Book Title: Jinabhashita 2003 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2530 आदिनाथ भगवान सर्वोदय तीर्थअमरकंटक कार्तिक, वि. सं. 2060 नवम्बर 2003 For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 नवम्बर 2003 जिनभाषित मासिक वर्ष 2, अङ्क 10 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ - कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 . आपके पत्र धन्यवाद सम्पादकीय - : सदलगा सदा ही अलग प्रवचनांश : मुनिश्री सुधासागर जी लेख सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर • घोषित दान की अनुपलब्धि : ब्र. शांतिकुमार जैन श्रमणाचार में एकल विहार ... : डॉ. श्रेयांस कुमार जैन निरभिमानता : डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन क्या कुंडलगिरि ..... : ब्र. अमरचन्द्र जैन रेलवे टाइम टेबल में जैन... : डॉ. कपूरचंद्र जैन वाणी वीणा बने : सुशीला पाटनी प्राकृतिक चिकित्सा : डॉ. वंदना जैन • अनर्गल प्रलापं वर्जयेत् : मूलचन्द्र लुहाड़िया . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा बोधकथा . सद्भावना : डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' 20 . बालवार्ता प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2151428, 2152278 • सबसे बड़ा काँटा : डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' 14 . कविता सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। . गोमटेश अष्टक . सुधाधारा पुनातु नः • जीवनबिन्दु : मुनि श्री योगसागर जी : शिवचरण लाल जैन : डॉ. विमला जैन 'विमल' 11 27-32 समाचार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य 'जिनभाषित' (अक्टूबर २००३) अंक को पढ़ा। आश्चर्य । सम्पादकीय, जरा सोचिये, जिज्ञासा समाधान आदि महत्वपूर्ण सामग्री है कि प्रभावपूर्ण संम्पादकीय लेख नहीं था, जिसको पढ़के ही | निःसन्देह उपयोगी है। लेखन विनम्रतापूर्वक शिष्ट भाषा में ही पत्रिका की शुरूआत होती है। 'श्रावक का प्रथम कर्तव्य देव | होना चाहिए। समालोचना/समीक्षा का अधिकार मर्यादा के साथ पूजा' आलेख से डॉ. श्रेयांसकुमार जैन ने प्रभावपूर्ण प्रस्तुति की | ही कार्यकारी हो सकता है। अन्तरंग के साथ-साथ 'जिनभाषित' है, जिससे श्रावकों की जिनेन्द्र देव पूजा में दृढ़ श्रृद्धान बनने में | का बाह्य स्वरूप भी मनमोहक है। इसके लिए आप तथा सर्वोदय सहयोग मिलेगा। डॉ. पारसमल अग्रवाल ने सामायिक के द्वारा | जैन विद्यापीठ दोनों बधाई योग्य हैं। होने वाले अच्छे प्रभाव को आधुनिक विज्ञान के द्वारा सिद्ध करके आपका नम्र ऋषभचन्द्र जैन बहुत अच्छा प्रयास किया है। प्रायः श्रावक-श्राविकायें सामायिक आपके द्वारा प्रकाशित एवं सम्पादित पत्रिका जैन जगत में को मात्र साधुओं की क्रिया समझते हैं। जबकि सामायिक हम अपने विचारणीय विषयों रोचक एवं ज्ञानवर्धक सामग्री से परिपूर्ण सभी लोगों के लिये पूजा, स्वाध्याय आदि की तरह ही अति एक विशेष स्थान रखती है। इसकी अच्छी विशेषताओं में इसका आवश्यक है। अंक के प्रायः सभी लेख एवं बोध कथायें बहुत कागज, आकार एवं छपाई काफी आकर्षक है। प्रेरणास्पद हैं। दिनों दिन निरन्तर प्रगति करें। इन्हीं शुभकामनाओं मेरा निवेदन है कि आप 'पत्रिका' को न सिर्फ 'जैन सहित। समाज' बल्कि अन्य के लिए भी पठनीय बनाएँ। जिससे जैनधर्म श्रीमती रूचि जैन | को समझने में लोगों को आसानी हो जैन धर्मकी वैज्ञानिकता से नई दिल्ली | लोगों का परिचय हो। "जिनभाषित' अंक ८ सितम्बर २००३ मिला। अङ्क की पत्रिका में कुछ रोचक प्रसंग, कथाओं, विचारों, कविताओं स्वच्छ सामग्री देखकर आनन्द विभोर हो उठा। सच आज ऐसी ही को भी स्थान दिया जाये। पृष्ठ संख्या एवं सामग्री बढ़ाई जाए पर पत्रिका की आवश्यकता है। यथा नाम तथा लेख होना ही पत्रिका कागज, आकार एवं छपाई की गुणवत्ता को कम न किया जाए। की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए जो 'जिनभाषित' में है। रोहित कुमार जैन आपका सब्जी मंडी, अवागढ़ (एटा) बसन्त कुमार जैन 'शास्त्री' वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पूछा जाए जैन पत्रिकाओं में कौन श्रेष्ठ बसन्त निवास, शिवाड़ आचार्य श्री का प्रवचन 'कर्मों की गति' और 'सदलगा है? कहना तो बहुत मुश्किल है। लेकिन 'जिनभाषित' अपने में ही एक अलग गरिमा रखती है। संपादकीय से लेकर, लेख, शंका की भूमिपर आ.श्री विद्यासागर जी की शिष्याओं का चातुर्मास' समाधान, उत्तम विचार, अनेक नई-नई बातें समाज और विद्वान लेख और उसके कुछ फोटोग्राफ बहुत अच्छे लगे। ऐसा तो किताब के समक्ष आती हैं। पत्रिका में खोट निकालना वैसे ही है जैसे का हर पन्ना पढ़ने लायक होता है। ज्ञान से भरा हुआ रहता है। पं. कहते हैं कि 'जिन वच में शंका न धार'। फिर भी कुछ बिन्दु नीचे बैनाड़ा का 'शंका समाधान' भी बहुत अच्छा लगा। .| प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँहमें अंक का इंतजार रहता है क्योंकि उसमें आचार्यश्री १. ज्योतिष और वास्तु के विषय में भी हर एक अंक में का प्रवचन, कोई तीर्थ क्षेत्र मंदिर का फोटो देखकर हमें घर बैठे कुछ चर्चा अवश्य रखें। ही तीर्थ वंदना हो जाती है। यात्रा हो जाती है। २. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भौतिक एवं अभौतिक स्तर पर प्रेमलता सुरेन्द्र कासलीवाल उनका सफल कैरियर कैसे बने। प्लॉट नं. ११७, सकलेचा नगर, ३. कुछ प्रतियोगिताएँ भी पत्रिका में शामिल करें। भोकरदन रोड, जालना गोष्ठी में 'जिनभाषित' का अगस्त ०३ का अंक मिला, आशीष जैन शास्त्री आभारी हूँ। एक या दो अंक प्रारम्भ में भी मिले थे। इस अंक में | शाहगढ़ नवम्बर 2003 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गोमटेश अष्टक मुनि श्री योगसागर जी (वसन्त तिलका छन्द) है विश्वख्यात जिनबिम्ब अपूर्वता है। सौंदर्य पूर्ण मन मोहकता कला है। यों वीतराग झलके हर अंग से है। साक्षात् धर्म हम को दिखने लगा है। ये मौन से कह रही निज को निहारो। सारे अनर्थ मिटते शिव सौख्य धारो॥ मानों अनेक भव संचित पुण्य आया। श्री गोमटेश्वर सुदर्शन लाभ पाया। क्या रूप वर्णन करूँ उपमा नहीं है। है काम देव समरूप लिया हुआ है। जो भी स्वरूप लखता मन शांत होता। जो चित्तके मदन का मद चूर होता ॥३॥ अम्भोज से चरण सौरभता लिये हैं। सद्धर्म की महक व्याप्त यहाँ हुई है। भव्यात्म तो भ्रमर सा रस पान में है। गुंजायमान अहोरात यहाँ रही है। जो भी लखे स्वपर बोध सुजाग जाता। सच्चा निजात्म सुख क्या यह ज्ञात होता॥ आसक्ति तो विषय में रहती नहीं है। वैराग्य ज्योति स्वयमेव प्रकाशती है।। चैतन्य ज्ञानघनमंडित गोमटेश। आनन्द से छलकता सब ही प्रदेश। यों कोटिकोटिशः प्रणाम करूँ तुम्हें मैं। त्रैयोग पूर्वक त्रिकाल स्मरूँ तुम्हे मैं॥ है नग्न विग्रह विशाल सुसौम्यता से। आबाल वृद्ध लखते अविषादता से। निर्भीकता अभय शान्त मुखारविन्द। मैं बार-बार प्रण{ चरणारविन्द॥ ये है खड़ी इक सहस्र सुवर्ष बीते। आश्चर्य है अतुलनीय वसुन्धरा पै।। देखो दिगम्बर अपूर्व विराग भाता। ये वीतरागमय गौरव कीर्ति गाथा॥ आराध्य देव मम बाहुबली जिनेश। जो आद्य मोक्ष पद साधक गोमटेश।। मैं भक्तिपुष्प पाद-सरोज अपूँ। ओ शक्ति अर्पण करो भव पार होऊँ॥ 2 नवम्बर 2003 जिनभाषित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय सदलगा सदा ही अलग जब पता चला कि इस वर्ष (सन् २००३ ई. में) पूजनीया आर्यिका आदर्शमति जी का ससंघ चातुर्मास परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की जन्म भूमि सदलगा में हो रहा है, तब मेरा तन रोमांचित हो उठा, क्योंकि गतवर्ष की तरह इस वर्ष भी आचार्यश्री ने मुझे चातुर्मास में प्रतिभामंडल की ब्रह्मचारिणी बहनों को संस्कृत और सर्वार्थसिद्धि पढ़ाने का आदेश दिया था और उनका शिविर आदर्शमति माताजी के ही तत्त्वावधान में उनके चातुर्मास स्थल पर होता है, अत: मेरे रोम-रोम में आनंद की लहर दौड़ गई कि इस बार इस सदी के सदाबहार अद्भुत सन्त की जन्मभूमि सदलगा के दर्शन का मौका मिलेगा। आचार्यश्री में बाल्यकाल से ही संसार को त्यागने और मोक्षपथ का राही बनने की जो छटपटाहट थी, उसके फलस्वरूप अपने दुर्लभ गुरु से दुर्लभ मुनिपद पाकर, उसके जिस आदर्शरूप को उन्होंने अपने में प्रतिबिम्बित किया है, उसने उन्हें अद्भुत बना दिया है। यह आदर्श मुनित्व की अद्भुतता ही विश्व के कोने-कोने से श्रद्धालुओं को उनके दर्शन हेतु खींचकर ले आती है और उनकी वीतराग छवि से झरती वैराग्यसुधा का अनवरत पान करते रहने के लिए बाध्य करती है। इस अद्भुतता के कारण ही आचार्यश्री से सम्बन्धित हर चीज अद्भुत लगती है। उनकी जन्मभूमि का इसीलिए अद्भुत लगना स्वाभाविक था। मन यह सोच-सोच कर रोमांचित होता था कि मैं सदलगा की उन गलियों में चलने का अवसर प्राप्त करूँगा, जहाँ आचार्य श्री बचपन में चले थे, जहाँ की धूल उनके चरणस्पर्श से पवित्र है, उस हवा का स्पर्श करूँगा जिसने आचार्यश्री के शरीर को छुआ होगा और जिसमें उनके बालशरीर की सुगन्ध व्याप्त होगी, उस घर को देखूगा, जिसकी दीवारें आचार्यश्री के जन्म और उनकी बाललीलाओं की साक्षी हैं, उस विद्यालय के दर्शन पाऊँगा, जो आचार्यश्री के विद्याध्ययन का माध्यम बन कर अमर हो गया और उन मंदिरों की वन्दना करूँगा, जहाँ आचार्यश्री ध्यान लगाते थे और स्वाध्याय करते थे। सदलगा पहुँचकर इन सभी स्थानों के बार-बार दर्शन किये और प्रफुल्लित हुआ। आचार्यश्री की जन्मभूमि होने से वह तीर्थ बन गया है। तीन माह इस तीर्थ में रहकर मैंने प्रचुर पुण्य अर्जित किया। सदलगा एक सुन्दर लघुनगर है। यहाँ गाँव की प्राकृतिक रमणीयता और नगर की आधुनिकता, दोनों का संगम है। कई जगह सड़क के एक ओर हरे-भरे खेत लहराते हुए मनोरम दृश्य उपस्थित करते हैं, तो दूसरी ओर आधुनिक साज-सज्जावाली दूकानों में सजी हुई विविध उपभोग्य सामग्री नगर की छटा बिखेरती है। आचार्यश्री के सदलगावास के समय वहाँ बिजली नहीं थी। वे लालटेन लेकर अपने मित्र मारुति के साथ दढ़वस्ती (बड़े मंदिर) और कलवस्ती (पाषाण मंदिर) स्वाध्याय के लिए जाते थे। किन्तु अब आचार्यश्री कल्पना भी नहीं कर सकते कि सदलगा कितना विकसित हो गया है। वहाँ की जनसंख्या अब तीस हजार हो गयी है ओर जैनों के घर जो आचार्यश्री के गृहत्याग के समय ५०० थे अब ७०० हो गये हैं। मूल बस्ती से बहुत दूर-दूर तक नये आकार-प्रकार के सुन्दर बँगले ओर दूकाने बन गयी हैं। आधुनिक जीवनशैली की ऐसी कोई चीज शेष नहीं होगी, जो वहाँ उपलब्ध न हो। एक मोटरकार को छोड़कर लगभग सभी किस्म के दुपहिया वाहनों के शो-रूम सदलगा में खुल गये हैं। टी.व्ही. सेट की दूकानें भी खुल गयी हैं। सब तरह की भवन-निर्माण सामग्री वहाँ से खरीदी जा सकती है। जगह-जगह एस.टी.डी., पी.सी.ओ. जीरोक्स मशीनें और कम्प्यूटर-टाइपिंग सेन्टर दिखाई देते हैं। सदलगा में विशाल बस स्टैण्ड तो है ही, वहाँ से कहीं भी जाने के लिए अच्छी-अच्छी टैक्सियाँ भी किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं। नगरवाहन के रूप में वहाँ आटो भी चलते हैं। सदलगा में कहीं भी चले जाइये, सभी ओर पक्की सड़कें मिलेंगी, जो रात्रि में पूरे समय विद्युत्प्रकाश से जगमगाती रहती हैं। सदलगा कृषि प्रधान नगरी है। वहाँ के जैन तो प्रायः सभी कृषक हैं और सभी सम्पन्न हैं। अनेक जैन परिवार खेतों में ही घर बनाकर रहते हैं, कहीं-कहीं जैन मंदिर भी खेत के पास बना लिया गया है। खेतों में रहनेवाली जैन महिलाएँ भी कृषिकार्य में हाथ बँटाती हैं। उनके बड़े-बड़े खेत हैं और ट्रेक्टर से खेती करते हैं। अधिकांश जैन कृषकों के पास ट्रेक्टर हैं। मोटर साइकिल तो हर कृषक के पास है। अनेक जैन जीप और कार के भी स्वामी हैं। खेतों में अनेक प्रकर की फसलें उगाई जाती हैं, जैसे गन्ना, ज्वार, गेहूँ, मूंगफल्ली, तम्बाकू, हल्दी, दालें, केला, टमाटर, सोयाबीन आदि। नारियल के पेड़ तो खेतों के अलावा घर-घर में विद्यमान हैं। गाय-भैंसे भी सभी नवम्बर 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कृषक अपने खेतों में कमरे बनाकर पालते हैं। सब के यहाँ प्रचुर दूध, दही ओर घी होता है। वहाँ का घी बेहद स्वादिष्ट है। लोग सरलस्वभाव हैं। अतिथिसत्कार में निपुण हैं। प्रतिभामण्डल की बहनों की आवास व्यवस्था के लिए एक श्रावक ने अपना विशाल भवन खाली कर दिया और सभी श्रावकों ने मिलकर उन्हें हर सुविधा उपलब्ध कराने का भरसक प्रयत्न किया। समीपवर्ती इचलकरंजी नगर के श्रीमान् भी आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराने में सदा आगे-आगे रहे। चातुर्मास में मुझे जहाँ ठहराया गया था, उस परिवार ने मुझे जो आदर प्रदान किया ओर मेरी सुखसुविधा का जो ख्याल रखा वह बेमिसाल है। सदलगा में किसी के घर चोरी नहीं होती। स्त्रियाँ आधीरात को भी सड़कों पर बेखौफ आ जा सकती हैं। सदलगा महाराष्ट्र की सीमा से लगा हुआ है, इसलिए वहाँ कन्नड़ और मराठी, दोनों भाषाएँ बोली ओर समझी जाती हैं। ग्रामीण वृद्ध महिलाएँ मराठी-शैली की साड़ी पहनती हैं। आधुनिक स्त्रियाँ, चाहे शहरी हों या ग्रामीण, उनकी साड़ी पहनने की स्टाइल उत्तरभारतीय है। पुरुष धोती, कमीज ओर टोपी अथवा पाजामा, कमीज, और टोपी पहनते हैं। नये युग के युवा पैन्ट-शर्ट और युवतियाँ सलवार-कुर्ता पहनने लगी हैं। सदलगा में पाँच जैन मंदिर हैं, जिनमें तीन प्राचीन हैं- शिखरवस्ती, दढ़वस्ती और कलवस्ती। कलवस्ती पूर्णत: पाषाणनिर्मित है और लगभग एक हजार साल प्राचीन है। आचार्यश्री विद्यासागर जी अपनी किशोरावस्था में कलवस्ती में ही जाकर ध्यानलीन होते थे। जहाँ वे ध्यानस्थ होते थे वह स्थान मुझे देखने का सौभाग्य मिला है। एक स्थान पर एक छोटे से कमरे में श्री चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा विराजमान है, जिसे गुम्फा मंदिर कहते हैं। एक नया भव्य शान्तिनाथ मंदिर आचार्यश्री के निवास स्थान के ऊपर बनाया गया है, जिसका पंचकल्याणक महोत्सव फरवरी २००३ में हुआ था। नीचे के निवास स्थान की दीवारें पक्की कर दी गई हैं और उसके आकार-प्रकार में भी कुछ परिवर्तन किया गया है, किन्तु स्नानगृह ज्यों का त्यों है। वह बहुत बड़ा है। इस भवन में ही आर्यिकारत्न आदर्शमति जी के संघ की ब्रह्मचारिणी बहनें चातुर्मास में ठहरी हुई थी और उनका सौभाग्य तो देखिए, जहाँ आचार्यश्री की रसोई बनती थी, ठीक उसी स्थान पर उनका भी भोजन बनता था और ठीक उसी के सामने, जहाँ आचार्यश्री भोजन करने बैठते थे, उसी स्थान पर ब्रह्मचारिणी बहनें भी अपनी भोजनविधि सम्पन्न करती थीं। मुझे भी चातुर्मासकाल में उसी स्थान पर बैठकर भोजन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस पवित्र भूमि के स्पर्श से अवश्य ही हमने पुण्यानुबन्धी पुण्य आर्जित किया होगा। आचार्यश्री के घर से लगा हुआ उनके एक चचेरे भाई का भी घर था, जहाँ अब धर्मशाला बन गई है। इसकी ऊपरी मंजिल पर आर्यिकासंघ विराजमान था, जिसके फलस्वरूप आर्यिका श्री आदर्शमति जी और उनके संघ की सभी आर्यिका माताएँ भी चातुर्मास पर्यन्त आचार्यश्री के पड़ोस में रहने का पुण्यानंद अनुभव करती रहीं। यह अद्भुत है कि सदलगा के समीप ही वे तीन महान् भूमियाँ हैं, जहाँ बीसवीं शताब्दी के अन्य तीन महान् दिगम्बराचार्यों ने १५ किलोमीटर की दूरी पर भोज ग्राम है, जिसने दुनिया को परमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी के रूप में एक दिव्य उपहार प्रदान किया। बीस किलो मीटर पर कोथली ग्राम है, जो परमपूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी को अपनी गोद में खिलाकर धन्य हुआ है। और ३५ किलोमीटर पर शेडवाल नामक गाँव है जिसे परमपूज्य आचार्य विद्यानन्द जी ने अपने जन्म से सुशोभित किया। लगता है सदलगा और उसके चारों और की भूमि दिव्य पुद्गल-परमाणुओं से निर्मित है, इसीलिए बीसवीं शताब्दी में जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना करनेवाले चार दिग्गज दिगम्बराचार्य वहीं से उपजे हैं। सदलगा एक अतिशय तीर्थ क्षेत्र बन गया है। इस युग में वहाँ एक ऐसा अतिशय हुआ है, जो अन्यत्र देखने में नहीं आया। वहाँ एक ही परिवार में सात निकट भव्य जीव अवतरित हुए हैं, जिनमें से एक ने 'विद्यासागर' नाम से अतिशय कीर्तिवान् , अतिपूजित परमोपकारी दिगम्बराचार्य की पदवी पायी है। तीन ने अपनी आगमसम्मत उत्कृष्टचर्या से मुनिपद को पूज्यता के उच्चस्तर पर पहुँचाया है, जिन्हें लोग मुनि श्री समयसागर, मुनि श्री योगसागर और स्व. मुनि श्री मल्लिसागर के नाम से जानते हैं। प्रथम दो मुनिराज आचार्य श्री विद्यासागर जी के पूर्वाश्रम के अनुज हैं और अन्तिम मुनिश्री इन तीनों के पिता थे। आचार्यश्री की माता जी ने श्री समयमति नाम से आर्यिका-दीक्षा लेकर अपनी मनुष्य पर्याय को सार्थक किया है। और आचार्यश्री की दो अनुजाएँ, बहिन शान्ता और स्वर्णा बालब्रह्मचारिणी की अवस्था में संयम की साधना कर रही हैं। आचार्यश्री के अग्रज श्री महावीर जी अष्टगे और उनकी पत्नी श्रीमती अलका भाभी भी अब घर में 'जल तैं भिन्न कमल ' के समान जीवन व्यतीत कर रही हैं। यह सदलगा की भूमि पर हुआ एक महान अतिशय है। आचार्यश्री के अन्यतम शिष्य मुनि श्री नियमसागर जी ने भी अपने जन्म से सदलगा की धरती को कृतार्थ किया है तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध महान् विद्वान् एवं अनेक शोघपूर्ण ग्रन्थों के लेखक प्रो. (डॉ.) आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये भी 4 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदलगा के सपूत थे । इस विद्वद्रत्न से भी सदलगा के अतिशय में वृद्धि हुई है। I इतना ही नहीं, सदलगा में एक और विभूति है, आचार्य श्री के बालसखा मारुति जी। वे जन्मना अजैन हैं। बचपन से ही उनकी बालक विद्याघर से प्रगाढ मैत्री थी । सदलगा में बालक विद्याधर का जितना स्नेह और विश्वास मारुति जी ने पाया है, उतना और किसी को पाने का सौभाग्य नहीं मिला। दोनों साथ-साथ स्कूल जाते थे, साथ-साथ खेलते थे, साथ-साथ खेत में काम करते थे और साथसाथ जिनालय में जाकर जिनभक्ति, स्वाध्याय एवं ध्यान करते थे। युवा विद्याधर के साथ मारुति ने भी आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया था, जिसका पालन वे आज तक कर रहे हैं। वे अब लगभग ६२ वर्ष के हो गये हैं। उनके साथ उनकी बहन रहती हैं। सभी शुद्ध शाकाहारी और दिवसभौजी हैं मारुति जो प्रतिदिन दोनों समय जिनमंदिर देवदर्शनार्थ जाते हैं। उन्हें णमोकारमंत्र, भक्तामरस्तोत्र आदि कण्ठस्थ हैं। आचार्यश्री के साथ बचपन में कण्ठस्थ किये गये रत्नाकरशतक के श्लोक आज भी उन्हें याद हैं। मुझे सदलगा में कई बार उनके मुख से सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनका स्वर भी मधुर है। उनकी विशेषता है अतिसरलता, विनम्रता एवं निःस्पृहता। आचार्य श्री के प्रति उनकी कितनी निष्ठा और समर्पणभाव है, यह एक ही उदाहरण से ज्ञात हो जाता है। स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद आचार्यश्री घर छोड़कर मोक्षमार्ग ग्रहण करने के लिए आतुर थे। वे उस समय राजस्थान में विद्यमान आचार्य देशभूषण जी के पास जाना चाहते थे । पर यात्रा के लिए रुपयों की समस्या थी। घर में किसी को बतला नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा करने पर घर से निकलने पर ही प्रतिबन्ध लग जाता। अतः उन्होंने अपने मित्र मारुति को ही अपनी समस्या बतलायी। मारुति एक रुपया रोज पर खेतों में मजदूरी करते थे। उन्होंने उसमें से प्रतिदिन बचत करते हुए तीन साल में एक सौ बारह रुपये जोड़े और अपने प्रिय मित्र को दे दिये। तथा एक दिन उन्हें चुपचाप बस में बैठाल कर जयपुर के लिए रवाना कर दिया और घर आकर मित्र के वियोग से बहुत रोये । जब अजमेर में आचार्यश्री को मुनिदीक्षा दी जा रही थी, तब उनके अग्रज श्री महावीर जी के साथ मारुति जी भी वहाँ पहुँचे थे। दीक्षा के समय आचार्य श्री ने यह रहस्य खोला कि उन्होंने मारुति से एक सौ बारह रुपये लिये थे। घर आकर महावीर जी मारुति जी को एक सौ बारह रुपये देने लगे, तब मारुति जी ने उत्तर दिया 'मैं अपने पुण्य को बेचना नहीं चाहता।' सुनकर महावीर जी स्तब्ध रह गये। एक अजैन व्यक्ति विद्याधर की संगति से कितना बड़ा जैन बन गया था ! निर्लोभ और त्याग की ऐसी मिसाल सम्राटों में भी दुष्प्राप्य है, जो एक रुपया रोज की मजदूरी करने वाले ने पेश की थी। वृद्ध मारुति तीन साल से एपेण्डिसाइटिस से पीड़ित थे। अभी जब हम सदलगा में थे, तब एक रात उनका एपेण्डिक्स बर्स्ट हो गया। उनकी बहन रात को तीन बजे मारुति जी के शुभचिन्तक और एक सम्पन्न, सहृदय जैनकृषक श्री रवीन्द्र प्रधान के घर दौड़ी आयीं। मैं इन्हीं का अतिथि था । रवीन्द्र जी तुरन्त जीप की व्यवस्था कर मारुति जी को चिक्कोड़ी ले गये ओर एक प्राइवेट नार्सिंग होम में उनका उसी सुबह आपरेशन कराया। मारुति स्वस्थ हो गये। चिकित्सा का सारा खर्च रवीन्द्र जी ने ही उठाया। मारुति जी की तो एक पैसा भी खर्च करने की हैसियत नहीं थी। मारुति जी कहते हैं- 'रवीन्द्र जी ने मुझे पुनर्जन्म दिया है।' सदलगा की भूमि ने ऐसे उदार और अनुकम्पावान् श्रावकों को भी जन्म दिया है। सचमुच सदलगा सदा ही अलग है। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की आदर्श शिष्या पूजनीया आर्थिका आदर्शमति जी और उनके संघ की सोलह आर्थिका माताओं ने अपने परम श्रद्धेय गुरु की जन्मभूमि में चतुर्मास का अवसर प्राप्त कर अपने को परम धन्य माना। उन्होंने अपनी उत्कृष्ट चर्या और मार्मिक प्रवचनों से सदलगा के श्रावकों का मन मुग्ध कर दिया। सदलगावासियों ने आर्यिका संघ के माध्यम से तप और सादगी की वह सुगन्ध पायी है, जिसका उन्होंने अभी तक आस्वादन नहीं किया था। यह सुगन्ध उनके रोम-रोम में चिरकाल तक बसी रहेगी। आर्यिका श्री आदर्शमति जी के वात्सल्यमय अनुशासन में रहने वाली १३ ब्रह्मचारिणी बहनों और प्रतिभा मण्डल की आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत भारिणी ७० शिक्षार्थिनी बहनों तथा ब्र. गीता दीदी के दिव्य आचरण और शिष्ट व्यवहार ने भी सदलगावासियों के मन में धर्म की गंगा प्रवाहित की है। सदलगा के समस्त श्रावकों ने आर्यिका संघ का अतिभक्तिभाव से स्वागत और सत्कार किया तथा उनके दुर्लभ, पवित्र सान्निध्य का अधिकाधिक लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब सदलगावासियों की एक ही आकांक्षा है कि सदलगा की धरती आचार्य श्री के चरणों का एक बार पुनः नये रूप में स्पर्श करे। वे पलकें बिछाये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। रतनचन्द्र जैन नवम्बर 2003 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेक्षाभाव से लिया गया नियम नरक का कारण बनता है परमपूज्य मुनिपुंगव १०८ श्री सुधासागर जी महाराज द्वारा केकड़ी में पद्म पुराण पर आयोजित राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठि में व्यक्त किये विचार भी नियम तब फलीभूत होता है जब मन, वचन, काय की एकाग्रता उसमें हो। रावण ने सीता का हरण किया परन्तु उससे जोर जबर्दस्ती नहीं की। मन्दोदरी ने तब रावण से कहा कि तुम सीता का बलात् आलिंगन क्यों नहीं करते तब रावण इसे अस्वीकार करते हुए कहता है कि मैंने तो मुनिराज से यह समझकर व्रत लिया था कि संसार में ऐसी कौन सी स्त्री होगी जो रावण को नहीं चाहेगी? अत: जब नियम ले लिया है तो उसका पालन करूँगा। रावण के इस नियम को लेते समय भी अहंकार था । उपेक्षा भाव इसीलिए था कि रावण के मन, वचन, काय में एकाग्रता नहीं थी । इसीलिए नियम के प्रति उपेक्षा भाव के कारण वह नरक गया। अहिंसा के प्रति उपेक्षा भाव भी हिंसा का कारण है हनुमान जी भी सीता की खोज में श्रीलंका गये जहाँ वे लंका सुंदरी के मोह में फँस गये। आपने ट्रेन का उदाहरण देते हुए बताया कि एक व्यक्ति तीन दिन से ट्रेन में बैठा है, भले ही गलती से बैठ गया है, उसे पता है कि मैं गलत रेल में बैठा हूँ परन्तु फिर भी वह ट्रेन से नहीं उतरा उसी ट्रेन में बैठा-बैठा रो रहा है फिर भी ट्रेन से उतरने को तैयार नहीं है । मनुष्य की स्थिति भी ठीक इसी तरह है वह जानता है कि वह धर्म के विपरीत जा रहा है नियमों की उपेक्षा कर रहा है। क्या देय है क्या उपादेय इसे भी जानता है परन्तु वह वही कर रहा है जिससे संसार बढ़े संसार के प्रति आसक्ति बढ़े वह अब तक किये कार्यों पर पछता नहीं रहा है। रावण ज्ञानी है सब कुछ जानता है परन्तु अहंकार वश वह सीता को वापस नहीं करना चाहता है। यही कारण उसके लिए नरक ले गया। इसी तरह राम की चर्चा करना अलग बात है और राम के चरित्र का अनुकरण करना अलग बात है। पद्मचरित की कथा और वाल्मीकि की राम कथा में अंतर हो सकता है परन्तु राम को सभी आदर्श पुरुष मानते हैं उनके चरित्र को सभी अनुकरणीय समझते हैं। अतः राम के चरित्र की प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी। संसार में जितने भी धर्म हैं और उनके अनुयायी हैं उनकी अपने-अपने धर्म में श्रद्धा है जो धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है परन्तु तत्व श्रद्धा अलग चीज है। तत्व को समझना भी आवश्यक है। आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि राम की कथा किस काल की है आवश्यकता श्री राम के चरित्र के अनुकरण की है। 6 वीरधरणीधरान्धरा गणधराधर मण्डिता । कर्मभूभृद्भेदत्वाद् गङ्गाधरेति मानिता ॥1 ॥ सुधाधारा पुनातु नः ज्ञानविद्याधराधारा महाधरिति कल्प्यते । अधराधरधराधारा सुधाधारा पुनातु नः ॥2 ॥ मिथ्यात्वनिर्भरा धारा निराधारेति मन्यते । ज्ञानदृक्ताधारा धर्मधारा महर्षिभिः ॥13 ॥ नवम्बर 2003 जिनभाषित प्रस्तुति : डॉ. नरेन्द्र भारती, सनावद शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी सा धारा या सुधाधारा साधारा सुविधीयते । धराधरात्मसन्धारा सुधाधारा पुनातु नः ॥14 ॥ तीर्थकृत्कृता धारा ज्ञानविद्यामयाऽभवत् । सुधासागरिका धारा धारा सुधासागरी ॥15 ॥ अद्यधारा सुधाधारा सुधालम्बा सरस्वती । सधमंजनशिरोधार्या सुधाधारा पुनातु नः ॥16॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोषित दान की अनुपलब्धि ब्र. शांति कुमार जैन धार्मिक आयोजन/कार्यक्रम सामाजिक शक्ति/सहयोग से । संख्या में है। दान की घोषणा करने वाले पुण्यात्मा प्राणी तो राशि ही होते हैं। समाज में से ही कुछ कार्यकर्ताओं को पदाधिकारी के बिना दिये ही चले गये साथ ही उनका पुण्य भी चला गया। वंशधर रूप में चुन लिया जाता है । वे ही आयोजन की व्यवस्था समाज के | जो पीछे रह गये उनके पास पुण्य नहीं था। राशि डूब ही गई। सामान्य जन समुदाय के सहयोग से करते हैं । ऐसे धार्मिक आयोजन | ऐसी स्वीकृत राशि की अदायगी के लिए अदालत में सम्पूर्ण समाज की कर्तव्य निष्ठा से ही सफल हो पाते हैं। विवाहादि मुकदमा होता नहीं। जोर जबरदस्ती से तकादा कर नहीं सकते। की तरह ये आयोजन व्यक्ति विशेष के नहीं होते। ऐसे आयोजनों भुगतान में अक्षम व्यक्तियों के नाम की तालिका भी प्रकाशित करके में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, मंडल विधान पूजा महोत्सव | मंदिर में लगाने से उनकी मानहानि एवं विसम्बाद का डर महामस्तकाभिषेक महोत्सव आदि मुख्य हैं। इसकी व्यवस्था में | पदाधिकारियों को रहता है। पूर्व में प्रचलित सामाजिक बहिष्कार प्रचुर धनराशि खर्च होती है जिसको बोलियों की घोषणा-स्वीकृति एवं दण्डप्रथा किसी भी बड़े से बड़े घृणित पाप के लिए भी समाज के माध्यम से आय के द्वारा संग्रहीत किया जाता है। दे नहीं सकती। ऐसी विकट समस्या को उत्पन्न करने वाले तथा अब समाज के अन्दर समस्या तब बन जाती है जब कि कथित महानुभाव महापाप का ही बंध करते हैं कारण धर्म एवं बोलियाँ लेने वाले एवं दान की घोषणा करने वाले महानुभाव यथा समाज परस्पर एक दूसरे पर आधारित है। समय घोषित राशि को देते नहीं हैं। बार-बार ससम्मान निवेदन । समाज की नीति धर्म का आदर बहुमान पूर्व में राजा भी करने पर भी वे देने में उदासीनता प्रदर्शित करते हैं अथवा अनेक करते आए हैं। आज सरकार भी करती है। व्यक्ति को अपने प्रकार के कारण एवं बहाने बाजी बताते हैं। कर्त्तव्य/अधिकार के प्रति विवेक पूर्ण जागरूकता रखनी चाहिए। ___ कार्यकर्ता पदाधिकारी जन खर्चकी राशि का भुगतान सम्बन्धित समस्या को उजागर करने के सन्दर्भ और भी कुछ अन ठेकेदार/मजदूरों को उचति समय पर कर नहीं पाते। वे एक विकट कहीं बातें रह गईं जिसे सभी जानते हैं। अब समाधान के लिए कुछ समस्या से घिर जाते हैं। मंदिर आदि का कुछ अधूरा निर्माण कार्य पूर्ण बिन्दुओं पर विचार करना है। 1. समाज की आम सभा में इस समस्या के निराकरण हेत नहीं कर पाते। वर्षों तक यह समस्या बनी रहती है। बोलियाँ लेने वाले अथवा दान की घोषणा करने वालों का कुछ नियम स्पष्ट रूप से बनाकर सभा की पुस्तक में लिपि बद्ध करना चाहिये। यह असहयोग पूर्णतया न्याय नीति के विरूद्ध अधर्म है। दान की 2. आयोजन में बोलियों के पूर्व प्रतिदिन यह घोषणा करनी स्वीकृत राशि धर्मायतन की अमानत धरोहर हो जाती है। उसे अपने चाहिये कि बोली एवं दान की घोषित राशि एक माह के अन्दर पास रखना महादोष है। शीघ्रताशीघ्र उसे दे देना ही परम उचित भुगतान करना पड़ेगा। कर्तव्य है। देने में विलम्ब करने से हो सकता है कि कालान्तर में 3. विलम्ब से देने वाले को बोली के लेने के दिन से देने की क्षमता ही नहीं रहे अथवा दान की स्वीकृति देने वाले का प्रचलित कर्ज पर लगने वाले ब्याज की बैंक की दर से चक्रवृद्धि ही देहावसान हो जाय।। उत्तरीधिकारी निषेध कर सकते हैं । बोली रूप से लगेगा। लेने वाले महाशय के सिर पर इस कर्ज का पाप-चढ़ेगा। यह 4. पूर्व की बोली/घोषणा की राशि नहीं देने वाले को धर्मायतन के धन का कर्ज है। वे व्यक्ति विशेष यदि बोली नहीं लेते परवर्ती आयोजन में बोली नहीं लेने दी जायेगी। तो अन्य कोई समयपर भुगतान करने वाले सज्जन पुरुष बोली लेते 5. एकवर्ष से अधिक विलम्ब करने वाले के व्यक्तिगत तो फिर सभी कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाते। समाज में सामाजिक/धार्मिक/विवाह, गृह प्रवेश, जन्मोत्सव, प्रतिष्ठान, समस्याएँ नहीं बन पाते ये धार्मिक महा प्रभावनाकारी आयोजन। उदघाटन, कार्यशाला/फेक्टरी उद्घाटन, भोज, इत्यादि आयोजनों स्वयं तो घाषित राशि देते नहीं, दूसरे को बोली लेने दिया | में समाज का पूर्णतया अघोषित मौन असहयोग रहेगा। नहीं यह विघ्न डालना भी अन्तराय कर्म का बंध कराता है। यह | 6. दो वर्ष के पश्चात ऐसे अक्षम व्यक्त्यिों के नाम की अन्याय एवं अनीतिपूर्ण कार्य है जिसका फल पदाधिकारियों को | तालिका मंदिरजी में प्रदर्शित कर दी जायेगी। भुगतान मांगने वालों के समक्ष लज्जित-अपदस्थ अपमानित भी बाहर के दानदाताओं को इन नियमों की जानकारी बोली होना पड़ता है। गैर समाज के बीच अपनी समाज बदनाम होती है। बोलने के पूर्व दे दी जानी चाहिये। इस बात का डर-भय शंका भी बोली बोलते समय समाज के गणमान्य व्यक्ति परस्पर में नहीं करनी चाहिए कि ऐसी घोषणा से बोलियों की राशि कम स्पर्धा एवं मान अभिमान के वशीभूत होकर शक्ति सामर्थ से अधिक आयेगी। बोली बोलकर नहीं देने वालों के स्थान पर भक्ति श्रद्धा बोली बोल तो देते हैं पर राशि को देने में कष्ट होता है। यह सम्पन्न यथा समय भुगतान करने वाले योग्य साहूकार व्यक्ति को अविवेक उनका सर्वनाश का कारण भी बन सकता है। सोच समझ ही आयोजन में सम्मिलित होने के पद को प्राप्त करने का समीचीन कर बोलना चाहिये बाद में घोषित राशि नहीं देने से भी तो समाज | अधिकार होना चाहिए। समाज के गणमान्य एवं विद्वान व्यक्तियों में उनका मान सम्मान आघात को प्राप्त होता ही है। को भी इस समाधान हेतु अपनी लेखनी के द्वारा मार्गदर्शन देना अनेक तीर्थक्षेत्रों में अनुपलब्ध घोषित राशि बड़ी-बड़ी । चाहिये। कोई भूल हुई होतो क्षमा करें। -नवम्बर 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणाचार में एकलविहार का निषेध डॉ. श्रेयांस कुमार जैन श्रमण परम्परा में श्रमण (साधु) जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना आत्मना पञ्चमः श्रेयान् चतुर्भिस्त्रिभिरेव च। है। श्रमण के हृदय में लोकहित की भव्य-भावना सतत रहती है समं गच्छन् यतिर्गच्छ गणनीयो न चापरः।। किन्तु वह लोकहित के नाम पर अपना आध्यात्मिक विकास कभी नीतिसारग ५५ भी अवरूद्ध नहीं करता है। लोकहित और आत्महित इन दोनों में संघ में चलता हुआ अपने साथ-साथ पांच अथवा चार या से प्राथमिकता किसे दी जाये यह प्रश्न समुत्पन्न होने पर वह पहले तीन साधुओं को लेकर विहार करें यही साधु के लिये श्रेष्ठ है । साधु आत्महित को प्राथमिकता देता है। यही कारण है कि आचार्य श्री | के एकल विहार करने से जो भयंकर हानियाँ होती हैं उन्हीं को कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमण को परहित की अपेक्षा आत्महित करने बताते हुए साधुओं की आचारसंहिता मूलाचार के समाचार विधि की बात कही है अधिकार में कहा हैआदहिदं कादव्वं जं सक्कड़ परहिदं च कादव्वं । गुरु परिवादो सुदवुच्छेदोतित्थस्स मइलणा जडदा। आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुटठु कादव्वा॥ भिंभल कुसीलपासत्थदायउस्सारकप्पम्हिाला॥१५१॥ आत्महित करना चाहिए जितना शक्य हो परहित भी करना एकल विहार करने पर गुरु की निन्दा होती है, श्रुत का चाहिए आत्महित और परहित में आत्महित विशेष रूप से करना विच्छेद होता है। जिनशासन में मलिनता आती है, जड़ता, व्याकुलता, चाहिए। कुशीलपना, पार्श्वस्थता आती है। वह जहाँ भी जाता है, वहाँ आत्महितेच्छु श्रमण जिनेन्द्र आज्ञा को अक्षरशः स्वीकार कलह, विसंवाद आदि अशांति के कारण उपस्थित कर देता है। इस करता है जिनेन्द्र भगवान ने श्रमणाचार वर्णन में पञ्चमकाल के विषय में आचार्य सकलकीर्ति का कहना हैश्रमण (साधु) को अकेले विहार करने का निषेध किया है। जिनेन्द्र स्वेच्छावासविहारादिकृतामेकाकिनां भुवि। प्रभु की दिव्यध्वनि के आश्रय से आरातीय आचार्यों ने शास्त्रों की हीयन्ते सद्गुणानित्यं बर्द्धन्ते दोषकोटयः।। मूलाचार प्र. २२२४ रचना की है उन्हीं शास्त्रों के आधार पर एकल विहार के सम्बन्ध जो मुनि अकेले ही अपनी इच्छानुसार चाहे जहाँ निवास में लिखा जा रहा है करते हैं, चाहे जहाँ विहार करते हैं, उनके सभी सद्गुण नष्ट हो जाते सच्छंगदागदीसयण णिसयणभिक्खवोसरणो। हैं और करोड़ों दोष प्रतिदिन बढ़ते रहते हैं। सच्छंदजंपरोचि य मा सत्तू वि एगागी॥ एकल विहारी स्वच्छन्दवृत्ति हो जाते हैं, उनका लौकैषणा (मूलाचार समा. १५०) जो साधु शयन, आसन, आदान, भिक्षा और व्युत्सर्ग (मलमूत्र में पड़ जाना स्वाभाविक है। ख्याति के लिये जो कार्य साधु को का त्याग) करते समय स्वच्छन्द गमनागमन करता है तथा जिसकी कभी नहीं करना चाहिए, वह कार्य प्रायः अकेले विहार करनेवालों रूचि स्वेच्छापूर्वक भाषण करने की रहती है, ऐसा साधु मेरा शत्रु में देखने को मिल रहे हैं। अकेले विहार करने वाले द्वारा गुर्वाज्ञा भी हो तो भी अकेला विचरण न करे। यह पञ्चम काल मिथ्यादृष्टियों का उल्लंघन होता है। ज्ञान के प्रति अविनय होती है। ज्ञानावरण कर्म और दुष्टों से भरा हुआ है तथा इस काल में जो मुनि होते हैं, वे हीन का विशेष आस्रव करता है। अपनी समाधि और सम्यग्दर्शन का संहनन को धारण करने वाले शक्तिहीन और चंचल स्वभाव वाले नाश करता है, गुरु शिष्य में कलह उत्पन्न करता है। अनेक होते हैं। इन मुनियों को पंचम काल में दो, तीन, चार आदि की । रोगादिक ग्रस्त होकर इष्टवियोग जन्य दुःख को सहन करना पड़ता संख्या के समुदाय से ही निवास करना, समुदाय से विहार करना है इसलिए वर्तमान के साधकों में एकल साधना को न स्वीकार कर और समुदाय से ही कायोत्सर्ग आदि करना कल्याणकारी है। | सामूहिक साधना को महत्त्व दिया गया है। अपरिग्रह, दया तथा एकांकी विहार करने वालों के व्रतादिक स्वप्न में भी कभी निर्विघ्र करुणा और मैत्री की साधना संघीय परम्परा में ही पुष्पित और नहीं पल सकते, उनके मन की शुद्धि भी नहीं हो सकती और उनकी | पल्लवित होती है। दीक्षा कभी निष्कलंक नहीं रह सकती है। इन सब बातों को | तीर्थङ्कर परमदेव की इस आज्ञा का उल्लंघन कर जो अकेले समझकर मुनियों को अपने विहार, निवास व योग धारण आदि विहार व निवास आदि करते हैं, सम्यग्दर्शन से रहित समझना समस्त कार्य निर्विघ्न पूर्ण करने के लिए तथा उनके शुद्ध रखने के | चाहिए। एकलविहारी मुनियों के सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र नष्ट हो लिए संघ के साथ ही विहार आदि समस्त कार्य करने चाहिए, जाते हैं । इस लोक में उनका कलंक दुस्त्याज्य हो जाता है और पदअकेले नहीं। जैसा कि कहा गया है पद पर उनका अपमान होता है। भगवान् सर्वज्ञ देव की आज्ञा का उल्लंघन करने रूप महापाप 8 नवम्बर 2003 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से वे साधु परलोक में भी नरकादिक दुर्गतियों में चिरकाल तक महा। प्रतिक्रमण क्रियाओं में गुरुवन्दना और देववन्दना आदि ये साथ ही घोर दुःखों के साथ परिभ्रमण किया करते हैं। अकेले विहार करने मिलकर करना चाहिए। (मूलाचार ५/१७) वाले मुनियों की ऐहलौकिक और पारलौकिक हानि होती है। साधु की क्रियाओं पर विचार करते हुए श्री इन्द्रनन्दी ने यही आचार्य वीरनन्दी ने भी लिखा है कहा हैश्रुतसंतानविच्छित्तिरनवस्थायमक्षयः। मुखशुदिं न कुर्वन्ति नोपश्यि च भोजनम्। आज्ञाभंगश्च दुष्कीर्तिस्तीर्थस्य स्याद् गुरोरपि। संघेन सह कुर्वन्ति नापेक्षन्ते च किञ्चन ॥ नीतिसार ९६ अग्नितोयगराजीर्णसर्पक्रूरादिभि क्षयः। महाव्रती दिगम्बर साधु दातुन नहीं करते हैं, बैठकर भोजन स्वस्थाप्या दिकादेकविहारेऽनुचिते यतः॥३०॥ | नहीं करते हैं और संघ के साथ विहार करते हैं, अर्थात् एकाकी आचारसार अधि. २ | विहार नहीं करते हैं दूसरों की सहायता नहीं चाहते हैं। मुनि के अकेले विहार करने से शास्त्रज्ञान की परम्परा का वर्तमान साधु संस्था उक्त आगम के कथनों की उपेक्षा कर नाश हो जाता है । मुनि अवस्था का नाश हो जाता है, व्रतों का नाश | रही है इससे भी अधिक सम्प्रति यह भी देखने में आ रहा है कि हो जाता है, शास्त्र की आज्ञा का भंग होता है, तीर्थ की अपकीर्ति अकेला साधु और अकेली आर्यिका विहार कर रहे हैं और रात्रि में होती है, गुरु की भी अपकीर्ति होती है। अग्नि, जल, विष, अजीर्ण, एक ही धर्मशाला या मंदिर में ठहर रहे हैं। समाज में आगम की सर्प और दुष्ट लोगों से तथा और भी ऐसे ही अनेक कारणों से अपना मर्यादा की सोच तो समाप्त हो ही गई। साधु शास्त्रों को जानते/पढ़ते नाश हो जाता है अथवा आर्तध्यान, रौद्रध्यान और अशुभ परिणामों हुए भी उनकी खुले आम मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं। अकेली से अपना नाश हो जाता है। इस प्रकार अनुचित अकेले विहार करने आर्यिका के साथ रहने और विहार की बात तो दूर रही मात्र आगम में इतने अधिक दोष इकट्ठे कर लेता है। जिनका उल्लेख मूलाचार विषयक शंका समाधान हेतु आर्यिका मुनि के पास कैसे जावे, मुनि के समाचाराधिकार की गाथा संख्या १५१ की टीका करते हुए | किस प्रकार आर्यिका के प्रश्न का समाधान करे इस विषय में आचार्य वसुनन्दी जी भी करते हैं-'मुनिकाकिना | आचार्य सकलकीर्ति का कथन दृष्टव्य हैविहरमाणेन गुरुपरिभवश्रुतव्युच्छेदा: तीर्थमलिनत्वजडता कृता भविन्त 'यदि कोई अकेली आर्यिका अकेले मुनि से शास्त्र के भी तथा विह्वलत्व कुशीलत्वपार्श्वत्वानि कृतानीति' मुनि के एकल विहार प्रश्न करें, तो उन अकेले संयमी मुनि को अपनी शुद्धि बनाये रखने से गुरु की निन्दा होती है अर्थात् लोग कहते सुने जाते हैं कि जिस के लिए कभी उसका उत्तर नहीं देना चाहिए। (मू.प्र.श्लोक२२) गुरु ने इनको दीक्षा दी है, वह गुरु भी ऐसा ही होगा। श्रुतज्ञान का यह वह आर्यिका अपनी गुरुणी (गणिनी)' को आगे करके कोई अध्ययन बंद होने से श्रुत/आगम का व्युच्छेद होगा। तीर्थ मलिन प्रश्न करे, तो अकेले संयमी मुनि को उस सूत्र का अर्थ समझा देना होगा। अर्थात् जैन मुनि ऐसे ही हुआ करते हैं, इस प्रकार तीर्थमलिन चाहिए। (मू.प्र.) होगा। जैन मुनि मूर्ख, आकु| त, कुशील, पार्श्वस्थ होते हैं ऐसा कोई तरुण श्रेष्ठ मुनि किसी तरुणी आर्यिका के साथ कथा लोगों के द्वारा दूषण किया जायेगा, जिससे धर्म की अप्रभावना या बातचीत करें तो उसको नीचे लिखे पांचों दोष लगते हैंहोगी। इतना ही नहीं और भी विपत्तियाँ अपने ऊपर ले लेता है जैसा (१) जिनाज्ञा भंग कि कहा है (२) जिनशासन अप्रभावना कंटयखण्णुयपडिणिय साण गोणादि सप्पयेच्छेहि। (३) मिथ्यात्व की आराधना पावइ आदविवत्ती विसेण च विसूइया चेव॥ (४) व्रत भंग मूलाचार १५२ (५) संयम की विराधना कांटे, ढूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गौ आदि तथा सर्प और स्त्री का संसर्ग किस प्रकार से मनुष्य को संयम से च्युत कर म्लेच्छ जनों से अथवा विष से और अजीर्ण आदि रोगों से अपने देता है, इसका विचार करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है- जो आप में विपत्ति को प्राप्त कर लेता है। तपश्चरण में तत्पर हैं, व्रतों का परिपालन करता है, मौन को धारण इसी संदर्भ में और भी कहा है करता है, सावद्य प्रवृत्ति से रहित है तथा इन्द्रियों को वश में रखता दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तथसिक्कलोहेण। है, वह भी निर्भय होकर स्त्री के अनुराग से संयम को कलंकित कर असमाहिमसज्झायं कलह वाहिं वियोगं च ॥मूला. १७१ डालता है। तपस्वियों के संयम आदि गुण सर्वत्र वृद्धि को प्राप्त होते यदि सूत्र के अर्थ की शिक्षा के लोभ से द्रव्य, क्षेत्र आदि हैं परन्तु स्त्री के संयोग को पाकर वे क्षण भर में ही नष्ट हो जाते हैं। का उल्लंघन करता है तो वह समाधि, अस्वाध्याय, कलह, रोग मुनि स्थिरता, श्रुत, शील और कुल की परम्परा को तब तक ही और वियोग को प्राप्त करता है। धारण करता है, जब तक कि वह अन्यत्र स्त्री के नेत्रों रूप बन्धन आचार्यवर्य प्रतिक्रमण की भी क्रियाएँ अकेले करने का | से नहीं रोका जाता है। निषेध करते हैं- दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक । अकेली स्त्री के साथ में वार्ता का भी निषेध किया है। नवम्बर 2003 जिनभाषित १ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य और मुनियों को अर्यिकाओं के साथ विहार का भी निषेध | जिस प्रकार पित्त ज्वर वाले मनुष्य को शर्करा सहित दूध - है। इस विषय में इन्द्रनंदि कथन इस प्रकार है - श्रेष्ठ मुनियों को अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार स्वच्छन्द वृत्ति/इन्द्रिय विषय सेवी आर्यिकाओं के साथ मार्ग में गमन नहीं करना चाहिए क्यों कि | के लिए गुरु के वचन भी हितकर नहीं लगते हैं। चतुर्थकाल में भी आर्यिकाओं की संगति में बहुत यतिराज दु:ख के | एकल विहारी साधु कोठियों/बंगलों में ठहरने लगे हैं। अब भाजन हुए हैं और अपकीर्ति के भाजन बने हैं। धर्मायतन असुविधा युक्त कहकर ठहरने योग्य नहीं मानकर अकेला कतिपय मुनि और आर्यिकाओं द्वारा मंत्र-तंत्र दिये जा रहे | साधु सेठ/साहूकार को उपकृत करने के लिए उसके घर में ही रात्रि हैं, वही उनके सेवा कराने के माध्यम हैं अपनी सेवा कराने की इस | विश्राम कर रहा है जबकि आचार्यों ने श्रावक के घर में रात्रि विश्राम प्रकार की वृत्ति को अपनाकर आचार्यों की आज्ञा का उल्लंघन पूर्ण | का सर्वथा निषेध किया है। रूप से किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने स्पष्ट लिखा है जैसा कि इन्द्रनन्दि लिखते हैंउच्चैरध्ययनं संगीतं पठनं मुंचेदबुधो हास्यतां, श्रमणः श्राविकानां निवासे निशि न स्वपेत्। स्वावासस्थितिभंग वीक्षण सहालापांगसंस्पर्शनम्। चित्रकारापि योषा यच्चित्तविभ्रमकारणम्।। नीतिसार स्त्रीभिस्तत्सुललानं बहुपुरो जायापति प्रस्तुतिं, श्रमण श्राविका आदि के निवास में रात्रि में शयन न करे होरा मंत्र निमित्त भैषज चित्त द्रव्यांगं सम्पोषणम्॥ | क्योंकि चित्र में अंकित स्त्रियों का आकार भी चित्त में कामवासना - गुरु के सामने चिल्लाकर पढ़ना, गाकर पढ़ना, यह उचित नहीं | उत्पन्न होने का कारण है। है। स्त्रियों के आवास में रहना, उनके सुन्दर अंगों को देखना, उनके आचार्य सकलकीर्ति ने स्पष्ट लिखा हैसाथ संभाषण व अंग स्पर्शन करना, उन स्त्रियों के पुत्रों को खिलाना, स्थितिस्थानविहारादीन-समुदायेन संयताः। स्त्रियों की प्रशंसा करना, ज्योतिष, मंत्र औषधि इत्यादि द्रव्य के कुर्वन्तु स्वगुणादीनां वृद्धये विधहानये॥२२३५ ।मू.प्र. साधनों से उनका पोषण करना यह मुनियों को सर्वथा वर्ण्य है। मुनियों को अपने गुणों की वृद्धि करने के लिए तथा विघ्नों एकल विहार करने वाले मुनि को धर्म की सबसे बड़ी हानि | को शान्त करने के लिए अपना निवास व विहार आदि सब समुदाय करने वाला सिद्ध किया है जैसा कि आचार्य वट्टकेर का कहना है | | के साथ ही करना चाहिए अर्थात् अकेले न रहना चाहिए और न कि एकाकी विहार करने वाले के अनेक पाप स्थान होते हैं- । विहार करना चाहिए। आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य। जब किसी एकल विहारी मुनि महाराज से निवेदन किया संजम विराहणा वियएदे दुणिकाइयाठाणा।।मूला.१५४ | जाता है कि अकेले विहार/निवास करने से आपकी चर्या में दोष अर्थात् एकाकी रहने वाले के आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था, | लगता है, तब वह तुरन्त बोलते हैं कि आगम में भी अकेले विहार मिथ्यात्व का सेवन, आत्मनाश और संयम की विराधना ये पांच पाप | की आज्ञा है । इस प्रकार कहते समय वह इस बात को बिल्कुल भी स्थान माने गये हैं। सर्वज्ञदेव की आज्ञा का उल्लंघन सबसे बड़ा दोष | ध्यान में नहीं लाते हैं कि किन मुनिराज को अकेले विहार/आवास है। अकेले विहार करने वाले को गुरु भी नहीं माना गया है जैसा आदि की आज्ञा आगम देता है, जिनको आगम में एकलविहारी कि श्री इन्द्रनन्दिसूरि लिखते हैं बनने की अनुमति प्रदान की गयी है, वे जिन विशिष्ट गुणों के धारी यो यो गुणाधिको मूल गुणगच्छाद्यलंकृतः। होते हैं । वह गुण इस पंचम काल के ही संहननधारी साधक में नहीं सर्वोप्युच्यते जैने: गुरुरित्युज्झितस्मयैः।। पाये जाते हैं और वर्तमान में एकलविहार करने वाले और उसका नीतिसार समुच्चय ८५ | समर्थन करने वालों में वह योग्यता बिल्कुल भी नहीं है, जिस जो मुनि गुणाधिक हैं अर्थात् ज्ञानध्यान, चारित्र आदि गुणों योग्यता वाले मुनि महाराज को अकेले विहार की आज्ञा जैनाचार्यों में श्रेष्ठ हैं, मूलसंघ के गण और गच्छ से अलंकृत हैं, वह निरभिमानी ने विशेष परिस्थिति और गुणों की अपेक्षा प्रदान की है। आगम के श्रावक के द्वारा गुरु कहे गये हैं। आलोक में उन संदर्भो को भी देखिए, जिनमें अकेले विहार करने यहाँ उसी साधु को गुरु मानने को कहा है, जो गण और | का उल्लेख है। गच्छ में रहते हैं। तीन साधुओं के समूह को गण कहते हैं और सात | आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार के समाचार अधिकार में लिखा साधओं के समूह को गच्छ कहते हैं। आदि कहने से बहुत से | है कि कौन मनि महाराज अकेले विहार कर सकते हैंसाधुओं के समूह का भी ग्रहण होता है। तवसुत्तसत्तएगत्त भाव संघहणधिदिसमग्गो य। अकेले विहार करने पर स्वच्छन्दता आ जाती है और पविआ आगमवलियो एयविहारी अणुण्णादो॥२८॥ स्वच्छन्द वृत्ति वाले मुनि को गुरु और शास्त्र के वचन रुचिकर नहीं तप सूत्र, सत्त्व, एकत्त्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे लगते हैं परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी हो सकता है। न तस्मै रोचते सेव्यं गुरुणां वचनं हितम्। इस गाथा में स्पष्ट ध्वनित है कि जो उत्तमसंहनन वाला हो, तपोवृद्ध स शर्करमिवक्षीरं पित्ताकुलित चेतसे ॥३ नीतिसार । और ज्ञानावृद्ध हो, आचार पालन और सिद्धान्त जानने में चतुर हो, 10 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही अकेले विहार करने का अधिकारी है ये विशेषताएँ पंचम काल के मुनि में पाया जाना शक्य नहीं है। यही कारण है कि इन्हीं वट्टेकर आचार्य ने लिखा है कि मेरा शत्रु भी पंचमकाल में अकेले विहार न करे। एकल विहार करने के अधिकारी मुनि के विषय में आचार्य वीरनन्दी का भी यही कहना है ज्ञानसंहननस्वांत भावनाबलवन्मुनेः । चिरप्रव्रजितस्यैक विहारस्तु मतः श्रुतै ॥ एतद्गुणगणापेत स्वेच्छाचारतः पुमान्। यस्तस्यैकाकिना माभून्यम जातुरिपोरपि २७, २८ ॥ अधि. २ आचार बहुत काल के दीक्षित, ज्ञान, संहनन स्वान्तभावना से बलशाली मुनि के एकाकी विहार करना शास्त्रों में माना है परन्तु जो इन गुणों के समूह से रहित स्वेच्छाचार में रत पुरुष है, उस मेरे शुत्र के भी एकाकी बिहार कभी न हो। जन्म-जन्म के पुण्यफल, पाया 'मानव' जन्म 'ओस-बिन्दु' जीवन विमल, पुरुषारथ आजन्म । 'जीवन बिन्दु' जीवन शोभित 'बिन्दु' सा नन्हा निर्मल रूप, इसे सहेज सँभाल ले, पाना भव्य स्वरूप । 'जीवन बिन्दु' गिर गया, 'गर्म तवा' सम भोग, स्वयं नसा अदृश्य हुआ, बना न कोई जोग भव विषयन की तृप्ति को, लगा रहा कर यत्न, नर काया 'चिन्तामणी' नष्ट हो गया रत्न | यदि जीवन की बिन्दु शुचि, पड़ी पयज के 'पत्र' ओसबिन्दु मुक्ता दिखे, कीने कृत्य पवित्र । मूलाचार प्रदीप में भी एकल विहार करने वाले साधक की योग्यता के विषय में ऐसा ही लिखा है 'जो मुनि अत्यन्त उत्कृष्ट होने के कारण ग्यारह अंग और चौदह पूर्व पाठन्ति हैं श्रेष्ठवीर्य, श्रेष्ठधैर्य और श्रेष्ठ शक्तियों को धारण करने वाले है। बलवान हैं, जो सदा एकत्व भावना में तत्पर रहते हैं। शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो जितेन्द्रिय हैं, चिरकाल के दीक्षित हैं, बुद्धिमान हैं, समस्त परीयों को जीतने वाले हैं तथा और भी अन्य गुणों से सुशोभित हैं' (५४- ५६ - आ.) उक्त उद्धरणों के अवलोकन से यह तो स्पष्ट है कि आगम में इस दुषम पञ्चम काल के मुनि आर्यिका का अकेले विहार करने की आज्ञा नहीं दी है। मुनियों और आर्यिकाओं से विनम्र अनुरोध है कि संघ में ही विहार करें जिससे आत्मप्रभावना के साथ जिनमत की प्रभावना हो । 24/32, गाँधी रोड, बड़ौत (उ. प्र. ) डॉ. विमला जैन 'विमल' धर्म-अर्थ अरु काम शुचि, पुरुषार्थ किये सिद्धि स्व-पर के उपकार से, यश आभा में वृद्धि । बिन्दु पड़ा यदि 'सीप' में, बनता 'मुक्ता' भव्य, किया मोक्ष पुरूषार्थ नर, सुधर गया भवितव्य । चारित्र की सीपी पड़ा रत्नत्रय अमिताभ, बना शिवम् स्व-बिन्दु को, नर जीवन का लाभ । मनुज तिराहे पर खड़ा, एक पथिक पथ तीन, मत अस्तित्व समाप्त कर, सम्यक् पथ हो लीन। चारित्ररूपी सीप में, करले 'विमल' प्रवेश बहु त्रिलोक के पूज्यतम, बिन्दु से मुक्तेश । फिजोराबाद उ.प्र. नवम्बर 2003 जिनभाषित 11 . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरभिमानिता डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन अनंत संसार में जितनी भी जीव राशि पाई जाती है वह | बदला लेने की प्रवृत्ति से अपने को बचा लेता है। निरहंकारी सब उसके कर्मों का प्रतिफल है। कर्म सदा एक से नहीं रहते। व्यक्ति विनाश में नहीं सृजन में विश्वास रखता है। दुनियाँ के लोगों जीव यदि चाहे तो जीवन में व्यापक परिवर्तन कर सकता है। से अलग रहकर यथार्थ के धरातल पर जीता है। वह यथार्थ का परिवर्तन प्रकृति का नियम है और शाश्वत सत्य भी। परिवर्तन की धरातल है अहंकार से कोशों दूर रहना। एक व्यक्ति ने एक स्थान यात्रा जब धर्म का सान्निध्य पाकर आगे बढ़ती है तब विकास के | पर बहुत बड़ा मंदिर बनवाया और सभी से कहता कि ये मंदिर रास्ते अपने आप खुलते जाते हैं और कर्माधीन आत्मा स्वाधीन मैंने बनवाया है। एक अन्य व्यक्ति ने भी मंदिर बनवाया और उस होती जाती है। धर्म का सद्भाव पाकर यह जीव क्रोध, मान, माया पर कलश चढ़ाने की बात आती है तो कहता है कि अब मेरे पास और लोभादि का नाश कर जीवन में व्यापक परिवर्तन लाकर | धनराशि नहीं बची है इसीलिए में कलश नहीं चढ़ा सकता। अत: आत्मस्थ होता है। धर्म का एक रूप प्रकट होता है- मृदुता के रूप | समाज मिलकर यह कार्य कराये। ऐसी परिस्थिति में एक उच्छंखल में। मृदुता या कोमलता के भाव से जीवन में सरलता आती है। व्यक्ति उससे कहता है कि फिर मंदिर आपका नहीं कहलायेगा, जीवन में कोमलता या सरलता का आना, इसी को कहते हैं तब वह व्यक्ति कहता है कि मंदिर मेरा कहाँ है। मेरा तो घर है। निरभिमानता। मंदिर तो वह कहलाता है जहाँ परमात्मा का वास होता है। मैं __निरभिमानता आत्मा का सर्वोत्कृष्ट गुण है। गुणग्राही व्यक्ति परमात्मा नहीं हूँ फिर मेरा मंदिर कैसा। यही तो विवेक बुद्धि है। इसे अवश्य ग्रहण करता है। निरभिमानता से जीवन में सत्यं शिवं] एक व्यक्ति मंदिर को अपना मानता है एक व्यक्ति मंदिर बनवाने ओर सुन्दरं की भावना साकार होती है। जहाँ अहंकार होता है वहाँ के बाद भी अपना न मानकर उसे परमात्मा का मानता है। जो निरभिमानता का भाव जाग्रत नहीं हो सकता। जैसे अंधकार और व्यक्ति मंदिर को अपना मानता है वह अहंकारी है जो व्यक्ति मंदिर प्रकाश साथ-साथ नहीं रह सकते वैसे ही अहंकार और निरभिमानता | को अपना न मानकर परमात्मा का मानता है वह निरहंकारी है। साथ-साथ नहीं रह सकती। सरलता, विनम्रता, मासूमियत् और | जो व्यक्ति मंदिर को अपना मानता है वह बाह्य दृष्टि वाला है जो संवेदनशीलता जहाँ होती है वहाँ निरभिमानता पाई जाती है। मंदिर को अपना नहीं मानकर परमात्मा का मानता है उसकी दृष्टि निरभिमानी व्यक्ति सिर्फ अन्तर्मन को टटोलता रहता है। अन्तरंग | अन्तर्मुखी है। हम सभी को अन्तर्मुखी बनना है तो अहंकार छोड़ना को इतना निर्मल रखता है कि ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, | होगा। इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करना होगा कि संसार का तप और शरीर सौन्दर्य का अहंकार नहीं करता क्योंकि वह जानता | कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है। परवस्तु आत्म सुख का साधन नहीं है कि अहंकार के मूल में स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ | हो सकती क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायें संसार में भटकाने समझने की दुष्प्रवृत्ति कार्य करती है। जिस व्यक्ति में हीनता और | वाली हैं। मकान, जमीन, जायदाद, पुत्र, कलत्र आदि के संयोग कमजोरी होती है उसमें अहंकार की भावना बलवती होती है। क्षणिक हैं इनसे आत्मा की स्वतन्त्रता बाधित होती है, विकास की अहंकारी यह सोचता है कि मैं ही सब कुछ हूँ निरभिमानी सोचता यात्रा रुकती है। अत: ऐसी चीजों पर अहंकार क्यों करना परवस्तु है मैं कुछ भी नहीं हूँ मैं तो सिर्फ पंच परावर्तन भूत क्रिया का | पर अहंकार दुःख का कारण है। अतः हमें कभी भी परवस्तु पर पुतला हूँ। अहंकारी व्यक्ति ईर्ष्या, अहं, स्वार्थ, घृणा, अविश्वास | अहंकार नहीं करना चाहिए। मनुष्य जीवन के साथ जितना भी की दीवारें बनाता है जबकि निरभिमानी सत्य और अहिंसा का संयोग है वह हमें अहंकारी तो बना सकता है मार्दव की मृदुता को अवलंवन लेकर निरन्तर विकास के मार्ग पर बढ़ता हुआ आत्मा | प्रकट नहीं करा सकता, निरहंकारी नहीं करा सकता। अतः के सत् रूप को साक्षात् देखता है। निरभिमानी व्यक्ति विपरीत निरभिमानिता के लिए हमें निरंतर क्रोध, मान आदि का त्याग परिस्थिति में भी घबड़ाता नहीं है। सूनापन उसके लिए अच्छा करना चाहिए ताकि शांति और समृद्धि की प्राप्ति हो और जीवन लगता है। एकान्त प्रिय वह बन जाता है। सांसारिक तत्त्वों में रुचि का प्रत्येक कार्य हमारे आत्म विकास का साधन बने। यह सभी नहीं रखता है। मन, वचन और काय से ऐसी क्रिया करता है कि | लोगों की भावना होना चाहिए। आत्मा का विकास ही होता है। तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के उकसावे ए-27, न्यू नर्मदा विहार सनावद (म.प्र.) पर भी वह आत्म शक्ति के बल पर अपने आप को रोक लेता है।। 12 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या कुंडलगिरि (दमोह-म.प्र.) बड़े बाबा का मूल स्थान है? ब्र. अमरचंद जैन, एम.ए. जनश्रुतियों, प्राप्त पुरातन लेखों एवं गजेटियर्स के अनुसार । स्थापित की गईं तथा प्रांगण का स्वरूप दिया गया- परकोटे की ऐसा लगता है कि बड़े बाबा अन्यत्र से आकर यहाँ स्थापित हुए | दीवालों पर आर्च सहित खांचे बनाकर भी मूर्तियाँ (अवशेष) हैं। मंदिर की आंतरिक एवं वाह्य संरचना इस आधार को इन्कार | रखा दिये गये थे। करती है कि बड़े बाबा तथा पार्श्वनाथ भगवान की दोनों ओर इस तरह इन तीन असंप्रक्त दीवालों पर खड़े बड़े बाबा के मूर्तियाँ जिस स्थान पर मंदिर बना है वहाँ मूलरूप से प्रतिष्ठापित | मंदिर की सृदृढ़ता का आप अंदाज लगा सकते हैं गर्भगृह में प्रवेश हुई होंगी। अत: पूर्व में कुण्डलगिरि के संबंध में लिखा इतिहास | द्वार की 9.5 फुट मोटी दीवालें तथा शिखर के भीतरी तरफ शिखर कथायें-लेख पर आश्रित हम यह विश्वास करते हैं- हमारी धारणा | की पोल इस संरचना को सावित करते रहे कि कमजोर हो रहे इस को बल मिलता है कि बड़े बाबा का मूल स्थान कुंडलगिरि पर | ढांचे में बड़े बाबा को कब तक सुरक्षित रखा जा सकता है। विराजमान मंदिर में नहीं था। कुंडलपुर तीर्थ क्षेत्र कमेटी के पूर्व अध्यक्ष स्व. श्री वहाँ प्राप्त शिल्पावशेष, शिलापट्ट पर उकेरी गई अनेकानेक | प्रकाशचन्द्र जी एडवोकेट (दमोह) ने शिखरों की पोल से कबूतर तीर्थंकर मूर्तियाँ, शासन देवी देवताओं की उत्कीर्ण की गई मूर्तियाँ- के अण्डे, मरे कबूतर तथा गंदगी साफ कराई थी तथा उन्होंने पीठिका बेदी सिंहासन तथा गर्भालय की तीनों ओर दीवाल पर | मंदिर की संरचना का पूरा-पूरा व्यौरा भी प्रकाशित कराया था। चिपकाये शिलापट्ट जिसमें तीर्थंकर मूर्तियों को उकेरा गया है उपरोक्त से सिद्ध है कि और जहाँ तहाँ जैसा जितना स्थान रिक्त मिला उसी अनुसार लगा बड़े बाबा की मूर्ति का मूलस्थान कुण्डलगिरि पर्वत पर दिये गये हैं (उनकी पूज्यता कायम रखने के निमित्त) कुछ शिल्प | नहीं था तथा बनाया गया मंदिर कमजोर होता जा रहा है। के शिलाखंड इधर उधर मंदिरों में तथा मूर्तियाँ भी पर्वत के मंदिरों अब ध्वस्त मंदिर की कहानियों पर गौर करेंमें और तालाब के किनारे तलहटी में अभी भी स्थापित हैं। ऐसी आज सारे देश में जगह-जगह मूर्तियाँ-शिल्पावशेष एवं इस सब संरचना से यह बिलकुल निर्विवाद है कि बड़े बाबा की | ध्वस्थ-खंडहर मंदिर प्राप्त हो रहे हैं इनके कारणों पर भी विचार पुरातन मूर्ति अन्य स्थान से लाकर (या आकर) यहाँ बाद में मंदिर | करें क्यों? बनाया गया। आशा है पुरातत्व वेत्ता इससे सहमत होंगे। जंगलों-पर्वतों एवं वीहड़ों में, वीरान स्थानों में ये प्राप्त हैंयह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मंदिर-परिसर में पीछे | जनसाधारण का उक्त स्थानों से पलायन-व्यापार के लिए- नदियों की ओर चबूतरे पर असुरक्षित सैकड़ों मूर्तियाँ खण्डित तथा | की बाढ़ के कारण- भूकम्प से- डाकू चोरों के भय से मौसम की सांगोपांग-शिल्प अवशेष बहुत समय से पड़े थे। तलहटी में वैष्णवों | मार से। शासकों द्वारा तथा विधर्मियों द्वारा विद्वेष से मूर्तियों, द्वारा अंबिका की मूर्तिमंदिर भी इन अवशेषों का हिस्सा था? | मंदिरों को गिराने, नष्ट करने के कारण-मुगलों के शासन काल में संग्रहालय बनाने तथा शिल्पावशेष-मूर्तियों के सुरक्षित | मूर्तियों को ध्वस्त करने से। प्राकृतिक विपदाओं के साथ स्थानीय रखने की विधा उस समय प्रचलित नहीं थी, और समस्या उस समाज के सम्पन्न न होने के कारण भी कई स्थानों पर खंडहर समय रही होगी कि इतने बड़े बाबा तथा पार्श्वनाथ की मूर्तियों को मंदिर तथा मूर्तियाँ अभी भी असुरक्षित पड़ी हैं तथा मूर्ति तस्करों कैसे सुरक्षित तथा पूज्यता रखी जाये- अत: मंदिरनुमा शिखर युक्त का व्यापार अभी भी साथ-साथ फल फूल रहा है। प्रारंभ में एक ढांचा तैयार किया गया होगा .... समय की मार से इन्हीं किसी कारण से बड़े बाबा का मंदिर जो कुंडलगिरि इस मंदिर में कमजोरी देख नीचे से शिखर तक दीवाल उठाकर | पर्वत के पास अवस्थित था ढह गया-जनश्रुति के आधार पर मूर्ति एक और पर्त्त खड़ी की गई ....