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OXKOJO0887CO ___ राजस्थान सुनहर साहित्य माला पुष्प नं. ८.
। मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी
लेखकश्रीनाथ मोदी जैन
निरीक्षक
टीचर्स ट्रेनिङ्ग स्कूल-जोधपुर ।
प्रकाशकराजस्थान सुन्दर साहित्य सदन
जोधपुर.
प्रथमवार १०००
सन १९२९ ई.
द्रव्य सहायक श्री संघ-लुनावा ( मारवाड.)
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प्रस्तावना |
वाचकवृन्द !
प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद इतिहासवेत्ता मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज का संक्षिप्त परिचय आप लोगों के सम्मुख रखते मुझे अत्यंत हर्ष है । ऐसे उत्तम पुरुषों के जीवन से हमें ऐसे ऐसे उपदेश मिलते हैं कि यदि सच्चे दिल से ऐसे नर पुङ्गवों का अनुकरण किया जाय तो हमारा जीवन उच्च और आदर्श हो जाय । कहने की आवश्यक्ता नहीं कि वर्तमान समय में मुनि ज्ञानसुन्दरजी महाराजने जैन साहित्य के अन्दर किस प्रकार की जागृति उत्पन्न कर दी है। मारवाड़ जैसे शिक्षा में पिछड़े प्रान्त के अन्दर इस प्रकार ज्ञान की धूम मचा देना वास्तव में असाधारण योग्यता का कार्य है ।
इन दिनों मुनि श्री ऐतिहासिक खोज करने में संलम हैं जिस के फलस्वरूप हाल ही में " जैन जाति महोदय नामक प्रमाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ का प्रथम खण्ड प्रकाशित हुआ है जिस से साफ प्रकट होता है कि मुनि श्री अपनी लगन के कैसे पक्के हैं | इस पुस्तक में मैंने आपश्री के जीवन की मुख्य मुख्य घटनाओं का संक्षेप में विवेचन किया है । आशा है पाठक चरितनायकजी के गुणों से परिचित होकर अपने आत्महित साधन के लिए कुछ ऐसे ही आदर्श चुनेंगे ।
विनीत
३१-१०-२९ जोधपुर.
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33
श्रीनाथ मोदी जैन लेखक.
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विषय सूची।
१ प्रस्तावना २ विषय सूची ३ विषयारम्भ ४ वंश परिचय ५ जन्म ६ बाल्यावस्था .... ७ गृहस्थावस्था .... ८ वैराग्य और दीक्षा.... ९ विशेषता .... १. विक्रम संवत् १९६४ का चातुर्मास सोजत ११ , , १९६५ , , बीकानेर १२ , , १९६६ , , जोधपुर १३ , , १९६७ , , कालू १४ । ।, १९६८ ,, , बीकानेर १५ , , १९६९ , , अजमेर १६ , , १९७० , , गंगापुर
__, , १९७१ , , छोटी सादड़ी ....
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१८ , , १९७२ ,, ,, तिंवरी ।
" , १९७३ ,, , फलोधी २० , , १९७४ ,, ,, जोधपुर २१ , , १९७५ ,, ,, सूरत
____ , १९७६ झघड़िया तीर्थ २३ " " १९७७ ,, ,, फलोधी २४ , " १९७८,, , , " १९७९ ., • ,, ,
लोहावट ___ , १९८१ ,, ,,
" , १९८२ ,, ,. फलोधी तीर्थ २९ , , १९८३ ,, , पीपाड़ ३० , , १९८४ . , बीलाड़ा ३१ , , १९८५ ,, ,, सादड़ी ३२ , , १९८६ ,, , लुणावा ३३ हमारी आशाएँ .... .... ३४ आपका प्रकाशित साहित्य .... ३५ भाप की स्थापित की हुई संस्थाएं
नागोर
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000000000micrococococon जैग जाति महोदय के लेखक
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मुनिवर्य श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज।
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आनंद प्रिं. प्रेस-भावनगर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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मुनि ज्ञानसुन्दरजी.
संगत नहीं होगा यदि पाठकों की सेवामें "जैन जाति महोदय " ऐतिहासिक महान् ग्रंथ के प्रणेता पूज्यपाद इतिहासवेत्ता मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी का पवित्र चरित्र रखते अति हर्ष है । हमारी अभिलाषा बहुत दिनों से थी कि ऐसे महात्मा का जीवन जो आदर्श एवं अनुकरणीय है पाठकों के सामने इस उद्देश से उपस्थित किया जाय कि अपने जीवनोद्देश को निर्माण करते समय वे इसे लक्ष्यमें रक्खे |
अ
Full many a gem of purest way screne,
The dark unfathomed caves of ocean bear; Full many a flower is born o blush unseen,
1
And waste its sweetness on t'de desert air. अहा ! उपरोक्त पंक्तियों में सचमुच किसी मनस्वी कविने क्या ही उत्तम कहा है । ऐसे रत्न भी है जो अत्यन्त उज्जवल एवं प्रभावान हैं परन्तु समुद्र की खोखलों में पड़े हुए हैं और ऐसे भी कुसुम हैं जिनके सौन्दर्य व सुगन्ध का अनुभव कोई नहीं जान पाता परन्तु क्या वे रत्न उन रत्नों से किसी प्रकार भी कम हैं जो हाट हाट में बिकते और मनुष्यों की दृष्टि में पड़ कर प्रशंसा पाते हैं ? क्या वे पुष्प जो अपनी मनोहारिणी सुगंध को
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(२) केवल वन की वायु में ही विलीन कर देते हैं, उन बगीचों के फूलोंसे जो अपनी सुगन्धसे मनुष्यों के प्रशंसापात्र हैं किसी भी प्रकार कम हैं ?
___ इसी प्रकार वे महापुरुष जो चुपचाप दूरदर्शितासे अत्यावश्यक ठोस ( Solid ) कार्य करने से मनुष्यों में विख्यात नहीं हो सके क्या उन सांसारिक प्रशंसापात्र व्यक्तियों से कम हैं ? नहीं नहीं कदापि नहीं । जब ऐसे मनुष्यों की संख्या कम नहीं है जो प्रशंसा के अयोग्य हो कर भी उसके पात्र कहे जाते हैं तो क्या ऐसे सत्पुरुषों का मिलना दुर्लभ है जो संसारी प्रशंसा से सदा दूर भागते हैं। किसी विद्वान ने यथार्थ ही कहा है कि
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः । स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । नादंति सत्वं खलु वारवाहाः ।
परोपकाराय सतां विभूतयः । अर्थात् नदी अपने जल को आप नहीं पीती, वृक्ष अपने फलों को आप भक्षण नहीं करते और मेघजल वर्षा अन्न उपजा भाप नहीं खाते । तात्पर्य यह है कि नदी का जल वृक्षों के फल
और मेघों की वर्षा सदा दूसरों के ही काम आती है। इससे सिद्ध होता है कि सच्चे महापुरुषों की विभूति स्वधर्म, स्वदेश की सेवा और परोपकार के लिये ही होती है । ऐसे ही श्रेष्ठ परोप
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( ३ ) कारी महापुरुषों की श्रेणी में उच्च स्थान पाने योग्य जैन श्वेताम्बर समाज के उज्जवल रत्न श्रीमद् उपकेश गच्छीय मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज का पवित्र चारित्र इस प्रकार है
वीरात् ७० सम्वत् में आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीजीने उपकेश पुर के महाराजा उपलदेव आदि को प्रतिबोध दे उन्हें जैनधर्म का अनुयायी बनाया था । महाराजा उपलदेव जैनधर्म को पालन कर अपने आत्मकल्याण में निरत था । वह अपने जीवन में प्रयत्न फर के जैनधर्म का विशेष अभ्युदय करना सदैव चाहता था
और उन्होंने ऐसाही किया कि वाममार्गियों के अधर्म कीलों को तोड़ जैनधर्म का प्रचुरतासे प्रचार किया इस लिये आप का यश
आज भी विश्व में जीवित है । वह नरश्रेष्ठ अपने गुणों के कारण बहुत प्रसिद्ध हो गया था। उसी के इतने उत्तम कृत्यों के स्मरणमें उस की संतान श्रेष्टि गौत्र कहलाने लगी।
श्रेष्टि गौत्र वालों की प्रचुर अभिवृद्धि हुई । वे सारे भारत में फैल गये । इन की आबादी दिन प्रति दिन तेज़ रफतार से बढ़ने लगी। मारवाड़ राज्यान्तर्गत गढ सिवाणा में विक्रम की बारहवी शताब्दी में जैनियाँ की धनी आबादी थी। केवल श्रेष्टि गौत्र वालों के भी लगभग ३५०० घर थे। उस समय गढ़ सिवाना में श्रेष्टि गौत्रीय त्रिभुवनसिंहजी मंत्री पद पर नियुक्त थे। माप बड़े विचारशील एवं राज्य शासन को चलाने में सिद्धहस्त थे ।
इनके सुपुत्र मुहताजी लालसिंहजी का विवाह चित्तोड़ हुआ
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(५) था। एक बार ये किसी कार्यवशात् चित्तोड़ गये हुए थे। इनको सञ्चायिका देवी का पूर्ण इष्ट था। जिस दिन लालसिंहजी चित्तोड़ पहुँचे उसी दिनसे पूर्वही चित्तोड़ के महारावली की रानी चक्षुपीडासे पीड़ित थीं । कई प्रयत्न महारावलजीने किये पर सब उपाय निष्फल हुए । योग्य चिकित्सक की तलाश करते करते राज्य कर्मचारियों को सिवानासे आए हुए मुहताजी लालसिंहजी से भेंट हुई। और उन्होंने अपना हाल सुनाया इस पर लालसिंह ने कहा यदि आप चाहो तो मैं चक्षु पीड़ा मिटा सकता हुँ । कर्मचारियोंने कहा हम तो स्वयं इसी हित आए हैं। लालसिंहजीने सच्चायिका देवी के अनुरोधसे ऐसा उपाय बताया कि रानी की पीडा तत्काल जाती रही। सारा राज समाज लालसिंहजी की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगा। महारानीने इस उपलक्षमें लालसिंहजी को बाहरग्राम इनायत किए तथा उनको वैद्यराज की उपाधि सदा के लिये प्रदान की तबसे श्रेष्टिगोत्र की एक शाखा वैद्य मुहत्ता कहलाई।
हमारे चरित नायक मुनि ज्ञानसुन्दरजी का जन्म इसी घराने में हुआ जो उपलदेव की संतान श्रेष्टिगोत्र की शाखा वैद्य मुहत्ता कहलाता था । मारवाड़ भूमि के अनर्गत वीसलपुर ग्राम में वैद्यमुहत्ता नवलमलजी की भार्या रूपादेवी की कूख से आपश्रीका जन्म विक्रम सम्वत् १९३७ के आश्विन शुक्ला १० यानि विजया दशमी को हुआ । जब आप गर्भ में थे तो आपकी मातुश्रीको हाथी का स्वप्न पाया था तदनुसार ही आपका जन्म नाम " गयवर चंद्र" रखा गया। जबसे आपने अपने घर में जन्म
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लिया सारा कुटुम्ब सुख शांतिसे रहने लगा । प्रत्येक के चित्त में प्रसन्नता का सागर उमड़ रहा था । आप अपनी बालक्रिडाओंसे अपने कुटुम्ब के लोगों का मनोरञ्जन करने लगे। आपकी तुतली बानी सबको अति कर्ण प्रिय थी।
बाल्यावस्था से ही आप सर्व प्रिय थे। आपका सरल व्यवहार सबको रुचता था । जब आप शिशु अवस्था से कुछ बड़े हुए तो शिक्षा प्राप्ति के हित पाठशाला में प्रविष्ट हुए। वहाँ पर सहपाठियों से आप सदा आगे ही रहते थे। आपने अल्प समयमें पावश्यक एवं प्रशातीत शिक्षा ग्रहण करली । जब आप पढ़ना छोड़ कर व्यापार करने लगे थे तो आप इस कार्य में बड़े कुशल निकले । व्यापार के व्यवहार में आपकी हठोती अनुकरणीय थी। जिस कार्य में आप हाथ डालते उसे अन्ततक उसी उत्साह से करते थे । यही आपकी स्वाभाविक टेव हो गई।
बाल्यावस्थासे ही आपको सत्संगतका बड़ा प्रेम था । जब प्राम में कोई साधु या समाज सुधारक पाता तो उससे आप भवश्य मिलते थे । इसी प्रवृति के कारण भाप प्रायः स्थानकवासी साधुओं की सेवाउपासना किया करते थे । वहाँ मापने प्रतिक्रमण स्तवन स्वाध्याय तथा कुछ बोल (थोकड़े) याद करलिये। अबतक भाप अविवाहित ही थे ।
किन्तु सत्रह वर्ष की आयु में आपका विवाह सेलावास निवासी श्रीमान् भानीरामजी बाघरेचा की पुत्री राजकुमारी से
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हुआ । विवाह से चार वर्ष पश्चात् आपका सांसारिक उलझनें खटकने लगी । त्याग और वैराग्य की ओर आपकी भावनाएँ प्रस्तुत हुई। पर लालसा मन ही मन रही । कुटुम्ब को कब भाने लगा कि ऐसा सुयोग्य परिश्रमी और सदाचारी नवयुवक इस अवस्थामें हमें त्याग दे । आपने दीक्षालेने की बात प्रकट की पर तुरन्त अस्वीकृति ही मिली।
इसी बीच में आपके पिताश्री का देहान्त हुआ । यकायक सारा गहस्थी का भार आपपर श्रा पड़ा तथापि आप अधीर नहीं हुए। आप अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे अतएव सारा उत्तरदायित्व
आप पर आ पड़ा । आपके पाँच लघु भ्राता थे जिनके नाम क्रम से इस प्रकार हैं-गणेशमलजी, हस्तीमलजी वस्तीमलजी मिश्रीमलजी और गजराजजी। आपके एक बहिन भी थी, जिनका नाम यत्न बाई था।
कई सांसारिक बंधनों से जकड़े हुए होते भी आपकी भभिलाषा यही रहती थी कि ऐसा कोई अवसर मिले कि मैं शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करलूँ । संवत् १६६३ में आप अपनी धर्म पत्नी सहित परदेश जाने के लिये यात्रा कर रहेथे । रास्ते में रतलाम नगर आया जहाँ पूज्य श्रीलालजी महाराज का चातुर्मास था । आप वहाँ सपत्नी उतर गये । जाकर व्याख्यान में सम्मिलित हुए । पू० श्रीलालजी के उपदेश का असर आपके कोमल हृदय पर इस प्रकार हुआ कि आपने यह मन ही मन दृढ़ निश्चय करलिया कि अब मैं घर नहीं जाऊँगा। किसी भी प्रकार हो मैं अब
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(७)
शीघ्र दीक्षा ग्रहण करलूँगा। अब संसारके बन्धनों से उन्मुक्त होके रहूँगा । आर सपत्नि वैराग्य भावना के कारण करीबन २ मास रतलाम में ठहर गये और धार्मिक अभ्यास में तल्लीन हो गये। यह बात आप के मातुश्री आदि कुटुम्ब के कानों तक पहुँचते ही उन्हें को महान् दुःख पैदा हुआ इस पर तारद्वारा सूचित कर गणेशमलजी को रतलाम भेजा और उन्होंने अनेक प्रकार से समझा के माप को घर पर लाना चाहा पर आप का वैराग्य ऐसा नहीं था कि वह धोने से उतरजाता या फीका पड़जाता आखिर गणेशमलजी के विवाह तक दीक्षा न लेने की शर्तपर गयवरचन्द्रजी तो पूज्यजी के पास में रहे और गणेशमलजी अपनी भावज को ले कर बीसलपुर श्रागये ।
