________________
हैं। क्या यह वीतरागी मुनि के स्वरूप का साक्षात अवर्णवाद नहीं। स्वध्यायशील, आगम ज्ञाता, दिगम्बर जैन परंपरा की मूल आम्नाय है? साक्षात् मिथ्यात्व नहीं है?
चारित्रिक एवं चारित्र शुद्धि की पवित्रता पर आस्था रखने वाले पं. कुलषदोषादसद्भूतमलोद् भावनमवर्णवादः।
श्री नीरज जी जैन ऐसा लेख नहीं लिख सकते। यह तो उनके स्वार्थ कोई पाठक श्री नीरज जी द्वारा पूर्व में लिखित पुस्तक | और पक्ष व्यामोह के स्वर हैं। प्रसंगवश स्मरण में आता है कि परम सोनगढ़ समीक्षा पढ़कर उक्त लेख पढ़ेगा तो वह आश्चर्य चकति हो | पूज्य मुनि वर्द्धमान सागर जी के आचार्य पद प्रतिष्ठा के पूर्व श्री जायेगा। उसे लगेगा कि भट्टारकों के समर्थन में लिखा यह लेख | नीरज जी अपनी पूरी शक्ति से विरोध में खड़े हुए और एक फतबा सोनगढ़ समीक्षा के लेखक द्वारा लिखा तो नहीं हो सकता। हम | जारी कर पूरे भारतवर्ष के साधुओं, विद्वानों एवं प्रमुख समाजसेवियों सोनगढ़ समीक्षा पुस्तक के कतिपय अंश नीचे उद्धृत करते हैं। को लिखा कि मुनि श्री का चारित्रिक दोष इतना गंभीर है कि वे इस
पृ.१६८'भगवान कुंदकुंद बहुत पहले ही अपनी गाथा में' पर्याय में तो कितने भी बड़े प्रायश्चित से भी दोष मुक्त होकर शुद्ध 'असंजदं न वंदे' लिखकर अव्रती जीव को चाहे वह सम्यग्दृष्टि हो | नहीं हो सकते। अत: वे आचार्य पद के योग्य नहीं हो सकते। किंतु चाहे भावी तीर्थंकर ही क्यों न हो, वंदना का निषेध कर चुके थे। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किए जाने के कुछ समय के पश्चात ही वीरसेन स्वामी ने असंयमी अव्रती मनुष्य को वंदना या नमस्कार माननीय श्री नीरज जी बिना अपनी पूर्व भूल पर पश्चाताप किए और करना तो दूर आगम का उपदेश देने की पात्रता नहीं बताई, मात्र | बिना सार्वजनिक रूप से स्पष्टीकरण दिए आचार्य श्री वर्द्धमान मुनियों को ही उसका पात्र कहा है।
सागर जी की शरण में आ गए। भूल सुधार तो मनुष्य का एक उत्कृष्ट निर्विवाद रूप से भट्टारक संकल्प पूर्वक प्रतिमा रूप में | गुण है किंतु यदि वह केवल स्वार्थ परता के आधार पर हो और पूर्व देश व्रत भी नहीं होने से असंयमी हैं। फिर वे वंदना नमस्कार के भूल पर पश्चाताप के साथ न हो तो मात्र स्वार्थ आधारित अवसर पात्र कैसे हो सकते हैं?