इसके अनन्तर जो भी कारण रहे हों | पटेरा ले जाई जा रही थी? पर कुण्डलगिरि पर्वत पर ही क्यों रूक तीसरी बार फिर गर्भगृह से लेकर ऊपर चोटी (शिखर) तक | गई? एक प्रश्न हैदीवाल फिर खड़ी कर दी गई। इस तरह इस मंदिर के वर्तमान . कुण्डलगिरि पर जहाँ यह मूर्ति स्थापित हुई थी वहाँ अंतिम स्वरूप की संरचना है जो प्रकाशित अन्यत्र साहित्य द्वारा भी श्रुतकवेली श्री श्रीधर केवली का निर्वाण स्थल था, वहाँ उनके प्रचारित किया गया है। और यह बात सत्य है कि गर्भगृह की पुरातन चरण स्थापित थे। अतः यह सिद्ध क्षेत्र भी कालांतर में दीवालें ऊपर से नीचे तक तीन असंप्रक्त दीवाल द्वारा खड़ी की घोषित हुआ। गई थीं। इस संबंध में एक प्रसंग और है कि चांदखेड़ी क्षेत्र पर इस मंदिर के चारों ओर परकोटे के भीतर गुमटियोंनुमा | भगवान ऋषभदेव की मनोज्ञ अद्भुत मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति कुछ छोटे-बड़े शिखरयुक्त मंदिरों में पुरातन एवं नई मूर्तियाँ भी । भी अन्य स्थान ले जाई जा रही थी पर वह नदी किनारे से आगे -नवम्बर 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों नहीं बढ़ी- मंदिर वहीं स्थापित किया गया तथा मुनि पुंगव । कुंडलपुर के आसपास ही निगाह घुमायें देखें। सतना, रीवा, पन्ना, १०८ सुधासागर जी महाराज ने वहाँ १००८ चन्द्रप्रभु तीर्थंकर की | पनागर, बहोरीबंद, जबलपुर, (हनुमानताल मंदिर) विलहरी आदि स्फटिक मणि की प्रतिमा प्रगटाई अब समझ में आया कि उस स्थानों पर नए मंदिर बनवा कर पुरानी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की स्थान का चांदखेड़ी नाम क्यों था- चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा | गई है। भूगर्भ से प्रगट की गई और चांदखेड़ी नाम सार्थक हुआ। पर वहाँ नोट:- विद्वानों एवं पुरातत्व वेत्ता इस मूल प्रश्न पर तथा अतिशययुक्त भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमा प्रस्थापित थी इस ध्वस्त मंदिरों के विषय पर प्रकाश डालने की कृपा करें। तरह भारतवर्ष में___ हजारों मंदिर ऐसे हैं जिनमें पुरातन प्रतिमा प्रतिष्ठित है- | श्री महावीर उदासीन आश्रम कुण्डलपुर (दमोह) बालवार्ता सबसे बड़ा काँटा डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' 'जब चाणक्य को काँटा लगा तो उसने सोचा कि यदि गुरुदेव ने उत्तर दिया- 'अपनी, क्योंकि दूसरे की मूर्खता इसी मार्ग से कोई और राहगीर निकला तो उसे भी काँटा लगेगा, | का शिकार भी हम अपनी मूर्खता के कारण बनते हैं। यदि हम इसलिए वह अपने घर गया और हाथ में कुदाल और एक घड़ा | मूर्ख नहीं हों और अपने विवेक को जागृत रखें तो कभी भी भर छाछ (मट्ठा) लेकर आया और कुदाल से उन काँटों की | नुकसान नहीं उठायेंगे।' गुरुदेव ने अपनी बात को पुष्ट करते हुए जड़ें खोदकर मट्ठा डालदिया ताकि वह काँटों का पेड़ सूख जाय। | नीतिकारों के इस मन्तव्य को स्पष्ट किया कि अपनी मूर्खता से इस प्रवृत्ति से पता चलता है कि वह शत्रु को जड़ से | लड़ना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। पुरुषार्थी चिन्तन करता है ही समाप्त कर देने का विश्वासी था।' कि___अनिकेत ने जब यह वृत्त पढ़ा तो वह सोचने लगा कि कः कालः कानि मित्राणि, 'जो किसी प्रकृति प्रदत्त वस्तु को मिटाने में विश्वास रखता है और को देवो, को व्ययागमो? तदनकल क्रिया करता है, वह प्रशंसा का पात्र क्यों? काँटा भी तो कश्चाहं, का च मम शक्ति, एक वनस्पति है। जब काँटा चुभ जाता है तो उसे निकालने के इति चिन्तय मुहुर्मुहुः॥ लिए काँटा ही काम आता है अत: यदि काँटा नुकसान पहुँचाता अर्थात् काल कौन-सा है? मेरे मित्र कौन लोग हैं? मेरा है तो उपकार भी करता है, उसे जड़ से उखाड़ देना ठीक नहीं।' | देश कौन सा है? मेरा आय और व्यय क्या है? मैं स्वयं क्या हूँ अनिकेत के लिए अब काँटा काँटे की तरह चुभने लगा। | और मेरी सामर्थ्य क्या है? इस प्रकार बार-बार चिन्तन करो। वह पता करना चाहता था कि काँटा जब बुरा नहीं, अच्छा भी | गुरुदेव का उक्त उत्तर सुनकर अनिकेत को लगा कि नहीं, अनुपयोगी भी है और उपयोगी भी, तब सबसे बड़ा काँटा | बिना चिन्तन के हम चिन्ताओं से मुक्त नहीं हो सकते। काँटा कौन है? एक दिन अनिकेत ने अपने गुरु से पूछा ... 'गुरुदेव! | कहीं और नहीं हमारे अन्दर है। जब हम विवेक को दबा लेते हैं सबसे बड़ा काँटा क्या है?' तब मूर्खतापूर्ण व्यवहार करते हैं और न चाहते हुए भी मूर्खता के गुरुदेव ने उत्तर दिया- 'वत्स! सबसे बड़ा काँटा तो | शिकार बन जाते हैं। अब हमें अपनी मूर्खता से लड़ना है ताकि मूर्खता है।' अनिकेत ने फिर पूछा-गुरुदेव ! किसकी मूर्खता सबसे । हमारा जीवन विवेक सम्मत और जागरुक बने। बड़ा काँटा है अपनी या दूसरे की? 14 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेलवे टाइम टेबल में जैन संस्कृति डॉ. कपूरचंद जैन एवं डॉ. ज्योति जैन अभी तक हमने अपने पाठकों को डाक टिकटों पर जैन | 'मंदिर की घंटियों का घोष, मुल्ला की अजान, प्रभु भजनों संस्कृति, संविधान सभा के जैन सदस्य, आजाद हिन्द फौज में | का मीठा स्वर, बौद्ध मिक्षुओं का मंत्रोच्चार, जैन मंदिर का जटिल जैन, भारतीय संविधान में अहिंसा और विश्वशांति, २० अमर जैन | मूर्ति शिल्प, पवित्र ग्रंथ साहब का सस्वर वाचन .... इन सभी का शहीद, जैन जेलयात्री पुरुष व महिलायें, जब्तशदा लेख आदि | मधुर सम्मिश्रण। यह है भारत का आध्यात्मिक रूप। यह देश विषयों से परिचित कराया है। आज सर्वथा नवीन अछूते विषय से विश्व के प्राचीनतम विद्यमान धर्मों में से एक हिंदूधर्म का जन्म आपको परिचित करा रहे हैं। स्थान है। बौद्ध, जैन तथा सिखधर्म भी यहीं जन्मे और विश्व के _ 'भारतीय रेल' सम्भवतः विश्व का सबसे बड़ा नेटवर्क | सभा प्रमुख धमा क अनुयाया यहा रहत ह- यह एक एसा दावा है। डेढ़ सौ वर्षों में इसका व्यापक विस्तार हुआ है और राष्ट्रीय | है जो विश्व क कुछ हा दश कर सकत ह ।' | है जो विश्व के कुछ ही देश कर सकते हैं।' एकता कायम करने में इसने महती भूमिका निभायी है। १८५३ ई. | तीर्थ स्थलों को उत्तर भारत, पवित्र गंगा के किनारे, पूर्वी में पहली रेलगाड़ी मुम्बई से ठाणेतक ३४ कि.मी. चली थी। भारत भारत, पश्चिमी भारत, मध्यभारत और दक्षिण भारत इन छ शीर्षकों सरकार द्वारा प्रकाशित 'भारत २००३' के अनुसार ३१ मार्च २००१ में बांटा गया है। आरंभ में गोम्मटेश्वर बाहुवली का चित्र है। तक भारतीय रेल के पास ७५६६ इंजन ३७८४० यात्री डिब्बे पवित्र गंगा के किनारे अध्याय में उत्तर प्रदेश और विहार के अनेक ४३७० अन्य सवारी गाड़ी डिब्बे, २२२१४७ माल डिब्बे थे। कुल हिन्दू, जैन, बौद्ध मंदिरों एवं मस्जिदों का वर्णन है। यहाँ जैन मार्ग की लंबाई ६३०२८ कि.मी. है तथा रेलवे स्टेशनों की संख्या परिपथ में जैन मंदिरों का परिचय है। सारनाथ के जैन मंदिर तथा ६८५३ है। जल मंदिर पावापुरी का मनोरम चित्र दिया गया है तथा लिखा गया भारतीय रेल प्रतिवर्ष गाड़ियों के आवागमन एवं अन्य है कि सारनाथ के जैन मंदिर का निर्माण १८२४ में हुआ और इसे जानकारी के लिये समयसारिणी जारी करता है जो जलाई से जन | ११ वें तीर्थंकर श्रेयांशनाथ का जन्म स्थान माना जाता है। तक के लिये होती है। संपूर्ण भारत की समय सारिणी तथा प्रत्येक बिहार में वैशाली वह जगह है जहाँ जैनधर्म के प्रणेता रेलवे (मध्य पूर्व पश्चिम दक्षिण आदि) की अलग-अलग समय तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म हुआ था। पावापुरी सारिणी भी निकलती है। इनमें गाड़ियों के नम्बर, दिन, स्टेशन पर | वह स्थान है जहाँ ५०० ईसा पूर्व में भ. महावीर ने शरीर त्याग आने-जाने का समय टिकिट खरीदने और वापिस करने के नियम, और उनका अंतिम संस्कार हुआ। संगमरमर का बना जलमंदिर किराया, रेलवे लाइनों का मेप, आरक्षण नियम आदि सभी विषयों जैनों के लिये विशेष पूज्य है। राजगीर के संबंध में लिखा गया है की जानकारी होती है। संपूर्ण भारत की समय-सारिणी हिन्दी में कि ऐसा माना जाता है कि भ. महावीर ने कुछ समय राजगीर में 'रेलगाड़ियाँ एक दृष्टि में' तथा अंग्रेजी में 'TRAINS AT A बिताया, पहाड़ियों के शिखर पर दिगम्बर मंदिर स्थित हैं। इसी GLANCE' नाम से प्रकाशित होती है। प्रतिवर्ष इसमें भ्रमण के | प्रकार शिखर जी के सन्दर्भ में लिखा गया है कि 'झारखण्ड राज्य हिसाब से किन्हीं विशेष स्थानों की जानकारी दी जाती है जैसे में पश्चिम बंगाल की सीमा रेखा से कुछ पहिले पारसनाथ है जो २००१-२००२ की समय सारिणी में 'हिल स्टेशन पर छद्रियाँ' | एक महत्वपूर्ण जैन तीर्थ स्थल हैं। जैन तीर्थंकर के २४ मंदिर शीर्षक से पहाड़ी स्थानों की जानकारी दी गयी थी। २००२ १३६६ मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं। २३ वें तीर्थंकर पारसनाथ ने २००३ में मरूस्थल के किले, समुद्री जीव और लहरों आदि की | यहाँ पर अपने जन्म के सौ वर्ष उपरांत निर्वाण प्राप्त किया था।' जानकारी दी गयी थी। इस वर्ष की समय सारिणी में देवताओं, । पूर्वी भारत के तीर्थों में कलकत्ता के उत्तर पूर्व में स्थित देवियों और संतों के वास स्थानों की समद्धिकारी यात्रायें शीर्षक | पारसनाथ जैन मंदिर का उल्लेख है। जो १८६७ में बना था तथा से धार्मिक स्थलों की जानकारी दी गयी है। इसमें अनेक जगहों जिसे १० वें तीर्थंकर शीतलनाथ जी को समर्पित किया गया है। पर जैन मंदिर का भी उल्लेख हुआ है इतना ही नहीं अनेक भगवानों पश्चिम भारत के मंदिरों में औरंगाबाद के निकट एलोरा की गुफाओं और मंदिरों के चित्र भी दिये गये हैं। इसके आरंभ में ही लिखा में कैलाश नाथ मंदिर के उल्लेख के साथ जैन गुफाओं का उल्लेख है। इनको 'बर्ल्ड हेरीटेज' में सम्मिलित किया गया है। इन गुफाओं है - नवम्बर 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का परिचय जैन परिपथ शीर्षक में भी दिया गया है, लिखा गया | शताब्दी के कई प्रसिद्ध मंदिर हैं। दक्षिणी पूर्वी समूह में जैनमंदिर है- 'औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के निकट एलोरा के गुफा मंदिरों में | का उल्लेख है। असाधारण और गहन निर्माण कार्य वाली पांच जैन गुफाएँ हैं। जैन भुवनेश्वर से ७ कि.मी. पश्चिम में उदयगिरी और खण्डगिरी तीर्थंकरों पार्श्वनाथ और गोम्मटेश्वर की प्रतिमाओं वाली गुफा ३२ | की पहाड़ियाँ हैं, जहाँ चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाएँ इन्द्रसभा सभी जैन गुफाओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। मंदिर के भीतर भगवान | मधुमक्खी के छत्ते के समान प्रतीत होती हैं। कई गुफायें आलंकारिक महावीर की बैठी हुई मुद्रा में प्रतिमा है। जैन मंदिर के ऊपर की | ढंग से तराशी गई हैं तथा ऐसा माना जाता है कि इनमें से ज्यादातर पहाड़ी के शिखर पर पारसनाथ की ५ मीटर ऊँची प्रतिमा से नीचे | पहली शताब्दी में जैन तपस्वियों के लिये तराशी गईं थीं। जैन एलोरा की गुफाओं को देखा जा सकता है।' उदयपुर से ९८ मंदिरों की एक श्रृंखला भी इस परिसर का एक अंग है। म.प्र. के कि.मी. दूर रनकपुर के सुन्दर जैन मंदिर परिसर का भी उल्लेख है। मांडू में सुसज्जित मंदिरों वाला जैनमंदिर परिसर है इनमें संगमरमर, पश्चिमी भारत के जैन परिपथ में गुजरात के हाथी सिंह | चांदी और सोने की बनी तीर्थंकरों की प्रतिमायें हैं। मंदिर अहमदाबाद का सुंदर चित्र है। इसी प्रकार माउन्ट आबू के | दक्षिण भारत तीर्थयात्रियों का सच्चा स्वर्ग अध्याय के जैन दिलवाड़ा मंदिर का चित्र और परिचय है। मंदिरों का परिचय देते | परिपथ में श्रवणबेलगोल की विश्व प्रसिद्ध बाहुबली स्वामी की हुए लिखा गया है- गुजरात में जैन मंदिरों की एक समृद्ध विरासत मूर्ति तथा मूल बद्री के जैनमंदिर के सुंदर चित्र दिये गये हैं। है। अहमदाबाद के प्रचीन नगर के उत्तर में, सफेद संगमरमर का ! बैंगलौर से ३५ कि.मी. उत्तरपूर्व में स्थिल मूलबद्री में १८ वस्तियाँ बना हाथी सिंह मंदिर है। १८४८ में निर्मित यह मंदिर १५ वें] है इनमें से प्राचीनतम १५ वीं शताब्दी का चंद्रनाथ मंदिर है। तीर्थं कर को समर्पित है। जैन धर्म के पवित्रतम तीर्थस्थलों में एक 'बादामी' की गुफाओं के परिचय में गुफा चार सातवें जैन तीर्थंकर पालिताणा, अहमदाबाद से लगभग २१५ कि.मी. दूर है यहाँ की | को समर्पित है। इसी तरह बदामी से २० कि.मी. दूर पट्टाडकल शत्रुजय पहाड़ी श्वेताम्बर जैनों के लिये पवित्र है। ११ वीं से | में राष्ट्रकूट काल (९ वीं शताब्दी) के जैन मंदिर का उल्लेख है। लेकर १९ वीं शताब्दी के लगभग ८०० मंदिर इस पहाड़ी पर | | श्रवणबेलगोल के संबंध में लिखा गया है 'भारत के बिखरे हुए हैं। पहाड़ी पर स्थित आदिश्वर मंदिर में स्फटिक की प्राचीनतम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण जैन तीर्थ स्थलों में एक है। आंखों वाली तथा सोने की मुकुट वाली ऋषभ नाथ की मूर्ति है। | यहाँ पर भगवान् गोमटेश्वर (बाहुबली) की एक शैल की बनी 'जूनागढ़ जनपद में स्थित गिरनार पर्वत, गुजरात का दूसरा | १७ मी. ऊंची विशाल प्रतिमा है, विन्ध्यगिरी पहाड़ी के ऊपर सबसे बड़ा जैन तीर्थ स्थल है। पर्वत के शिखर पर काफी ऊँचाई | स्थित एक शैल की बनी सबसे ऊंची प्रतिमा मानी जानी वाली पर १२ वीं शताब्दी के मंदिर हैं जो उत्कृष्ट नक्काशी से सुसज्जित | १००० वर्ष प्राचीन यह प्रतिमा सरलता व सौम्यता को मानवीकृत हैं। अन्य महत्वपूर्ण स्थलों में नेमिनाथ स्थित १६ मंदिर, मल्लिनाथ | करती है। बारह वर्षों में एक बार महामस्तकाभिषेक होता है। मंदिर तथा अहमदाबाद से १३० कि.मी. दूर पाटन स्थित सैकड़ों | नगर में तथा चंद्रगिरी पहाड़ी पर कई रोचक जैन बस्तियाँ व मठ मंदिर हैं। जामनगर स्थित शांतिनाथ और आदिनाथ मंदिर क्रमशः भी हैं। श्रवणबेलगोला हासन से ४८ कि.मी. दूर है। भगवान् सोलहवें और प्रथम तीर्थंकरों को समर्पित हैं।' बाहुबली की प्रतिमाएँ कारकल (मूलबद्री से २० कि.मी. उत्तर) राजस्थान के जैनमंदिरों में माउन्ट आबू का विस्तार से | वेनर (मंगलौर से ५० कि.मी. उत्तर-पूर्व) तथा धर्मस्थल (मंगलौर वर्णन है। इसके अतिरिक्त लोदुर्वा स्थित भव्य मंदिर, चित्तौडगढ़ | से ७५ कि.मी. पूर्व) में भी पायी जाती हैं।' स्थित सतवीस देवरा जिसमें जैन देव पुरुषों की २७ प्रतिमाएँ हैं। अपने पाठकों को जानकारी देने के साथ-साथ इस लेख चित्तोड़गढ़ में भव्य महावीर दिगम्बर जैन स्वामी मंदिर एवं कीर्ति | का एक उद्देश्य यह भी है कि जैन पत्र-पत्रिकाओं के संपादक, स्तंभ है। उदयपुर से ९८ कि.मी. दूर रनकपुर स्थित आरावली प्रकाशक, विद्वान, लेखक, समाज सेवी एवं सुधी पाठक जन पहाड़ियों में १५ वीं शताब्दी के मंदिर, इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामान्य के लिये जैन तीर्थों/धार्मिक स्थलों का इसी प्रकार जैन विभिन्न तरह से तराशे गये। १४४४ स्तंभों से युक्त भव्य छत बाला | परिपथ बनाकर परिचय प्रस्तुत कर सकें। चौमुखी मंदिर। उदयपुर से ६५ कि.मी. दक्षिण में ऋषभदेव का ६, शिक्षक आवास मंदिर आदि का उल्लेख है। श्री कुंद-कुंद जैन पी. जी. कॉलेज मध्यभारत की आध्यात्मिक यात्रा के जैन परिपथ में लिखा खतौली - २५१ २०१ (उ.प्र.) गया है कि खजुराहो नामक ग्राम में ९ वीं से लेकर १३ वीं 16 नवम्बर 2003 जिनभाषित - , Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी वीणा बने संसार के कड़वे वृक्ष में दो ही फल अमृतोपम हैं। वह है सुभाषित मधुर सम्भाषण और सुसंगति जुबान प्राप्त करना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है उसे सार्थकता प्रदान करना। वाणी की मिठास ही वाणी की सार्थकता है। वाणी की मधुरता पूरे वातावरण में समरसता घोल देती है। यही कारण है कि प्रत्येक सद्गृहस्थ यह भावना भाता है: फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे । प्रेम के लिए वचनों की मधुरता अनिवार्य है। वचनों की मधुरता प्रेम का साम्राज्य स्थापित करती है तो वाणी की कड़वाहट शान्त वातावरण में भी कड़वाहट घोल देती है । वचनों के सामर्थ्य से अशांत वातावरण को भी शांत किया जा सकता है, तो वचन के माध्यम से ही शांत वातावरण भी खौल उठता है। जिह्वा में अमृत बसे, विष भी तिसके पास। इक बोले तो लाख ले, इकते लाख विनाश ॥ जिह्वा से अमृत भी उड़ेला जा सकता है, तो जीभ से ज़हर भी उगला जा सकता है। हमें अपनी वाणी पर सदैव अंकुश रखना चाहिए। संत कहते हैं- बोलो पर बोलने से पूर्व विचार कर लो। जो व्यक्ति बोलने से पूर्व विचार करता है उसे फिर कभी पुनर्विचार नहीं करना पड़ता। और जो व्यक्ति बिना विचारे बोल देता है उसे जीवन पर्यन्त विचार करने को बाध्य होना पड़ता है वह पूरे जीवन पछताता रहता है। । आपने कभी विचार किया दांत तो कड़े हैं और जीभ कोमल है। इसका अर्थ क्या है? कुदरत को नापसंद है सख्ती जुबान में। इसलिये नहीं दी है हड्डी जुबान में। पाँच कारणों से आदमी अप्रशस्त वचनों का प्रयोग करता है (1) क्रोध (2) लोभ (3) भय (4) मजाक (5) आदत ये पांच कारण है जिनके कारण आदमी अपने मुख से वह शब्द निकाल देता हैं, जिसे उसे कभी नहीं निकालना चाहिए। जब आदमी क्रोधाविष्ट होता है तो वह आपे से बाहर आ जाता है, उसे कुछ भी होश नहीं रहता । तम-तमाया रहता है, न सुशीला पाटनी जाने क्या बोल देता है, पर शांत दिल से वह विचार करे तो वह खुद पछताये कि वह क्या कह रहा है। दूसरा है, लोभ ! लोभ के संबंध में कहा जाता है कि लोभ आदमी की जिव्हा छीन लेता है। लोभ के कारण व्यक्ति क्या नहीं बोलता । ये लोभ ही ऐसा कारण है जिससे अपने को पराया और पराये को अपना कहने में भी व्यक्ति नहीं चूकता। तीसरा है भय, भय के कारण आदमी झूठ बोल देता है। जब व्यक्ति पर कोई दबाव होता है तो आदमी का कहना कुछ होता है और कह कुछ देता है । भय बहुत अच्छी चीज नहीं है। चौथा कारण है मजाक- हँसी मजाक में आदमी न जाने क्या बोलता है। आप थोड़ा सा अपने मन को टटोलना कि सुबह से शाम तक आपका जो समय जाता है, लोगों से बातचीत करते हैं, उसमें आप कितना झूठ बोलते हैं और जितना झूठ बोलते हैं उसका ८० प्रतिशत मजाक का होगा। कहते हैं कि मधुर वचन हैं औषधि कटुक वचन हैं तीर । कर्णद्वारतै संचरै, साले सकल शरीर ॥ अरे भइया! जब तुम्हारे मीठे बोलने से सब संतुष्ट होते हैं कि एक वचन है जो औषधि का कार्य करता है और एक तो वही बोलो न, वचनों में कौन सी दरिद्रता है। क्या तुम्हारे बोलने वचन है जो तीर की तरह हृदय को चीर देता है। पर पैसा लगता है? क्या तुम्हारे पास शब्द संपदा की कमी है? अरे शब्द का तो अपूर्व भण्डार है तुम्हारे अंदर, उस भंडार का प्रयोग करो। 'रोग की जड़ खाँसी और झगड़े की जड़ हाँसी' । पांचवा हेतु है आदत । आदत एक ऐसी प्रवृत्ति है जो व्यक्ति पर हावी हो जाती है। इसलिये आदमी को अपनी आदत पर अंकुश रखना जरूरी है। आप चाहेंगे तो आदत पर अंकुश रखा जा सकता है। बंधुओं जिव्हा मिली है- ये जिव्हा तो प्रभु के गीत गाने के लिए मिली है जिव्हा से प्रभु का गीत गाओ, गाली नहीं। जो गाली बकते हैं वो अपनी वाणी का दुरूपयोग करते हैं, उनकी वाणी एक दिन कुंठित हो जाती है, मू होना पड़ता है, उन्हें वाणी रहित होना पड़ता है। 'फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे ।।' हमारे मुख से हे भगवान! कभी भी वो अप्रिय शब्द न निकलें, हमारे मुख में मिठास भरे हमारे मुख में मधुरता भरे और हमारे सारे संबंध मधुर बनें - इस भावना से आज अपनी चर्चा को यहीं विराम दे रहे हैं यही मरी भावना है। " आर. के. हाऊस मदनगंज किशनगढ़ नवम्बर 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिक चिकित्सा क्या आप जानते हैं? डॉ. वन्दना जैन व्यक्ति का शरीर नीरोग होने के साथ उसका मन, मस्तिष्क | फिर भी मुख्य रूप से प्राकृतिक चिकित्सा पाचन तंत्र के रोगों और आत्मा भी स्वस्थ और उन्नत हो तभी तो सम्पूर्ण स्वास्थ्य की | गठिया, दमा, हृदय रोग, मोटापा, मधुमेह, अनिद्रा, उच्चरक्त चाप, अवस्था होती है। प्राकृतिक जीवन के नियमों के अनुसार रहन- | मानसिक तनाव, जुकाम, खांसी, चर्म रोगों तथा जीवन शैली से सहन, खान-पान तथा दिनचर्या रखने से व्यक्ति स्वयं ही स्वाभाविक | सम्बधित रोगों में उल्लेखनीय लाभ पहुँचाती है। रूप से पूर्ण स्वस्थ रहता है तथा प्रकृति के नियमों के विरूद्ध होने (2) प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों का इलाज कैसे पर ही सभी प्रकार के रोग कष्ट तथा समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। | होता है? प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली अपने आप में प्रकृति का प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों के इलाज का तरीका बिल्कुल विज्ञान है इस विज्ञान में प्रकृति के नियमों द्वारा अस्वस्थ व्यक्ति आसान है। दरअसल प्राकृतिक चिकित्सा केवल उपचार पद्धति स्वस्थ हो सकता है और स्वस्थ रह सकता है। ही नहीं बल्कि जीवन जीने का विज्ञान है। यह हमें रोगों से मुक्त आज ज्यादातर लोग इंजेक्शनों और जहरीली दवाओं के | तो करती ही है, यह भी बताती है कि आगे भी रोगों से कैसे बचे शिकार हैं, आदी हो गये हैं। इन इलाजों से तुरंत ठीक होने का | रहें। प्राकृतिक चिकित्सा के इलाज के साधनों में मिट्टि की पट्टी, चमत्कार दिखता है। अत: सामान्य लोग इस ओर आकर्षित होते | एनिमा, गरम ठंडा सेंक, कटि टॉनिक्स, वाष्प स्नान, उष्णपाद हैं, किंतु अब इनके पार्श्व प्रभाव सामने आने से इस चमत्कार की स्नान, धूप स्नान, रीढ़ स्नान, सर्वांग मिट्टि लेप तथा तरह-तरह की असलियत सामने आने लगी है। लपेटें आदि हैं। इन जहरीली दवा से बीमारी दवा दी जाती है एक बीमारी (3) प्राकृतिक चिकित्सा के साइट इफेक्ट क्या है ? का दवना और दूसरी का निर्माण होना, इसी चक्र में रोगी फँस प्राकृतिक चिकित्सा के कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं, क्योंकि जाता है। यह औषधि रहित चिकित्सा प्रणाली है इसमें रोगी के शरीर में कोई नहीं - बार-बार बीमार होना। किसी प्रकार के टॉनिक्स या दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता चाहता - अस्पतालों के चक्कर काटना। है। अत: किसी प्रकार के विपरीत प्रभाव की संभावना नहीं रहती - घंटो लाइन में लगना। है इसलिये यह चिकित्सा सभी के लिये पूर्ण सुरक्षित है। - शारीरिक व मानसिक परेशानियों से त्रस्त (4)क्या प्राकृतिक चिकित्सा में रोगी को भूखा रखते रहना। हर व्यक्ति - नित्य स्वस्थ रहना। वास्तव में ऐसा नहीं है प्राकृतिक चिकित्सा में रोगी को चाहता है - इंजेक्शन, ऑपरेशन आदि से बचना। भूखा न रखकर उसे ताजे फल, हरी सब्जियाँ, अंकुरित अनाज, - एंटीवायोटिक जैसी जहरीली दवाओं से फलों के रस एवं सब्जियों के सूप आदि पर रखा जाता है क्योंकि बचना। इस प्रकार का आहार शरीर से बीमारियों को बाहर निकालने में - पैसा और समय की बरवादी से बचना। प्रकृति की मदद करता है। आवश्यकतानुसार रोगी को उबली प्राकृतिक - रोग को जड़ से मिटाने का उपचार। सब्जियाँ, दलिया, सलाद एवं चोकर सहित आटे की रोटी भी दी चिकित्सा में है - रोग प्रतिबंधन का उपचार। जाती है, हाँ यह जरूर है कि प्राकृतिक आहार में तेल मसालों का - स्वालंबन और अहिंसा का विवेक। प्रयोग कम से कम किया जाता है। - रोगी को स्वयं चिकित्सिक एवं योग्य बनने (5) क्या प्राकृतिक उपचार में बहुत समय लगता है? के संस्कार : ऐसा नहीं है एक रोगी जो दस साल से किसी रोग से इस लेख में प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में गहराई। पीड़ित है, यदि उसे एक महीने में प्राकृतिक उपचार से आराम से जानने की तथा सामान्य जन के मन में उठने वाले सवालों का मिल जाता है तो यह समय अधिक कहाँ हुआ? रोग की जीर्णता हल करने की कोशिश की जा रही है। पर ही उपचार का समय निर्भर करता है। (1) प्राकृतिक चिकित्सा से कौन-कौन सी बीमारियाँ | (6) क्या प्राकृतिक उपचार बहुत कठिन है? ठीक हो सकती हैं? 