संसार की असारता आयुष्य की अस्थिरता और परिणामों की चञ्चलता आप से छीपी हुई नहीं थी जैसे जैसे आप शानाभ्यास बढ़ाते गये वैसे वैसे वैराग्य की धारा भी बढ़ती गई फिर तो देरी ही क्या थी ? आपने अपना मनोर्थ सिद्ध करने के लिये पाखिर संवत् १९६३ के चैत्र कृष्णा ६ को नीमच के पास मामूणिया ग्राम में स्वयं दीक्षान्वित हो गये । आपने अपने अनवरत एवं अविरल उद्योग के कारण शीघ्र ही दसवैकालिक सूत्र, सुखविपाक सूत्र और उत्तराध्ययनजी सूत्र का अध्ययन कर लिया। साथ में परिश्रम कर के आपने लगभग १०० बोकड़े भी कण्ठस्थ कर लिये।
इस के अतिरिक्त बोल चाल थोकड़े, ढाल, चौपाई, स्तवन,
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(८) छन्द और कवित्त तो आप को पहले ही से खूब याद थे । श्राप नित्य व्याख्यान भी दिया करते थे जो श्रोताओं को अति मनोहर प्रतीत होता था । वाक्पटुता का गुण आप में स्वभाव से ही विद्यमान है । झामूणिया से विहार कर के आप रामपुरा तथा भानपुरा होते हुए बूंदी और कोटे की ओर पधारे कारण पूज्यजी का विहार पहले से ही उस तरफ हो चुका था।
पश्चात् वहाँ से आप फूलीया केकडी होते हुए ब्यावर पधारे । ब्यावर से निम्बाज, पीपाड, बीसलपुर आये और अपने कुटम्बियों से आज्ञा की याचना की पर उन्होंने आज्ञा न दी तो वहाँ से जोधपुर पाए यहाँ आप के सुसरालवाले तथा आप की पूर्व धर्मपत्नी राजबाई वगेरह आई और अनेक प्रकार से अनुकूल प्रतिकूल परिसह दिये पर आप को उस की परवाह ही नहीं थी वहाँ से आप तिवरी तक पर्यटन कर पीछे ब्यावर पधार गये । ब्यावर से आप सोजत पधारे। इस भ्रमण में भी आप एकान्तर की तपस्या निरन्तर करते रहे । आप को अपने कुटुम्वियों की
ओर से अनेक परिसह दिये गये पर आप अपने पथ से विचलित नहीं हुए । ज्याँ ज्याँ श्राप कष्टों की परीक्षा में तपाए गये आप सच्चे स्वर्ण प्रतीत हुए । इस समय की अनेक घटनाऐं जो आपश्री की अतुल धैर्यता प्रकट करती है स्थानाभाव से यहाँ नहीं लिखी जा सकती यदि अवसर मिला तो फिर कभी आपश्री का चरित्र विस्तृत रूप से पाठकों के समक्ष रखने का प्रयत्न किया जायगा । इस परिचय में केवल चतुर्मासों का संक्षिप्त वर्णन मात्र
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ही किया जायगा आशा है पाठकगण अभी इतने से ही संतोष मान लेंगे।
चातुर्मासों का विवरण लिखने के पहले यह आवश्यक है कि मुनिश्री के उन विशेष गुणों का वर्णन किया जाय जिन के कारण कि सर्व साधारण के हृदय में आपने घर कर रक्ता है । छोटे से बालक से लेकर वृद्धतक प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि मुनिश्री की मुखमुद्रा का दर्शन करता रहूं तथा आप की सुमधुर वाणीद्वारा सदुपदेश का अमृतपान करूं । जो लोग आप से परिचय है उस का चित्त नहीं चाहता है कि मुनिराज मुझ से दूर हो तथापि आप एक स्थानपर अधिक नहीं ठहरते निरन्तर विचरण कर बाप प्रत्येक ग्राम में पहुंच कर धर्मोपदेश सुनाने का प्रगाढ प्रयत्न करते रहते हैं । इस बात का प्रमाण पाठकों को आगे के चरित्र के पठन से भली भांति विदित होगा।
आप का जीवन अनुकरणीय एवं आदर्श है । आप के अनुपम त्याग, सत्यान्वेषण, तप, धर्म और जिज्ञासा का यदि सविस्तार वर्णन किया जाय तो एक बड़े ग्रंथ का रूप हो जाय । इस महात्मा के उपदेश, वार्तालाप, व्यवहार, कार्य, भाव और विचारों पर मनन करने से परम शांति प्राप्त होती है और साथ में सदा यही इच्छा उत्पन्न होती है कि इसी प्रकार से जीवन बिताना प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिये । श्राप के जीवन की घटनाओं से हमें यह पता मिलता है कि एक व्यक्ति का
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(१०)
नैतिक, आत्मिक, शारीरिक तथा सामाजिक जीवन किस प्रकार बलवान और चारित्रवान हो सकता है।
आप का व्याख्यान हृदयग्राही तथा ओजस्वी भाषा में होता है जिस में सारगर्भित धार्मिक भाव लबालब भरे होते हैं । आप की वाक्पटुता से आकर्षित हो कई व्यक्तियोंने सांसारिक प्रलोभनों तथा कुवृत्तियों का निरोध किया है । आप के वचनामृतों के पान से कितना जैन समाज का उपकार हुआ है वह बताना अकथनीय हैं । आपने मारवाड़ जैसी विकट भूमि में अनेक वादियों के बीच विहार कर एकेले सिंह की माफिक जैनधर्म और जैन ज्ञान का बहुत प्रचार किया है। आप के व्याख्यान के मुख्य विषय ज्ञान प्रचार, मिथ्यात्व त्याग, समाज सुधार, विद्याप्रेम, जैनधर्म का गौरव, आत्मसुधार, अध्यात्मज्ञान, सदाचार, दुर्व्यसन त्याग तथा अहिंसा प्रचार है । आप का भाषण मधुर, हृदयग्राही, ओजस्वी चित्ताकर्षक, प्रभावोत्पादक एवं सर्व साधारण के समझने योग्य भाषा में होता है । त्याग की तो आप साक्षात् मूर्ति हैं। ज्ञान प्रचार द्वारा आत्महित साधन करना आप के जीवन का परम पवित्र उद्देश है । अर्वाचिन समय में जैन साहित्य के अन्वेषण प्रकाशन आदि अल्प समय में जितनी प्रवृत्ति आपने की है शायद ही किसी औरने की हो।
किस किस प्रान्त में आपने कितना कितना उपकार किया है इसका वर्णन पाठक निम्न लिखित चातुर्मास के वर्णन से मालूम करेंगे। पूर्ण वर्णन तो इस संक्षिप्त परिचय में समाना असम्भव है।
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(११) विक्रम सं. १९६४ का चातुर्मास [ सोजत ।]
सब से प्रथम का चातुर्मास आपने सोजत में किया । माप स्वामी फूलचंदजी के साथ में थे। सब से प्रथम आपने यही आवश्यक समझा कि जब तक जैन साहित्य का ज्ञान नहीं होगा तब मुझ से उपदेश देने का कार्य कैसे हो सकेगा । इसी हेतु से श्राप साहि त्य के अध्ययन में प्रारम्भ से ही तत्पर हुए ।
वैसे आप पर सरस्वती की बचपन से ही विशेष कृपा थी, जिस बात को आप पढ़ते थे वह आप को शीघ्र याद हो जाती थी परिभाषा तथा नित्य के व्यवहार के लिये आपने सब से प्रथम थोकड़े याद करने शुरु किये । बातकी बात में आपको ४० थोकड़े+ स्मरण हो गये । तत्पश्चात् आपने सूत्र याद करने प्रारम्भ किये । प्रखर स्मरण शक्ति के कारण आपने बृहत्कल्प सूत्र सहज ही में मुखाम कर लिया।
केवल पढ़ने की ओर ही आपकी रुचि हो यह बात नहीं थी, आप इस मर्म को भी अच्छी तरह जानते थे कि कठोर कमों का क्षय बिना तपस्या किये होना असम्भव है अतएव आपने अपने सुकुमार शरीर की परवाह न कर तपस्या करनी प्रारम्भ की जो इस प्रकार थी। अठाई १, पञ्चोपवास १, तेले ८,
+ जैन शास्रों में जो तत्वज्ञान का विषय है उसको सरल भाषामें अथित कर एक प्रकरण : निबन्ध ) बनाके उसे कण्ठस्थ कर लेना फिर उसपर खूब मनन करना उसका नाम स्थानकवासियोंने थोकड़ा रक्खा गया था।
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( १२ )
बेले १०, तथा दो मास तक तो आपने एकान्तर तप आराधन किया था ।
सदुपदेश सुनाना ही साधुओं का कर्त्तव्य है, यह जान कर आपने १५ दिवस तक श्री दशवेकालिक सूत्र को व्याख्यान में पढ़ा | आपकी व्याख्यान शैली की मनोहरता के कारण श्रोताओं की तो भीड़ लगी रहती थी ।
चातुर्मास बीतने पर आपने सोजत से ब्यावर, खरवा तक विहार किया । फिर वहाँ से पीपाड़ वीसलपुर हो आपके कुटुम्बियों से आज्ञा प्राप्त कर आप पुनः ब्यावर पधारे । पश्चात् अपने अजमेर, किशनगढ़, जयपुर, छाडलु, टोंक, माधोपुर, कोटा, बूँदी, रामपुरा, भानपुरा, जावद, नीमच, निम्बाडा चित्तोड़, भीलाडा, इमीरगढ़, ब्यावर, पीपाड, नागोर और बीकानेर तक भ्रमण किया | आपके सदुपदेश के फलस्वरुप कई लोगोंने जीवनभर माँस मदिरा त्यागने का प्रण किया था । इस वर्ष के प्रथम पर्यटन में आपको अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़े। एक बार तो ऐसी घटना हुई कि आप बाल बाल बचे । अटूट साहस एवं धैर्यताने ही आपके जीवन की रक्षा की। अपने पुरुषार्थ के बल से आपने, सारी कठिनाइयों को तृणवत् लमझ कर धर्म प्रचार के कार्य में रूचि पूर्वक भाग लिया ।
विक्रम सं. १६६५ का चातुर्मास ( बीकानेर ) | सोजत में गत चातुर्मास में आपने फूलचन्द्रजी के पास ज्ञा
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(१३) नाभ्यास किया था किन्तु इस वर्ष आपने बीकानेर में पूज्यजी के साथ में रहते हुए विशेष ज्ञानाभ्यास किया । स्मरण शक्ति के विकसित होनेके कारण जो कार्य दूसरों के लिये क्लिष्ट प्रतीत होता है वह आपके लिये बिल्कुल सरल था। इस चातुर्मास में आपने २१ थोकड़े कण्ठस्थ किये तथा प्राचारंग सूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र का मननपूर्वक अध्ययन (वाचना) किया। शेष रहे उत्तराध्ययन के अध्ययनों को भी बाद में आपने कंठाप कर लिया ।
तपस्या का सिलसिला उसी प्रकार जारी रहा । तपस्या करना स्वास्थ्य और आत्मकल्याण दोनों के लिये उपयोगी है इसी हेतु से आपने एक शूरवीर की तरह इस वर्ष के चातुर्मास में अन्य तपस्वी साधुओं की वैयावञ्च करते हुए भी इस प्रकार तपस्या की, अठाई १, पचोला १, तेले ६, बेले ७ तथा साथ में मापने कई फुटकल उपवास भी किये।
बीकानेर जैसे बड़े नगरकी बृहत् परिषद में व्याख्यान देने का अवसर प्राप श्री को १५ दिन तक मिला, कारण पूज्य श्री रुग्णावस्था में थे । यद्यपि यह दूसरा ही वर्ष दीक्षित हुए हुआ था तथापि आपने निर्भीकता पूर्वक ऐसे ढंग से व्याख्यान दिया कि सब को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि एक नवदीक्षित साधु अपने थोड़े समय के अनुभव से किस प्रकार प्रभावोत्पादक - मिभाषण देते हैं। सब को आपके व्याख्यान से पूरा संतोष हुआ।
चातुर्मास व्यतीत होनेपर आप बीकानेर से नागौर, डेह,
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(१४) कुचेरा, रूण, बडलू, बनाड, जोधपुर तथा सलावास आदि के लोगों को उपदेशामृत का पान कराते हुए पाली पहुंचे। इस पर्यटन में भी आप एकान्तर तपस्या के साथ साथ ज्ञानाभ्यास भी निरन्तर करते रहे। वि. सम्वत् १९६६ का चातुर्मास (जोधपुर)।
आपनीने अपना तीसरा चातुर्मास मारवाड़ राज्य की राजधानी जोधपुर में बिताया । फूलचंदजी के पास ही आप रहे । उधर ज्ञानाभ्यास तो चल ही रहा था। जिस जिस क्रम से
आपने श्रुतामृत का आस्वादन किया, आप की अभिलाषा अध्ययन की ओर बढ़ती गई। आपने इस वर्ष के चातुर्मास में निम्न प्रकार से स्वाध्याय किया । ४० थोकड़े कंठाग्र तो आपने सदा की तरह किये ही परन्तु इस वर्ष आपने श्रुतज्ञान के अध्ययन में विशेष प्रवृत्ति रक्खी । नन्दीजी सूत्र आपने सहज ही में कण्ठस्थ कर लिया । क्यों नहीं ! जिस व्यक्ति पर इस प्रकार सरस्वती की महान् कृपा होती है वह अव्वल दर्जे का सौभाग्यशाली ज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में क्यों नहीं तल्लीन रहे ! इतना ही नहीं इस के अतिरिक्त सूयघडांग सूत्र, ठाणायांग सूत्र, समवायंग सूत्र, प्रश्नव्याकरण सूत्र, निशीथ सूत्र, व्यवहारसूत्र, वृहत्कल्पसूत्र, दशश्रुत स्कंध सूत्र और
आवश्यक सूत्र का अध्ययन (बाचना ) किया सो अलग। धन्य ! आपकी मानसिक शाक्ति को।
जिस प्रकार आपने इस वर्प ज्ञानाराधन में कमाल कर
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दिया उसी प्रकार तपस्या में भी अपूर्व वृद्धि की। आपने यकायक मासखमण तप का आराधन निर्विघ्नपूर्वक किया । इस के साथ तेले ३ तथा एक मास तक एकान्तर तप किया। सचमुच कर्म काटने को कटिबद्ध होकर आपने अलौकिक वीरता का परिचय दिया। _व्याख्यान के अन्दर आप भावनाधिकार पर सुमधुर वाणी से श्रोताओं के शंकानों की खूब निवृति करते थे। इस वर्ष अपने भाधे चातुर्मास अर्थात् दो मास तक धारा प्रावादिक उपदेश दिया।
जोधपुर नगर से विहार करके आप सालावास, रोहट, पाली, बूसी, नाडोल, नारलाई, देसूरी होकर पुन: पाली पधारे । वर्ष के शेष महीनों में आपने सोजत, सेवाज बगड़ी चण्डावल जेतारण तथा बलूदा और कालू में पधार कर ज्ञानोपार्जन तथा तपश्चर्या करते हुए भी उपदेशामृत का पान कराया ।
विक्रम सं. १९६७ का चातुर्मास ( कालू)।
इस बार आपने चतुर्थ चातुर्मास कालू (मानन्दपुर ) में अकेले ही किया । इस प्रकार अकेले रहने का कारण विशेष था । आत्मकल्याण के हित ही आपने इस प्रकार की योजना की थी । इस चातुर्मास में भी आप का ज्ञानाभ्यास पहले की तरह जारी था । आपने २५ थोकड़े निशीथसूत्र व्यवहारसूत्र वगैरह इस वर्ष भी कण्ठस्थ किये तथा निम्नलिखित आगमों का अध्ययन तो मनन पूर्वक किया-उपवाईजी, रायपसेणीजी, जम्बू
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(१६) द्वीप पन्नति, ज्ञातासूत्र, उपासक दशांग, अणुत्तरोववाई, अन्तगढ़ दशांग, पांच निरियावलका सूत्र और विपाक सूत्र । ज्याँ ज्याँ
आप आगमों का अध्ययन करते रहे त्याँ त्याँ आप को ज्ञान की जिज्ञासा बड़ी | पाप का सारा समय इसी प्रकार व्यतीत होता रहा । एक के बाद दूसरा इस प्रकार व्यवस्थापूर्वक आपने अनेक आगमों का अवलोकन किया।
जो क्रम आप के ज्ञानाभ्यास का था वही क्रम तपस्या का भी रहा। इस वर्ष कालू में भी आप तपस्या करते रहे जो इस प्रकार थी । अठाई १, पचोले २, तेले ८ तथा आपने एकान्तर उपवास दो मास तक किये। इस प्रकार निर्जरा करते हुए आपने अतुल धैर्य का परिचय दिया । आप की लगन का वर्णन करना अकथनीय है । जिस कार्य में आप हाथ डालते हैं उस में अन्ततक स्थिर रहते हैं।
