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________________ सम्बE प्रचलित हैं। किंवदन्तियों की कतिपय अन्तर्कथायें पौराणिक । बह पड़ा और जल-प्लावन की स्थिति बनती सी लगी। जन समूह परम्पराओं में आ गईं हैं। कुछ तो ऐसे प्रमाण विद्यमान हैं कि में फिर-चीख पुकार, तब कुएं की जगत पर तपस्वनी वृद्धा ने पुनः वैज्ञानिक मस्तिष्क भले न माने पर आस्थावान हृदय समर्पित हुये | वीतराग भगवान् की आराधना की और जल प्रवाह ठहर गया। बिना नहीं रहते । ऐसा ही एक जीवन्त प्रमाण है पपौरा का उपर्युक्त अतिशय की किंवदन्ती पपौरा के उन अनेक पतराखन कुआँ । यह कुआँ आज भी अपना उदार ओर आपूरित चमत्कारों में से एक है, जिसके कि कारण इस क्षेत्र को अतिशय आंचल फैलाये मानव पयस्वनी बनने हेतु आतुर सा दिखता है, | क्षेत्र 'पपौरा' कहा जाता है। यह "पतराखन कुआं" आज भी जिसने कभी अनेक प्राणियों की प्राण रक्षा की होगी। पपौरा में श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। पतराखन अर्थात् रहते हैं संवत् 1872 में निकटवर्ती छतरपुर की एक पुण्य | प्रतिज्ञा की लाज या अवसर पर बात रखने वाला, सम्मान रखने वाला । मैं तो सम्पूर्ण क्षेत्र को ही जैन समाज ही नहीं मानवता का पतराखन पपौरा मानता हूँ। मेरा बचपन पपौरा के मेले के कवि सम्मेलनों में खूब फुदका है, यद्यपि इस तरह की अनेक किंवदन्तियाँ पपौरा के बारे में लोगों की जुबान पर हैं। पर प्रमाणिकता के अभाव में, मैं इन्हें आस्था की अति ही मानता हूँ। एक विशाल बावड़ी यहाँ दर्शनीय है। लोग कहते हैं कि कुछ दशकों पूर्व तक यह बावड़ी श्रद्धालु पर्यटकों को माँगने पर बर्तन आदि प्रदान करती थी. जिन्हें भोजनादि से निवृत्त होने पर उसी बावड़ी में वापस कर दिया जाता था। पर किसी विधर्मी की नियत बिगड़ गई और जब बावड़ी को बर्तनादि वापस नहीं किये तो बावड़ी का "सत्त्व" जाता रहा। यह कहाँ तक सच है, यह तो मुझे नहीं मालूम पर इतना अवश्य ज्ञात है कि पर्यटकों को आज भी पपौरा मेरु संरचना (१५वीं-१६वीं सदी) पपौरा की धर्मशालाओं में वे सभी सुविधाएँ नि:शुल्क प्राप्त हैं जो कि दो प्रबल वृद्धा ने पपौरा के, वर्तमान प्रथम जिनालय की प्राण प्रतिष्ठा चार दस दिन तक ठहरने के लिये किसी भी परिवार को अपने घर में पंचकल्याणक समारोह आयोजित कराया। दूर -दराज के असंख्य में आवश्यक होती हैं। विशाल लम्बी चौड़ी धर्मशालायें, आधुनिक श्रद्धालु एकत्रित हुये। सभी व्यवस्थाएँ पूर्ण, मेले की रंगीनी में, सुविधा युक्त विश्राम गृह और परिवहन की उपयुक्त व्यवस्था धर्म की सहज साधना युक्त साधु-साध्वियाँ और जप तप का कार्य | पपौरा में दर्शनार्थियों को आज सुगमता से उपलब्ध है। काश ! प्रारंभ, पर अनायास ही अप्रत्याशित भीड़ की उपस्थिति और निकटवर्ती टीकमगढ़ नगर की जैन समाज में यदि आपसी मनो मौसम की अनुदारता ने मेले में पानी का अभाव पैदा कर दिया। | मालिन्य नहीं होता, अपने अहं की तुष्टि हेतु पृथक-पृथक संस्थायें "बिन पानी सब सून" चारों ओर त्राहि-त्राहि की स्थिति और बनाने और नाम पद की महात्वाकांक्षाएँ न होती तो यह कहने में वृद्धा के आयोजन पर टीका टिप्पणी। समाज भला किसे बख्शता मुझे किंचित् भी संकोच नहीं है कि पपौरा में प्राचीन और वैज्ञानिक है? कोई उसके धन पर, कोई मन पर आक्षेप करने लगा। वह जैन दर्शन पर आधारित एक भारतवर्षीय विश्वविद्यालय तक समय, कार्य पर नहीं धर्म पर आस्थित तो था ही, वृद्धा कातर हो आसानी से संस्थापित हो सकता था और पूर्वजों की प्रदत्त सैकड़ों उठी। क्षेत्रीय बुजुर्गों से वृद्धा ने तीर्थ के सबसे बड़े कुएं के पास कलात्मक जिनालयों की अद्वितीय धरोहर को हम अक्षुण्ण रखते चलने को कहा और उसे कुएं में उतारने का आग्रह किया। भला हये मानवता की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को महावीर स्वामी कौन उसे कुएं में फेंकने का कलंक लेता? पर बुढ़िया जिद पकड़े के शाश्वत सिद्धांतों से ओतप्रोत कर सकते । भारत के प्रथम थी कि उसे कुएं की तलहटी में सन्यास लेना है। यदि नहीं राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी ने पपौरा को देखकर जो स्वप्न उतारोगे तो वह स्वयमेव कूद पड़ेगी। पदाधिकारियों ने मजबूर संजोये थे, बुंदेलखण्ड के आध्यात्म गांधी, मान्य श्री गणेशवर्णी होकर वृद्धा को एक चौकी पर बैठाकर कुएं में रस्सी के सहारे की आकांक्षाओं को हम पपौरा में साकार कर सकते हैं। यदि धर्म उतार दिया। पुण्यात्मा ने कुएं में उतरकर सन्यास धारण किया की रूढियों से हम किंचित् भी ऊपर उठ सकें, गजरथ व मन्नों में और सर्वमान्य "णमोकार मंत्र" का प्रभावी जाप प्रारंभ किया। ही धर्म की इतिश्री न समझें और साथ ही वैयक्तिक या दलवादी आस्था प्रस्फुटित हुई, णमोकार मंत्र का जाप जैसे जैसे पूर्ण हुआ, स्वार्थों से ऊपर उठकर पपौरा को बुंदेलखण्ड का शान्ति निकेतन कहते हैं कुएं में जल स्रोत फूट पड़ा और पानी का तल बढ़ता गया बनाने पर सम्यक् दृष्टि से विचार करें, तो यह सपना साकार होना असंभव नहीं है। जन समूह जय जयकार कर रहा था और वृद्धा महिला तपस्विनी बनी चौकी पर, पानी के बढ़ते तल पर आरूढ़ कुएं में ऊपर उठती मडबैया सदन आ रही थी। कुआं भरा ही नहीं बल्कि पानी बाहर बहकर मेले में । 75, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल (म.प्र.) 8 मई 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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