1 नहीं बिल्कुल नहीं प्राकृतिक चिकित्सा तो इतनी सरल है इससे ठीक होने वाली बीमारियों की सूची तो बड़ी है । कि आप इसे अच्छी तरह से सीखकर घर पर भी इसका प्रयोग 18 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सकते हैं। सही मायनों में तो प्राकृतिक चिकित्सा जीने की। (11) प्राकृतिक चिकित्सा और एलोपैथी चिकित्सा कला है यदि हम इसे सीख लें और इसी के अनुसार चलें तो | विधि में क्या अंतर है? जीवन में कभी रोगी नहीं होंगे। प्राकृतिक चिकित्सा में रोग के कारणों को दूर करने पर (7)प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार बीमारी का क्या | जोर दिया जाता है जबकि एलोपैथी में ऐसा नहीं है, इसमें सिर्फ कारण है? बीमारी के लक्षणों का उपचार किया जाता है। इसलिये प्रायः बीमारी का कारण है हमारा गलत खान-पान, गलत रहन- | देखने में आता है कि दवा लेने पर लक्षण दब जाते हैं परन्तु दवा सहन, गलत आचार विचार । इन सब के कारण हमारी पूरी दिनचर्या | बंद करते ही वे पुनः उभर आते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा का अव्यवस्थित हो जाती है यदि हम नियम से नहीं रहेंगे, सोने के | मानना है कि बीमारियों का कारण एक है तथा उनका उपचार भी समय जागेंगे और जागने के समय सोयेंगे। अखाद्य, तली-भुनी | एक ही है। प्राकृतिक चिकित्सा शरीर को एक इकाई मानकर और गरिष्ठ वस्तुओं को खायेंगे, अवसाद, तनाव और उत्तेजना से | कार्य करती है, जबकि एलोपैथी में अलग-अलग अंग की तकलीफों ग्रस्त रहेंगे तो हमें बीमार होने से कोई रोक नहीं सकता। इसलिये | के लिये अलग-अलग दवाएँ हैं । जैसे पेट दर्द के लिये अलग तथा जरूरी है कि हम प्रसन्न और चिन्ता मुक्त रहें। खाने योग्य वस्तुओं | सिर दर्द के लिये अलग हांलाकि दोनों दी का कारण एक ही हो को खायें और गलत विचारों को अपने ऊपर हावी न होने दें। सकता है। (8) प्राकृतिक चिकित्सा में भोजन पर इतना जोर (12) क्या प्राकृतिक चिकित्सालय में भरती रहकर क्यों देते हैं? ही इलाज हो सकता है? केवल भोजन पर नहीं संतुलित भोजन पर क्योंकि प्राकृतिक | ऐसा नहीं है प्राकृतिक चिकित्सा तो इतनी सरल और चिकित्सा का मानना है कि रक्त की अम्लीयता अनेक रोगों को | सहज है कि आप अपने घर पर ही इसका प्रयोग कर सकते हैं। जन्म देती है। हमारा भोजन पूड़ी, मिठाई, बाजार की वस्तुएँ | लेकिन जीर्ण एवं असाध्य रोगियों के लिये उपचार लेना श्रेयस्कर दाल, रोटी आदि अम्लीयता को बढ़ाते हैं। जबकि फल, सब्जियाँ है जीर्ण रोगियों के उपचार के दौरान प्रायः उभार की स्थिति आ एवं सलाद क्षारीय होते हैं। इसलिये हमारे भोजन में फलों एवं | जाती है, रोगी ऐसी स्थिति में घबरा जाते हैं, इसलिये उनको सब्जियों का बड़ा अंश होना चाहिये। चिकित्सालय में रहने की सलाह दी जाती है। तीव्र रोगी रोजाना (१) क्या प्राकृतिक चिकित्सा बहुत मँहगी है? । प्राकृतिक चिकित्सालय में आकर भी अपना इलाज ले सकते हैं ऐसा नहीं है पर इतना जरूर है कि इस चिकित्सा के तथा घर पर पथ्य का पालन कर सकते हैं। दौरान फल, रस एवं सब्जियों पर कुछ अधिक ही खर्च होता है | (13) क्या प्राकृतिक चिकित्सालय में ठीक हो जाने फिर भी चिकित्सक यह प्रयास करते हैं कि रोगी को मंहगे फलों के बाद घर पर भी उन निर्देशों का पालन करना पड़ता है? की जगह सस्ते और सुलभ तथा मौसम के फल दिये जाएं, जैसे | प्राकृतिक चिकित्सालय में रोग के लक्षणों का नहीं बल्कि ठंड में अमरूद, गाजर आदि बहुतायत से मिलते हैं इसलिये | बीमारी के कारणों को दूर करने का प्रयास किया जाता है इसलिये उनका उपयोग प्रचुरमात्रा में किया जा सकता है। दूसरी बात | इससे स्थाई आराम मिलता है फिर भी घर आने पर डॉ. के प्राकृतिक चिकित्सा में आहार पर जो खर्च होता है अपने शरीर पर | निर्देशानुसार आवश्यक समय तक तथ्य एवं व्यायाम आदि का ही होता है एक रोगी जो वर्षों से अपना इलाज दवाओं से कर रहा | पालन करना चाहिये। ताकि बीमारी हमेशा के लिये दूर हो जाए। है तथा हजारों रूपये बिना कोई आराम पाये हुये खर्च कर चुका है (14) क्या स्वस्थ आदमी भी प्राकृतिक चिकित्सा अगर एक दो महिने में ठीक हो जाता है तथा भोजन व चिकित्सा | करा सकता है? पर उसके ढाई तीन हजार रू. खर्च होते हैं, तो यह बहुत अधिक अवश्य, प्राकृतिक चिकित्सा दोनों पक्षों पर समान रूप से नहीं हैं। कार्य करती है। रक्षात्मक तथा उपचारात्मक स्वास्थ्य को आदमी (10) क्या चाय, बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला आदि अपने स्वास्थ्य को किस प्रकार बनाए रख सकते हैं। यह ज्ञान वस्तुएँ प्राकृतिक चिकित्सा में वर्जित हैं? प्राकृतिक चिकित्सा ही दे सकती है। आपकी दिनचर्या को नियमित जी हाँ चाय, बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला, जर्दा तम्बाकू करके तथा आहार-विहार के नियमों की जानकारी से हम अपने मादक द्रव्य तथा ऐसी ही अन्य वस्तुएँ प्राकृतिक चिकित्सा में स्वास्थ्य को और अधिक उन्नत बना सकते हैं, प्राकृतिक चिकित्सा निषिद्ध हैं, ये सारी चीजें अपने विषैले प्रभाव शरीर पर छोड़ती हैं। का यही उद्देश्य भी है। जिससे अनेक गंभीर रोगों का शिकार हो जाता है। कैंसर इनमें (15) आज कल लोगों के पास समय नहीं है, पर प्रमुख है चाय से स्वाभाविक भूख नष्ट हो जाती है तथा कब्ज | प्राकृतिक उपचारका लाभ लेना चाहते हैं इसके लिये आपका रहने लगता है रोगी तथा अन्य स्वस्थ व्यक्तियों को उपर्युक्त पदार्थों | क्या सुझाव है? को निषिद्ध मानकर प्रयोग में नहीं लेना चाहिये। प्रायः सभी चिकित्सालयों में स्वास्थ्य सुधार के लिये दस -नवम्बर 2003 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवसीय शिवरों का आयोजन होता रहता है जिसके पास समय एक स्वस्थ व्यक्ति को सबेरे सूर्योदय से पूर्व उठकर दैनिक का अभाव है उनके लिये यह उपयोगी है दस दिन तक रोगी की । कार्य से निवृत्त होकर थोड़ी देर टहलना या योगाभ्यास करना दिनचर्या को नियमित किया जाता है। भोजन में रसाहार, फलाहार चाहिये। तत्पश्चात् स्नान करके प्रभु स्मरण के पश्चात् हल्का नास्ता तथा अंकुरित अन्न का प्रयोग करके पाचन प्रणाली को सुधारा | जैसे मौसम के फल, रस या अंकुरित अन्न (अथवा रात भर भीगे जाता है। प्रातः काल योगाभ्यास, प्राणायाम आदि से मानसिक हुये) लेना चाहिये। दोपहर को संतुलित आहार चोकर सहित तनावों को दूर किया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा का हराभरा आटे की रोटी, हरी सब्जियाँ, सलाद तथा दही आदि लिया जा सुरम्य वातावरण इन सब में बड़ा सहायक होता है। सामान्य सकता है। बीच में इच्छा होने पर सब्जी का सूप, मौसम का कोई उपचारों जैसे मिट्टि को पट्टी, एनिमा, वाष्प स्नान, धूप स्नान, फल या रस लिया जा सकता है। शाम का भोजन सूर्यास्य से पूर्व मॉलिश आदि से शरीर की क्रियाशीलता बढ़ जाती है इस प्रकार अवश्य ही समाप्त कर लेना चाहिये, यह भोजन दोपहर के ही व्यक्ति अपने आपको तरोताजा महसूस करते हुये पुनः कार्य के | अनुसार हो। रात दस बजे तक सो जाना चाहिये। लिये तैयार हो जाता है। (19) हम बीमार न पड़ें इसके लिये प्राकृतिक (17) क्या केवल योगाभ्यास से रोग ठीक हो जाते | चिकित्सालय में क्या है? यदि हम आपकी दिनचर्या नियमित रखें, अपना खानयोगाभ्यास एवं प्राकृतिक चिकित्सा दोनों का सम्मिलित | पान संतुलित रखें, अपनी विचाराधारा निर्मल एवं सात्विक रखें प्रयोग अधिक प्रभावी होता है किसी भी रोग को ठीक करने के | समय पर उठें, समय पर सोयें तथा समय पर भोजन करें जो भी लिये आहार पर ध्यान देना जरूरी है। सभी प्राकृतिक चिकित्सा में | कार्य करें मन लगाकर करें। चिन्ता तथा तनाव से मुक्त रहकर योगाभ्यास की व्यवस्था रहती है अत: पूर्ण लाभ के लिये प्राकृतिक | प्रसन्न रहें तो बीमारी से बचे रह सकते हैं। यही प्राकृतिक चिकित्सा चिकित्सालय योग और संतुलित आहार तीनों आवश्यक हैं। | के स्वस्थ रहने के नियम हैं। (18) एक स्वस्थ व्यक्ति की दिनचर्या क्या होनी । 'कार्ड पैलेस' चाहिये? वर्णी कॉलोनी, सागर (म.प्र.). बोध कथा सद्भावना डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' एक शिष्य ने अपने गुरु से विनम्र होकर पूछा-'गुरुदेव! | होकर विचरण करते हैं और अपनी शरण में आने वालों को भी इस संसार में ऐसी कौन-सी भावना है जिसे हम खुद भी चाह | निर्भय बना लेते हैं।' सकें और दूसरों को भी चाह सकें?' गुरुदेव की बातें सुनकर शिष्य एकदम ही 'मेरी भावना' गुरुदेव ने सोच-विचारकर उत्तर दिया कि 'ऐसी भावना | की यह पंक्तियाँ गुनगुना उठाहै दुआ या सद्भावना।' मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे। शिष्य ने प्रतिप्रश्न किया कि 'गुरुदेव दुआ या सद्भावना दीन-दुखी जीवों पर मेरे उर से करूणा स्त्रोत बहे॥ ही क्यों?' दुर्जन-क्रूर-कुमार्ग रतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। तब गुरुदेव ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा कि - साम्यभाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे। 'वास्तव में व्यक्ति के अन्दर यदि सद्भावना का समावेश हो जाये ___ यह पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए उसे लगने लगा मानो मेरा तो संसार के सभी विवाद, लड़ाई-झगड़े, विषमता, अन्याय, | कोई शत्रु नहीं है, में सबका मित्र हूँ। सद्भावना का संसार अत्याचार समाप्त हो जायें। सद्भावना के अभाव में व्यक्ति अपने | फैलते ही संसार निरापद लगने लगा उसे और वह बोल उठा ओर पराये का भेद करके विपरीत व्यवहार करते हैं। दिगम्बर | सद्भावों की जय हो। मुनियों को देखो! वे सद्भावना के धनी होने के कारण ही सबके एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, प्रति सद्भाव और समभाव रख पाते हैं। वे स्वयं भी निर्भय बरहानपुर (म.प्र.) 20 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्गल-प्रलापं वर्जयेत् मूलचन्द्र लुहाड़िया मार्च अप्रैल की प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार' पत्रिका में संपादक । विद्वान नीरज जी की आँखों में खटक गया। मुझे उक्त पुस्तक के पं. नीरज जी का संपादकीय 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' छपा है जो बहुत प्रकाशन एवं वितरण की जानकारी बहुत समय बाद मिली थी। दिनों बाद मुझे पढ़ने को मिला। पढ़कर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ | पुस्तक के साथ भेजे गए परिपत्र में प्रोफेसर साहब ने भट्टारकों के और दुःख भी। आश्चर्य है कि एक प्रतिष्ठित संस्था की पत्रिका के | संबंध में अपनी कोई धारणा नहीं लिखी और न ही अपनी ओर से विद्वान संपादक ने कैसे सारी नैतिक मर्यादाओं और दायित्वों का भट्टारकों के विरोध अथवा समर्थन में कुछ लिखा। उन्होंने केवल उल्लंघन कर स्वच्छ पत्रकारिता के नियमों की उपेक्षा कर मेरे और विद्वानों की सम्मति मांगी थी जिसके आधार पर निष्कर्ष समाज के श्री बैनाड़ा जी पर मनगढंत काल्पनिक धारणाओं के आधार पर | सम्मुख प्रस्तुत किया जा सके। किंतु अपने सम्पादकीय लेख में असत्य और हल्के आरोप लगाए हैं। स्पष्ट तथ्यों के विपरीत बिना आदरणीय नीरज जी ने कितना कुछ लिख दिया उस पर विचार सोचे समझे अपनी लेखनी वलाकर विद्वान् संपादक जी ने मात्र | करते हैं। अपनी दुर्भावनाओं को ही पुष्ट किया है। माननीय नीरज जी ने लिखा है 'भट्टारक नाम से एक और मैं वस्तु स्थिति की सही जानकारी नीचे आवश्यक समझकर | पुस्तक इसी प्रकार श्री लुहाड़िया जी और श्री रतन लाल जी बैनाड़ा दे रहा हूँ। जैन जगत के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान स्व. श्री के तत्वाधान में समाज में बँटबाई जा रही है। इसमें संपादक नाथूराम जी प्रेमी ने अपनी पत्रिका जैन हितैषी में ' भट्टारक' प्रकाशक की सारी औपचारिकताओं की उपेक्षा की गई है। पुस्तक नामक लेखमाला क्रमशः चार अंको में बैसाख, जेष्ठ, आषाढ़, | में संपादक, प्रकाशक, मुद्रक और प्रेषक का नाम पता नहीं छपा है। श्रावण-भादों वी. नि.सं. २४३७ तथा मागशीर्ष वी.नि.सं. २४३८ में | प्रकाशन का वर्ष मूल्य आदि भी नहीं है। आवरण पर वीर शक छापी थी। उक्त लेखमाला का अविकल मराठी अनुवाद वी.नि.सं. २४३८ तथा संवत १९१२ ईस्वी छपा है। भीतर पहले पृष्ठ पर यह २४३८ में दक्षिण भारत जैन सभा ने 'भट्टारक' नामक पुस्तक के बदलकर १३१२ ईस्वी हो गया है। शक संवत ओर वीर संवत तो रूप में छपा कर महाराष्ट्र कर्नाटक प्रांतों में वितरित की थी, जो अभी प्रसिद्ध है पंरतु यह वीर शक क्या है? सो लुहाड़िया जी ही बता अनुपलब्ध है। माननीय रतनलाल जी बैनाड़ा ने जैन हितैषी के उक्त | सकते हैं। इसी प्रकार संवत और ईस्वी सन् अलग-अलग वर्ष हैं चारों अंकों से लेखमाला का संकलन कर उपयोगी जानकर भट्टारक' दोनों में ५७ साल का अंतर होता है। इस पुस्तक पर संवत् १३१२ पुस्तक छपवा कर समाज के विद्वानों को प्रो. रतनचन्द्र जी के एक | ईस्वी क्या सूचित करता है? क्या पाठकों के साथ धोखाधड़ी का परिपत्र के साथ दिनांक १०.१०.२००१ को भेजी थी। परिपत्र में | और कोई प्रमाण चाहिए?' . प्रारंभ में लिखा था 'आज से लगभग ९०-९५ वर्ष पूर्व 'जैन हितैषी उक्त संबंध में हमारा कहना है कि पुस्तक में लेखक का नामक मासिक पत्रिका में स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी ने भट्टारकों नाम दिया जाना तो अवश्यक होता है किंतु यदि प्रकाशन के लिए के पद और चरित्र के विषय में एक लेख माला प्रकाशित की थी। किसी दातार ने अपना नाम प्रकाशित नहीं करने की शर्त पर दान उसे पुस्तकाकार मुद्रित कर आपके पास भेजा जा रहा है। आप से | दिया हो तो नाम नहीं दिया जा सकता। प्रकाशक दातार ने पुस्तक अनुरोध है कि उसका गंभीरता से अनुशीलन कर निम्नलिखित निःशुल्क वितरण की है अत: मूल्य कैसे लिखा जा सकता था। इस प्रश्नों पर अपनी सम्मति (उत्तर) भेजने की कृपा करें। आगे नो प्रश्न पुस्तक को जैन हितैषी पत्रिका से ज्यों का त्यों प्रकाशित किया है लिखने के पश्चात् अंत में लिखा 'आपसे इन प्रश्रों का उत्तर पाना अतः संपादन की आवश्कता ही उत्पन्न नहीं हुई। पुस्तक के कवर अत्यंत आवश्क है, क्योंकि जिन शासन को पथ भ्रष्ट होने से बचाने पृष्ठ की मराठी अनुवाद के प्रकाशन से नकल की है। वहां वीर शक का दायित्व आप पर है। आपका उत्तर प्राप्त होने पर उनका निष्कर्ष २४३८ तथा संवत् १९१२ ईस्वी छपा था, वही छाप दिया गया। समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा, ताकि सर्व साधारण को सहजता और विशुद्ध भावों से छपाई गई पुस्तक के अपने सम्यक्तव की रक्षा के लिए समीचीन दिशा निर्देश प्राप्त हो | छिद्रान्वेषण में कमाल किया है विद्वान नीरज जी ने। संस्कृत हिंदी सके।' कोष वामन शिवराम आप्टे में पृष्ठ ९९५ पर 'शक' शब्द का अर्थ समाज और धर्म की रक्षा के लिए सदैव चिंतित रहने वाले | लिखा है काल, संवत् । अत: वीर शक का अर्थ वीर संवत् उपयुक्त एक प्रामाणिक स्वर्गीय विद्वान की लगभग ९० वर्ष पुरानी उस है। एक स्थान पर १९१२ ई. के स्थान पर अशुद्ध १३१२ छप गया। समय की यक्ष समस्या पर लिखी गई लेख माला को पुस्तकाकार | 'शालिवाहन शके' विक्रम संवत् 'वीर संवत्' आदि शब्दों के प्रयोग प्रकाशित कर उस पर आज के धार्मिक परिप्रेक्ष्य में विद्वानों एवं | वीर शक और संवत् १९१२ ईस्वी को उचित सिद्ध करते हैं। सरल सुधी श्रावकों की सम्मति आमंत्रित करने का एक श्लाघ्य कार्य | हृदयी प्रकाशक से रही संवत्, सन् संबंधी अथवा प्रेस की यत्किंचित् - नवम्बर 2003 जिनभाषित 21 । सा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलें विद्वान आलोचक को कोई बड़ा षड़यंत्र दिखाई दे रहा है, यह । सन् १९१२ में दक्षिण भारत में दि. जैनों की प्रतिनिधि संस्था 'दक्षिण मात्र उनका दृष्टि दोष है । सन् १९१२ की प्रकाशित मराठी पुस्तक | भारत जैन सभा' के द्वारा प्रकाशित कर वितरित किया गया था। की एक प्रति मेरे पास है। मीलान करना चाहें तो आपके पास भेज अखिल भारतवर्षीय नाम वाली संस्थाओं की तुलना में दक्षिण दूं। पुरानी पुस्तक के कवर पृष्ठ को ज्यों का त्यों प्रकाशित करना | भारत में दक्षिण भारत जैन सभा का जैन समाज में अधिक प्रतिनिधित्व उचित समझकर ही ऐसे किया है। पाठकों के साथ धोखा धड़ी की रहा है। दक्षिण भारत जैन सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित करने बात पुस्तक से तो प्रमाणित नहीं होती। हाँ संभवत: आपने धोखाधड़ी | वाले श्री राव जी सखाराम दोसी, श्री हीरा चंद अमीचंद गांधी, श्री की बात लिखकर अपने मन के कालुष्य को ही अभिव्यक्त किया | माणकचंद मोतीचंद आलंदकर जैसे प्रमुख समाज सेवी धर्मात्मा है। माननीय बैनाड़ा जी के लिए धार्मिक क्षेत्र में तो धोखा धड़ी श्रावक श्रेष्ठियों के साथ-साथ स्वयं भट्टारक लक्ष्मी सेन जी, करना बहुत दूर की बात है किंतु वे ऐसा करने की बात, अपने लिए भट्टारक जिनसेन जी एवं भट्टारक विशाल कीर्ति जी भी रहे हैं। ही नहीं दूसरों के लिए भी कभी सोच भी नहीं सकते। तथापि मैं वर्तमान अध्यक्ष संभवतः अ.भा.दि.जैन महासभा के स्तंभ श्री तो आपके साहस की दाद देता हूँ कि आपको पुस्तक प्रकाशन | आर.के. जैन हैं अथवा श्री डी.