सदा शुक्ल धर्म मनि ध्यान । सयर सगति काउसग करइ नउ हुइ हीयडइ सांन ॥२९॥
॥ चउपई ॥ इम तप करिवु बारे भेदि । इणिपरि कर्म तणु हुइ च्छेदि । तप घरष्टी उपशम मांकडी । श्रम हाथउ कर्मसुं कुदली ॥३०॥ बंध तत्त्व सांभलयो सहू । सूक्ष्म विचार अछइ ते बहू । जेहथी काल अनंतु रुलइ । जीव कर्म बंधन इम मलइ ॥३१॥ दूध अनइ पाणी जिम एक माटी धातु अच्छि एकमेक । लोह धभिउ जिम अगनि प्रदेश जीवकर्म तिम मिश्र निवेश ॥३२॥ दैव कहीइ ते प्राची कर्म भेट्यउ जीव सहइ दुख शर्म । वैरि भावि रहिं एकठां तेह ऊपरि सुणिज्यो इम उठां ॥३३।। सर्प तणइ मस्तकि मणि दाढ । कोमल जीभ दशन छइं गाढ । घर भीतरि मूंसा मंजारि । माखी चिमन विष्टा निवारी ॥३४॥ दीवा तेज मषी सामली जीव कर्म तिम रहियां बे मली । जाणइ जीव कर्म भोलवं वांछइ कर्म जीव रोलवू ॥३५॥ कर्मतणां बंधन छइं च्यारि प्रकृति-थिति-रस-प्रदेश विचारि । जिम को बांधइ वैद्य गोटिकां । वाटइ ओसड नही मोटिकां ॥३६।। तेहमाहि पुण ए चिहु बंध पहिलं प्रकृति कहुं ए खंध । केतली गोली टालइ वाय एक जाणीसिं पित्त जि जाय ॥३७॥ बहुमूली सबलाई करइ केतली गोली श्लेष्म उपहरइ । ज्वर फेडइ गोली केतली संनिपांत जाइ ते भली ॥३८॥ इम गुण द्यइ ते प्रकृति सुभोव । बीजी स्थिति बांधइ इणि भावि । दिवस मास वच्छर परमायु ते ऊपहिरी वणसी जाय ॥३९॥ थिति ए कहीइ रसनी वात खारी खाटी मधुरी जाति । ताजे ओसडि सरसी होइ जूने विरसी लागइ सोइ ॥४०॥
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अनुसन्धान-५७
तोल प्रमाण कहीइ प्रदेश इम गोलीना भेद विशेश । तिम प्राणी पुदगल संग्रही बांधइ कर्म जगमाहिं रही ॥४१॥ न्यान दर्शन चारित्र आचरइ । प्रगट करइ सुख दुख छावरइ । प्रकृतिबंध कहीइ प्राणनु । बीजु थिति भेदे आयुनु ॥४२॥ अंतर्महूर्त एक अड बार जघन्य कर्म थिति ए अवधारि । कोटाकोटि अपर बांधणी वीस त्रीस सत्तरि कर्म तणी ॥४३॥ ए उतकृष्ट जाणु परमायु इणिपरि थिति ए बांधी जाय । घj घणेरुं बंधन थाय ए अनुभाग रस कहिवराय ॥४४॥ पुण तिणि बंधनि करइ प्रदेश एक पुदगल बहुला लवलेश । बंध तत्त्वना च्यारि प्रकार किंचन मात्र कहिउ विचार ॥४५॥ नवमुं तत्त्व विचारुं मोक्ष ते(ति)हां अविहड अनंता सौक्ष । कर्मतणां बंधन जो मठी जिम अग्यारांगई(?) सोगठी ॥४६।। सविहुं जीव सरीखां सुक्ख अंतरभेद न दीसइ मुक्ख । तिहाइ भेद कहिं केवली नव प्रकारि होइ ते वली ॥४७॥ सकल लोक मस्तकि ते सही नास्तिकमत ते मानि नही । तेह संदेह भांजेवा अरथि एक जि नाम हुइ समरथि ॥४८॥ जीव देव घट पट जिम धर्म जगि नियति छई एह जि मर्म । जोड नाम हुइ अथ नही जिम छइ राजपुत्र ते सही ॥