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वाणी वीणा बने
संसार के कड़वे वृक्ष में दो ही फल अमृतोपम हैं। वह है सुभाषित मधुर सम्भाषण और सुसंगति जुबान प्राप्त करना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है उसे सार्थकता प्रदान करना। वाणी की मिठास ही वाणी की सार्थकता है। वाणी की मधुरता पूरे वातावरण में समरसता घोल देती है। यही कारण है कि प्रत्येक सद्गृहस्थ यह भावना भाता है:
फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे।
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे । प्रेम के लिए वचनों की मधुरता अनिवार्य है। वचनों की मधुरता प्रेम का साम्राज्य स्थापित करती है तो वाणी की कड़वाहट शान्त वातावरण में भी कड़वाहट घोल देती है । वचनों के सामर्थ्य से अशांत वातावरण को भी शांत किया जा सकता है, तो वचन के माध्यम से ही शांत वातावरण भी खौल उठता है।
जिह्वा में अमृत बसे, विष भी तिसके पास। इक बोले तो लाख ले, इकते लाख विनाश ॥ जिह्वा से अमृत भी उड़ेला जा सकता है, तो जीभ से ज़हर भी उगला जा सकता है।
हमें अपनी वाणी पर सदैव अंकुश रखना चाहिए। संत कहते हैं- बोलो पर बोलने से पूर्व विचार कर लो। जो व्यक्ति बोलने से पूर्व विचार करता है उसे फिर कभी पुनर्विचार नहीं करना पड़ता। और जो व्यक्ति बिना विचारे बोल देता है उसे जीवन पर्यन्त विचार करने को बाध्य होना पड़ता है वह पूरे जीवन पछताता रहता है।
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आपने कभी विचार किया दांत तो कड़े हैं और जीभ कोमल है। इसका अर्थ क्या है?
कुदरत को नापसंद है सख्ती जुबान में। इसलिये नहीं दी है हड्डी जुबान में।
पाँच कारणों से आदमी अप्रशस्त वचनों का प्रयोग करता
है (1) क्रोध (2) लोभ (3) भय (4) मजाक (5) आदत ये पांच कारण है जिनके कारण आदमी अपने मुख से वह शब्द निकाल देता हैं, जिसे उसे कभी नहीं निकालना चाहिए।
जब आदमी क्रोधाविष्ट होता है तो वह आपे से बाहर आ जाता है, उसे कुछ भी होश नहीं रहता । तम-तमाया रहता है, न
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सुशीला पाटनी
जाने क्या बोल देता है, पर शांत दिल से वह विचार करे तो वह खुद पछताये कि वह क्या कह रहा है।
दूसरा है, लोभ ! लोभ के संबंध में कहा जाता है कि लोभ आदमी की जिव्हा छीन लेता है। लोभ के कारण व्यक्ति क्या नहीं बोलता । ये लोभ ही ऐसा कारण है जिससे अपने को पराया और पराये को अपना कहने में भी व्यक्ति नहीं चूकता।
तीसरा है भय, भय के कारण आदमी झूठ बोल देता है। जब व्यक्ति पर कोई दबाव होता है तो आदमी का कहना कुछ होता है और कह कुछ देता है । भय बहुत अच्छी चीज नहीं है।
चौथा कारण है मजाक- हँसी मजाक में आदमी न जाने क्या बोलता है। आप थोड़ा सा अपने मन को टटोलना कि सुबह से शाम तक आपका जो समय जाता है, लोगों से बातचीत करते हैं, उसमें आप कितना झूठ बोलते हैं और जितना झूठ बोलते हैं उसका ८० प्रतिशत मजाक का होगा। कहते हैं कि
मधुर वचन हैं औषधि कटुक वचन हैं तीर । कर्णद्वारतै संचरै, साले सकल शरीर ॥
अरे भइया! जब तुम्हारे मीठे बोलने से सब संतुष्ट होते हैं कि एक वचन है जो औषधि का कार्य करता है और एक तो वही बोलो न, वचनों में कौन सी दरिद्रता है। क्या तुम्हारे बोलने वचन है जो तीर की तरह हृदय को चीर देता है। पर पैसा लगता है? क्या तुम्हारे पास शब्द संपदा की कमी है? अरे शब्द का तो अपूर्व भण्डार है तुम्हारे अंदर, उस भंडार का प्रयोग करो।
'रोग की जड़ खाँसी और झगड़े की जड़ हाँसी' । पांचवा हेतु है आदत । आदत एक ऐसी प्रवृत्ति है जो व्यक्ति पर हावी हो जाती है। इसलिये आदमी को अपनी आदत पर अंकुश रखना जरूरी है। आप चाहेंगे तो आदत पर अंकुश रखा जा सकता है।
बंधुओं जिव्हा मिली है- ये जिव्हा तो प्रभु के गीत गाने के लिए मिली है जिव्हा से प्रभु का गीत गाओ, गाली नहीं। जो गाली बकते हैं वो अपनी वाणी का दुरूपयोग करते हैं, उनकी वाणी एक दिन कुंठित हो जाती है, मू होना पड़ता है, उन्हें वाणी रहित होना पड़ता है।
'फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर ही रहा करे।
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे ।।' हमारे मुख से हे भगवान! कभी भी वो अप्रिय शब्द न निकलें, हमारे मुख में मिठास भरे हमारे मुख में मधुरता भरे और हमारे सारे संबंध मधुर बनें - इस भावना से आज अपनी चर्चा को यहीं विराम दे रहे हैं यही मरी भावना है।
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आर. के. हाऊस मदनगंज किशनगढ़
नवम्बर 2003 जिनभाषित
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