ए. पाटिल हैं। कर्ताओं पर ऐसा निराधार हल्का आरोप लगाने में तनिक भी हिचक | सन् १९७६ में उक्त जैन सभा के अमृत महोत्सव (सन् नहीं हुई। १८९९ से १९७५) के अवसर पर प्रसिद्ध विद्वान श्री डॉ. विलास आगे अपने लेख में विद्वान नीरज जी ने दुर्भावना से ग्रसित | ए. संगवे द्वारा दक्षिण भारत जैन सभेचा इतिहास, लिखा गया। उस हो अनेक आरोपात्मक असत्य बातें लिखकर अपना अज्ञान उड़ेला | पुस्तक के कतिपय उद्वरणों का हिंदी अनुवाद नीचे दिया जा रहा है। वे लिखते हैं वास्तव में 'भट्टारक' नाम की प्रेमी जी की कोई | है। उसके पृष्ठ २५६ पर लिखा है 'जैनों की धार्मिक उन्नति करना पुस्तक है ही नहीं। इसमें संशोधक विद्वान स्व. नाथूराम जी प्रेमी के | यह सभे का प्रमुख उद्देश्य रहने से मूल पत्र के संचालन के साथ कुछ लेख और लेखांश हैं जिनमें तथ्यों के अलावा उस जमाने में सामान्य लोगों में धर्म का प्रचार करके उनको धर्माभिमुख करने के प्रेमी जी के द्वारा किसी अनाम मित्र से सुनी हुई मन गढ़त बातें लिए ट्रेक्ट माला या छोटी पुस्तिका प्रकाशित करने के सभे के विद्या उद्धृत की गई हैं। वर्तमान के भट्टारकों पर तथा भट्टारक संस्था | विभाग से सन् १९१२ में निर्णय किया और उसी के अनुसार पर कीचड़ उछालना इस प्रकाशन का प्रगट उद्देश्य है। प्रेमी जी का | पुस्तिका के प्रकाशन को प्रारंभ भी किया। उस साल सभा के विद्या पूर्वाग्रह और जानकारियों का अभाव इस लेख में बिखरा है। लगता विभाग शाखा से (१) सर्वधर्म (२) भट्टारक (३) जैन धर्माचे है श्री लुहाड़िया जी ने या श्री बैनाड़ा जी ने उसमें अपनी रूचि के | सौंदर्य और (४) सप्त तत्व विचार यह चार पुस्तकें प्रकाशित की अनुसार नमक मिर्च मिलाकर भट्टारकों के बारे में असत्य आरोपों गईं। इस प्रकार श्री प्रेमी जी द्वारा हिंदी में लिखित भट्टारक से भरी यह पुस्तक भट्टारकों की छवि मलिन करने और समाज लेखमाला का मराठी अनुवाद समयोपयोगी समझकर सर्वप्रथम में घृणा फैलाने के उद्देश्य से ही प्रचारित की है।' सन् १९१२ में दक्षिण भारत जैन सभा ने प्रकाशित कर समाज में माननीय नीरज जी के द्वारा दुर्भावना की उत्तेजना के कारण वितरण कराया। लेख में परस्पर विरोध एवं असंवद्ध बातें लिख दी गई हैं। आप एक दक्षिण भारत जैन सभेचा इतिहास में भट्टारकों के संबंध स्थान पर लिखते हैं भट्टारक नामक प्रेमी जी की कोई पुस्तक ही में निम्न उल्लेख है:नहीं है। दूसरे स्थान पर आपने लिखा है इसमें प्रेमी जी के कुछ लेख श्री लक्ष्मी सेन भट्टारक कोल्हापुर और रायवाग तथा श्री और लेखांश हैं जिसमें तथ्यों के अलावा किसी अनाम मित्र से सुनी | जिनसेन भट्टारक बादणी ऐसी दो प्रमुख भट्टारक पीठ इस भाग हुई मनगढंत बातें उद्धृत की गई हैं। श्री नाथूराम जी प्रेमी निष्पक्ष | में थी और प्रारंभ में उन्होंने अपनी जिम्मेदारी उत्तम रीति से पूर्ण प्रामाणिक ऐतिहासिक विद्वान के बारे में 'मनगढंत बातें,' पूर्वाग्रह की। किंतु बाद में ये ही भट्टारक सुख लोलुप और कर्तव्य 'जानकारियों का अभाव' आदि अनादर सूचक शब्दों का प्रयोग श्री | पराङ्मुख हो गए। भट्टारकों को राजा का स्वरूप प्राप्त हो गया। नीरज जी की अपनी विद्वत्ता के मिथ्या अहंकार की ही उपज है। हाथी घोड़े पालकी नौकर चाकर ऐसा सदा बढता हुआ लवाजमा मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि श्री प्रेमी जी ने अपनी पुस्तक में उन्होंने निर्माण किया और यह वैभव, ऐश्वर्य सुरक्षित रखने के लिए पूर्णत: सत्य तथ्य लिखे हैं। मेरा माननीय नीरज जी से निवेदन है उन्होंने सब तरह के मार्ग का अवलम्बन लेना प्रारंभ किया। इसकी कि या तो वे प्रमाण सहित प्रेमी जी की पुस्तक के तथ्यों को असत्य यह परिणती हुई कि भट्टारकों के मठ ऐशो आराम के और सिद्ध करें अन्यथा एक स्वर्गस्थ प्रामाणिक विद्वान पर झूठे आरोप | कारस्तानों का अड्डा बन नए। (पृष्ठ १६-१७) लगाने के इस जघन्य अपराध के प्रायश्चित स्वरूप कम से कम खेद 'समाज के लोगों के झगड़ों का निर्णय देना और जाति के तो प्रकट करें। रिवाज बनाने का अधिकार प्रत्येक जाति के भट्टारकों को होने से श्री प्रेमी जी की लेखमाला की प्रामाणिकता एवं उपयोगिता | प्रत्येक जाति में भट्टारकों का वर्चस्व बहुत बढ़ गया। इसी कारण का प्रमाण यह है कि इसका मराठी अनुवाद आज से ९१ वर्ष पूर्व | जाति-जाति में विवाद बढ़ गए। भट्टारकों के मठ जैन संस्कृति 22 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्र न रहते हुए, जातिए नेताओं के अड्डे बन गए।' (पृष्ठ १२४/१२५/३७३ ) 'दक्षिण भारत जैन सभा के पहले महामंत्री अप्पाजी बाबाजी हजे ने 'जिनविजय' मासिक के जून १९०२ के अंक में लिखा है आज के भट्टारक द्रव्य लोभी सुखासक्त होकर ही धर्म हानि कर रहे हैं।' (पृष्ठ ३९५ ) श्री नीरज जी ने अत्यंत आश्चर्यजनक ढंग से मिथ्या आरोप लगाया है कि मैंने और बैनाड़ा जी ने अपनी रूचि के अनुसार नमक मिर्च लगाकर पुस्तक तैयार की है। पहली बात तो यह है कि पुस्तक में माननीय रतनलाल जी बैनाड़ा ने जैन हितैषी में प्रकाशित लेख माला ज्यों की त्यों प्रकाशित की है। अर्द्ध विराम पूर्ण विराम का भी कही अंतर नहीं है। हमने तो पुस्तक मुद्रित होने के बाद ही देखी है । फिर किसी लेखक की पुस्तक में नमक मिर्च लगाकर रूप बदलकर लेखक के नाम से छपा देना तो साहित्यिक तस्करी की श्रेणी का अपराध है, जिसकी हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते । बिना पूर्व जीवन के अनुभव और अभ्यास के न तो ऐसा कार्य किया जा सकता है और न दूसरों के द्वारा ऐसा किया जाने के बारे में सोचा ही जा सकता है। अपनी ओर से नमक मिर्च लगाकर पुस्तक तैयार करने की बात आपने ऐसे लिखी है जैसे आपने मूल पुस्तक से इस पुस्तक का मीलान कर वे स्थल ढूँढ लिये हैं, जहाँ मिलावट है। यदि आप में सत्य के प्रति निष्ठा हो तो कृपया वे स्थल बतायें अन्यथा असत्य आरोप के लिए पश्चाताप करें। एक पत्रिका के संपादक को अपने संपादकीय में ऐसे गंभीर आरोप लगाने के पहले उसकी सत्यता की जांच कर लेने के अपने नैतिक दायित्व का निर्वाह तो करना ही चाहिए था। आपका दूसरा आरोप है कि यह पुस्तक भट्टारकों की छवि मलिन करने और समाज में घृणा फैलाने के उद्देश्य से ही प्रचारित की है। वस्तुत: यह आरोप हम से पहले उन सम्माननीय स्वर्गस्थ लेखक और आज से ९० वर्ष पूर्व इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित कर वितरण करने वाली 'दक्षिण भारत जैन सभा' पर जाता है। इतना ही नहीं यह आरोप उन अनेक परवर्ती इतिहास लेखकों, आलेख लेखकों और अन्य पुस्तकों के लेखकों पर जाता है जिन्होंने इस सदोष विकृत आगम विरूद्ध भट्टारक संस्था में आए दोषों को जैन संस्कृति की रक्षा के लिए समाज के समक्ष समय-समय पर उजागर किया है। श्रीमद् कुंदकुंदादि आचार्यों ने 'असंजदं न वंदे' का उद्घोष किया और शिथिलाचारी साधुओं की भर्त्सना की तो क्या उन सबको भी आप समाज में घृणा फैलाने के दोषी कहने का दुस्साहस कर पायेंगे ? माननीय नीरज जी ने संभवतः भट्टारक पुस्तक के अंतिम पांच अध्याय 'ये गृहस्थ हैं या मुनि' 'अब भट्टारकों की जरूरत है या नहीं' 'स्वरूप परिवर्तन' 'स्वरूप परिवर्तन से लाभ' और 'उपसंहार' नहीं पढ़े हैं। यदि आपने पढ़ा होता तो आप की बंद आंखे खुल जाती और आप पुस्तक के लेखक पर समाज में घृणा फैलाने का आरोप लगाने का दुस्साहस नहीं करते। अपितु आप स्वयं को अपराध बोध से ग्रसित अनुभव करते। अंतिम अध्यायों में लेखक ने भट्टारकों के पद की आवश्यकता का समर्थन करते हुए उनके स्वरूप परिवर्तन पर जोर दिया है और लिखा है कि स्वरूप निर्धारण से तेरह पंथ, बीस पंथ की कटुता दूर होगी, भट्टारकों का परिवर्तित आगम समर्थित स्वरूप स्थापित होगा और भट्टारकों का वर्तमान विकृत आगम विरुद्ध स्वरूप समाप्त होगा। हम विचार तो करें कि भट्टारक पद, जिस रूप में आज है, का जैन चरणानुयोग आगम में क्या स्थान है? जैनाचार्यों में सम्यक्चारित्र के दो भेद किए हैं। सकल चारित्र मुनियों के होता है और विकल चारित्र श्रावकों के आचार्य कुंदकुंद ने मुनि, आर्यिका एवं उत्कृष्ट श्रावक ये तीन लिंग (पीछी धारी) बताये हैं और यह स्पष्ट घोषणा की है कि जैन दर्शन में चौथा कोई लिंग नहीं है। आज के इन पीछी धारी किंतु परिग्रहवान भट्टारकों की उक्त तीन लिंगों में से किस लिंग में गणना की जा सकती है? तथा मुनि और श्रावक इन दो पदों में से भट्टारकों का कौन सा पद है? इस प्रकार भट्टारक पुस्तक के यशस्वी विद्वान लेखक ने भट्टारकों के जैनागम सम्मत स्वरूप निर्धारण की हितकारी सलाह देकर भट्टारकों की वर्तमान विकृत छवि को उज्जवल बनाने का प्रयास किया है न कि धूमिल करने का। यदि निष्पक्ष होकर विचार करें तो भट्टारकों के वर्तमान आगम विरूद्ध विकृत रूप का स्वार्थवश समर्थन करने वाले लोग भट्टारकों की धूमिल छवि को धूमिल ही बनाए रखने के पक्षधर होने से वे भट्टारकों के एवं जैन धर्म के सच्चे हितैषी नहीं हो सकते हैं। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि भट्टारक मुनि तो नहीं हैं यदि मुनि नहीं हैं तो क्या वे श्रावक हैं? यदि श्रावक हैं तो उनके श्रावक की 11 प्रतिमाओं में से कौनसी प्रतिमा है ? संभवत: इस प्रश्न का उत्तर भी निराशाजनक ही होगा। उनकी वर्तमान चर्या में तो उन्होंने किसी भी प्रतिमा के व्रत विधि पूर्वक ग्रहण नहीं किए हुए हैं। ऐसी दशा में चरणानुयोग के अनुसार उनका कौनसा पद है? दुःख तो तब होता है जब मुनि नहीं होते हुए भी वे अपने आप को मुनि के समान विनय सत्कार कराते हैं। गृहत्यागी परिग्रह त्यागी क्षुल्लक मुनि के चिन्हरूप पीछी वे किस आधार पर रखते हैं? यह बताया गया है कि भट्टारक दीक्षा विधि मुनि के समान की जाती है। उन्हें एक बार कुछ क्षणों के लिए वस्त्र त्याग कर मुनि बना दिया जाता है। दीक्षा के समय वे सोने की पीछी व चांदी का कंमडलु ग्रहण करते हैं तथा भट्टारक मठ की सत्ता सूचक सील वाली मुद्रिका भी ग्रहण करते हैं। तभी श्रावकगण उनसे प्रार्थना करते हैं कि स्वामीजी इस पंचम काल में वस्त्र त्यागकर दिगम्बर भेष धारण करना संभव नहीं है इसलिए आप वस्त्र धारण कर लीजिए। हम आपका आदर सत्कार मुनि के समान ही सदैव करते रहेंगे। श्रावकों की इस प्रार्थना को स्वीकार कर वे सिल्क के कीमती गैरूआ वस्त्र व साफा पहन लेते हैं और मयूर पंख की पीछी भी धारण कर लेते नवम्बर 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। क्या यह वीतरागी मुनि के स्वरूप का साक्षात अवर्णवाद नहीं। स्वध्यायशील, आगम ज्ञाता, दिगम्बर जैन परंपरा की मूल आम्नाय है? साक्षात् मिथ्यात्व नहीं है? चारित्रिक एवं चारित्र शुद्धि की पवित्रता पर आस्था रखने वाले पं. कुलषदोषादसद्भूतमलोद् भावनमवर्णवादः। श्री नीरज जी जैन ऐसा लेख नहीं लिख सकते। यह तो उनके स्वार्थ कोई पाठक श्री नीरज जी द्वारा पूर्व में लिखित पुस्तक | और पक्ष व्यामोह के स्वर हैं। प्रसंगवश स्मरण में आता है कि परम सोनगढ़ समीक्षा पढ़कर उक्त लेख पढ़ेगा तो वह आश्चर्य चकति हो | पूज्य मुनि वर्द्धमान सागर जी के आचार्य पद प्रतिष्ठा के पूर्व श्री जायेगा। उसे लगेगा कि भट्टारकों के समर्थन में लिखा यह लेख | नीरज जी अपनी पूरी शक्ति से विरोध में खड़े हुए और एक फतबा सोनगढ़ समीक्षा के लेखक द्वारा लिखा तो नहीं हो सकता। हम | जारी कर पूरे भारतवर्ष के साधुओं, विद्वानों एवं प्रमुख समाजसेवियों सोनगढ़ समीक्षा पुस्तक के कतिपय अंश नीचे उद्धृत करते हैं। को लिखा कि मुनि श्री का चारित्रिक दोष इतना गंभीर है कि वे इस पृ.१६८'भगवान कुंदकुंद बहुत पहले ही अपनी गाथा में' पर्याय में तो कितने भी बड़े प्रायश्चित से भी दोष मुक्त होकर शुद्ध 'असंजदं न वंदे' लिखकर अव्रती जीव को चाहे वह सम्यग्दृष्टि हो | नहीं हो सकते। अत: वे आचार्य पद के योग्य नहीं हो सकते। किंतु चाहे भावी तीर्थंकर ही क्यों न हो, वंदना का निषेध कर चुके थे। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किए जाने के कुछ समय के पश्चात ही वीरसेन स्वामी ने असंयमी अव्रती मनुष्य को वंदना या नमस्कार माननीय श्री नीरज जी बिना अपनी पूर्व भूल पर पश्चाताप किए और करना तो दूर आगम का उपदेश देने की पात्रता नहीं बताई, मात्र | बिना सार्वजनिक रूप से स्पष्टीकरण दिए आचार्य श्री वर्द्धमान मुनियों को ही उसका पात्र कहा है। सागर जी की शरण में आ गए। भूल सुधार तो मनुष्य का एक उत्कृष्ट निर्विवाद रूप से भट्टारक संकल्प पूर्वक प्रतिमा रूप में | गुण है किंतु यदि वह केवल स्वार्थ परता के आधार पर हो और पूर्व देश व्रत भी नहीं होने से असंयमी हैं। फिर वे वंदना नमस्कार के भूल पर पश्चाताप के साथ न हो तो मात्र स्वार्थ आधारित अवसर पात्र कैसे हो सकते हैं? वादिता ही कहलायेगा। पृ. १९४- 'दिगम्बर जैन धर्म ने और समाज ने बार-बार | आज हमारा दिगम्बर जैन धर्म दो अतिवादों की चक्की के विषम परिस्थितियों का सामना किया है। बार-बार उसी के बीच से | पाटों के बीच में पिस रहा है। एक ओर सोनगढ़ पंथ है जो वीतराग निकल कर लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार मत मतातरों की | देवगुरु और वीतरागी आचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रों की उपासना के स्थापना की है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की स्थापना तो बहुत मोटा और | पक्षधर बनकर व्रत संयम को संवर निर्जरा का कारण नहीं मानते बहुत पुराना उदाहरण है। परंतु अभी चार सौ साल पूर्व तारण स्वामी | हुए भी स्वयं सच्चे दिगम्बर जैन होने का दावा करते हैं। दूसरी ओर तक ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं जहाँ यदि हमारे पूर्वज भट्टारक पंथ है जहाँ वीतरागी देव के स्थान पर रागीद्वेषी देवीआचार्य अपने सिद्धातों के साथ जरा भी लचीला रूख अपना लेते, | देवताओं की उपासना का अधिक प्रचार है। पीछी धारी वस्त्र धारी छोटी मोटी बातों पर समझौता कर लेते तो शायद हमारी संख्या जितनी | मठाधीश भट्टारक जगद्गुरु बनकर वीतरागी साधुओं के समान है उससे कई गुनी अधिक होती। परंतु हम देखते हैं हमारे परम विवेकी | अपनी पूजा सत्कार कराते हैं। अध्यात्म एवं आचार शास्त्रों की आचार्यों ने ऐसा नहीं किया। उन्हें पंथी की गुणवत्ता का मान था, | उपेक्षाकर मंत्र-तंत्र और देवी देवताओं की पूजाओं एवं अन्य क्रिया संख्या का नहीं। यह मूल संघ की पवित्रता का रहस्य है।' कांडों के विधान करने वाले शास्त्र ही मुख्य माने जाते हैं। श्री नीरज जी स्वयं के उक्त कथन से भट्टारकों के प्रसंग । मैं दिगम्बर जैन धर्म के श्रद्धालु बंधुओं से यह निवेदन में सर्वथा विपरीत रूख अपना रहे हैं। जब दिगम्बर जैन मूल संघ | करता हूँ कि वे स्वयं विचार करें कि उपर्युक्त अतिवादी पंथों में आम्नाय ने अल्पश्वेत वस्त्र धारी किंतु आरंभ एवं शेष परिग्रह त्यागी, | से हमारे वीतराग दिगम्बर जैन धर्म के लिए कौनसा पंथ अधिक गृहत्यागी, पदविहारी श्वेताम्बर साधुओं को भी संघ वाह्य माना तो अहितकर है? यदि कदाचित् दोनों को ही समान रूप से अहितकर आरंभ परिग्रह युक्त भगवां वस्त्र धारण करनेवाले, वाहन प्रयोग माना जाये तो एक पंथ की निंदा और दूसरे का समर्थन किस प्रकार करने वाले एवं पीछी धारण कर मुनि के समान अपनी पूजा कराने वाले सुविधा भोगी भट्टारकों का वह समर्थन कैसे कर सकती है? सम्माननीय विद्वान नीरज जी ने आगे लिखा है कि दिगम्बर एक ओर आपकानजी स्वामी को असंयमी मानते हुए उनकी वंदना | जैन संस्कृति का सात आठ सौ सालों का इतिहास भट्टारक संस्था के को निषेध करते हैं और दूसरी ओर उन असंयमी किंतु पीछी धारी द्वारा की गई जिन शासन की सेवा और उसके संरक्षण का इतिहास भट्टारकों की मुनिवत् पूजा प्रतिष्ठा का समर्थन करते हैं, उन्हें है। इनमें मंदिरों मूर्तियों और जिनागम की सुरक्षा तथा जैन ज्योतिष जगद्गुरु कहते हैं। आयुर्वेद लक्षणशास्त्र नैमित्तिक सामुद्रिक और हस्तरेखा आदि विद्याओं पृष्ठ २२९- 'दिगम्बरत्व की रक्षा दिगम्बरों से ही होगी। का संरक्षण भट्टारक की सेवाओं के रूप में इतिहास में अंकित है। अम्बरधारकों (सग्रन्थियों) से नहीं। आज जरूरत पक्के जैनों की मुगल शासन के चार पांच सौ सालों तक जब उत्तर भारत में मुनियों नहीं, सच्चे जैनों की है।' का अभाव था तब समाज संगठन उत्सव समारोह और मंदिर निर्माण लोग कहते हैं स्वार्थ के आधार पर ऐसा विरोधाभास | तथा मूर्ति प्रतिष्ठा आदि भट्टारकों ने ही कराए हैं। आपके जीवन का अंग बना हुआ है। यह तो निश्चित है कि । 24 नवम्बर 2003 जिनभाषित क्रमश:... , Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल नाड़ा प्रश्नकर्ताः सौ. ज्योति लोहाड़े, कोपरगांव केवल जघन्य पीत लेश्या नामक भावलेश्या पर्याप्त अवस्था में जिज्ञासा : लौकांतिक देवों में, इस पंचम काल में, सिर्फ होती है, अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्या होती हैं। देखें मुनि ही जाते हैं या श्रावक भी? | धवल पु. 2 पृष्ठ 544-545। यह भी उक्त श्री षट्षण्डागम के समाधान : श्री तिलोयपण्णत्ति अ.8/645-651 में इस | कथन से स्पष्ट है कि भवनवासी देवों के द्रव्यलेश्या (शरीर के प्रकार कहा है: जो भक्ति में प्रशस्त और सर्वकाल स्वाध्याय में | वर्ण) छहों होते हैं। स्वाधीन होते हैं। बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को । प्रश्नकर्ता : श्री सविता जैन, नन्दुरवार। भाकर, संयम से युक्त होते हैं, जो स्तुति-निन्दा, सुख-दुख और जिज्ञासा : क्या सभी तीर्थंकरों की वाणी द्वादशांग रूप ही बंधु-रिपु में समान होते हैं, जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द, - होती है? क्या 363 मतों का खण्डन हुण्डावसर्पिणी काल में होने निर्भय, निरारंभ और निरबंध हैं। जो संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ | वाले भरतक्षेत्र के तीर्थंकर ही करते हैं, विदेह क्षेत्र के नहीं करते? तथा जीवित-मरण में समदृष्टि होते हैं। जो संयम, समिति, ध्यान, | क्या सभी १७० कर्मभूमियों में उपदेशित अंगपूणे में समान वर्णन समाधि व तप आदि में सदा सावधान हैं। पंचमहाव्रत, पंचसमिति, | पाया जाता है? बताईएगा। पंचइन्द्रिय निरोध के प्रति चिरकाल तक आचरण करने वाले हैं समाधान : 363 मतों का अर्थ 363 अभिप्राय है। इसका ऐसे विरक्त ऋषि लौकांतिक होते हैं। | अर्थ 363 धर्म हमें नहीं लेना चाहिए। 363 मतों का जहाँ खण्डन सिद्धांतसार दीपक अ.15/291 में इस प्रकार कहा है- | किया गया है, वहाँ धर्मों के नाम लेकर खण्डन नहीं किया गया, अत्यन्त स्त्रीविरक्ता ये, तपस्यन्ति विरागिण :। बल्कि 363 प्रकार की मान्यताओं का खण्डन किया गया है। मुनयः प्रागमेव ते स्युल्लौकांतिकाः स्त्रियोऽतिगाः॥२९१॥ | विदेहक्षेत्र में भी जीवों की मान्यताएँ तो मिथ्यात्वग्रस्त होने के अर्थ- पूर्वभव में जो मुनि स्त्री जन्यराग से अत्यन्त विरक्त | कारण अलग-अलग रहती हैं, परन्तु हिन्दू धर्म, ईसाईधर्म आदि होते हैं, तथा राग रहित अत्यन्त उग्र तप करते हैं, वे स्वर्ग में धर्म, इन विभिन्न धर्मों के अलग-अलग देवता या भगवान तथा आकर स्त्रियों के राग से रहित लौकांतिक देव होते हैं। इन सभी धर्मों के अलग-अलग ग्रन्थ या साधु नहीं होते। विदेह इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि चतुर्थकाल हो या पंचमकाल, । क्षेत्र में सभी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, अत: 363 प्रकार की केवल उपरोक्त विशेषता सहित मुनिराज ही लौकांतिकों में जन्म | मान्यताएँ वहाँ भी होती हैं। लेते हैं, श्रावक लौकांतिक देव नहीं बनते। यह भी विशेष है कि | सभी तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि समान होती है। द्वादशांग कुछ विज्ञजन ऐसा मानते हैं कि केवल बालब्रह्मचारी साधु ही का निरूपण भी समान होता है। द्वादशांग से तो कोई भी विषय लोकांतिक देव बनते हैं, वह भी धारणा आगम सम्मत नहीं है। | छूटा हुआ नहीं है, सारे विषय इसमें समाहित हैं। केवल कुछ अंग जिज्ञासा : भवनवासी देवों के भाव लेश्या छह हैं और | जो उन तीर्थंकर विशेष या उनके तीर्थ विशेष से संबंधित होते हैं द्रव्य लेश्या पीतान्त तक कैसे? उनमें उस तीर्थ के अनुसार परिवर्तित वर्णन पाया जाता है। जैसेसमाधान : आपने प्रश्न ठीक नहीं किया है। वास्तविकता 1. छठा अंग-ज्ञातृधर्मकथा है- इसमें तीर्थकरों एवं गणधरों यह है कि भवनवासी देवों में भावलेश्या आदि की चार अर्थात | का चरित्र होता है। कृष्ण, नील, कापोत तथा पीत कही गई हैं। श्री तत्वार्थसूत्र में कहा | 2. आठवां अंग-अंत:कृतदशांग- प्रत्येक तीर्थंकर के काल है: आदितस्त्रिषु पीतान्त लेश्याः (अ.४/२१) तत्वार्थसूत्रकार ने ये | में उपसर्ग सहनकर मोक्ष जाने वाले 10--10 मुनियों की कथा का चारों लेश्याएँ भवनवासियों के कही हैं। सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक | इसमें वर्णन होता है। आदि टीकाओं में भी ये चारों भाव लेश्याएँ स्वीकार की गई हैं। 