इस ग्राम में श्राप कई बार मिलाकर लगभग आठ मास रहे जिस में १२ सूत्र व्याख्यान में वांचे । इस के अतिरिक्त समय समय पर आपने कई चरित्र सुना कर भी कालू निवासियों की ज्ञान पिपासा को अच्छी तरह से शांत किया। इस पिपासा को शांत करने में आपने ऐसी खूबी से काम लिया कि वे लोग अधिक श्रुतज्ञान का आस्वादन करना चाहने लगे। ज्याँ ज्याँ मापने ज्ञानपिपासा शान्त करने का प्रयत्न किया त्या त्यां उनकी जिज्ञासा अधिक बढ़ती ही गई।
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(१७)
कालू से बिहार कर भाप लाम्बिया, कैकीन हो अजमेर होते हुए ब्यावर पधारे । वहाँ से बिहार करते करते मापने निम्न लिखित प्राम और नगरों में पधार कर धर्मोपदेश दिया:-रायपुर, झूटा, पपिनिया, चंडावल, सोजत, पाली, पीपाड़, नागोर और बीकानेर। विक्रम सं. १९६८ का चातुर्मास (बीकानेर)।
इस वर्ष आपश्री का चातुर्मास दूसरी बार बीकानेर में हुमा। यहाँ पापका यह पाँचवा चातुर्मास था। स्वामी शोभालालजी के भाप साथ थे। आपका ज्ञानाध्ययन निरन्तर चालू था। यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस व्यक्ति की धुन एक बार किसी काम में सोलह पाना लगजाती है फिर वह यदि पुरुषार्थी है तो उस कार्यको पूरा करके छोड़ता है इस बार भी प्रापका ज्ञानाभ्यास का क्रम पहले की भांति असाधारण ही था। स्वामीजी की सेवा भक्ति करते हुए मापने १०० थोक तत्वज्ञान के याद करने के साथ ही साथ श्री भगवतीजी सूत्र, पन्नवणा सूत्र, जीवाभिगम सूत्र, अनुयोग द्वार सूत्र और नंदीसूत्र की मापने वांचना की। भाप सदा ज्ञान प्राप्ति में ही आनंद मानते रहे हैं तथा मापने अपने जीवन का एक उ. देश बान. ग्रहण तथा ज्ञान प्रचार करना रक्खा है । इस में भाप भी को वांछनीय सफलता भी मिली है । ... इस वर्ष आपने चातुर्मास में इस प्रकार तपस्या की-पंचोला
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( १८ )
१, तेले ३, तथा बेले ८ । इसके अतिरिक्त छुटकर उपवास भी इस बार आपने अनेक किये ।
श्रीने कई अर्से तक व्याख्यान में भी सूत्रजी फरमाते रहे । आपका भाषण प्रकृति से ही रोचक तथा तत्परता उत्पन्न करनेवाला था । उपदेश श्रवण कर अपने अज्ञानांधकार को दूर करने के हेतु से अनेक श्रोता निरंतर व्याख्यान श्रवण करने का लाभ उठाते थे | आपकी व्याख्यान देने की शक्ति ऐसी उच्च कोटि की है कि श्रोता का मन प्रफुल्लित होकर आनंदसागर में गोते लगाने लगता है । अनेक श्रावकों को थोकड़े सिखाने का कार्य भी आपने जारी किया ।
प बीकानेर से बिहार कर नागोर मेड़ता कैकीन कालू होते हुए ब्यावर और अजमेर के निकटवर्ती स्थलों में उपदेशामृत की वर्षा करते आप खास अजमेर भी पधारे थे । इस भ्रमण में आपने कई भव्य आत्माओं का उद्धार कर उन्हें सत्पथ पर लगाया । जिस ग्राम में आप पधारते थे जनता एकत्रित हो जाती थी तथा आपके मुख मुद्रा की अलौकिक कान्ति से आकर्षित हो अपने को धर्म पालन करने में समर्थ बनाती थी ।
वि. संवत् १६६६ का चातुर्मास (अजमेर) ।
इस वर्ष में आपश्री का छठा चातुर्मास राजस्थान के केन्द्र नगर अजमेर में हुआ। वहाँ झाप और लालचंदजी आदि ५ साधु ठहरे हुए थे । वैसे तो आप बाल वय से ही ज्ञानोपार्जन में तल्लीन 1
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थे तथापि पिछले ५ वर्षों में आपने साधु होकर तो ज्ञानाभ्यास में कमाल कर दिखलाया। आपको इस पंथ पर कई भर्म भी प्रकट होने लगे | आपने इस वर्ष में ज्ञान जिज्ञासुओं को पढ़ाने का कार्य भी शुरु कर दिया । भारत वर्ष के लोगों की यह साधारण देव है कि थोड़ा ज्ञान पाते ही वे गुमानी हो जाते हैं तथा अपने को अपने दूसरे साथियों में चार इंच ऊँचा समझते है पर आपश्री को तो धमंडने छूआ तक भी नहीं । आपका उद्देश केवल ज्ञान सञ्चय करना ही नहीं अपितु ज्ञान प्रचार करना भी था। इसी कारण से इस चातुर्मास में आपने कई लोगों को श्री भगवती सूत्र की वाचना दी। सेठजी चन्दनमलजी व लोढाजी ढहाजी और सिंधिजी वगैरह आपकी वाचना पर बड़े ही मुग्ध थे। इसके अतिरिक्त आपने थोकड़े लिखने का कार्य भी इस चातुर्मास में प्रारम्भ कर दिया। साथ ही कई श्रावकों को भी ज्ञान सिखाना प्रारम्भ किया।
इस चातुर्मास में आपने तपस्या इस प्रकार की:-अठाई १, पचोला १, तेला ५ । छुटकर उपवास तो आपने कई किये थे ।
व्याख्यान में आपश्री कह समय तक प्रातःकाल श्री ज्ञाताजी सूत्र तथा मध्याह में श्री भगवती सूत्र की वाचना किया करते थे । व्याख्यान में तो उपदेश की झड़ी लगजाती थी मानो ज्ञान की पीयूष वर्षों हो रही हो ।
अजमेर से आप सीधे ब्यावर पधारे। इस नगर में भी आप व्या
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( २० )
ख्यान दिया करते थे आप इस नगर में पधारते थे तब लोग कहते थे कि सूत्रों की जहाज आई है। व्यावर से विहार कर आप श्रीवर, रायपुर, सोजत, बगडी, सेवाज, कंटालिया, पाली, बूसी, नाडोल, नारलाई, देसूरी, घाणेराव, सादड़ी, बाली तथा शिवगञ्ज होकर पुन: पाली पधारे। इस बीच में आपकी श्रद्धा शुद्ध होने लगी । यद्यपि आप स्थानकवासी थे पर अंधश्रद्धा के त्यागने की अभिलाषा उत्पन्न हो चुकी थी फिर क्या देर थी ? आपकी, सोध- खोज इस विषय पर थी कि मूर्त्ति पूजा से क्या लाभ दिन व दिन यह है, जिज्ञासा बढ़ रही थी और आप विशेषतया इसी की खोज में अन्वेषण किया करते थे कि सत्य वात क्या है ? शास्त्र क्या फरमाते है ? इस कारण समुदाय में कुछ थोड़ी बहुत चर्चा भी फैली हुई थी कर्मचन्दजी कनकमलजी शोभालालजी और हमारे चारित्रनायक गयवरचन्द्रजी एवं इन चारों विद्वान मुनियों की श्रद्धा मूर्त्तिपूजाकी ओर झुकी हुई थी । पूज्यजीने इन को समझाने का बहुत प्रयत्न किया पर सत्य के सामने आखिर वे निष्फल ही हुए । आपश्री पूज्यजी के साथ जोधपुर पधारे । वहाँसे गंगापुर चातुर्मास का आदेश होने से पाली, सारण, सिरीयारी और देवगढ़ होते हुए आप गंगापुर पधारे ।
वि. सं. १९७० का चातुर्मास (गंगापुर) |
श्री का सातवाँ चातुर्मास गंगापुर में हुआ | आपने ज्ञानाभ्यास में इस वर्ष पंच संधि को प्रारम्भ किया तथा तपस्या इस प्रकार की - ठाई १, पचोला १, तेला ३, छुटकर कई उपवास ।
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(२१)
व्याख्यान के अन्दर प्रापश्री भगवतीजी सूत्र सुनाते थे तथा ऊपर से पृथ्वीचन्द्र गुणसागर का रास गेचकतापूर्वक सुनाते थे । श्रोताओं की खासी भीड़ लगजाती थी। .
आपश्री के जीवन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन करानेवाला एक कार्य भी इसी वर्ष हुआ। देवयोग से आपश्रीने यहाँ के प्राचीन भण्डार के साहित्य की खोजना की। आप को एक रहस्य ज्ञात हुआ | श्री आचागंग सूत्र की चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहुसरिकृत नियुक्ति में तीर्थ की यात्रा तथा मूर्ति पूजा का विवरण पढ़कर आप के विचार दृढ़ हुए । शुद्ध श्रद्धा के अक्कुर हृदय में वपन हुए फिर तो स्फुटित होने की ही देर थी।
वहाँपर तेरहपनथियों को भी आपने ठीक तरहसे पराजित किया था और कई श्रावकों की श्रद्धा भी मूर्ति पूजा की भोर झुका दी थी। यहाँ से विहारकर भाप उदयपुर पधारे परन्तु अांखों की पीड़ा के कारण श्राप भागे शोघ्र न पधार सके । इसी कारण से आप ३३ साढे तीन मास पर्यंत इसी नगर में ठहरे । व्याख्यान में श्री संघ की प्रत्याग्रह से श्री जीवाभिगम सूत्र बांचा जा रहा था। विजयदेव के अधिकार में मूर्ति पूजा का फल यावत् मोक्ष होने का मूल पाठ था । साधु होकर श्राप छली न बने । लकीर के फकीर न होकर सरल स्वभाव से आपने जैसा मल पाठ व अर्थ में था सब स्पष्ट कह सुनाया। उपस्थित जनसमुदाय में कोलाहल मच गया। अंधभक्तों के पेट में चूहे कूदने लगे । लगे वे सब जोरसे हल्ला मचाने । मापने सत्र के पाने शेठजी नन्दलालजी के सामने रक्ख दिये और उन्होंने सभा
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( २२ )
मे सुना दिया जिससे ग्राम जनता को यह ख्याल हो गया कि जैन सूत्रों मे मूर्त्ति पूजा का विधिविधान जरूर है पर कितनेक लोगोंने यह शिकायत भीलाई पूज्यजी के पास की। वहाँ आज्ञा मिली कि शीघ्र रतलाम पहुँचो | तदनुसार उठाड़ा, भींडर, कानोड़, सादड़ी (मेवाड़ ) छोटी सादड़ी, मन्दसौर जावरा होते हुए श्राप रतलाम पहुँच गये ।
वहाँ अमरचंद्रजी पीतलिया से भी मूर्ति पूजा के विषयपर सूक्ष्म चर्चा चलती रही । श्रपने सिद्धांतोंके ऐसे पाठ वतलाये कि सेठजीको ''चुपचाप होना पड़ा। आप वापस जावरे पधारकर पूज्यजी से मिले ! आप को पूछने पर मूर्त्ति के विषय में केवल गोलमाल उत्तर मिला । इसी सम्बन्ध में आप नगरी में शोभालालजी से मिले उन की श्रद्धा तो मूर्ति पूजा की ओर ही थी । इस के पश्चात् श्राप छोटी सादड़ी पधारे । इसी बीच में तेरहपंथियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ उन्हें पराजित कर प्रापश्रीने अपनी बुद्धिबल से अपूर्व विजय प्राप्त की थी । विक्रम संवत् १६७१ का चातुर्मास ( छोटी सादड़ी ) ।
श्रापश्री का आठवाँ चातुर्मास मेवाड़ प्रान्त के अन्तर्गत छोटी सादड़ी में हुया । जिस सोध की धुन आप को लगी हुई थी उस में श्राप को पूर्ण सफलता इसी वर्ष में प्राप्त हुई । स्थानीय सेठ चन्दनमलजी नागोरी के यहाँ से ज्ञाता, उपासकदश, ऊपाई, भगवती और जीवाभिगम आदि सूत्रों की प्रतियाँ लाकर श्रापने उनकी टीका पर मननपूर्वक निष्पक्षभाव से विचार किया तो आप को ज्ञात हुआ कि जैन सिद्धान्त में - मूर्ति पूजा मोक्ष का कारण है । आपने इसी
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( २३ )
-सम्बन्ध में त्रिषट्शलाका पुरुष चरित्र, जैनकथा रत्नकोष भाग भाठ उपदेश प्रासाद भाग पाँच तथा वर्धमान देशना नामक ग्रंथों का भी अध्ययन कर डाला अर्थात् उस चातुर्मासमें लगभग एक लक्ष प्रन्थों का अध्ययन किया था तिस पर भी तपस्या इस प्रकार जारी रही थी । पञ्च उपवास १, तेले ३ तथा ज्ञानाभ्यास के साथ तपश्चर्या का कार्य इस वर्ष रुग्ण रहे थे ।
भी
फुटकल तप । इस प्रकार जारी था, यद्यपि प्राप
व्याख्यान में आपश्री रायपसेणीजी सूत्र बांच रहे थे । कई वकों ने रतलाम पूज्यजी के पास प्रश्न भेजे किन्तु पूज्यजी की मोर से अमरचंदजी पीतलियाने ऐसा गोलमोल उत्तर लिखा कि जिससे लोगों की अभिरूचि मूर्त्ति पूजा की ओर झुक गई ।
-
सादड़ी छोटी के गाँवों में होते हुए श्राप गंगापुर पधारे जहाँ कर्मचंदजी स्वामी विराजते थे । श्रागे ६ साधुओं सहित प्राप देवगढ़ बला कुकडा होते हुए ब्यावर पधारे । यहाँ पर भी मूर्ति पूजा का ही प्रसंग छिड़ा । इस के बाद आप बर, बरांटिया निंबाज, पीपाड़, बिसलपुर होते हुए जोधपुर पधारे | आप के व्याख्यान में मूर्ति पूजा सम्बन्धी प्रश्नोत्तर ही अधिक होने लगे । इस चर्चा में आपने साफ़ तौर पर फरमा दिया कि जैन शास्त्रों में स्थान स्थान मूर्त्ति पूजा का विधान और फल बतलाया है । अगर किसी को देखना हो तो मैं बतलाने को तैय्यार हूँ। अगर उस सूत्रों के मूल पाठ क न माने या उत्सूत्र की परूपना करने वालों को मैं मिथ्यात्वी समझता हूँ उनके साथ मैं किसी प्रकार का व्यवहार | रखना भी नहीं चाहता हुँ यह विषय यहाँ तक चचीं गई कि आप
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( २४ )
एकते रहना भी स्वीकार कर लिया। इसपर साथ के साधुओं ने कहा कि हम भी जानते हैं कि जैन शास्त्रोंमें मूर्त्ति पूजा का उल्लेख हैं पर हम इस ग्रहण किया हुए वेष को छोड़ नहीं सकते है । वस इसी कारण से आप उन का साथ त्याग वहाँसे महामन्दिर पधारगये । वहाँसे तिंवरी गये वहाँपर श्रीयुत् लूणकरणजी लोढ़ा व शकरणजीमुहत्ता आपको सहयोग दिया । तिंवरी के स्थानकवासियों की प्राग्रह से चातुमसतिंवरी में ही होना निश्चय हुआ. तथापि श्राप कई श्रावकों के साथ प्रोशियों तीर्थकी यात्रा के लिये पधारे। यहाँपर परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महागजसे भेंट हुई । श्राप श्रीमान् भी १८ ( वर्ष स्थानकवासी समुदाय में रहेहुए थे । वार्तालाप होनेसे परस्पर अनुभव ज्ञान की वृद्धि हुई । हमारे चरित्रनायकजीने दीक्षाकी याचना की इसपर परमयोगिराज निस्पृही गुरुमहाराजने फरमाया कि तुम यह चातुर्मास तो तिंवरी करो और सत्र समाचारियों को पढ़लो ता कि फिर अफसोस करना नहीं पड़े । श्रापश्री करीबन एक मास उस निवृति दायक स्थान पर रहे। उस प्राचीन तीर्थका उद्धार तथा इस स्थान पर एक छात्रालय - इन दोनों कार्यों का भार गुरुमहाराजने हमारे चरित्रनायकजी , के सिर पर डाल दिया गया और आपश्री इन कार्यो को प्रवृत्ति रूप में लाने के लिये वहुत परिश्रम भी प्रारंभ कर दिया । मुनिजीने वहाँपर स्तवन संग्रह पहला भाग और प्रतिमा छत्तीसी की रचना भी करी थी । विक्रम संवत् १६७२ का चातुर्मास ( तिंवरी ) ।
1
मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज के प्रादेशानुसार श्रापने अपना नववाँ चातुर्मास तिवरी में किया । व्याख्यान में श्राप श्री
