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________________ नोट- पाठकों से निवेदन है कि इस सम्बन्ध में और जो । भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों का अवधिज्ञान भी प्रमाण मिलें वे मुझे भेजने की कृपा करें। गर्भ से ही होता है, ऐसा नियम है, परन्तु विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों प्रश्नकर्ता- पण्डित सनतकुमार विनोदकुमार जैन. रजवांस | पर यह नियम लागू नहीं है। जिज्ञासा- तीर्थंकरों का अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है या | जिज्ञासा- औपशमिक सम्यक्त्व एवं क्षायोपशमिक गुणप्रत्यय ? क्या उसे अनुगामी अवधिज्ञान कह सकते हैं? यदि | सम्यक्त्व छूटने के बाद पुन: कब हो सकता है? इनके दूसरी बार भवप्रत्यय है तो आचार्य उमास्वामी महाराज ने इसका उल्लेख होने का अन्तरकाल कितना है? यह कितनी बार तक हो कर छूट क्यों नहीं किया? तीर्थंकरों के अवधिज्ञान जन्म से ही होता है या | सकता है? 8 वर्ष बाद? समाधान- उपशम सम्यक्त्व के दो भेद हैं- प्रथमोपशम समाधान- तीर्थंकरों के अवधिज्ञान को जीवकाण्ड गाथा | एवं द्वितियोपशम । इनमें से प्रथमोपशम सम्यक्त्व छूटने के बाद नं. 371 (भव पच्चयगो....) में भवप्रत्यय कहा है । इसका प्रथम | जघन्य से पल्य के अंसख्यात भाग काल तथा उत्कृष्ट से कुछ कम कारण तो यह है कि तीर्थंकर प्रभु चाहे नरक से आवें या स्वर्ग से, | अर्धपुद्गल परावर्तन काल व्यतीत होने पर हो सकता है। पिछले भव का भवप्रत्यय अवधिज्ञान ही इस भव तक चला आता | (श्री धवला पुस्तक 7, पृष्ठ 233) लेकिन द्वितियोपशम सम्यक्त्व है (जीवकाण्ड बड़ी टीका के अनुसार) लेकिन यह कारण ज्यादा का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ ठीक मालूम नहीं देता। श्री धवला 6/500 के अनुसार सभी कम अर्धपुद्गल परावर्तन कहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान सर्वार्थसिद्धि, विमानवासी देव, देवपर्याय से च्युत होकर मनुष्य हम मनुष्यों के पूरे जीवन काल में केवल एक बार ही प्रथमोपशम गति में अवधिज्ञान सहित उत्पन्न होते हैं। यदि पूर्व भव के भवप्रत्यय सम्यक्त्व हो सकता है। अवधिज्ञान को लेकर आने के कारण ही तीर्थंकरों के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त को भवप्रत्यय माना जाय तो सर्वार्थसिद्धि के सभी देवों का | और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल अवधिज्ञान भी भवप्रत्यय कहा जाना चाहिये, जबकि ऐसा उल्लेख | कहा है। एक जीव के पूरे संसार काल में यह दोनों सम्यक्त्व कहीं भी नहीं मिलता है। इसके अलावा दूसरा कारण, पूज्य | कितनी बार होकर छूट सकते हैं, इस सम्बध में श्री कर्मकाण्ड में आचार्य श्री विद्यासागर जी के कथनानुसार यह भी मानना उचित | इस प्रकार कहा हैहै कि जो विदेह क्षेत्र के तीर्थंकर, दो या तीन कल्याणक वाले होते सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजण विहिं च उक्कस्सं। हैं, उनके जन्म से अवधिज्ञान होना नियामक नहीं है। वे ग्रहस्थ पल्लासंखेजदिमं बारं पडिवजदे जीवो।।618॥ अवस्था में, या मुनि अवस्था में सोलहकारण भावना भाकर तीर्थंकर चत्तारी वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविद कम्मंसो। प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ करके. दो या तीन कल्याणक वाले तीर्थकर बत्तीसं बाराइं संजममुव लहिय णिव्वादि ।।619।। होकर, उसी भव से मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसे जीवों का भी तीर्थंकर अर्थ- प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, देश संयम प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ होते ही, अवधिज्ञान नियम से हो ही जाता और अनन्तानुबन्धि की विसंयोजना की विधि को यह जीव उत्कृष्ट होगा। इसी अभिप्राय को लेकर आचार्य नेमिचन्द्र महाराज ने रूप से पल्य के असंख्यातवें भाग के जितने समय हैं उतनी बार जीवकाण्ड में तीर्थंकरों के अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहा है। | छाड़-छाड़कर पुन: ग्रहण कर स | छोड़-छोड़कर पुन: ग्रहण कर सकता है ।।618 ।। अतः तीर्थंकरों के अवधिज्ञान को भव प्रत्यय ही मानना चाहिये। उपशमश्रेणी पर अधिक से अधिक चार बार ही चढ़ सकता है, पश्चात् क्षपक श्रेणी चढ़कर मोक्ष को ही प्राप्त होता है । सकल जो तीर्थंकर अवधिज्ञान सहित ही जन्म लेते हैं उनके अवधिज्ञान संयम को उत्कृष्ट रूप से बत्तीस बार ही धारण करता है, पश्चात् को अनुगामी भी कहा जा सकता है। मोक्ष प्राप्त करता है। आपका यह प्रश्न बिल्कुल उचित है कि आचार्य उमास्वामी भावार्थ- उपर्युक्त गाथाओं के अनुसार प्रथमोपशम महाराज ने तथा उनके अन्य टीकाकारों ने भवप्रत्ययोऽवधि सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को एक जीव असंख्यात देवनारकाणाम्' में विस्तार करते समय तीर्थंकरों के अवधिज्ञान बार ग्रहण करके छोड़ सकता है, जबकि द्वितियोपशम सम्यक्त्व को भवप्रत्यय क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर भी यही प्रतीत होता है | पूरे संसार काल में चार बार से अधिक बार प्राप्त नहीं कर सकता। कि शायद आचार्य उमास्वामी महाराज और तत्वार्थसूत्र के टीकाकारों १/२०५, प्रोफेसर कॉलोनी का मत भिन्न हो। हरीपर्वत आगरा -२८२००२ मई 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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