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सम्पादकीय
दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान के प्रमाण
प्रस्तुत अंक में माननीय पं. नीरज जी जैन एवं पं. मूलचन्द्र जी लुहाड़िया के लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं। मान्य नीरज जी ने अपने स्पष्टीकरण में लिखा है कि उन्होंने अपने वक्तव्य में यह कहा था कि "तीर्थों और मंदिर-मूर्तियों पर श्वेताम्बरों द्वारा स्वामित्व का विवाद खड़ा किये जाने की स्थिति में हमारे शिलालेखों, मूर्तिलेखों और मूर्तियों पर इन देवी-देवताओं का अंकन भी हमारे स्वत्व का प्रमुख प्रमाण हो सकता है।"
मैं नीरज जी द्वारा प्रयुक्त 'प्रमुख' शब्द से, सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। यदि प्रमुख' के स्थान में अतिरिक्त' शब्द का प्रयोग होता, तो सहमत होने में बाधा न होती। मेरी दृष्टि से दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान का प्रमुख प्रमाण अपरिग्रह और वीतरागता की व्यंजना करती हुई सर्वथा वस्त्ररहित नग्नता ही हो सकती है। प्रतिमा के आस-पास दिगम्बरमत-सम्मत शासन-देवताओं का मूर्तन अतिरिक्त प्रमाण अवश्य हो सकता है। छठी शती ई. के पूर्व की जिन प्रतिमाओं के समीप शासन देवताओं का अंकन नहीं मिलता, उनके दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने का एकमात्र अकाट्य प्रमाण उनकी वीतरागता- व्यंजक सर्वथा अचेल नग्नता ही है। सर्वथा अचेल से तात्पर्य है देवदूष्य वस्त्र से भी रहित तथा नग्नता से अभिप्राय है कायोत्सर्ग मुद्रा में होने पर पुरुषचिह्न का दृष्टिगोचर होना।
श्री नीरज जी ने लिखा है- "जब किसी न्यायालय में किसी प्रतिमा के स्वामित्व का विवाद प्रस्तुत होता है, तब उस पर दिगम्बर समाज का स्वत्व सिद्ध करने के लिए मूर्ति की वीतरागता और नग्नत्व न्याय की दृष्टि में निर्णायक साक्ष्य नहीं माने जाते। इसका कारण यह है कि ऐसे सभी विवादों में श्वेताम्बरों का कथन यह होता है कि वे दिगम्बर और श्वेताम्बर अथवा सवस्त्र और वस्त्रविहीन, दोनों प्रकार की मूर्तियाँ पूजते हैं।"
किन्तु उनके कथन को न्यायालय प्रामाणिक कैसे मान लेता है? इसलिए कि हम यह सिद्ध नहीं कर पाते कि श्वेताम्बर बन्धुओं का कथन सत्य नहीं है। और यह इसलिए कि हमने श्वेताम्बर ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया। प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने स्वयं लिखा है कि तीर्थंकर भी सर्वथा अचेल नहीं होते, मुनियों की तो बात ही क्या? सभी तीर्थंकर एक देवदूष्य लेकर प्रव्रजित होते हैं
"जिनेन्द्रा अपि न सर्वथैवाचेलकाः, सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं' इत्यादि वचनात्।" (विशेषावश्यक भाष्य-वृत्ति गाथा २५५१-५२)
जब साक्षात् तीर्थंकर देवदूष्य-वस्त्रयुक्त होते हैं, तब उनकी प्रतिमाएँ भी देवदूष्ययुक्त होनी चाहिए , अन्यथा उनका बिम्ब जिनबिम्ब नहीं कहला सकता। इसीलिए सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी लिखते हैं
"आज से २००० वर्ष पहले मूर्तियाँ इस प्रकार से बनायी जाती थीं कि गद्दी पर बैठी हुई तो क्या, खड़ी मूर्तियाँ भी खुलेरूप में नग्न नहीं दिखती थीं। उनके वामस्कन्ध से देवदूष्य वस्त्र का अंचल दक्षिण जानु तक इस खूबी से नीचे उतारा जाता था कि आगे तथा पीछे का गुह्य भाग उससे आवृत हो जाता था और वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया। जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लग सकता था।" (पट्टावली पराग, पृष्ठ ४४ प्रकाशन वर्ष १९५६)
श्वेताम्बर परम्परा में नग्नता को अश्लील, लोकमर्यादाविरुद्ध तथा कामविकारोत्पादक माना गया है। इसलिए श्वेताम्बर मानते हैं कि तीर्थकर नग्न होते हुए भी नग्न नहीं दिखते, क्योंकि उनका गुह्यप्रदेश उनके शुभ प्रभामंडल से वस्त्रवत् आच्छादित रहता है। इसलिए उन्हें देखकर अश्लीलता का आभास नहीं होता, न ही स्त्रियों में मोहोदय (कामविकार का उदय) होता है। १७ वीं शती ई. में हुए श्वेताम्बर मुनि उपाध्याय धर्मसागर जी ने यह बात अपने ग्रन्थ 'प्रवचन परीक्षा' में इन शब्दों में कही है
मई 2003 जिनभाषित
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