3. नौवां अंग अनुत्तरोपपादिक दशांग : प्रत्येक तीर्थंकर के परन्तु श्री षटखंडागम पु. २/५४४ में इस प्रकार कहा है- | काल में उपसर्ग सहन कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले भवनवासिय वाणविंतर जोइसियाणं पज्जत्ताणं | 10-10 मुनियों की कथा का इसमें वर्णन है। इन अंगों में उन-उन भण्णमाणे अत्थि दव्वेण छलेस्सा भावेण जहणिया तेडलेस्सा | तीर्थंकर विशेष से संबंधित वर्णन पाया जाता है। अर्थ- भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिषी पर्याप्त देवों में इसके अतिरिक्त जैसे जम्बूद्वीप में रचित परिकर्म नामक छहों द्रव्यलेश्या कही जाती हैं और भाव से जघन्य पीतलेश्या होती | बारहवें अंग के भेद में जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति है, उसीप्रकार धातकी है। इस कथन से यह बात स्पष्ट होती है कि भवनवासी देवों के | खण्ड के बारहवें अंग के परिकर्म में धातकीखण्ड द्वीप प्रज्ञप्ति - नवम्बर 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगी। शेष वर्णन द्वादशांग में समान ही होता है। : जिज्ञासा पर्याय ज्ञान के स्वामी निगोदिया जीव के क्या पर्यायावरण नामक कर्म का उदय नहीं होता? यदि होता है तो फिर उसका वह ज्ञान निरावरित क्यों रहता है ? समाधान : ऋजुमति से गमन कर सूक्ष्मनिगोदिया लब्धपर्यातक जीवों में जन्म लेने वाले जीव के उत्पत्ति के प्रथम समय में जो सर्वजघन्य निरावरित ज्ञान प्रकट रहता है उसे पर्याय ज्ञान कहते हैं। इस जीव के यद्यपि पर्याय ज्ञानावरण कर्म का उदय है, परन्तु उसके देशघाति स्पर्धकों का उदय होता है। जिससे ज्ञान कासर्वजघन्य अंश पर्याय ज्ञान प्रकट रहता है। यदि पर्याय ज्ञानावरण कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय हो जाए तो जीव ज्ञानरहित हो जाए, पर ऐसा कदापि संभव नहीं है। इस जीव के पर्याय समास ज्ञानावरण कर्म के तो सर्वघाति स्पर्धकों का उदय है, जिससे इस जीव के पर्याय समास ज्ञान नहीं होता। अतः पर्याय ज्ञानावरण कर्म के उदय होते हुए भी, देशघाति स्पर्धकों का उदय होने के कारण, पर्याय ज्ञान नष्ट नहीं होता, प्रकट रहता है। देशघाति स्पर्धक उन्हें कहते हैं जो उस गुण का घात नहीं करते। इनके उदय में उस गुण का आंशिक सद्भाव रहता ही है। जिज्ञासा : तीर्थंकर की माता को १६ स्वप्नों में स्वर्ग से आता हुआ विमान दिखाई देता है। तो क्या नरकगति से आने वाले तीर्थंकरों को यह स्वप्न नहीं दिखाई देता होगा या अन्य कुछ और दिखता होगा? बताईएगा । समाधान: तीर्थंकर की माता का तेरहवां स्वप्न 'देव विमान' दिखाई देता है, जो इस बात का प्रतीक है कि गर्भ में आने वाले जीव के कल्याणकों के अवसर पर देवों का आगमन होगा । यह तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है कि यह स्वप्न इस बात का प्रतीक है कि आने वाली आत्मा देवगति से पधार रही है। सभी तीर्थंकरों की माताओं को चाहे वे भरत या ऐरावत क्षेत्र की हों, या विदेह क्षेत्र से संबंधित हों, समान प्रकार के सोलह स्वप्न ही दिखाई देते हैं। जो श्रेणिक आदि जीव नरक गति से माता के गर्भ में पधारेंगे उन महाभाग्य माताओं को ये ही १६ स्वप्न दिखाई देंगे। इनमें कोई भी अन्तर नहीं होगा। देखें जैन तत्व विद्या, पृष्ठ ३२ जिज्ञासा : केवली भगवान के समुद्घात अवस्था में कितने प्राण होते हैं? समाधान : केवली भगवान् के समुद्घात अवस्था में निम्नप्रकार प्राण होते हैं: प्रथम समय औदारिक काय योग दूसरा समय औदारिक मिश्र काययोग नवम्बर 2003 जिनभाषित 26 प्राण 4 (बचन, काय बल, आयु ग्वासोच्छवास ।) दण्ड प्राण 3 ( कायबल, आयु, स्वासोच्छवास) कपाट तीसरा समय कार्मण काय योग चौथा समय पांचवा समय छठा समय औदारिक मिश्र काय प्राण 3 योग प्राण 2 (कायबल, आयु) प्रतर लोकपूरण प्रतर कपाट सातवां समय औदारिककाय योग प्राण 4 आठवां समय · दण्ड प्रवेश जिज्ञासा: मुनियों के 6 काल कौन से होते हैं? समाधान: मुनिराजों के दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना तथा उत्तमार्थ ये छह काल होते हैं, जिनका स्वरूप इस प्रकार है : 1. जब कोई निकट भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, बाह्य एवं अभ्यांतर परिग्रह का त्याग कर जिनदीक्षा (दिगम्बर मुद्रा ) धारण करता है, वह दीक्षाकाल है। 2. दीक्षा के अनन्तर परमार्थ से निश्चय, व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्व तत्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्रों का और व्यवहार नय से चतुर्विध आराधना का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब आचार्य आराधनादि चरणानुयोग ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। 3. शिक्षाकाल के पश्चात् निश्चयनय से निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर जिज्ञासु भव्य प्राणियों को परमात्मा के उपदेश से तथा व्यवहार नय से चरणानुयोग में कथित - और अनुष्ठान उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावना सहित होता हुआ शिष्यगण का पोषण करता है, वह गण पोषण काल है। पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज का वर्तमान में यही गणपोषण काल चल रहा है। 4. गणपोषण काल के अनन्तर निश्चयनय से गण को छोड़कर निजपरमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है, और व्यवहार नय से आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परगण (परसंघ) में जाता है वह आत्मसंस्कार काल है। 5. आत्मसंस्कार काल के बाद आत्मसंस्कार को स्थिर करने के लिए परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकार भावों को कृष करने रूप भाव सल्लेखना तथा भाव सल्लेखना की साधनी भूत कायक्लेशादि का अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना इन दोनों सल्लेखना का आचरण करना सल्लेखना काल है। 6. विधि पूर्वक द्रव्य और भाव सल्लेखना का धारी तद्भव मोक्षगामी या 2-3 भव में मोक्ष प्राप्त करने वाला महामुनि इच्छानिरोध रूप तपश्चरण में स्थित होता है व इंगिनीमरण, प्रायोग गमन मरण अथवा भक्त प्रत्याख्यान रूप समाधि को धारण करना वह उत्तमार्थ काल है। देखें अंगपण्णत्ति पृष्ठ 227-28 तथा पंचास्तिकाय गाथा 173 तात्पर्यवृत्ति टीका । 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा, 282002 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार अमरकंटक में प्रतिमा स्थापन भारत के उपराष्ट्रपति भैरोंसिह शेखावत ने अमरकंटक में । पशुओं का वध कर मांस, खून, चमडे का निर्यात किया जाना कौन एक विशाल जन समूह को सम्बोधित करते हुए कहा कि भारत में | सा व्यापार है। भारत की मूल संस्कृति की रक्षा करने की बात की सुचारु सामाजिक व्यवस्था भगवान आदिनाथ के द्वारा प्रतिपादित | जाती है भारत में परमार्थ छोड़कर अर्थ अपनाने से विकास नहीं असि, मसि और कृषि के सिद्धान्त से आरंभ हुई थी। सन्तों को | माना जा सकता। अर्थ नहीं परमार्थ के सोपान पर चढ़ना चाहिए। भारतीय समाज का आधार बताते हुए श्री शेखावत ने आचार्य श्री पशु जीवित धन है, जीवित धन का वध कर विदेशी धन को विद्यासागर को वर्तमान काल का प्रमुख संत निरूपित किया। अर्जित किया जाता है। वृषभ भारत में कृषि का आधार है। कृषि भारत में लगभग छब्बीस करोड़ अत्यन्त निर्धन हैं। इनके सम्मुख प्रधान देश में ही कृषि के आधार को समाप्त किया जा रहा है। जैन रोटी का संकट है। संविधान में सम्मान के साथ जीने का मौलिक कोई जाति नहीं है यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि कषायों अधिकार दिया गया है किन्तु सरकार का कुछ दोष है। भगवान और इंद्रियों को जीतने वाला ही जैन होता है, भाव प्रणाली का महावीर के अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त से ही नागरिकों के | नाम ही जैन धर्म है। कोई भी इन गुणों को अपनाकर जैन हो इस मौलिक अधिकार की रक्षा हो सकती है। श्री शेखावत ने | सकता है। मानव से महामानव और भगवान बनने की क्षमता भगवान महावीर के सिद्धान्तों को संसार के लिए अत्यन्त उपयोगी प्रत्येक आत्मा में है। मनुज जन्म के उपरान्त विकास कर मनुष से बताया। इस विशाल जन सभा में भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तों से | मानव की यात्रा होती है। मांस उपज नहीं है, पशु वध से प्राप्त आए जैन धर्मावलम्बियों के साथ अन्य समाज के हजारों नर नारी किया जाता है। एक पेट के पोषण के लिए एक पेट का वध करना उपस्थित थे। उपराष्ट्रपति की उपस्थिति में अमरकंटक में निर्माणाधीन संवैधानिक भी नहीं है। यह सत्य कटु लग सकता है किन्तु बिगड़े जिनालय में विश्व की सर्वाधिक वजनी भगवान आदिनाथ की पाचनतंत्र और बुद्धि के उपचार के लिए कटु एक औषधि है। विशाल प्रतिमा को मूल स्थान पर २८ टन के विशाल कमल पर | भारत की जनता रोटी मांगती है मांस नहीं। विदेशों की मांग पर विराजमान किया गया। इस अवसर पर केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री, मांस का निर्यात किया जा रहा है। निज देश के हितों की उपेक्षा दिग्विजय सिंह, म.प्र. के लोक निर्माण मंत्री श्रवण पटेल, म.प्र. है। वीतरागता से आत्म स्वरूप ज्ञात हो जाता है। देश, संस्कृति, अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष इब्राहिम कुरैशी, टाईम्स ऑफ | धर्म की रक्षा के संकल्प से अमरकंटक के बियावान में इसका इंडिया समूह के स्वामी साहू रमेश चन्द्र जैन, आर.के. मारवल्स श्रोत बन सकता है। सेवा धर्म को अपनाने के लिए शासन को भी के स्वामी उद्योगपति अशोक पाटनी आदि उपस्थित थे। सजग होना चाहिए। जैन समाज रूग्ण की सेवा करना चाहता है, श्री शेखावत ने कहा कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान भोपाल में चिकित्सा महावद्यिालय की स्थापना के लिए स्थान का आदिनाथ की पुत्री के नाम पर ही ब्राह्मी लिपि के माध्यम से | प्रबंध कर लिया है। मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि उपस्थित हैं सेवा में भरतीय शिक्षा और संस्कृति का विकास हुआ। मध्य प्रदेश की | सहयोग कर सकते हैं। आचार्य श्री ने कहाकि वृषभ नाथ का जीवन दायिनी सरिता के उद्गम अमरकंटक में भगवान आदिनाथ समर्थन संग्रह नहीं वितरण करना चाहता है, लोक संग्रह कहा की मूर्ति स्थापना से अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों को जाता है लोभ संग्रह नहीं। विश्व कल्याण की उदात्त भावना के आत्मसात करने की प्रेरणा प्राप्त होगी। खाद्यान्न के भंडारों और ९२ | साथ आगे बढ़ना चाहिए। मिलियन डालर की विदेशी मुद्रा के बाद भी भारत में २६ करोड़ । आचार्य श्री की बोध वाणी के उपरान्त पुन: उपराष्ट्रपति गरीबों के सामने रोटी का संकट है। भगवान महावीर के सिद्धान्तों श्री शेखावत ने बताया कि गोवध निषेध का बिल संसद में को अपनाने के अलावा गरीबों को संकट से उबारने का समाधान | विचाराधीन है। मैं आपकी शक्ति जानता हूँ महाराज, भारत में ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं है। मैंने आज कुछ कहने के पूर्व आचार्य श्री कौन है जो आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर सके। आपके नेतृत्व में विद्यासागर जी महाराज के चरणों में अभिनन्दन प्रस्तुत किया है। मैं स्वयं चलने को तैयार हूँ, सब चलेंगे। धर्म का तात्पर्य पूजा नहीं यह ठीक है कि मैं भारत का उपराष्ट्रपति हूँ किन्तु मेरा निवेदन है | गरीबों की रोटी का प्रबंध है। एक की हत्या कर एक का पेट कि मुझे आचार्य श्री ऐसा आशीर्वाद दें कि समाज सेवा में सक्षम | भरना न्यायोचित नहीं है। समारोह में लोक निर्माण मंत्री श्रवण हो सकूँ। पटेल ने कहा कि महापुरूषों के मार्गदर्शन से ही चुनौतियों का आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने उपस्थित जन समुदाय सामना किया जा सकता है। आचार्य श्री का स्थान भारत में • को बोध कराते हुए कहाकि भगवान आदिनाथ का प्रतीक चिन्ह | सर्वोच्च है। विदेश राज्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने हजारों वर्ष प्राचीन वृषभ है एवं भारत के संविधान के मुख पृष्ठ पर भी वृषभ का चित्र | सभ्यता का उल्लेख करते हुए भगवान महावीर की करूणा को है। भारत में वृषभ और उसकी जननी गाय के साथ हिंसक और | | जीवन में अंगीकृत करने की आपवश्यकता बताई। सर्वोदय समिति क्रूर व्यवहार रोका जाना चाहिए। विदेशी मुद्रा की प्राप्ति के लिए | द्वारा अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंटकर अभिनन्दन किया गया। वेदचन्द्र जैन, गौरेला, पेण्ड्रारोड नवम्बर 2003 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार भावभीना प्रतिभा सम्मान सागर जी एवं मुनिश्री क्षमासागर जी ने अपने हृदयस्पर्शी प्रवचनों में सम्मानित प्रतिभाओं को शुभाशीष देकर उनके उज्जवल भविष्य 'आज के युग में मोक्ष की प्राप्ति असंभव है, लेकिन हम की कामना की। मुनिश्री क्षमासागर जी ने प्रतिभाओं से कहा कि सब मोक्ष पर चलने की तैयारी अवश्य कर सकते हैं। इसकी इस समय आपका सबसे बड़ा दायित्व मन लगाकर पढ़ाई करना शुरूआत घर पर रहकर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी है। साथ ही माता-पिता, परिवार और समाज के प्रति भी अपने हो सकती है।' यह सम्बोधन विद्वान जैन मुनिश्री क्षमासागर जी ने दायित्व को निभाते हुए अपने सोचे हुए उद्देश्य तक पहुँचने का मैत्री समूह के तत्वावधान में रामगंजमण्डी में संपन्न यंग जैना सतत प्रयास करें। आज आप सब शरीर से अवश्य विदा हो रहे हैं अवार्ड ०३ के मुख्य समारोह में उपस्थित प्रतिभाओं एवं आगन्तुकों पर हृदय से कभी विदा नहीं होंगे। अन्त में मुनिश्री के प्रवचन तो को दिया। मुनिश्री के प्रवचनों में प्रतिभाओं के भविष्य को संवारने इतने मार्मिक हो गए थे कि पाण्डाल में मौजूद विशाल जनसमुदाय की गहरी कशिश और कोशिश शिद्दत से झलक रही थी। इस के भाव विह्वल होकर अश्रु बह निकले। ५ अक्टूबर के मुख्य प्रसंग पर मुख्य अतिथि डॉ. सुनीता जैन आई.आई.टी. दिल्ली ने भी प्रतिभा सम्मान समारोह के पहले सुबह ७ बजे से आयोजित सभा अपना सारगर्भित उद्बोधन दिया। कार्यक्रम में म.प्र. के पूर्व मंत्री में मुनिश्री क्षमासागर जी एवं मुनिश्री भव्यसागर जी के सारगर्भित एवं गीतकार श्री विट्ठल भाई पटेल, भारत सरकार के सचिव श्री प्रवचन हुए। इस प्रसंग पर पूर्व मंत्री एवं प्रसिद्ध गीतकार श्री कमलकांत जैसवाल, उद्योगपति श्री पी. एल. बैनाड़ा आगरा, विट्ठल भाई पटेल सागर ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में ऐसे सम्मान आई.ए.एस. श्री नरेश सेठी, अर्थशास्त्री श्री जयन्ती लाल भण्डारी, समारोह प्रतिभाओं की प्रगति के लिए अत्यन्त सार्थक बताए। इंजी. वाई. के.जैन एवं श्री अशोक जैन सी.ए. सहित अनेक प्रारम्भ में भोपाल के गौरव सोगानी ने अपने सुमधुर मंगलाचरण से विद्वान विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे। वातावरण भक्तिमय कर दिया। समारोह के पहले दिन ४ अक्टूबर प्रसिद्ध व्यावसायिक नगरी रामगंजमण्डी (राजस्थान) में के कार्यक्रम में पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी ने अपने प्रवचन में ४ और ५ अक्टूबर को देश के विभिन्न प्रांतों से आई प्रतिभाओं का कहा कि शिक्षा का अर्थ है- परस्पर स्नेह के साथ जीना और अपने अद्भुत समागम देखने को मिला। पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी एवं जीवन का सर्वोच्च मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक एवं मुनिश्री भव्य सागर जी के मंगल सान्निध्य में दो दिन तक देश की आध्यात्मिक विकास करना। इसी तरह बौद्धिक विकास से आशय जैन प्रतिभाओं को जो मान, सम्मान और मार्गदर्शन मिला, उसमें सेल्फ कॉन्फीडेन्स यानि आत्मविश्वास से है, अतिविश्वास से प्रतिभाएँ तथा उनके परिजन अभिभूत हो उठे। 5 अक्टूबर को जब नहीं। इस अवसर पर मुनिश्री की प्रेरणा से अनेक प्रतिभाओं ने कृषि उपज मण्डी के विशाल परिसर में दोपहर 1 बजे अपने रात्रि भोजन त्यागने एवं नियमित रूप से मंदिर जाने का संकल्प अपने क्षेत्र के विशिष्ट प्रतिभाओं के भाव भी ने सम्मान का सिलसिला लिया। प्रवचन के पूर्व मिनी जैन ने मधुर मंगलाचरण प्रस्तुत यंग आर्केस्ट्रा की मधुर धुनों के साथ हुआ तो सारा वातावरण किया। संचालन का दायित्व श्री राजेश बड़कुल छतरपुर ने निभाया। खुशगवार हो उठा। संचालन की कमान संभाले प्रख्यात कवि प्रो. प्रतिभाओं ने धोती-दुपट्टा धारण कर पूज्य मुनिश्री को सरोज कुमार की उद्घोषणा के साथ ही यंग आर्केस्ट्रा झांसी के पंक्तिबद्ध होकर आहार देने का अनूठा अनुभव तथा पुण्य भी कलाकारों ने संगीतमयी मंगलाचरण प्रस्तुत कर सम्मान समारोह अर्जित किया। इस अवसर पर दोपहर के सत्र में मौजूद प्रतिभाओं का उम्दा आगाज किया। मुख्य अतिथि प्रो. सुनीता जैन ने देश के को उनके विषय एवं रूचि के अनुरूप जानेमाने विद्वानों डॉ. कोने-कोने से आई ८०० से ज्यादा प्रतिभाओं को सुन्दर प्रतीक जयंती लाल भण्डारी, इंजी.पी.एल. बैनाडा, इंजी. बाई.के.जैन, चिन्ह, गोल्ड मैडल, प्रशस्ति पत्र एवं पुस्तकों से वात्सल्यपूर्वक प्रो. सरोज कुमार, इंजी. एस.एल. जैन एवं डॉ. मनीष जैन आदि ने सम्मानित कर अपना शुभाशीष दिया। उन्होंने प्रतिभाओं से कहा उपयोगी मार्गदर्शन दिया। सायंकालीन सत्र में डॉ. जयन्ती लाल कि 'आज एक माता-पिता अपने कई बच्चों को अच्छे से पाल भण्डारी ने प्रतिभाओं की कैरियर संबंधी जिज्ञासाओं तथा प्रश्नों लेते हैं लेकिन इतने सारे बच्चे एक माता-पिता को पालने में का समाधान अत्यन्त कुशलतापूर्वक करते हुए समारोह को और कठिनाई महसूस करते हैं। आप अपने आप को कितना भी ऊँचा भी सार्थक बना दिया। इस भव्य प्रतिभा सम्मान समारोह में मैत्री उठा लें, पर कभी अपने माता-पिता को न भूलें। परिवार के समूह की कर्मठ कार्यकर्ता डॉ. कु. निशा जैन और उनके उत्साही मुखिया को चाहिए कि वह अपनी संपत्ति का एक हिस्सा अपनी सहयोगियों ने व्यवस्थाओं को बखूबी अंजाम दिया। पत्नी के नाम अवश्य करें। केवल पुत्रों में न बांटे, जिससे भविष्य उल्लेखनीय है कि मुनिश्री क्षमासागर जी की प्रेरणा से वर्ष में पति के न रहने पर पत्नी सम्मानित जीवन जी सके।' २००१ में मध्य प्रदेश के शिवपुरी नगर में शुरु हुआ यह राष्ट्रीय प्रतिभाओं के सम्मान के बाद क्रमशः पूज्य मुनिश्री भव्य | प्रतिभा सम्मान समारोह वर्ष २००२ में जयपुर में अत्यंत गरिमापूर्वक 28 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपन्न हुआ था। इस वर्ष रामगंजमण्डी में कक्षा १० वीं में ८५ प्रतिशत एवं १२ वीं में ७५ प्रतिशत अंक पाने वाली प्रतिभाओं के साथ-साथ आचार्य श्री विद्यासागर जी के शुभाशीष से संचालित भारत वर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासनिक शिक्षण संस्थान, जबलपुर की विभिन्न प्रशासनिक सेवाओं में चयनित २८ प्रतिभाओं को सम्मानित किया गया। गौरतलब है कि उच्च स्तरीय प्रबंधकीय कौशल वाला यह प्रतिभा सम्मान समारोह देश में संभवत: अपने ढंग का अनूठा तथा सबसे बड़ा प्रतिभा सम्मान समारोह है जो एक दिगम्बर साधु की प्रेरणा व सान्निध्य में नैतिक जीवन मूल्यों के प्रति समर्पित व्यक्तियों के एक समूह द्वारा बिना किसी शासकीय सहायता से आयोजित किया जाता है। साथ ही जरूरतमन्द प्रतिभाओं को अध्ययन हेतु छात्रवृत्ति भी सम्मान प्रदान की जाती है। इस समारोह में कक्षा १२ वीं में कु. अंथिमा कासलीवाल, पाण्डीचेरी ( ९६.५ प्रतिशत ) एवं कौस्तुभ जैन, नागपुर ( ९६.५० प्रतिशत) ने विज्ञान संकाय, कु. नम्रता निर्मल, बँगलोर (९५ प्रतिशत) ने वाणिज्य संकाय तथा कु. शशि जैन, खानपुर राजस्थान (८६.७ प्रतिशत) ने कला संकाय में सर्वोच्च प्रतिभावना के रूप में विशेष स्थान पाया। कक्षा १० वीं की मैरिट लिस्ट में जयपुर के चिन्मय कोठारी ने प्रथम स्थान पाने का गौरव पाया। डॉ. सुमति प्रकाश जैन, छतरपुर (म.प्र.) भाग्योदय तीर्थं प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा दस दिवसीय शिविर सदलगा में सम्पन्न भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय, सागर म.