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________________ बखरी रईयत है भारे की, दई पिया प्यारे की कर लो धरम कुछ बा दिन खा, जा दिन होत रमानें कच्ची भींत उठी माटी की, छाई फूस-चारे की ईसुर कई मान लो मोरी, लगी हाट उठ जानें बेवंदेज बड़ी बेवाड़ा, जेई में दस द्वारे की कवि कह रहें - "खाना-पीना, लेना-देना सब यहीं संसार 'ईसुर' चाये निकारो जिदना, हमें कौन डवारे की का ही है, परन्तु धर्म-ध्यान उस दिन के लिए करते रहो जब जाना इसी प्रकार निम्न पद्य भी देखिए पड़ेगा। संसार में बाजार लगता है फिर उठ जाता है उसी तरह तन को कौन भरोसो करनें, आखिर इक दिन मरनें हमारा जीवन है कवि कहते हैं हामरा कहा मान लो कितने ही जो संसार ओस का बूंदा, ढका लगे से ढरने रखने की सोचोगे यह जीव नहीं रहेगा पंछी की तरह उड़ जायेगा। जौ लौ जी की जिअत जोरिया तौं लों तें दिन भरने इसलिए केवल मौजमस्ती में ही समय मत गंवाओं, कुछ धर्म भी ईसुर इ संसार में आके बुरै काम तो डरनें करते रहो। यही आगे तक साथ देता है।" यह जीवन भी पानी के बुलबुलों की भाँति है। मृत्यु पर विक्रम की उन्नीसवीं सदी के लगभग अंत के (संवत् किसी का वश नहीं हैं 1881) इस बुन्देली कवि ईसुरी के समान ही न जाने और कितने नइयां ठीक जिंदगानी कौ, बनौ पिण्डपानी को ही कवि हुये होंगे, जिन्होंने लोकप्रिय जन बोली बुन्देली में चोला और दूसरो नइयां, मानस की सानी को लोकमर्यादा, नैतिकता एवं धर्म की बातों को जन-जन में प्रसारित जोगी-जती-तपी सन्यासी का राजा रानी को किया होगा। बुन्देली के पद्यों में न जाने कितने ही शब्द प्राकृत जब चाये लै लेउ 'ईसुर' का बस है प्रानी को भाषा के हैं। ईसुरी के पद्यों में न जाने कितने ही शब्द ऐसे भी हैं, चतुर व बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो इस नर देह को पाकर जिन्हें समझने के लिए बुन्देलखण्ड के ग्रामीण परिवेश में रहकर तप-त्याग, तपस्या तथा धर्म के कार्यों को करता है। कवि का | बुर्जुगों से पूछे जायें तभी समझ में आ सकते हैं। आज भी कई कहना है कि त्याग-तपस्या ही श्रेष्ठ है कवि बुन्देली लोकभाषा में रचनायें करते हैं तथा मंचों पर सुनाते जो कोउ जोग-जुगत कर जानें, चढ़-चढ़ जात विमानें हैं। उनकी रचनाओं को सुनकर एक तरफ तो अनायास ही अपनी ब्रम्हा ने बैकुण्ठ रची है, उनइ नरन के लाने माटी की जीवन्त खुशबू अनुभूत हो जाती है, दूसरी तरफ संवेदनाओं होन लगत फूलन की बरसा, जिदना होत रमानें के तार भी झंकृत हो उठते हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं 'ईसुर' कहत मानस को जो तन, कर लो सफल सयाने कि जब संचार एवं सम्पर्क के कोई विशेष साधन नहीं थे साथ ही यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था कि संसार का सबसे लोग अधिक पढ़े-लिखे भी नहीं थे, तब भी जनमानस में मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के लिए ईसुरी जैसे कवि ही संचार माध्यम का बड़ा आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर ने बतलाया कि इस जगत में सभी कार्य कुशलता से सम्भाला करते थे। वो भी अपनी लोक भाषा के लोग प्रतिदिन दूसरे की मृत्यु देखते हैं फिर भी ऐसा मानते हैं कि माध्यम से विधा काव्य वस्तुतः लोगों के दिलों तक इसलिए मैं नहीं मरूँगा। यही आश्चर्य है बुन्देली कवि व्यक्त कर रहा है सहजता से पहुँचती है, क्योंकि वह भी एक सहृदय कवि के दिल आऔ को अमरोती खाकैं, ई दुनिया में आकैं से निकलती है। यदि इनका प्रचार किया जाए तो ईसुरी की श्रंगार नंगै गैल पकर गये, घर गये का करतूत कमाकै परक रचनायें भी किसी रसीले बसन्त और सावन को किसी भी जर-गये, बर-गये, धुंधक लकरियन, घरगये लोग जराकैं महिने में बुला लाती हैं। उनका यह सहज, सात्त्विक, लोकरंजन बार-बार नईं जनमत 'ईसुर'कूँख अपनी माँ कैं आधुनिक युग के फूहड़, अश्लील तथाकथित रचनाओं को उखाड़ने धर्म का फल तथा जीवन में सुख के लिए धर्म की के लिए पर्याप्त है। कमी है तो उसका रसास्वादन करवाने वालों आवश्यकता पर बल देते हुये ईसुर कह रहे हैं - की। यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि ईसुरी की दीपक दया-धर्म को जारौ, सदारत उजयारौ रचनाओं को कोई सफल मंच प्रस्तोता कवि या गायक उसे सस्वर धरम करें बिन करम खुलै न, बिना कुची ज्यौं तारौ प्रस्तुत करे तो आज की नयी पीढ़ी ईसुरी कवि के हृदय से निकले समझा चुके करें न रइयौ, दिया तरै अंदयारौ इन सरस पद्यों की गुदगुदाहट के आगे मनोरंजन के सभी नये कात 'ईसुरी' सुन लो प्यारे-लग जै पार नबारौ संसाधनों को एक बार के लिए अवश्य विस्मृत करने में पूर्ण इस जीव को पंक्षी की तरह बतलाते हुये उन्होंने लिखा है क्षमता रखते हैं। राखें मन पंछी ना सने, इक दिन सब खां जानें अनेकान्त विद्या भवनम् बी-23/45 पी-6 खा-लो, पी-लो, लै-लो, दे-लो ये ही रहै ठिकाने शारदानगर कॉलोनी वाराणसी - 10 मई 2003 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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