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________________ होगी। शेष वर्णन द्वादशांग में समान ही होता है। : जिज्ञासा पर्याय ज्ञान के स्वामी निगोदिया जीव के क्या पर्यायावरण नामक कर्म का उदय नहीं होता? यदि होता है तो फिर उसका वह ज्ञान निरावरित क्यों रहता है ? समाधान : ऋजुमति से गमन कर सूक्ष्मनिगोदिया लब्धपर्यातक जीवों में जन्म लेने वाले जीव के उत्पत्ति के प्रथम समय में जो सर्वजघन्य निरावरित ज्ञान प्रकट रहता है उसे पर्याय ज्ञान कहते हैं। इस जीव के यद्यपि पर्याय ज्ञानावरण कर्म का उदय है, परन्तु उसके देशघाति स्पर्धकों का उदय होता है। जिससे ज्ञान कासर्वजघन्य अंश पर्याय ज्ञान प्रकट रहता है। यदि पर्याय ज्ञानावरण कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय हो जाए तो जीव ज्ञानरहित हो जाए, पर ऐसा कदापि संभव नहीं है। इस जीव के पर्याय समास ज्ञानावरण कर्म के तो सर्वघाति स्पर्धकों का उदय है, जिससे इस जीव के पर्याय समास ज्ञान नहीं होता। अतः पर्याय ज्ञानावरण कर्म के उदय होते हुए भी, देशघाति स्पर्धकों का उदय होने के कारण, पर्याय ज्ञान नष्ट नहीं होता, प्रकट रहता है। देशघाति स्पर्धक उन्हें कहते हैं जो उस गुण का घात नहीं करते। इनके उदय में उस गुण का आंशिक सद्भाव रहता ही है। जिज्ञासा : तीर्थंकर की माता को १६ स्वप्नों में स्वर्ग से आता हुआ विमान दिखाई देता है। तो क्या नरकगति से आने वाले तीर्थंकरों को यह स्वप्न नहीं दिखाई देता होगा या अन्य कुछ और दिखता होगा? बताईएगा । समाधान: तीर्थंकर की माता का तेरहवां स्वप्न 'देव विमान' दिखाई देता है, जो इस बात का प्रतीक है कि गर्भ में आने वाले जीव के कल्याणकों के अवसर पर देवों का आगमन होगा । यह तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है कि यह स्वप्न इस बात का प्रतीक है कि आने वाली आत्मा देवगति से पधार रही है। सभी तीर्थंकरों की माताओं को चाहे वे भरत या ऐरावत क्षेत्र की हों, या विदेह क्षेत्र से संबंधित हों, समान प्रकार के सोलह स्वप्न ही दिखाई देते हैं। जो श्रेणिक आदि जीव नरक गति से माता के गर्भ में पधारेंगे उन महाभाग्य माताओं को ये ही १६ स्वप्न दिखाई देंगे। इनमें कोई भी अन्तर नहीं होगा। देखें जैन तत्व विद्या, पृष्ठ ३२ जिज्ञासा : केवली भगवान के समुद्घात अवस्था में कितने प्राण होते हैं? समाधान : केवली भगवान् के समुद्घात अवस्था में निम्नप्रकार प्राण होते हैं: प्रथम समय औदारिक काय योग दूसरा समय औदारिक मिश्र काययोग नवम्बर 2003 जिनभाषित 26 Jain Education International प्राण 4 (बचन, काय बल, आयु ग्वासोच्छवास ।) दण्ड प्राण 3 ( कायबल, आयु, स्वासोच्छवास) कपाट तीसरा समय कार्मण काय योग चौथा समय पांचवा समय छठा समय औदारिक मिश्र काय प्राण 3 योग प्राण 2 (कायबल, आयु) प्रतर लोकपूरण प्रतर कपाट सातवां समय औदारिककाय योग प्राण 4 आठवां समय · दण्ड प्रवेश जिज्ञासा: मुनियों के 6 काल कौन से होते हैं? समाधान: मुनिराजों के दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना तथा उत्तमार्थ ये छह काल होते हैं, जिनका स्वरूप इस प्रकार है : 1. जब कोई निकट भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, बाह्य एवं अभ्यांतर परिग्रह का त्याग कर जिनदीक्षा (दिगम्बर मुद्रा ) धारण करता है, वह दीक्षाकाल है। 2. दीक्षा के अनन्तर परमार्थ से निश्चय, व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्व तत्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्रों का और व्यवहार नय से चतुर्विध आराधना का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब आचार्य आराधनादि चरणानुयोग ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। 3. शिक्षाकाल के पश्चात् निश्चयनय से निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर जिज्ञासु भव्य प्राणियों को परमात्मा के उपदेश से तथा व्यवहार नय से चरणानुयोग में कथित - और अनुष्ठान उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावना सहित होता हुआ शिष्यगण का पोषण करता है, वह गण पोषण काल है। पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज का वर्तमान में यही गणपोषण काल चल रहा है। 4. गणपोषण काल के अनन्तर निश्चयनय से गण को छोड़कर निजपरमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है, और व्यवहार नय से आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परगण (परसंघ) में जाता है वह आत्मसंस्कार काल है। 5. आत्मसंस्कार काल के बाद आत्मसंस्कार को स्थिर करने के लिए परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकार भावों को कृष करने रूप भाव सल्लेखना तथा भाव सल्लेखना की साधनी भूत कायक्लेशादि का अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना इन दोनों सल्लेखना का आचरण करना सल्लेखना काल है। For Private & Personal Use Only 6. विधि पूर्वक द्रव्य और भाव सल्लेखना का धारी तद्भव मोक्षगामी या 2-3 भव में मोक्ष प्राप्त करने वाला महामुनि इच्छानिरोध रूप तपश्चरण में स्थित होता है व इंगिनीमरण, प्रायोग गमन मरण अथवा भक्त प्रत्याख्यान रूप समाधि को धारण करना वह उत्तमार्थ काल है। देखें अंगपण्णत्ति पृष्ठ 227-28 तथा पंचास्तिकाय गाथा 173 तात्पर्यवृत्ति टीका । 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा, 282002 www.jainelibrary.org
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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