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(२५) भगवती जी सूत्र पर इस प्रकार सतर्क व्याख्या करते थे कि श्रोताओं के मनसे संदेह कोसों दूर भागता था। प्रावश्यक्ता को अनुभव कर अाफ्ने संवेगी पानाय का प्रतिक्रमण सुत्र शीघ्र ही कंठाग्र करलिया आपने उपदेश सुनाकर कई भव्य जनों को सत् पथ बताया।
___ पाठकों को ज्ञात होगा, प्रापश्री जिस प्रकार अध्ययन करने में परिकर से सहा प्रस्तुत रहते थे उसी प्रकार प्राप साहित्य संदर्भ कर ज्ञानका प्रचार भी सरल उपाय से करना चाहते थे। इस चातुर्मास में तीन पुस्तकें सामयिक आवश्यक्तानुसार आपने रची, जिनके नाम सिद्धप्रतिमामुक्तावली, दान छत्तीसी और अनुकम्पा छत्तीसी थे।
जब सादड़ी मारवाड़ के श्रावकोंने प्रतिमा छत्तीसी प्रकाशित कगई तो स्थानकवासी समाज की ओर से प्राशेप तथा अश्लील गालियों की वृष्टि शुरु की गई थी । श्राप की इस रचना पर वे अकारण ही चिड़ गये क्योंकि उनकी पोल खुल गई थी।
तिवरी से बिहार कर आप मोशियों पधारे । वहाँ पर शांत मूर्ति परमयोगीराज निगपेक्षी मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज के पास मौन एकादशी के दिन पुनः (जैन) दीक्षा ली और जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक श्री संघ की उसी दिन से रात दिवस सेवा करने में । निरत रहते हैं। गुरुमहाराज की प्राज्ञा से आपने उपकेश गच्छ की। क्रिया करना प्रारम्भ की कारण इसी तीर्थपर प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने, पाप के पूर्वजों को जैन बनाया था । धन्य है ऐसे निर्लोभी महात्मा को कि जो शिष्य की लालसा त्याग पूर्वाचार्यों के प्रति कृतज्ञता बतला
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(२६) ने को पथप्रदर्शक बने । आपने दीक्षित होते ही शिक्षा सुधार की ओर
खूब लक्ष्य दिया और तत्काल गुरुमहाराज की कृपा से श्रोशियों में | जैन विद्यालय बोर्डिंग सहित स्थापित करवाया और उस के प्रचार में
लग गये। बिना छात्रों की पर्याप्त संख्या के विद्यालय का कार्य शिथिल रहेने लगा। अतएव आपने आसपास के अनेक गाँवों में भ्रमण कर अनेक विद्यार्थियों को इस छात्रावास में प्रविष्ट कराए। इस कार्य में आपश्रीने तथा मुनीम चुन्नीलालभाईने अकथनीय परिश्रम किया । लोगों में यह मिथ्याभ्रम फैला हुआ था कि प्रोशियों में जैनी गत्रिभर ठहर ही नहीं सकता। आपने उपदेश दे मावापों को इस बातके लिये तत्पर किया कि वे अपने बालक इस विद्यालय में भेजें । फिर फलोधी श्री संघ के प्रति आग्रह करने पर आप को लोहावट होते हुए वहाँ पधारना पड़ा।
आपश्रीने सब से पहले ज्ञान प्रचार के लिये जोर सौर से उपदेश दिया । फलस्वरूप में सेठ माणकलालजी कोचग्ने अपनी
ओर से जैन पाठशाला खोलने का वचन दिया। आपश्री के समाचार स्थानकवासी साधु रूपचंदजी को मिलते ही वे श्रोशियों श्रा कर वेष परिवर्तन कर मुनिश्री की सेवामें फलोधी अाए उन को पुनः दीक्षा दे अपना शिष्य बना आपश्रीने रूपसुन्दरजी नाम रक्खा | पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य और वरघोडा वगैरह से जैन शासन की प्रभावना अच्छी हुई । उसी समय स्थानकवासी साधु धूलचन्दनी को संवेगी दीक्षा दे रूपसुन्दरजी के शिष्य बना के उन का नाम धर्मसुन्दर रखा गया था इस वर्ष में तिवरीवालों की तरफ से पुस्तकों के लिये सहायता भी मिली।
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( २७ )
१००० श्री गयवरविलास ।
७००० प्रतिमा छत्तीसी । १००० सिद्धप्रतिमा मुक्तावलि | विक्रम संवत् १६७३ का चातुर्मास (फलोघी ) ।
श्रावकों के आग्रह को स्वीकारकर आपश्रीने फलोधी कसबे में अपना दसवाँ चातुर्मास किया। लोगों के हृदय में उत्साह भरा था । चातुर्मासभर पूर्व आनन्द बरता । प्रत्येक श्रावक प्रफुल्ल कन था | व्याख्यान में आप ' पूजा प्रभावना वरघोडा दिबड़े ही समारोह के साथ' भगवतीजी सूत्र मनोहर वाणी से सुनाते थे । साथ ही प्राप शिक्षा प्रचार का उपदेश भी देते थे जिस के फलस्वरूप श्राषाढ़ कृष्णा ६ को वहाँ जैन पाठशाला की स्थापना हुई। साथ ही में दो और महत्वशाली संस्थाऐं स्थापित हुई जो उस समय मारवाड़ प्रान्त के लिये अनोखी बात थी । साहित्य की ओर रुचि श्राकर्षित करने के उद्देश से फलोधी श्री संघ की ओर से रु. २०००) को - फण्ड से " श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला की स्थापना बड़े समारोह से हुई । एक ही वर्ष में इस माला द्वारा २८००० पुस्तकें प्रकाशित हुई तथा जैन लाइब्रेरी की स्थापना करवा के नवयुवकों के उत्साह में वृद्धि की ।
,"
१००० गयवर विलास दूसरी बार । २००० दादा साहब की पूजा ! १०००० प्रतिमा छत्तीसी तीसरी बार । १००० चर्चा का पब्लिक नोटिस । २००० दान छत्तीसी । १००० पैंतीस बोल संग्रह ।
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( २८ )
२००० अनुकम्पा छत्तीसी ।
५००० देवगुरु वंदन माला |
१००० प्रश्नमाला ।
१००० स्तवन संग्रह दूसरा भाग ।
१००० स्तवन संग्रह प्रथम भाग । १००० लिङ्ग निर्णय बहत्तरी ।
२८००० सब प्रतिऐं ।
फलोधी से विहार कर । श्रखेचन्दजी वंदादि के साथ पोकरन लाटी हो जेसलमेर यात्रार्थ पधारे । वहाँ की यात्राकर अमृतसर लोद्रवाजी ब्रह्मसर की यात्राकर पुनः जैसलमेर पधारे | आपने अपनी प्रकृत्यानुसार वहाँ के प्राचीन ज्ञान भण्डार का ध्यानपूर्वक अवलोकन किया जिसमें ताड़पत्रों पर लिखे हुए जैन शास्त्रों के अन्दर मूर्ति विषयक विस्तृत संख्या में प्रमाण मिल आये ! वहाँ से लौटकर आप फलोधी
ये वहाँ से खीचन्द पधारे । वहाँपर एक बाई को श्राप के करकमलों से जैन दीक्षा दी तथा पूज्य श्रीलालजी से मुलाकात हुई पुनः फलोधी में भी मिलाप हुआ वहाँ से लोहावट पधारे स्तवन संग्रह प्रथम भाग दूसरीवार १००० कॉपी मुद्रित करवाई वहाँ से प्रोशियों तीर्थ श्राये वहाँ के बोर्डींग की व्यवस्था शिथिलसी देख प्राप को इस बात का बड़ा रंज हुआ। फिर आपने वहाँपर तीन मास टहरकर बड़े परिश्रम से वहाँ का सब इन्तजाम ठीक सिलसिलेवार बना के उस की नींव को मजबूत कर दी । श्रपश्री के प्रयत्न से श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला नामक संस्था स्थापित की जो प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के उपकार की स्मृति करा रही है वहाँ से आप तंत्ररी और जोधपुर पधारे ।
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(२९) विक्रम संवत् १६७४ का चातुर्मास (जोधपुर) __ प्रापश्री का ग्यारहवाँ चातुर्मास जोधपुर में हुआ था। इस वर्ष मापने व्याख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र फरमाया था । पाप के व्याख्यान में खासी भीड़ रहती थी। प्राप की व्याख्यान पद्धति बड़ी प्रभावोत्पादक थी । श्रोता सदा सुनने को आतुर रहते थे। समझाने की प्रणाली इस कद्र उत्तम थी कि लोग भाप के पास पाकर अपने भ्रम को दूर कर सुपथ के पथिक बनते थे। इतना ही नहीं पर एक बाईको संसार से विमुक्त कर आपने उसे जैन दीक्षा भी दी थी।
इस चातुर्मास में आपने तपस्या इस भांति की थी। पचोला १, तेला १, इस के अतिरिक्त फुटकल तपस्या भी आप किया करते . थे । तपस्या के साथ ज्ञान प्रचार के हित साहित्य में भी आप की अभिरुचि दिन प्रतिदिन बढ़ती रही। इस चातुर्मास में कई पुस्तकें तैयार करने के सिवाय निम्नलिखित पुस्तकें मुद्रित भी हुई। १००० स्तवन संग्रह तृतीय भाग । ५०० डंके पर चोट ।
___ चातुर्मास समारोहपूर्वक बिताकर श्राप सेलावास रोहट हो पाली पधारे । वहाँ बीमारी फैली हुई थी। वहाँ आपश्रीने यतिवर्य श्रीमाणिक्यसुन्दरजी प्रेमसुन्दरजी के द्वारा शान्तिस्नात्र पूजा बनवाई । फिर वहाँ से विहारकर श्राप बूसी, नाडोल, वरकाणा, खीमेल, धणी, मुंडाग होते हुए सादड़ी पधारे । यहाँ से स्तवन संग्रह प्रथम भाग तीसरी बार प्रकाशित हुआ | सादड़ी कसबे में मापने सार्वजनिक व्याख्यान भी दिये । यहाँ एक मास पर्यन्त
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( ३० )
ठहरकर श्रापश्रीने मेवाड़ की ओर पदार्पण किया । जोधपुर निवासी भद्रिक सुश्रावक भंडारीजी चन्दनचन्दजी भी साथ थे । चतुर्बिंध संघ सह पश्री भानपुरा और सायरे होते हुए उदयपुर पधारकर केशरीयानाथजी की यात्रार्थ पधारे । वहाँ से लौटकर श्राप पाल, ईडर, श्रामनगर और प्रान्तीज होते हुए अहमदाबाद पधारे । जब अहमदाबाद के श्रावकों को श्राप के पधारने की सूचना मिली तो वे विस्तृत संख्या में सम्मिलित हुए तथा उन्होंने मुनिश्री का नगर प्रवेश बड़े समारोह से स्वागत करते हुए करवाया । इस कार्य में यहाँ के मारवाड़ी संघने विशेष भाग लिया था । पुनः खेडा, मातर, संजीतरा, सुन्दरा, गम्भीरा और बडौदे होते हुए आप भगडियाजी तीर्थपर पधारे । वहाँ गुरुवर्य श्री रत्नविजयजी के श्रापने दर्शन किये । वहाँ से पंन्यासजी हर्षमुनिजी तथा गुरुमहाराज के साथ सूरत पधारे जहाँ श्राप का बड़ी धूमधाम से अपूर्व स्वागत हुआ ।
विक्रम संवत् १९७५ का चातुर्मास ( सूरत ) ।
चापश्री का बारहवाँ चातुर्मास गुरुसेवा में सूरत नगर के बड़े चौहट्टे में हुआ । व्याख्यान में आपश्री गुरु आज्ञा से भगवतीजी की वाचना सुनाते थे । यद्यपि आप इस समय मारवाड़ प्रान्त से दूर थे तथापि मारवाड़ के जैनियों के उत्थान की तथा ओशियों छत्रालय की चिन्ता आप को सदा लगी रहती थी । इसी हेतु आपने उपदेश देकर ओशियों स्थित जैन वर्धमान विद्या
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(३१) लय को बहुतसी सहायता पहुंचवाई। धन्य है ऐसे विद्याप्रेमी मुनिराज को ! जो ऐसी आवश्यक संस्थाओं की सुधि समय समय पर लेते रहते हैं।
सूरत में रहे हुए कई लोगोंने इर्षा के वशीभूत हो यह भाक्षेप किया कि मुनिश्रीजी भगवती वाचते है पर उन्होंने वड़ी दीक्षा किस के पास ली ? इस पर गुरुमहाराजश्री रत्नविजयजी महाराजने माम व्याख्यान में फरमाया कि मुनि ज्ञानसन्दरजी को मैंने बड़ी दीक्षा दी और उपकेश गच्छ की क्रिया करने का आदेश भी मैने दिया अगर किसी को पूछना हो तो मेरे रूबरू पाकर पूछ ले । पर ऐसी ताकत किस की थी कि उन शास्त्रवेत्ता महा विद्वान और परम योगिराज के सामने आके चूं भी करे ।
हमारे चरित्रनायकजी की व्याख्यान और स्यावाद शैली से वस्तुधर्म प्रतिपादन करने की तरकीब जितनी गंभीर थी उतनी ही सरल थी कि अन्य दो उपाश्रय में श्रीमगवती सूत्र बांचा रहा था पर गोपीपुरा, सगरामपुरा, छापरियासेरी, हरीपुरा, नवापुरा और रांदेर तक के श्रावक वड़े चौहट्टे-आ-आ कर श्रीभगवती सूत्र का तत्वामृत पान कर अपनी आत्मा को पावन बनाते थे ।
इस चातुर्मास में हमारे चरितनायकजी की रचित १२००० पुस्तकें इस प्रकार प्रकाशित हुई।
५०० बत्तीस सूत्र दर्शण । १००० जैन दीक्षा । १००० जैन नियमावली । १००० प्रभु पूजा ।
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(३२) १००० चौराशी आशातना। १००० व्याख्याविलास प्रथम भाग । १००० आगमनिर्णय प्रथमांक । १००० शीघ्रबोध प्रथम भाग । १००० चैत्य वंदनादि । १००० , द्वितीय भाग । १००० जिन स्तुति । १००० , तृतीय भाग |
५०० सुखविपाक मूल सूत्र । १२००० कुल प्रतिएं।
___ इस चतुर्मास में शापश्रीने इस प्रकार तपस्या की । अठाई १, पचोला १, तेले ११ । धन्य! आप कितनी निर्जरा करते हैं। जहाँ भाप साहित्य सुधार के कार्य में संलग्न रहते हैं वहाँ काया की भी परवाह नहीं करते। मारवाड़ी जैन समाज को सरल ज्ञान द्वारा ऐसें महात्माओंने ही जगृत किया है । इन के जीवन के प्रत्येक कार्य में दिव्यता का आविर्भाव दिख पड़ता है।
- सूरत से विहार कर गुरुमहाराज की सेवा में आप कतारप्राम, कठोर, झगड़ियाजी तीर्थ आये, वहाँ से श्रीसिद्धगिरि की यात्रार्थ गुरुश्री से आज्ञा लेके अंकलेसर, जम्बुसर, काबी, गंधार, भडूंच, खम्भात् , धोलका, वला, सीहोर, भावनगर और देव होते हुए श्रीपालीताणाजी पधार कर सिद्धगिरि की यात्रा कर आपने मानवजीवन को सफल किया । जो सुरत में आपने मेझरनामा लिखना प्रारंभ किया था वह अनुभव के साथ इसी पवित्र तीर्थ पर समाप्त किया था। फिर हमारे चरित नायकजी अहमदाबाद होते हुए खेड़ा मात्र में सदुपदेश सुनाते हुए पुनः झगड़ियाजी पधार गुरु महाराज की सेवा करने लगे।
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(३३) विक्रम संवत् १९७६ का चातुर्मास (झगडिया तीर्थ)।
पापश्रीने इस वर्ष अपना तेरहवाँ चातुर्मास एकान्त निस्तब्ध स्थान श्री झगडिया तीर्थ पर करना इस कारण उचित समझा कि यहाँ का पवित्र वातावरण अध्ययन एवं साहित्यावलोकन के लिये बहुत सुविधा जनक था । इसके अतिरिक्त यहाँ का जल वायु स्वास्थ्यप्रद भी था। पूर्वोक्त लाभ जान के गुरु महाराजने भी भाज्ञा दे दी और आपने सीनोर में चातुर्मास किया इस ग्राम में श्रावकों के केवल तीन ही घर थे। इस चतुर्मास में , माप संस्कृत मार्गोपदेशिका प्रथम भाग का अध्ययन कर गये । साथमें तपस्या भी उसी क्रम से जारी थी। अष्टोपवास १, पंचोले २, अठम ११, छठ ६ तथा कई उपवास भी हमारे चरितनायकजीने किये थे।
