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________________ शेषांश चाँदखेड़ी के अतिशय क्षेत्र से महाअतिशय क्षेत्र बनने तक एक वृत्तान्त सतीश जैन इंजीनियर ऐसे परम तपस्वी, महायोगी मुनिराज जिनकी महानता । हो गया। मंदिर की बाहरी दीवार पर भक्तामर के 48 काव्यों के का वर्णन करने के लिए शब्द बौने पड़ जाते हैं, चांदखेड़ी क्षेत्र पर | चित्रमय पत्थर के पाटिये भी अलग-अलग दानदाताओं के नाम से विराजमान थे ही अत: कमेटी एवं समाज ने बड़े अपेक्षा भाव से लगाये जाने की योजना भी मूर्तरूप ले चुकी है। सिंह द्वार के मुनिश्री से निवेदन किया कि यहाँ जो भूगर्भ है उसमें रत्नमयी | पुण्यार्जक श्री अमोलक चंद चूना वाले, कोटा एवं मानस्तंभ के चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा होने की जो जनश्रुति है उसे आप | पुण्यार्जक श्री आर.के. मार्वल्स, किशनगढ़ हैं। अपनी तपस्या एवं साधना से साक्षी रूप प्रदान कर सभी को इन्ही सब कार्यों के चलते मुनिश्री प्रतिदिन अपने प्रवचनों चन्द्रप्रभ भगवान् के दर्शन करायें। परन्तु मुनिश्री बिना किसी | में उस श्रेष्ठी की जिसने बड़े बाबा की प्रतिमा बनवाई होगी एवं संकल्प विकल्प के क्षेत्र विकास हेतु क्षेत्र के वास्तुदोषों के निवारण | उस शिल्पी की जिसने इतनी मनोहारी प्रतिमा गढ़ी होगी की में अपने उपयोग को लगाये रहे। मंदिर के एकदम सामने बनी दो | पुरजोर प्रशंसा करते एवं दोनों को पूरे मन से कोटिशः आशीर्वाद मंजिला धर्मशाला भी वास्तुशास्त्र के अनुसार क्षेत्र विकास में दोषी | देते। ऐसा कोई प्रवचन नहीं रहा जिसमें मुनिश्री ने सेठ किशनदास सिद्ध हो रही थी। अत: उसे गिराने का निर्णय क्षेत्र कमेटी द्वारा की दानशीलता एवं उदारता की चर्चा न की हो। मुनिश्री ने लिया गया। अब इसी स्थान पर एक विशाल लाल पत्थर का | प्रतिदिन बड़े बाबा के ऊपर वृहत शांतिधारा करवाना प्रारंभ की। सिंहद्वार, सरस्वती भवन, अतिथिगृह का निर्माण कार्य चालू है। | मुनिश्री स्वयं वृहत शांतिधारा अपने मुखारविंद से उच्चारण करते देखते ही देखते इन सभी निर्माण कार्यों के लिए पृथक-पृथक दान | एवं शांतिधारा करने वाला पुण्यार्जक ऐसा महसूस करता मानो दाताओं ने अपनी भावना व्यक्त कर पुण्य अर्जन किया। सिंहद्वार | उसने शांतिधारा करके अपना जीवन धन्य कर लिया हो, उसके के सम्मुख ही एक गगनचुंबी मानस्तंभ का निर्माण हो रहा है। | आनंद का कोई पार न रहता सैकड़ों तीर्थयात्री बड़े बाबा एवं आदिनाथ भगवान् की गुफा में एक कोने पर नंदीश्वर जिनालय | मुनिश्री के दर्शन करने प्रतिदिन क्षेत्र पर आ रहे थे। मुनिश्री की स्तंभ रूप में था, जिसका लोगों द्वारा भीड़ के समय में लातें लगने | विशुद्धि बड़े बाबा एवं क्षेत्र विकास के प्रति दिनों दिन बढ़ती जा या उससे टिककर बैठने से अत्यधिक अपमान होता था, मुनिश्री | रही थी। मुनिश्री को बड़े बाबा के आभामंडल का तेज दिनों दिन ने प्रेरणा दे उसे एवं मंदिर के बाहर बने एक छोटे से मानस्तम्भ | बढ़ता हुआ नजर आ रहा था। परंतु ये सारे लक्षण कौनसी अलौकिक को समोशरण मंदिर के सम्मुख संगमरमर की दो सुन्दर छतरियाँ | घटना को जन्म देने वाले हैं यह मुनि श्री नहीं समझ पा रहे थे। बनवाकर उनमें प्रतिष्ठापूर्वक विराजमान करवाया है। अब इनका | माघ सुदी ग्यारस को रात्रि में मुनिश्री को एक विशेष स्वप्न आया अपमान भी नहीं होता एवं इनसे क्षेत्र की शोभा भी बढ़ गई है। जिसे मुनिश्री ने प्रात: काल संघस्थ क्षुल्लकद्वय एवं कमेटी के एक तीसरे बड़े वास्तु दोष के रूप में मुनिश्री ने भोजनशाला का विपरीत | दो प्रमुख व्यक्तियों को वह स्वप्न बताया कि एक दिव्य पुरूष ने कोण में बना बताया जिस स्थान को मुर्दो का स्थान माना जाता है। जो कि गुलाबी रंग की पगड़ी एवं बादामी रंग की शेरवानी पहने फलस्वरूप कमेटी ने निर्णय ले इस स्थान पर पांच मंजिल धर्मशाला | हुए था मुझे जगाया तब मैं उठकर बैठ गया। उसने सर्वप्रथम मुझे का निर्माण कार्य शुरु कर दिया है। सारे कार्यों को विधिवत | नमोस्तु किया फिर मुझसे मंदिर जी में चलने को कहा, तब मैंने शिलान्यास कराकर मात्र डेढ़ माह में निर्माण कार्य शुरु कर दिये | कहा कि अभी तो रात्रि है और साधु रात्रि में नहीं चलते तब उस गये। इसी बीच मुख्य मंदिर के चारों ओर त्रिकाल चौबीसी एवं | देव ने कहा कमरे के बाहर देखिये रात्रि नहीं है। कमरे के बाहर विद्यमान बीस तीर्थंकर विराजमान करवाने की योजना कमेटी ने | देखने पर मैंने पाया कि बाहर काफी उजेला है, तब मैं उस देव के मुनिश्री के सम्मुख रख आशीर्वाद लिया। आशीर्वाद का चमत्कार | पीछे-पीछे मंदिर के अंदर गया। उस देव ने बाहुबली भगवान् के कुछ ऐसा हुआ कि पृथक-पृथक दानदाताओं ने चौबीसी और | दाहिने हाथ की दीवाल पर चुने हुऐ दरवाजे के ऊपर बैठी प्रतिमा चार मंदिरों की घोषणा कर दी तथा, शिलान्यास का कार्य प्रारंभ | के पास एक चाबी लगाई जिससे गुफा का द्वार खुल गया एवं फिर 18 मई 2003 जिनभाषित ' - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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