४९॥ वृषभसींग नइ चांपा फूल महिषशृंग पुन अर्कह तूल । इत्यादिक छई नही ते किस्युं बंध्या सुत खरशृंग न इस्युं ॥५०॥ तुरंगमसींग कुसुमआकाश नाम अछि पुण वस्त विनाश । जिहां संदेह मोक्ष एक नाम छइ इम निश्चई उत्तम ठाम ॥५१॥ बीजु भेद मोक्ष कुंण जाइ नारक तिरिया गत्ति न जाइ । एकेंद्री विगलेंद्रीय नही पंचेंद्री कोइ जाइ सही ॥५२।। त्रीजु भेद षट जीवनिकाय त्रस माहिथी मानव जाय । अभव्य जीव जाइ नही कदा भव्य हुइ ते जाइ सदा ॥५३।। च्यारि भेद ए पंचम कहिं । असनीआ ते मो[क्ष] नवि लहिं ।
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लहिं संनीआ मोक्ष अखंच चारित भेद अछि जे पंच ॥५४॥ पहिला बिहुं चारित्रना धणी थाइं संसारिं रेवणी । यथाक्षात चारित्र जव लहइं मोक्ष जाइ ते केवलि कहइं ॥५५।। भेद सातमइ समकित पंच पहिलु उपशम विवरं तं च । कहीइं समकित पामिउं नही आयुकर्म स्थिति निश्चइ कही ॥५६॥ अवर कोटाकोटि सातइ कर्म आण्या माहि करी जीव धर्म । मन चोखइ लाधुं समकित अंतर्महूर्त मिथ्या गिळं चित्त ॥५७॥ ते लव पुदगल वेइ नहि पुनरपि समकित थिरता नही । मिथ्या भाग मइलु ढग नूउ । मन चोखइ समकित ढग हूउ ॥५८॥ इम बिहू ढगला जूआ धरइ मिश्र भाग ते त्रीजु करइ । जिम कोदिरा भेदि त्रिहु हुआ मीण्या मिश्र सूधा ते जूआ ॥५९।। समकित मिथ्या विचि जे समइ अनंतानुबंध आविउ तिहां उदय । कलुष समइ सास्वादन तेह खीर खांड घृत जिम जमीआं जेह ॥६०॥ वमतां स्वाद वेइ जेतलउ सास्वादन समकित एतलउ ।। पंच समकितना सुणिज्यो मर्म । अकाम निर्झरा हणीआ कर्म ॥६१॥ तव लाळू उपशम समकित वमतां आस्वादन दृढ चित्त । क्षायोपशमिक चोखं मन्न वर्तमान पामइ त्रिण्णि धन्न ॥६२॥ क्षपक श्रेणि चडतां त्रिणि भाग । छेहलु वेदक समकित राग । मिश्रकर्म क्षप्यां सवि सात तउ क्षायक समकितनी वात ॥६३।। जिणि पामीजइ मोक्ष दूआर पुनरपि गमण नही अवतार । आहारक संसारी जीव अणाहार मोक्ष जाइ सदैव ॥६४॥ तुं मइ घातकि दर्शन च्यारि । चक्षु अचक्षु अवधि त्रिण्णि वारि । केवलदर्शन होइ मोख । पंच न्यानमाहि कुणि संतोष ॥६५॥ मति श्रुति अवधि न्यान ए तिण्णि मनपर्यव केवल शिव सरण्णि ए चिहु मुगति न पामइ जीव पंचम केवलन्यान सदैव ॥६६॥ इणि दश थानकि पामइ पार शेषि अनंत भमइ संसार । गर्भज मानव इंद्रय पंच मोक्ष तेहं छइ अपरां वंच ॥६७।।
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अनुसन्धान-५७
