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________________ निरभिमानिता डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन अनंत संसार में जितनी भी जीव राशि पाई जाती है वह | बदला लेने की प्रवृत्ति से अपने को बचा लेता है। निरहंकारी सब उसके कर्मों का प्रतिफल है। कर्म सदा एक से नहीं रहते। व्यक्ति विनाश में नहीं सृजन में विश्वास रखता है। दुनियाँ के लोगों जीव यदि चाहे तो जीवन में व्यापक परिवर्तन कर सकता है। से अलग रहकर यथार्थ के धरातल पर जीता है। वह यथार्थ का परिवर्तन प्रकृति का नियम है और शाश्वत सत्य भी। परिवर्तन की धरातल है अहंकार से कोशों दूर रहना। एक व्यक्ति ने एक स्थान यात्रा जब धर्म का सान्निध्य पाकर आगे बढ़ती है तब विकास के | पर बहुत बड़ा मंदिर बनवाया और सभी से कहता कि ये मंदिर रास्ते अपने आप खुलते जाते हैं और कर्माधीन आत्मा स्वाधीन मैंने बनवाया है। एक अन्य व्यक्ति ने भी मंदिर बनवाया और उस होती जाती है। धर्म का सद्भाव पाकर यह जीव क्रोध, मान, माया पर कलश चढ़ाने की बात आती है तो कहता है कि अब मेरे पास और लोभादि का नाश कर जीवन में व्यापक परिवर्तन लाकर | धनराशि नहीं बची है इसीलिए में कलश नहीं चढ़ा सकता। अत: आत्मस्थ होता है। धर्म का एक रूप प्रकट होता है- मृदुता के रूप | समाज मिलकर यह कार्य कराये। ऐसी परिस्थिति में एक उच्छंखल में। मृदुता या कोमलता के भाव से जीवन में सरलता आती है। व्यक्ति उससे कहता है कि फिर मंदिर आपका नहीं कहलायेगा, जीवन में कोमलता या सरलता का आना, इसी को कहते हैं तब वह व्यक्ति कहता है कि मंदिर मेरा कहाँ है। मेरा तो घर है। निरभिमानता। मंदिर तो वह कहलाता है जहाँ परमात्मा का वास होता है। मैं __निरभिमानता आत्मा का सर्वोत्कृष्ट गुण है। गुणग्राही व्यक्ति परमात्मा नहीं हूँ फिर मेरा मंदिर कैसा। यही तो विवेक बुद्धि है। इसे अवश्य ग्रहण करता है। निरभिमानता से जीवन में सत्यं शिवं] एक व्यक्ति मंदिर को अपना मानता है एक व्यक्ति मंदिर बनवाने ओर सुन्दरं की भावना साकार होती है। जहाँ अहंकार होता है वहाँ के बाद भी अपना न मानकर उसे परमात्मा का मानता है। जो निरभिमानता का भाव जाग्रत नहीं हो सकता। जैसे अंधकार और व्यक्ति मंदिर को अपना मानता है वह अहंकारी है जो व्यक्ति मंदिर प्रकाश साथ-साथ नहीं रह सकते वैसे ही अहंकार और निरभिमानता | को अपना न मानकर परमात्मा का मानता है वह निरहंकारी है। साथ-साथ नहीं रह सकती। सरलता, विनम्रता, मासूमियत् और | जो व्यक्ति मंदिर को अपना मानता है वह बाह्य दृष्टि वाला है जो संवेदनशीलता जहाँ होती है वहाँ निरभिमानता पाई जाती है। मंदिर को अपना नहीं मानकर परमात्मा का मानता है उसकी दृष्टि निरभिमानी व्यक्ति सिर्फ अन्तर्मन को टटोलता रहता है। अन्तरंग | अन्तर्मुखी है। हम सभी को अन्तर्मुखी बनना है तो अहंकार छोड़ना को इतना निर्मल रखता है कि ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, | होगा। इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करना होगा कि संसार का तप और शरीर सौन्दर्य का अहंकार नहीं करता क्योंकि वह जानता | कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है। परवस्तु आत्म सुख का साधन नहीं है कि अहंकार के मूल में स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ | हो सकती क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायें संसार में भटकाने समझने की दुष्प्रवृत्ति कार्य करती है। जिस व्यक्ति में हीनता और | वाली हैं। मकान, जमीन, जायदाद, पुत्र, कलत्र आदि के संयोग कमजोरी होती है उसमें अहंकार की भावना बलवती होती है। क्षणिक हैं इनसे आत्मा की स्वतन्त्रता बाधित होती है, विकास की अहंकारी यह सोचता है कि मैं ही सब कुछ हूँ निरभिमानी सोचता यात्रा रुकती है। अत: ऐसी चीजों पर अहंकार क्यों करना परवस्तु है मैं कुछ भी नहीं हूँ मैं तो सिर्फ पंच परावर्तन भूत क्रिया का | पर अहंकार दुःख का कारण है। अतः हमें कभी भी परवस्तु पर पुतला हूँ। अहंकारी व्यक्ति ईर्ष्या, अहं, स्वार्थ, घृणा, अविश्वास | अहंकार नहीं करना चाहिए। मनुष्य जीवन के साथ जितना भी की दीवारें बनाता है जबकि निरभिमानी सत्य और अहिंसा का संयोग है वह हमें अहंकारी तो बना सकता है मार्दव की मृदुता को अवलंवन लेकर निरन्तर विकास के मार्ग पर बढ़ता हुआ आत्मा | प्रकट नहीं करा सकता, निरहंकारी नहीं करा सकता। अतः के सत् रूप को साक्षात् देखता है। निरभिमानी व्यक्ति विपरीत निरभिमानिता के लिए हमें निरंतर क्रोध, मान आदि का त्याग परिस्थिति में भी घबड़ाता नहीं है। सूनापन उसके लिए अच्छा करना चाहिए ताकि शांति और समृद्धि की प्राप्ति हो और जीवन लगता है। एकान्त प्रिय वह बन जाता है। सांसारिक तत्त्वों में रुचि का प्रत्येक कार्य हमारे आत्म विकास का साधन बने। यह सभी नहीं रखता है। मन, वचन और काय से ऐसी क्रिया करता है कि | लोगों की भावना होना चाहिए। आत्मा का विकास ही होता है। तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के उकसावे ए-27, न्यू नर्मदा विहार सनावद (म.प्र.) पर भी वह आत्म शक्ति के बल पर अपने आप को रोक लेता है।। 12 नवम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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