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पालन होता है और लज्जा अर्थात् संयम की रक्षा होती है । वस्त्र धारण न करने पर मनुष्य गर्दभ आदि के समान निर्लज्ज हो जाता है। निर्लज्ज पुरुष चारित्र का पालन कैसे कर सकता है? वस्त्रधारी में लज्जा होती है. जिससे ब्रह्मचर्य पलता है। अन्यथा जैसे घोड़ी को देखने से घोड़े के लिंग में विकार उत्पन्न हो जाता है वैसे स्त्री को देखने से मुनि के लिंगादि में विकार उत्पन्न हो जाने पर जिन शासन की निंदा होने के साथ अब्रह्मसेवन आदि बहुत से दोष सर्वजन - विदित हो सकते हैं। तथा वस्त्रधारण करने से शीतोष्ण काल में शीतादि की पीड़ा न होने से धर्मध्यान और शुक्लध्यान निर्बाध सम्पन्न होते हैं। नग्न रहने पर शीतादि की बाधा से तथा उसके निवारण हेतु अग्नि प्रज्वलित करने की इच्छा होने से दुर्ध्यान होता है। नग्न मुनियों को देखकर लोग सोचते हैं, अरे! ये मुंडे, पापी हमारी बहू-बेटियों को मुँह से नाम न लेने योग्य अंग (लिंग) दिखलाते हुए लज्जित नहीं होते !"
आगे वे लिखते हैं कि तीर्थंकर इन्द्र द्वारा लाए गए देव दृष्य वस्त्र को ग्रहण करते हैं। नग्न होने पर उनके शुभ प्रभा मंडल से गुहय प्रदेश वस्त्रवत् ही आच्छादित रहता है। फल स्वरूप उनके रूप को देखकर स्त्रियों में काम विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः तीर्थंकर वस्त्ररहित होते हुए भी वस्त्र धारण करने वाले के सदृश दिखाई देते हैं। इसीलिए प्रतिमा में गुह्यप्रदेश दृष्टिगोचर हो रहा हो, तो वह श्वेताम्बरमान्य तीर्थंकर प्रतिमा नहीं हो सकती हैं। अतः प्राचीन काल में श्वेताम्बर परंपरा में तीर्थंकरों की प्रतिमा अप्रकट गुह्य- प्रदेशवाली अर्थात् निर्वस्त्र भी अनग्न होती थी।
तीर्थकरों का गृहयप्रदेश वस्त्रवत् ही उनके शुभ प्रभा मंडल से आच्छादित रहता है, जिससे वह धर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं देता । वस्त्रपरिधान के अभाव में भी तीर्थंकरों के लोकाचार रूप धर्म का अभाव नहीं होता अतः वे वस्त्रधारीवत् ही होते हैं। अतः श्वेताम्बरों के लिए वे इसी रूप में पूज्य हो सकते हैं, लज्जा, संयम ब्रह्मचर्यादि गुणों के भंजक लोकनिन्दित बीभत्स नग्नरूप में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि पूजा के लिए उनकी प्रतिकृति (प्रतिमा) भी इसी रूप में गुह्यप्रदेश के प्रदर्शन से रहित तथा देव दृष्य वस्त्र से अंशत: आच्छादित रूप में ही निर्मित की जा सकती थी। जिस प्रतिमा में गुह्यप्रदेश दृष्टिगोचर हो वह श्वेताम्बरमान्य तीर्थंकर प्रतिमा नहीं हो सकती थी। यद्यपि पं. नाथूराम जी प्रेमी ने एक स्थान पर 'जैन साहित्य और इतिहास' में लिखा है कि प्राचीन काल में दिगम्बर श्वेताम्बर प्रतिमाएँ एक ही प्रकार की होती थीं. किंतु यह कथन विश्वसनीय नहीं है। क्योंकि जब श्वेताम्बर तीर्थंकरों के शरीर में लिंगादि प्रदेश दिखाई नहीं देना मानते हैं तो उनकी प्रतिमाओं में लिंगादि कैसे पाए जा सकते हैं। अतः यह मानना सर्वथा असंगत हैं कि श्वेताम्बर परंपरा में भी नग्न जिन प्रतिमाओं का निर्माण एवं पूजन होता था।"
श्वेताम्बर मत नग्न लिंग को जिन लिंग नहीं मानता। इसका स्पष्टीकरण 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' ग्रंथ के लेखक श्वेताम्बर मुनि मई 2003 जिनभाषित
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आत्माराम जी ने इस प्रकार किया है
प्रश्न- भगवान् तो दिन रात वस्त्र रहित ही रहते हैं अतः जिनवर की प्रतिमा के लिंग का आकार होना चाहिए?
