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________________ 'दिगम्बर प्रतिमा का स्वरूप स्पष्टीकरण' की समीक्षा मूलचन्द लुहाड़िया मेरे लघु लेख पर एक बृहत् स्पष्टीकरण सम्माननीय विद्वान । आधारहीन हल्की बातें कैसे लिखी गईं। उनके मन में संदेह का नीरज जी द्वारा 'जैन गजट' में प्रकाशित हुआ। जब तक भाषा और | साँप कुंडली मार कर बैठा है और इसी कारण सीधी बात भी भावना शुभ बनी रहे तब तक लेख-प्रतिलेख की परंपरा चलाते | आरोपात्मक या निंदात्मक प्रतीत हो रही है। मैं तो यह दृढ़तापूर्वक रहने में कोई बुराई नहीं है। अत: मैं उनके स्पष्टीकरण की समीक्षा | कहता हूँ कि अन्य व्यक्ति नहीं स्वयं नीरज जी भी यदि मेरे लेख के लिए उद्यत हूँ। को संदेह का रंगीन चश्मा उतार कर पढेंगे, तो पायेंगे कि लेख में जैन जगट में छपा श्री नीरज जी का वक्तव्य अपने आप में | कहीं दूर तक भी आरोप या द्वेष की गंध तक नहीं आती। स्पष्ट था। मुझे अवधिज्ञान तो था नहीं कि मैं यह जान पाता कि यह | किसी के मत से असहमति व्यक्त करना अभिव्यक्ति की वक्तव्य उनके किसी 45 मिनट के लम्बे भाषण का सार मात्र है । स्वतंत्रता का पवित्र अधिकार है, उसको "द्वेषपूर्ण ओछे आरोप" और मैं अपनी बात लिखने के पहले श्री नीरज जी से उनके भाषण की संज्ञा देकर लांछित करना कम से कम ऐसे उत्कृष्ट विद्वान के की कैसिट माँगाकर सुनता। किसी भाषण की पृष्ठभूमि की जानकारी | लिए तो उपयुक्त नहीं है। कितना अच्छा हो, यदि हम आपस में के अभाव में जैन गजट में छपी बात को सही मानकर टिप्पणी वात्सल्यभाव से चर्चा करने के अभ्यासी बनें और निराधार संदेह करना अनैतिक है, तो मैं उन से इसके लिए क्षमा माँग लेता हूँ। की दुर्गंध से अपनी भाषा और भावना को दृषित नहीं होने दें। यह चलिए अब तो आपने बहुत विस्तृत स्पष्टीकरण दिया है, | तभी संभव है जब हम मतभिन्नता को अपना विरोध अथवा उसी पर निष्पक्ष भाव से प्रेमपूर्वक कुछ चर्चा कर लेते हैं। यह | अनादर समझ बैठने की भूल नहीं करें और दृष्टिकोण की उदारता देखकर मुझे अत्यधिक आश्चर्यमिश्रित खेद हुआ कि स्पष्टीकरण में | और व्यापकता का सहारा लेकर सहनशील बनें। पहले, बीच में और अंत में मुझ पर दोषारोपण के रूप में निम्न । यद्यपि पहले प्रकाशित वक्तव्य में सम्माननीय विद्वान ने वाक्य लिखे गये हैं लिखा है "एक दिन वह आयेगा जब दिगम्बर-श्वेताम्बर की "उन्होंने मुझ पर पंथविमूढ़ होने का मिथ्या आरोप लगाया | पहचान को लेकर विवाद खड़े होंगे, तो दिगम्बरत्व के लिए एक ही प्रमाण मिलेगा वह है जैन देवी-देवता", किंतु स्पष्टीकरण"मेरे कथन के प्रतिफल की कल्पना करके विद्वान लेखक | लेख में लिखा है ... "मैंने वीतरागी दिगम्बर मुद्रा की पहचान के ने अपने लेख में कुछ निराधार अशुभ भविष्यवाणियाँ कर डाली लिए देवी-देवताओं के अंकन को मुख्य प्रमाण नहीं कहा।" मेरे लेख का मुख्य बिंदु यही है कि दिगम्बर प्रतिमा की पहचान में "भाई लुहाड़िया जी ने इतनी अनावश्यक और असंबद्व देवी-देवताओं का अंकन मुख्य प्रमाण नहीं है। मेरे विद्वान अग्रज कल्पनाएँ कर डाली हैं" ने उक्त बात अपने स्पष्टीकरण में एक नहीं दो स्थानों पर स्वीकार "जब मुझ पर द्वेष पूर्ण ओछे आरोप गढ़े जाते हैं, तब मुझे | की है। यदि वे यह बात स्वीकार करते हैं, तो उनके इतने लंबे असह्य पीड़ा होती है। विशेषकर जब वे आक्षेप किसी विद्वान मित्र स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। द्वारा मेरे कथन को तोड़ मरोड़कर मुझे एकांतवाद या पंथविमृढ़ | आगे आदरणीय विद्वान ने लिखा है "परंतु जब किसी सिद्ध करने के अभिप्राय से लगाए गए हों, तब यह पीड़ा चार गुनी न्यायालय में किसी प्रतिमा के स्वामित्व का विवाद प्रस्तुत होता है हो जाती है।" तब उस पर दिगम्बर समाज का स्वत्व सिद्ध करने के लिए मूर्ति "उसके अर्थ के अनर्थ करके मेरी मंगल मनीषा को | की वीतरागता और नग्नत्व न्याय की दृष्टि में निर्णायक साक्ष्य नहीं दृषित रूप में प्रचारित करके मेरे प्रति अन्याय तो न करें।" माने जाते। इसका कारण यह है कि ऐसे सभी विवादों में श्वेताम्बरों मैंने अपने लेख को बार-बार पढ़ा, किंतु मुझे कहीं भी का कथन यह होता है कि वे दिगम्बर, श्वेताम्बर अथवा सवस्त्र आदरणीय श्री नीरज जी के प्रति प्रत्यक्ष - परोक्ष किसी भी प्रकार | और वस्त्रविहीन दोनों प्रकार की मूर्तियाँ पूजते हैं।'' मैं नम्रतापूर्वक का कोई आरोप लगाया हुआ ही नहीं, अपितु आरोप लगाये जाने | विद्वान लेखक के विचारों से अपनी असहमति प्रकट करता हुआ की भावना तक का किंचित् भी आभास नहीं मिला। मैंने केवल । यह जोर देकर बताना चाहता हूँ कि श्वेताम्बर ग्रंथों के अनुसार तथ्यात्मक विवेचन किया है, आरोपात्मक नहीं। मैंने नीरज जी का | नग्न प्रतिमा अपृज्य होती है। श्वेताम्बर ग्रंथ प्रवचनपरीक्षा ( रायता उम्र, ज्ञान और अनुभव में वृद्ध होने के नाते सदा आदर किया है। | उपाध्याय धर्म सागर ) की गाथा 30-31 में वस्त्र धारण करने के आश्चर्य है कि ऐसे परिपक्वबुद्धि विद्वान् को लेखनी से ऐसी । पक्ष में लिखा है कि "वस्त्र धारण करने से लोकाचार रूप धर्म का - मई 2003 जिनभापित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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