प्र. द्वारा दिनांक २२ सितम्बर ०३ से २ अक्टूबर ०३ तक दस दिवसीय शिविर परम पूज्य १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की जन्मस्थली सदलगा में परम पूज्य १०५ आर्यिकारत्न आदर्शमति माता जी के ससंघ सान्निध्य में लगाया गया। शिविर में ५४ मरीजों को भर्ती कर मोटापा, डायबिटीज, अस्थमा, जोड़ों का दर्द, ब्लड प्रेशर और चर्म रोग संबंधी रोगियों को योग, ध्यान, पानी, हवा एवं भोजन से ठीक किया। शिविर में हजारों लोगों ने परामर्श लिया और प्राकृतिक चिकित्सालय, सागर द्वारा तैयार किया गया शुद्ध औषधि मंजन, डायबिटीज चूर्ण, हिना, दर्दनाशक तेल एवं प्राकृतिक चाय खरीदी। उद्घाटन एवं समापन शिविर के अवसर पर परम पूज्य आर्यिका रत्न पूज्या आदर्शमति माताजी वा पूज्या दुलर्भमति माताजी एवं पूज्या अंतरमति माताजी ने जनता को प्रकृति के साथ जीने, संयम से खाने-पीने, संतुलित खाने-पीने व वैचारिक रूप से सात्विक रहने का संदेश दिया। आपने डॉक्टर के कार्य को सेवा का नाम दिया। सेवा पवित्र भावों से करने पर लाभकारी होती है, ऐसा बताया। आपने परम पूज्य १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रकृतिवत् स्वरूप पर भी मांगलिक उद्बोधन दिया। सदलगा दक्षिण वासियों ने उत्तर भारत की भाग्योदय तीर्थ संस्था की भूरि-भूरि सराहना की। डॉ रतनचंद जी शास्त्री, भोपाल द्वारा शिविर समापन पर उपसंहार के रूप में अपना व्याख्यान दिया। डॉ. रेखा जैन प्राकृतिक चिकित्सा सागर (म. प्र. ) आचार्य श्री १०८ विद्यासागर महाराज के जन्म महोत्सव पर विभिन्न आयोजन श्रमण संस्कृति के ध्वज वाहक परम साधक आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का ५७ वां जन्म दिवस जबलपुर शहर में अनूठे तरीके से मनाया गया जिसमें जैन सेवा समिति द्वारा दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किये गये। सह संयोजक संजय अरिहंत जबलपुर तीर्थ रक्षा हेतु संकल्प भगवान् शांतिनाथ अतिशय क्षेत्र बहोरी बंद में पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य पू. समता सागर जी, पू. प्रमाण सागर जी महाराज, पू. निश्चय सागर जी महाराज के सान्निध्य में रक्षा बंधन के पावन पर्व पर पू. समता सागर जी महाराज के प्रवचन से पहले सेकड़ों लोगों ने तीर्थ रक्षा का संकल्प लिया और रक्षा सूत्र जिनालय में बांधा। सभी ने यह संकल्प लिया की 'हम आज से इस नियम में बंधते हैं कि सभी तीथों की सेवा का संकल्प लेते हैं।' इस अवसर पर पू. महाराज श्री ने सभी को आशीर्वाद दिया और ऐसे कार्य की सराहना की, साथ ही वृक्षारोपड़ का कार्यक्रम हुआ जिसका नाम शांतिवन रखा गया। विगत दिनों पू. आचार्य श्री ने इस क्षेत्र पर ७७ दिन रहकर साधना की, जिससे क्षेत्र का बहुत विकास हुआ। आ. श्री का इस क्षेत्र में तीन बार पदार्पण हुआ। कवि अजय अहिंसा एडवोकेट पो. बाकल जिला कटनी पिन- 483331 तीर्थ क्षेत्र बहोरीबन्द / प्रबल पुण्योदय श्री दिगम्बर जैन अतिशय तीर्थक्षेत्र बहोरीबंद (कटनी) जहाँ १००८ भगवान श्री शान्तीनाथ की १६ फुट उतुंग मनो अतिशय कारी खड़गासन जिनेन्द्र प्रतिमा एवं श्री १००८ बाहुबली भगवान की ५ फुट उतुंग मनोहारी कलात्मक प्रतिमा आगन्तुकों को भाव विभोर कर देती है, जहाँ यात्रियों व साधुसंतों के लिये साधनायोग्य सुखद आवासीय व्यवस्था व मनोरम परकोटा है, भोजनादि की व्यवस्थाओं से परिपूर्ण यह क्षेत्र और भी आकर्षण का केन्द्र बन गया, जब यहाँ संतशिरोमणी १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी के परम प्रभावक शिष्य १०८ मुनिराज श्री समतासागर जी, १०८ मुनि श्री प्रमाणसागर जी एवं १०५ ऐलक श्री निश्चय सागर जी का पावन वर्षा योग २००३ स्थापित हुआ । इन त्रिमूर्ति नवम्बर 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजों के सुखद सान्निध्य में दशलक्षण धर्म/ पर्वराज पर्युषण | साहित्य समीक्षा' कृति का विमोचन श्रीमती विजयादेवी, श्रीपाल मनाने का सौभाग्य पाकर हम आत्मविभोर हुये। कटारिया एवं सर्वश्री प्रेम पाण्ड्या , सुरेश गंगवाल, हेमराज ३१ अगस्त से प्रारंभ होने वाले पर्वराज पर्युषण में बहोरीबंद | बाकलीवाल, भंवरलाल गंगवाल ने संयुक्त रूप से किया। कृति के पहुँचने की ३० अगस्तीय यात्रा क्षेत्र पहुँचने पर बाधक बन रही प्रकाशक डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन, निदेशक प्राच्य विद्या अहिंसा शोध थी, जब अतृप्त धरा को वर्षा का इतना दुलार मिला, जिसे वह संस्थान (पार्श्वज्योति मंच) बुरहानपुर (म.प्र.) हैं। उक्त कृति में बाहों में नहीं समेट पा रही थी, जिससे क्षेत्र यथानाम तथा गुणवाला प. पू. मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज के प्रवचन साहित्य यानी बहोरी-'बंद' बन गया था, नदी को कुछ उतरने पर वाहन की १५ कृतियों की समीक्षा प्रस्तुत की गयी है। विमोचन समारोह उससे निकलते या नाव पर सवार होकर यात्रियों का आवागमन | का संचालन प्रा. अरूण कुमार जैन (ब्यावर) एवं डॉ. विजयकुमार होता, ऐसी स्थिति पूरे पर्यों के दौरान बनी रही फिर भी उल्लेखनीय | जैन (लखनऊ) ने किया। आभार डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन (सचिवहै कि क्षेत्र में विराजमान मुनिराजों के दर्शनार्थ एवं आहार एवं | पार्श्व ज्योति मंच) ने व्यक्त किया। आहार हेत् चौका लगाने आस-पास के क्षेत्रों के अतिरिक्त दूर-दूर | विदत्परिषद पं. कैलाशचन्द्र जैन जन्म शताब्दी से यात्रियों का तांता लगा रहा। राजेन्द्र जैन-राजमती जैन वर्ष समारोह मनायेगी गृहशोभा, सतना (म.प्र.) श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् अपनी पंचम आत्म-साधना शिक्षण शिविर स्थापना के ५९ वें वर्ष में श्री स्याद्वाद महाविद्यालय के प्राण सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द जैन जन्मशताब्दी वर्ष समारोह पूर्वक दिनांक ३०.१.२००३ से १४.१२.२००३ मनायेगी। उल्लेखनीय है कि अपनी प्रखर मेघा, लेखन एवं जैन अत्यन्त हर्ष का विषय है कि परमपूज्य आचार्य १०८ श्री सन्देश के प्रधान सम्पादक के रूप में यशस्वी हुए पंडित जी का विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेद यह जन्म शताब्दी वर्ष है। सितम्बर को केकड़ी (राज.) में पद्मपुराण शिखर जी के पादमूल में स्थित, प्राकृतिक छटा से विभूषित, परम परिशीलन राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी में सहभागी श्री अ.भा.दि. जैन पूज्य क्षुल्लक १०५ श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी की साधना स्थली विद्वत्परिषद् के विद्वानों की एक बैठक डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी की उदासीन आश्रम, इसरी बाजार में पं. श्री मूलचन्दजी लुहाड़िया अध्यक्षता में सम्पन्न हुई, जिसमें उक्त निर्णय लिया गया तथा यह मदनगंज (किशनगढ़), बाल ब्र. पवन भैया, कमल भैया, ब्र. भी तय किया गया कि पंडित जी द्वारा लिखित जैनसन्देश के पंकजजी, ब्र. चक्रेशजी, ब्र. रविन्द्रजी आदि के सान्निध्य में पंचम सम्पादकीय लेखों का संकलन इस वर्ष में विद्वत्परिषद् के विद्वान आत्म साधना शिक्षण शिविर का आयोजन होने जा रहा है। इस सदस्य स्वद्रव्य से करेंगे। सम्पादकीय लेख संकलन का दायित्व शिविर का मूल लक्ष्य होगा डॉ. कपूरचन्द जैन एवं डॉ. ज्योति जैन (खतौली) को प्रदान इस बहुमूल्य पर्याय का अवशिष्ट समय किस प्रकार | किया गया। बिताया जाये ताकि आत्मा का विकास हो सके। | बैठक में यह भी तय किया गया कि जन्म शताब्दी समारोह समस्त इच्छुक धर्मानुरागी भाई बहनों से अनुरोध है कि | मनाने हेतु श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन १५-११-२००३ तक आश्रम में लिखित आवेदन भेजें ताकि संघ, श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् एवं पंडित आवास, भोजन एवं समुचित सभी व्यवस्थाएं की जा सकें। जी के शिष्य-प्रशिष्यों को मिलाकर एक समारोह समिति बनाई निवेदक जाय। इस संबंध में समाज एवं विद्वानों के सुझाव अपेक्षित हैं। अधिष्ठाता-श्री ओमप्रकाश जैन (रेवाड़ीवाले) श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन शांतिनिकेतन उदासीन आश्रम _ डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन ___ श्री अ.भा.दि. जैन विद्वत्परषिद् (रजि.) इसरी बाजार-(गिरिडीह) झारखंड-८२५ १०७ एल-६५ न्यू इन्दिरा नगर बुरहानपुर (म.प्र.) ४५० ३३१ 'सुधा साहित्य समीक्षा' कृति का विमोचन केकड़ी (अजमेर )राज. में विद्वत् संगोष्ठी सम्पन्न केकड़ी (जिला-अजमेर) राज. में श्री अखिल भारतवर्षीय सन्त शिरोमणि महाकवि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के तत्वावधान में आचार्य रविषेण कृत महाराज के सुशिष्य तीर्थोद्धारक ज्ञानरथ के सारथी पूज्य मुनिपुंगव पद्मपुराण के परिशीलनार्थ आयोजित एकादश राष्ट्रिय विद्वत्संगोष्ठी सुधासागर जी महाराज के चातुर्मास के अन्तर्गत आचार्य रविषेण में प.पू. मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज, पू.क्षु. श्री गम्भीर विरचित पद्मपुराण ग्रन्थ के परिशीलनार्थ एकादश राष्ट्रिय विद्वत सागर जी महाराज, पू.क्षु. श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य संगोष्ठी का समायोजन हुआ। प्रा. अरुण कुमार जैन व्यावर के तथा ५० से अधिक विद्वानों एवं महती धर्मसभा के मध्य अनेकान्त निर्देशकत्व, डॉ. विजय कुमार जैन लखनऊ के संयोजकत्व एवं मनीषी डॉ. रमेशचन्द्र जैन डी.लिट. (बिजनौर) द्वारा लिखित एवं डॉ. जयकुमार जैन मुजफ्फरनगर के परामर्शकत्व में आयोजित डॉ. अशोक कुमार जैन डी.फिल्. (लाडनूं) द्वारा सम्पादित 'सुधा | इस सारस्वत समारोह में पूरे देश के विभिन्न प्रान्तों से पैंतीस 30 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यमर्मज्ञ विद्वानों ने पुराणरत्न के विविध पक्षों पर अपने शोध- । शोक सभा का आयोजन आलेखों का वाचन करके उन पर गहन और व्यापक ऊहापोह किया। इस गोष्ठी में प्रत्येक आलेख के विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा राज्यपाल निर्मलचन्द्र जी जैन के निधन से लिखित समीक्षा का प्रावधान रखा गया। जो आमंत्रित विद्वान् सम्पूर्ण गुरुकुल परिवार स्तब्ध उपस्थित नहीं हो सके, उन्होंने आलेख भिजवाकर पुराण-पर्यालोचन __ आज दि. २२.९.०३ सोमवार को सायं ७ बजे श्री वर्णी को सांगोपांगता प्रदान की। दिगम्बर जैन गुरुकुल में शोक सभा का आयोजन किया गया। प्रथम उद्घाटन सत्र-मंगलाचरण, कलश स्थापन दीप | जिसमें राजस्थान के महामहिम राज्यपाल श्री निर्मलचन्द्र जी जैन प्रज्जवलन से प्रारंभ हुआ। कार्यक्रम का विषय प्रदर्शन हमारे विद्वान | के हृदयाघात से आकस्मिक निधन से उनके परिवार को शोक प्राचार्य श्री अरुण कुमार जी ने शोधपूर्ण ढंग से किया। डॉ. कस्तूरचंद संवेदना एवं ब्रह्मलीन आत्मा के प्रति शोक श्रद्धांजलि प्रकट की जी जैन ने पद्मपुराण में राम के चरित्र का वैशिष्ट्य पढ़ा गया। डॉ. | गई। जिसमें शोक सभा में उपस्थित जैन समाज के सम्मानीय जयकुमार जी जैन ने अध्यक्षीय उद्बोधन से उपकृत किया। पूज्य सदस्यगणों में गुरुकुल ट्रस्ट कमेटी के अध्यक्ष श्री राजेन्द्र आर.बी. मुनिश्री के उद्बोधन से संगोष्ठी को दिशा मिली। संचालन डॉ. ने कहा श्री निर्मल चन्द्र जी जैन सिर्फ जैन समाज के ही नहीं विजय कुमार जैन, लखनऊ ने किया। बल्कि सम्पूर्ण जबलपुर के लिये एक गौरव थे। क्योंकि आजादी डॉ. विजय कुमार जैन, के पश्चात् ऐसा पहला मौका आया था जब जबलपुर के ऐसे लखनऊ मृदुभाषी, उच्च चरित्रवान व्यक्ति को इतने ऊँचे पद पर आसीन नलबाड़ी में आई धर्म की बाढ़ किया गया था। जिससे हम सभी गौरवान्वित थे। गुरुकुल महामंत्री 'नलबाड़ी (असम) में आचार्य विद्यासागर महाराज के श्रीकमल कुमार दानी ने कहा ऐसे महान व्यक्तित्व के आकस्मिक शिष्य ब्र. संजीव भैया (कटंगी)' के सान्निध्य में पर्वराज पयूषण | निधन से हम सभी अपने आप को असहाय महसूस करने लगे हैं। पर्व पूरे उत्साह और अपूर्व धर्म प्रभावना के साथ संपन्न हुआ। गुरुकुल अधीष्ठाता ब्रह्मचारी श्री जिनेश जी शास्त्री ने कहा कि धर्म फिल्मी धुन से परे आध्यात्मिक शांत स्वर में आयोजित | और चरित्र का ऐसा समन्वय जो निर्मलचन्द्र जी जैन में था वह सामूहिक पूजन में आवाल वृद्ध सभी भक्ति-रस में डूब गये। इतने ऊँचे पदों पर पहुँच कर कायम रखना उनकी अप्रितम प्रतिभा पूजन के बाद तत्वार्थ सूत्र की कक्षा लगायी गयी। अत्यन्त सरल का प्रतीक था। गुरुकुल के ब्रह्मचारी त्रिलोक जी ने कहा कि भाषा व ब्लेक बोर्ड के ऊपर सूत्रों को समझाने की पद्धति के अपने संपूर्ण जीवन भर सक्रिय रहने वाले एवं सदैव राष्ट्र के लिये कारण कक्षा में भारी संख्या में लोग उमड़ पड़े। प्रतिदिन एक सौ समर्पित व्यक्तित्व का हमारे बीच से अचानक चले जाना हम सभी पचास से अधिक युवाओं का सामूहिक अभिषेक पूजन करना | के लिये एक आघात है। गुरुकुल अधीक्षक श्री राजेश कुमार जैन नगर को धर्ममय बनने का कारण बना। ने कहा कि ऐसे व्यक्ति का आकस्मिक निधन जिनकी सरलता एवं कपूर चंद राँवका सादगी से उनके राजस्थान के राज्यपाल बनाये जाने पर सम्पूर्ण सोना-आभूषण देने वालों की होड़ लग गई। जबलपुर नगर की जनता उनके स्वागत के लिये उमड़ पड़ी थी। जिनालय की नगरी आगरा में ७२ वां जिनालय के निर्माण | आज उन्हें अपने बीच में न पाकर अपने आपको कैसे ढांढस की भूमि मंत्रों, जयकारों से गूंज उठी कमलानगर के शालीमार में | बंधायेगी। ईश्वर से प्रार्थना है इस दुखद घड़ी में उनके परिवार एवं श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में तीन दिवसीय वेदी शिलान्यास | हम सभी को यह गहरा आघात सहने की क्षमता प्रदान करें। समारोह के अवसर पर सैकड़ों महिलाओं द्वारा मंदिर के स्वर्ण | विद्यालय के शाला नायक विकास कुमार जैन ने कहा कि जब भी कलश स्थापना हेतु अपने आभूषण उतार कर समर्पित कर दिये। वे गुरुकुल में आते थे उनकी सहजता से हम सभी छात्रों को अनेकों भक्तों में एक तोला सोना देने वालों की होड़ लग गई। वेदी | अत्यन्त प्रेम और वात्सल्य प्राप्त होता था, हम इस वात्सल्य को न की नींव में रत्न शिला, स्वर्ण शिला, रजत शिला रखने वालों का | पाकर अत्यन्त दु:खी हैं। जन सैलाब उमड़ पड़ा। वेदी की मुख्य शिला शुभ मुहूर्त एवं । इसके साथ ही शोक सभा में गुरुकुल ट्रस्ट कमेटी के मंत्रोचार के साथ श्री प्रदीप जैन एवं नवीन जैन पूर्व महापौर | | समस्त सदस्यगण, सभी ब्रह्मचारीगण, विद्यालय का शिक्षिकीय पी.एन.सी. वालों ने रखी ४ रत्न शिलायें श्री गजेन्द्र कुमार जैन स्टाफ, जैन समाज के आसपास के प्रतिष्ठित जन एवं विद्यालय के पाटनी बम्बई, सुरेश चंद मुरादाबाद, विजय कुमार एटा, निरंजन | सभी छात्र उपस्थित थे। लाल बैनाड़ा, आगरा तथा आगरा दि. जैन परिषद के अध्यक्ष श्री इन सभी ने ईश्वर से प्रार्थना की कि उन्हें सद्गति प्राप्त हो शिखरचंद जी सिंघई के द्वारा रखी गईं। एवं उनके शोक संतप्तपरिवार को संबल मिले। सुरेशचंद बरौलिया राजेश जैन संवाददाता/पत्रकार । -नवम्बर 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यपाल के निधन पर शोक प्रस्ताव हुआ। दो नवमबर को प्रातः भूगर्भ से प्राप्त (१६ फुट) उत्तंग दमोह, राजस्थान के महामहिम राज्यपाल स्व. श्री एन.सी. | चमत्कारी मूर्ति श्री शांतिनाथ का कलशाभिषेक हुआ, जिस पर जैन के आकस्मिक निधन पर गहन शोक व्यक्त करते हुए दिग. प्रथम कलश से अभिषेक करने का सौभाग्य श्री ललितेश जैन जैन पंचायत दमोह ने एक शोक-प्रस्ताव पारित किया। शोक फिरोजावाद को प्राप्त हुआ। यहाँ भूगर्भ से प्राप्त (५ फुट) उत्तुंग प्रस्ताव में उनके निधन को न सिर्फ जैन समाज के लिए वरन् बाहुबली भगवान की मूर्ति भी अत्यधिक कलात्मक तथा चमत्कारी संपूर्ण राष्ट्र के लिए एक अपूर्णनीय क्षति बताया गया। प्रस्ताव में है। ये मूर्तियाँ दसवीं शताब्दी की बहुत ही मनोज्ञ मूर्तियाँ हैं। इस उल्लेखित किया गया है कि वे एक ऐसे प्रखर नक्षत्र थे जिसके न अवसर पर विद्वानों में डॉ. भागचन्द्र जैन भागेन्दु दमोह, डॉ. विमला सिर्फ समाज वरन् संपूर्ण क्षेत्र को अपनी आभा से और गौरवान्वित जैन फीरोजाबाद, पं. सागरमल जी विदिशा, पं. अनूप चन्द्र जैन किया है। एडवोकेट फीरोजाबाद, पं. निर्मल चन्द्र जैन सतना, पं. सुरेश चन्द्र सरल जबलपुर आदि उपस्थित थे जिन्होंने संक्षिप्त वक्तव्य दे महामहिम राज्यपाल निर्मल चंद जैन की मूर्ति विनयांजलि अर्पित की। इस अवसर पर फीरोजाबाद, बड़ौत, स्थापना हेतु मांग दिल्ली, विदिशा, सागर, ललितपुर, मथुरा, बिलहरी, कटनी, जबलपुर, लोकप्रिय व्यक्तित्व प्रखर मेघा व मनीषा के धनी जबलपुर | किशनगढ़, हजारीबाग आदि के हजारों मुनि-भक्ति उपस्थित थे। के गौरव जिन्हें अपने व्यक्तित्व एवं मूर्तित्व से राजस्थान के राज्यपाल । कार्यक्रम एक बजे मंगलाचरण के साथ आरम्भ हुआ। पद से विभूषित किया गया है, खजांची चौक जबलपुर हेतु या | ध्वजारोहण राजकुमार जैन ने व दीप प्रज्जवलन श्री शांतिलाल जैन अन्य उपयुक्त स्थल में मूर्ति स्थापना श्री अजित जैन एडवोकेट एवं | सतना ने किया। भ. शांतिनाथ के चित्र का अनावरण श्री केवलचन्द्र मुकेश सिंघई एडवोकेट द्वारा शासन नगर निगम जबलपुर एवं जैन | कांच वालों ने तथा आचार्य श्री के चित्र का अनावरण श्री श्रवण समाज जबलपुर से अपील की गई है। भाई पटेल मंत्री लोक निर्माण द्वारा हुआ। गुरुओं को शास्त्र भेंट श्री अजीत जैन एडवोकेट एवं मुकेश सिंघई एडवोकेट | क्रमशः श्री राजेन्द्र कुमार सतना, श्री सुरेन्द्र कुमार कटंगी एवं द्वारा इस संबंध में शासन, नगर निगम जबलपुर एवं जैन समाज | सन्तोष कुमार पनागर ने किये। आचार्य श्री विद्यासागर की परम्परा जबलपुर को पत्र प्रेषित कर मूर्ति स्थापना की मांग की पुरजोर | के अनुसार पीछी-देने वाले तथा पीछी लेने वाले संयम, साधना अपील की है। का संकल्प लेते हैं। अत: अनेक लोगों ने संकल्प के साथ पीछियाँ मुकेश सिंघई एडवोकेट प्रदान की तथा पुरानी ग्रहण की। कार्यक्रम का संचालन श्री सुधीर सोनागिर जी में युवा विद्वत् संगोष्ठी का सफल कुमार जैन कटनी कर रहे थे। आयोजन इस अवसर पर ऐलक निश्चय सागर ने अपने प्रेरक उद्बोधन परम पूज्य उपाध्याय श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के में कहा 'यत्नपूर्वक विवेक के साथ आहार, विहार तथा क्रिया-- परम सान्निध्य में श्री दि. जैन सिद्धक्षेत्र सोनागिर जी में १३.१०.०३ कलाप करने से अधर्म से बचा जा सकता है। प्रत्येक मानव को से १५.१०.०३ तक अ.भा.दि. जैन युवा विद्वत् संगोष्ठी का सफल आदर्श चर्या के साथ देश, समाज और स्व का उत्थान करना आयोजन श्री आशीष जैन शाहगढ़, सुनील संचय नरवां, वीरेन्द्र चाहिये।' मुनि श्री प्रमाण सागर ने ओजपूर्ण अभिप्रेरित प्रवचन में हीरापुर और मनोज बगरोही के संयोजन में हुआ। कहा 'मानव को निवृत्ति मार्ग की साधना से ही मुक्ति का फल प्राप्त समापन सत्र के अंत में उपा. जी ने कहा कि युवा विद्वानों हो सकता है। प्रवृत्ति का मार्ग सरल है परन्तु भक्ति के साथ शक्ति के आलेख बहुत अच्छे हैं, किन्तु अभी शोध की आवश्यकता है। और युक्ति लगा कर भी मुक्ति के लिये निवृत्ति का मार्ग ग्रहण विद्वान ही समाज का दर्पण हैं। अतः समाज और विद्वान दोनों का करना ही होगा, मुनि श्री समता सागर ने अपने मार्मिक उद्बोधन दायित्व है अपने-अपने कर्तव्यों का पूर्ण निर्वहन करें। में कहा 'पीछी परिवर्तन' का कार्यक्रम 'जीवन परिवर्तन' केलिये __आशीष जैन शास्त्री, शाहगढ़ प्रेरित करता है। जैन वही है जो न्याय युक्त सुनीति पर चलने वाला, वात्सल्य भावी, उदारवृत्ति से युक्त स्वयं पर विजय प्राप्त अभूतपूर्व प्रभावना के साथ 'पीछी परिवर्तन' करने वाला ईमानदार हो। उन्होंने अन्त में कहा 'खतम हुआ जाता तीर्थक्षेत्र बहोरी बन्द में विराजमान प.पू. सन्त शिरोमणी है मेला, तुम भी एक खिलौना ले लो।' अर्थात् आज इस संयम के आ. विद्यासागर जी महाराज जी के परम शिष्य मुनि श्री समता उपकरण पीछी परिवर्तन में सभी को 'संयम' रूपी खिलौना अवश्य सागर जी, मुनि श्री प्रमाण सागर जी एवं ऐलक श्री निश्चय सागर ले लेना चाहिये। ज्ञात हो, गत वर्ष मुनिश्री के संघ का चातुर्मास जी के वर्षा योग समापन पर पीछी परिवर्तन समारोह बड़े ही फिरोजाबाद में हुआ था। उत्साह के साथ २.११.०३ रविवार को सम्पन्न हुआ। इससे पूर्व डॉ. विमला जैन, स.सम्पादिका,म.द. श्री भक्तामर जी विधान तथा श्री शांतिनाथ विधान भी बड़ी धूम १/३४४, सुहाग नगर, फीरोजाबाद धाम से पं. जीवन्धर जी शास्त्री जबलपुर के सानिध्य में सम्पन्न 32 नवम्बर 2003 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशुल्क प्राकृतिक चिकित्सा शिविर दि.22.9.2003 22.10.2003 तक आयोजक दानशेषजीशीनयंती प्रसादमनलालणा सौजन्यमायोजयतीर्थप्राकतिकरिकित्सालय सागर. जैन.दिल्ला समापन विवस-2-10-08 म.प्र. ಭಾಗೋದಯ ತೀರ್ಥ ದ್ವಾರ ನಿರ್ಮಿತವ ಉಪಲಬ್ದ ಬರುವ ಶುದ್ದ ವಸ್ತುಗಳು, ಇತಹಾ, ಮಧುಮೇಹ ಚೂರ್ಣ ತಲ, ಮಜನ ತ್ರಿಫಲಾ ಚೂರ್ಣ, ಪಾಚಕ ಚೂರ್ಣ, ಇರ್ದು ನಿವಾರಕ ಔಷಧ सदलगा में आर्यिकारत्न आदर्शमति जी ससंघ . VUDIO 157 सदलगा में आचार्य श्री विद्यासागर जी के बालसखा श्री मारुति जी ( टोपी सहित) स्वागत स्वीकार करते हुए Education International Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल /588/2003 S सदलगा में आर्यिका श्री आदर्शमति जी के संघ की ब्रह्मचारिणी बहनें AL सदलगा में प्रतिभा मण्डल की ब्रह्मचारिणी बहनें GVee सदलगा में प्रतिभा मण्डल की ब्रह्मचारिणी बहनें स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-I, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित | jainelibrary.org