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________________ डिसेम्बर २०११ हिव पनरमी नेसत्थिकी । परवसि कीजइ राजा थकी । अरहट पावट जंत्र पखाण । क्रिया ऊपजइ नही तस माण ॥७५॥ चीत्रे स्वानि आहेडु करइ । अथवा जे कारूं आचरिं । मारइ जीव हाथिं हथीआरि । स्वाहस्तिकी क्रिया अनिवारि ॥७६॥ आन्यापनिकी दिइ आदेश । जीव मरावइ पाप निवेश । अपर करावइ न करइ धणी । क्रिया कहुं हिव वीआरणी ॥७७॥ अहिंड वस्त वखाणइ घणुं । वेचावी नर बहइ आपणुं । दो भासु दल्लाली करइ । बेहू जण वंची बूडइ मरइ ॥७८॥ वस्तह लावइ सूनई मन्नि । ओघसंज्ञा ते आप अन्न । निद्धंधस दया नही योग । ते कहीइ क्रिया अणभोग ॥ ७९ ॥ लोकविरुद्ध जे कीधइ कांमि । वध बंधन पामइ जस नामि । परलोक्किं नारकगति लहइ । ते अणवकंखपच्चईआ कहइ ॥८०॥ आर्त्तरौद्र ध्यांन मनि धरई । काया कठमर्द अहनिसि करइ । वयणि उच्छृंखल वाणी सही । अनापउग क्रिया ते कही ॥८१॥ सामुदानकी क्रिया ए वली । हाट अवांस करिं सहू मिली । कहि ऊपरि आवइ अतिनेह । क्रिया प्रेमकी कहीइ तेह ॥८२॥ कोपि निरंतर कीजइ द्वेष । बांधइ कर्म क्रिया प्रद्वेष । यति रहिं ईर्यापथिकी क्रिया । बोलइ चालइ ते विक्रिया ॥८३॥ सूक्ष्मकर्म बोधइ केवली । समय बिहुं ताई ते वली । ए पंचवीस क्रिया पातकी । आश्रव ते बइतालीस की ॥८४॥ पांच तत्त्व ए गृहीनई छविं । साधु तण ते नावि लंबिं । हिव बहुं संवर तत्त्व कहुं । बोधिबीज जिम मन शुद्धि हुं ॥ ८५ ॥ जेहना छई सत्तावन भेद । तिणि आचरणि कर्म हुइ च्छेद । पंच सुमतिनइ त्रिणि गुपत्ति । धर्मतणा दश भेद संयत्ति ॥८६॥ परीसह बावीस अखंच । बार भावना चारित्र पंच । द्वार कहिया ए सत्तावन्न । आणइ संवर प्राणी धन्न ॥८७॥ युग झुंसर दृष्टि अवलोकि । चालइ पगि पगि जयणां लोकि । डाबुं जिमणुं जोइ नही । पहिली ईर्यासुमति एकही ॥८८॥ ८१
SR No.229670
Book TitleNavtattva Chaupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDiptipragnashreeji
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size144 KB
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