प्रथम द्वार ए बीजूं सुणेउ अभव्यजीव पाहिं अनंता गुणउ । द्रव्यप्रमाण हिव त्रीजुं द्वार चऊद राजमाहि शव कुंण वार ॥६८।। लोकत्तणउ असंख्यातु भाग मुगति भुंइरुं धीर ही माग । लख पणयाल जोयण वाटुली मुगतिक्षेत्रमाहिं तेह वली ॥६९॥ चउy द्वार कहुं फरसना सिद्धप्रदेश छई आकाशना । मध्य जोयण चउवीसे भागि सिद्ध रहिया छई छेहलइ मा(भा)गि ॥७०॥ क्षेत्र एह फरसना विशेस चिहु दिशि रुद्ध आकाश प्रदेश । दीपक तेज रुंधइ आकाश परसना सात प्रदेसी जास ॥७१॥ पंचम सिद्धतणु कहि काल सिद्धि गयु जीव आदि विशाल । मुगति क्षेत्रि छइं सिद्ध अनादि आदि न अंत नही बनी आदि ॥७२॥ अंतर द्वार छठें हिव कहिं सिद्ध टली वली सिद्ध जिनुहिं । सिद्ध अंतर नही सपतम द्वार केता मुगति छई सिद्ध न पार ॥७३॥ एक निगोद अनंतु भाग । जही पूछई तही एह जि वाग । अष्टम द्वार सिद्ध स्यइ भावि तेहू पंच प्रकार चलावि ॥७४।। राग रोसनुं कर्म जि नही उपशमक बीजुं ए रही । त्रीजुं क्षायोपशभिक पाव चउथु क्षायकवर जइ भाव ॥७५।। पांचमुं पारणामिक सही कर्म क्षप्यांतु शिवगति लही । भव्याभव न होई कदा जीव अजीव नही ए सदा ॥७६॥ क्षायिकनइ पारणामिक बेउ वर्तई भावि सदा सिद्ध तेउ । अलपबहुल नवम्युं ए द्वार तेह तणउ बोलु उद्धार ॥७७।। पुरुष नारि नपुंसक वेदि सिरज्या नही कीधा कुणि च्छेदि । तेह नपुंसक दीक्षा लहिं ते थोडा छइं सिवपुरि कहिं ॥७८।। तेहथी असंख नारिना जीव । ओहथी पुरुष असंख सदैव । लाख न किंचन आगलि कोडि सहस न कांई लाखह जोडि ॥७९॥ तिम नरनारि नपुंसक जाणि सिद्ध अनंत अच्छि निरवाण । ए नव द्वार अनइ नवतत्त्व सद्दहणा धरज्यो भुवि सत्व ॥८०॥ जीवादिक नवतत्त्व विचार जाणइ तेह समकित निरधार । आगमवयण न मानइ जेह अनंत भव रुलस्यइ नर तेह ॥८१॥
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कविता कहण कहइ कर जोडि कोइ विद्वांस म देज्यो कोडि । कहि तणउ कहिवु नही मर्म महानुभावनु एहवु धर्म ॥८२॥ आगम अरथ गुहिर गंभीर बादर बोलि कहिउं ते हीर । लाभ छेहु जोइ सहु कोइ लाभ दीसइ ते बहुरइ लोइ ॥८३।। प्रीछया पाखइ तत्त्व विचार पालइ किम जिनधर्माचार । जलनिधि नंभ रर्संनइं चंद्रमा । रची चउपई वरस एहमा ॥८४|| सुविहित खरतर गच्छनु ईश श्रीधनवर्द्धनसूरिजि सीस ।। श्रीआणंदवर्द्धनसूरि विचार कहइं केवलि भाखिउं ते सार ॥८५॥ कविता नाम हरिं पातकी एक मात पणि बहु जातकी । इणि नाभिं अनंता हूआ एह जि जीव अनइ जूजूआ ॥८६।। इस्युं न जाणिं इणइ संसारि । मद मुंकीनइ कहुँ अवधारि । आगइ कवियण साल पसालि नाम कहिउं ते देखी वालि ॥८७॥ आणी भाव भणु चउपई । सुणिज्यो सहू एक मनां थई । आगम अरथ अनंत विचार कहिउ लवलेश न लाभुं पार ॥८८।। सवि हुं जाण्या तत्त्व विचार दृढ समकित जपिवु नवकार । ममता मुंकी समता धरु मुगतिवधू जिम लीलां वरु ॥८९।।
इति नवतत्त्व चउपई समाप्ता ॥
