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________________ उपेक्षाभाव से लिया गया नियम नरक का कारण बनता है परमपूज्य मुनिपुंगव १०८ श्री सुधासागर जी महाराज द्वारा केकड़ी में पद्म पुराण पर आयोजित राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठि में व्यक्त किये विचार भी नियम तब फलीभूत होता है जब मन, वचन, काय की एकाग्रता उसमें हो। रावण ने सीता का हरण किया परन्तु उससे जोर जबर्दस्ती नहीं की। मन्दोदरी ने तब रावण से कहा कि तुम सीता का बलात् आलिंगन क्यों नहीं करते तब रावण इसे अस्वीकार करते हुए कहता है कि मैंने तो मुनिराज से यह समझकर व्रत लिया था कि संसार में ऐसी कौन सी स्त्री होगी जो रावण को नहीं चाहेगी? अत: जब नियम ले लिया है तो उसका पालन करूँगा। रावण के इस नियम को लेते समय भी अहंकार था । उपेक्षा भाव इसीलिए था कि रावण के मन, वचन, काय में एकाग्रता नहीं थी । इसीलिए नियम के प्रति उपेक्षा भाव के कारण वह नरक गया। अहिंसा के प्रति उपेक्षा भाव भी हिंसा का कारण है हनुमान जी भी सीता की खोज में श्रीलंका गये जहाँ वे लंका सुंदरी के मोह में फँस गये। आपने ट्रेन का उदाहरण देते हुए बताया कि एक व्यक्ति तीन दिन से ट्रेन में बैठा है, भले ही गलती से बैठ गया है, उसे पता है कि मैं गलत रेल में बैठा हूँ परन्तु फिर भी वह ट्रेन से नहीं उतरा उसी ट्रेन में बैठा-बैठा रो रहा है फिर भी ट्रेन से उतरने को तैयार नहीं है । मनुष्य की स्थिति भी ठीक इसी तरह है वह जानता है कि वह धर्म के विपरीत जा रहा है नियमों की उपेक्षा कर रहा है। क्या देय है क्या उपादेय इसे भी जानता है परन्तु वह वही कर रहा है जिससे संसार बढ़े संसार के प्रति आसक्ति बढ़े वह अब तक किये कार्यों पर पछता नहीं रहा है। रावण ज्ञानी है सब कुछ जानता है परन्तु अहंकार वश वह सीता को वापस नहीं करना चाहता है। यही कारण उसके लिए नरक ले गया। इसी तरह राम की चर्चा करना अलग बात है और राम के चरित्र का अनुकरण करना अलग बात है। पद्मचरित की कथा और वाल्मीकि की राम कथा में अंतर हो सकता है परन्तु राम को सभी आदर्श पुरुष मानते हैं उनके चरित्र को सभी अनुकरणीय समझते हैं। अतः राम के चरित्र की प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी। संसार में जितने भी धर्म हैं और उनके अनुयायी हैं उनकी अपने-अपने धर्म में श्रद्धा है जो धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है परन्तु तत्व श्रद्धा अलग चीज है। तत्व को समझना भी आवश्यक है। आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि राम की कथा किस काल की है आवश्यकता श्री राम के चरित्र के अनुकरण की है। 6 वीरधरणीधरान्धरा गणधराधर मण्डिता । कर्मभूभृद्भेदत्वाद् गङ्गाधरेति मानिता ॥1 ॥ सुधाधारा पुनातु नः ज्ञानविद्याधराधारा महाधरिति कल्प्यते । अधराधरधराधारा सुधाधारा पुनातु नः ॥2 ॥ मिथ्यात्वनिर्भरा धारा निराधारेति मन्यते । ज्ञानदृक्ताधारा धर्मधारा महर्षिभिः ॥13 ॥ नवम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रस्तुति : डॉ. नरेन्द्र भारती, सनावद शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी सा धारा या सुधाधारा साधारा सुविधीयते । धराधरात्मसन्धारा सुधाधारा पुनातु नः ॥14 ॥ तीर्थकृत्कृता धारा ज्ञानविद्यामयाऽभवत् । सुधासागरिका धारा धारा सुधासागरी ॥15 ॥ अद्यधारा सुधाधारा सुधालम्बा सरस्वती । सधमंजनशिरोधार्या सुधाधारा पुनातु नः ॥16॥ www.jainelibrary.org
SR No.524279
Book TitleJinabhashita 2003 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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