यद्यपि यहाँ के स्थानीय श्रावक अल्प संख्या में थे तथापि निकटवर्ती ४० गाँवों से प्रायः कई श्रावक पर्युषण पर्व में आप भी के व्याख्यान में सम्मिलित हुए । वरघोडे और स्वामीवात्सल्य का सम्पादन भी पूर्ण आनन्द से हुआ था तथा ज्ञान खाते के द्रव्य में भाशातीत वृद्धि भी हुई। बंबई से सेठ जीवनलाल बाबू सपत्नी पाकर यहाँ दो मास तक ठहरे तथा आप की सेवाभक्ति का निरन्तर लाभ लेते रहे।
___इस वर्ष यह साहित्य आपश्री का बनाया हुआ प्रकाशित हुमा । १००० शीघ्रबोध चतुर्थ भाग । यही पश्चम भाग १०००
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( ३५ )
छठा भाग १००० तथा सातवों भाग १०००, दशवेकालिक मूल सूत्र १०००, मेझरनामा ३५०० गुजराती भाषा में । इस प्रकार कुल ८५०० प्रतिएँ प्रकाशित हुई ।
गुरु महाराज का चातुर्मास सीनोर में था । गुरु महाराज जब संघ के साथ यहाँ पधारे तो आपश्री सामने पधारे थे। संघ का स्वागत खूब धामधूम से हुआ । गुरु महाराजने इच्छा प्रकट की कि मुनीम चुनीलाल भाई के पत्र से ज्ञात हुआ है कि ओशियां स्थित जैन छात्रावास का कार्य शिथिल हो रहा है अतएव तुम शीघ्र ओशियाँ जाओ, वहाँ ठहर कर संस्था का निरीक्षण करो । यद्यपि आप की इच्छा गुरुश्री के चरणों की सेवा करने की थी पर गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करना आपने अपना मुख्य कर्त्तव्य समझ पादरा, मातर, खेड़ा, अहमदावाद, कडी, कलोल, शोरीसार, पानसर, भोंयणी, मेसाणा, तारंगा, दांता, कुम्भारिया
* गुजरात विहार के बीच प्राचार्य श्री विजयनेमीमूरि आ० विजयकमलसूरि आ• विजयधर्मसूरि आ० विजयसिद्धिसूरि आ० विजयवीरसूरि अ० विजयमेघसूरि मा० विजयकमलसूरि आ० विजयनीतिसूरि आ० सागरानंदमूरि आ० बुद्धिसागरसूरि उपाध्यायजी वीरविजयजी उ० इन्द्रविजयजी उ० उदयविजयजी पन्यास गुलाब विजयजी पं० दानविजयजी पं० देवविजयजी पं० लाभविजयजी पं ललितविजयजी पं० हर्षमुनिजी शान्तमूर्ति मुनिश्री हंसविजयजी मु० कर्पूरविजयजी आदि करीबन दो सौ महात्माओं से मिलाप हुआ । परस्पर स्वागत सम्मान और ज्ञानगोष्टि हुई कई महात्मा तो उपकेशगच्छ का नाम तक भी नहीं जानते थे मतः आपश्रीने नम्रत्ता भाव से प्राचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि और पूज्यपाद रत्नप्रभसूरि का जैन समाज पर का परमोपकार ठीक तौर से समझाया जिस से सब के हृदय में उन महापुरुषों के प्रति हार्दिक भक्तिभाव पैश हुआ ।
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( ३५ )
बाबू, सिरोही, शिवगंज, सांडेराव, गुन्दोज, पाली, जोधपुर, तिंवरी होते हुए ओशियाँ पधारे वहाँ का वातावरण देख आपको बहुत खेद हुआ। फिर आपके परिश्रम व उपदेश से सब व्यवस्था ठीक हो गई । छात्रालय के मकान का दुःख भी दूर हो गया ।
आपके पास वाली हस्तलिखित पुस्तकें तथा यतिवर्य लाभसुन्दरजी के देहान्त होनेपर उनकी पुस्तकें तथा अन्य छापे की पुस्तकों को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश से ओशियों तीर्थपर आपने श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान भण्डार की स्थापना की तथा स्थानीय उपद्रव को प्राचीन समय में दूर करानेवाले आचार्य श्री ककसूरिजी महाराज के स्मरणार्थ वहाँ श्रीकककांति लाइब्रेरी स्थापित की । दो मास तक आपने बोर्डिंग की ठीक सेवा बजाई पर आपश्री की अधिकता यह हैं कि इतने कार्य करते हुए भी किसी स्थानपर ममत्व के तंते में न फस कर बिलकुल निर्लेप ही रहते हैं बाद फलोधी संघ के आग्रह से आप लोहावट होते हुए फलोधी पधारे ।
विक्रम संवत् १९७७ का चातुर्मास ( फलोधी ) ।
आपश्री का चौदहवाँ चातुर्मास फलोधी नगर में हुआ । व्याख्यान में आपश्री भगवतीजी सूत्र बड़ी मनोहर वाणी से सुनाते थे । श्रोताओं का मन उल्लास से तरंगित हो उठता था । उनका जी व्याख्यानशाला छोड़ने को नहीं चाहता था । पुस्तकजी का जुलूस बड़े विराट् आयोजन से निकला था जिसकी शोभा देखते ही बनती थी । जिन्होंने इस वरघोड़े के दर्शन कर अपने नैत्र तृप्त किये वे वास्तव में बड़े भाग्यशाली थे ।
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इस चातुर्मास में आपने इस भाँति तपश्चर्या की थी जो सदा की तरह ही थी। पचोला १, अतुम ३ तथा इसके अतिरिक्त कई उपवास भी आपश्रीने किये थे।
जितना परिश्रम और प्रेम मुनिश्री का साहित्य प्रचारकी ओर है उतना शायद ही और किसी मुनिराज का इस समय होगा। आप के द्वारा जितना साहित्य प्रथित होता है वह सब का सब साधारण योग्यतावाले श्रावक के भी काम का होता है । यह आपके साहित्य की विशेषता है । अपने पांडित्य के प्रदर्शनार्थ आप कभी ग्रंथ को क्लिष्ट नहीं बनाते । इस वर्ष इतना साहित्य मुद्रित हुआ । १००० शीघ्रबोध भाग ८ वाँ। १००० स्तवन संग्रह भाग
२ रा दूसरी बार। १००० नंदीसूत्र मूलपाठ। १००० लिङ्गनिर्णय बहत्तरी,, १००० मेझरनामा हिन्दीसंस्करण। १००० स्तवनसंग्रह भा.३रा,, २००० तीननिर्मायक उत्तरोंकाउत्तर। १००० अनुकंपा छत्तीसी ,, १००० मोशियाँ ज्ञान भण्डार १००० प्रश्नमाला
की सूची। १००० स्तवन संग्रह भाग १ १००० तीर्थ यात्रा स्तवन ।
चतुर्थ बार। १००० प्रतिमा छत्तीसी चतुर्थ वार । ५००० सुबोध नियमावली । १००० दान छत्तीसी दूसरी बार । १००० शीघ्रबोध भाग १
दूसरी बार ।
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२१००० सब प्रतिएँ।
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इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि इस क्षेत्र में आपश्री एकेले होने पर भी कितनी तेजी से कार्य कर रहे हैं। आपने संगठन की भावश्यक्ता समझ कर यहाँ “जैन नवयुवक प्रेम मण्डल" की स्थापना की।
विक्रम संवत १९७८ का चातुर्मास (फलोधी)।
__ शापश्री का पंद्रहवाँ चातुर्मास भी कारण विशेष से पुनः इसी नगर में हुआ | व्याख्यान में आप नित्य प्रातःकाल उत्तराध्ययनजी सूत्र और आगमसार की गवेषणा पूर्वक वांचना करते थे। भापकी समझाने की शक्ति इस ढंग की थी जो संदेह को भेद डालती थी। आगमामृतका पान करा कर आपने परम शांति का साम्राज्य स्थापित कर दिया था । आप एक आगम पढ़ते समय अन्य विविध भागमों का इस प्रकार समयोचित वर्णन करते थे कि हृदय को ऐसा प्रतीत होता था मानो सारे आगमों की सरिता प्रवाहित हो रही है।
ज्ञानाभ्यास के साथ इस चातुर्मास में आपने इस प्रकार तपम्या भी की थी । तेले ५, छठ ३ तथा फुटकुल उपवास आदि।
पुस्तकों का प्रकाशन इस बार इस प्रकार हुआ। आपश्री की बनाई हुई पुस्तकें जैन समाज के सम्मुख उपस्थित हो रही थीं । आपके समय का अधिकाँश भाग लिखने में बीतता था । यह प्रयत्न अब तक भी अविरल रूप से जारी है। ऐसा कोई वर्ष नहीं बीतता कि कमसे कम ४-५ पुस्तकें आप की बनाई हुई प्रकट न हों इस वर्ष की पुस्तकें
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(३८) १००० शीघ्रबोध भाग नवमाँ। १००० स्ववन संग्रह तीसरा १००० , ,, दसवाँ । भाग तीसरी वार । १००० प्रतिमा छत्तीसी पाँचवी १००० देवगुरु वन्दन माला ,,।
बार (ज्ञान विलास में)। १००० लिङ्ग निर्णय बहत्तरी,,। १००० दान छत्तीसी। तीसरी वार । १००० जैन नियमावली । १००० अनुकम्पा छत्तीसी ,, । १००० सुबोध नियमावली ,,। १००० प्रश्नमाला , । १००० प्रभु पूजा , १००० स्तवन संग्रह प्रथम भाग १००० चौरासी आशातना ,,।
तीसरी वार। १००० चैत्यवंदनादि १००० ,, दूसरा भाग , १०६० सझाय संग्रह I । १००० उपकेशगच्छ लघु शब्दावली । १००० सुबोध नियम । १००० जैन दीक्षा तीसरी बार । १००० व्याख्या विलास II १००० व्याख्या विलास III १००० १००० अमे साधु शा माटे थया ? १००० , III १००० राई देवसी प्रतिक्रमण १००० बिनती शतक | १००० कका बत्तीसी।
- २८००० कुल प्रतिऐं। अठाई महोत्सव, बरघोडा, स्वामीवात्सल्य, पूजा, प्रभावना इत्यादि धर्मकृत्य बड़े समारोह से हुए । आपके उपदेश से जेसलमेर का संघ १००० यात्रियों सहित निकला था । इस संघ का कार्य आपकी व्यवस्था से निर्विघ्नतया सम्पादन हुआ था। आपकी यह बढ़ती धर्मद्रोहियों से नहीं देखी गई। उन्होंने कुछ अनुचित
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(३९) काम आप को बदनाम करने के लिये किये पर अन्त में वही नतीजा हुआ जो होना चाहिये था। धर्म ही की विनय हुई। विघ्नसंतोषी नत मस्तक हुए। आपने इस वर्ष यहाँ श्रीरत्नप्रभाकर प्रेमपुस्तकालय नामक संस्था को जन्म दिया। विक्रम संवत १९७६ का चातुर्मास (फलोधी )।
मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज को अपना सोलहवां चतुमास फलोधी करना पड़ा । आप श्री व्याख्यानमें श्री भगवतीजी सूत्र सुनाकर आगमों को सुगम गतिसे समझाते थे। आपकी स्मरण शक्ति की प्रखरता पाठकों को अच्छी तरहसे पिछले अ. ध्यायों के पठनसे ज्ञात हो गई होगी । आपकी इस प्रकार एक विषय पर चिरकाल की स्थिरता वास्तव में सराहनीय है । मिथ्यात्वके घोर तिमिरको दूर करने में आपकी वासुघा सूर्य समान है। उस समय सारे मिथ्यात्वी भागमरूपी दिवाकर की उपस्थिति में उडुगण की तरह विलीन हो गये थे।
इंस चतुर्मास में आपने पञ्चोपवास १, तेले ३ तथा बेले २ किये थे । फुटकर उपवास तो आपने कई किये थे।
____ इस वर्ष निम्न लिखित पुस्तकें मुद्रित हुई जिनकी जैन समाज को नितान्त आवश्यक्ता थी । विशेष कर मारवाड़ के लोगों के लिये इस प्रकार पुस्तकों की प्रचुरता होते देखकर किसे हर्ष नहीं होगा ? साधुओं का समागम कभी कभी ही होता है पर जिस घरमें एक बार किसी पुस्तकने प्रवेश किया कि वह झान
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品品許可 吊带
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(४०) कराने के लिये सदैव तैयार रहती है । न कभी इन्कार करती है न थकती ही है। इस वर्ष१००० शीघ्रबोध भाग ११ वाँ १००० शीघ्रबोध भाग १००० , , १२ वाँ १००० ,, ,, १६ वाँ १००० , , १३ वा १००० ,, ,, २० वाँ १००० , , १४ वा १००० , , २१ वाँ १००० , , १५ वा १००० , २२ वा १००० , , १६ वा १००० ,, ,, २३ वाँ १००० , , १७ वाँ १००० , २४ वाँ ५००० द्रव्यानुयोग प्र. प्र. प्रथमवार १०००,, , २५ वाँ १००० द्रव्यानुयोग प्र.प्र. दूसरीवार १००० आनंदघन चौवीसी १००० वर्णमाला । १००० हितशिक्षा प्रश्नोत्तर । १००० तीन चतुर्मास-दिग्दर्शन । २५००० कुल प्रतिऐं।
___यहाँ के श्री संघने उत्साहित करीबन होकर ५०००) पांच हजार रुपये खर्च कर दिव्य समवसरण की रचना की थी। यह एक फलोधी की जनता के लिये अपूर्वावसर था। जैनधर्म की उन्नति में अलौकिक वृद्धि अवर्णनीय थी। श्रावकों का उत्साह सराहनीय था। भापश्रीने इन तीन वर्षों में ३७ आगमों की वाचना तथा १४ प्रकरण व्याख्यानद्वारा फरमाए थे । आपने इस वर्ष कई श्रावकों को धार्मिक ज्ञानाभ्यास भी कराया था। प्रतिक्रमण-प्रकरण और तत्वज्ञान ही आपके पढ़ाये हुए मुख्य विषय थे । फल स्वरूप में
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(४१) बाज फलोधी के श्रावक कर्मग्रन्थ और नयचक्र सार जैसे द्रव्यानुयोग के महान् प्रन्थों के हिन्दी अनुवाद कर जनताको सेवामें रख चुके हैं फलोधी नगरमें लगातार आपको तीन चौमासो होनेसे धार्मिक सामाजिक कार्यों में बहुत सुधार हुआ । जनतामें नव चेतन्यताका प्रादुर्भाव हुआ जैसलमेरका संघ, समवसरण की रचना, पठाई महोत्सव, स्वामिवात्सल्य, पूजा प्रभावना और पुस्तक प्रचार में श्री संघने करीबन रु ५००००) का खर्चाकर अनंत पुन्योपाजन किया था इन तीनों चतुर्मासों का वर्णन संक्षिप्त में एक कविने इस प्रकार किया है। मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी के तीन चातुर्मास फलोधी नगर में हुए ।
॥दोहा॥ अरिहन्त सिद्ध सूरि नमुं, पाठक मुनिके पाय । गुणियों के गुणगान से. पातिक दूर पलाय ॥ १ ॥
चाल लावनीकी । श्री ज्ञानसुन्दर महाराज बड़े उपकारी-बड़े उपकारी ।
में वन्दु दो कर जोड़ जाउँ बलिहारी । श्री ज्ञान । टेर । पवार वंश से श्रेष्टि गोत्र कहाया ।
वैद्य मतों की पदवि राज से पाया । नवलमलजी पिता रूपादे माता। वीसलपुरमें जन्म पाये सबसाता ॥
विजय दशमि सेंतीस साल सुखकारी ॥ श्री बान० ॥१॥
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( ४२ )
गज सुपनासे जो नाम गयवर दीनो । साल चौपनमे विवाह आपको कीनो || आठ वर्ष लग भोग संसार के भोगी ।
फिर स्थानकवासी में आप भये हैं योगी ।
सठ सालमें भए मुनिपद धारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २ ॥
भागमपर पूरा प्रेम कण्ठस्थ कर राधे ।
तीस सूत्रोंपर टेबा सबको वांचे ॥ आणी मिथ्या पन्थ सुमति घर आये I तीर्थशियों रत्नविजय गुरु पाये ।
साल बहत्तर सुन्दर ज्ञान के धारी || श्री ज्ञान ० ॥ ३ ॥
फलोधी चोमासों जोधपुरमें बीजो |
सूरत गुरु के पास चौमासो तीजो ||
सिद्धगिरी की यात्राको फल लीनो ।
चौथो चौमासो जाय घडिया कीनो ||
करे ज्ञान ध्यान अभ्यास सदा हितकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥४॥
ग्राम नगर पुर पाटण विचरंत आये |
गाजा बाजा से नगरे प्रवेश कराये ||
धन भाग्य हमारे ऐसे मुनिवर पाये ।
साल सीतंतर चौमासो यहाँ ठाये ॥
नर नारी मिलके श्रानन्द मनाया भारी || श्री ज्ञान० ॥ १ ॥
१ मूल सूत्रों की संक्षिप्त भाषा. २ फलोधी.
