Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2529 श्री अतिशय क्षेत्र पपौरा वैशाख, वि.सं. 2060 मई 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशीलता आचार्य श्री विद्यासागर जी शील से अभिप्राय स्वभाव से है। स्वभाव की उपलब्धि एक थानेदार को उस पर तरस आ गया और उसने उस भिक्षुक को के लिए निरतिचार व्रत का पालन करना ही रोटी देने के लिए बुलाया। पर भिक्षुक थोड़ा आगे जा चुका था "शीलव्रतेष्वनतिचार" कहलाता है। व्रत से अभिप्राय नियम, इसलिए उसने एक नौकर को रोटी देने भेज दिया। मैं रिश्वत का कानून अथवा अनुशासन से है। जिस जीवन में अनुशासन का अन्न नहीं खाता भइया!' ऐसा कहकर वह भिक्षुक आगे बढ़ गया। अभाव है वह जीवन निर्बल है। निरतिचार व्रत पालन से एक नौकर ने वापिस आकर थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गयी बात अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है। निरतिचार का मतलब सुना दी और वे शब्द उस थानेदार के मन में गहरे उतर गये। उसने ही यह है कि जीवन अस्त-व्यस्त न हो, शान्त और सबल हो। सदा-सदा के लिए रिश्वत लेना छोड़ दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञा ने, रावण के विषय में यह विख्यात है कि वह दुराचारी था, उसके निर्दोष व्रत ने थानेदार की जिन्दगी सधार दी। जो लोग किन्तु वह अपने जीवन में एक प्रतिज्ञा में आबद्ध भी था। उसका गलत तरीके से रुपये कमाते हैं, वे दान देने में अधिक उदारता व्रत था कि वह किसी नारी पर बलात्कार नहीं करेगा, उसकी दिखाते हैं। वे सोचते हैं कि इसी तरह थोड़ा धर्म इकट्ठा कर इच्छा के विरुद्ध उसे नहीं भोगेगा और यही कारण था कि वह लिया जाय, किन्तु धर्म ऐसे नहीं मिलता। धर्म तो अपने श्रम से सीता का हरण तो कर लाया, किन्तु उनका शील भंग नहीं कर निर्दोष रोटी कमा कर दान देने में ही है। पाया। इसका कारण केवल उसका व्रत था. उसकी प्रतिज्ञा थी। अंग्रेजी में कहावत है कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं यद्यपि यह सही है कि यदि वह सीताजी के साथ बलात्कार का जीता, उससे भी ऊँचा एक जीवन है जो व्रत साधना से उसे प्राप्त हो प्रयास भी करता तो भस्मसात् हो जाता किन्त उसी प्रतिज्ञा ने उसे सकता है। आज हम मात्र शरीर के भरण-पोषण में लगे हैं। व्रत, ऐसा करने से रोक लिया। नियम और अनुशासन के प्रति भी हमारी रुचि होनी चाहिये। ये निरतिचार' शब्द बड़े मार्के का शब्द है । व्रत के पालन अनुशासन-विहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। अरे भइया! में यदि कोई गड़बड़ न हो, तो आत्मा और मन पर एक ऐसी गहरी तीर्थंकर भी अपने जीवन में व्रतों का निर्दोष पालन करते हैं। हमें छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस भी करना चाहिए। व्रत और व्रती के सम्पर्क में आ जाते हैं बिना प्रभावित हुये रह नहीं हमारे व्रत ऐसे हों जो स्वयं को सुखकर हों और दूसरों को सकते। जैसे कस्तूरी को अपनी सुगन्ध के लिए किसी तरह की भी सुखकर हों। एक सज्जन जो संभवतः ब्राह्मण थे, मुझसे कहने प्रतिज्ञा नहीं करनी पड़ती, उसकी सुगन्ध तो स्वतः चारों ओर लगे- 'महाराज, आप बड़े निर्दयी हैं। देने वाले दाता का आप व्याप्त हो जाती है, वैसी ही इस व्रत की महिमा है। आहार नहीं लेते । तो मैंने उन्हें समझाया-'भइया ! देने वाले और 'अतिचार' और 'अनाचार' में भी बड़ा अन्तर है। लेने वाले दोनों व्यक्तियों के कर्म का क्षयोपशम होना चाहिये। 'अतिचार' दोष है जो लगाया नहीं जाता, प्रमादवश लग जाता है। दाता का तो दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना आवश्यक है, पर किन्तु अनाचार तो सम्पूर्ण व्रत को विनष्ट करने की क्रिया है। लेने वाले का भी भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। मुनिराज निरतिचार व्रत के पालन में पूर्ण सचेष्ट रहते हैं । जैसे कई दाता लेने वाले के साथ जबर्दस्ती नहीं कर सकता क्योंकि लेने चुंगी चौकियाँ पार कर गाड़ी यथास्थान पहुँच जाती है, उसी प्रकार वाले के भी कुछ नियम, प्रतिज्ञायें होती हैं। जिन्हें पूरा करके ही मुनिराज को भी बत्तीस अन्तराय टालकर निर्दोष आहार और अन्य वह आहार ग्रहण करता है। उपकरण आदि ग्रहण करने पड़ते हैं। BETE सारांश यही है कि सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना निरतिचार व्रत पालन की महिमा अद्भुत है। एक चाहिये, वे व्रत-नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण भिक्षुक था। झोली लेकर एक द्वार पर पहुँचा रोटी माँगने । रूखा करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि जवाब मिलने पर भी नाराज नहीं हुआ, बल्कि आगे चला गया। सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय प/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- 462016 (म. प्र. ) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मुलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डा. सुरेन्द्र जैन 'भारती' बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल्स लि. ) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर द्रव्य - औदार्य श्री गणेश कुमार राणा जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 ( उ. प्र. ) फोन : 0562-351428, 352278 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक 5,00,000रु. 51,000 रु. 5,000रु. 500 रु. 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। जिनभाषित मासिक ● प्रवचन सुशीलता: आपके पत्रः धन्यवाद सम्पादकीय : दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान के प्रमाण लेख • पपौरा: प्राकृतिक और पौराणिक पावन स्थल डाक पंजीयन क्र. म.प्र./ भोपाल/588/2003 मई 2003 अन्तस्तत्त्व कविताएँ : तुमको प्रणाम जैनधर्म की वैज्ञानिकता • भगवान् महावीर और महात्मा गाँधी : डॉ. कपूरचन्द्र जैन एवं डॉ. ज्योति जैन मानस कबे-कबे है होनें : डॉ. मुन्नीपुष्पा जैन • चांदखेड़ी के अतिशय क्षेत्र से... सतीश जैन इंजीनियर जिज्ञासा समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा • स्पष्टीकरण • दिगम्बर प्रतिमा का स्वरूप : स्पष्टीकरण समाचार वर्ष 2, आचार्य श्री विद्यासागर जी : कैलाश मड़वैया : प्राचार्य निहालचंद जैन : नीरज जैन दिगम्बर प्रतिमा का स्वरूप : स्पष्टोकरण की समीक्षा : पं. मूलचन्द लुहाड़िया बालवार्ता : डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' आवरण पृष्ठ 2 : डॉ. संकटा प्रसाद मिश्र अड्डू 4 पृष्ठ 2 6 9 13 16 18 22 24 27 21 31-32 आवरण पृष्ठ 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य फरवरी 2003 का जिनभाषित अंक हाथों में है। आद्योपान्त | जाए तो कान को काट कर फेंकना कैसे उचित है? संघ तो मुनि पढ़कर ही छोड़ने का मन हुआ। कवर पृष्ठ पर उड़ीसा की उदयगिरि आर्यिका, श्रावक-श्राविकाओं का रहेगा। पैरा नं. 11 में आपका गुफाओं का मनोहारी मनमोहक दृश्य देखकर मन प्रसन्नता से | विचार बहुत संकुचित विचारधारा का प्रतीत होता है। कृपया झूम उठा, परन्तु हमारा समाज इसके विकास के लिए क्या कर लेखों में यह ध्यान हर विद्वान को रखना उचित होगा कि उसकी रहा है? यह विचारणीय बिन्दु है। कवर पृष्ठ के पीछे इस युग के | भाषा से किसी भी संघ के प्रति समाज के आदर में कमी न आ महानतम आचार्य महावीर के लघुनंदन विद्यासागर जी का चित्र जाए। क्षमाचायना के साथ, सधन्यवाद। व उनकी पावन वाणी, समवशरण में महावीर स्वामी की दिव्य धनकुमार जैन झ-28 दादावाड़ी कोटा-9(राज.) देशना से कम नहीं है । पूज्य मुनिश्री प्रमाण सागर जी द्वारा लिखित दिसम्बर 2002 का अंक पढ़ा। अंतिम पृष्ठ को जिस तरह "धर्म जीवन की धुरी" पसन्द आया। आपने सँवारा है वह वास्तव में अनुकरणीय है। आप सदैव इसी 'पण्डित जीवन पर असन्तोष नहीं' यह कहना पं. कैलाश तरह के छायाचित्र प्रस्तुत किया करें। इस पत्रिका के लेख संकलन चन्द्र जी का बिल्कुल सत्य है। आज कोई अपने बच्चे को पं. या के योग्य हैं और समय-समय पर हमारे काम में भी आते हैं। जो शास्त्री नहीं बनाना चाहता क्योंकि आज समाज उन्हें दो वक्त की पंडित लोग केवल शास्त्रों की भाषा में बात करते हैं उन्हें आसानी रोटी भी नहीं देगा। आज जो पं., शास्त्री बेरोजगार हैं उनके प्रति से यह पत्रिका के माध्यम से हम समझा भी देते हैं। हमारे विद्वद्वर्ग एवं संस्थाओं को कोई हल शीघ्र ही खोजना चाहिए। विज्ञापन का प्रभाव पत्रिका पर नहीं है, इससे ज्यादा खुशी आदरणीय रतनलाल जी बैनाड़ा का शंका-समाधान सदैव की की क्या बात होगी? बैनाड़ा जी का शंकासमाधान भी काफी भाँति रोचक, ज्ञानवर्धक व प्रेरणाप्रद है। पत्रिका की इतनी तीव्र चुनौतियों भरा है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करें। प्रगति देखकर जैन पत्रकारिता के प्रति सम्पादक मण्डल का परिश्रम अक्षय जैन श्लाघनीय है। होली पर्व की पत्रिका परिवार को शुभकामनायें। चौक बाजार, भोपाल पं. सुनील जैन 'संचय शास्त्री नरवां विनम्र अपील जनवरी 2003 जिनभाषित अंक में सम्पादकीय' टिप्पणियाँ शैक्षणिक सहायता हेतु आपने अच्छी की हैं । वास्तव में हम एक दूसरे के ऊपर कीचड़ समाज के दानवीर महानुभावों से एवं संस्थाओं से निवेदन उछालने का कार्य बहुत करने लगे हैं। आपने सम्पादकीय में यह | है कि एक प्रतिभाशाली छात्र अर्थाभाव के कारण अपनी उच्च टिप्पणी कर हम जैसे लोगों का जिन्होंने पोस्टर रंगीन नहीं देखे शिक्षा से वंचित न हो, अस्तु सहयोग प्रदान करने की कृपा करें। उन्हें भी जिज्ञासा हो गई है कि वह ब्रह्मचारी कौन है ? वह छात्र का नाम- नीलेश कुमार जैन आचार्य कौन है? कैसे हैं पोस्टर? क्या है आशय? आपने पैरा नं. पिता का नाम - श्री अभय कुमार जैन 12 में परम पूज्य संत शिरोमणी आचार्य श्री के संघ का उदाहरण शिक्षा- कक्षा 12 वीं, जवाहर नवोदय विद्यालय भुलेश्वर देकर यह कहने का प्रयास किया कि वह सभी संघ जिनमें मुनि, | से 80 प्रतिशत अंकों सहित। आर्यिका, श्रावक, श्राविका रहती हैं वह सव संघ का आचरण निवासी - बड़ागाँव धसान, टीकमगढ़ (म.प्र.) संदिग्ध है? क्या राय देना चाहते हैं आप मुनि संघों को? आप हम उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्ति हेतु शैक्षणिक सहायता चाहता है, सब चतुर्विध संघ की बात करते हैं तो क्या बिना आर्यिकाओं के कृपया सहयोग प्रदान कर छात्र का उज्ज्वल भविष्य प्रशस्त करें। चतुर्विध संघ की कल्पना भी हो सकती है? समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाना है। यदि किसी सोने के आभूषण से कान कट द्वारा राकेश जैन बडागाँव 2 मई 2003 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान के प्रमाण प्रस्तुत अंक में माननीय पं. नीरज जी जैन एवं पं. मूलचन्द्र जी लुहाड़िया के लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं। मान्य नीरज जी ने अपने स्पष्टीकरण में लिखा है कि उन्होंने अपने वक्तव्य में यह कहा था कि "तीर्थों और मंदिर-मूर्तियों पर श्वेताम्बरों द्वारा स्वामित्व का विवाद खड़ा किये जाने की स्थिति में हमारे शिलालेखों, मूर्तिलेखों और मूर्तियों पर इन देवी-देवताओं का अंकन भी हमारे स्वत्व का प्रमुख प्रमाण हो सकता है।" मैं नीरज जी द्वारा प्रयुक्त 'प्रमुख' शब्द से, सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। यदि प्रमुख' के स्थान में अतिरिक्त' शब्द का प्रयोग होता, तो सहमत होने में बाधा न होती। मेरी दृष्टि से दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान का प्रमुख प्रमाण अपरिग्रह और वीतरागता की व्यंजना करती हुई सर्वथा वस्त्ररहित नग्नता ही हो सकती है। प्रतिमा के आस-पास दिगम्बरमत-सम्मत शासन-देवताओं का मूर्तन अतिरिक्त प्रमाण अवश्य हो सकता है। छठी शती ई. के पूर्व की जिन प्रतिमाओं के समीप शासन देवताओं का अंकन नहीं मिलता, उनके दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने का एकमात्र अकाट्य प्रमाण उनकी वीतरागता- व्यंजक सर्वथा अचेल नग्नता ही है। सर्वथा अचेल से तात्पर्य है देवदूष्य वस्त्र से भी रहित तथा नग्नता से अभिप्राय है कायोत्सर्ग मुद्रा में होने पर पुरुषचिह्न का दृष्टिगोचर होना। श्री नीरज जी ने लिखा है- "जब किसी न्यायालय में किसी प्रतिमा के स्वामित्व का विवाद प्रस्तुत होता है, तब उस पर दिगम्बर समाज का स्वत्व सिद्ध करने के लिए मूर्ति की वीतरागता और नग्नत्व न्याय की दृष्टि में निर्णायक साक्ष्य नहीं माने जाते। इसका कारण यह है कि ऐसे सभी विवादों में श्वेताम्बरों का कथन यह होता है कि वे दिगम्बर और श्वेताम्बर अथवा सवस्त्र और वस्त्रविहीन, दोनों प्रकार की मूर्तियाँ पूजते हैं।" किन्तु उनके कथन को न्यायालय प्रामाणिक कैसे मान लेता है? इसलिए कि हम यह सिद्ध नहीं कर पाते कि श्वेताम्बर बन्धुओं का कथन सत्य नहीं है। और यह इसलिए कि हमने श्वेताम्बर ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया। प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने स्वयं लिखा है कि तीर्थंकर भी सर्वथा अचेल नहीं होते, मुनियों की तो बात ही क्या? सभी तीर्थंकर एक देवदूष्य लेकर प्रव्रजित होते हैं "जिनेन्द्रा अपि न सर्वथैवाचेलकाः, सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं' इत्यादि वचनात्।" (विशेषावश्यक भाष्य-वृत्ति गाथा २५५१-५२) जब साक्षात् तीर्थंकर देवदूष्य-वस्त्रयुक्त होते हैं, तब उनकी प्रतिमाएँ भी देवदूष्ययुक्त होनी चाहिए , अन्यथा उनका बिम्ब जिनबिम्ब नहीं कहला सकता। इसीलिए सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी लिखते हैं "आज से २००० वर्ष पहले मूर्तियाँ इस प्रकार से बनायी जाती थीं कि गद्दी पर बैठी हुई तो क्या, खड़ी मूर्तियाँ भी खुलेरूप में नग्न नहीं दिखती थीं। उनके वामस्कन्ध से देवदूष्य वस्त्र का अंचल दक्षिण जानु तक इस खूबी से नीचे उतारा जाता था कि आगे तथा पीछे का गुह्य भाग उससे आवृत हो जाता था और वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया। जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लग सकता था।" (पट्टावली पराग, पृष्ठ ४४ प्रकाशन वर्ष १९५६) श्वेताम्बर परम्परा में नग्नता को अश्लील, लोकमर्यादाविरुद्ध तथा कामविकारोत्पादक माना गया है। इसलिए श्वेताम्बर मानते हैं कि तीर्थकर नग्न होते हुए भी नग्न नहीं दिखते, क्योंकि उनका गुह्यप्रदेश उनके शुभ प्रभामंडल से वस्त्रवत् आच्छादित रहता है। इसलिए उन्हें देखकर अश्लीलता का आभास नहीं होता, न ही स्त्रियों में मोहोदय (कामविकार का उदय) होता है। १७ वीं शती ई. में हुए श्वेताम्बर मुनि उपाध्याय धर्मसागर जी ने यह बात अपने ग्रन्थ 'प्रवचन परीक्षा' में इन शब्दों में कही है मई 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति।.... स्त्र्यादीनां तद्रूपदर्शनानन्तरं मोहोदयहेतुत्वाभावः। ..... जुगुप्सनीयावाच्यावयवादिदर्शनं, तच्च तीर्थकृतां न सम्भवति।" (प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, गाथा ३१ की टीका) उपाध्याय जी का कथन है कि इसी कारण ऊर्जयन्त गिरि (गिरनार पर्वत) के स्वामित्व को लेकर श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में जो विवाद हुआ था, उसके पूर्व बनाई जाने वाली जिनप्रतिमाएँ न नग्न होती थी, न अञ्चलिकायुक्त (वस्त्रपट्टिकायुक्त)। इसलिए उस समय तक दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की जिनप्रतिमाओं में भेद नहीं था, दोनों की जिनप्रतिमाओं का आकार एक जैसा था "विवादात्पूर्वकालं जिनप्रतिमानां नैव नग्नत्वं, नापि च पल्लवकः अञ्चलचिन्हं तेन कारणेन आकारेण जिनप्रतिमानामुभयेषां श्वेताम्बर-दिगम्बराणां भेदो भिन्नत्वं नासीत्, सदृश आकार आसीदिति।" (प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, गाथा ७० की टीका) किन्तु विवाद के पश्चात् श्वेताम्बर अपनी जिनप्रतिमाओं पर पल्लवचिह्न (वस्त्रपट्टिका का आकार) बनाने लगे, तब दिगम्बरों ने प्रतिक्रिया-स्वरूप उन्हें नग्न बनाना शुरु कर दिया। चूँकि श्वेताम्बर मुनि स्वयं वस्त्रधारी होते हैं, इसलिए उन्होंने प्रतिमाओं पर वस्त्र का चिन्ह बनाया और दिगम्बर मुनि स्वयं नग्न होते हैं, इसलिए उन्होंने प्रतिमाओं का नग्नरूप में निर्माण कराया "अहोऽस्मन्निश्रितप्रतिमाकारतो भिन्नाकारकरणाय यदि श्रीसङ्ग्रेन पल्लवचिह्नमकारि, करिष्यामस्तर्हि वयमपि श्वेताम्बरप्रतिमातो भिन्नत्वकरणाय किञ्चिच्चिह्नमिति विचिन्त्य मत्सरभावेन जिनप्रतिमानां नग्नत्वं विहितं । श्वेताम्बरेण स्वयं वस्त्रधारित्वात् वस्त्रं चिह्नं कृतं, दिगम्बरेण स्वयं नग्नत्वात् नग्नत्वमेव।" (प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, गाथा ६८ की टीका) 'प्रवचनपरीक्षा ग्रन्थ के लेखक उपाध्याय धर्मसागर जी ईसा की १७ वीं शताब्दी में हुए थे। इससे सिद्ध है कि उनके समय तक श्वेताम्बर परम्परा में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था। उनका यह कथन प्रामाणिक इसलिए है कि उनके पूर्ववर्ती किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थकार ने इसके विरुद्ध कथन नहीं किया। किसी ने भी यह नहीं लिखा कि श्वेताम्बर परम्परा की जिनप्रतिमाएँ नग्न होती हैं। उत्तरवर्ती श्वेताम्बराचार्यों ने प्रवचन-परीक्षाकार का ही मत स्वीकार किया है। बीसवीं शती ई. के आरंभ में हुए श्वेताम्बराचार्य श्री आत्माराम जी ने अपने 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि तीर्थंकरों की नग्नता तो उनके अतिशय के प्रभाव से दृष्टिगोचर नहीं होती, अत: उनकी प्रतिमाएँ नग्न हों तो जिनबिम्ब कैसे कहला सकती हैं? (पृष्ठ ५८७) प्राचीन और अर्वाचीन श्वेताम्बराचार्यों के ये कथन इस बात के प्रमाण हैं कि श्वेताम्बर आम्नाय में तीर्थंकरों की नग्न प्रतिमाएँ जिनबिम्ब नहीं मानी जा सकतीं, अत: वे उनके लिए पूज्य भी नहीं होतीं। इसीलिए उनके सम्प्रदाय में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण कभी भी नहीं हुआ। यदि प्रतिमा-विवाद के समय हम इन ग्रन्थों के उपर्युक्त उद्धरण न्यायालय में रखें, तो श्वेताम्बर ग्रन्थों से ही श्वेताम्बर बन्धुओं का यह कथन असत्य सिद्ध हो जायेगा कि वे नग्न जिनप्रतिमाओं को भी पूजते हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने तो यहाँ तक कहा है कि पाँचवीं शती ई. तक जैन संघ में मूर्तिपूजा एवं मंदिर-निर्माण का प्रचलन ही नहीं हुआ था। उनके निम्नलिखित वक्तव्य द्रष्टव्य हैं १. "जैनधर्म अथवा आगम सम्बन्धी निर्माणोत्तरकालीन प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर भी यदि निष्पक्षरूपेण दृष्टिपात किया जाय, तो यही तथ्य प्रकाश में आता है कि पहली आगम-वाचना के समय से लेकर चौथी आगमवाचना (वलभीवाचना ई. सन् ४५३-४६७) तक की कालावधि में आगमानुसार विशुद्ध श्रमणाचार, श्रावकाचार एवं धर्म के मूल अध्यात्मप्रधान स्वरूप का पालन करने वाले जैन संघ में मूर्तिपूजा एवं मंदिरादि के निर्माण का प्रचलन नहीं हुआ था।" (जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग २, पृष्ठ २३०) २. "महान् प्रभावक आचार्य स्कन्दिल लगभग वीर नि. सं. ८३० से ८४० तक, लगभग १० वर्ष तक मथुरा में रहे, 4 मई 2003 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उनके किसी भी श्रमणोपासक अथवा श्रमणोपासिका द्वारा वीर निर्वाण की ८ वीं शताब्दी से ९ वीं शताब्दी के अन्त तक अर्हत् मूर्ति की प्रतिष्ठा अथवा अर्हत् मंदिर का निर्माण नहीं करवाया, यह एक निर्विवाद तथ्य मथुरा के कंकाली टीले एवं अन्यान्य स्थानों से उपलब्ध शिलालेखों से प्रकट होता है।" (वही, पृ. २३३) ३. "आचार्य नागार्जुन भी यदि मूर्तियों एवं मंदिरों के निर्माण तथा मूर्तिपूजा के पक्षधर होते, तो उनके समय (वीर नि. सं. ८३०) की उनके श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों और मंदिरों के अवशेष-शिलालेख आदि कहीं न कहीं अवश्यमेव उपलब्ध होते। परन्तु आज तक भारत के किसी भाग में इस प्रकार का न कोई शिलालेख ही उपलब्ध हुआ है और न कोई मूर्ति अथवा मंदिर का अवशेष ही।" (वही, पृष्ठ २३३) ४. "इसी प्रकार उपर्युक्त अवधि (खारवेल के शिलालेख के उठेंकन काल वीर नि.स. ३७९) में किसी समय जैन धर्म में भी मूर्तिपूजा अथवा मंदिर निर्माण को कोई स्थान मिला होता, तो खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से केवल २६ वर्ष पहले स्वर्गस्थ हुआ मौर्य सम्राट् सम्प्रति भी कलिंग की राजधानी अथवा पवित्र कुमारी पर्वत पर अवश्यमेव जिनमूर्ति की प्रतिष्ठापना और जैन मंदिर का निर्माण करवाता। खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व कलिंग में आये तूफान में जिस प्रकार राजप्रासाद, भवन, गोपुर, प्राकार आदि भूलुण्ठित अथवा क्षतिग्रस्त हुए, उसी प्रकार कोई न कोई जैनमंदिर भी क्षतिग्रस्त होता और पर मार्हत खारवेल उसके जीर्णोद्धार का इस शिलालेख में अवश्य ही उल्लेख करता।" (वही, पृष्ठ २३८) ५. "इस प्रकार इस (खारवेल के) शिलालेख में उल्लिखित तथ्य सत्यान्वेषी सभी धर्माचार्यों, इतिहासविदों, शोधार्थियों, गवेषकों और प्रबुद्ध तत्त्वजिज्ञासुओं को उन नियुक्तियों, चूर्णियों, महाभाष्यों, पट्टावलियों एवं अन्यान्य ग्रन्थों के उन सभी उल्लेखों पर क्षीरनीरविवेकपूर्ण निष्पक्ष दृष्टि से गहन विचार करने की प्रेरणा देते हैं, जिनमें मौर्य सम्राट् परमाहत् सम्प्रति के लिए कहा गया है कि उसने तीनों खण्डों की पृथ्वी को जिन मंदिरों से मण्डित कर दिया था।" (वही, पृष्ठ २३९) आचार्य जी ने खारवेल के उक्त शिलालेख के 'कलिंगजिन' (भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा) पाठ को कलिंगजन पाठ माना है, अत: उन्होंने उससे जिनप्रतिमा अर्थ नहीं लिया है। (वही, पृष्ठ २३५)। इसे छोड़कर आचार्य जी का सम्पूर्ण कथन श्वेताम्बर जिन-प्रतिमाओं के सन्दर्भ में युक्तिसंगत प्रतीत होता है। निश्चय ही छठी शताब्दी ई. के पूर्व की कोई भी ऐसी जिनप्रतिमा प्राप्त नहीं हुई है, जो प्रवचन-परीक्षाकार एवं मुनि श्री आत्माराम जी के अनुसार न नग्न हो, न अञ्चलिकायुक्त। न ही ऐसी प्रतिमा उपलब्ध हुई है, जो मुनि कल्याणविजय जी के कथनानुसार देवदूष्यवस्त्र से आवृत हो और न ही वर्तमान श्वेताम्बर जिन-प्रतिमाओं के सदृश वस्त्राभूषणों से अलंकृत प्रतिमा उपलब्ध हुई है। सबसे प्राचीन सवस्त्र प्रतिमा जीवन्तस्वामी (राजकुमार महावीर) की प्राप्त हुई है, जो ई. सन् ५५० में निर्मित हुई थी। दूसरी सवस्त्र तीर्थंकर प्रतिमा भगवान् ऋषभदेव की है, जो कांस्यनिर्मित एवं कायोत्सर्गमुद्रा में है। यह ई. सन् ६८७ में प्रतिष्ठापित की गई थी। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वस्तुत: छठी शती ई. के पहले श्वेताम्बरों के द्वारा जिन-प्रतिमाओं का निर्माण ही. . नहीं कराया गया। अत: तब तक श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। छठी शती ई. से सवस्त्र जिन प्रतिमाओं का निर्माण शुरु हुआ और तभी से श्वेताम्बर परम्परा में पूजा-प्रथा प्रारंभ हुई। इस प्रमाण से भी श्वेताम्बर बन्धुओं का यह कथन असत्य सिद्ध हो जाता है कि वे नग्न जिनप्रतिमाओं की भी पूजा करते हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पहले की जितनी भी जिन-प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे सब सर्वथा अचेल एवं नग्न हैं। उनमें हड़प्पा तथा पटना के लोहानीपुर में उपलब्ध दो जिनप्रतिमाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ये क्रमश: ३००० ई.पू. एवं ३०० ई.पू. की हैं तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में सर्वथा अचेल एवं नग्न हैं। दोनों मस्तकविहीन हैं और उनमें अत्यन्त साम्य है। सभी पुरातत्त्वविदों ने इन्हें जैन तीर्थंकर की प्रतिमा माना है। ये प्रतिमाएँ प्रमाणित करती हैं कि दिगम्बर (सर्वथा अचेल निर्ग्रन्थ) परम्परा में अत्यन्त प्राचीनकाल से जिनप्रतिमाओं का निर्माण होता आया है और तभी से मूर्तिपूजा भी प्रचलित है। रतनचन्द्र जैन मई 2003 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपौरा : प्राकृतिक और पौराणिक पावन स्थल कैलाश मड़बैया बाल्मीकि रामायण में पंपापुरी के सरोवर पर मर्यादा | प्रमाणिक तौर पर, मैं बारहवीं-तेरहवीं सदी का मानता हूँ और यह पुरुषोत्तम राम और हनुमान के मिलने का वर्णन मिलता है- निर्माण क्रम गत सदी में भी जारी रहा तेरहवीं और पन्द्रहवीं सदी "पश्य लक्ष्मण ! पम्पाया वक:परमधार्मिकः" राम के, | की तो अनेक भव्य प्रतिमायें प्रामाणिक शिलालेखों सहित दर्शनीय अयोध्या से चित्रकूट के यात्रा काल में बिन्ध्य के इन सघन वनों के | हैं। मंदिरों का प्रांगण-पपौरा, देश में अपनी तरह का विशिष्ट भ्रमण का उल्लेख उपलब्ध है। बुंदेलखंड के वनों को कदाचित् | जिन-तीर्थ है। एक बड़े क्षेत्रफल में केवल मंदिर ही मंदिर हैं, इसीलिये प्राचीन काल से "रमन्ना" अर्थात् रामारण्य (राम का | आबादी यहाँ नहीं है। वन) कहा जाता है। भारत के मध्यप्रदेश स्थित बुंदेलखंड के | पाहन पानी और पादपमयी पपौरा टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से पूर्व दिशा की ओर लगभग पाँच चारों ओर प्रकृति की अद्भुत छटा बिखरी पड़ी है। आम, किलो मीटर की दूरी पर यह "रमन्ना" शुरू हो जाते हैं। टीकमगढ़ महुआ, अचार, कंजी, चिरौल, बांस, सेमर और जामुन के हरित पहुंचने के लिये मध्य रेलवे के ललितपुर स्टेशन से 45 किलोमीटर वृक्ष गलवहियाँ डाले पपौरा मार्ग पर वन्दनवार बनाये आपका की दूरी बस या निजी वाहन से तय करना पड़ती है। टीकमगढ़ से स्वागत करेंगे। करोंदी की गंध, मौलश्री के रंग-विरंगे सुमन और 5 कि. मी. दूर स्थित पपौरा के पास ही एक झील है जो अब मोर-कोयल का नृत्य-संगीत आपको लुभाये बिना नहीं रहेगा। अत्यंत क्षीण स्वरूप में विद्यमान है, “पम्पा ताल" कहलाता है टीकमगढ़ छोड़ते ही पपौरा की ओर दृष्टिपात करने पर आपको और यहीं है भारत में समतल पर स्थित अद्वितीय मंदिरों का नगर गगन चुम्बी जिन मंदिरों की शिखर-पंक्ति के दर्शन, पुलकित पपौरा। इससे पंपापुर का अपभ्रंश "पपौरा" माना जाता है। करने लगेंगे। पहुँचते ही सामने से विशाल रंगीन पाषाणी रथ, अनुमानत: रामायण में वर्णित आम के वृक्षों से घिरा पम्पापुर यही घोडों पर जैसे दौड़ता सा प्रतीत होगा। यह विलक्षण रथाकार संभावित है। रचना वस्तुत: एक पूर्ण मंदिर को ही, पपौरा के प्रमुख प्रवेश द्वार तत: पुष्करणीं वीरौ पंपा नाम गमिष्यथ: पर वास्तुकार द्वारा प्रदान की गई है जो विस्मयकारी है। प्रकृति के अशर्करां विभ्रंशा समतीर्था शैवलाम् पावन आँचल में बसे पपौरा में पाहन, पानी और पादक का राम संजातबालुकां कमलोत्पलशोभिताम्॥ मनोहारी समन्वय है। . (रामायण 3.73.10-11) समतल भूमि पर सर-कमलों से सुशोभित इस पम्पा झील | शिल्प का सुगढ़ सौन्दर्य पर राम के चरण पड़े थे। चूंकि कुछ ही दूरी पर यहीं द्रोणगिरी मध्ययुगीन वास्तु शिल्प का पपौरा केंद्र बिंद है। चारों (अब सेंधपा) भी स्थित है और कादम्बरी के साक्ष्य के अनुसार दिशाओं में तीर्थस्थल और कला केन्द्र अवस्थित हैं- खजुराहो, पम्पा सर दण्डकारण्य प्रदेश में ही होना चाहिए अतएव यदि यह देवगढ, बानपुर, ओरछा, चित्रकूट, द्रोणागिरि, अहार, कुण्डलपुर. अनुमानित तथ्य संभाव्य है तो पपौरा प्राकृतिक और पौराणिक, पन्ना और कलिंजर आदि। तीर्थराज की भाँति बहुसंख्य और उतुंग प्राचीन सौ से अधिक मंदिरों का यही नगर, वह पावन स्मारक मंदिरों का गढ़ पपौरा, चूना मिट्टी और देशी पत्थर के वास्तु होगा जहाँ भगवान राम ने सीता की खोज के लिये हनुमान से निर्माण का अपनी तरह का अनोखा कला केन्द्र है। आस-पास के मंत्रणा की थी। संभव है भौगोलिकों की दृष्टि में, यह महज स्थानीय विभिन्न पुरातात्त्विक स्थलों पर पपौरा का अद्भुत प्रभाव पड़ा है। आत्मगौरव की कल्पना ही हो। खैर ........ । पपारा की पावनता है यहाँ की प्रचीनता में, प्रांजलता है यहाँ के मंदिरों का मेला पौराणिक आख्यानों में और पुलक है पानीदार पापाणों में। परंतु पपौरा के सभी मंदिरों की चर्चा करना जहाँ इस लघु निबंध में भारत वर्ष में समतल पर स्थित इतनी अधिक संख्या में संभव नहीं है, वहीं मंदिरों के संसार से कुछ विशेष का वर्णन हेतु प्राचीन, विशाल और भव्य जिनालयों का एक साथ निर्माण अन्यत्र चयन भी असमंजस उत्पन्न करता है । तथापि कुछ विशिष्ट बिम्बों कही नहीं मिलता। एक सौ आठ मंदिरों ने पपौरा में एक अपूर्व सुमेरु की रचना की है। देवालयों की इस शिल्प-मणिमाला में पर आपकी दृष्टि केंद्रित करना मैं आवश्यक समझता हूँ। प्राचीन काल से वर्तमान तक की प्रचलित सभी मंदिर शैलियाँ प्राचीन समुच्चय संगृहीत हैं यथा मुकुलित कमल, रथाकार, अट्टालिका, वरण्डा. | एक मंदिर के चारों और स्थित बारह प्राचीन मठों के मठ, मेरु, मानस्तंभ, चौबीसी, भौयरे इत्यादि। यों पपौरा का शिल्प | सृजन से तीर्थंकर के समवशरण जैसी बारह सभाओं की संरचना 6 मई 2003 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ विद्यमान है जो सभा मण्डप के नाम से पपौरा का महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थल है। भौंयरा भू-तल स्थित अन्तः देवगृहों को बुंदेलखण्ड में भीयरा (भृ-गृह) कहते हैं। यहाँ के एक प्राचीन भौंयरे में देशी पाषाण की ढाई फुट उत्तुंग अत्यधिक भव्य ज्योतिर्मय और प्रशान्त पद्मासन मुद्रा में तीन प्रतिमायें दर्शनीय हैं। मध्यमूर्ति को छोड़ शेष दोनों पर सम्वत् 1202 आषाढ़ वदी 10 बुधवार का शिलालेख निम्नप्रकार उत्कीर्ण है सम्वत् 1202 असाढ़ वदी 10 बुधे श्री मदन वर्मा देव राज्ये भोपाल नगर वासीक गोलापूर्वान्वये साहु दुडा सुत साहु गोपाल तस्य भार्या महिणि सुतू सुतू प्रणमंति जिनेश चरणारविन्दपुण्यप्रतिष्ठाम् । अर्थात् संवत् 1202 अपाद 10 बुधवार के दिन मदन वर्मा देव के राज्य में गोलापुर्व जातीय साहुडा भोपाल निवासी, जिनके पुत्र साहु गोपाल, पत्नी उनकी माहिणी, पुत्र सान्हु पुण्य लाभ के लिये श्री जिनेश चरण कमल को नित्य प्रणाम करते हैं। चौबीसी चातुर्य जैन शासन के अनुसार प्रत्येक काल में तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही निर्धारित है। वर्तमान तीर्थंकरों का एक साथ सांगोपांग उत्कीर्णन चौबीसी संरचना कहलाता है । पपौरा जी में संवत् 1840 की स्थापित चौबीसी अपने काल के स्थापत्य की विशिष्ट संरचना है। तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के एक विशिष्ट जिनालय के चारों और प्रत्येक दिशा में छह-छह मंदिर स्थापित हैं । सब मंदिरों की एक साथ और प्रत्येक की प्रत्येक तरह से पृथक-पृथक परिक्रमा का निर्धारण है। एकाकार और एकरूपता के कारण यह सृजन अपने आप में विलक्षण है। यहाँ एक शिलालेख उत्कीर्ण है (कुछ अंश अपठनीय ) सम्वत् 1840 फाल्गुन सुदी पंचम्यां 5 गुरुवासरे अश्विनी नोन्ही नक्षत्रे शुक्ल पक्ष..... औड़छौ स्थल प्रदेशे श्री मत् विक्रमादित्यस्य राज्ये प्रणमन्ति । " मेरु मण्डप जैन तीर्थों में मेरु और मानस्तम्भ दो अलग-अलग प्रलम्बवत् सर्जनायें उल्लेखनीय हैं। पपौरा में सातवें ओर चौतीसवें जिनालय मेरु के आकार में दर्शनीय हैं जो क्रमश: 1542 और सम्वत् 1545 की स्थापनायें हैं। इनमें क्रमश: 18 ऊँची लाल व श्वेत प्रस्तर की 11.5 फुट ऊँची प्रतिमायें विराजमान हैं। मानस्तम्भ यहाँ अनेक हैं। इनमें प्राचीन और नवीन संगमरमर से निर्मित मानस्तम्भ क्षेत्र के सौन्दर्य की श्री वृद्धि करते हैं। मूर्ति विग्रह और आदि तीर्थंकर सभी तीर्थकरों की मूर्तियाँ विविध प्रकार से विविध स्थानों में स्थापित हैं, किन्तु आदि तीर्थंकर आदिनाथ एवं चन्द्रप्रभ की मूर्तियाँ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं। प्रथम, तेरहवें और इक्कीसवें जिनालयों में तीर्थंकर ऋषभनाथ की प्रतिमायें विशेष रूप से भव्य, कलात्मक और गरिमामयी ढंग से शोभायमान हैं। क्षेत्र दर्शन के प्रारंभिक जिनालय में ही संवत् 1872 की 08 फुट उत्तुंग देशी पाषाण की खडगासन मूर्ति मन प्रसन्न कर देती हैं। चरणपाद के पास इन्द्र-इन्द्राणी, हंस, चकवा का कलात्मक उत्कीर्णन है। इसी तरह तेरहवें मंदिर में संवत् 1718 की देशी लाल प्रस्तर निर्मित 1 फुट ऊँची खडगासन एवं अन्य मूर्तियाँ देशी पाषाण की दर्शनीय हैं । तीर्थकर शांतिनाथ, कुन्धनाथ, अरहनाथ की मूर्तियों के साथ महावीर स्वामी और पार्श्वनाथ की रचनायें भी पपारा में उल्लेखनीय हैं। अड़तीस मन्दिर का पृष्ठभाग पपौरा नवीन निर्माण पपरा के प्राचीन शिल्प की महिमा असीम है, निकट क्षेत्र में पापट नामक प्रसिद्ध वास्तु-शिल्प की कला कृतियाँ भी संगृहीत हैं। परन्तु अभी भी उस सांस्कृतिक गौरव के संरक्षण के साथ ही नवीन निर्माण रुका नहीं हैं। भगवान् महावीर के पच्चीस सर्व निर्वाणोत्सव के पूर्व ही पपौरा में विशाल बाहुबलि जिनालय तैयार हुआ है। 1225 फुट के वृत्त में त्रिपरिक्रमा युक्त उत्तुंग वेदिका पर लगभग 15 फुट ऊँची अत्यंत कलात्मक तप: रत बाहुबलि स्वामी की खड्गासन प्रतिमा स्थापित की गई है, जो अपने आधुनिकतम सृजन की अनोखी कलाकृति है। लेकिन जितनी अच्छी पीठिका, आलय और प्राकृतिक पृष्ठभूमि पपौरा ने इसे प्रदान की है. काश मूर्ति के चयन में भी यदि उतनी ही निष्ठा बरती जाती तो बात ही कुछ और होती। मूर्ति पर उभरे सांवरे रेखांकन, दर्शन में करकराहट पैदा करते हैं पर उस आकाशी आभा के धवल सौन्दर्य में हम डिठौना मानकर ही महावीतराग को श्रद्धानत होते हैं। वर्तमान पार्श्वनाथ जिनालय भी एक भव्य रचना है। पतराखन परिकथा अन्य आध्यात्म तीर्थों की भाँति पपौरा में भी परती परिकथाएं मई 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बE प्रचलित हैं। किंवदन्तियों की कतिपय अन्तर्कथायें पौराणिक । बह पड़ा और जल-प्लावन की स्थिति बनती सी लगी। जन समूह परम्पराओं में आ गईं हैं। कुछ तो ऐसे प्रमाण विद्यमान हैं कि में फिर-चीख पुकार, तब कुएं की जगत पर तपस्वनी वृद्धा ने पुनः वैज्ञानिक मस्तिष्क भले न माने पर आस्थावान हृदय समर्पित हुये | वीतराग भगवान् की आराधना की और जल प्रवाह ठहर गया। बिना नहीं रहते । ऐसा ही एक जीवन्त प्रमाण है पपौरा का उपर्युक्त अतिशय की किंवदन्ती पपौरा के उन अनेक पतराखन कुआँ । यह कुआँ आज भी अपना उदार ओर आपूरित चमत्कारों में से एक है, जिसके कि कारण इस क्षेत्र को अतिशय आंचल फैलाये मानव पयस्वनी बनने हेतु आतुर सा दिखता है, | क्षेत्र 'पपौरा' कहा जाता है। यह "पतराखन कुआं" आज भी जिसने कभी अनेक प्राणियों की प्राण रक्षा की होगी। पपौरा में श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। पतराखन अर्थात् रहते हैं संवत् 1872 में निकटवर्ती छतरपुर की एक पुण्य | प्रतिज्ञा की लाज या अवसर पर बात रखने वाला, सम्मान रखने वाला । मैं तो सम्पूर्ण क्षेत्र को ही जैन समाज ही नहीं मानवता का पतराखन पपौरा मानता हूँ। मेरा बचपन पपौरा के मेले के कवि सम्मेलनों में खूब फुदका है, यद्यपि इस तरह की अनेक किंवदन्तियाँ पपौरा के बारे में लोगों की जुबान पर हैं। पर प्रमाणिकता के अभाव में, मैं इन्हें आस्था की अति ही मानता हूँ। एक विशाल बावड़ी यहाँ दर्शनीय है। लोग कहते हैं कि कुछ दशकों पूर्व तक यह बावड़ी श्रद्धालु पर्यटकों को माँगने पर बर्तन आदि प्रदान करती थी. जिन्हें भोजनादि से निवृत्त होने पर उसी बावड़ी में वापस कर दिया जाता था। पर किसी विधर्मी की नियत बिगड़ गई और जब बावड़ी को बर्तनादि वापस नहीं किये तो बावड़ी का "सत्त्व" जाता रहा। यह कहाँ तक सच है, यह तो मुझे नहीं मालूम पर इतना अवश्य ज्ञात है कि पर्यटकों को आज भी पपौरा मेरु संरचना (१५वीं-१६वीं सदी) पपौरा की धर्मशालाओं में वे सभी सुविधाएँ नि:शुल्क प्राप्त हैं जो कि दो प्रबल वृद्धा ने पपौरा के, वर्तमान प्रथम जिनालय की प्राण प्रतिष्ठा चार दस दिन तक ठहरने के लिये किसी भी परिवार को अपने घर में पंचकल्याणक समारोह आयोजित कराया। दूर -दराज के असंख्य में आवश्यक होती हैं। विशाल लम्बी चौड़ी धर्मशालायें, आधुनिक श्रद्धालु एकत्रित हुये। सभी व्यवस्थाएँ पूर्ण, मेले की रंगीनी में, सुविधा युक्त विश्राम गृह और परिवहन की उपयुक्त व्यवस्था धर्म की सहज साधना युक्त साधु-साध्वियाँ और जप तप का कार्य | पपौरा में दर्शनार्थियों को आज सुगमता से उपलब्ध है। काश ! प्रारंभ, पर अनायास ही अप्रत्याशित भीड़ की उपस्थिति और निकटवर्ती टीकमगढ़ नगर की जैन समाज में यदि आपसी मनो मौसम की अनुदारता ने मेले में पानी का अभाव पैदा कर दिया। | मालिन्य नहीं होता, अपने अहं की तुष्टि हेतु पृथक-पृथक संस्थायें "बिन पानी सब सून" चारों ओर त्राहि-त्राहि की स्थिति और बनाने और नाम पद की महात्वाकांक्षाएँ न होती तो यह कहने में वृद्धा के आयोजन पर टीका टिप्पणी। समाज भला किसे बख्शता मुझे किंचित् भी संकोच नहीं है कि पपौरा में प्राचीन और वैज्ञानिक है? कोई उसके धन पर, कोई मन पर आक्षेप करने लगा। वह जैन दर्शन पर आधारित एक भारतवर्षीय विश्वविद्यालय तक समय, कार्य पर नहीं धर्म पर आस्थित तो था ही, वृद्धा कातर हो आसानी से संस्थापित हो सकता था और पूर्वजों की प्रदत्त सैकड़ों उठी। क्षेत्रीय बुजुर्गों से वृद्धा ने तीर्थ के सबसे बड़े कुएं के पास कलात्मक जिनालयों की अद्वितीय धरोहर को हम अक्षुण्ण रखते चलने को कहा और उसे कुएं में उतारने का आग्रह किया। भला हये मानवता की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को महावीर स्वामी कौन उसे कुएं में फेंकने का कलंक लेता? पर बुढ़िया जिद पकड़े के शाश्वत सिद्धांतों से ओतप्रोत कर सकते । भारत के प्रथम थी कि उसे कुएं की तलहटी में सन्यास लेना है। यदि नहीं राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी ने पपौरा को देखकर जो स्वप्न उतारोगे तो वह स्वयमेव कूद पड़ेगी। पदाधिकारियों ने मजबूर संजोये थे, बुंदेलखण्ड के आध्यात्म गांधी, मान्य श्री गणेशवर्णी होकर वृद्धा को एक चौकी पर बैठाकर कुएं में रस्सी के सहारे की आकांक्षाओं को हम पपौरा में साकार कर सकते हैं। यदि धर्म उतार दिया। पुण्यात्मा ने कुएं में उतरकर सन्यास धारण किया की रूढियों से हम किंचित् भी ऊपर उठ सकें, गजरथ व मन्नों में और सर्वमान्य "णमोकार मंत्र" का प्रभावी जाप प्रारंभ किया। ही धर्म की इतिश्री न समझें और साथ ही वैयक्तिक या दलवादी आस्था प्रस्फुटित हुई, णमोकार मंत्र का जाप जैसे जैसे पूर्ण हुआ, स्वार्थों से ऊपर उठकर पपौरा को बुंदेलखण्ड का शान्ति निकेतन कहते हैं कुएं में जल स्रोत फूट पड़ा और पानी का तल बढ़ता गया बनाने पर सम्यक् दृष्टि से विचार करें, तो यह सपना साकार होना असंभव नहीं है। जन समूह जय जयकार कर रहा था और वृद्धा महिला तपस्विनी बनी चौकी पर, पानी के बढ़ते तल पर आरूढ़ कुएं में ऊपर उठती मडबैया सदन आ रही थी। कुआं भरा ही नहीं बल्कि पानी बाहर बहकर मेले में । 75, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल (म.प्र.) 8 मई 2005 जिनभाषित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की वैज्ञानिकता प्राचार्य निहालचंद जैन मूर्त की खोज-विज्ञान है। अमूर्त का अनुभव - धर्म है जो । है-शक्ति की ओर, और धर्म संकल्पित है शांति के लिए। आवश्यकता भी दृश्य या सूक्ष्म दृश्य है, उसे पुद्गल की पर्याय (Manifestation है- उस अभिनव शक्ति की जो शांति/समता/आनंद से जुड़ी हो। of Matter)कहा है जो संयोग और वियोग के गुण धर्म से जुड़ा आण्विक-शक्ति विज्ञान की उपलब्धि है जिसे ध्वंसात्मक और है। परन्तु जो अदृश्य है वह चेतना, अभौतिक है, शाश्वत है। चेतना सृजनात्मक दोनों बनाया जा सकता है। यदि यह शक्ति-विवेक से ज्ञान और दर्शन की शक्ति से युक्त, आत्मा का अविनाशी गुण-धर्म जुड़ जाए तो इससे शिवत्व एवं सौन्दर्य की दिशा पायी जा सकती है। है और यदि शक्ति निरंकुश हो जाए तो मानव के लिए विस्फोटक जो अणु और परमाणु की शक्ति का चितेरा है, वह विज्ञान | है। जो चेतना की शक्ति से आन्दोलित है वह धर्म है। विज्ञान, बाहर अस्तु प्रस्तुत शोधलेख, उन तथ्यों पर प्रकाश डालना चाहता की खोज पर खड़ा है। धर्म, आत्म-अन्वेषण की अभिव्यक्ति है। । है जो जैनधर्म की आध्यात्मिकता को विज्ञान की आँख से देखकर परन्तु खोज चाहे बाहर की हो या भीतर की, कार्य-कारण सिद्धान्त | वैज्ञानिक-विश्लेषण प्रस्तुत करता है। पर खड़ी है। विज्ञान कहता है कि भगवान् से क्या लेना देना, हम ___ जिन तथ्यों पर आलेख का ताना-बाना बुना गया है वे तो प्रकृति का नियम खोजते हैं। धर्म विशेष रूप से जैनधर्म भी यही कहता है कि हम उस नियन्ता को विदा करते हैं, जो कहीं बाहर (1) धर्म और गणित। खड़ा है। हमारा नियन्ता-आत्म पुरूषार्थ है। जो हम कर रहे हैं, वही (2) जैनधर्म में पुद्गल और आधुनिक परमाणुवाद। भोग रहे हैं। अच्छा या बुरा - न तो भाग्य का लिखा है और न ही (3) जैन दर्शन का अनेकान्त और उसकी वैज्ञानिकता। किसी अन्य नियन्ता का दिया है, बल्कि हमारे कार्य (कर्म) का (4) विज्ञान के आलोक में अमूर्त- पदार्थ (धर्म, अधर्म, फल है। कार्य और उसके फल में सीधा सम्बन्ध है, जो उसी क्षण आकाश और काल) की अवधारणाएँ। से मिलना प्रारम्भ हो जाता है। (5) मंत्र/ध्यान एवं भाव - रसायन में विज्ञान की पहुँच। धर्म और विज्ञान - दोनों जीवन के सापेक्ष हैं, विज्ञान शक्ति 1.जैनधर्म और गणित - कहा जाता है कि "मेथेमेटिक्स है तो धर्म - जीवन की उस शक्ति को दिशा देता है। धर्म है- 'विवेक | इज द क्वीन ऑफ ऑल साइन्सेज" अर्थात् विज्ञान का मूल गणित की आँख'। विज्ञान के साथ यदि विवेक की आँख जुड़ी हो तो | है, प्राचीन भारत में, जैन दार्शनिकों का गणित के क्षेत्र में वैज्ञानिक विज्ञान - 'श्रेयस' बन जाता है, जीवन का आलोक। धर्म और कार्य काफी महत्व रखता है। लोगरिथ्म का जनक सर जॉन नेपियर विज्ञान में मित्रता चाहिए, समन्विति चाहिए। अकेला विज्ञान, भोग | (ई. १५ वीं शती) को मानते हैं। परन्तु दिगम्बर जैनों के प्राचीन संस्कृति परोस रहा है। वह आराम दे सकता है, आनंद नहीं। आनंद ग्रन्थ 'धवला' में अर्थच्छेद (लघुरिथ्म) की कल्पना ही नहीं की का वर्षण धर्म की शुरूआत है, जीवन में जहाँ विज्ञान की इति है, उसका गुणाकार, भागाकार लॉग टू डिफरण्ट बेसेजम में उपयोग वहाँ से धर्म की शुरूआत है। एक विज्ञानी (Scientist) ऐसे आदि का सुस्पष्ट रीति में विशद् वर्णन है। ईसा की 9 वीं शती में 'धर्म-युग' की प्रतीक्षा में बैठा है, जो अंध - विश्वासों की चुनौती महावीराचार्य हुए, जिन्होंने 'गणित सार संग्रह' जैसा अप्रतिम ग्रन्थ स्वीकारता हुआ तथ्यों पर आधारित हो। लिखा। नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती के 'गोम्मटसार' में वर्णित गणित सारांश यह है कि आज विज्ञान का आध्यात्मीकरण चाहिए | को देखकर आश्चर्य होता है। और धर्म या अध्यात्म का विज्ञानीकरण हो जैन धर्म एक वैज्ञानिक आज के संख्याशास्त्र का मूल जैन सिद्धांत में है। श्री पी.