वादिता ही कहलायेगा। पृ. १९४- 'दिगम्बर जैन धर्म ने और समाज ने बार-बार | आज हमारा दिगम्बर जैन धर्म दो अतिवादों की चक्की के विषम परिस्थितियों का सामना किया है। बार-बार उसी के बीच से | पाटों के बीच में पिस रहा है। एक ओर सोनगढ़ पंथ है जो वीतराग निकल कर लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार मत मतातरों की | देवगुरु और वीतरागी आचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रों की उपासना के स्थापना की है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की स्थापना तो बहुत मोटा और | पक्षधर बनकर व्रत संयम को संवर निर्जरा का कारण नहीं मानते बहुत पुराना उदाहरण है। परंतु अभी चार सौ साल पूर्व तारण स्वामी | हुए भी स्वयं सच्चे दिगम्बर जैन होने का दावा करते हैं। दूसरी ओर तक ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं जहाँ यदि हमारे पूर्वज भट्टारक पंथ है जहाँ वीतरागी देव के स्थान पर रागीद्वेषी देवीआचार्य अपने सिद्धातों के साथ जरा भी लचीला रूख अपना लेते, | देवताओं की उपासना का अधिक प्रचार है। पीछी धारी वस्त्र धारी छोटी मोटी बातों पर समझौता कर लेते तो शायद हमारी संख्या जितनी | मठाधीश भट्टारक जगद्गुरु बनकर वीतरागी साधुओं के समान है उससे कई गुनी अधिक होती। परंतु हम देखते हैं हमारे परम विवेकी | अपनी पूजा सत्कार कराते हैं। अध्यात्म एवं आचार शास्त्रों की आचार्यों ने ऐसा नहीं किया। उन्हें पंथी की गुणवत्ता का मान था, | उपेक्षाकर मंत्र-तंत्र और देवी देवताओं की पूजाओं एवं अन्य क्रिया संख्या का नहीं। यह मूल संघ की पवित्रता का रहस्य है।' कांडों के विधान करने वाले शास्त्र ही मुख्य माने जाते हैं।
श्री नीरज जी स्वयं के उक्त कथन से भट्टारकों के प्रसंग । मैं दिगम्बर जैन धर्म के श्रद्धालु बंधुओं से यह निवेदन में सर्वथा विपरीत रूख अपना रहे हैं। जब दिगम्बर जैन मूल संघ | करता हूँ कि वे स्वयं विचार करें कि उपर्युक्त अतिवादी पंथों में आम्नाय ने अल्पश्वेत वस्त्र धारी किंतु आरंभ एवं शेष परिग्रह त्यागी, | से हमारे वीतराग दिगम्बर जैन धर्म के लिए कौनसा पंथ अधिक गृहत्यागी, पदविहारी श्वेताम्बर साधुओं को भी संघ वाह्य माना तो अहितकर है? यदि कदाचित् दोनों को ही समान रूप से अहितकर आरंभ परिग्रह युक्त भगवां वस्त्र धारण करनेवाले, वाहन प्रयोग माना जाये तो एक पंथ की निंदा और दूसरे का समर्थन किस प्रकार करने वाले एवं पीछी धारण कर मुनि के समान अपनी पूजा कराने वाले सुविधा भोगी भट्टारकों का वह समर्थन कैसे कर सकती है? सम्माननीय विद्वान नीरज जी ने आगे लिखा है कि दिगम्बर एक ओर आपकानजी स्वामी को असंयमी मानते हुए उनकी वंदना | जैन संस्कृति का सात आठ सौ सालों का इतिहास भट्टारक संस्था के को निषेध करते हैं और दूसरी ओर उन असंयमी किंतु पीछी धारी द्वारा की गई जिन शासन की सेवा और उसके संरक्षण का इतिहास भट्टारकों की मुनिवत् पूजा प्रतिष्ठा का समर्थन करते हैं, उन्हें है। इनमें मंदिरों मूर्तियों और जिनागम की सुरक्षा तथा जैन ज्योतिष जगद्गुरु कहते हैं।
आयुर्वेद लक्षणशास्त्र नैमित्तिक सामुद्रिक और हस्तरेखा आदि विद्याओं पृष्ठ २२९- 'दिगम्बरत्व की रक्षा दिगम्बरों से ही होगी। का संरक्षण भट्टारक की सेवाओं के रूप में इतिहास में अंकित है। अम्बरधारकों (सग्रन्थियों) से नहीं। आज जरूरत पक्के जैनों की मुगल शासन के चार पांच सौ सालों तक जब उत्तर भारत में मुनियों नहीं, सच्चे जैनों की है।'
का अभाव था तब समाज संगठन उत्सव समारोह और मंदिर निर्माण लोग कहते हैं स्वार्थ के आधार पर ऐसा विरोधाभास | तथा मूर्ति प्रतिष्ठा आदि भट्टारकों ने ही कराए हैं। आपके जीवन का अंग बना हुआ है। यह तो निश्चित है कि । 24 नवम्बर 2003 जिनभाषित
क्रमश:...
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
, www.jainelibrary.org