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(४३) सूत्र भगवती व्याख्यान द्वारा फरमावे ।
विस्तारपूर्वक अर्थ खूब समझावे । तपस्याकी लगी है मड़ी अच्छा रंग वर्षे । पौषध पंचरंगी कर कर श्रावक हर्षे ।
शासन पर पूरा प्रेम उन्नति भारी॥ श्री ज्ञान० ॥६॥ दोनों पर्युषण हिल मिल के सहु कीना ।
हुवा धर्म तणा उद्योत लाभ बहु लीना ।। रुपैये दो हजार ज्ञानमें आये। चौतीस हजार मिल पुस्तकें खूब छपाये ।।
सार्थ कीना नाम जाउँ बलिहारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ ७॥ कर्म उदित अन्तराय हमारे आई।
नैत्रोंकी पीडा आप बहु थी पाइ : वैयोंसे था ईलाज बहुत करवाया। श्रावक लोगोंने भक्ति फर्ज बजाया ।
दुष्ट कर्म गये दूर दशा शुभ कारी ॥ श्री ज्ञान० ॥८॥ पूरण भगवती वांची मुनिवर भारी ।
सोना रूपा से पूजे नर अरु नारी ।। घरघोड़ा से आगम शिखर चढायो। स्व-परमत जन जै जैकार मनायो ।
मधुर देशना वर्षे अमृत धारी ॥ श्री ज्ञान० ॥६॥ कारण आपके संघ आग्रह बहु कीनो ।
साल इठन्तर चौमासे यश लीनो ।
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(४४) उत्तराध्ययनजी सूत्र व्याख्यान में वांचे । वर्षे वैराग को रंग श्रोता मन राचे ॥
अर्क तेजको देख उलुक धुंधकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १० ॥ जो धर्म द्वेषि अरु मद छकिया थे पूरा ।
जिन वाणीका खड्ग किया चकचूरा ।। धर्म चक्र तप करके कर्म शिर छेदे । पंचरंगी है तप पूर करको भेदे ।
स्वामिवात्सल्य पांच हुए सुखकारी ।। श्री ज्ञान० ॥११॥ पौषध का झंडा ध्वजा सहित फहराये । __ वादी मानी यह देख बहुत शरमाये ।। पर्षणका था ठाठ मचा अति भारी ।
आए शान खाते में रुपये दोय हजारी।
तीस हजार मिल पुस्तकें छपाई भारी ॥श्री ज्ञान० ॥१२॥ स्वामिवात्सल्य दो खीचंद में कीना ।
यात्रा पूजाका लाभ भव्य जन लीना । ज्ञान ध्यान कर सूत्र खूब सुनाये ।
सेंतीस (३७ ) आगम सुनके आनंद पाये ।
किया सुन्दर उपकार आप तपधारी || श्री ज्ञान० ॥ १३ ॥ कई मत्तांध मिल के विघ्न धर्ममें करते ।
पत्थर फेंक आकाश नीचे शिर धरते । आग्रहसे विनती करते हैं नरनारी ।
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( ४५ )
तब लाभालाभका कारण आप विचारी ।
द्रव्य क्षेत्रके ज्ञाता आप विचक्षण भारी ॥ श्री ज्ञान ० ॥ १४ ॥
यांचे है श्रागमसार आनन्द अति आवे |
संघ चतुर्विध का सुन कर मन ललचावे । अठ्ठाई महोत्सव पूजा खूब भणीजे ।
श्री चिंतामणि प्रभु पास शान्ति सुख दीजे ।
अंग्रेजी बाजे साथ प्रभु असवारी ॥ श्री ज्ञान० ।। १५ ।।
जैसलमेर के संघमें विघ्न करता ।
जब लग उनके घर में कहना चलता ।
करी विनती भये मुनि अनुरागी ।
लगा खूब उपदेश विघ्न गये भागी ।
संघका बनिया ठाठ अतिशय धारी ॥ श्री ज्ञान० || १६ ॥
श्री चिंतामणि पास लोदरवे पाया ।
संघ यात्रा कर आनन्द खूब मनाया ।
पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य कीना ।
धन्य धन्य संघ पत्नि लाभ बहुतसा लीना !
नगर प्रवेशके महोत्सवकी बलिहारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १७॥
नरनारी मिल हैं अर्जी आन गुजारी ।
शरीर कारणसे विनती आप स्वीकारी | साल गुणियासी चौमासो दियो ठाई ।
व्याख्यानमें बांचे सूत्र भगवती माई |
याँ बढ़ता रहा उत्साह धर्म हितकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥१८॥
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(४६)
मिलके श्रावक सलाह खूब विचारी ।
करले महोत्सव समवसरणकी तैयारी । जसवन्त सरायमें सुर मंडप रचवाये । थे हंडा झूमर और झाड़ लटकाये ।
शोभा सुन्दर अमरपुरी अनुहारी ।। श्री ज्ञान० ॥१९॥ तीन गढकी रचना खूब बनाई।
जिसके ऊपर था समवसरण दीया ठाइ । चौमुखजी थे महाराज जाऊँ बलिहारी । मूलनायकजी श्री शांतिनाथ सुखकारी ।
दर्शन कर कर हरष साहु नर नारी || श्री ज्ञान० ॥२०॥ है बड़ा मास भादवका महीना भारी । ___ वद तीजसे हुवा महोत्सव जारी। पेटी तबला अरु ढोलक झंझा बाजे । गवैयोंकी ध्वनि गगनमें गाजे ।
संघ चतुर्विध है द्रव्य भाव पूजारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २१ ॥ पूजाका बनिया ठाठ अजब रंग बर्षे । __स्व पर मत जन देखी मनमें हर्षे । प्रभु भकिसे वे जन्म सफल कर लेवे । उदार चित्तसे प्रभावना नित्य देवे ।
गाजा बाजा गहगहाट नौबत घुरे न्यारी | श्री ज्ञान ॥२२॥ अष्ट द्रव्यसे थाल भरी भरी लावे ।
पूजा सामग्री देख मन हुलसावे ।
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( ४७ )
समfast निर्मल ज्योति जगमग लागी ।
नहीं चले कर्मों का जर जाय सब भागी ।
नव दिन नव रंगा ठाठ पूजा सुखकारी ॥ श्री ज्ञान० ||२३||
वद दशम को स्वामिवात्सल्य भारी |
roat वनी है नुकतीपाक की तैयारी । स्वधर्मी मिलके भोजन कर यश लीनो ।
पर्युषणों को उत्तर पारणो कीनो ।
बने पर्युषणों का उत्सव के अधिकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥२४॥
पौषध प्रतिक्रमणसे तप अठ्ठाई होवे ।
पूर्व ले भवके कर्म मैल सब धोवे । जन्म महोत्सव करके आनन्द पाया ।
साढे आठसौ रुपया ज्ञानमें आया ।
अब वरघोर्डेका हाल सुनो चित्तधारी ॥ श्री ज्ञान० ||२५||
घुरे नगारा घोर कुमति गई भागी ।
निशान ध्वजाकी लहर गगन जा लागी । प्रभुकी असवारी सिरे बजारों आवे ।
मिल नरनारीका वृन्द भक्ति गुन गावे ।
पी-पी-ठंडाई मंडली न्यारी न्यारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २६ ॥
मिलके प्रतिक्रमण संवत्सरिक ठाया । लक्ष चौरासी जीवोंको खमवाया । स्वामिवात्सल्य शुदि सातमकी तैयारी ।
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(५८) नुकतिपाकादि भोजन विविध प्रकारी। .
पुन्य पवित्र जीमे नर अरु नारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ २७ ॥ संघ चतुर्विध मिलके खीचंद जावे ।
पूजाका वर्षे रंग गवैया गावे । प्रभु यात्रा करतो भानन्द अधिको आवे ।
शासन उन्नति प्रभावना दे पावे । __स्वामिवात्सल्य जीमे सदा सुखकारी || श्री ज्ञान०॥ २८॥ धर्म उत्साही वीर पुरुष कहवावे ।
जो उठावे काम विजय वह पावे । जैनधर्मका डंका जोर सवाया। विघ्नसं तेषी देख देख शरमाया ।
जयवन्त सदा जिन शासन है जयकारी।। श्री ज्ञान०॥२९॥ कृपा करके तीन चौमासा कीना । . ज्ञान ध्यानका लाभ बहुत जन लीना । गुणी जनोंका गुण भव्य जन गावे । शुभ भावोंसे गोत्र तीर्थकर पावे ।
बनि रहै शुभ दृष्टि सुनो उपकारी। श्री ज्ञान० ॥ ३०॥ संवत् उगणीसे गुणियासी सुखकारी ।
कातिक शुद पंचमी बुधवार है भारी। कवि कुशल इम जोड़ लावणी गावे । फलोधीमें सुन श्रोता सब हरषावे। .
चरणों में वन्दना होजो वारम्वारी ॥ श्री ज्ञान०॥ ३१ ॥
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( ४९ )
दोहा- -जयवन्ता जिन शासने, विचरो गुरु उजमाल ।
33
देश पधारो हमत, कर जोड़ी कहे कुशाल ॥ " तीन चतुर्मास के दिग्दर्शन से विक्रम संवत् १६८० का चतुर्मास ( लोहावट ) आपश्री का सत्रहवाँ चतुर्मास इस वर्ष लोहावट ग्राम में हुआ | व्याख्यान में आप उसी रोचकता से भगवतीजी सूत्र फरमाते थे । श्रोताओं को आप का व्याख्यान बहुत कर्णप्रिय लगता था । सूनजी की पूजा अर्थात् ज्ञानखाते में १८ || मुहर तथा ५५०) रुपये रोकड़े सब मिलाकर १०००) रुपये से पूजा हुई थी । वरघोड़ा बडे ही समारोह से चढाया गया था । इसमें फलोधी के लोगोंने भी अच्छा भाग लिया था.