सी. धर्म है । यह तथ्यों/तर्कों और आत्म-परीक्षण की कसौटी पर कसा | महालनबीस ने ज्यूरिच में पठित अपने शोध-प्रबंध में कहा है कि हुआ धर्म है। यहाँ क्रियाकाण्ड को प्रश्रय नहीं है। कर्म सिद्धांत जो | आधुनिक सांख्यिकी में मूलभूत सिद्धांतों की तार्किक भूमिका हमें जैनदर्शन की रीढ़ है सत्य एवं तथ्य परक विज्ञान की पृष्ठभूमि पर | | स्याद्वाद के तार्किक सिद्धान्त में उपलब्ध होती है। जैनधर्म द्वारा आधारित है यहाँ जीवन का शिव, सत्य, सुंदर समर्पित है। सम्यक् | नित्यत्ववाद, आधुनिक सांख्यिकी के सम्भावनावाद (Theory of श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की समवेत क्रियाशीलता पर जीवन-दोनों | Probability), इकाई और समूह संबंध की धारणा, एसोसिएशन तरफ फैला है। बाहर भी, भीतर भी। इसलिए जीवन, विज्ञान और | कोरिलेशन, कोनकोमिटेन्ट वेरिएशन का सिद्धान्त अनिश्चित परिणाम धर्म दोनों से जुड़ा है । विज्ञान- जीवन का वृक्ष है तो धर्म- उस वृक्ष | की धारणा आदि विचारों की तार्किक पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत हुए का मूल है, जो उस वृक्ष में फूल उगाने की सम्भावना लिए है जीवन | हैं। जैनज्यामिती, बीजगणित एवं अंकगणित, आदि का विस्तृत की सम्पूर्णता- दोनों के समन्वय में है। क्योंकि विज्ञान- मुँह किए | विवरण- 'षट्खण्डागम' और 'जम्बूदीवपण्णति संगहो' की - मई 2003 जिनभाषित १ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिकाओं में दिया गया है। " 2. जैनदर्शन में पुद्गल और आधुनिक विज्ञान का परमाणुवाद आचार्य उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र" के पाँचवे अध्याय में षड्द्रव्यों में अजीव (पुदगल - Matter), आकाश (space), काल (Time), धर्मद्रव्य (Non Matterial, Media for Prapogation of matter and Energy) तथा अधर्म द्रव्य का 42 सूत्रों में वर्णन पूर्णतया विज्ञान सम्मत है, पुद्गल (मूर्तिक/रूपी) के एक अविभाज्य कण को स्निग्ध या रूक्ष कणों के रूप में बताया गया है जो ऋणात्मक विद्युन्मय कण इलेक्ट्रॉन और धनात्मक विद्युन्मय कण पोजीट्रॉन कण है, जिनका परमाणु संरचना में मूलकणों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक विज्ञान- परमाणु की आन्तरिक संरचना में इलेक्ट्रॉन्स केन्द्रक से चारों ओर विभिन्न उर्जा स्तरों में तीव्र गति से घूमते रहते हैं। स्कन्धों (Molecules ) के निर्माण में यह सूत्र द्रष्टव्य है "स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः " ॥ 33-5 ॥ अर्थात् स्निग्ध / रूक्ष कण आपस में स्पृष्ट होते हैं और उनका बंध-रूप परिणमन ही परमाणु की रचना करता है। प्रो. एडिंग्टन ने अपनी पुस्तक " साइंस एण्ड कल्चर" में इस तथ्य को उद्घाटित किया है। "निगेट्रॉनकण प्रोटोन की तरह भारी परन्तु ऋणात्मक विद्युन्मय हैं। वास्तव में यह रूक्ष कण का रूक्ष कण से सम्मिलन का उदाहरण है । इसी प्रकार पोजीट्रॉन कण परस्पर मिलकर प्रोटोन कण बनाते हैं, जो स्निग्ध का स्निग्ध कण के सम्मिलन का उदाहरण है।" परमाणु संरचना में समान ऋण विद्युन्मय इलेक्ट्रॉन मिलकर निगेटिव प्रोटोन अथवा समान धन विद्युन्मय पोजीट्रॉन का निर्माण करते हैं क्योंकि इनके बीच की दूरी 10-12 सेमी या इससे कम होने से ये परस्पर सजातीय होने पर भी मिल जाते हैं। 'न जघन्यगुणानाम्' ॥34-5 | जिनमें एक ही अंश स्निग्ध का अथवा रूक्ष का पाया जाता है, उनका परस्पर बंध नहीं होता। आधुनिक विज्ञान मानता है कि परमाणु संरचना में लोएस्ट एनर्जी लेवेल के मूलकण आपस में नहीं मिलते। अतः रूक्ष या स्निग्ध कण स्वतंत्र अवस्था में भी पाये जाने चाहिए। प्रयोग-धातुओं को विद्युत द्वारा गर्म किए जाने पर निर्वात में, उनसे इलेक्ट्रॉन के पुंज निर्गत होते हैं। एण्डरसन ने कास्मिक किरणों को ऋण विद्युन्मय कणों का पुंज ही बताया है। ये प्रयोग सूत्र नं. 33 को सत्यापित करती है। पुद्गल द्रव्य की अन्य विशेषताएं (1) स्पर्श रसगन्ध वर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ 23-5 ॥ सभी पुद्गल, स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते हैं आधु. विज्ञान चार भौतिक प्रविधियों द्वारा जैन दर्शन में वर्णित आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान कराता है- कठोर से (मृदु कठिन), घनत्व से (गुरु लघु), ताप से (शीत, उष्ण), तथा रवे की संरचना में (स्निग्ध और रूक्ष) रस के संबंध में लंदन के प्रो. विनफ्रेड कृलिस ने अपने शोध निबंध 10 मई 2003 जिनभाषित में वर्णित किया कि जीभ पर स्वाद का प्रक्षेपण (Projection) लेन्स द्वारा देख जा सकता है जैसे- मिष्ट स्वाद जीभ के अग्रभाग पर, कड़वा स्वाद जीभ के पिछले भाग पर अनुभव किया जाता है। जैनदर्शन में पांच मूल रंगों का वर्णन है नीला, पीला, सफेद, काला और लाल । सी.वी. रमन के वर्ण संबंधी प्रयोगों से उक्त तथ्य प्रमाणित हैं। जैसे-जैसे वस्तु का ताप बढ़ता है उत्सर्जित प्रकाश तरंगों की तरंग धैर्य के परिवर्तन से रंग परिवर्तित होते जाते हैं। - (2) पुद्गल परमाणु की गतिशीलता जैन धर्म के परमाणु में एक समय में चौदह राजू गमन करने की शक्ति बतलायी है। प्रकाश-पिण्डों का वेग 3x1010 सेमी प्रति सेकण्ड नाप लिया गया है। ये प्रकाश-पिण्ड-फोटॉन कहलाते हैं, जो पुद्गल के रूप हैं। वि.चु. तरंग आदि परमाणु की गतिशीलता के द्योतक हैं । परमाणु रचना में इलेक्ट्रान का अपने विभिन्न ओरविट्स में घूमते रहना, उक्त तथ्य का प्रमाण है। आइन्स्टाइन (3 ) पुद्गल अनन्त शक्ति का खज़ाना के संहति और ऊर्जा सूत्र (E=mc2) जहाँ E=ऊर्जा, M=द्रव्यमान एवं C प्रकाशवेग है, ने यह सिद्ध कर दिया कि वस्तु का द्रव्यमान ऊर्जा में बदला जा सकता है जैसे 10 ग्राम यूरेनियम धातु, जब शक्ति में रूपान्तरित होती है तो 3 हजार टन कोयला जलाने जितनी उष्णता उत्पन्न होती है। एनीहिलेशन ऑफ एनर्जी घटना द्वारा ऊर्जा को द्रव्यमान में बदला जा सकता है। डॉ. भाभा ने कांस्मिक किरणों के सैद्धान्तिक विवेचन में प्रकाशकण जो (अल्फा) कणों से मिलकर बनते हैं शक्ति का रूप हैं। जब फोटॉन अन्य शक्ति में परिवर्तित होता है, तब परिणाम में, अतिरिक्त ऊर्जा निकलती है। यह पुद्गल की शक्ति का द्योतक है। ( 4 ) ' शब्द बन्धसौक्ष्म्य स्थौल्य संस्थान भेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥24-5 1 सूत्र के अनुसार शब्द, बंध, सूक्ष्मता, मोटापन, आकृति, भेद, तम ( अंधकार ), छाया, आताप, उद्योत (प्रकाश) ये सभी पुद्गल की पर्यायें हैं।' वैशेषिक दर्शन का मत है कि शब्द- आकाश द्रव्य का गुण हैं, परंतु आधुनिक विज्ञान ने जैनदर्शन के सिद्धांत का समर्थन किया। ध्वनि ऊर्जा को बांधना, पकड़ना, प्रेषित करना, उसे सघन / विरल करना संभव है। छाया प्रतिबिम्ब का रूप है तम प्रकाश का अभाव नहीं है जैसा कणाद आदि दार्शनिकों ने कहा था, क्योंकि अंधकार में भी इनफ्रारेड और अल्ट्रा बैगनी किरणें गुजरती रहतीं हैं। जिनका प्रभाव फोटोग्राफिक प्लेट पर देखा जा सकता है। 3. जैन दर्शन में अनेकांत की वैज्ञानिकता : जैनदर्शन में एकांगिक दृष्टियों का निराकरण करने, विविध और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुण धर्मों का समन्वय करने, सत्य शोध और चिंतन के विविध पक्षों को मणिमाला के समान एक सूत्र में निबद्ध करने के लिए अनेकांत की स्वीकृति है। भौतिक विज्ञान का पितामह अल्वर्ट आइन्स्टीन (1905 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1919) के स्पेशल थ्यौरी ऑफ रिलेटिविटी तथा जैन दर्शन के 'अनेकांत' में कोई फर्क नहीं क्योंकि दोनों सापेक्षवाद के सिद्धान्त पर खड़े हैं। आइन्स्टीन की घोषणा "One thing may be true but not be real true. We can know only. the relative truth. The alsolute truth is known only by the universal observer" आइन्स्टीन सत्य को दो संदर्भों में लेता है- एक सापेक्ष सत्य और दूसरा नित्य / निरपेक्ष सत्य । जैनदर्शन का अनेकांत- सापेक्ष सत्य पर खड़ा है, आइन्स्टीन के एक प्रयोग के द्वारा सापेक्ष सत्य को समझाया किसी सुदूर ग्रह पर एक वैज्ञानिक बैठा है और पृथ्वी पर रखे आवेश पर प्रयोग कर रहा है। उसके लिए पृथ्वी गतिमान है, अतः वह देखता है कि आवेश के आसपास चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न है । जब पृथ्वी पर उतरकर यही अध्ययन करता है तो वह स्वयं आवेश के साथ पृथ्वी पर घूम रहा है। अतः आवेश को वह स्थिरावस्था में पाता है और देखता है, कि उसके आसपास कोई चुम्बकीय क्षेत्र नहीं है। अतः विज्ञान के निष्कर्ष सापेक्ष सत्य हैं। महावीर का अनेकांत सम्भावनाओं का एक पुंज है। जीवन के सभी पहलुओं की एक साथ स्वीकृति है अनेकांत में । प्रत्येक कोण पर खड़ा हुआ आदमी सही है। भूल वहीं हो जाती है, जब वह अपने कोण को ही सर्वग्राही बनाना चाहता है जीवन व्यवहारजितना व्यापक दृष्टि वाला (अनेकान्तिक) होगा, उतना ही सफल होगा। एकांती का आग्रह अहंकार को जन्म देता है। अहंकार से रागद्वेष होता है जिससे वस्तु स्वरूप का यथार्थ दर्शन नहीं हो पाता। सत्य की अभिव्यक्ति में" स्यात् है, स्थात नहीं है, " स्यात् है स्यात् नहीं है के साथ महावीर ने एक चौथी सम्भावना भी जोड़ी'स्यात् अव्यक्तव्य' । इससे सप्तभंगी का निर्माण हुआ । आइन्स्टीन को भी नया शब्द ' क्वाण्टा' खोजना पड़ा अणु को परिभाषित करने के लिए अणु-कण भी हैं और तरंग भी हैं तथा दोनों सम्भावनाएँ एक साथ भी हो सकती हैं। क्वाण्टा इसी का समाधान है। "क्वाण्टा"- विचार क्रान्ति के बाद निरपेक्ष सत्य का दावा करने वाली मान्यताएँ डगमगा गयीं। अतः वैज्ञानिक सन्दर्भ में महावीर का' स्यात्' परम सार्थक हो गया। 4. विज्ञान के आलोक में अरूपी पदार्थों की अवधारणाएँ - संसार सृष्टि के छह उपादानों में पुद्गल (matter) केवल रूपी/ मूर्तपदार्थ है शेष जीव (आत्मा), धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल और आकाश अरूपी पदार्थ हैं। इन षड़द्रव्यों में चार अरूपी अजीव द्रव्यों को आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त संक्षेप में आख्यापित करते हैं। (1 ) धर्मद्रव्य - पंचास्तिकाय में धर्म द्रव्य का वर्णन इस प्रकार है: 'यह न तो स्वयं चलता है, न किसी को चलाता है, केवल | गतिशील जीव, अजीव स्कन्धों एवं अणुओं की गति में सहकारी एवं उदासीन कारण होता है जीव के गमनागमन, अतिसूक्ष्म पुद्गलों के प्रसारित होने, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा मनो भाव वर्गणाओं में धर्मास्तिकाय निमित्त कारण है। यह वर्ण, रस, गंध' और स्पर्श से रहित एक अखण्ड है और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । सर्वप्रथम माइकेलसन वैज्ञानिक ने प्रकाश का वेग ज्ञात करते समय एक ऐसे ही अखण्ड द्रव्य की परिकल्पना की थी, जो पूर्ण प्रत्यास्थ, लचीला, अत्यंत हल्का (weightless) और प्रकाश कणों के चलाने में सहायक माध्यम की तरह व्यवहार करता है । उसका नाम ' ईथर ' दिया जो धर्म द्रव्य के गुणों से साम्यता रखता है । डॉ. ऐ. एम. एडिंग्टन ने अपनी पुस्तक " The Nature of Physical world" में तथा सापेक्षवाद के सिद्धांत का अध्ययन करते हुए उन्होंने ईथर को एक अभौतिक, लोकव्याप्त, अखण्ड द्रव्य की मौजूदगी को स्वीकार किया। ( 2 ) अधर्म द्रव्य यह धर्मद्रव्य की भांति हैं- अखण्ड, लोक में परिव्याप्त घनत्व रहित, अभौतिक (अपरमाण्विक) पदार्थ है। परंतु गुण धर्म से स्थिति में सहायक कारण है आधुनिक विज्ञान में इसकी तुलना गुरूत्वाकर्षण क्षेत्र से की जा सकती है, क्योंकि लोक की वस्तुओं में ठहराव (Medium of Rest) गुरूत्वाकर्षण के कारण स्वीकार किया गया है। (3) आकाश द्रव्य इसका काम, जीव एवं अजीव द्रव्यों को अवगाहना देना है और एक स्वतंत्र द्रव्य है। इस संदर्भ में डॉ. हेन्शा का कथन बहुत प्रासंगिक है- These four elementsspace, matter, time and media of motion are all seperate and we can not imagine that one of them could depend on another or converted into others. - लोकाकाश में सभी द्रव्य रहते हैं और अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य-धर्म, अधर्म, काल तथा जीव द्रव्य नहीं होते हैं। आइन्स्टीन के विश्व विषयक सिद्धांत में समस्त आकाश अवगाहित है, परंतु डच वैज्ञानिक 'डी सीटर' का मानना है कि शून्य, ( पदार्थ - रहित) आकाश की विद्यमानता की सम्भावना को सिद्ध करता है। अनेकांतवाद से आइन्स्टीन का विश्व लोकाकाश की ओर संकेत करता है, जबकि डी. सीटर का विश्व आलोकाकाश (संपूर्ण रूप से शून्य) की ओर संकेत करता है। डॉ. वैज्ञानिक पोइनकेर ने सात आकाश और उसक परे क्या है, का विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने विश्व को एक विशाल गोले के समान माना है जिसके केन्द्र में उष्ण तापमान है, जो सतह की ओर क्रमशः घटता जाता है और उसकी अंतिम सतह पर वास्तविक शून्य होता है। केन्द्र से सतह की ओर जाने पर पदार्थो मई 2003 जिनभाषित 11 . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | काल द्रव्य | space." का विस्तार क्रमशः कम होना प्रारंभ हो जायेगा और गति भी घटती । उपादान रूप से नहीं इस अपेक्षा से स्वतंत्र द्रव्य माना जा सकता है। जायेगी। "काल द्रव्य" अकाय रूप है। इसके समर्थन में एडिण्गटन इस प्रकार आधुनिक विज्ञान आकाश द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता का कथन “Ishalluse thephrase times arrowtoexpress को सिद्ध करता है। this one way property of time which no analogue is (4) काल द्रव्य- पदार्थों के परिणमन में काल द्रव्य | उदासीन कारण होता है। आ. उमास्वामी ने 'कालश्च' सूत्र के द्वारा काल द्रव्य की अनंतता के विषय में उन्होंने मत प्रकट इसे स्वतंत्र द्रव्य माना। जिसका अविभागी कण- 'समय' है। किया- "The world is closed in space dimension but it विज्ञान के कालाणु (Unit of time), को एक इलेक्ट्रॉन को | is open at forth end to time dimension" मंदगति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में लगा | काल को निश्चय काल और व्यवहार काल के रूप में समय माना है। ऐसा काल द्रव्य- "सोऽनन्त समय:" (40-5) | परिगणित किया जाता है 'कालाणु' निश्चय काल है, जबकि अर्थात् अनंत कालाणु (समय) वाला होता है। प्रो. एडिण्टन ने समयादि का विभाजन- व्यवहार काल है। कहा- "टाइम इज मोर टिपिकल ऑफ फिजिकल रिएलिटी दैन | (5) मंत्र, ध्यान और भाव-रसायन-जिन ध्वनियों का मैटर"। घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है, उन ध्वनि-समुदाय को प्रत्येक वस्तु-तीन देशिक (दिक्) आयामों के साथ चौथे | मन्त्र कहा जाता है। ऊँ ह्रीं, क्लीं ब्लू आदि बीजाक्षर हैं, इनमें 'काल' आयाम से भी युक्त होती है, अत: वस्तु को काल से पृथक विस्फोटक शक्ति होती है। इनके अर्थ नहीं होते, बल्कि इनके अस्तित्व वाला नहीं मान सकते। मिन्को के चतुर्थ आयाम सिद्धांत उच्चारण से अद्भुत शक्ति की तरंगें, उद्गम होती हैं मंत्र, शब्द (Four Dimesional theory) ने एक नयी दृष्टि देकर वस्तु के उच्चारण का विज्ञान है। जो कषाय भावों को मंद (विरल) बनाता परिवर्तन में 'समय' आयाम को भी सम्मलित किया है। जैन दर्शन है तथा अशुभ भावों को शुभ भावों में बदल देता है। भी यही कहता है ऊँ शब्द का लम्बा जोर से उच्चारण बहुत वैज्ञानिक है। 'वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' इससे मूलाधार से नाड़िया व अपान वायु ऊपर की ओर ॥22-5 ।। तत्वार्थसूत्र। खिचती है साथ ही प्राण वायु अंदर जाती है। नाभिकेन्द्र (जहाँ व अर्थात् काल द्रव्य का उपकार-वर्तना (ध्रौव्य), परिणाम मणिपुर चक्र होता है) हल्के से पीठ की ओर दबता है तथा हृदय और क्रिया आदि हैं। पदार्थ की आयु की विस्तार और संकुचन के पास अनाहत चक्र होता है, जहाँ प्राण वायु का कुम्भक होता है। परत्व एवं अपरत्व है । आयु की दीर्घता का अल्पता में और अल्पता ह्रीं के उच्चारण से भी मणिपुर चक्र पर विशेष दवाब पड़ता है। ये का दीर्घता में बदल जाना परत्व एवं अपरत्व हैं, एक वैज्ञानिक ऊर्जा केन्द्र हैं- इससे शरीर की आभा बढ़ती है। णमोकार मंत्र में उदाहरण से यह स्पष्ट किया जाता है: | 'ण' का 10 बार उच्चारण होता है। 'ण' बोलने से जीभ की नोंक एक नक्षत्र की पृथ्वी से दूरी 40 प्रकाश वर्ष है अर्थात पृथ्वी का पिछला भाग तालमेलकाता के जाल मस्तिष्क की से वहाँ तक प्रकाश को जाने में 40 वर्ष लगेंगे। प्रकाश वेग =30 निचली परत है। लयबद्ध घर्षण से तालु व जीभ कोशिकाओं में लाख किमी/सेकण्ड है। यदि एक रॉकेट 2 लाख 40 हजार कि.मी./ क्षोभशीलता व कपाली- तंत्रिकाओं में परिस्पंदन होता है। जीभ के वेग से चले तो 50 वर्ष में वहाँ पहुँचेगा। परन्तु काल का संकुचन ऋण व तालु धन विद्युत का केन्द्र माना जाता है इन दोनों के घर्षण (जगेराल्ड के संकुचन नियमानुसार) 10:6 के अनुसार 30 वर्ष ही से- धन व ऋण विद्युत का मिलन होने से ऊर्जा का निर्माण होता लगेंगे। इस प्रकार काल-गति से भी प्रभावित होता है। है, जो आज्ञा चक्र को जाग्रत करता है और नाड़ियाँ उससे भर जाती श्वेताम्बर परम्परा में काल को- औपचारिक द्रव्य के रूप हैं, योगीजन की दिव्यता का यही कारण होता है। उनकी संपूर्ण में जीव/अजीव की पर्याय माना, जबकि दिगम्बर परम्परा में स्पष्ट नाड़ियाँ अमृत से सम्पूरित हो जाती हैं। जिससे साधक-दृढ़ इच्छा वास्तविक द्रव्य माना है। गो. जीव. में शक्ति वाला, नियंत्रक, कुशाग्र बुद्धि/निर्णय क्षमता वाला बनता है, लोगागासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। णमोकार मंत्र के जाप्य से साधक श्रुतज्ञान के विकल्प ध्यान से आगे रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥588॥ उठता हुआ निर्विकल्प ध्यान की ओर बढ़ता है इस प्रकार णमोकार' अर्थात् कालाणु रत्नराशि के समान लोकाकाश के एक मंत्र की वैज्ञानिकता असंदिग्ध है। एक प्रदेश में एक-एक रूप से स्थित हैं। सापेक्ष विवेचन करें तो कुछ बिंदुओं पर जैनधर्म की वैज्ञानिकता को रेखांकित विशेष मतभेद नजर नहीं आता। क्योंकि वर्तना परिणामादि- काल | करके इस का समापन विनोवाभावे की इस भावना के साथ करते के लक्षण भी हैं और पदार्थ की पर्यायें भी। पर्यायें पदार्थ रूप ही हैं- "अब मनुष्य को विज्ञान और आत्मज्ञान के पंखों से उड़ना होती हैं। इस अपेक्षा से काल एक- औपचारिक द्रव्य है। परन्तु | सीखकर सच्चे धर्म की संस्थापना करनी होगी। कालाणु भिन्न-भिन्न हैं और पर्याय-परिवर्तन, निमित्त रुप है, | 12 मई 2003 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर और महात्मा गाँधी प्रस्तुति : डॉ. कपूरचन्द्र जैन एवं डॉ. ज्योति जैन जैन इतिहास का धुंधला पृष्ठ । जब अंग्रेजों ने उनका लेख और जमानत जब्त कर ली एक जब्तशुदा लेख प्रस्तुत लेख उर्दू 'जैन प्रदीप' के अप्रैल एवं मई-जून | नामक लेख के कारण सरकार ने जैन प्रदीप पर जो पाबन्दी लगाई 1930 के अंकों में उर्दू भाषा में ही छपा था। 'जैन प्रदीप' की | उसी से वह बन्द हो गया, नहीं तो वह सदैव ठीक तारीख पर ही स्थापना 1912 में बाबू ज्योतिप्रसाद जैन ने की थी। बाबू ज्योतिप्रसाद | निकला। जैन अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण जैन समाज में 'समाज बाबू जी 1920 में समाज से राजनीति में आये, उन दिनों सुधारक' के नाम से विख्यात हुए हैं। वे सभी जलसों में शरीक होते और कांग्रेस संगठन को मजबूत नाटा कद, भरा-उभरा शरीर, भरी-झूगी मूंछे, चौड़ा ललाट, | बनाने में हिस्सा लेते। तिलक स्वराज फण्ड का चन्दा और भाषण भीतर तक झांकती-सी आँखें, धीमा बोल, सधी चाल, सदैव शान्त | उस युग की राजनीति के मुख्य अंश थे, जो बाबू जी करते थे। मुख-मुद्रा, मामूली कपड़े के जूते, कमीज और कभी-कभी बन्द | 1920 में वे जेल जाना चाहते थे पर सरकार ने गिरफ्तार नहीं गले का कोट, सिर पर गांधी-टोपी और कभी-कभी तिरछा साफा, किया। 1930 में वे पारिवारिक परिस्थितियों के कारण जेल नहीं चौड़ा पाजामा, नियमित जीवन, मिलनसार और अपनों को सबकुछ | जा सके पर आन्दोलन में पूरी निष्ठा से सक्रिय रहे। करने को तैयार यह व्यक्तित्व था बाबू ज्योतिप्रसाद का। 1930 में जैन प्रदीप में उर्दू भाषा में (उन दिनों जैन प्रदीप बाबू जी का जन्म आश्विन कृष्ण 10 वि.सं. 1939 (सन् | उर्दू में ही निकलता था) 'भगवान् महावीर और महात्मा गांधी' 1882 ई.) को देवबन्द, जिला-सहारनपुर (उ.प्र.) में एक साधारण लेख लिखा। इसके कई अंशों पर सरकार को कड़ी आपत्ति थी, परिवार में हुआ था। बाल्यकाल में ही उन्हें जैन जागरण के दादा फलत: सरकार ने इस पर पाबन्दी लगा दी और आगे के लिए एक भाई बाबू सूरजभान वकील का संसर्ग मिला। वकील सा. ने इस हजार की जमानत मांगी, जिसे देने से बाबू जी ने इन्कार कर बालक में भविष्य को देखा और अपने पास रख लिया। जैन | दिया। इस सन्दर्भ में प्रभाकर जी ने अपने संस्मरण में लिखा हैसमाज में समाज-सुधार, पत्रकारिता, देशसेवा का बीजारोपण बाबू "डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट" ने उनसे कहा 'ऐडीटर साहब ! जी में यहीं से पड़ा। अपनी जबानी में बाबू जी लाला हरनाम सिंह | हमारे फादर ने, जब वह यहाँ कलेक्टर थे, आपके अखबार का के यहाँ मुनीम हो गये, जहाँ पहुँचकर वे बड़े अफसरों और जिले डिक्लेरेशन मंजूर किया था। हम नहीं चाहते कि हमारे समय में के बड़े आदमियों के संसर्ग में आये। वे देवबन्द में जोती मुनीम' | वह बंद हो, इसलिए आप हमको एक खत लिखो कि उस लेख के नाम से पहचाने जाने लगे। 1912 में 'जैन प्रदीप' की स्थापना | का वह मतलब नहीं है जो समझा गया है। बस हम अपना आर्डर और उसके सम्पादक होने के नाते वे 'जोती मुनीम' से 'जोती वापस ले लेंगे।' एडीटर' बन गये और अपने जीवन के अन्तिम समय तक वे इसी बाबू जी ने उत्तर दिया- 'कलेक्टर साहब आप मुझसे नाम से विख्यात रहे। इससे पूर्व बाबू जी 'जैन प्रचारक', 'जैन | सलाह करके पाबन्दी लगाते, तो उसे हटाने के लिए भी मेरे खत नारी हितकारी', 'पारस' जैसे पत्रों का सम्पादन कर चुके थे। जैन | की जरूरत पड़ती। अब तो वह हटेगी तो वेसे ही हटेगी, जैसे लगी प्रदीप के सन्दर्भ में प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कन्हैया लाल मिश्र | है।' और उठकर चले आये। 