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________________ भूलें विद्वान आलोचक को कोई बड़ा षड़यंत्र दिखाई दे रहा है, यह । सन् १९१२ में दक्षिण भारत में दि. जैनों की प्रतिनिधि संस्था 'दक्षिण मात्र उनका दृष्टि दोष है । सन् १९१२ की प्रकाशित मराठी पुस्तक | भारत जैन सभा' के द्वारा प्रकाशित कर वितरित किया गया था। की एक प्रति मेरे पास है। मीलान करना चाहें तो आपके पास भेज अखिल भारतवर्षीय नाम वाली संस्थाओं की तुलना में दक्षिण दूं। पुरानी पुस्तक के कवर पृष्ठ को ज्यों का त्यों प्रकाशित करना | भारत में दक्षिण भारत जैन सभा का जैन समाज में अधिक प्रतिनिधित्व उचित समझकर ही ऐसे किया है। पाठकों के साथ धोखा धड़ी की रहा है। दक्षिण भारत जैन सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित करने बात पुस्तक से तो प्रमाणित नहीं होती। हाँ संभवत: आपने धोखाधड़ी | वाले श्री राव जी सखाराम दोसी, श्री हीरा चंद अमीचंद गांधी, श्री की बात लिखकर अपने मन के कालुष्य को ही अभिव्यक्त किया | माणकचंद मोतीचंद आलंदकर जैसे प्रमुख समाज सेवी धर्मात्मा है। माननीय बैनाड़ा जी के लिए धार्मिक क्षेत्र में तो धोखा धड़ी श्रावक श्रेष्ठियों के साथ-साथ स्वयं भट्टारक लक्ष्मी सेन जी, करना बहुत दूर की बात है किंतु वे ऐसा करने की बात, अपने लिए भट्टारक जिनसेन जी एवं भट्टारक विशाल कीर्ति जी भी रहे हैं। ही नहीं दूसरों के लिए भी कभी सोच भी नहीं सकते। तथापि मैं वर्तमान अध्यक्ष संभवतः अ.भा.दि.जैन महासभा के स्तंभ श्री तो आपके साहस की दाद देता हूँ कि आपको पुस्तक प्रकाशन | आर.के. जैन हैं अथवा श्री डी.ए. पाटिल हैं। कर्ताओं पर ऐसा निराधार हल्का आरोप लगाने में तनिक भी हिचक | सन् १९७६ में उक्त जैन सभा के अमृत महोत्सव (सन् नहीं हुई। १८९९ से १९७५) के अवसर पर प्रसिद्ध विद्वान श्री डॉ. विलास आगे अपने लेख में विद्वान नीरज जी ने दुर्भावना से ग्रसित | ए. संगवे द्वारा दक्षिण भारत जैन सभेचा इतिहास, लिखा गया। उस हो अनेक आरोपात्मक असत्य बातें लिखकर अपना अज्ञान उड़ेला | पुस्तक के कतिपय उद्वरणों का हिंदी अनुवाद नीचे दिया जा रहा है। वे लिखते हैं वास्तव में 'भट्टारक' नाम की प्रेमी जी की कोई | है। उसके पृष्ठ २५६ पर लिखा है 'जैनों की धार्मिक उन्नति करना पुस्तक है ही नहीं। इसमें संशोधक विद्वान स्व. नाथूराम जी प्रेमी के | यह सभे का प्रमुख उद्देश्य रहने से मूल पत्र के संचालन के साथ कुछ लेख और लेखांश हैं जिनमें तथ्यों के अलावा उस जमाने में सामान्य लोगों में धर्म का प्रचार करके उनको धर्माभिमुख करने के प्रेमी जी के द्वारा किसी अनाम मित्र से सुनी हुई मन गढ़त बातें लिए ट्रेक्ट माला या छोटी पुस्तिका प्रकाशित करने के सभे के विद्या उद्धृत की गई हैं। वर्तमान के भट्टारकों पर तथा भट्टारक संस्था | विभाग से सन् १९१२ में निर्णय किया और उसी के अनुसार पर कीचड़ उछालना इस प्रकाशन का प्रगट उद्देश्य है। प्रेमी जी का | पुस्तिका के प्रकाशन को प्रारंभ भी किया। उस साल सभा के विद्या पूर्वाग्रह और