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व्याख्यान के अन्दर प्रापश्री भगवतीजी सूत्र सुनाते थे तथा ऊपर से पृथ्वीचन्द्र गुणसागर का रास गेचकतापूर्वक सुनाते थे । श्रोताओं की खासी भीड़ लगजाती थी। .
आपश्री के जीवन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन करानेवाला एक कार्य भी इसी वर्ष हुआ। देवयोग से आपश्रीने यहाँ के प्राचीन भण्डार के साहित्य की खोजना की। आप को एक रहस्य ज्ञात हुआ | श्री आचागंग सूत्र की चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहुसरिकृत नियुक्ति में तीर्थ की यात्रा तथा मूर्ति पूजा का विवरण पढ़कर आप के विचार दृढ़ हुए । शुद्ध श्रद्धा के अक्कुर हृदय में वपन हुए फिर तो स्फुटित होने की ही देर थी।
वहाँपर तेरहपनथियों को भी आपने ठीक तरहसे पराजित किया था और कई श्रावकों की श्रद्धा भी मूर्ति पूजा की भोर झुका दी थी। यहाँ से विहारकर भाप उदयपुर पधारे परन्तु अांखों की पीड़ा के कारण श्राप भागे शोघ्र न पधार सके । इसी कारण से आप ३३ साढे तीन मास पर्यंत इसी नगर में ठहरे । व्याख्यान में श्री संघ की प्रत्याग्रह से श्री जीवाभिगम सूत्र बांचा जा रहा था। विजयदेव के अधिकार में मूर्ति पूजा का फल यावत् मोक्ष होने का मूल पाठ था । साधु होकर श्राप छली न बने । लकीर के फकीर न होकर सरल स्वभाव से आपने जैसा मल पाठ व अर्थ में था सब स्पष्ट कह सुनाया। उपस्थित जनसमुदाय में कोलाहल मच गया। अंधभक्तों के पेट में चूहे कूदने लगे । लगे वे सब जोरसे हल्ला मचाने । मापने सत्र के पाने शेठजी नन्दलालजी के सामने रक्ख दिये और उन्होंने सभा
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