'प्रभाकर' ने लिखा है- 'जैन प्रचारक' के बाद उन्होंने अपना जैन नगर के एक बड़े रईस ने, जिसने कलेक्टर महोदय को प्रदीप' मासिक निकाला, जिसके वे चपरासी भी थे और चेयरमैन | नरम किया था, उसी दिन मुझसे कहा 'आज ऐडीटर साहब ने भी। वे स्वयं डाक लाते, स्वयं उसका जवाब देते, आई-गई डाक | हमारे किये-धरे पर चौका फेर दिया।' मैं तुरन्त उनके (बाबू जी रजिस्टर में चढ़ाते, लेख लिखते, कांट-छांट करते, पते लिखते, | के) घर गया, तो बहुत खुश थे। बोले- 'भाई, हम जेल नहीं जा चिपकाते..... 'जैन प्रदीप' में उन्हें कभी आर्थिक लाभ नहीं हुआ, | सकते, तो इज्जत के साथ अपने घर तो रह सकते हैं।' पर वह उनका क्षेत्र सारे जैन समाज को बनाये रहा, जिससे वे और | इस प्रकार जैन प्रदीप 1930 में बन्द हो गया। उनके वंशजों 'जैन प्रदीप' दोनों निभते रहे। 1930 में 'गांधी जी और महावीर' | ने अब उसे पुनः 5-6 वर्ष पूर्व हिन्दी में निकालना प्रारम्भ किया - मई 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 है, सम्प्रति सम्पादक श्री कुलभूषण कुमार जैन हैं। हमें भी पूज्य बाबू जी के कक्ष को देखने का सौभाग्य, सामग्री संचयन हेतु देवबन्द जाने पर, मिला । यह हमारा अहोभाग्य है । बाबू जी के योगदान के सन्दर्भ में 'सहारनपुर सन्दर्भ' (पृष्ठ 535) लिखता है" देवबन्द में उत्पन्न बाबू ज्योति प्रसाद जैन सहारनपुर के वन्दनीय पुरुषों में हैं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा देवबन्द में हुई। वहीं बाबू सूरजभान वकील की संगति से आप समाज सेवा में प्रवृत्त हुए । कवि के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली । 'जैन प्रचारक, ''जैन प्रदीप', 'जैन नारी हितकारी' और 'पारस' के सम्पादक के रूप में उन्होंने अपनी लेखनी का परिचय दिया । उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भी सक्रिय भाग लिया और स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी बने। उनकी पुस्तकों की संख्या तीस से ऊपर है। 28 मई 1937 को उनका देहान्त हुआ।" उनकी सभी रचनाओं को एक प्रन्थावली के रूप में प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। आगे हम मूल उर्दू लेख के हिंदी रूपान्तरण के सम्पादित अंश दे रहे हैं । सम्पादित अंश 2500 साल पहले की तारीख से पता चलता है कि भारतवर्ष में अंधेरगर्दी थी । जुल्म व सितम का बाजार गर्म था। यह वह जमाना था कि देवी देवताओं के नाम पर खून की नदियाँ बहाई जाती थीं । देव मंदिर तक तलघरों का काम देते थे। इनकी दीवारें बेजुवान जानवरों के खून से रंगी हुई दिखलाई देती थीं। घोर हिंसा फैली हुई थी और ऐसे पाप, अत्याचार धर्म के नाम पर देवीदेवताओं के नाम पर किये जाते थे तमाम जीव दुखी थे कोई रक्षक नजर नहीं आता था । इन नाजुक जमाने में श्री महावीर भगवान् का जन्म हुआ। भगवान् ने कहा कि घबराओ नहीं तुम्हारा उद्धार में करूंगा। तुम सब बराबर हो, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र सब इन्सान हैं, सबकी आत्माएँ पवित्र हो सकती हैं। सब का उद्धार शुद्ध आचरण से ही हो सकता है। क्या बादशाह ! क्या रियाया ! क्या अमीर ! क्या गरीब ! क्या विद्वान ! क्या मूर्ख! सब ही इन्सान हैं और इन्सानी हैसियत से सब का दर्जा एक है। धर्म ही सच्चाई है। झूठ फरेब हिंसा चोरी जिनाकारी वगैरह पापों का तर्क करके धर्म का पालन करो। भगवान् महावीर के बारे में साधू टी. एल. वास्वानी लिखते हैं- "इन महावीर का, जैनियों के इस महापुरुष का चरित्र कितना सुन्दर है वह बादशाही घराने में जन्म लेते हैं और घर को त्याग देते हैं। वह अपना धन गरीबों को दान में दे देते हैं और सन्यासी होकर जंगल में आत्मध्यान और तपस्या के लिए चले जाते हैं। कुछ लोग उन्हें वहाँ मारते हैं, तकलीफें देते हैं, लेकिन वह शान्त और मौन हैं । " भगवान् ने कहा कि इंसान मुकम्मिल नहीं है। इसमें बहुत सी कमियाँ हैं, इसलिये अगर मुझे इस जुल्मोसितम को दुनिया के 14 मई 2003 जिनभाषित तख्ते से उठा देना है तो पहिले मुझे आदर्श बनना चाहिये, मुकम्मिल बनना चाहिए, तभी काम होगा। इसलिये बारह साल सख्त रियाजत की और बहुत सी तकलीफों का सामना भी किया और आखिर मुकम्मल होकर ही छोड़ा। आपने साबित कर दिया कि तशद को अदम तशद ही जीत सकता है। आपने सन्यास लेते वक्त पांच महाव्रत लिये थे । 1. अहिंसा, 2. सच बोलना, 3. चोरी नहीं करना, 4. ब्रह्मचर्य का पालन, 5. अपरिग्रही रहना, यानि दुनियाँ की चीजों में मोह न रखना या यूं कहो कि अपने पास जरूरत से ज्यादा सामान न रखना। 1 भगवान् महावीर ने केवलज्ञान हासिल करके उपदेश दिये और कहा कि हर एक प्राणी धर्म का पालन कर सकता है, क्या ब्राह्मण ! क्या शूद्र ! क्या वैश्य ! क्या गरीब ! क्या राजा ! क्या मर्द! क्या औरत ! सिर्फ इन्सान ही क्यों बल्कि पशु-पक्षी भी धर्म का पालन कर सकते हैं। धर्म बेजुबान जानवरों और इन्सानों को कल्ल करके यज्ञ करने में नहीं है, बल्कि धर्म तो अहिंसा परम धर्म है। धर्म का स्वरूप " आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" है। यानि जो अपनी आत्मा अपने जमीर के खिलाफ हो वह दूसरे के लिए हरगिज न करे। जैसे अगर तुम्हें कोई मारता है तो तुम कितना दुःख महसूस करते हो, इस तरह हमारा धर्म है कि हम बेजुबान जानवरों को कत्ल करने में धर्म न मानें, अगर कोई हमारे सामने झूठ बोलता है तो हम झुंझला उठते हैं, तो हमारा फर्ज है। कि हम कभी झूठ न बोलें। वगैरह-वगैरह। अगर कोई हमारी चोरी करता है, तो हमें बहुत रंज होता है, तो हमारा फर्ज है कि हम खुद चोरी न करें। दुश्मनी कभी पापी इन्सान से न करो लेकिन उसके पाप से करो। इस पर दया भाव रखकर उसको समझाओ और अच्छे रास्ते पर लाकर उसके पाप को धो डालो। दूसरे की माता - बहिन को अपनी माता बहिन समझो जरूरत से ज्यादा सामान अपने पास मत इकट्ठा करो, वगैरह-वगैरह । भगवान् महावीर का उपदेश कितना आला और सुन्दर था । उसका जिक्र करते हुए प्रसिद्ध कवि फरवे कौम रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं कि Mahavir proclaimed in India the message of salvation; that religion is a reality and not a mere social convention, that salvation comes from taking refuge in that true religion and not observing that external ceremonies of the community; that religion can not regard any barrier between man and man as an external verity, wonderous to relate, this leading rapidly overtopped the barrier of the races abiding instinct, conquered the infleuence of kshtriya period, now the infleunce of kshtriya teachers completely suppressed the Brahmin power. भगवान् महावीर ने भारतवर्ष को बा-आवाज बुलन्द मोक्ष Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संदेश सुनाया। उन्होंने कहा कि धर्म सिर्फ सामाजिक कराजात । वासवानी कहते हैंमें नहीं है बल्कि दर हकीकत सच्चाई है। मोक्ष सिर्फ सामाजिक | "अनेकान्त-स्याद्वाद में महावीर ने सिखाया है कि दुनिया बाहरी क्रिया कांड से नहीं मिल सकता, लेकिन सच्चे धर्म के | का कोई भी एक सिद्धान्त सच्चाई को पूरा-पूरा बयान नहीं कर स्वरूप का सहारा लेने से मिलता है। धर्म के आगे इन्सान और | सकता, क्योंकि सत्य अनन्त है। हमने अभी कुछ मिसालों में धर्म इन्सान के दरमियान रहने वाले भेदभाव भी खड़े नहीं रह सकते । | के नाम से बहस मुवाहिसे और नफरत की वजह से आज तक कहते हुए हैरानी होती है कि महावीर की इस तालीम ने समाज के | तकलीफें उठाई हैं। महावीर की वाणी नौजवान लोग सुनें और दिलों पर काबू पा लिया और पहले के खराब संस्कारों से बने हुए । | उनकी हमदर्दी और बराबरी का संदेश गाँव-गाँव और शहरभावताब को बहुत जल्द नेस्तनाबूद कर दिया और सारे मुल्क को शहर ले जायें, अलहदा-अलहदा धर्मों के भेदों और झगड़ों का अपने मती कर लिया। तसफिया करके वह आध्यात्मिक जीवन के बारे में नई देशभक्ति, भगवान् महावीर ने जहाँ हिंसा को बन्द किया वहाँ मजहबी नये राष्ट्रीय जीवन को पैदा करें, क्योंकि सत्य इन्तहा (अनन्त) है इखतलाफात को भी दूर कर स्याद्वाद का उपदेश दिया और कहा और धर्म का उद्देश्य फूट और झगड़ा करने का नहीं बल्कि उदारता कि सत्य अनन्त हैं इसलिए हर एक सिद्धान्त में कुछ न कुछ | और प्रेम का पाठ पढ़ाना है।" सच्चाई है, उसको स्याद्वाद की कसौटी पर परखो। साधु टी.एल. | क्रमश:.... जैन संत चिन्मय सागर जी की शराब बंदी की मुहिम प्रगति पर मण्डला ! सुनसान जंगलों में कठोर तपश्चरण करने के लिए प्रसिद्ध जैन मुनि श्री 108 चिन्मय सागर जी महाराज द्वारा प्रारंभ किया गया आदिवासियों के उद्धार का अभियान निरंतर प्रगति पर है। जूना मण्डला के आदिवासी बहुल ग्राम से प्रारंभ यह अभियान आसपास के दर्जनों ग्रामों में फैल चुका है। झिंगाटोला, बरबेला, हिरनाही टोला, क्षीरपानी, माराढारू, तिलईपानी, छिक्लाटोला, सिमरिया, बर्राटोला, छपरी, गुणाजनिया आदि उन आदिवासी बहुल ग्राम के नाम हैं जिनके आदिवासी स्वयं ही बगैर किसी दबाव के मुनि श्री के पास आकर माँस-मदिरा का त्याग कर रहे हैं। इस अति सफल अभियान के पीछे मुनि श्री की तपस्या का प्रभाव ही है कि आदिवासी मात्र मुनि श्री का आशीर्वाद पाने शराबवंदी का दृढ़संकल्प ले रहे हैं। इनमें से झिगाटोला, छिवलाटोला, सिमरिया, बर्राटोला, तिलईपाती का हाल तो यह है कि यहाँ बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी शराबवंदी हेतु संकल्पित हो चुके हैं, शत प्रतिशत शराबवंदी वाले इन गाँवों को आदर्श ग्राम घोषित किया जा रहा है। आदिवासियों के उद्धार से शासन-प्रशासन भी खासा उत्साहित है क्यों कि आदिवासियों की आर्थिक अवनति का मूल कारण शराब थी आज शासन-प्रशासन भी मुनि श्री के साथ आ खड़ा हुआ है और वनराज्यमंत्री श्री देवेन्द्र टेकाम एवं कलेक्टर-संजय शुक्ला ने शत प्रतिशत शराब बंदी वाले सभी गांवों (आदर्श घोषित ग्रामों) को विकासशील बनाने हेतु मुनिश्री के सान्निध्य में शासन के सहयोग से आदर्श ग्राम जूना मण्डला में सम्पन्न एक कार्यक्रम में सामुदायिक भवन का शिलान्यास, आंगन बाड़ी केन्द्र का शिलान्यास, मनोरंजन हेतु रंगमंच का शिलान्यास संपन्न हो चुका है। इसके अतिरिक्त शासन-प्रशासन ने स्पष्ट रूप से घोषणा कर दी है कि जो भी आदिवासी मुनिश्री की प्ररेणा से व्यसन मुक्त होंगे उन्हें इसी तरह सड़क पानी से युक्त अन्य तरह की सुविधायें प्रदान कर विकसित किया जावेगा। कुछ समय पूर्व मुनिश्री 108 चिन्मय सागर जी महाराज का आशीर्वाद लेने प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह पहुँचे उन्होंने बताया कि वे भोपाल से शराबवंदी व व्यसन मुक्ति के इस अनोखे अभियान की खबर सुनकर ही मण्डला आये हैं । वे इस अभियान की सफलता से काफी आश्चर्य चकित हैं और इसे मुनि श्री की तपस्या का प्रभाव ही मानते हैं। साथ ही उन्होंने आदर्श ग्राम घोषित जूना मण्डला हेतु 80 लाख रूपये की सिंचाई परियोजना की मंजूरी दे दी जिससे आदिवासियों की 250 से 350 एकड़ भूमि सिंचाई युक्त हो सकेगी ज्ञात हो कि पूर्व में मुनिश्री जूना मण्डला के जंगलों में ही तपस्यारत थे आदिवासी युवक मंगल एवं माणिक लाल, शिवपुजारी, माहूलाल भी इस अभियान के प्रसारित करने में सहयोग प्रदान कर रहे हैं। इस अभियान के परिणाम स्थाई होने की पूर्ण संभावना इसलिए है क्योंकि कुछ आदिवासी ग्रामों की पंचायतों ने तो शराबवंदी हेतु कठोर नियम वना लिये हैं और शराब पीने वालों को समाज से निष्कासित करने तक का प्रावधान कर लिया है। माँस मदिरा का त्याग करने वाले आदिवासी इस हेतु संकल्प पत्र भी भर रहे हैं और तकरीवन 3500 संकल्प पत्र तो भरकर आ चुके हैं। अमित पडरिया - मई 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानस कब-कबे है होनें डॉ. मुन्नीपुष्पा जैन मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। देवता भी इस मनुष्य जन्म मानस कब-कबे है होने, रजउ बोल लों नोंने के लिए तरसते हैं। न जाने कितने जन्मों के पुण्य-प्रताप से हम चलती बेरां प्रान छोड़ दये, कीके संगे कोनें सभी को यह मनुष्य भव प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म की दुर्लभता जिअत-जिअत को सब कोउ सबको, मरे घरी मररोने का वर्णन न सिर्फ जैन शास्त्र करते हैं वरन् वैदिक एवं बौद्ध हो जे और जन्म की बातें, पाओ न ऐसी जीने परम्परा के शास्त्रों में भी मनुष्य जन्म को ही श्रेष्ठ माना है। मनुष्य हंडिया हात परत नईं 'ईसुर' आबे सीत टटोने योनि प्राप्त किये बिना हम इस संसार चक्र से मुक्त नहीं हो सकते। मनुष्य योनि कभी-कभी ही मिलती है और दूसरी बात इसी अवस्था में मनुष्य अपने स्वरूप को पहचान कर अपने कोई कितना ही प्रिय क्यों न हो, किसी के साथ, अन्य ने अपने निजानन्द परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। प्राण नहीं त्यागे हैं। जीते जी के सभी संगी सम्बन्धी हैं मरने पर कुछ समय रोकर, कुछ समय बाद ही उन्हें लगता है जैसे किसी बुन्देलखण्ड की धरती पर अनेक कवि हुये, जिन्होंने पिछले जन्म की बात हो? अर्थात् कोई अमुक व्यक्ति ऐसा था, बुन्देली लोक भाषा में काव्य का सृजन कर जनमानस में नैतिक मात्र कहानी रह जाती है। परन्तु मनुष्य अपनी स्नेहमयी वाणी के मूल्यों का संचार किया उन्हीं कवियों में से 'ईसुर' कवि का नाम द्वारा मरने पर भी लोगों के बीच बना रहता है अर्थात् याद किया अति प्रसिद्ध है। आज भी बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचल में ईसुरी जाता है। जैसे पूरी हड़िया को हाथ लगाने की जरूरत नहीं, मात्र फाग, ईसुर की चौपाई, दोहा लोगों की जवान पर हैं। मनुष्य जन्म एक चावल को टोहने भर से पूरे भात पकने का अंदाज लग जाता की दुर्लभता व सार्थकता का बखान ईसुरी ने भी अपने साहित्य में है वैसे ही व्यक्ति के पूरे जीवन का सार उसकी मधुर हित-मित किया। जब मनुष्य जन्म हमें सौभाग्य से मिला है तब हमें अवश्य प्रिय वाणी (बातों) में ही रहता है। ही उसका उपयोग अच्छे कार्यों के लिए करना चाहिए, बुराईयों कवि इस शरीर के द्वारा परोपकार करके, इसकी सार्थकता से सदा दूर रहना चाहिए। ईसुरी कहते हैं बताते हुए अन्य चीजों को व्यर्थ बताते हुए कहते हैंमानस होत बड़ी करनी सें, रजउ में कइसे तीसें जौ तन परमारथ के लाने, जो कोउ करके जानें नेकी-बदी, पुण्य-परमारथ भक्ति भजन होय जीसें नईं जे महल-दुमंजिला अपने, न बखरी दालाने अपने जान गुमान न करिये, लरिये नहीं किसी से जे सब माया के चक्कर , विरथा फिरत भुलाने वे ऊंचे हो जात कऊत हैं, नीचै नबै सभी से कैड़ा कैसो छोड़'ईसुरी' हंसा हुऔ रमानें फूंक-फूंक पग धरत 'ईसुरी', स्याने कहैं इसी में अर्थात् यह शरीर परोपकार के लिए है। जो यह कार्य कवि का भाव है मनुष्य जन्म बड़े पुण्योदय से मिलता है | करके जानेगा, वही सार है। घर, मकान, बंगला, आंगन इन सब और इसी जन्म से अर्थात् मनुष्य शरीर से ही अच्छाई-बुराई, में अपने को व्यर्थ ही मत भुलाओ। एक दिन घर परिवार सब कुछ पुण्य-परोपकार, भक्ति-भजन आदि हो पाते हैं। इसलिए कभी छोड़कर यह जीव (आत्मा) एक दिन रवाना (चलता बनता) हो अहंकार (घमंड) नहीं करना चाहिए, न ही किसी से शत्रुता । जाता है। अंत में उसके किये गये कार्य ही उसे अमर बनाने में करनी चाहिए। जो मनुष्य सब तरह से, सभी से विनम्र होकर रहते सहयोगी बनेंगे। हैं कहा जाता है वे ही ऊचाईयाँ पाते हैं या श्रेष्ठता को प्राप्त हैं। कवि इस नश्वर शरीर को किराये का मकान कहकर ईसुर कवि कह रहे हैं कि भले लोगों का यह भी कहना है कि हम सम्बोधित करता है। जीव कभी भी इससे निकाल दिया जायेगा। जन्म पाकर विवेक पूर्वक कदम रखें अर्थात् चलें यही बात गुणी इस शरीर रूपी मकान की दीवारें मिट्टी की हैं अत: कच्ची हैं जन सदा से कहते आये हैं। कभी भी ढह सकती हैं। ऊपर छत फूस चारे की हैं अत: कितने मधुर वाणी के व्यवहार से ही व्यक्ति लोक में एक दूसरे दिन का सहारा है। सब कुछ बिना किसी सुरक्षा के है। दस दस का स्नेह पात्र बनता है। जीवन के अन्त तक ही सब साथी हैं। दरवाजे होते हुये भी कोई ताला कुंजी नहीं है । मालिक चाहे जिस दिन निकाल देगा, अर्थात् इसका कोई भरोसा नहीं। ये भाव निम्न कोई किसी के साथ नहीं मरता परन्तु उसके व्यवहार के कारण पंक्तियों में सहज ही समझ आ जाते हैंमरने के बाद भी लोग उसे याद रखते हैं16 मई 2003 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बखरी रईयत है भारे की, दई पिया प्यारे की कर लो धरम कुछ बा दिन खा, जा दिन होत रमानें कच्ची भींत उठी माटी की, छाई फूस-चारे की ईसुर कई मान लो मोरी, लगी हाट उठ जानें बेवंदेज बड़ी बेवाड़ा, जेई में दस द्वारे की कवि कह रहें - "खाना-पीना, लेना-देना सब यहीं संसार 'ईसुर' चाये निकारो जिदना, हमें कौन डवारे की का ही है, परन्तु धर्म-ध्यान उस दिन के लिए करते रहो जब जाना इसी प्रकार निम्न पद्य भी देखिए पड़ेगा। संसार में बाजार लगता है फिर उठ जाता है उसी तरह तन को कौन भरोसो करनें, आखिर इक दिन मरनें हमारा जीवन है कवि कहते हैं हामरा कहा मान लो कितने ही जो संसार ओस का बूंदा, ढका लगे से ढरने रखने की सोचोगे यह जीव नहीं रहेगा पंछी की तरह उड़ जायेगा। जौ लौ जी की जिअत जोरिया तौं लों तें दिन भरने इसलिए केवल मौजमस्ती में ही समय मत गंवाओं, कुछ धर्म भी ईसुर इ संसार में आके बुरै काम तो डरनें करते रहो। यही आगे तक साथ देता है।" यह जीवन भी पानी के बुलबुलों की भाँति है। मृत्यु पर विक्रम की उन्नीसवीं सदी के लगभग अंत के (संवत् किसी का वश नहीं हैं 1881) इस बुन्देली कवि ईसुरी के समान ही न जाने और कितने नइयां ठीक जिंदगानी कौ, बनौ पिण्डपानी को ही कवि हुये होंगे, जिन्होंने लोकप्रिय जन बोली बुन्देली में चोला और दूसरो नइयां, मानस की सानी को लोकमर्यादा, नैतिकता एवं धर्म की बातों को जन-जन में प्रसारित जोगी-जती-तपी सन्यासी का राजा रानी को किया होगा। बुन्देली के पद्यों में न जाने कितने ही शब्द प्राकृत जब चाये लै लेउ 'ईसुर' का बस है प्रानी को भाषा के हैं। ईसुरी के पद्यों में न जाने कितने ही शब्द ऐसे भी हैं, चतुर व बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो इस नर देह को पाकर जिन्हें समझने के लिए बुन्देलखण्ड के ग्रामीण परिवेश में रहकर तप-त्याग, तपस्या तथा धर्म के कार्यों को करता है। कवि का | बुर्जुगों से पूछे जायें तभी समझ में आ सकते हैं। आज भी कई कहना है कि त्याग-तपस्या ही श्रेष्ठ है कवि बुन्देली लोकभाषा में रचनायें करते हैं तथा मंचों पर सुनाते जो कोउ जोग-जुगत कर जानें, चढ़-चढ़ जात विमानें हैं। उनकी रचनाओं को सुनकर एक तरफ तो अनायास ही अपनी ब्रम्हा ने बैकुण्ठ रची है, उनइ नरन के लाने माटी की जीवन्त खुशबू अनुभूत हो जाती है, दूसरी तरफ संवेदनाओं होन लगत फूलन की बरसा, जिदना होत रमानें के तार भी झंकृत हो उठते हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं 'ईसुर' कहत मानस को जो तन, कर लो सफल सयाने कि जब संचार एवं सम्पर्क के कोई विशेष साधन नहीं थे साथ ही यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था कि संसार का सबसे लोग अधिक पढ़े-लिखे भी नहीं थे, तब भी जनमानस में मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के लिए ईसुरी जैसे कवि ही संचार माध्यम का बड़ा आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर ने बतलाया कि इस जगत में सभी कार्य कुशलता से सम्भाला करते थे। वो भी अपनी लोक भाषा के लोग प्रतिदिन दूसरे की मृत्यु देखते हैं फिर भी ऐसा मानते हैं कि माध्यम से विधा काव्य वस्तुतः लोगों के दिलों तक इसलिए मैं नहीं मरूँगा। यही आश्चर्य है बुन्देली कवि व्यक्त कर रहा है सहजता से पहुँचती है, क्योंकि वह भी एक सहृदय कवि के दिल आऔ को अमरोती खाकैं, ई दुनिया में आकैं से निकलती है। यदि इनका प्रचार किया जाए तो ईसुरी की श्रंगार नंगै गैल पकर गये, घर गये का करतूत कमाकै परक रचनायें भी किसी रसीले बसन्त और सावन को किसी भी जर-गये, बर-गये, धुंधक लकरियन, घरगये लोग जराकैं महिने में बुला लाती हैं। उनका यह सहज, सात्त्विक, लोकरंजन बार-बार नईं जनमत 'ईसुर'कूँख अपनी माँ कैं आधुनिक युग के फूहड़, अश्लील तथाकथित रचनाओं को उखाड़ने धर्म का फल तथा जीवन में सुख के लिए धर्म की के लिए पर्याप्त है। कमी है तो उसका रसास्वादन करवाने वालों आवश्यकता पर बल देते हुये ईसुर कह रहे हैं - की। यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि ईसुरी की दीपक दया-धर्म को जारौ, सदारत उजयारौ रचनाओं को कोई सफल मंच प्रस्तोता कवि या गायक उसे सस्वर धरम करें बिन करम खुलै न, बिना कुची ज्यौं तारौ प्रस्तुत करे तो आज की नयी पीढ़ी ईसुरी कवि के हृदय से निकले समझा चुके करें न रइयौ, दिया तरै अंदयारौ इन सरस पद्यों की गुदगुदाहट के आगे मनोरंजन के सभी नये कात 'ईसुरी' सुन लो प्यारे-लग जै पार नबारौ संसाधनों को एक बार के लिए अवश्य विस्मृत करने में पूर्ण इस जीव को पंक्षी की तरह बतलाते हुये उन्होंने लिखा है क्षमता रखते हैं। राखें मन पंछी ना सने, इक दिन सब खां जानें अनेकान्त विद्या भवनम् बी-23/45 पी-6 खा-लो, पी-लो, लै-लो, दे-लो ये ही रहै ठिकाने शारदानगर कॉलोनी वाराणसी - 10 मई 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषांश चाँदखेड़ी के अतिशय क्षेत्र से महाअतिशय क्षेत्र बनने तक एक वृत्तान्त सतीश जैन इंजीनियर ऐसे परम तपस्वी, महायोगी मुनिराज जिनकी महानता । हो गया। मंदिर की बाहरी दीवार पर भक्तामर के 48 काव्यों के का वर्णन करने के लिए शब्द बौने पड़ जाते हैं, चांदखेड़ी क्षेत्र पर | चित्रमय पत्थर के पाटिये भी अलग-अलग दानदाताओं के नाम से विराजमान थे ही अत: कमेटी एवं समाज ने बड़े अपेक्षा भाव से लगाये जाने की योजना भी मूर्तरूप ले चुकी है। सिंह द्वार के मुनिश्री से निवेदन किया कि यहाँ जो भूगर्भ है उसमें रत्नमयी | पुण्यार्जक श्री अमोलक चंद चूना वाले, कोटा एवं मानस्तंभ के चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा होने की जो जनश्रुति है उसे आप | पुण्यार्जक श्री आर.