आपने इस चतुर्मास में दो संस्थाएँ स्थापित कीं। एक तो जैन नवयुवक मित्र मण्डल तथा दूसरी श्री सुखसागर ज्ञान प्रचारक सभा | वर्तमान युग सभा का युग है । जिस जाति या समाज के व्यक्तियों का संगठन नहीं है वे संसार की उन्नति की सरपट दौड़ में सदा से पोछी रही हैं । अतएव जैन समाज में ऐसी अनेक संस्थाओं की नितान्त आवश्यक्ता है जिनमें युवक और बालक प्रथित होकर समाज सुधार के पुनीत कार्य में कमर कस कर लग्गा लगा दें ।
आप साथ ही साथ श्रावकों को धार्मिक ज्ञान भी सिखाया करते थे | आप के सदुपदेश से, भद्दे ढंग से होनेवाले हास्यास्पद
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(५०) जीमनवारों में भी आवश्यक परिवर्तन हुए । जब से हमारे मुनिराजों का ध्यान समाज की पुरानी हानिप्रद रुढियों को तुडवाने की ओर गया है हमारे समाज में जागृति के चिह्न प्रकट हो रहे हैं। प्रत्येक स्थानपर कुछ न कुछ आन्दोलन इसी प्रकार के प्रारम्भ हुए हैं। लोहावट नगरमें इस कार्य की नींब सर्व प्रथम आपहीने डाली । जिसे समाज के हजारों रूपये प्रतिवर्ष व्यर्थ खर्च हो रहा थे वह रुक गये।
इस वर्ष ये पुस्तकें प्रकाशित हुई।
५००० द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका । १००० शीघ्रबोध भाग १ दूसरीवार । १००० , , २ , १००० , ".३ " १००० , ४ , १००० , ५ , १००० गुणानुराग कुलक हिन्दी भाषान्तर ५००० पंच प्रतिक्रमण विधिसहित । १००० महासती सुर सुन्दरी । ( कथा ) १००० मुनि नाममाला । ( कविता ) १००० स्तवन संग्रह भाग ४ था। १००० विवाह चूलिका की समालोचना । १००० छ कर्म ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद । २१००० सब प्रतिएँ।
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(५१) इस चौमासे में श्री संघ की ओर से करबिन रु. ९०००) सुकृत कार्य में व्यय हुए।
गुरु गुण वर्णन। गुरु — ज्ञान ' नगीना । आछो दीपायो मार्ग जैन को । शहर फलोधी से आप पधारे । लोहाणा नगर मझार ॥ श्री संघ मिल महोत्सव कीनो। वरत्या जै जै कार हो ।गु० ॥१॥ चिरकाल से थी अभिलाषा । पूरण की गुरु आज ॥ सूत्र भगवती वचे व्याख्यानमें । सुण हर्षे सकल समाज हो ।गु०॥२॥ जैन नवयुवक मित्र मण्डल अरु । सुखसागर ज्ञान प्रचार ।। संस्था स्थापि किया सुधारा । हुआ बहुत उपकार हो ॥गु० ॥३॥ वीसहजार पुस्तकें छपाई । किया ज्ञान परचार ॥ न्याति जाति कई सुधारा । कहते न आवे पार हो ।गु० ॥४॥ ज्ञानप्रचार समाज सुधारण । कमर कसी गुरुराज ॥ यथा नाम तथा गुण आप के । गुणगावे 'युवक' समाज हो ।गु०॥५॥
लोहावट से विहार कर आपश्री पली पधारे। लोहावट श्री संघ तथा मण्डलके सभासद यहाँ तक साथ थे। पली में श्रीमान् छोगमलजी कोचरने स्वामीवात्सल्य भी किया था। भंडारी चन्दनचन्द्रजी तथा वैद्य मुहता वदनमलजी के साथ आप खींवसर होकर नागोर पधारे । विक्रम संवत् १९८१ की चातुर्मास (नागोर)।
आपश्री का अठारहवाँ चातुर्मास नागोर में हुआ। आप ब्या
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(५२) ख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र सुनाते थे। जिसका महोत्सव वरघोड़ा पूजा बड़े ही समारोह से हुआ। भापके व्याख्यान में श्रोताओं की सदा भीड़ लगी रहती थी। आपके उपदेशके फलस्वरूप यहाँ तीन महत्वपूर्ण कार्यारम्भ हुए। एक तो श्री वीर मण्डल की स्थापना हुई तथा श्रावकोंने उत्साहित होकर बड़े परिश्रम से समवरणकी दिव्य रचना करवाई । इस अवसर पर अठाई महोत्सव तथा शान्तिस्नात्र पूजा का कार्य देखते ही बनता था । तीसरा कार्य भी कम महत्व का नहीं था। आपके उपदेश से मन्दिरजी के ऊपर शिखर बनवाने का कार्य श्रावकों से प्रारम्भ करवाया गया था। इस चातुर्मासमें श्री संघकी ओर से करीबन रु. १७०००) शुभ कार्यों में व्यय किये गये थे।
निम्न लिखित पुस्तकें भी प्रकाशित हुई१००० शीघ्रबोध भाग ६ दूसरी वार । १००० , , ७ , ,,।
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१००० , ,१० ,, ,,। ५००० कुल पाँच सहस्र प्रतिएँ । एक ही जिल्दमें
आपने एक निबन्ध लिख कर लोढा उमरावमलजी द्वारा फलोधी पार्श्वनाथ स्वामी के मेले पर एकत्रित हुए श्री संघ के पास भेजा । जिसका तत्काल प्रभाव पड़ा। उसी लेख के फलस्वरूप
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(५३)
" श्री मारवाड़ तीर्थ प्रबंधकारिणी कमेटी" स्थापित हुई। जिसकी देखरेख में मारवाड के ७८ मन्दिरों का निरीक्षण हुमा तथा त. सम्बन्धी रिपोर्ट आदि भी तैयार हुई। किन्तु कार्य कर्ताओं के अभाव से कार्य रुक गया अन्यथा आज मारवाड़ के तीर्थोकी सोचनीय दशा कदापि दृष्टिगोचर नहीं होती।
इस वर्ष आपने अठ्ठम ३ छठ ७ तथा फुटकल तपस्या भी की थी।
___ इस चातुर्मासका वर्णन करता हुआ महात्मा बालचन्दने एक कविता बनाइ थी वहबन्दो ज्ञानसुन्दर महाराज । समोसरण रचाने वाले । टेर । नगर नगीना भारी । हैं शहर बड़ा गुलजारी। जैन मन्दिरोंकी छबी न्यारी । भवोदधि पार लगानेवाले । वं. ।। गुरु ज्ञानसुन्दर उपकारी । कई तार दिये नर नारी। शुभ भाग्य दशा हमारी। धर्मकी नाव तिरानेवाले ।व।२। साल इक्यासी है खासा । हुआ नगीने शहर चौमासा । सफल हुई संघ की आशा । धर्मका झंडा फहरानेवाले । वं.। ३ । सूत्र भगवतीजी फरमावे । श्रोता सुण के आनन्द पावे। ये तो जन्म सफल बनावे । अमृत रस वरसानेवाले ।.। ४ । पूजा प्रभावना हुई भारी । तप तपस्या की बलिहारी । स्वामिवात्सल्य है सुखकारी। धर्मोप्रति करानेवाले ।। ५ । मन्दिर चौसटजी का भारी । बनी है समवसरण की तय्यारी । हांडी कांच झूमर है न्यारी । स्वर्ग से वाद वदाने वाले । वं. 1 ६ ।
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(५४) मण्डप फुलवादीसे छाया | छवि को देख मन ललचाया। प्रदिक्षणा दे दे आनन्द पाया । भवकी फेरी मिटानेवाले । वं. ७ मूल नायक भगवान् । विराजे शांति सुधारस पान । पूजा गावे मिलावे तान । भवजल पार लगानेवाले । वं. । ८ । नित्य नई अंगी रचावे । दर्शन कर पाप हटावे । नरनारी मिल गुण गावे । समकित गुण प्रगटानेवाले । वं. । ६ । स्व परमत जन बहु भावे । दुनियाँ मन्दिर में न समावे । नौबत वाजा धूम मचावे । कर्मों को मार लगानेबाले । वं.। १० । संघमें हो रहा जय जयकार | गुणोंसे गगन करे गुंजार । यात्रि भावे लोग अपार। महात्मा " लाल" कहानेवाले । वं.।११।
चातुर्मास के पश्चात् विहार कर आप मूंडवा हो कर कुचेरे पधारे । वहाँपर न्याति सम्बन्धी जीमनवारों में एक दिन पहले भोजन तैयार कर लिया जाता था तथा दूसरे दिन बासी भोजन काम में लाया जाता था। यह रिवाज आपने दूर करवाया । पाठशाला के विषय में भी खासी चर्चा चली थी। खजवाने जब श्राप पधारे तो उपदेश के फलस्वरूप जैन ज्ञानोदय पाठशाला तथा जैन मित्र मण्डल की स्थापना हुई। वहाँ से आप रूण पधारे । यहाँ श्री ज्ञान प्रकाशक मण्डल की स्थापना हुई। वहाँ से जब आप फलोधी तीर्थपर यात्रार्थ पधारे तो मारवाड़ तीर्थ प्रबन्धकारिणी कमेटी की बैठक हुई थी और उस कार्य में ठीक सफलता भी मिली थी।
जब आप कुचेरे के भावकों के आग्रह करने पर वहाँ
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पधारे थे तो श्री ज्ञानवृद्धि जैन पाठशाला तथा श्रीमहावीर मण्डल की स्थापना हुई थी । पुनः खजवाने, रूण और फलोधी होते हुए मेड़ते में श्रीमान स्व. बहादुरमलजी गधैया के अनुरोध से आपने वहाँ सार्वजनिक लेकचर दिया था, जो सारगर्भित तथा सामयिक था । पुनः आप फलोधी पधारे। विक्रम संवत् १९८२ का चातुर्मास ( फलोधी )।
आपश्री का उन्नीसवाँ चातुर्मास मेड़ता रोड फलोधी तीर्थपर द्वमा । इस वर्ष से चरित नायक का ध्यान इतिहास की ओर विशेष प्राकर्षित हुमा। आप का विचार "जैन जाति महोदय" नामक बड़े ग्रंथ को ग्रथित करने का हुआ। अतएव आपने इसी वर्ष से सामग्री जुटाने के लिये विशेष प्रयत्न प्रारम्भ करदिया । इसी दिनसे प्रतिदिन
आपश्री ऐतिहासिक अनुसन्धान में व्यस्त रहते हैं। आपने खजवाना, नागोर, बीकानेर और फलोधी के प्राचीन ज्ञान भंडारों कि सामग्री को देखा । जो जो सामग्री आप को दृष्टिगोचर हुई आपने नोट करली। वही सामग्री सिलसिलेवार जैन जाति महोदय प्रथम खण्ड के रूप में पाठकों के सामने रखी गई है । महाराजश्रीने ऐतिहासिक खोज प्रारम्भ कर के हमारी समाजपर असीम उपकार किया है।
इस वर्ष निम्नलिखित साहित्य प्रकाशित हुआ—
१००० दानवीर झगडूशाहा ( कवित्त )। १००० शुभ मुहूर्त शकुनावली । १००. नौपद अनुपूर्वी ।
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. (५६) १००० नित्य स्मरण पाठमाला । १००० भाषण संग्रह प्रथम भाग । १००० भाषण संग्रह दूसरा भाग । १००० स्तवन संग्रह चौथा भाग । दूसरीबार ।
७००० कुल सात हजार प्रतिएँ ।
स्थानकवासी साधु मोतीलालजी को जैन दीक्षा देकर उनका नाम मोतीसुन्दर रक्खा गया था। पयूषण पर्व में यहाँ नागोर, खजवाना, रूण और कुचेरे आदि के कई श्रावक श्राए थे । पाठ दिन पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य आदि धार्मिक कृत्यों का सिलसिला जारी रहा । उस समय की भामदनी से प्रापश्री के चातुर्मास के स्मरणार्थ चांदी का कलश श्री भण्डार में अर्पण किया गया था ।
फलोधी से विहारकर आप रूण, खजवाना, मेड़ता फलोधी, पीसागन पधारे वहाँ बहुत से भव्योंको वासक्षेपपूर्वक समकितादि की प्राप्ति कराई तथा श्री रत्नोदय ज्ञान पुस्तकालय की स्थापना करवाई वहाँ से माप श्री अजमेर पधारे। रास्ते में अनेक श्रावकों की श्रद्धा सुधारकर उन्हें मूर्तिपूजक बनाया। ऐतिहासिक खोज के सम्बन्ध में प्रापश्री राय बहादुर पं. गौरीशंकरजी भोझा से मिले । आवश्यक वार्तालाप बहुत समय तक हुई। फिर जेठाणा की ओर विहारकर कई श्रावकों को आपने मूर्तिपूजक बनाया । पुन: पीसांगन, गोविन्दगढ, कुडकी होकर कैकीन पधारे । वहाँ उपदेश दे श्रापश्रीने देवद्रव्य की ठीक व्यवस्था करवाई । फिर प्रापश्री कालू, बलून्दा, जेतारण, खारीया, हो बीलाडे
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पधारे । यहाँ अठाई महोत्सव तथा खारीया में वरघोड़ा आदि का अपूर्व ठाठ हुआ । कई श्रावक संवेगी हुए । बीलाड़ा में स्थानकवासियों को प्रश्नोत्तर में पराजित करते हुए सिंघवीजी नथमलजी को मूर्तिपूजक श्रावक बनाया । बाद कापरडा की यात्रा का लाभ लेकर आप श्री पीपाड़ पधारे । विक्रम संवत् १९८३ का चातुर्मास (पीपाड़ )।
चरित्रनायकजी का बीसवाँ चातुर्मास पीपाड़ में बड़े समारोह सहित हुआ । ब्याख्यान में भाप पूजा प्रभावना वरघोड़ादि महामहोत्सवपूर्वक श्री भगवतीजी सूत्र इस ढंग से सुनाते थे कि सर्व परिषद प्रानन्दमग्न हो जाती थी। श्रोताओं के मनपर व्याख्यान का पूग प्रभाव पड़ता था क्योंकि श्राप की विवेचन शक्ति बढ़ी चढ़ी है । उन की सदा यही अभिलाषा बनी रहती थी कि श्रापश्री भविछन्न रुप से धाग प्रवाह प्रभु देशना का अमृत प्रास्वादित कगते रहें । वक्तृत्व कला में श्राप परम प्रवीण एवं दक्ष हैं | श्राप की चमत्कारपूर्ण वाग्धाराऐं श्रोता को आश्चर्यचकित कर देती है ।
इस वर्ष में आपने तेला १ तथा छठ ३ के अतिरिक्त कई उपवास किये थे । आप के उपदेश के फलस्वरूप पीपाड में तीन संस्थाएं स्थापित हुई (१) जैन मित्र मण्डल । (२) ज्ञानोदय लाइब्रेरी तथा (३) जैन श्वेताम्बर सभा । इन तीनों को स्थापित कराकर आपने स्थानीय जैन समाज के शरीर में संजीवनी शक्ति फूंक दी। इन तीनों सभाओं द्वारा जनता में अच्छी जागृति दृष्टिगोचर होती थी।
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(५८) ऐसा कोई वर्ष नहीं वीतता कि आपश्री की बनाई हुई कुछ पुस्तके प्रकाशित नहीं होती हों। ऐसा क्यों न हो ! जब कि श्रापश्री की उत्कट अभिरुचि साहित्य प्रचार की ओर है। इस वर्ष ये पुस्तकें प्रकाशित हुई :
१००० जैन जाति निर्णय प्रथमा द्वितीयाङ्क । १००० पश्च प्रतिक्रमण सूत्र । १००० स्तबन संग्रह चतुर्थ भाग-तृतीय वार ।
३००० तीन सहस्त्र प्रतिऐं।
पीपाड से विहारकर आप कापरडाजी की यात्रा कर वीसलपुर पधारे । यहाँ पर श्राप के उपदेश से जैन श्वेताम्बर पुस्तकालय की स्थापना हुई। शान्तिस्नात्र पूजापूर्वक मन्दिरजी की श्राशातना मीटाइ गइ थी। फिर श्राप पालासनी, कापाडा और बीलाडा पधारे यहाँपर चैत्र कृष्ण ३ को स्थानक० साधु गम्भीरमलजी को जैन दीक्षा दे उनका नाम गुणसुन्दरजी रक्खा। वहाँ से पिपाड़ पधारे। यहाँ श्रोलियों का अठ्ठाइ महोत्सव बड़ ही धामधूम से हुश्रा। तत्पश्चात् श्राप प्रतिष्ठा के सुअवसर पर वगड़ी पधारे बाद सीयाट सोजत खारिया होते हुए बीलाड़े पधारे । विक्रम संवत् १९८४ का चातुर्मास (बीलाड़ा)।
आपश्री का इक्कीसवाँ चातुर्मास बीलाड़े हुआ। बीलादे के श्रावकों की अभिलाषा कई मुद्दतों बाद अब पूर्ण हुई । उन्हें भाप जेसे तत्ववेत्ता, प्रगाढ पण्डित एवं ऐतिहासिक अनुसन्धान, व उपदेशक उपलब्ध हुआ यह उन के लिये परम अहोभाग्य की
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( ५९ )
बात थी । व्याख्यान में आप पूजा प्रभावना वरघोड़ादि महामहोत्सवपूर्वक सूत्रश्री भगवतीजी सुनाते थे । प्रत्येक श्रोता संतोषित था आप की मधुर वाणीने सब के हृदय में सहज ही स्थान पालिया था | व्याख्यान परिषद में पूरा जमघट होता था । आप दृष्टांत तथा Reference प्रमाण आदि की प्रणाली से उपदेश दे कर जन मन को मोह लेते थे । व्याख्यान का प्रभाव भी कुछ कम नहीं पड़ता था । जैनेत्तर लोगोंपर भी काफी प्रभाव पड़ता था ।
ज्ञानाभ्यास, ऐतिहासिक खोज, पुस्तकों के सम्पादन तथा लेखन के अतिरिक्त आपने अट्टम १, ट्ट २ तथा कई उपवास भी इस चातुर्मास में किये । साथ साथ ग्रंथ प्रकाशन का कार्य भी जारी था । इस वर्ष निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हुई ।
१००० धर्मवीर जिनदत्त सेठ ।
१००० मुखवस्त्रिका निर्णय निरीक्षण |
१००० प्राचीन छन्दावली भाग प्रथम |
३००० कुल तीन सहस्र पुस्तकें |
बलाड़ा से विहार कर आप खारीया, कालोना, बीलावस पाली, गुंदोज, बरकारणा पधार कर विद्याप्रेमी आचार्य श्रीविजयबलभसूरिजी के दर्शन और तीर्थयात्रा की बाद रानी स्टेशन, नाडोल, नारलाई, देसूरी, घाणेराव, सादड़ी, राणकपुर और भानपुरा होते हुए आप श्री उदयपुर पधारे । वहाँ आप का स्वागत बड़े समारोह साथ हुआ। वहाँ की जनता में आप के तीन सार्वजनिक
