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________________ अनर्गल-प्रलापं वर्जयेत् मूलचन्द्र लुहाड़िया मार्च अप्रैल की प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार' पत्रिका में संपादक । विद्वान नीरज जी की आँखों में खटक गया। मुझे उक्त पुस्तक के पं. नीरज जी का संपादकीय 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' छपा है जो बहुत प्रकाशन एवं वितरण की जानकारी बहुत समय बाद मिली थी। दिनों बाद मुझे पढ़ने को मिला। पढ़कर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ | पुस्तक के साथ भेजे गए परिपत्र में प्रोफेसर साहब ने भट्टारकों के और दुःख भी। आश्चर्य है कि एक प्रतिष्ठित संस्था की पत्रिका के | संबंध में अपनी कोई धारणा नहीं लिखी और न ही अपनी ओर से विद्वान संपादक ने कैसे सारी नैतिक मर्यादाओं और दायित्वों का भट्टारकों के विरोध अथवा समर्थन में कुछ लिखा। उन्होंने केवल उल्लंघन कर स्वच्छ पत्रकारिता के नियमों की उपेक्षा कर मेरे और विद्वानों की सम्मति मांगी थी जिसके आधार पर निष्कर्ष समाज के श्री बैनाड़ा जी पर मनगढंत काल्पनिक धारणाओं के आधार पर | सम्मुख प्रस्तुत किया जा सके। किंतु अपने सम्पादकीय लेख में असत्य और हल्के आरोप लगाए हैं। स्पष्ट तथ्यों के विपरीत बिना आदरणीय नीरज जी ने कितना कुछ लिख दिया उस पर विचार सोचे समझे अपनी लेखनी वलाकर विद्वान् संपादक जी ने मात्र | करते हैं। अपनी दुर्भावनाओं को ही पुष्ट किया है। माननीय नीरज जी ने लिखा है 'भट्टारक नाम से एक और मैं वस्तु स्थिति की सही जानकारी नीचे आवश्यक समझकर | पुस्तक इसी प्रकार श्री लुहाड़िया जी और श्री रतन लाल जी बैनाड़ा दे रहा हूँ। जैन जगत के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान स्व. श्री के तत्वाधान में समाज में बँटबाई जा रही है। इसमें संपादक नाथूराम जी प्रेमी ने अपनी पत्रिका जैन हितैषी में ' भट्टारक' प्रकाशक की सारी औपचारिकताओं की उपेक्षा की गई है। पुस्तक नामक लेखमाला क्रमशः चार अंको में बैसाख, जेष्ठ, आषाढ़, | में संपादक, प्रकाशक, मुद्रक और प्रेषक का नाम पता नहीं छपा है। श्रावण-भादों वी. नि.सं. २४३७ तथा मागशीर्ष वी.नि.सं. २४३८ में | प्रकाशन का वर्ष मूल्य आदि भी नहीं है। आवरण पर वीर शक छापी थी। उक्त लेखमाला का अविकल मराठी अनुवाद वी.नि.सं. २४३८ तथा संवत १९१२ ईस्वी छपा है। भीतर पहले पृष्ठ पर यह २४३८ में दक्षिण भारत जैन सभा ने 'भट्टारक' नामक पुस्तक के बदलकर १३१२ ईस्वी हो गया है। शक संवत ओर वीर संवत तो रूप में छपा कर महाराष्ट्र कर्नाटक प्रांतों में वितरित की थी, जो अभी प्रसिद्ध है पंरतु यह वीर शक क्या है? सो लुहाड़िया जी ही बता अनुपलब्ध है। माननीय रतनलाल जी बैनाड़ा ने जैन हितैषी के उक्त | सकते हैं। इसी प्रकार संवत और ईस्वी सन् अलग-अलग वर्ष हैं चारों अंकों से लेखमाला का संकलन कर उपयोगी जानकर भट्टारक' दोनों में ५७ साल का अंतर होता है। इस पुस्तक पर संवत् १३१२ पुस्तक छपवा कर समाज के विद्वानों को प्रो. रतनचन्द्र जी के एक | ईस्वी क्या सूचित करता है? क्या पाठकों के साथ धोखाधड़ी का परिपत्र के साथ दिनांक १०.१०.२००१ को भेजी थी। परिपत्र में | और कोई प्रमाण चाहिए?' . प्रारंभ में लिखा था 'आज से लगभग ९०-९५ वर्ष पूर्व 'जैन हितैषी उक्त संबंध में हमारा कहना है कि पुस्तक में लेखक का नामक मासिक पत्रिका में स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी ने भट्टारकों नाम दिया जाना तो अवश्यक होता है किंतु यदि प्रकाशन के लिए के पद और चरित्र के विषय में एक लेख माला प्रकाशित की थी। किसी दातार ने अपना नाम प्रकाशित नहीं करने की शर्त पर दान उसे पुस्तकाकार मुद्रित कर आपके पास भेजा जा रहा है। आप से | दिया हो तो नाम नहीं दिया जा सकता। प्रकाशक दातार ने पुस्तक अनुरोध है कि उसका गंभीरता से अनुशीलन कर निम्नलिखित निःशुल्क वितरण की है अत: मूल्य कैसे लिखा जा सकता था। इस प्रश्नों पर अपनी सम्मति (उत्तर) भेजने की कृपा करें। आगे नो प्रश्न पुस्तक को जैन हितैषी पत्रिका से ज्यों का त्यों प्रकाशित किया है लिखने के पश्चात् अंत में लिखा 'आपसे इन प्रश्रों का उत्तर पाना अतः संपादन की आवश्कता ही उत्पन्न नहीं हुई। पुस्तक के कवर अत्यंत आवश्क है, क्योंकि जिन शासन को पथ भ्रष्ट होने से बचाने पृष्ठ की मराठी अनुवाद के प्रकाशन से नकल की है। वहां वीर शक का दायित्व आप पर है। आपका उत्तर प्राप्त होने पर उनका निष्कर्ष २४३८ तथा संवत् १९१२ ईस्वी छपा था, वही छाप दिया गया। समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा, ताकि सर्व साधारण को सहजता और विशुद्ध भावों से छपाई गई पुस्तक के अपने सम्यक्तव की रक्षा के लिए समीचीन दिशा निर्देश प्राप्त हो | छिद्रान्वेषण में कमाल किया है विद्वान नीरज जी ने। संस्कृत हिंदी सके।' कोष वामन शिवराम आप्टे में पृष्ठ ९९५ पर 'शक' शब्द का अर्थ समाज और धर्म की रक्षा के लिए सदैव चिंतित रहने वाले | लिखा है काल, संवत् । अत: वीर शक का अर्थ वीर संवत् उपयुक्त एक प्रामाणिक स्वर्गीय विद्वान की लगभग ९० वर्ष पुरानी उस है। एक स्थान पर १९१२ ई. के स्थान पर अशुद्ध १३१२ छप गया। समय की यक्ष समस्या पर लिखी गई लेख माला को पुस्तकाकार | 'शालिवाहन शके' विक्रम संवत् 'वीर संवत्' आदि शब्दों के प्रयोग प्रकाशित कर उस पर आज के धार्मिक परिप्रेक्ष्य में विद्वानों एवं | वीर शक और संवत् १९१२ ईस्वी को उचित सिद्ध करते हैं। सरल सुधी श्रावकों की सम्मति आमंत्रित करने का एक श्लाघ्य कार्य | हृदयी प्रकाशक से रही संवत्, सन् संबंधी अथवा प्रेस की यत्किंचित् - नवम्बर 2003 जिनभाषित 21 । सा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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