के. मार्वल्स, किशनगढ़ हैं। अपनी तपस्या एवं साधना से साक्षी रूप प्रदान कर सभी को इन्ही सब कार्यों के चलते मुनिश्री प्रतिदिन अपने प्रवचनों चन्द्रप्रभ भगवान् के दर्शन करायें। परन्तु मुनिश्री बिना किसी | में उस श्रेष्ठी की जिसने बड़े बाबा की प्रतिमा बनवाई होगी एवं संकल्प विकल्प के क्षेत्र विकास हेतु क्षेत्र के वास्तुदोषों के निवारण | उस शिल्पी की जिसने इतनी मनोहारी प्रतिमा गढ़ी होगी की में अपने उपयोग को लगाये रहे। मंदिर के एकदम सामने बनी दो | पुरजोर प्रशंसा करते एवं दोनों को पूरे मन से कोटिशः आशीर्वाद मंजिला धर्मशाला भी वास्तुशास्त्र के अनुसार क्षेत्र विकास में दोषी | देते। ऐसा कोई प्रवचन नहीं रहा जिसमें मुनिश्री ने सेठ किशनदास सिद्ध हो रही थी। अत: उसे गिराने का निर्णय क्षेत्र कमेटी द्वारा की दानशीलता एवं उदारता की चर्चा न की हो। मुनिश्री ने लिया गया। अब इसी स्थान पर एक विशाल लाल पत्थर का | प्रतिदिन बड़े बाबा के ऊपर वृहत शांतिधारा करवाना प्रारंभ की। सिंहद्वार, सरस्वती भवन, अतिथिगृह का निर्माण कार्य चालू है। | मुनिश्री स्वयं वृहत शांतिधारा अपने मुखारविंद से उच्चारण करते देखते ही देखते इन सभी निर्माण कार्यों के लिए पृथक-पृथक दान | एवं शांतिधारा करने वाला पुण्यार्जक ऐसा महसूस करता मानो दाताओं ने अपनी भावना व्यक्त कर पुण्य अर्जन किया। सिंहद्वार | उसने शांतिधारा करके अपना जीवन धन्य कर लिया हो, उसके के सम्मुख ही एक गगनचुंबी मानस्तंभ का निर्माण हो रहा है। | आनंद का कोई पार न रहता सैकड़ों तीर्थयात्री बड़े बाबा एवं आदिनाथ भगवान् की गुफा में एक कोने पर नंदीश्वर जिनालय | मुनिश्री के दर्शन करने प्रतिदिन क्षेत्र पर आ रहे थे। मुनिश्री की स्तंभ रूप में था, जिसका लोगों द्वारा भीड़ के समय में लातें लगने | विशुद्धि बड़े बाबा एवं क्षेत्र विकास के प्रति दिनों दिन बढ़ती जा या उससे टिककर बैठने से अत्यधिक अपमान होता था, मुनिश्री | रही थी। मुनिश्री को बड़े बाबा के आभामंडल का तेज दिनों दिन ने प्रेरणा दे उसे एवं मंदिर के बाहर बने एक छोटे से मानस्तम्भ | बढ़ता हुआ नजर आ रहा था। परंतु ये सारे लक्षण कौनसी अलौकिक को समोशरण मंदिर के सम्मुख संगमरमर की दो सुन्दर छतरियाँ | घटना को जन्म देने वाले हैं यह मुनि श्री नहीं समझ पा रहे थे। बनवाकर उनमें प्रतिष्ठापूर्वक विराजमान करवाया है। अब इनका | माघ सुदी ग्यारस को रात्रि में मुनिश्री को एक विशेष स्वप्न आया अपमान भी नहीं होता एवं इनसे क्षेत्र की शोभा भी बढ़ गई है। जिसे मुनिश्री ने प्रात: काल संघस्थ क्षुल्लकद्वय एवं कमेटी के एक तीसरे बड़े वास्तु दोष के रूप में मुनिश्री ने भोजनशाला का विपरीत | दो प्रमुख व्यक्तियों को वह स्वप्न बताया कि एक दिव्य पुरूष ने कोण में बना बताया जिस स्थान को मुर्दो का स्थान माना जाता है। जो कि गुलाबी रंग की पगड़ी एवं बादामी रंग की शेरवानी पहने फलस्वरूप कमेटी ने निर्णय ले इस स्थान पर पांच मंजिल धर्मशाला | हुए था मुझे जगाया तब मैं उठकर बैठ गया। उसने सर्वप्रथम मुझे का निर्माण कार्य शुरु कर दिया है। सारे कार्यों को विधिवत | नमोस्तु किया फिर मुझसे मंदिर जी में चलने को कहा, तब मैंने शिलान्यास कराकर मात्र डेढ़ माह में निर्माण कार्य शुरु कर दिये | कहा कि अभी तो रात्रि है और साधु रात्रि में नहीं चलते तब उस गये। इसी बीच मुख्य मंदिर के चारों ओर त्रिकाल चौबीसी एवं | देव ने कहा कमरे के बाहर देखिये रात्रि नहीं है। कमरे के बाहर विद्यमान बीस तीर्थंकर विराजमान करवाने की योजना कमेटी ने | देखने पर मैंने पाया कि बाहर काफी उजेला है, तब मैं उस देव के मुनिश्री के सम्मुख रख आशीर्वाद लिया। आशीर्वाद का चमत्कार | पीछे-पीछे मंदिर के अंदर गया। उस देव ने बाहुबली भगवान् के कुछ ऐसा हुआ कि पृथक-पृथक दानदाताओं ने चौबीसी और | दाहिने हाथ की दीवाल पर चुने हुऐ दरवाजे के ऊपर बैठी प्रतिमा चार मंदिरों की घोषणा कर दी तथा, शिलान्यास का कार्य प्रारंभ | के पास एक चाबी लगाई जिससे गुफा का द्वार खुल गया एवं फिर 18 मई 2003 जिनभाषित ' - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ने कहा आप गुफा में जाइये अंदर जिनबिंब हैं आप लेकर । चन्द्रप्रभ भगवान् जिनकी ऊँचाई लगभग पौने तीन फीट एवं वजन आईये। इतना कहकर वह देव चला गया एवं मेरी नींद खुल गई। | लगभग डेढ़ क्विंटल रहा होगा। मुनिश्री ने चंद्रप्रभ भगवान् को मुनिश्री के मन में स्वप्न के प्रति शंका हुई की यदि गुफा में गया | ऊपर लाने के लिए पुरजोर प्रयास किया परंतु वे जरा भी नहीं उठा और यदि जिनबिंब नहीं हुए तो। भद्रबाहु संहिता में भी स्वप्न का | पाये। तब मुनिश्री पांच बजकर पैंतीस मिनट पर गुफा के बाहर तो फल देखा जिसके अनुसार स्वप्न का फल देर से मिलेगा। मुनिश्री खाली हाथ आये परंतु उनके मुखमंडल पर प्रसन्नता एवं संतोष ने यह सोचकर कि हो सकता है धारणा के कारण ऐसा स्वप्न का सागर हिलोरें मार रहा था। मुनिश्री ने सारा बृतांत कमेटी के आया हो अत: इस स्वप्न को अधिक महत्व नहीं दिया। फाल्गुन | प्रमुख पदाधिकारियों को बताया एवं चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा सुदी सप्तमी की रात्रि में वही देव उसी वेषभूषा में मुनिश्री के स्वप्न | भारी होने के कारण मुनिश्री ने मात्र संघस्थ पिच्छीधारी क्षु. गंभीर में पुनः आया एवं नमोस्तु कर कहने लगा कि आप मुझे और | सागर एवं क्षु. धैर्य सागर जी महाराज को दोपहर में गुफा में साथ अधिक न मनवायें, मैं आपकी साधना से प्रभावित होकर एवं | चलने की अनुमति प्रदान की। भूगर्भ से प्रतिमायें निकलने की आपको ही योग्य समझकर में जिनबिंब आपको सौंप रहा हूँ। | खबर सारे प्रांत में बिना किसी पूर्व प्रचार प्रसार के कानों कान आप किसी प्रकार की शंका न करें, गुफा के अंदर अलौकिक | फोन आदि के माध्यम से हवा की तरह इतनी अधिक फैल गई कि जिनबिंब हैं आप उनके दर्शन करायें। इस क्षेत्र पर पहले बहुत से | तीन चार घंटे में ही क्षेत्र पर लगभग दस हजार लोग चंद्रप्रभ साधु इन जिनबिंबों को निकालने के निमित्त से आये पर मैंने किसी | भगवान् के दर्शन के लिए एकत्रित हो गये। दोपहर दो बजे मुनिश्री को भी ये जिनबिंब नहीं सौंपे। आप नि:शंकित होकर फाल्गुन | ने श्रद्धालुओं से खचाखच भरे विशाल पंडाल में प्रवचन दिये सुदी नवमी के दिन शनिवार को रात्रि में आदिनाथ बाबा के समक्ष | जिसमें उन्होंने गुफा का सारा रहस्य बताया एवं कहा कि इन रात्रि प्रतिमा योग धारण कर ध्यान कीजिये, उस ध्यान में आपके | जिनबिंबों को देखकर अकृत्रिम जिनबिंबों का स्वरूप मानस पटल सारे विकल्पों का सामाधान स्वतः मिल जायेगा। आप अपनी पर झलक रहा है। मुनिश्री ने जिनबिंबों के बाहर रखे रहने का विशुद्धि को बढ़ाकर फाल्गुन सुदी दशमी सवंत 2058 दिन रविवार | समय पंद्रह दिन प्रवचन में ही नियत कर दिया। लगभग डेढ़ घंटे को ब्रम्हमुहूर्त में गुफा में प्रवेश कीजिये। दूसरी बार के इस स्वप्न के प्रवचन के बाद मुनि श्री क्षुल्लकद्वय के साथ गुफा में गये। लोग को मुनिश्री ने गंभीरता से लिया एवं स्वप्न का फल जैन शास्त्रानुसार वेसब्री से मंदिर के भीतर बाहर इंतजार करने लगे। भीड़ प्रतिक्षण देखने पर पाया कि स्वप्न का फल शीघ्र मिलने वाला है। इस बार | बढ़ती ही जा रही थी। सारी भीड़ एक साथ मंदिर के अन्दर प्रवेश मुनिश्री ने स्वप्न के बारे में किसी को नहीं बताया परंतु स्वप्न के | कर भगवान् का प्रथम दर्शन करना चाह रही थी। शांति एवं अनुसार क्रियान्वित करने का अपना मन्तव्य संघ एवं कमेटी के | व्यवस्था के लिए त्वरितरूप जो उपाय किये गये थे वे सारे के सारे सम्मुख रखा। तत्पश्चात् मुनिश्री ने फाल्गुन सुदी नवमी संवत् | अपूर्ण एवं अपर्याप्त लगने लगे। लोग मुनिश्री सुधा सागर जी 2058 की रात्रि ध्यान योग पूर्वक आदिनाथ बाबा के सम्मुख बैठे महाराज की जय जय की ध्वनि से सारा मंदिर परिसर गुंजायमान एवं ब्रम्हमुहूर्त में कमेटी के पदाधिकारी को गुफाद्वार की चुनाई कर रहे थे। ठीक चार बजकर उन्नीस मिनट पर मुनिश्री एवं तोड़ने को कहा। गुफाद्वार के टूटते ही भीषण गर्म हवा गुफा के क्षुल्लकद्वय चंदप्रभ भगवान् को लेकर गुफा से बाहर आये। जो अन्दर से निकली। कुछ देर बाद जब गर्म हवा का आना बंद हुआ | लोग शुद्ध वस्त्र पहिन कर एवं मुकुटबद्ध होकर भगवान् के अभिषेक तो मुनिश्री सुधासागर जी महाराज घुप्प अंधेरी गुफा में प्रवेश कर | के लिए घंटों पूर्व से इंतजार कर रहे थे उनकी आँखे भगवान् को गये। जैसा कि मुनिश्री ने बाद में अपने प्रवचन में बताया कि गुफा | बिना पलक झपके निहारने लगीं, सभी लोग भगवान् को स्पर्श के अन्दर उन्हें 2-3 सीढ़ियाँ एक साथ कूदना पड़ी, कहीं पर | करने के लिए एक साथ बढ़ने लगे। पूरा दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा एकदम छोटे से द्वार से उन्हें बैठकर जाना पड़ा तब कहीं वे उस | था मानो स्वर्ग से आकर इंद्रगण भगवान् को जन्माभिषेक के लिए द्वार पर पहुँचे जिसके भीतर वह धरोहर थी जिसके लिए एक | पांडुकशिला पर विराजमान कर प्रथम अभिषेक के लिए होड़ कर साधक ने अपनी साधना के सहारे लक्ष्य बना लिया था। द्वार के | रहे हों। प्रत्येक व्यक्ति के मन में खुशी एवं उत्साह का दरिया पत्थर को हटाते ही एक अद्भुत अति तेज प्रकाश मुनिश्री की उमड़ रहा था। एक ऊँचे मंडप में चंद्रप्रभ भगवान् को विराजमान आँखों पर पड़ा जिसे देख मुनिश्री कुछ देर के लिए नेत्र बंद कर | करने के बाद मुनिश्री पुनः गुफा में गये एवं दूसरी एवं तीसरी बार खड़े रहे एवं जय श्री ॐ नमः सिद्धेभ्यः का स्मरण करने लगे। में क्रमश: सिद्ध भगवान् की लगभग दो फुट ऊँची और पार्श्वनाथ थोड़ी देर बाद जब नेत्र खोले तो मुनिश्री के सम्मुख महाकांती - भगवान् की लगभग सवा फुट ऊँची प्रतिमा लेकर आये। तीनों युक्त तीन जिनबिंबों (स्फटिक मणि/हीरामणि) के दर्शन किये। जिनबिंबों को एक साथ विराजमान कर अभिषेक प्रारंभ किया मुनिश्री ने इन अलौकिक जिनबिंबों के दर्शन कर अपना जीवन | गया। प्रथम अभिषेक श्री कस्तूरचद जी जैन, रामगंजमंडी वालों ने धन्य मानते हुये जिनबिंबों को बार-बार नमोस्तु किया एवं तीन | तीन लाख रूपये की बोली लेकर किया। बारह अन्य इंद्रों की प्रदक्षिणा देकर पुन: नमोस्तु किया। तीन जिनबिंबों में सबसे बड़े | बोलियाँ बोली गईं जो लाखों रूपये से ऊपर लेकर लोगों ने अभिषेक - मई 2003 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 किया तत्पश्चात् सैकड़ों लोगों ने भगवान् का अभिषेक किया। मंदिर के भीतर बाहर बस ये ही नारे सुनाई दे रहे थे कि प्रभु की मूरत कैसी हो चंद्रप्रभ भगवान् के जैसी हो "गुरु का शिष्य कैसा हो सुधा सागर जैसा हो" एवं "जब तक सूरज चांद रहेगा-सुधा सागर का नाम रहेगा।" हर व्यक्ति जो भी इन जिनबिंबों के दर्शन करता बस यही कहता अलौकिक, अद्वितीय, जीवन धन्य हो गया। दर्शन कर वहीं के वहीं खड़ा रह जाता, आगे बढ़ना ही भूल जाता। लोग लाइन में लगकर कितने ही धक्के खाकर और पसीने से सराबोर हो भगवान् के सामने आते तो दर्शन कर सारे धक्के, परेशानियाँ भूल जाते और उनकी प्रसन्नता का पार न रहता। पहले दिन ही लगभग चार सौ लोगों ने इन अलौकिक, अद्वितीय चतुर्थकालीन जिनबिंबों का अभिषेक किया एवं हजारों लोगों ने दर्शन किए। जो भी दर्शन करता क्षेत्र से ही अपने-अपने रिश्तेदारों, मित्रों एवं परिवारजनों को फोन करके चांदखेड़ी बुला लेता। इस तरह पहले दिन से ही पूरे भारत के कोने कोने से जैन समाज के लोगों का चाँदखेड़ी पहुंचना शुरू हो गया क्षेत्र कमेटी रात में जो भी नई व्यवस्था बनाती दूसरे दिन वह व्यवस्था बहुत छोटी सिद्ध हो जाती। श्रद्धालु रेलों से, बसों से एवं निजी वाहनों से इतनी अधिक संख्या में आ रहे थे कि शासन एवं प्रशासन भी चकित हो अपनी सारी सेवायें प्रदान करने में जुट गया। सैकड़ों पुरूष एवं महिला पुलिसकर्मियों को व्यवस्था के लिए तैनात किया गया। झालावाड़ जिले के कलेक्टर एवं एस. पी. स्वयं दिन-दिन भर क्षेत्र पर रहे एवं व्यवस्था का जायजा लेते रहे। दिन रात इतने यात्री क्षेत्र पर आ रहे थे कि कई स्टेशनों पर अटरू एवं वारा स्टेशन के टिकिट ही खत्म हो गये। पूरी की पूरी रेलगाड़ियाँ अटरू एवं वारा स्टेशनों पर खाली हो जाती थीं। राजस्थान परिवहन निगम ने भी कई विशेष बसों की व्यवस्था की। क्षेत्र कमेटी ने आवास व्यवस्था के लिए खानपुर गांव के सारे होटल एवं सभी धर्मशालायें यात्रियों को ठहरने के लिए बुक कर ली थीं। क्षेत्र पर भोजन की व्यवस्था के लिए एक विशाल भोजनशाला की व्यवस्था की गई थी जिसमें प्रतिदिन हजारों व्यक्ति एक साथ भोजन करते थे। पानी, बिजली आदि की व्यवस्थाओं में कोई कमी न आये इस हेतु कई आकस्मिक प्रबंध किये गये थे । नदी के दूसरे किनारे पर सैकड़ों की संख्या में रातों रात टेंट लगाये गये जो पूरे पंद्रह दिन तक सभी भरे रहे। चौबीस घंटे चंद्रप्रभ भगवान् का दरबार यात्रियों को दर्शन के लिए खुला रहता था । प्रतिदिन सात बजे मूलनायक आदिनाथ भगवान् का अभिषेक एवं वृहत शांतिधारा महाराज श्री के सान्निध्य में होती एवं बाद में साढ़े आठ बजे से दस बजे तक मुनिश्री के विशेष मंगल प्रवचन होते। प्रतिदिन के प्रवचन इतने मार्मिक एवं गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने वाले रहते कि एक भी श्रोता भावविभोर हुए बिना न रहता । प्रवचनों के बाद चार विशेष इंद्रों की बोलियाँ होती जो कि उस दिन चंद्रप्रभ भगवान् का प्रथम अभिषेक मुनिश्री । चाँदखेड़ी में यह चमत्कार कर मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया है के सान्निध्य में करते थे। बाद में सभी सामान्य इंद्र भगवान् का अभिषेक करते रहते थे भूगर्भ से प्राप्त इन जिनबियों की प्रथम शांतिधारा श्री अशोक पाटनी (आर. के. मार्बल्स), श्री गणेशराणा एवं श्री निहाल पहाड़िया ने की। चूंकि मंदिर में प्रवेश द्वार एक ही है अतः अभिषेक करने वालों के लिए मंदिर में अलग से प्रवेश के लिए एक अस्थायी पुल त्वरित व्यवस्था के रूप में मंदिर की छत एवं धर्मशाला की छत के बीच बनाया गया। पुल बड़ा कमजोर था परंतु लाखों लोग इस पुल पर से आये गये फिर भी पुल यथावत रहा आया एवं किसी प्रकार की कोई दुर्घटना नहीं घटी। इसी प्रकार नदी के ऊपर भी एक चार लेन का अत्यंत अस्थायी पुल रातों रात निर्मित किया गया और इस पुल पर से भी लाखों लोग दिन रात आये गये परंतु किसी भी प्रकार की अनहोनी नहीं हुई और पुल पंद्रह दिन तक काम देता रहा। भूगर्भ से प्राप्त भगवानों के दर्शनों के लिए महिलाओं एवं पुरूषों की इतनी लंबी लंबी लाइनें लगती थी कि पांच-छः घटों में किसी दर्शनार्थी का दर्शन के लिए नंबर आ पाता था। दर्शनार्थी इतनी देर तक लाईन में लगकर भी जब चंद्रप्रभ भगवान् के सम्मुख पहुँचता था तो अपनी सारी तकलीफें भूल जाता और अपने आपको धन्य कहने लगता । उसके चेहरे के भावों से लगता मानो कह रहा हो कि इन दर्शनों के लिए तो और भी कई गुनी तकलीफ उठानी पड़ती तो भी उठा लेता। एक दिन भीड़ इतनी अधिक बड़ गई की कलेक्टर महोदय ने जब व्यवस्था बनाने में असमर्थता पायी तो मुनि श्री से अत्यंत विनीत भाव से निवेदन किया कि मुनिश्री आप प्रतिमाओं को बाहर रख दें तो बड़ा उपकार होगा क्योंकि भीड़ बढ़ती ही जा रही हे तब मुनिश्री ने वस्तुस्थिति समझकर जिनबिंबों को मंदिर के प्रवेश द्वार के बाहर ही विराजमान करवाया एवं फिर दर्शनार्थियों को दर्शन में किसी भी प्रकार की आकुलता या असुविधा नहीं हुई। वैसे भी व्यवस्था के लिए मुंगावली, कुंभराज एवं अशोक नगर व स्थानीय सेवा दलों ने अपनी अमूल्य सेवायें दी। लाइन में लगे व्यक्तियों को पानी पिलाने का महत्वपूर्ण कार्य भी इन्हीं लोगों द्वारा किया गया। पंद्रह दिन इस महामहोत्सव के दौरान राज्य शासन एवं केन्द्र शासन के कई वरिष्ठ एवं कनिष्ठ नेता, विधायक और मंत्री भी चंद्रप्रभ भगवान् के दर्शनों के लिए पधारे एवं मुनिश्री से आशीर्वाद लिया। समारोह में मुख्य रूप से आये राजनैतिक व्यक्तियों में केन्द्रीय लघु उद्योग मंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया छ: अप्रैल को दर्शन करने पधारी इसी दिन श्रीमती सिंधिया ने सांसद कोटे से रूपली नदी पर चार लेन वाली पुलिया के निर्माण हेतु पंद्रह लाख रूपये की राशि की स्वीकृति की घोषणा कर पुलिया का शिलान्यास किया। बाद में श्रद्धालुओं से खचाखच भरे बहुत बड़े प्रवचन पंडाल में मुनिश्री के प्रवचन के पूर्व श्रीमति सिंधिया ने अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा कि मुनिश्री ने 20 मई 2003 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि चाँदखेड़ी झालावाड़ जिले में है और झालावाड़ मेरा संसदीय । चैत्र सुदी तेरस दिन गुरुवार दिनांक 25.4.2002 महावीर क्षेत्र है। श्रीमती सिंधिया ने मुनिश्री को नमोस्तु करते हुए मुनिश्री | जयंती के दिन पुनः वही दिव्य पुरूष मुनिश्री के स्वप्न में आया से निवेदन किया कि मुनिश्री उनका क्षेत्र छोड़कर कहीं न जायें। और मुनिश्री से कहा कि आपके मन में इस क्षेत्र का इतिहास श्रीमती सिंधिया ने अत्यंत भावविभोर होकर कहा कि मुनिश्री मुझे | जानने की जो इच्छा है वही बताने में आया हूँ। मैं ही सेठ किशनदास ऐसा आशीर्वाद दें जिससे मैं मुनिश्री के आदेशों एवं निर्देशों का | हूँ जो पहले भी दो बार आपके स्वप्न में आया। आदिनाथ भगवान् पालन पूर्ण सक्षमता से कर सकूँ। श्रीमति सिंधिया के साथ खानपुर | की प्रतिमा एवं ये रत्नमयी जिनबिंब मैंने ही विराजमान करवाये क्षेत्र की युवा विधायिका सुश्री मीनाक्षी चंद्रावत भी थीं। मीनाक्षी | थे। यह मंदिर भी मैंने ही बनवाया था। आदिनाथ भगवान् को चंद्रावत ने भी विधायक कोटे से तीर्थ क्षेत्र विकास के लिए दो लाते समय नदी किनारे एक टेक पर कई बैल पछाड़ खाकर गिर लाख रूपये की घोषणा की एवं सारगर्भित उद्बोधन देकर मुनिश्री | गये पर गाड़ी को आगे नहीं खींच पाये तब मैंने उसी जगह से आशीर्वाद प्राप्त किया। तत्पश्चात् मुनिश्री ने अपने प्रवचनों में | आदिनाथ भगवान् को विराजमान करवाकर मंदिर बनवाया था। ये धर्मनीति को राजनीत से ऊपर बताते हुए कहा कि भले ही श्रीमती | रत्नमयी चंद्रप्रभ भगवान् 35 वर्ष तक मंदिर के ऊपरी तल में जहाँ सिंधिया एवं मीनाक्षी चंद्रावत अलग-अलग पार्टी की हैं पर इस अभी बाहुबली भगवान् विराजमान हैं वहाँ विराजमान रहे। बाद में धर्म मंच पर दोनों बड़ी बहिन एवं छोटी बहिन के रूप में हैं। इन्हें गुफा में रख दिया गया। यह स्थान पहले चंद्रप्रभ का बाड़ा मुनिश्री ने यह भी कहा कि अब यह चाँदखेड़ी क्षेत्र पूरे विश्व में कहलाता था जो बाद में चाँदखेड़ी कहलाने लगा। मुनिश्री के जाना जाने लगेगा। पूरे क्षेत्र का विकास इतना तेजी से होगा कि | | पूछने पर कि आप स्वप्न में ही क्यों आते हैं, साक्षात सामने क्यों रेल लाइन एवं हवाई अड्डा भी शीघ्र यहाँ हो जायेगा। । नहीं आते तो जवाब में दिव्य शक्ति ने कहा कि मैं अपनी मर्यादाओं इस महामहोत्सव की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि | का उल्लंघन नहीं कर सकता। मुनिश्री ने जब पुन: दैवीय शक्ति से पूरे महोत्सव के दौरान नाम मात्र की भी कोई अप्रिय घटना नहीं | पूछा कि आप इस समय कहाँ पर हैं तब वह बिना कोई जवाब हुई। गाँव के जैनेतर लोगों को छोट-छोटे व्यापार के माध्यम से दिये अदृश्य हो गया। लाखें रूपये की आमदनी हुई। यह सब चंद्रप्रभ भगवान, आदिनाथ वर्तमान में सारे नव निर्माण कार्य बड़ी तेजी के साथ प्रगति भगवान् एवं मुनिश्री के आशीर्वाद का ही चमत्कार था जो इतना पर हैं। सारे ही कार्य क्षेत्र कमेटी के निर्णय से प्रस्तावित हुए हैं बड़ा कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हुआ। और सभी कार्यों के पूर्ण होते ही चाँदखेड़ी महाअतिशय क्षेत्र एक दिनांक 7.4.2002 को भूगर्भ से प्राप्त जिनबिंबों के समक्ष पूर्ण विकसति क्षेत्र के रूप में जाना जायेगा। क्षेत्र के वर्षों से लंबित बड़ी भक्तिभाव से शांतिविधान एवं हवन किया गया तत्पश्चात् | भूमि संबंधी सभी विवाद मुनिश्री की दूरदर्शिता एवं प्रबल तीर्थोद्धार तीनों जिनबिंबों को मुनिश्री एवं क्षुल्लकद्वय पुनः गुफा में यथास्थान | भावना एवं चमत्कारिक आशीर्वाद से सुलझ गये हैं। क्षेत्र पर आने विराजमान कर आये। | वाले यात्रियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। महामनीषी आचार्य तुमको प्रणाम! मूकमाटी के कालजयी रचनाकार शतशः प्रणाम! सिद्धिसाधक दिगम्बर शिव तुमको प्रणाम! मूकमाटी के मंगलघट तुमको प्रणाम ! 'असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय' इस वेदवाक्य के सहज साकार रूप जीवन्त कोष, तुमको प्रणाम ! तुमको प्रणाम डॉ. संकटा प्रसाद मिश्र इच्छा, क्रिया, ज्ञान के समन्वय रूप त्रिवेणी-प्रवाह के तीर्थराज तुमको प्रणाम! मिथ्याचारों के विद्रोही स्वर क्रांति के अमर घोष विद्या के सागर, तुमको प्रणाम ! तेजस्वी अंशुमाली समान दिगदिगन्त आलोक पर्व, हे ज्योतिपर्व के ज्ञानदीप उज्वल महिमा से मण्डित महामहिम, सन्त शिरोमणि कबीर तुमको प्रणाम! मई 2003 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतन लाल बैनाड़ा ho जिज्ञासा - क्या श्रीवत्स चिन्ह केवल तीर्थंकरों के | (उ) श्री वरांग चरित्र पृष्ठ 9 पर इस प्रकार कहा हैवक्षःस्थल पर ही पाया जाता है या अन्य महापुरुषों के भी? जिनके वक्षःस्थल में लक्ष्मी के निवास का श्रीवत्स चिह्न समाधान - तीर्थंकरों के वक्षः स्थल पर तो श्रीवत्स का | था, ऐसे महाराजा धर्मसेन (जो महाराज वरांग के पिता थे) चिन्ह होता ही है पर अन्य महापुरुषों के वक्षःस्थल पर भी श्रीवत्स (ऊ) श्री उत्तर पुराण पृष्ठ 430 पर इस प्रकार कहा हैचिन्ह होने के प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं। कुछ प्रमाण इस वीक्ष्य वक्षःस्थले साक्षान्मंक्षु श्रीवत्स लाञ्छनम्। प्रकार हैं स्वपूर्वभवसम्बन्धं प्रत्यक्षीकृत्य चेतसा।।17।। (अ) श्री पद्मपुराण भाग-1, पृष्ठ 156 में इस प्रकार कहा अर्थ- परन्तु उनके वक्षःस्थल पर जो श्रीवत्स का चिन्ह था उसे देखकर (राजा अरविन्द के) हृदय में अपने पूर्व भव का श्रीवत्स मण्डितोरस्को ध्यायतातत विग्रहः। सम्बन्ध साक्षात दिखाई देने लगा। अद्भुतैकरसासक्त नित्य चेष्टो महाबलः। 246 ।। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि तीर्थंकरों के अलावा अर्थ- जरा ध्यान तो करो कि जिसका वक्षःस्थल श्री नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुषों के वत्स के चिह्न से चिह्नित है, विशाल शरीर को धारण करने वाला | तथा अन्य सामान्य राजा धर्मसेन एवं अरविन्द के वक्षःस्थल पर है, जिसकी प्रतिदिन की चेष्टायें एक आश्चर्य रस से ही सनी भी श्रीवत्स का चिन्ह था। रहती हैं, जो महाबलवान है, ऐसा दशानन। जिज्ञासा- इस अवसर्पिणी काल में सबसे पहले मोक्ष (आ) श्री पद्मपुराण भाग-2. पृष्ठ 303 में इस प्रकार कहा | जाने वाले भगवान् बाहुबली थे या भगवान् अनन्तवीर्य? समाधान- अभी तक विद्वानों के द्वारा तथा अन्य छोटी श्रीवत्सकान्तिसंपूर्णमहाशोभस्तनान्तरम्। पुस्तकों के माध्यम से यही सुनने और पढ़ने में आया है कि गम्भीरनाभिवत्क्षाम्मध्यदेशविराजितम्।।57॥ भगवान् अनन्तवीर्य को सर्वप्रथम मोक्ष हुआ। परन्तु प्रथमानुयोग अर्थ- जिनके स्तनों का मध्य भाग श्री वत्स चिह्न की | के शास्त्रों को देखने पर स्पष्ट होता है कि इस सम्बन्ध में आचार्यों कांति से परिपूर्ण महाशोभा को धारण करने वाला था, जो गम्भीर के भिन्न-भिन्न मत हैं। प्रमाण इस प्रकार हैंनाभि से युक्त तथा पतली कमर से सुशोभित थे ऐसे श्रीराम को श्री पद्मपुराण भाग-1, पृष्ठ 62 पर इस प्रकार कहा हैदेखकर हनुमान क्षोभ को प्राप्त हुआ। तत: शिवपदं प्रापदायुषः कर्मणः क्षये। (इ) श्री पद्मपुराण भाग-2, पृष्ठ 385 में इस प्रकार कहा प्रथमं सोऽवसर्पिण्यां मुक्तिमार्ग व्यशोधयत्।।77॥ तदनन्तर आयु कर्म का क्षय होने पर उन्होंने ( श्री बाहुबली एतस्मिन्नन्तरे दिव्यकवचच्छन्नविग्रहो। भगवान्) ने मोक्षपद प्राप्त किया और इस अवसर्पिणी काल में लक्ष्मीश्रीवत्स लमाणौ तेजोमण्डलमध्यगौ॥1॥ | सर्वप्रथम उन्होंने मोक्षमार्ग विशुद्ध किया, निष्कण्टक बनाया।।77 ।। अर्थ- इसी बीच में जिनके शरीर दिव्य कवचों से श्री आदिपुराण भाग-1, पृष्ठ 592 पर इस प्रकार कहा हैआच्छादित थे, जो लक्ष्मी और श्रीवत्सचिह्न के धारक थे, ऐसे संबुद्दोऽनन्तवीर्यश्च गुरोः संप्राप्तदीक्षणः । श्रीराम और श्री लक्ष्मण। सुरैरवाप्त पूजर्द्धिरग्रयो मोक्षवतामभूत्।।181।। (ई) श्री हरिवंश पुराण पृष्ठ 124 पर इस प्रकार कहा है-- अर्थ- भरत के भाई अनन्तवीर्य ने भी सम्बोध पाकर श्री वृक्ष लक्षितोरस्के सचतुःषष्टि लक्षणे। भगवान् से दीक्षा प्राप्त की थी, देवों ने भी उसकी पूजा की थी षोडशे मनुराजेऽस्मिन् विडोजः श्री विडम्बिनि।।135।। | और वह इस अवसर्पिणी युग में मोक्ष प्राप्त करने के लिये सबमें अर्थ-जिनका वक्षःस्थल श्रीवृक्ष के चिह्न से सहित था। अग्रगामी हुआ था। ऐसे श्री भरत चक्रवर्ती। भावार्थ- इस युग में अनन्तवीर्य ने सबसे पहले मोक्ष प्राप्त | किया था (टीका पण्डित पन्नालाल जी सागर)। 22 मई 2003 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट- पाठकों से निवेदन है कि इस सम्बन्ध में और जो । भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों का अवधिज्ञान भी प्रमाण मिलें वे मुझे भेजने की कृपा करें। गर्भ से ही होता है, ऐसा नियम है, परन्तु विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों प्रश्नकर्ता- पण्डित सनतकुमार विनोदकुमार जैन. रजवांस | पर यह नियम लागू नहीं है। जिज्ञासा- तीर्थंकरों का अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है या | जिज्ञासा- औपशमिक सम्यक्त्व एवं क्षायोपशमिक गुणप्रत्यय ? क्या उसे अनुगामी अवधिज्ञान कह सकते हैं? यदि | सम्यक्त्व छूटने के बाद पुन: कब हो सकता है? इनके दूसरी बार भवप्रत्यय है तो आचार्य उमास्वामी महाराज ने इसका उल्लेख होने का अन्तरकाल कितना है? यह कितनी बार तक हो कर छूट क्यों नहीं किया? तीर्थंकरों के अवधिज्ञान जन्म से ही होता है या | सकता है? 8 वर्ष बाद? समाधान- उपशम सम्यक्त्व के दो भेद हैं- प्रथमोपशम समाधान- तीर्थंकरों के अवधिज्ञान को जीवकाण्ड गाथा | एवं द्वितियोपशम । इनमें से प्रथमोपशम सम्यक्त्व छूटने के बाद नं. 371 (भव पच्चयगो....) में भवप्रत्यय कहा है । इसका प्रथम | जघन्य से पल्य के अंसख्यात भाग काल तथा उत्कृष्ट से कुछ कम कारण तो यह है कि तीर्थंकर प्रभु चाहे नरक से आवें या स्वर्ग से, | अर्धपुद्गल परावर्तन काल व्यतीत होने पर हो सकता है। पिछले भव का भवप्रत्यय अवधिज्ञान ही इस भव तक चला आता | (श्री धवला पुस्तक 7, पृष्ठ 233) लेकिन द्वितियोपशम सम्यक्त्व है (जीवकाण्ड बड़ी टीका के अनुसार) लेकिन यह कारण ज्यादा का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ ठीक मालूम नहीं देता। श्री धवला 6/500 के अनुसार सभी कम अर्धपुद्गल परावर्तन कहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान सर्वार्थसिद्धि, विमानवासी देव, देवपर्याय से च्युत होकर मनुष्य हम मनुष्यों के पूरे जीवन काल में केवल एक बार ही प्रथमोपशम गति में अवधिज्ञान सहित उत्पन्न होते हैं। यदि पूर्व भव के भवप्रत्यय सम्यक्त्व हो सकता है। अवधिज्ञान को लेकर आने के कारण ही तीर्थंकरों के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त को भवप्रत्यय माना जाय तो सर्वार्थसिद्धि के सभी देवों का | और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल अवधिज्ञान भी भवप्रत्यय कहा जाना चाहिये, जबकि ऐसा उल्लेख | कहा है। एक जीव के पूरे संसार काल में यह दोनों सम्यक्त्व कहीं भी नहीं मिलता है। इसके अलावा दूसरा कारण, पूज्य | कितनी बार होकर छूट सकते हैं, इस सम्बध में श्री कर्मकाण्ड में आचार्य श्री विद्यासागर जी के कथनानुसार यह भी मानना उचित | इस प्रकार कहा हैहै कि जो विदेह क्षेत्र के तीर्थंकर, दो या तीन कल्याणक वाले होते सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजण विहिं च उक्कस्सं। हैं, उनके जन्म से अवधिज्ञान होना नियामक नहीं है। वे ग्रहस्थ पल्लासंखेजदिमं बारं पडिवजदे जीवो।।618॥ अवस्था में, या मुनि अवस्था में सोलहकारण भावना भाकर तीर्थंकर चत्तारी वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविद कम्मंसो। प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ करके. दो या तीन कल्याणक वाले तीर्थकर बत्तीसं बाराइं संजममुव लहिय णिव्वादि ।।619।। होकर, उसी भव से मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसे जीवों का भी तीर्थंकर अर्थ- प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, देश संयम प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ होते ही, अवधिज्ञान नियम से हो ही जाता और अनन्तानुबन्धि की विसंयोजना की विधि को यह जीव उत्कृष्ट होगा। इसी अभिप्राय को लेकर आचार्य नेमिचन्द्र महाराज ने रूप से पल्य के असंख्यातवें भाग के जितने समय हैं उतनी बार जीवकाण्ड में तीर्थंकरों के अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहा है। | छाड़-छाड़कर पुन: ग्रहण कर स | छोड़-छोड़कर पुन: ग्रहण कर सकता है ।।618 ।। अतः तीर्थंकरों के अवधिज्ञान को भव प्रत्यय ही मानना चाहिये। उपशमश्रेणी पर अधिक से अधिक चार बार ही चढ़ सकता है, पश्चात् क्षपक श्रेणी चढ़कर मोक्ष को ही प्राप्त होता है । सकल जो तीर्थंकर अवधिज्ञान सहित ही जन्म लेते हैं उनके अवधिज्ञान संयम को उत्कृष्ट रूप से बत्तीस बार ही धारण करता है, पश्चात् को अनुगामी भी कहा जा सकता है। मोक्ष प्राप्त करता है। आपका यह प्रश्न बिल्कुल उचित है कि आचार्य उमास्वामी भावार्थ- उपर्युक्त गाथाओं के अनुसार प्रथमोपशम महाराज ने तथा उनके अन्य टीकाकारों ने भवप्रत्ययोऽवधि सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को एक जीव असंख्यात देवनारकाणाम्' में विस्तार करते समय तीर्थंकरों के अवधिज्ञान बार ग्रहण करके छोड़ सकता है, जबकि द्वितियोपशम सम्यक्त्व को भवप्रत्यय क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर भी यही प्रतीत होता है | पूरे संसार काल में चार बार से अधिक बार प्राप्त नहीं कर सकता। कि शायद आचार्य उमास्वामी महाराज और तत्वार्थसूत्र के टीकाकारों १/२०५, प्रोफेसर कॉलोनी का मत भिन्न हो। हरीपर्वत आगरा -२८२००२ मई 2003 जिनभाषित 23 Jain Education Intermational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर प्रतिमा का स्वरुपः एक स्पष्टीकरण कुछ समय पूर्व श्री मूलचन्दजी लुहाड़िया ने इसी शीर्षक से एक टिप्पणी 'जिनभाषित' में प्रकाशित की है, जिसमें मेरे एक वक्तव्य की आलोचना की है। उन्होंने मुझ पर 'पंथ-विमूढ़' होने का मिथ्या आरोप भी लगाया है। लुहाड़िया जी के उस लघु लेख का उत्तर देने का मैं यहाँ प्रयत्न कर रहा हूँ। उसके पहले मैं उनका धन्यवाद करता हूँ कि उन्होंने मेरे कथन की समीक्षा करके मुझे अपनी बात कहने का अवसर दिया है। उचित तो यह था कि जब मेरे कथन में श्री लुहाड़ियाजी को कुछ आलोचनीय बिन्दु नजर आये थे, तब वे मुझसे पूछ लेते । मैं तो अपने वक्तव्य का पूरे पेंतालीस मिनट का कैसेट उन्हें उपलब्ध करा देता । फिर वे उस पर टिप्पणी करते, तो वह नैतिक बात होती, पर खेद है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेरे वक्तव्य की रिपोर्ट का वह पैरा, जिस पर मेरे विद्वान मित्र ने टिप्पणी लिखी है, इस प्रकार है श्री नीरज जैन ने कहा कि भगवान् के गर्भ में आने के पहले से देवी-देवताओं की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है, इसलिये जैन धर्म में शासन देवी देवताओं का बड़ा महत्त्व है। लेकिन आज की स्थिति को देखकर लगता है कि एक दिन वह आयेगा जब दिगम्बर श्वेताम्बर की पहचान को लेकर खड़े होंगे तो दिगम्बरत्व की पहचान के लिये एक ही प्रमाण मिलेगा, वह है जैन देवीदेवता, क्योंकि दिगम्बर व श्वेताम्बरों के देवी-देवता अलगअलग हैं। इसलिये देवी-देवताओं का अंकन ही स्वत्व का प्रमाण होगा।' मैं उस सभा में तीर्थ संरक्षणी महासभा के पुरातत्त्व अधिकारियों के बीच अपनी प्राचीन धरोहर को विनाश से बचा कर संरक्षित रखने के बारे में बोल रहा था। मेरे कथन के प्रतिफल की कल्पना करके विद्वान लेखक ने अपने लेख में जो कुछ निराधार / अशुभ भविष्यवाणियाँ कर डाली हैं, वह सब लुहाड़िया जी का अपना सोच है, उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना । आज कल अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं की अनदेखी करके, कुछ लोग हमारे प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों में जीर्णोद्धार के नाम पर मनमाना परिवर्तन करके उनके मूल स्वरूप को नष्ट करना महान् पुण्य का काम मानकर उसमें संलग्न हैं। महासभा की चिन्ता यह है कि इस प्रकार जीर्णोद्धार के नाम पर अपने जिनायतनों की प्राचीनता को बदलने या नष्ट करने का परिणाम यह हो रहा है कि आज हमारी हजार दो हजार साल की सांस्कृतिक धरोहर का अस्तित्व खतरे में पड़ता लग रहा है। हमें यह समझना चाहिये कि जब हम अपने तीर्थों, मंदिरों और मूर्तियों पर से अपने इतिहास के अभिलेख और अपनी परम्पराओं के प्रतीक मिटाते हैं, मई 2003 जिनभाषित 24 नीरज जैन तब हम उन तीर्थों पर भविष्य में उठने वाले कानूनी विवादों के अवसर पर हमारे स्वामित्व की घोषणा करने वाले कुछ सबलसमर्थ सबूत अपने हाथों नष्ट कर रहे होते हैं। यह एक आत्मघाती कदम है। इस प्रकार मैंने अपने वक्तव्य में प्राचीन मूर्तियों पर अंकित शिलालेखों और मूर्ति लेखों को, तथा शासन देवताओं के अंकन को दिगम्बर समाज का स्वत्व प्रमाणित करने के लिये महत्त्वपूर्ण बताया था । माननीय लेखक ने मेरे वक्तव्य में से 'स्वत्व' शब्द का लोप करके मेरे अभिप्राय को सदोष ठहरा दिया है। उन्होंने शासन देवता मूर्तियों के अंकन को भगवान् जिनेन्द्र की पहचान से जोड़ कर यह टिप्पणी लिख डाली है। यह मेरा दुर्भाग्य है कि जो बात मैंने कही ही नहीं उसका स्पष्टीकरण मुझे देना पड़ रहा है। मेरे पैंतालीस मिनट के विस्तृत वक्तव्य को रिपोर्टर द्वारा लिखी गई। पाँच पंक्तियों के माध्यम से समझने का प्रयत्न अधूरा तो रहेगा ही भ्रामक भी हो सकता है। मुझे विश्वास है कि आदरणीय लुहाड़ियाजी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। यह तो सर्वविदित है कि भगवान जब माता के गर्भ में आते हैं उसके छह माह पूर्व से ही इन्द्र और नरेन्द्र सभी उनके जन्म को महिमा-मण्डित करने में लग जाते हैं। भगवान् के जीवन काल में पग-पग पर हम देवी- देवताओं को उनकी सेवा में संलग्न पाते हैं। यहाँ तक कि अंत में जब भगवान् मोक्ष चले जाते हैं, उसके बाद भी उनके नखकेश विसर्जित करने तक देव और देवियाँ भगवान् की सेवा और जिनधर्म की प्रभावना में जुटे रहते हैं । ज्ञान-कल्याणक तक शासन देवताओं की भूमिका का उल्लेख आचार्य प्रणीत शास्त्रों में नहीं मिलता। सर्व प्रथम वे भगवान् के केवलज्ञान कल्याणक से, धर्म सभा में अनुशासन और जिनशासन की प्रभावना बढ़ाने में उपस्थित मिलते हैं। 'शासन देवता' शब्द में शासन देव ओर देवियाँ दोनों समाहित हो जाते हैं। उदाहरण के लिये धरणेन्द्र को शासन देवता कहते हैं और देवी पद्मावती को भी शासन देवता कहा जाता है। इस शब्द का प्रयोग देव और देवी दोनों के लिये होता है। इनके लिये 'शासन यक्ष और 'शासन यक्षी' अथवा 'यक्ष-यक्षिणी' शब्द का भी व्यवहार होता है। किसी को ऐसा भ्रम हो कि ये यक्ष-यक्षिणी जैन धर्म में थे ही नहीं, कुछ आचार्यों द्वारा इन्हें सनातन धर्म से ग्रहण किया गया हैं, तो उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि सनातन धर्म में कहीं किसी यक्ष - यक्षी का नामोल्लेख तक नहीं है। जो वहाँ हैं ही नहीं, उन्हें Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ से ग्रहण करने की धारणा कहाँ तक ठीक है सो विचार करना । सत्ताईस अंको में 'जय गोमटेश' नाम से धारावाहिक में प्रकाशित चाहिये। 'यक्ष-पक्षी' नाम और 'शासन-देवता' पद का उल्लेख | किया। बाद में श्रीमान साहू अशोक कुमार जी के आग्रह पर मैंने केवल श्रमण परम्परा में ही उपलब्ध होता है। ये हमारी सांस्कृतिक | उस लेखमाला का सम्पादन करके 'परम दिगम्बर गोमटेश्वर' परम्परा के ही अंग हैं, कल्पित या किन्हीं अन्य मत-मतान्तरों से | पुस्तक तैयार की जो वीर सेवा मंदिर दिल्ली से प्रकाशित होकर लाये हुए आगंतुक नहीं हैं। बड़ी संख्या में वितरित की गई। बाद में उसके कन्नड और मराठी इस संबंध में मुझे अपने विद्वान भाई से यही कहना है कि अनुवाद भी प्रकाशित हुए। समीक्षकों ने इसे दिगम्बरों के स्वामित्व मैंने 'वीतरागी दिगम्बर मुद्रा की पहचान के लिये देवी-देवताओं | का बहुमूल्य दस्तावेज कहा था। अपने प्रलाप का यह मुँहतोड़ के अंकन को मुख्य प्रमाण नहीं कहा। तीर्थों और मन्दिर-मूर्तियों उत्तर पाने के बाद उन स्वयंभू आचार्य की बोलती अभी तक बंद पर श्वेताम्बरों द्वारा स्वामित्व का विवाद खड़ा किये जाने की स्थिति में हमारे शिलालेखों. मूर्तिलेखों और मूर्तियों पर इन देवी- | लुहाड़ियाजी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि- 'दिगम्बर देवताओं का अंकन भी हमारे स्वत्व का प्रमुख प्रमाण हो सकता | प्रतिमा का श्वेताम्बर प्रतिमा से अलग पहचान कराने वाला मुख्य है' ऐसा ही कहा है। मेरा पूरा वक्तव्य श्री लुहाड़िया के ध्यान में लक्षण वीतरागता व नग्नत्व है न कि देवी-दवताओं का अंकन?' होता तो, उन्हें मुझ पर ऐसा आरोप लगाने की आवश्यकता नहीं यह बात अपनी जगह एकदम ठीक है। हर श्रावक इस बात को पड़ती। यदि वे चाहते तो मैं अपने वक्तव्य का पूरे पैंतालीस मिनट समझता और स्वीकार करता है। परन्तु जब किसी न्यायालय में का कैसेट उन्हें उपलब्ध करा देता। फिर वे उस पर टिप्पणी करते | किसी प्रतिमा के स्वामित्व का विवाद प्रस्तुत होता है, तब उस पर तो वह नैतिक बात होती। लेखक का धर्म तो यही है, पर उन्होंने दिगम्बर समाज का स्वत्व' सिद्ध करने के लिये मूर्ति की वीतरागता ऐसा नहीं किया। और नग्नत्व न्याय की दृष्टि में निर्णायक साक्ष्य नहीं माने जाते। प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों पर से पूर्व स्थापित देवी- | इसका कारण यह है कि ऐसा सभी विवादों में श्वेताम्बरों का देवताओं की आकृतियों को मिटाने या हटाने को मैंने सदा अनुचित कथन यह होता है कि वे दिगम्बर और श्वेताम्बर, अथवा सवस्त्र माना है, परन्तु नवीन प्रतिमाओं पर देवी-देवताओं का अंकन मैंने और वस्त्र-विहीन, दोनों प्रकार की मूर्तियाँ पूजते हैं। अंतरिक्ष कहीं अनिवार्य घोषित नहीं किया। कहीं भी यदि ऐसा किया हो | पाश्वनाथ, श्रीमहावीरजी. केसरियाजी, मक्सीजी, कुलपाक, नेपानी तो लुहाड़िया जी बतायें, मैं उसका स्पष्टीकरण करने के लिये | आदि क्षेत्रों के विवाद उन्होंने इसी प्रकार खड़े किये हैं। तीन-तीन तैयार हूँ। प्राचीन मूर्तियों का संरक्षण अलग बात है और नवीन का | पीढ़ियों से यह लड़ाई हम लड़ रहे हैं। भगवान् के दिगम्बर और निर्माण बिलकुल अलग बात है। वीतराग होने मात्र से हमें वहाँ अपना 'स्वत्व' स्थापित करने में तीर्थों पर आक्रमण का श्वेताम्बरों का दौर अभी भी थमा | सहायता नहीं मिल रही। हमें अपने स्वत्व की मान्यता के लिये नहीं है। उनके पास सौ -दो सौ साल का निर्धारित कार्यक्रम है और प्रमाण आवश्यक होते हैं। और उनका यह अभियान बराबर चल रहा है। अभी आठ-दस | श्वेताम्बरों की ओर से जहाँ भी विवाद उठाये गये हैं वे न साल पहले श्रवणबेलगोल जैसे तीर्थ पर वह आक्रमण हो चुका | तो बीसपंथी समाज के खिलाफ हैं न तेरापंथ के खिलाफ हैं। है। एक श्वेताम्बर आचार्य ने गुजराती में एक पुस्तक लिख कर लुहाड़ियाजी, बैनाड़ा जी या भारिल्ल जी की विचारधारा के खिलाफ सारे देश में प्रचारित की थी जिसमें था कि भी वे झगड़े नहीं उठाये गये हैं। श्वेताम्बरों ने तो दिगम्बर धर्म 'गोमटेश्वर बाहुबली स्वामी की मूर्ति मूलत: श्वेताम्बर | और संस्कृति पर ही आक्रमण किया है। ऐसी स्थिति में क्या ऋषि सुहस्ति स्वामी की सम्राट् सम्प्रति के द्वारा निर्मित, दो हजार | दिगम्बर समाज को, अपने आपसी मतभेद दरकिनार करके उन वर्ष प्राचीन श्वेताम्बर प्रतिमा थी। दसवीं शताब्दी में दिगम्बर | उपद्रवों का सामना नहीं करना चाहिये? क्या हमें ऐसा वातावरण आचार्य नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय के साथ मिलकर षडयंत्र रचा | बनाकर नहीं रखना चाहिये कि अवसर आने पर हम अपने स्वत्व' और मूर्ति की चादर छीलकर उसकी जगह बेलें बना कर उसे | की रक्षा के लिये संगठित होकर कोई कदम उठा सकें? इसीलिये बाहुबली के नाम से प्रचारित कर दिया । मूलत: वह प्रतिमा दिगम्बरों | मेरी चेतावनी थी कि- 'आगे हमारे तीर्थों पर जहाँ भी विवाद की नहीं श्वेताम्बरों की है।' उठाये जायेंगे वहाँ हमारी प्राचीन धरोहर, हमारे शिलालेख, मृतिलेख इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिये मैंने उस पुस्तक या प्रतिमाओं पर अंकित चिह्न, प्रतीक और शासन-देवताओं की का गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करके समाज की सभी शीर्षस्थ | आकृतियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में काम आयेंगे। उस संस्थाओं को भेजा, पर एक महासभा को छोड़ कर किसी संस्था | समय वहाँ हमारी प्राचीनता ही हमारे 'स्वत्व' का प्रमाण बनेगी।' ने उस पर ध्यान नहीं दिया। तब मैंने उस पुस्तक का उत्तर लिखा उदाहरण के लिये, भगवान् न करे कि कभी ऐसा हो, पर जिसे सुधी सम्पादक प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी ने जैन गजट के । यदि मौ-दो सौ साल बाद भी कुण्डलपुर जैसे तीर्थ पर कोई मई 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाद डाला जायेगा, तो उस समय वहाँ हमारे मन्दिर निर्माण की । क्षमायाचना करनी पड़ी और आगे कभी फिर कहीं ऐसा नहीं प्राचीन शैली. महाराज छत्रसाल का तिथि-संवत् सहित अभिलेख करने का लिखित आश्वासन देना पड़ा था। और शिलालेखों में भट्टारकों का उल्लेख हमारे पक्ष का समर्थन 1 संक्षेप में इतना ही मुझे कहना है कि प्राचीन काल से करेगा। सबसे महत्त्वपूर्ण और आकट्य साक्षी तो बड़ेबाबा के | पाषाण पर अहंत भगवान् का समवशरण बनाने की प्रथा रही है। आसन के गोमुख यक्ष और देवी चक्रेश्वरी ही बनेंगे, क्योंकि श्वेताम्बर | अष्ट-प्रातिहार्य युक्त भगवान् जिनेन्द्र की सम्पूर्ण छवि उन मूर्तियों मान्यता में ऋषभदेव के शासन देवताओं का स्वरूप अलग प्रकार | में अंकित की जाती थी। जिन शासन की सेवक-शक्तियों के रूप का कहा गया है और श्वेताम्बर परम्परा में भट्टारक पद ही नहीं है। में शासन देवताओं को सिंहासन पर अंकित किया जाता था। इस यही वह पृष्ठभूमि है जिसे लेकर मैं उस दिन लखनऊ में | सांगोपांग प्रतिमा को मूर्ति नहीं, समवशरण कहने की ही प्रथा महासभा के कर्णधारों को तथा तीर्थ संरक्षणी महासभा के पुरातत्त्व | हमारे पूर्वजों की रही है। जहाँ ऐसी रचना है उन्हें नष्ट करने या अधिकारियों को अपनी प्राचीन धरोहर की महत्ता समझाते हुए, | स्थानान्तरित करना उचित नहीं है और दिगम्बर समाज के लिये उसके संरक्षण की प्रेरणा दे रहा था। मैं कह रहा था कि प्राचीन | अहितकर है, यही मेरी विनय है। धरोहर का विनाश एक भयंकर पाप है अत: दिगम्बर समाज को | प्राचीन तीर्थों के संरक्षण और सार-सम्हार' के विषय में इस पाप से बचना चाहिये। मैंने तीर्थंकर प्रतिमाओं पर शासन | यही मेरा वह वक्तव्य था, जिसकी रिपोर्ट को लेकर भाई लुहाड़िया देवताओं को अंकित कराने का कभी न तो परामर्श दिया है और | जी ने इतनी अनावश्यक और असंबद्ध कल्पनाएँ कर डाली हैं। न कहीं ऐसा कोई आग्रह किया। मेरा आग्रह केवल यह था और | प्रायः विचारों के टकराव से पंथ बन जाते हैं, परन्तु मेरा अटल अभी भी है कि जहाँ प्राचीन मंदिरों में या मूर्तियों पर शासन- विश्वास है कि जैन समाज के सभी पंथों के अनुयायी हर भाईदेवताओं का अंकन तथा अभिलेख आदि हैं उन्हें पंथ-व्यामोह में बहिन के मन में भगवान् जिनेन्द्र के प्रति अगाध भक्ति और आस्था पड़कर नष्ट करना जैन संस्कृति के लिये हानिकर है, जरा भी होती है। मैं सदा उस आस्था को प्रणाम करता हूँ। मैं दिगम्बर लाभप्रद नहीं है। समाज की हर परम्परा का आदर करता हूँ और किसी भी परम्परा जहाँ तक शासन देवताओं की पूजा या भक्ति का प्रश्न है को दोषपूर्ण बताने या परिवर्तित करने में मेरी कोई रुचि नहीं है। इस विषय में मैंने अपनी ओर से पक्ष-विपक्ष में अभी तक कहीं पर जब मुझ पर ऐसे द्वेषपूर्ण ओछे आरोप मढ़े जाते हैं, तब मुझे कुछ नहीं लिखा। 