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________________ | काल द्रव्य | space." का विस्तार क्रमशः कम होना प्रारंभ हो जायेगा और गति भी घटती । उपादान रूप से नहीं इस अपेक्षा से स्वतंत्र द्रव्य माना जा सकता है। जायेगी। "काल द्रव्य" अकाय रूप है। इसके समर्थन में एडिण्गटन इस प्रकार आधुनिक विज्ञान आकाश द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता का कथन “Ishalluse thephrase times arrowtoexpress को सिद्ध करता है। this one way property of time which no analogue is (4) काल द्रव्य- पदार्थों के परिणमन में काल द्रव्य | उदासीन कारण होता है। आ. उमास्वामी ने 'कालश्च' सूत्र के द्वारा काल द्रव्य की अनंतता के विषय में उन्होंने मत प्रकट इसे स्वतंत्र द्रव्य माना। जिसका अविभागी कण- 'समय' है। किया- "The world is closed in space dimension but it विज्ञान के कालाणु (Unit of time), को एक इलेक्ट्रॉन को | is open at forth end to time dimension" मंदगति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में लगा | काल को निश्चय काल और व्यवहार काल के रूप में समय माना है। ऐसा काल द्रव्य- "सोऽनन्त समय:" (40-5) | परिगणित किया जाता है 'कालाणु' निश्चय काल है, जबकि अर्थात् अनंत कालाणु (समय) वाला होता है। प्रो. एडिण्टन ने समयादि का विभाजन- व्यवहार काल है। कहा- "टाइम इज मोर टिपिकल ऑफ फिजिकल रिएलिटी दैन | (5) मंत्र, ध्यान और भाव-रसायन-जिन ध्वनियों का मैटर"। घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है, उन ध्वनि-समुदाय को प्रत्येक वस्तु-तीन देशिक (दिक्) आयामों के साथ चौथे | मन्त्र कहा जाता है। ऊँ ह्रीं, क्लीं ब्लू आदि बीजाक्षर हैं, इनमें 'काल' आयाम से भी युक्त होती है, अत: वस्तु को काल से पृथक विस्फोटक शक्ति होती है। इनके अर्थ नहीं होते, बल्कि इनके अस्तित्व वाला नहीं मान सकते। मिन्को के चतुर्थ आयाम सिद्धांत उच्चारण से अद्भुत शक्ति की तरंगें, उद्गम होती हैं मंत्र, शब्द (Four Dimesional theory) ने एक नयी दृष्टि देकर वस्तु के उच्चारण का विज्ञान है। जो कषाय भावों को मंद (विरल) बनाता परिवर्तन में 'समय' आयाम को भी सम्मलित किया है। जैन दर्शन है तथा अशुभ भावों को शुभ भावों में बदल देता है। भी यही कहता है ऊँ शब्द का लम्बा जोर से उच्चारण बहुत वैज्ञानिक है। 'वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' इससे मूलाधार से नाड़िया व अपान वायु ऊपर की ओर ॥22-5 ।। तत्वार्थसूत्र। खिचती है साथ ही प्राण वायु अंदर जाती है। नाभिकेन्द्र (जहाँ व अर्थात् काल द्रव्य का उपकार-वर्तना (ध्रौव्य), परिणाम मणिपुर चक्र होता है) हल्के से पीठ की ओर दबता है तथा हृदय और क्रिया आदि हैं। पदार्थ की आयु की विस्तार और संकुचन के पास अनाहत चक्र होता है, जहाँ प्राण वायु का कुम्भक होता है। परत्व एवं अपरत्व है । आयु की दीर्घता का अल्पता में और अल्पता ह्रीं के उच्चारण से भी मणिपुर चक्र पर विशेष दवाब पड़ता है। ये का दीर्घता में बदल जाना परत्व एवं अपरत्व हैं, एक वैज्ञानिक ऊर्जा केन्द्र हैं- इससे शरीर की आभा बढ़ती है। णमोकार मंत्र में उदाहरण से यह स्पष्ट किया जाता है: | 'ण' का 10 बार उच्चारण होता है। 'ण' बोलने से जीभ की नोंक एक नक्षत्र की पृथ्वी से दूरी 40 प्रकाश वर्ष है अर्थात पृथ्वी का पिछला भाग तालमेलकाता के जाल मस्तिष्क की से वहाँ तक प्रकाश को जाने में 40 वर्ष लगेंगे। प्रकाश वेग =30 निचली परत है। लयबद्ध घर्षण से तालु व जीभ कोशिकाओं में लाख किमी/सेकण्ड है। यदि एक रॉकेट 2 लाख 40 हजार कि.मी./ क्षोभशीलता व कपाली- तंत्रिकाओं में परिस्पंदन होता है। जीभ के वेग से चले तो 50 वर्ष में वहाँ पहुँचेगा। परन्तु काल का संकुचन ऋण व तालु धन विद्युत का केन्द्र माना जाता है इन दोनों के घर्षण (जगेराल्ड के संकुचन नियमानुसार) 10:6 के अनुसार 30 वर्ष ही से- धन व ऋण विद्युत का मिलन होने से ऊर्जा का निर्माण होता लगेंगे। इस प्रकार काल-गति से भी प्रभावित होता है। है, जो आज्ञा चक्र को जाग्रत करता है और नाड़ियाँ उससे भर जाती श्वेताम्बर परम्परा में काल को- औपचारिक द्रव्य के रूप हैं, योगीजन की दिव्यता का यही कारण होता है। उनकी संपूर्ण में जीव/अजीव की पर्याय माना, जबकि दिगम्बर परम्परा में स्पष्ट नाड़ियाँ अमृत से सम्पूरित हो जाती हैं। जिससे साधक-दृढ़ इच्छा वास्तविक द्रव्य माना है। गो. जीव. में शक्ति वाला, नियंत्रक, कुशाग्र बुद्धि/निर्णय क्षमता वाला बनता है, लोगागासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। णमोकार मंत्र के जाप्य से साधक श्रुतज्ञान के विकल्प ध्यान से आगे रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥588॥ उठता हुआ निर्विकल्प ध्यान की ओर बढ़ता है इस प्रकार णमोकार' अर्थात् कालाणु रत्नराशि के समान लोकाकाश के एक मंत्र की वैज्ञानिकता असंदिग्ध है। एक प्रदेश में एक-एक रूप से स्थित हैं। सापेक्ष विवेचन करें तो कुछ बिंदुओं पर जैनधर्म की वैज्ञानिकता को रेखांकित विशेष मतभेद नजर नहीं आता। क्योंकि वर्तना परिणामादि- काल | करके इस का समापन विनोवाभावे की इस भावना के साथ करते के लक्षण भी हैं और पदार्थ की पर्यायें भी। पर्यायें पदार्थ रूप ही हैं- "अब मनुष्य को विज्ञान और आत्मज्ञान के पंखों से उड़ना होती हैं। इस अपेक्षा से काल एक- औपचारिक द्रव्य है। परन्तु | सीखकर सच्चे धर्म की संस्थापना करनी होगी। कालाणु भिन्न-भिन्न हैं और पर्याय-परिवर्तन, निमित्त रुप है, | 12 मई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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