भद्रं भूयात् । संवत १६०८ वर्षे माह सुदि-१ भूमे लिखिता
श्री देवगुप्तसूरिगुरुणा ॥
कठिन शब्दोना अर्थ
अर्थ
शब्द सूखिम पढवी
सूक्ष्मपृथ्वीकाय स्थिर
थविर
आभूआ
अभ्रक
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अनुसन्धान-५७
१४
धुंइरि झरल
१५
२०
मुरमरा सयर पर्याप्ति
२3
हुंडक संस्थान ऊदारिक कार्मण ज्योति सरि
धूमस-झाकळ ज्वाळा धूमाडो मुर्मुर-तणखा शरीर जीवन शरीरधारी तरीके जीववानी जीवनशक्ति लक्षण रहित सर्व अंगवालु शरीर
औदारिक शरीर (एक प्रकारचें शरीर) कार्मण शरीर (एक प्रकारचं शरीर) तेजस शरीर (एक प्रकारनुं शरीर) शरीर
छीप पोरा जीवनी जात छेवटुं संहनन मध
२७
सीपूना
पुरा
४१
४७
आरो (छ आरामांनो एक) भरत - ऐरवत क्षेत्र लोके-लोकमां
६९
दोरेदोरे
इंडोल छेवट्ठी संघेण माखिक कर वचा आरइ भरहेरव लुकिं त्रागि त्रागि मवे उच्छेधांगुल पल्योपम उद्धार साभिन्यांन मनुक्षानुपूरवी दाहमुं यान
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मपाय उत्सेधांगुल (लंबाई- एक माप) काळनुं एक जैन शास्त्रीय माप पल्योपमनो एक प्रकार साभिज्ञान-ओळखाण मनुष्यानुपूर्वी दशमुं जाण
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१०२ १०५ १२४
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डिसेम्बर २०११
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२०५
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२०७
२१७
नीमी
रेवणी
अदाप
उरम
जुधं
घांघलउ
थीणधी
खीणधी
निटोल
च्यारि चकुं
ओकलां
चांब
अलकसमलक
समेलु
खटकशाल
दीकोलां
बनी आदि
प्रातिकी
आवटइ
अहिंड वस्त
कठमर्द
अखंच
लंपणी
वैभाख
भावन
घरणी
पिआरू
परीखा
अवरति
सुमति
धन ? नीवी घेरायेली |
(मूल द्रव्य)
युद्धमां (युद्ध करतांये उंघे )
ऊंघवुं (?)
थीणद्धि (निद्रानो एक प्रकार)
क्षीण बुद्धि वाळ
नक्की / अवश्य.
सोल (१६) (४x४)
अलकमलकनुं (?) भेगु करवुं (सुमेळ)
द्विपद-बेपगां (?)
वणिज आदि (?)
एक क्रियानुं नाम (आश्रयीने)
अटवाय
शिकार ( आहेड) नी वस्तु (?)
कष्ट-मर्दन
खंचकाट वगर
लींपण (?)
तिरस्कार रूप वाणी, विभाषा
भावना (अनित्यादि)
पत्नी
परायुं
खाई (?)
अविरति
समिति (सम्यग् प्रवृत्ति)
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________________ अनुसन्धान-५७ गुपत्ति गुप्ति (सम्यग् निवृत्ति) स्थविर मुनि थिवरां 226 227 230 गम घरष्टी कुदली उठां 233 239 घंटी (?) कोदाली (?) दृष्टान्तरूप कहेवत - ओठां स्वभाव उपरनी सुख सुभोव 246 उपहिरी सौक्ष जो मठी रेवणी मइलुं शव 255 258 रहेनार (?) मेलुं-अशुद्ध 268 273 सातमुं सपतम साल पसालि 287