'जिन-भाषित' के यशस्वी सम्पादक डॉ. रतनचन्द्र | असह्य पीड़ा होती है। विशेषकर जब वे आक्षेप किसी विद्वान मित्र जैन का परामर्श मुझे शास्त्र-सम्मत और उपयुक्त प्रतीत होता है | के द्वारा मेरे कथन को तोड़-मरोड़ कर, मुझे एकान्तवादी या पंथकि वे देवगति के संसारी प्राणी हैं, भगवान् जिनेन्द्र के समान पूजा विमूढ़ सिद्ध करने के अभिप्राय से लगाये गये हों, तब वह पीड़ा के अधिकारी नहीं है, परन्तु भगवान् के भक्त होने के कारण हमारे | चारगुनी हो जाती है। सम्मान के पात्र हैं। मैं अब सतहत्तर पार कर रहा हूँ। जानता हूँ अधिक समय यह मेरा आज का नहीं सदा का अनुरोध रहा है। अभी | अब मेरे पास नहीं है। इतनी ही मेरी विनय है कि अपने पचास1997 में जब सोनगढ़पंथी भाइयों ने हिम्मतनगर की सोलह मूर्तियों पचपन वर्षों के खट्टे-मीठे अनुभवों के बल पर, अपनी पूरी निष्ठा के अभिलेख घिसवाकर उन पर अपने लेख खुदवा लिये थे तब के साथ जैन संस्कृति की हित-कामना लेकर जो मैं कह रहा हूँ मैंने ही उस पर आपत्ति उठाकर उन पर अभियोग चलाने की | कृपया उसे सुनने-गुनने और समझने का प्रयत्न करें। यदि ऐसा न धमकी दी थी। परिणामत: उन्हें अपना अपराध स्वीकार करना | कर सकें तो उसके अर्थ के अनर्थ करके मेरी मंगल मनीषा को पड़ा, उसके लिये उनके मूर्धन्य पदाधिकारियों को प्रतिष्ठाचार्य | दृपित रूप में प्रचारित करके मेरे प्रति अन्याय तो न करें। सहित साहू अशोक कुमार जी से पंचाट कराकर, जयपुर में सुषमा प्रेस कम्पाउण्ड सतना - ४८५ ००१ दिगम्बराचार्य पूज्य विद्यानन्दजी महाराज के समाने खड़े होकर आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित * पंच परमेष्ठी की आराधना विषयकषायों से बचने के लिए होती है। पाप से भीति बिना भगवान् से प्रीति नहीं और भगवान् से प्रीति बिना आत्मा की प्रतीति नहीं। * प्रभु का अवलम्बन लेकर प्रभु बना जा सकता है। 26 मई 2003 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दिगम्बर प्रतिमा का स्वरूप स्पष्टीकरण' की समीक्षा मूलचन्द लुहाड़िया मेरे लघु लेख पर एक बृहत् स्पष्टीकरण सम्माननीय विद्वान । आधारहीन हल्की बातें कैसे लिखी गईं। उनके मन में संदेह का नीरज जी द्वारा 'जैन गजट' में प्रकाशित हुआ। जब तक भाषा और | साँप कुंडली मार कर बैठा है और इसी कारण सीधी बात भी भावना शुभ बनी रहे तब तक लेख-प्रतिलेख की परंपरा चलाते | आरोपात्मक या निंदात्मक प्रतीत हो रही है। मैं तो यह दृढ़तापूर्वक रहने में कोई बुराई नहीं है। अत: मैं उनके स्पष्टीकरण की समीक्षा | कहता हूँ कि अन्य व्यक्ति नहीं स्वयं नीरज जी भी यदि मेरे लेख के लिए उद्यत हूँ। को संदेह का रंगीन चश्मा उतार कर पढेंगे, तो पायेंगे कि लेख में जैन जगट में छपा श्री नीरज जी का वक्तव्य अपने आप में | कहीं दूर तक भी आरोप या द्वेष की गंध तक नहीं आती। स्पष्ट था। मुझे अवधिज्ञान तो था नहीं कि मैं यह जान पाता कि यह | किसी के मत से असहमति व्यक्त करना अभिव्यक्ति की वक्तव्य उनके किसी 45 मिनट के लम्बे भाषण का सार मात्र है । स्वतंत्रता का पवित्र अधिकार है, उसको "द्वेषपूर्ण ओछे आरोप" और मैं अपनी बात लिखने के पहले श्री नीरज जी से उनके भाषण की संज्ञा देकर लांछित करना कम से कम ऐसे उत्कृष्ट विद्वान के की कैसिट माँगाकर सुनता। किसी भाषण की पृष्ठभूमि की जानकारी | लिए तो उपयुक्त नहीं है। कितना अच्छा हो, यदि हम आपस में के अभाव में जैन गजट में छपी बात को सही मानकर टिप्पणी वात्सल्यभाव से चर्चा करने के अभ्यासी बनें और निराधार संदेह करना अनैतिक है, तो मैं उन से इसके लिए क्षमा माँग लेता हूँ। की दुर्गंध से अपनी भाषा और भावना को दृषित नहीं होने दें। यह चलिए अब तो आपने बहुत विस्तृत स्पष्टीकरण दिया है, | तभी संभव है जब हम मतभिन्नता को अपना विरोध अथवा उसी पर निष्पक्ष भाव से प्रेमपूर्वक कुछ चर्चा कर लेते हैं। यह | अनादर समझ बैठने की भूल नहीं करें और दृष्टिकोण की उदारता देखकर मुझे अत्यधिक आश्चर्यमिश्रित खेद हुआ कि स्पष्टीकरण में | और व्यापकता का सहारा लेकर सहनशील बनें। पहले, बीच में और अंत में मुझ पर दोषारोपण के रूप में निम्न । यद्यपि पहले प्रकाशित वक्तव्य में सम्माननीय विद्वान ने वाक्य लिखे गये हैं लिखा है "एक दिन वह आयेगा जब दिगम्बर-श्वेताम्बर की "उन्होंने मुझ पर पंथविमूढ़ होने का मिथ्या आरोप लगाया | पहचान को लेकर विवाद खड़े होंगे, तो दिगम्बरत्व के लिए एक ही प्रमाण मिलेगा वह है जैन देवी-देवता", किंतु स्पष्टीकरण"मेरे कथन के प्रतिफल की कल्पना करके विद्वान लेखक | लेख में लिखा है ... "मैंने वीतरागी दिगम्बर मुद्रा की पहचान के ने अपने लेख में कुछ निराधार अशुभ भविष्यवाणियाँ कर डाली लिए देवी-देवताओं के अंकन को मुख्य प्रमाण नहीं कहा।" मेरे लेख का मुख्य बिंदु यही है कि दिगम्बर प्रतिमा की पहचान में "भाई लुहाड़िया जी ने इतनी अनावश्यक और असंबद्व देवी-देवताओं का अंकन मुख्य प्रमाण नहीं है। मेरे विद्वान अग्रज कल्पनाएँ कर डाली हैं" ने उक्त बात अपने स्पष्टीकरण में एक नहीं दो स्थानों पर स्वीकार "जब मुझ पर द्वेष पूर्ण ओछे आरोप गढ़े जाते हैं, तब मुझे | की है। यदि वे यह बात स्वीकार करते हैं, तो उनके इतने लंबे असह्य पीड़ा होती है। विशेषकर जब वे आक्षेप किसी विद्वान मित्र स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। द्वारा मेरे कथन को तोड़ मरोड़कर मुझे एकांतवाद या पंथविमृढ़ | आगे आदरणीय विद्वान ने लिखा है "परंतु जब किसी सिद्ध करने के अभिप्राय से लगाए गए हों, तब यह पीड़ा चार गुनी न्यायालय में किसी प्रतिमा के स्वामित्व का विवाद प्रस्तुत होता है हो जाती है।" तब उस पर दिगम्बर समाज का स्वत्व सिद्ध करने के लिए मूर्ति "उसके अर्थ के अनर्थ करके मेरी मंगल मनीषा को | की वीतरागता और नग्नत्व न्याय की दृष्टि में निर्णायक साक्ष्य नहीं दृषित रूप में प्रचारित करके मेरे प्रति अन्याय तो न करें।" माने जाते। इसका कारण यह है कि ऐसे सभी विवादों में श्वेताम्बरों मैंने अपने लेख को बार-बार पढ़ा, किंतु मुझे कहीं भी का कथन यह होता है कि वे दिगम्बर, श्वेताम्बर अथवा सवस्त्र आदरणीय श्री नीरज जी के प्रति प्रत्यक्ष - परोक्ष किसी भी प्रकार | और वस्त्रविहीन दोनों प्रकार की मूर्तियाँ पूजते हैं।'' मैं नम्रतापूर्वक का कोई आरोप लगाया हुआ ही नहीं, अपितु आरोप लगाये जाने | विद्वान लेखक के विचारों से अपनी असहमति प्रकट करता हुआ की भावना तक का किंचित् भी आभास नहीं मिला। मैंने केवल । यह जोर देकर बताना चाहता हूँ कि श्वेताम्बर ग्रंथों के अनुसार तथ्यात्मक विवेचन किया है, आरोपात्मक नहीं। मैंने नीरज जी का | नग्न प्रतिमा अपृज्य होती है। श्वेताम्बर ग्रंथ प्रवचनपरीक्षा ( रायता उम्र, ज्ञान और अनुभव में वृद्ध होने के नाते सदा आदर किया है। | उपाध्याय धर्म सागर ) की गाथा 30-31 में वस्त्र धारण करने के आश्चर्य है कि ऐसे परिपक्वबुद्धि विद्वान् को लेखनी से ऐसी । पक्ष में लिखा है कि "वस्त्र धारण करने से लोकाचार रूप धर्म का - मई 2003 जिनभापित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालन होता है और लज्जा अर्थात् संयम की रक्षा होती है । वस्त्र धारण न करने पर मनुष्य गर्दभ आदि के समान निर्लज्ज हो जाता है। निर्लज्ज पुरुष चारित्र का पालन कैसे कर सकता है? वस्त्रधारी में लज्जा होती है. जिससे ब्रह्मचर्य पलता है। अन्यथा जैसे घोड़ी को देखने से घोड़े के लिंग में विकार उत्पन्न हो जाता है वैसे स्त्री को देखने से मुनि के लिंगादि में विकार उत्पन्न हो जाने पर जिन शासन की निंदा होने के साथ अब्रह्मसेवन आदि बहुत से दोष सर्वजन - विदित हो सकते हैं। तथा वस्त्रधारण करने से शीतोष्ण काल में शीतादि की पीड़ा न होने से धर्मध्यान और शुक्लध्यान निर्बाध सम्पन्न होते हैं। नग्न रहने पर शीतादि की बाधा से तथा उसके निवारण हेतु अग्नि प्रज्वलित करने की इच्छा होने से दुर्ध्यान होता है। नग्न मुनियों को देखकर लोग सोचते हैं, अरे! ये मुंडे, पापी हमारी बहू-बेटियों को मुँह से नाम न लेने योग्य अंग (लिंग) दिखलाते हुए लज्जित नहीं होते !" आगे वे लिखते हैं कि तीर्थंकर इन्द्र द्वारा लाए गए देव दृष्य वस्त्र को ग्रहण करते हैं। नग्न होने पर उनके शुभ प्रभा मंडल से गुहय प्रदेश वस्त्रवत् ही आच्छादित रहता है। फल स्वरूप उनके रूप को देखकर स्त्रियों में काम विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः तीर्थंकर वस्त्ररहित होते हुए भी वस्त्र धारण करने वाले के सदृश दिखाई देते हैं। इसीलिए प्रतिमा में गुह्यप्रदेश दृष्टिगोचर हो रहा हो, तो वह श्वेताम्बरमान्य तीर्थंकर प्रतिमा नहीं हो सकती हैं। अतः प्राचीन काल में श्वेताम्बर परंपरा में तीर्थंकरों की प्रतिमा अप्रकट गुह्य- प्रदेशवाली अर्थात् निर्वस्त्र भी अनग्न होती थी। तीर्थकरों का गृहयप्रदेश वस्त्रवत् ही उनके शुभ प्रभा मंडल से आच्छादित रहता है, जिससे वह धर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं देता । वस्त्रपरिधान के अभाव में भी तीर्थंकरों के लोकाचार रूप धर्म का अभाव नहीं होता अतः वे वस्त्रधारीवत् ही होते हैं। अतः श्वेताम्बरों के लिए वे इसी रूप में पूज्य हो सकते हैं, लज्जा, संयम ब्रह्मचर्यादि गुणों के भंजक लोकनिन्दित बीभत्स नग्नरूप में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि पूजा के लिए उनकी प्रतिकृति (प्रतिमा) भी इसी रूप में गुह्यप्रदेश के प्रदर्शन से रहित तथा देव दृष्य वस्त्र से अंशत: आच्छादित रूप में ही निर्मित की जा सकती थी। जिस प्रतिमा में गुह्यप्रदेश दृष्टिगोचर हो वह श्वेताम्बरमान्य तीर्थंकर प्रतिमा नहीं हो सकती थी। यद्यपि पं. नाथूराम जी प्रेमी ने एक स्थान पर 'जैन साहित्य और इतिहास' में लिखा है कि प्राचीन काल में दिगम्बर श्वेताम्बर प्रतिमाएँ एक ही प्रकार की होती थीं. किंतु यह कथन विश्वसनीय नहीं है। क्योंकि जब श्वेताम्बर तीर्थंकरों के शरीर में लिंगादि प्रदेश दिखाई नहीं देना मानते हैं तो उनकी प्रतिमाओं में लिंगादि कैसे पाए जा सकते हैं। अतः यह मानना सर्वथा असंगत हैं कि श्वेताम्बर परंपरा में भी नग्न जिन प्रतिमाओं का निर्माण एवं पूजन होता था।" श्वेताम्बर मत नग्न लिंग को जिन लिंग नहीं मानता। इसका स्पष्टीकरण 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' ग्रंथ के लेखक श्वेताम्बर मुनि मई 2003 जिनभाषित 28 आत्माराम जी ने इस प्रकार किया है प्रश्न- भगवान् तो दिन रात वस्त्र रहित ही रहते हैं अतः जिनवर की प्रतिमा के लिंग का आकार होना चाहिए? उत्तर- जिनेन्द्र के तो अतिशय के प्रभाव से लिंगादि दिखाई नहीं देते तो फिर जिनवर के समान तुम्हारा बिम्ब कैसे सिद्ध हुआ? अपितु नहीं हुआ। और तुम्हारे मत के खड़े योगासन लिंगवाली प्रतिमा के देखने से स्त्रियों के मन में विकार होना संभव है। जैसे सुंदर भगकुचादि आकार वाली स्त्री की मूर्ति देखने से पुरुष के मन में विकृति हो जाती है वैसे ही नग्न पुरुष की मूर्ति को देखकर स्त्रियों के मन में विकार आए बिना नहीं रह सकता। मुनि श्री आत्माराम जी ने यह कहा है कि जिनेन्द्र के अतिशय के प्रभाव से लिंगादि दिखाई नहीं देते अतः प्रतिमा में भी लिंग नहीं बनाया जाना चाहिए। मुनि कल्याण विजय जी लिखते हैं- " आज से 2000 वर्ष पहले मूर्तियाँ इस प्रकार बनाई जाती थीं कि बैठी तो क्या खड़ी मूर्ति भी नग्न नहीं दिखती थी। उनके वाम स्कंध से देवदृष्य वस्त्र का अंचल दक्षिण जानु तक इस खूबी से नीचे उतारा जाता था कि आगे और पीछे का गुह्य भाग उससे आवृत हो जाता था और वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लग सकता था। विक्रम की छठी सातवीं सदी तक खड़ी मूर्तियाँ इसी प्रकार बनी हुई दृष्टिगोचर होती हैं, किंतु उसके परवर्ती समय में जैसे-जैसे दिगम्बर सम्प्रदाय व्यवस्थित होता गया वैसे-वैसे उसने अपनी मूर्तियों का अस्तित्व पृथक दिखाने के लिए जिन मूर्तियों में भी नग्नता दिखाना प्रारंभ कर दिया। गुप्त काल के बाद दिगम्बरों ने जितनी भी जिन मूर्तियाँ बनाई हैं वे सब नग्न हैं। श्वेताम्बर मूर्तियाँ नग्न नहीं होतीं, किंतु उनमें कच्छ तथा अंचलिका आदि ग्यारहवीं शताब्दी के बाद ही बनने लगे थे। मुनिश्री का उपर्युक्त मत प्रवचनपरीक्षाकार के मत से मिलता है अतः इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि नग्न जिन प्रतिमा चाहे प्राचीन हो या अर्वाचीन श्वेताम्बर परंपरा की नहीं हो सकती । बहुश्रुत विद्वान स्व. पं. अजित कुमार जी शास्त्री ने 'श्वेताम्बर मत समीक्षा' में लिखा है कि मथुरा के कंकाली टीले में से निकली प्राचीन प्रतिमाओं के विषय में कतिपय श्वेताम्बरी सज्जनों की ऐसी धारणा है कि वे श्वेताम्बर प्रतिमाएँ हैं, पूरी तरह भूल भरी हैं वे दिगम्बर प्रतिमाएँ हैं क्योंकि वे पूर्णतः नग्न हैं। कहीं भी और कभी भी नग्न मूर्तियों को श्वेताम्बरों ने पूज्य नहीं माना है। नग्न मूर्ति हो और वह श्वेताम्बरी हो ऐसा परस्पर विरुद्ध कथन हास्य जनक है।" 1 निष्कर्ष यह है कि नग्न जिन प्रतिमाएँ दिगम्बर परंपरा की देन हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा पहले ऐसी जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया गया जो न वस्त्र धारण करती थीं और न नग्न थीं। आगे चलकर उनके सामने अंचलिका रखी जाने लगी और उससे भी आगे चलकर वीतराग जिन प्रतिमा को राजसी वेशभूषा सं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकृत किया जाने लगा। इस प्रकार नग्न प्रतिमा का संबंध । पूजा अर्चना करते रहने के आधार पर श्वेताम्बरों ने मूर्ति की पूजा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से कभी नहीं रहा। श्वेताम्बरों के लिए नग्न | का अधिकार प्राप्त कर लिया है। श्वेताम्बरों ने योजना बद्ध तरीके मूर्तियों अपूज्य होती हैं और दिगम्बर सम्प्रदाय में अनग्न मूर्ति | से गत काल में अपनी पद्धति से पूजा अर्चना किए जाने के ठोस अपूज्य होती है। साक्ष्य जुटाए हैं। केसरिया जी में समय-समय पर उदयपुर से अस्तु प्रतिमा के स्वत्व संबंधी विवाद उपस्थित होने पर प्रभावशाली श्वेताम्बर लोग आते और दिगम्बरों की उदारता और हमें केवल और एक मात्र नग्नता को ही प्रमाण मानने पर स्थिर | अदूरदर्शिता का लाभ उठाते हुए अपनी पद्धति से पूजा करते। रहना चाहिए, तभी हम अपने तीर्थों और मूर्तियों को सुरक्षित रख | धीरे-धीरे उन्होंने मूर्ति को आंगी और आभूषण भी पहनाने प्रारम्भ पायेंगे। हमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ यह घोषणा करनी कर दिये। इन पूजाओं के उल्लेख उन्होंने मंदिर के खम्भों और चाहिए कि नग्न मूर्ति श्वेताम्बर परंपरा में कभी पूज्य नहीं मानी | दीवारों पर उत्कीर्ण करा दिये। बाद में उन्होंने तत्कालीन शासन व गई। प्रमाण का यह आधार हमारे अस्तित्व का आधार सिद्ध | न्यायिक व्यवस्था में अपने प्रभाव का उपयोग कर उक्त साक्ष्यों के होगा। देवी-देवताओं का अंकन बहुत कम मूर्तियों पर पाया जाता आधार पर पूजा के अधिकार का निर्णय प्राप्त कर लिया। अभी भी है। जिन पर नहीं पाया जाता उनके लिए तो निर्विवाद रूप से | श्वेताम्बर लोग वस्त्र, आंगी, आभूषण नेत्र आदि का प्रयोग कर नग्नता ही हमारे स्वत्व का प्रमाण है। किंतु देवताओं का अंकन लिंगादि को आच्छादित कर ही प्रतिमा की पूजा करते हैं। मृर्ति की होते हुए भी नग्नता तो मूर्ति के दिगम्बर होने का उद्घोष करेगी | नग्नता को पूर्व काल में वस्त्रादि से आच्छादित करते रहने की ही। देवताओं के अंकन युक्त अनग्न मूर्ति दिगम्बर नहीं है और दीर्घकालीन परिपाटी के आधार पर ही वे पूजादि का अधिकार देवताओं के अंकन के बिना भी नग्न मूर्ति दिगम्बर है। प्राप्त कर पाए हैं। यद्यपि अब स्थिति-परिवर्तन अत्यंत कठिन है अब समस्या केवल यह है कि जिन नग्न मूर्तियों पर भी | तथापि अभी भी मूर्ति का मूल स्वरूप नग्न होने के आधार पर श्वेताम्बर अपना स्वत्व घोषित कर रहे हैं, वहाँ हमें क्या करना | श्वेताम्बर आगमानुसार मूर्ति के श्वेताम्बरों के द्वारा पूज्य नहीं होने चाहिए। समस्या के संबंध में गहन चिंतन करने पर हम इसी | का बिंदु प्रभावी ढंग से उठाया जाये तो कदाचित् किंचित् अनुकूल निर्णय पर पहुंचेंगे कि हमें श्वेताम्बर ग्रंथों के प्रमाण एवं श्वेताम्बर | परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। विद्वानों के विचारों के आधार पर इस बात को प्रमाणित और आपने स्वयं लिखा है कि गोमटेश्वर बाहुबलि की मूर्ति पर प्रचारित करना चाहिए कि कभी भी नग्न मूर्ति श्वेताम्बर नहीं होती | अपना अधिकार जताने के लिए श्वेताम्बर आचार्य ने यही तर्क और श्वेताम्बर उसको पूज्य नहीं मानते । यदि कहीं हम हारे हैं तो | दिया कि मूर्ति मूलत: नग्न नहीं थी, वस्त्रसहित थी। किंतु दिगम्बर उक्त मान्यता को ठीक से प्रस्तुत नहीं करने के कारण हारे हैं और आचार्य ने षडयंत्र रचकर उस मूर्ति पर उत्कीर्ण वस्त्र को छीलकर अब जब कभी हम जीतेंगे तो उपर्युक्त मान्यता को प्रमाणित प्रचारित | बेलें बना दी, किंतु मूलत: यह प्रतिमा दिगम्बरों की नहीं श्वेताम्बरों करके ही जीतेंगे। की है। यहाँ भी श्वेताम्बर आचार्य ने यह माना है कि निर्वस्त्र नग्न माननीय पं. नीरज जी द्वारा उल्लिखित तीर्थों की वस्तुस्थिति | प्रतिमा श्वेताम्बर प्रतिमा नहीं होती। के बारे में भी हम विचार कर लेते हैं। अंतरिक्ष पार्श्वनाथ क्षेत्र की | जैन इतिहासकारों ने लिखा है कि प्रारंभ में प्रतिमा विज्ञान मूलनायक प्रतिमा के बारे में प्रिवीकोंसिल से यह निर्णय हुआ था में शासन देवी-देवताओं का कोई अस्तित्व नहीं था। मध्य युग में कि मूर्ति पर कोपीन कंडोरा अंकित होने से वह श्वेताम्बर प्रतिमा जब तान्त्रिकता बढ़ी तो जैन धर्म भी उससे अप्रभावित नहीं रहा। है। प्रतिमा को नन सिद्ध नहीं करने के कारण प्रिवी कोंसिल का जैन ग्रंथों में सर्व प्रथम यक्ष-यक्षियों का वर्णन छठी शताब्दी के निर्णय श्वेताम्बरों के पक्ष में हुआ था। अभी कुछ महिनों पहले | आचार्य यति वृषभ के ग्रंथ 'तिलोयपण्णत्ति' में प्राप्त होता है। वहाँ श्वेताम्बरों द्वारा मूर्ति की सफाई के बहाने गुप्त रूप से मूर्ति के लिंग | केवल चौबीस तीर्थकरों के यक्षयक्षियों के नाम दिए हैं और उनका पर किया गया पुराना लेप उखाड़कर नया लेप किया जा रहा था | तीर्थंकर प्रभु के समवशरण में होना बताया है। यह भी बताया है और तभी वहाँ के दिगम्बर बंधुओं द्वारा प्रशासकीय अधिकरियों | कि इनके अतिरिक्त समवशरण की रचना व्यवस्था में द्वारपाल, को बुलाकर लेप का काम रुकवा दिया गया था। किंतु संगठित | नृत्यांगना आदि हजारों देवी-देवता लगे रहते हैं। ये सब देवीहोकर जागरूक हो समय पर उचित कदम उठाने में असमर्थ रहने | देवता इन्द्र की आज्ञा से अपना कर्तव्य पालन करते हैं। के कारण हम जीती हुई बाजी भी हार जाते हैं और हार जायेंगे। | तीर्थंकर भगवान् के पंच कल्याणकों में संख्यातीत देवीयदि हम मूर्ति की नग्नता सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं तो देवता कल्याणक उत्सव मनाने आते हैं। समवशरण सभा में देव, सिरपुर क्षेत्र का मुकदमा अभी भी जीत लिए जाने की संभावना मनुष्य ही नहीं पशु भी आते हैं। यह देवताओं की विशेष शक्तियों है। मुझे श्री माणक चन्द जी बज, बासीम ने कुछ दिनों पहले | का ही परिणाम है कि समवशरण में प्रातिहार्यादि अतिशय एवं बताया था कि मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। केसरिया जी | इसकी विशाल रचना क्षण मात्र में निर्मित हो जाती है। किंतु देवों और मक्सीजी में मृतियाँ नग्न हैं किंतु लम्बे समय से भृतकाल में | की उपस्थिति से तीर्थंकर देव की कोई श्रीनिर्मित वृद्धि नहीं होती - मई 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 है, बल्कि वे अपने तीर्थंकर देव की सेवा कर अपने आपको धन्य मानते हुए अपनी पुण्य वृद्धि कर लेते हैं तीर्थंकर की सेवा में भी यक्ष-यक्षियों से कई गुना अधिक महत्त्व कल्पवासी देवों कुबेर सौधर्मादि स्वर्गों के इन्द्रों का होता है। मूर्ति कला के इतिहास के विद्वान इस ऐतिहासिक तथ्य से परिचित हैं कि दिगम्बर प्रतिमाओं के नीचे सिंहासन पर एवं दायीं बांयी ओर यक्षादि का अंकन दसवीं शताब्दी के पश्चात् प्रारंभ हुआ। 