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(६०) व्याख्यान हुए । उदयपुर से मापश्री केशरियानाथजी की यात्रार्थ पधारे । पुनः उदयपुर पधारने पर आपश्री के चार व्याख्यान हुए । उदयपुर श्रीसंघ की इच्छा थी कि आप चातुर्मास वहाँ करें पर मुनि गुणसुन्दरजी की अस्वस्थता के कारण आप वहाँ अधिक नहीं ठहर सके। अत: वापस सायरा पधारे आप के वहाँ जाहिर व्याख्यान हुए और वहाँ जैन लायब्रेरी की स्थापना भी हुई। वहाँ से भानपुरा हो सादड़ी, मुंडारे, लाठाडे, लुनावा, सेवाडी, और हो बीजापुर वीसलपुर पधारे । वहाँ अठाई महोत्सव शांतिस्नात्र तथा दो मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। स्थाननकवासि जीवनलाल को जैन दीक्षा दे उन का नाम आपने जिनसुन्दर रक्खा । फिर शिवगंज, सुमेरपुर, पेरवा, और बाली हो आप सादड़ी पधारे । विक्रम संवत् १९८५ का चातुर्मास (सादड़ी मारवाड़)।
भापश्री का बाईसवाँ चातुर्मास बड़े समारोह से सादड़ी मारवाड़ में हुआ । व्याख्यान में श्राप पूजा प्रभावना वरघोड़ा आदि बड़े ही महोत्सव के साथ प्रारंभ किया हुवा श्री भगवतीजी सूत्र ऐसी मनोहर भाषा में फरमाते थे कि व्याख्यान भवन में श्रोताओं का समाना कठिन होता था। ऐसे भीड़ भरे भवन में भगवतीजी के उपदेश से जिन कई भव्य जीवोंने लाभ लिया था वे वास्तव में बड़े भाग्यशाली थे । आपकी देशना सुनने से मिध्यात्वियाँ के मन के संदेह सदा के लिये दूर हो जाते हैं। भाप के प्रखर प्रताप तथा विद्वता के आगे मिथ्यात्वी हार मानते हैं। इस वर्ष आपने तपस्या में छठ १ तथा कुछ फुटकल उपवास किये थे।
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(६१)
मुनिश्री का प्रयत्न सदा पुस्तकें लिखने का रहता है और इस प्रकार साहित्य को सुलभ और सुगम करने का श्रेय जो आपश्रीको प्राप्त हुआ है वह ध्यान देने योग्य है । इस के लिये हमारा जैन समाज विशेष कर मारवाड़ी समाज मुनिश्री का चिरऋणी रहेगा । इस वर्ष निम्न लिखित पुस्तकें प्रकाशित हुई।
१००० एक प्रसिद्धवक्ता की तस्करवृत्ति का नमूना । १००० गोडवाड़ के मूर्तिपूजक और सादड़ी के लुंकों का
३५० वर्षका इतिहास । १००० ओसवाल जाति समय निर्णय | १००० जैन जातियाँ का सचित्र इतिहास । २००० शुभ मुहूर्त तथा पश्चों की पूजा । दूसरीवार १००० निराकार निरीक्षण । १००० प्राचीन छन्द गुणावली भाग द्वितीय ।
__ श्री संघ में एक साधारण वात पर तनाजा हो गया था जो रु ५०१) देवद्रव्य के विषय में था पर आपने ऐसा इन्साफ दिया कि दोनों पक्ष में शान्ति स्थापन हो गई तथा "जैन जाति महोदय" नामक ग्रंथ के प्रकाशन के लिये श्रावकों की ओर से लगभग ३६००) के चन्दा हुआ।
सादड़ी से विहार कर धाणेराव, देसूरी, नाडलाई, नाडोल वरकाणा, रानी स्टेशन, धणी और खुडाला हो आपश्री बाली पधारे यहाँ से
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(१२) १००० ओसवालों का पद्यमय इविहास ।
१००० समवसरण प्रकरण । कूल २००० प्रतिए प्रकाशित हुई तथा श्रावकोंने उत्साह से समवसरण की रचना में करीबन पाँच सहस्र रुपये खर्च किये । पुनः आपश्री रानी स्टेशन वरकाणा और बाली होकर लुनावे पधारे । विक्रम संवत् १९८६ का चातुर्मास ( लुनावा)।
आप श्री का तेईसवाँ चातुर्मास लुनावा में है। आपश्री की वाणी द्वारा पीयूष वर्षा बड़े आनन्द से बरस रही है । वाक् सुधा का निर्मल श्रोत प्रवाहित होता हुआ श्रोताओं के संदिग्ध को दूर भगा रहा है । भापश्री व्याख्पान में श्री भगवतीजी सूत्र इस ढंग से सुनाते हैं कि व्याख्यान श्रवण के हित जनता ठठ्ठ लगजाता है । यह अनुपम दृश्य देखे ही बन आता है। श्री भगवतीजी की पूजा में ज्ञान खाते में रु. ८५०) आठ सौ पचास रुपये एकत्रित हुए हैं। श्रावकों के मन में खूब धार्मिक प्रेम है। वे धार्मिक कृत्यों में ही अपना अधिकांश समय बिताते हैं ।
जिस ऐतिहासिक खोज के आधार पर आप पिछले कई वर्षों से · जैन जाति महोदय ' ग्रंथकी रचना कर रहे थे उसका प्रथम खण्ड इसी वर्ष पूरा हुआ है । सब मिलाकर इस बार ये पुस्तकें प्रकाशित हुई। १००० प्राचीन गुण छन्दावली भाग तीसरा । १००० , , , भाग चौथा ।
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१०००
(६३) २००० दो विद्यार्थियों का संवाद । १००० त्रियों की स्वतंत्रता या अर्द्ध भारत ( Half India)। १००० नयचक्रसार हिन्दी अनुवाद । १००० बाली के फैसले । १००. जैनजाति महोदय प्रकरण १ ला ।
" २रा। , ३ ।। , ४ था।
" ५ वाँ। १०००
, ६ ठा। १००० स्तवन संग्रह भाग ५ वाँ । १३००० तेरह सहस्र प्रतिएँ।
आपश्रीके उपदेश से यहाँ एक कन्यापाठशाला स्थापित हुई है जिस में कई कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। श्री शान्तिप्रचार मण्डल का भी पुनरूद्धार हुआ इस प्रकार की संस्था की इस गाँव में नितान्त भावश्यक्ता थी सो आपश्री ही के प्रयत्न से पूरी हुई है। पुस्तक प्रचार फण्ड में रू. २०००) की श्री संघकी ओर से सहायता मिली
हमारी आशाएँ। पाठकोंने उपरोक्त अध्यायों को पढ़कर जान लिया होगा कि मुनि महाराज श्री ज्ञानसुन्दरजी कितने परिश्रमी तथा ज्ञानी हैं। यद्यपि पापनी के गुणों का विस्तृत दिग्दर्शन कराना इस प्रकार के संक्षिप्त
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( ६४ )
परिचय में असम्भव है तथापि आशा है पाठक अभी इतने में ही संतोष करलेंगे । यदि अवसर हुआ तो विस्तृत रूप में आपके जीवन की घटनाएँ आपके सम्मुख रखने का दूसरा प्रयत्न किया
1
जायगा ।
उपराक्त ग्रंथों को अनवरत परिश्रम से तैयार कर हमारे सामने रखने का जो कार्य आपश्रीने किया है वह वास्तव में असाधारण है । इस के लिये हम ही क्या सारा जैन समाज आपका चिरऋणी रहेगा
हम को आपश्री से बड़ी बड़ी आशाएँ हैं । अन्त में हम यह चाहते हैं कि आपकी असीम शक्ति से हमें जैन समाज की उन्नति करने में बहुत सहायता मिले । हमारे दुर्बल हृदय आप से निस्वार्थ और निरपेक्ष हो जावें । आपश्री इसी प्रकार हमारे सामने ज्ञान प्राप्त करने के साधन जुटाते रहें ताकि हम अपने आपको यथार्थ पहिचान ले तथा तदनुसार कार्य करें।
हमें आप से सदा ऐसा उपदेश मिलता रहे कि हम अपना पराया भूल कर निरंतर विश्व सेवा में निमग्न रहें । आप दीर्घायु हों ताकि अनेक भव्य प्राणी अपनी वासना की अजेय दुर्गमाला का आपके उपदेश से क्षणभर में ध्वस्त कर डालें । हमें गौरव है कि ऐसे महा पुरुष का जन्म हमारे मरुधर हुआ है - हमारी हार्दिक अभ्यर्थना है कि सदा इसी प्रकार आप द्वारा हमारे समाज की निरन्तर भलाई होती रहे ।
प्रान्त में
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(१५)
हम भूले भटके प्रशिक्षित शान में पिछड़े हुए माधरवासियों के लिये आप ही पथ प्रदर्शक एवं हमारे सर्वस्व प्रदीपगृह हैं ।
हमारे क्षणभार जीवन के प्रत्येकांश में प्रापश्री का मुख मुख परमानन्द दायक दिव्य सन्देश सुनाता रहे ।
भवदीय चरणाकिङ्करराजस्थान सुंदर साहित्य नाथ मोदी जैन, निरीक्षक टीचर्स ट्रेनिङ्ग
स्कूल-जोधपुर।
सदन
“ Lives of great men all remind us
We can make our lives sublime; And, departing, leave behind us Footprints on the sands of time. "
LONG FELLOW
" जीवन चरित महा-पुरुषों के, हमें शिक्षणा देते हैं।
हम भी अपना अपना जीवन, स्वच्छ रम्य कर सकते हैं।" " हमें चाहिये हम भी अपने, बना जायँ पद-चिह्न ललाम ।
इस भूमी की रेती पर जो, व्यक्त पड़े आवें कुछ काम ||" " देख देख जिन को उत्साहित, हों पुनि वे मानव मतिषर ।
जिन की नष्ट हुई हो नौका, चट्टानों से टकराकर ॥" " लाख लाख संकट सहकर भी, फिर भी साहस बांधे वे ।
बाकर मार्ग मार्ग पर अपना, 'गिरिधर' कारज साधे वे ॥"
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(१६) आपश्री की प्रकाशित पुस्तकोंकी सूची।
संख्या.
पुस्तक का नाम.
प्रावृत्ति कुल संख्या.
मूल्य.
२५०००
२०००
८०००
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०
و
س
०
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م
०
०
१००० २०००
१०००
६०००
प्रतिमा छत्तीसी गयवर विलास दानछत्तीसी अनुकम्पाछत्तीसी प्रश्नमाला स्तवनसंग्रह भाग १ ला वेत्तीस बोलसंग्रह दादासाहिबकी पूजा चर्चा का पब्लिक नोटिश देवगुरुवन्दनमाला स्तवनसंग्रह भाग दूसरा लिंगनिर्णय बहत्तरी स्तवनसंग्रह भाग ३रा सिद्धप्रतिमा मुक्तावली बत्तीससूत्र दर्पण जैन नियमावली चौरासी भाशातना | हंके पर चोट
आगम निर्णय प्रथामांक चैत्यवन्दनादि
३०००
३०००
سے
३.००
०
०
२०००
अमूल्य
२.
१००० २०००
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२०..
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जिनस्तुति सुबोधनियमावली जैनदीक्षा प्रभुपूजा व्याख्याविलास भाग १ ला शीघ्रबोध भाग १ ला शीघ्रबोध भाग २रा शीघ्रबोध भाग ३ रा शीघ्रबोध भाग ४ था शीघ्रबोध भाग ५ वां सुखविपाक मूलमन्त्र पाठ शीघ्रबोध भाग ६ ठा शीघ्रबोध भाग ७ वां दशवकालिक मूल सूत्र मेझरनामा तीन निर्नामक लेखों का उत्तर ओशियों ज्ञानभंडार की लिस्ट शीघ्रबोध भाग ८ वां शीघ्रबोध भाग ९ वां नन्दीसूक्ष मुखपाठ तीर्थयात्रास्तान शीघ्रबोध भाग १. वो अमे साधु शा माटे या! विनती शतक
ses: E८४८८
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४५
४६
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༥.
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५९
६०
६१
६१
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६६
६७
(६८)
द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका
शीघ्रबोध भाग ११ व
शीघ्रबोध भाग १२ वां
शीघ्रबोध भाग १३ वां
शीघ्रबोध भाग १४ वां
मानन्दघन चौवीसी
शीघ्रबोध भाग १५ वां
शीघ्रबोध भाग १६ वां
शीघ्रबोध भाग १७ वां
aaranीसी सार्थ
व्याख्याविलास भाग २ रा
व्याख्याविलास भाग ३ रा
व्याख्याविलास भाग ४ था
स्वाध्याय मुँहली संग्रह भाग १ का
राइदेवसि प्रतिक्रमण
उपकेशगच्छ लघुपटावली
शीघ्रबोध भाग १८ व
शीघ्रबोध भाग १९ वां
शीघ्रबोध भाग २० व
शीघ्रबोध भाग २१ व
वर्णमाला
शीघ्रबोध भाग २२ वां
शीघ्रबोध भाग २३ ब
शीघ्रबोध भाग १४ व
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१
१
५०००
१०००
१०००
१०००
१०००
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१००० १०००
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अमूल्य
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छ भागों के ६४)
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१०
शीघ्रबोध भाग २५ वां तीनचतुर्मास का दिग्दर्शन हितशिक्षानोत्तर विवाहचूलिका की समालोचना स्तक्नसंग्रह भाग ४ था सूचीपत्र महासती सुरसुन्दरी कथा पंचप्रतिक्रमण विधिसहित मुनि नाममाला स्तवन छ कर्मग्रन्थ हिन्दी भावान्तर दानवीर झगडूशाहा शुभमुहूर्त शकुनावली जैन जातिनिर्णय प्रथमांक जैन जातिनिर्णय द्वितीयांक पंचप्रतिक्रमण मूलसूत्र प्राचीन छन्द गुणावली भाग १ ला धर्मवीर सेठ जिनदत्त की कथा जैन जातियों का इतिहास प्रचित्र बोसवाल जाति समय निर्णय मुखवत्रिका-निरीक्षण निराकार निरीक्षण दो विद्यार्थियों का संवाद
प्राचीन छन्द गुणावली भाग २रा ९५ । एक प्रसिद्ध वक्ताकी तस्करवृत्ति ।
31 - ५
१०००
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(0) | धूर्तपंचो की क्रान्तिकारी पूजा
ओसवाल जाति का पद्यमय इतिहास नयवक सार हिन्दी भाषांतर स्त्री स्वतंत्रता और पश्चिममें व्यभि
चार लीला या अर्द्ध भारत
(Half India ) स्तक्न संग्रह भाग ५वा समवसरण प्रकरण हिन्दी भनु. गोडवाड़ के मूर्तिपूजक और लंका बालीके फेसले प्राचीन छन्द गुणावली भाग ३रा प्राचीन छन्द गुणक्ली भाग ४ था जैनजाति महोदय प्र.१ ला जैनजाति महोदय प्र. २ रा । मैनजाति महोदय प्र.३रा । जैनजाति महोदय प्र. ४ था जैनजाति महोदय प्र.५वा जैनजातिय महोदय प्र. ६ठा।
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२२३५००
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(७१) मापश्री के सदूउपदेश से स्थापित संस्थाए ।
संस्थाओं के नाम.
स्थान.
संवत्
"
१६७७
जैन बोडीग
मोशियोंतीर्थ | जैन पाठशाला
फलोधी १९७२ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला
J१९७२ श्री जैन लायब्रेरी
१९७३ | श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला श्रोशियोंतीर्थ
श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानभण्डार | श्री कक्ककान्ति लायब्रेरी
१९७६ ८ श्री जैन नवयुवक प्रेममण्डल
फलोधी | श्री रत्नप्रभाकर प्रेम पुस्तकालय
१९७९ श्री जैन नवयुवक मित्रमण्डल
लोहावट १९८० श्री सुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा
१९८० | श्री वीर मण्डल
नागोर १९८१ ! श्री मारवाड़ तीर्थ प्रबन्धकारिणी कमेटी । फलोधीतीर्थ १९८१ श्री ज्ञानप्रकाशक मण्डल
१९८१ श्री ज्ञानवृद्धि जैन विद्यालय
कुचेरा १९८१ श्री महावीर मित्रमण्डल
१९८१ | श्री ज्ञानोदय जैन पाठशाला
खजवाणा १९८१ 15 | श्री जैन मित्रमण्डल
१९८१ जानपुस्तकालय
पीसांगण
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________________ ( 72) बोलाड़ा 1981 1981 पीपाड़ 1983 1983 20 | श्री जैन पाठशाला श्री ज्ञानप्रकाशक मित्रमण्डल श्री जैन मित्रमण्डल श्री ज्ञानोदय जैन लायब्रेरी श्री जैन श्वेताम्बर सभा श्री जैन लायब्रेरी श्री जैन श्वेताम्बर मित्रमण्डल श्री जैन श्वेताम्बर ज्ञान लायब्रेरी श्री जैन कन्याशाला | श्री जैन कन्याशाला वीसलपुर खारिया 1984 | सायरा (मेवाड़) 1984 सादड़ी लुणावा 1985 198 ज्ञानप्रकाशक मण्डल रूणसे प्रकाशित पुस्तकें। , माषण संग्रह भाग 1 ला ) | 4 नित्यस्मरण पाठमाला / ) 2 भाषण संग्रह भाग 2 रा ) 5 गुणानुकुलक ( लोहावटसे) ) 3 नौपदानुपूर्वि .) | 6 द्रव्यानुयोग द्वि० प्रवेश (,) ) पुस्तकें मिलनेके पते- श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला, पो० फलोधी (मारवाड़) __ या मैनेजर राजस्थान सुन्दर साहित्य सदन-जोधपुर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com