जानकारियों का अभाव इस लेख में बिखरा है। लगता विभाग शाखा से (१) सर्वधर्म (२) भट्टारक (३) जैन धर्माचे है श्री लुहाड़िया जी ने या श्री बैनाड़ा जी ने उसमें अपनी रूचि के | सौंदर्य और (४) सप्त तत्व विचार यह चार पुस्तकें प्रकाशित की अनुसार नमक मिर्च मिलाकर भट्टारकों के बारे में असत्य आरोपों गईं। इस प्रकार श्री प्रेमी जी द्वारा हिंदी में लिखित भट्टारक से भरी यह पुस्तक भट्टारकों की छवि मलिन करने और समाज लेखमाला का मराठी अनुवाद समयोपयोगी समझकर सर्वप्रथम में घृणा फैलाने के उद्देश्य से ही प्रचारित की है।' सन् १९१२ में दक्षिण भारत जैन सभा ने प्रकाशित कर समाज में माननीय नीरज जी के द्वारा दुर्भावना की उत्तेजना के कारण वितरण कराया। लेख में परस्पर विरोध एवं असंवद्ध बातें लिख दी गई हैं। आप एक दक्षिण भारत जैन सभेचा इतिहास में भट्टारकों के संबंध स्थान पर लिखते हैं भट्टारक नामक प्रेमी जी की कोई पुस्तक ही में निम्न उल्लेख है:नहीं है। दूसरे स्थान पर आपने लिखा है इसमें प्रेमी जी के कुछ लेख श्री लक्ष्मी सेन भट्टारक कोल्हापुर और रायवाग तथा श्री और लेखांश हैं जिसमें तथ्यों के अलावा किसी अनाम मित्र से सुनी | जिनसेन भट्टारक बादणी ऐसी दो प्रमुख भट्टारक पीठ इस भाग हुई मनगढंत बातें उद्धृत की गई हैं। श्री नाथूराम जी प्रेमी निष्पक्ष | में थी और प्रारंभ में उन्होंने अपनी जिम्मेदारी उत्तम रीति से पूर्ण प्रामाणिक ऐतिहासिक विद्वान के बारे में 'मनगढंत बातें,' पूर्वाग्रह की। किंतु बाद में ये ही भट्टारक सुख लोलुप और कर्तव्य 'जानकारियों का अभाव' आदि अनादर सूचक शब्दों का प्रयोग श्री | पराङ्मुख हो गए। भट्टारकों को राजा का स्वरूप प्राप्त हो गया। नीरज जी की अपनी विद्वत्ता के मिथ्या अहंकार की ही उपज है। हाथी घोड़े पालकी नौकर चाकर ऐसा सदा बढता हुआ लवाजमा मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि श्री प्रेमी जी ने अपनी पुस्तक में उन्होंने निर्माण किया और यह वैभव, ऐश्वर्य सुरक्षित रखने के लिए पूर्णत: सत्य तथ्य लिखे हैं। मेरा माननीय नीरज जी से निवेदन है उन्होंने सब तरह के मार्ग का अवलम्बन लेना प्रारंभ किया। इसकी कि या तो वे प्रमाण सहित प्रेमी जी की पुस्तक के तथ्यों को असत्य यह परिणती हुई कि भट्टारकों के मठ ऐशो आराम के और सिद्ध करें अन्यथा एक स्वर्गस्थ प्रामाणिक विद्वान पर झूठे आरोप | कारस्तानों का अड्डा बन नए। (पृष्ठ १६-१७) लगाने के इस जघन्य अपराध के प्रायश्चित स्वरूप कम से कम खेद 'समाज के लोगों के झगड़ों का निर्णय देना और जाति के तो प्रकट करें। रिवाज बनाने का अधिकार प्रत्येक जाति के भट्टारकों को होने से श्री प्रेमी जी की लेखमाला की प्रामाणिकता एवं उपयोगिता | प्रत्येक जाति में भट्टारकों का वर्चस्व बहुत बढ़ गया। इसी कारण का प्रमाण यह है कि इसका मराठी अनुवाद आज से ९१ वर्ष पूर्व | जाति-जाति में विवाद बढ़ गए। भट्टारकों के मठ जैन संस्कृति 22 नवम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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