12 वीं 13 वीं शताब्दी में निर्मित प्रतिमाओं में शासन देवों का अंकन लोकप्रिय रहा। लगभग दसवीं शताब्दी में देवी-देवताओं की स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। इतिहासकारों का मत है कि इन देवी-देवताओं का स्वतन्त्र मूर्ति निर्माण वैदिक और बौद्ध परंपरा से ग्रहण किया गया। कुंडलपुर तीर्थ के बारे में आपकी विशेष चिंता इस लेख में पुनः दृष्टि गोचर हो रही है। बड़े बाबा की मूर्ति को दिगम्बर मूर्ति सिद्ध करने के लिए आप गोमुख यक्ष, चक्रेश्वरी को अकाट्य साक्षी मान रहे हैं। आपकी बात ठीक है, किंतु क्या बड़े बाबा की मूर्ति का नग्नत्व दूसरे साक्ष्यों से कम अकाट्य है ? यहाँ तो संयोग से यक्ष चक्रेश्वरी का अंकन है किंतु देश के अनेक तीर्थ स्थलों एवं मुख्य मंदिरों में बिना यक्षादि के अंकन के भी बहुसंख्यक मूर्तियाँ पाई जाती हैं। यहाँ तो मात्र नग्नता ही मूर्ति के दिगम्बर होने का मुख्य प्रमाण है। संभवत: नहीं चाहते हुए भी आपकी लेखनी से अंतिम पृष्ठ पर निम्न शब्द निः सृत हुए हैं- "जहाँ ऐसी रचना है उन्हें नष्ट करने या स्थानांतरित करना उचित नहीं है और दिगम्बर समाज के लिए अहितकर है, यही मेरी विनय है"। यह सत्य नहीं छिपाया जा सकता कि आपने कुंडलपुर के नव निर्माणाधीन मंदिर के बारे में यह सब लिखा है। यदि मेरा अनुमान सच हो तो में आपको याद दिलाना चाहूँगा कि विद्रवर दमोह में आप मेरे, प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जी, बैनाड़ा जी एवं कमेटी के सदस्यों के समक्ष वर्तमान कुंडलपुर मंदिर के अनेक कारणों से अनुपयोगी होने एवं भूकंप निरोधी दीर्घजीवी विशाल नव मंदिर के निर्माण की आवश्यकता को मान चुके थे और सतना समाज के समक्ष इस बिंदु पर आगे कुछ नहीं लिखने की घोषणा भी कर चुके थे। फिर भी आप वरिष्ठ विद्वान हैं और अपने चिंतन के आधार पर समाज को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए स्वतन्त्र हैं। मैं इस बारे में अधिक कुछ नहीं कहूँगा केवल एक छोटी सी बात लिखना चाहूँगा कि मूर्तियों का स्थानांतरण आवश्यकतानुसार पूर्व काल में सदैव होता रहा है। स्वयं बड़े बाबा की मूर्ति पुराने जीर्ण मंदिर से वर्तमान मंदिर में लाई गई थी। श्री महावीर जी की एवं पदमपुरा की मूर्तियाँ भी नव निर्मित मंदिरों / वेदियों में स्थानान्तरित हुई हैं। चांदखेड़ी की मूर्ति भी पहले कहीं और थी और वहाँ से वर्तमान मंदिर में लाई गई है। 300 मई 2003 जिनभाषित मंदिर के जीर्ण होने अथवा उसके असुरक्षित पाए जाने पर मूर्ति की सुरक्षा के लिए उसको अन्य सुरक्षित स्थान पर स्थानान्तरित करना निश्चित रूप से हितकर है। यदि कदाचित् आपके उक्त लेखन का लक्ष्य कुंडलपुर न रहा हो तो मुझे क्षमा करें। मैं इस अनुच्छेद में लिखित वाक्यों को वापिस लेता हूँ। अंत में माननीय विद्वान के स्पष्टीकरण का अंतिम अनुच्छेद पढ़कर मैं हृदय की सम्पूर्ण सरलता से यह निवेदन करना चाहता हूँ कि मैं ही नहीं सम्पूर्ण समाज आपके द्वारा की गई जैन साहित्य की एवं जैन समाज की अमूल्य सेवाओं को जैन इतिहास की उल्लेखनीय घटनाएँ मानता है और उन सब के लिए आपके प्रति विनय पूर्वक आभार प्रदर्शित करता है। कौन नहीं जानता कि आपने "सोनगढ़ समीक्षा" तथा " परम दिगम्बर गोमटेश्वर " जैसी समयोपयोगी पुस्तकें लिखकर जैन धर्म की प्रसंशनीय प्रभावना की हैं। आप सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ पुरातत्त्व एवं मूर्ति विज्ञान के भी विशेषज्ञ विद्वान हैं। कृपया यह निराधार संदेह अपने मन से निकाल दीजिए कि मैं या और कोई आपकी मूल्यवान सेवाओं की अनदेखी कर आपके विरुद्ध दूषित प्रचार करना चाहता है वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध होने के नाते मैं तो आपसे विनय पूर्वक मार्गदर्शन चाहता हूँ कि मुझे आपके विचारों से सहमत नहीं होने पर अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहिए या नहीं? आपका आदेश प्राप्त होने पर मैं आगे वैसा ही करूँगा। प्रसंग प्राप्त प्रकरण में तो यह विशेषता रही है कि आपने मेरे सभी बिंदुओं को अपने स्पष्टीकरण में स्वीकार किया है और फिर भी मुझे दुषित प्रचार का दीपी बनाया है। यह कैसा विरोधाभास है? बंधुवर यह बात मैं ओर मेरे साथ सारा जैन समाज घोषणा पूर्वक स्वीकार करता है कि आपने पूरी निष्ठा के साथ जैन संस्कृति की हित कामना लेकर अपनी बात कही है। क्या मैं आप से पुनः प्रार्थना करूँ कि आप भी यह विश्वास करें कि आप ही की तरह मैं और दूसरे भी पूरी निष्ठा और जैन संस्कृति की हित कामना से ही अपनी बात कहते हैं। ऐसा विश्वास कर लेने पर आपके मन में बैठा हुआ मेरे और दूसरों के प्रति आपके विरुद्ध दूषित प्रचार के संदेह का भूत निकल जायेगा। मैं अंत में पुन: आपकी योग्यता को प्रणाम करता हूँ । आप दिगम्बर जैन समाज की मूल्यवान सम्पत्ति हैं। आप पर समाज को गर्व है। आपका छोटा भाई अधिकारपूर्वक आपसे विनय करता है। कि आप सकारात्मक सोच अपनाते हुए इस कठिन समय में दिगम्बर समाज को संगठित कर दिगम्बर जैन धर्म की सुरक्षा और विकास में संलग्न होने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करें। (सन्दर्भ प्रस्तुत लेख में श्वेताम्बर जिनप्रतिमा सम्बन्धी श्वेताम्बराचार्यों के मत डॉ. रतनचन्द्र जैन, भोपाल के अप्रकाशित ग्रन्थ 'जैन परम्परा और यापनीय संघ' से उद्धृत हैं -1 ) मदनगंज किशनगढ़ (राजस्थान ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार सुरेश जैन मारौरा को जीव रक्षा अवार्ड शिवपुरी। अहिंसा इन्टरनेशनल संस्था नई दिल्ली जो वर्ष 1973 से अलग-अलग विधाओं में पारंगत व्यक्तियों को अबार्ड प्रदान करती आ रही है, वर्ष 2002 का रघुवीर सिंह जैन जीव रक्षा अवार्ड एक भव्य समारोह में 20 अप्रैल 2003 को केन्द्रीय श्रम मंत्री माननीय श्री विजय जी गोयल, अहिंसा इन्टरनेशनल के अध्यक्ष श्री प्रेमचन्द जैन, महामंत्री श्री सतीश जैन, दादा डालचंद जैन पूर्व सांसद श्री निर्मल कुमार सेठी अध्यक्ष भा.व. दिग. जैन महासभा एवं प्रसिद्ध उद्योगपति तथा समाज सेवियों के द्वारा सुरेश जैन मारौरा शिवपुरी को प्रदान कर प्रशस्ति पत्र, शाल, श्रीफल एवं माला द्वारा चिन्माया ऑडीटोरियम, लोदी रोड दिल्ली में सम्मानित किया गया। संजीव बाझल, वर्धमान पैथोलॉजी, शिवपुरी प्रवेश प्रारम्भ श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय एवं छात्रावास पिसनहारी की मढ़िया जबलपुर (म.प्र.) के नवीन सत्र 2003-2004 के लिए 1 मई से 15 जून तक प्रवेश प्रारम्भ हैं । प्रवेश हेतु आवेदित छात्रों के साक्षात्कार 15 जून से 20 जून तक आयोजित होंगे एवं उन्हें 20 जून से 30 जून तक विशेष मार्ग दर्शन दिया जायेगा। नवीन सत्र 1 जुलाई से प्रारम्भ होगा। आगामी सत्र को " आदर्श सत्र" घोषित किया गया है अतः गुरुकुल में समस्त व्यवस्थाओं को आदर्श रूप दिया जा रहा है। विद्यालय में कक्षा 9वीं से 12वीं तक म.प्र. शासन एवं मा.शि. मंडल, भोपाल द्वारा मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रम का अध्यापन कराया जाता है। 11 वीं से 12 वीं तक कामर्स विषय संचालित है और नवीन सत्र में विज्ञान विषय ( गणित ) प्रारंभ करना प्रस्तावित है। I छात्रों हेतु छात्रावास, शुद्ध सात्त्विक स्वादिष्ट भोजन, खेलकूद, मनोरंजन, कम्प्यूटर विशेष कक्षायें धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार इत्यादि उपलब्ध हैं प्रवेश चयन समिति द्वारा चयनित मेधावी, अनुशासित एवं विनम्र छात्रों को ही दिया जायेगा। छात्रों के लिए प्रार्थना, पूजन, भक्ति, धार्मिक कक्षा में उपस्थिति इत्यादि अनिवार्य है। लौकिक शिक्षा के अलावा, रीवा विश्वविद्यालय, वाराणसी विश्वविद्यालय एवं इन्दौर ज्ञानपीठ द्वारा मान्यता प्राप्त संस्कृत के पाठ्यक्रम भी संचालित हैं। विद्यालय तथा छात्रावास में प्रवेश हेतु 15 जून तक आवेदन कर सकते हैं। सी.एल. जैन, जबलपुर (म.प्र.) साहित्याचार्य जी की द्वितीय पुण्यतिथि सम्पन्न अ. क्षेत्र बिजौलिया, भीलवाड़ा (राज.) देवाधिदेव भगवान् पार्श्वनाथ जी की उपसर्ग स्थली व केवलज्ञान भूमि में प्रथम राष्ट्रपति सम्मान से पुरस्कारित स्वर्गीय विद्वत्रन डॉ. पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य जी को द्वितीय पुण्यतिथि पं. जी के अत्यन्त निकटस्थ शिष्य त्रय बा. ब्र. पवनजी, कमलजी सिद्धान्त रत्न, न्यायरत्न तथा ब्र. सुरेन्द्रजी 'सरस' आदि ब्रह्मचारियों के मध्य सामूहिक गोष्ठी के रूप में मनायी गयी। ब्र. समाधिसागरदास बाल नृत्यांगना कु. वीणा अजमेरा का नाम वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज भारत सरकार के नेशनल चाइल्ड अवार्ड से विभूषित कु. वीणा अजमेरा (जैन) ने नृत्य के क्षेत्र में भारत की सीमाओं को पार कर लिम्का बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज करा ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लिम्का बुक में पहली बार किसी बाल नृत्यांगना का नाम वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज होने से कला प्रेमियों को भारी हर्ष है। संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत यूनेस्को फेडरेशन अवार्ड एवं हार्टकेयर फाउण्डेशन आफ इण्डिया अवार्ड प्राप्त कु. वीणा देश-विदेश में अपने प्रसिद्ध मंगलकलश नृत्य से अंहिंसा, शाकाहार, पर्यावरण सुरक्षा एवं विश्वबंधुत्व के संदेश प्रसारण का भी महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर रही है। कु. वीणा का 63 कलश लेकर नृत्य, 63 के अंक समान समन्वय व एकजुट होकर रहने व आगे बढ़ने की भी प्रेरणा देता है। नृत्य प्रदर्शन में प्राप्त सम्मान निधि रु. एक लाख की राशि कु. वीणा के पितामह ने अकालग्रस्त गाँवों में पानी के टैंकर्स हेतु भेंट करदी। निहाल अजमेरा मांसाहार से नपुंसकता : पेटा मुम्बई ( भाषा) मांसाहार नपुंसकता की भी वजह बन सकता है, हालिया जारी रिपोर्ट का यही कहना है। रिपोर्ट में बताया गया है कि मांसाहारी व्यक्ति में नपुंसकता के लक्षण मौजूद हो सकते हैं । पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटगेन्ट ऑफ एनीमल्स (पेटा) द्वारा कराए गए शोध के मुताबिक मांसाहार में मौजूद कोलेस्ट्राल धमनी में तो रुकावट पैदा करते ही हैं, साथ ही ये नपुंसकता भी पैदा कर सकते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि मांस आधारित खुराक से मोटापा, मधुमेह, दिल की बीमारी और कैंसर हो सकता है। ये सभी मनुष्य की कार्यक्षमता को सीधे प्रभावित करते हैं। यहाँ मई 2003 जिनभाषित 31 . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वजह है कि शाकाहारी व्यक्ति मांसाहारियों की तुलना में अधिक | बातों को गौड़ करते हुए पूर्ण समर्पित भाव से निर्माण कार्य में जुट चुस्त होते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक शाकाहारी लोग मांसाहारियों की | जाना चाहिए। जिस तरह पानी में बताशा घुल जाता है किंतु अपनी तुलना में देर से बूढ़े होते हैं। मिठास से पानी को मीठा कर देता है। उन्होंने कहा कि बड़े बाबा इं.सुरेश चन्द्र जैन के मंदिर से अनेक व्यक्तित्व जुड़ते जा रहे हैं। इससे विज्ञान और अध्यक्ष- दि. जैन महासमिति ( उत्तरांचल ) अनेक वैज्ञानिक भी जुड़ गये हैं। जो कि इस महाप्रसाद के निर्माण खतौली इकाई नम्बर -6 को हजारों वर्षों तक के लिए तैयार करने में सहायक बन रहे हैं। कुंडलपुर में शिलास्थापना कार्यक्रम संपन्न उन्होंने कार्यकर्ताओं को पूर्ण गंभीरता एवं एकता के साथ कार्य कुण्डलपुर/बड़े बाबा का भारत वर्षको जनता उच्च सिंहासन करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए समर्पित रहने को कहा। पर बैठाना चाहती है ताकि उनकी छत्रछाया में हम वीतरागता की आचार्य श्री ने कहा कि पूर्वजों ने बहुत समर्पण के साथ हजारों वर्षों उपासना कर सकें । संसार में दुख वीतरागता के अभाव में होता है। से इस मंदिर की व्यवस्था की है हमें इसे बनाये रखते हुए उनके उपर्युक्त उद्गार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कार्य को आगे बढ़ाना है। उन्होंने कहा कि 1500 वर्षों से विराजमान कुंडलपुर में निर्माणाधीन बड़े बाबा के मंदिर के गर्भगृह के शिला इस भव्य प्रतिमा के कितने साधु महात्माओं ने दर्शन प्राप्त किये स्थापना समारोह में अभिव्यक्त किये। समारोह के प्रारंभ में विमान होंगे। और आज उसी का प्रतिफल है कि यह मंदिर इतना विशाल जी में श्री जी को विराजमान कर ऊपर आचार्य श्री के संघ सहित स्वरूप प्राप्त करने जा रहा है। शोभायात्रा पर्वत पर कार्यक्रम स्थल पहुँची जहाँ अशोक पाटनी सुनील वेजीटेरियन किशनगढ़, निरंजनलाल बैनाड़ा आगरा, महेन्द्र कटारिया कानपुर, प्रचार संयोजक सुंदरलाल जी इंदौर आदि ने बड़े बाबा का मस्तकाभिषेक करने का कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी कुण्डलपुर सौभाग्य प्राप्त किया। इसके पश्चात् कुंडलपुर क्षेत्र समिति के कवि कैलाश मड़वैया को आल्हा साहित्य अध्यक्ष संतोष सिंघई एवं वीरेश सेठ ने निर्माण संबंधी जानकारी सम्मान प्रदान की। जबलपुर, ११ अप्रैल ०३ चेतीचाँद एवं गुड़ी पड़वा के इसके पूर्व पर्वत पर स्थित मंदिर निर्माण स्थल पर आयोजित | अवसर पर वयम् परिषद् जबलपुर के तत्त्वावधान में प्रसिद्ध हिन्दी कार्यक्रम में बड़े बाबा एवं ज्ञानसागर जी महाराज के चित्र का | एवं बुन्देली कवि कैलाश मड़बैया महामंत्री म. प्र. बुन्देल खण्ड अनावरण बैनाड़ा परिवार आगरा एवं महेन्द्र कटारिया कानपुर ने साहित्य एवं संस्कृति परिषद् भोपाल को वर्ष २००३ का आल्हा किया। जबकि दीप प्रज्ज्वलन अशोक पाटनी एवं सुशीला पाटनी साहित्य सम्मान अखिल भारतीय आल्हा अनुसंधान परिषद् द्वारा किशनगढ़ ने किया। आचार्य श्री की संघ सहित गरिमामय उपस्थिति प्रदान किया गया। हॉल ही में बालाघाट में भी इतिहास एवं एवं ब्रह्मचारी जिनेश भैया जी के मंत्रोचारण के साथ मंदिर निर्माण पुरातत्त्व शोध संस्थान द्वारा १८ अप्रैल, २००३, को गंगोत्री सम्मान हेतु जयघोष के नारों के साथ प्रथम शिला स्थापित की गयी। प्रथम श्री मड़बैया जी को उपलब्ध हुआ। उल्लेखनीय है कि श्री कैलाश शिला को स्थापित करने का सौभाग्य श्री अशोक जी पाटनी, मड़बैया की लोक साहित्य पर दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आर.के. मार्बल किशनगढ़ ने प्राप्त किया। इस अवसर पर अनेक | उनकी आगामी पुस्तक "बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ" शीघ्र प्रकाश्य जाने माने दानवीरों पाटनी परिवार, बैनाड़ा परिवार एवं कटारिया है। "आँगन खिली जुंदइया" के दूसरे संस्करण का लोकार्पण भी परिवार के अलावा अनेकों दानदाताओं ने मंदिर निर्माण हेतु दानराशियों आगामी ३ जून को भोपाल के रवीन्द्र भवन में होने जा रहा है। की घोषणा की। सागर में संपन्न पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव की बचत राशि का चेक भी मंदिर निर्माण समिति को प्रदान किया समत्यिकालाकार, गया। इस अवसर पर मंदिर निर्माण के ठेकेदार रामजी भाई ने कहा कि उन्होंने अभी तक राजस्थान देलवाड़ा के पास अनेक श्वेताम्बर मंदिरों का निर्माण किया किंतु इस ऐतिहासिक दिगंबर जैन मंदिर को निर्मित करने में वे अपना श्रेष्ठतम कार्य करते हुए आर्थिक घाटे के साथ भी निश्चित समय अवधि में पूर्ण करने का प्रयास करेंगे। आचार्य श्री ने अपने मंगल उद्बोधन में आगे कहा कि बड़े श्री कैलाश मड़बया को स्मृति चिह्न भेंट करते हुए श्री भजनलाल महाविया, श्री बाबा की छत्रछाया में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति बिना प्रभावित हुए आर. आर. फौजदार डॉ. नरेश पाण्डे एवं श्री सूरजराय 'सरज' रहता नहीं। उन्होंने कहा कि अब मंदिर निर्माण के अलावा अन्य डॉ. अरविन्द जैन सरकार 32 मई 2003 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालवार्ता लालच की जड़ मिटा दी डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' धन्यपुर नगर इसलिए धन्य नहीं था कि उसका नाम | है किन्तु धन तो मैं ही रखूगा। एक बार लालची मन और कुटिल धन्यपुर था बल्कि इसलिए भी धन्य था क्योंकि वहाँ धन्यकुमार | आँखों से निद्राग्रस्त भाई को देखा और निर्णय कर लिया कि इसे और धन्यपाल नाम के दो भाई निवास करते थे। एक ही माता- | इसी समुद्र में फैंक दूंगा ताकि धन पर उसी का एकाधिकार रहे। पिता के पुत्र एक जैसी शिक्षा और एक जैसे संस्कार। दोनों | इसी बीच पानी की हिलौरें किसी बड़े जन्तु से टकरायीं परिश्रमी तो थे ही महत्त्वाकांक्षी भी थे। व्यापार में निपुण दोनों | और उसके छींटे धन्यपाल के चेहरे पर पड़े मानो लालच का भाई जो भी व्यापार करते दिन-रात परिश्रम करते और खूब लाभ परदा धोने के लिए ही वे छींटे पड़े हों। लगा जैसे धन्यपाल कमाते, किन्तु अन्याय, अनीति से धन कमाना उन्हें इष्ट नहीं था। | किसी गहरी खाई में गिरते-गिरते बच गया हो। वह हाय, हाय वे राज्य कर भी पूरा चुकाते थे यही कारण है कि राज्य अधिकारियों करने लगा। हे भगवान् ! मैंने यह क्या विचार किया? भाई, बड़े को कभी उन्हें कर भरने के लिए सूचित नहीं करना पड़ा। दण्ड, | भाई को मारने का विचार, वह भी मात्र तुच्छ धन के लिए। अरे जुर्माना या रिश्वत तो वे जानते ही नहीं थे क्योंकि ऐसा अवसर । नीतिकारों ने ठीक ही कहा है "अर्थमनर्थं भावय नित्यं ।' अर्थात् उनकी जिन्दगी में कभी आया ही नहीं था। उन्होंने अपने व्यापारिक अर्थ की अनर्थता (नश्वरता)का प्रतिदिन विचार करो। कितना केन्द्र पर ठीक अपनी गद्दी के सामने लिखवा रखा था- बुरा होता यदि मैं भाई को मार डालता ? माँ क्या सोचती? मुझे साईं इतना दीजिए जामैं कुटुम समाय। भी दण्ड का भागीदार बनना पड़ता। अब इस पाप का प्रायश्चित मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय॥ तो करना ही पड़ेगा। हाँ, मैं प्रायश्चित करूँगा। क्षण भर में धन प्राप्ति भी उन्हें ऐसी होती रही कि न वे कभी भूखे | निर्णय हो गया- मन ही मन । एक क्षण को लगा कि भाई क्या रहे ओर न उनके द्वार से कभी साधु भूखा गया। सभी लोगों से | कहेंगे? किन्तु निश्चय अटल था। उसने धन का थैला निकाला उनका व्यवहार अत्यन्त सदाशयता से पूर्ण था। वे लोगों की | और एक-एक करके सब धन समुद्र में डाल दिया। उसे तो एक जरूरतें समझते ओर जो उनसे सहायता बनती करते। सब कुछ | ही विचार बार-बार आ रहा था कि आज धन्यपुर का धन्यपाल साझा था किन्तु न धन्यकुमार ने कभी धन्यपाल को रोका, न | कलंकित होने से बच गया। इधर धन समुद्र में डूबते-उतराते कभी धन्यपाल ने धन्य कुमार को। नगर में समन्वय, सौहार्द | डब रहा था उधर वह सन्तोष की साँस ले रहा था। और सदाशयता की जीवन्त किंवदन्ती थे वे । सब लोग आपस में । इधर नींद खुलते ही धन्यकुमार ने हथेलियाँ फैलाकर उनके गुणों का बखान करते और प्रशंसा करते नहीं अघाते। पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर सिर से हथेलियों का स्पर्श किया और एक बार दोनों भाईयों को व्यापार के सिलसिले में विदेश | भाई की ओर देखा। अचानक नजर पड़ी तो देखता है धन का जाना पड़ा। वहाँ विदेश मैं वे जो माल भेजते थे उसका भुगतान थैला नहीं है। सारी खुमारी मानों भाग गयी। बैचेन हो भाई लाना शेष था। ठंड के दिन थे और विदेश की ठंड उन्हें कचोटने | धन्यपाल से पूछा "थैला कहाँ है !" लगी। उन्होंने सभी व्यापारियों से रूपये वसूल किये, नया माल प्रश्न सुनते ही धन्यपाल अपने आँसू रोक नहीं पाया। भेजने का आश्वासन दिया और चल पड़े पानी के जहाज में। | बोला भाई आज धन और धन्य की लड़ाई में मैंने धनको हरा पानी का जहाज अपनी गति से बढ़ रहा था, ठंड बढ़ती जा रही | दिया, भाई को पा लिया। और रोते-रोते पूरा वृन्तान्त सुना दिया। थी कब धन्यकुमार की नींद लग गयी, पता ही नहीं चला। बड़े भई के चरण स्पर्श किये, बड़े भाई ने आशीर्वाद दिया। इधर-धन्यपाल भी पानी में उठने वाली लहरें देखते- अचानक दोनों भाईयों ने समुद्र में देखा पानी के बुलबुले उठ रहे देखते न जाने कब विचारों के समुद्र में गोते खाने लगा उसे पता | हैं, फुट रहे हैं। धन्यकुमार ने विचारा धन और शरीर तो इसी ही नहीं चला। अचानक उसके दिमाग में संसार में प्रतिष्ठा धन से | पानी के बुलबुले के समान क्षणिक, नश्वर हैं और धन्यपाल को ही होती है। नीति भी कहती है- “सर्वे गुणा: काञ्चनमा श्रयन्ति'' | गले से लगा लिया तथा कहा- भाई! अच्छा किया जो तुमने बस उसने तय कर लिया। मैं अपना धन किसी और से साझा | लालच की जड़ ही मिटा दी। नहीं करूँगा, बँटवारा भी नहीं। यह धन्यकुमार बड़ा भाई अवश्य एल-65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.), Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 दि.जैन अतिशय तीर्थ पपौरा, मध्य प्रांगण का एक विहंगम दृश्य स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, Jan Educatभोपाल...म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205a लोफ़ेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित.kinelibrary.org