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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल नाड़ा प्रश्नकर्ताः सौ. ज्योति लोहाड़े, कोपरगांव केवल जघन्य पीत लेश्या नामक भावलेश्या पर्याप्त अवस्था में जिज्ञासा : लौकांतिक देवों में, इस पंचम काल में, सिर्फ होती है, अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्या होती हैं। देखें मुनि ही जाते हैं या श्रावक भी? | धवल पु. 2 पृष्ठ 544-545। यह भी उक्त श्री षट्षण्डागम के समाधान : श्री तिलोयपण्णत्ति अ.8/645-651 में इस | कथन से स्पष्ट है कि भवनवासी देवों के द्रव्यलेश्या (शरीर के प्रकार कहा है: जो भक्ति में प्रशस्त और सर्वकाल स्वाध्याय में | वर्ण) छहों होते हैं। स्वाधीन होते हैं। बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को । प्रश्नकर्ता : श्री सविता जैन, नन्दुरवार। भाकर, संयम से युक्त होते हैं, जो स्तुति-निन्दा, सुख-दुख और जिज्ञासा : क्या सभी तीर्थंकरों की वाणी द्वादशांग रूप ही बंधु-रिपु में समान होते हैं, जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द, - होती है? क्या 363 मतों का खण्डन हुण्डावसर्पिणी काल में होने निर्भय, निरारंभ और निरबंध हैं। जो संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ | वाले भरतक्षेत्र के तीर्थंकर ही करते हैं, विदेह क्षेत्र के नहीं करते? तथा जीवित-मरण में समदृष्टि होते हैं। जो संयम, समिति, ध्यान, | क्या सभी १७० कर्मभूमियों में उपदेशित अंगपूणे में समान वर्णन समाधि व तप आदि में सदा सावधान हैं। पंचमहाव्रत, पंचसमिति, | पाया जाता है? बताईएगा। पंचइन्द्रिय निरोध के प्रति चिरकाल तक आचरण करने वाले हैं समाधान : 363 मतों का अर्थ 363 अभिप्राय है। इसका ऐसे विरक्त ऋषि लौकांतिक होते हैं। | अर्थ 363 धर्म हमें नहीं लेना चाहिए। 363 मतों का जहाँ खण्डन सिद्धांतसार दीपक अ.15/291 में इस प्रकार कहा है- | किया गया है, वहाँ धर्मों के नाम लेकर खण्डन नहीं किया गया, अत्यन्त स्त्रीविरक्ता ये, तपस्यन्ति विरागिण :। बल्कि 363 प्रकार की मान्यताओं का खण्डन किया गया है। मुनयः प्रागमेव ते स्युल्लौकांतिकाः स्त्रियोऽतिगाः॥२९१॥ | विदेहक्षेत्र में भी जीवों की मान्यताएँ तो मिथ्यात्वग्रस्त होने के अर्थ- पूर्वभव में जो मुनि स्त्री जन्यराग से अत्यन्त विरक्त | कारण अलग-अलग रहती हैं, परन्तु हिन्दू धर्म, ईसाईधर्म आदि होते हैं, तथा राग रहित अत्यन्त उग्र तप करते हैं, वे स्वर्ग में धर्म, इन विभिन्न धर्मों के अलग-अलग देवता या भगवान तथा आकर स्त्रियों के राग से रहित लौकांतिक देव होते हैं। इन सभी धर्मों के अलग-अलग ग्रन्थ या साधु नहीं होते। विदेह इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि चतुर्थकाल हो या पंचमकाल, । क्षेत्र में सभी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, अत: 363 प्रकार की केवल उपरोक्त विशेषता सहित मुनिराज ही लौकांतिकों में जन्म | मान्यताएँ वहाँ भी होती हैं। लेते हैं, श्रावक लौकांतिक देव नहीं बनते। यह भी विशेष है कि | सभी तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि समान होती है। द्वादशांग कुछ विज्ञजन ऐसा मानते हैं कि केवल बालब्रह्मचारी साधु ही का निरूपण भी समान होता है। द्वादशांग से तो कोई भी विषय लोकांतिक देव बनते हैं, वह भी धारणा आगम सम्मत नहीं है। | छूटा हुआ नहीं है, सारे विषय इसमें समाहित हैं। केवल कुछ अंग जिज्ञासा : भवनवासी देवों के भाव लेश्या छह हैं और | जो उन तीर्थंकर विशेष या उनके तीर्थ विशेष से संबंधित होते हैं द्रव्य लेश्या पीतान्त तक कैसे? उनमें उस तीर्थ के अनुसार परिवर्तित वर्णन पाया जाता है। जैसेसमाधान : आपने प्रश्न ठीक नहीं किया है। वास्तविकता 1. छठा अंग-ज्ञातृधर्मकथा है- इसमें तीर्थकरों एवं गणधरों यह है कि भवनवासी देवों में भावलेश्या आदि की चार अर्थात | का चरित्र होता है। कृष्ण, नील, कापोत तथा पीत कही गई हैं। श्री तत्वार्थसूत्र में कहा | 2. आठवां अंग-अंत:कृतदशांग- प्रत्येक तीर्थंकर के काल है: आदितस्त्रिषु पीतान्त लेश्याः (अ.४/२१) तत्वार्थसूत्रकार ने ये | में उपसर्ग सहनकर मोक्ष जाने वाले 10--10 मुनियों की कथा का चारों लेश्याएँ भवनवासियों के कही हैं। सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक | इसमें वर्णन होता है। आदि टीकाओं में भी ये चारों भाव लेश्याएँ स्वीकार की गई हैं। 3. नौवां अंग अनुत्तरोपपादिक दशांग : प्रत्येक तीर्थंकर के परन्तु श्री षटखंडागम पु. २/५४४ में इस प्रकार कहा है- | काल में उपसर्ग सहन कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले भवनवासिय वाणविंतर जोइसियाणं पज्जत्ताणं | 10-10 मुनियों की कथा का इसमें वर्णन है। इन अंगों में उन-उन भण्णमाणे अत्थि दव्वेण छलेस्सा भावेण जहणिया तेडलेस्सा | तीर्थंकर विशेष से संबंधित वर्णन पाया जाता है। अर्थ- भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिषी पर्याप्त देवों में इसके अतिरिक्त जैसे जम्बूद्वीप में रचित परिकर्म नामक छहों द्रव्यलेश्या कही जाती हैं और भाव से जघन्य पीतलेश्या होती | बारहवें अंग के भेद में जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति है, उसीप्रकार धातकी है। इस कथन से यह बात स्पष्ट होती है कि भवनवासी देवों के | खण्ड के बारहवें अंग के परिकर्म में धातकीखण्ड द्वीप प्रज्ञप्ति - नवम्बर 2003 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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