उत्तर- जिनेन्द्र के तो अतिशय के प्रभाव से लिंगादि दिखाई नहीं देते तो फिर जिनवर के समान तुम्हारा बिम्ब कैसे सिद्ध हुआ? अपितु नहीं हुआ। और तुम्हारे मत के खड़े योगासन लिंगवाली प्रतिमा के देखने से स्त्रियों के मन में विकार होना संभव है। जैसे सुंदर भगकुचादि आकार वाली स्त्री की मूर्ति देखने से पुरुष के मन में विकृति हो जाती है वैसे ही नग्न पुरुष की मूर्ति को देखकर स्त्रियों के मन में विकार आए बिना नहीं रह सकता। मुनि श्री आत्माराम जी ने यह कहा है कि जिनेन्द्र के अतिशय के प्रभाव से लिंगादि दिखाई नहीं देते अतः प्रतिमा में भी लिंग नहीं बनाया जाना चाहिए। मुनि कल्याण विजय जी लिखते हैं- " आज से 2000 वर्ष पहले मूर्तियाँ इस प्रकार बनाई जाती थीं कि बैठी तो क्या खड़ी मूर्ति भी नग्न नहीं दिखती थी। उनके वाम स्कंध से देवदृष्य वस्त्र का अंचल दक्षिण जानु तक इस खूबी से नीचे उतारा जाता था कि आगे और पीछे का गुह्य भाग उससे आवृत हो जाता था और वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लग सकता था। विक्रम की छठी सातवीं सदी तक खड़ी मूर्तियाँ इसी प्रकार बनी हुई दृष्टिगोचर होती हैं, किंतु उसके परवर्ती समय में जैसे-जैसे दिगम्बर सम्प्रदाय व्यवस्थित होता गया वैसे-वैसे उसने अपनी मूर्तियों का अस्तित्व पृथक दिखाने के लिए जिन मूर्तियों में भी नग्नता दिखाना प्रारंभ कर दिया। गुप्त काल के बाद दिगम्बरों ने जितनी भी जिन मूर्तियाँ बनाई हैं वे सब नग्न हैं। श्वेताम्बर मूर्तियाँ नग्न नहीं होतीं, किंतु उनमें कच्छ तथा अंचलिका आदि ग्यारहवीं शताब्दी के बाद ही बनने लगे थे। मुनिश्री का उपर्युक्त मत प्रवचनपरीक्षाकार के मत से मिलता है अतः इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि नग्न जिन प्रतिमा चाहे प्राचीन हो या अर्वाचीन श्वेताम्बर परंपरा की नहीं हो सकती ।
बहुश्रुत विद्वान स्व. पं. अजित कुमार जी शास्त्री ने 'श्वेताम्बर मत समीक्षा' में लिखा है कि मथुरा के कंकाली टीले में से निकली प्राचीन प्रतिमाओं के विषय में कतिपय श्वेताम्बरी सज्जनों की ऐसी धारणा है कि वे श्वेताम्बर प्रतिमाएँ हैं, पूरी तरह भूल भरी हैं वे दिगम्बर प्रतिमाएँ हैं क्योंकि वे पूर्णतः नग्न हैं। कहीं भी और कभी भी नग्न मूर्तियों को श्वेताम्बरों ने पूज्य नहीं माना है। नग्न मूर्ति हो और वह श्वेताम्बरी हो ऐसा परस्पर विरुद्ध कथन हास्य जनक है।"
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निष्कर्ष यह है कि नग्न जिन प्रतिमाएँ दिगम्बर परंपरा की देन हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा पहले ऐसी जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया गया जो न वस्त्र धारण करती थीं और न नग्न थीं। आगे चलकर उनके सामने अंचलिका रखी जाने लगी और उससे भी आगे चलकर वीतराग जिन प्रतिमा को राजसी वेशभूषा सं
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