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________________ वही अकेले विहार करने का अधिकारी है ये विशेषताएँ पंचम काल के मुनि में पाया जाना शक्य नहीं है। यही कारण है कि इन्हीं वट्टेकर आचार्य ने लिखा है कि मेरा शत्रु भी पंचमकाल में अकेले विहार न करे। एकल विहार करने के अधिकारी मुनि के विषय में आचार्य वीरनन्दी का भी यही कहना है ज्ञानसंहननस्वांत भावनाबलवन्मुनेः । चिरप्रव्रजितस्यैक विहारस्तु मतः श्रुतै ॥ एतद्गुणगणापेत स्वेच्छाचारतः पुमान्। यस्तस्यैकाकिना माभून्यम जातुरिपोरपि २७, २८ ॥ अधि. २ आचार बहुत काल के दीक्षित, ज्ञान, संहनन स्वान्तभावना से बलशाली मुनि के एकाकी विहार करना शास्त्रों में माना है परन्तु जो इन गुणों के समूह से रहित स्वेच्छाचार में रत पुरुष है, उस मेरे शुत्र के भी एकाकी बिहार कभी न हो। जन्म-जन्म के पुण्यफल, पाया 'मानव' जन्म 'ओस-बिन्दु' जीवन विमल, पुरुषारथ आजन्म । 'जीवन बिन्दु' जीवन शोभित 'बिन्दु' सा नन्हा निर्मल रूप, इसे सहेज सँभाल ले, पाना भव्य स्वरूप । 'जीवन बिन्दु' गिर गया, 'गर्म तवा' सम भोग, स्वयं नसा अदृश्य हुआ, बना न कोई जोग भव विषयन की तृप्ति को, लगा रहा कर यत्न, नर काया 'चिन्तामणी' नष्ट हो गया रत्न | Jain Education International यदि जीवन की बिन्दु शुचि, पड़ी पयज के 'पत्र' ओसबिन्दु मुक्ता दिखे, कीने कृत्य पवित्र । मूलाचार प्रदीप में भी एकल विहार करने वाले साधक की योग्यता के विषय में ऐसा ही लिखा है 'जो मुनि अत्यन्त उत्कृष्ट होने के कारण ग्यारह अंग और चौदह पूर्व पाठन्ति हैं श्रेष्ठवीर्य, श्रेष्ठधैर्य और श्रेष्ठ शक्तियों को धारण करने वाले है। बलवान हैं, जो सदा एकत्व भावना में तत्पर रहते हैं। शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो जितेन्द्रिय हैं, चिरकाल के दीक्षित हैं, बुद्धिमान हैं, समस्त परीयों को जीतने वाले हैं तथा और भी अन्य गुणों से सुशोभित हैं' (५४- ५६ - आ.) उक्त उद्धरणों के अवलोकन से यह तो स्पष्ट है कि आगम में इस दुषम पञ्चम काल के मुनि आर्यिका का अकेले विहार करने की आज्ञा नहीं दी है। मुनियों और आर्यिकाओं से विनम्र अनुरोध है कि संघ में ही विहार करें जिससे आत्मप्रभावना के साथ जिनमत की प्रभावना हो । 24/32, गाँधी रोड, बड़ौत (उ. प्र. ) For Private & Personal Use Only डॉ. विमला जैन 'विमल' धर्म-अर्थ अरु काम शुचि, पुरुषार्थ किये सिद्धि स्व-पर के उपकार से, यश आभा में वृद्धि । बिन्दु पड़ा यदि 'सीप' में, बनता 'मुक्ता' भव्य, किया मोक्ष पुरूषार्थ नर, सुधर गया भवितव्य । चारित्र की सीपी पड़ा रत्नत्रय अमिताभ, बना शिवम् स्व-बिन्दु को, नर जीवन का लाभ । मनुज तिराहे पर खड़ा, एक पथिक पथ तीन, मत अस्तित्व समाप्त कर, सम्यक् पथ हो लीन। चारित्ररूपी सीप में, करले 'विमल' प्रवेश बहु त्रिलोक के पूज्यतम, बिन्दु से मुक्तेश । फिजोराबाद उ.प्र. नवम्बर 2003 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org.
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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