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पर उनके किसी भी श्रमणोपासक अथवा श्रमणोपासिका द्वारा वीर निर्वाण की ८ वीं शताब्दी से ९ वीं शताब्दी के अन्त तक अर्हत् मूर्ति की प्रतिष्ठा अथवा अर्हत् मंदिर का निर्माण नहीं करवाया, यह एक निर्विवाद तथ्य मथुरा के कंकाली टीले एवं अन्यान्य स्थानों से उपलब्ध शिलालेखों से प्रकट होता है।" (वही, पृ. २३३)
३. "आचार्य नागार्जुन भी यदि मूर्तियों एवं मंदिरों के निर्माण तथा मूर्तिपूजा के पक्षधर होते, तो उनके समय (वीर नि. सं. ८३०) की उनके श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों और मंदिरों के अवशेष-शिलालेख आदि कहीं न कहीं अवश्यमेव उपलब्ध होते। परन्तु आज तक भारत के किसी भाग में इस प्रकार का न कोई शिलालेख ही उपलब्ध हुआ है और न कोई मूर्ति अथवा मंदिर का अवशेष ही।" (वही, पृष्ठ २३३)
४. "इसी प्रकार उपर्युक्त अवधि (खारवेल के शिलालेख के उठेंकन काल वीर नि.स. ३७९) में किसी समय जैन धर्म में भी मूर्तिपूजा अथवा मंदिर निर्माण को कोई स्थान मिला होता, तो खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से केवल २६ वर्ष पहले स्वर्गस्थ हुआ मौर्य सम्राट् सम्प्रति भी कलिंग की राजधानी अथवा पवित्र कुमारी पर्वत पर अवश्यमेव जिनमूर्ति की प्रतिष्ठापना और जैन मंदिर का निर्माण करवाता। खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व कलिंग में आये तूफान में जिस प्रकार राजप्रासाद, भवन, गोपुर, प्राकार आदि भूलुण्ठित अथवा क्षतिग्रस्त हुए, उसी प्रकार कोई न कोई जैनमंदिर भी क्षतिग्रस्त होता और पर मार्हत खारवेल उसके जीर्णोद्धार का इस शिलालेख में अवश्य ही उल्लेख करता।" (वही, पृष्ठ २३८)
५. "इस प्रकार इस (खारवेल के) शिलालेख में उल्लिखित तथ्य सत्यान्वेषी सभी धर्माचार्यों, इतिहासविदों, शोधार्थियों, गवेषकों और प्रबुद्ध तत्त्वजिज्ञासुओं को उन नियुक्तियों, चूर्णियों, महाभाष्यों, पट्टावलियों एवं अन्यान्य ग्रन्थों के उन सभी उल्लेखों पर क्षीरनीरविवेकपूर्ण निष्पक्ष दृष्टि से गहन विचार करने की प्रेरणा देते हैं, जिनमें मौर्य सम्राट् परमाहत् सम्प्रति के लिए कहा गया है कि उसने तीनों खण्डों की पृथ्वी को जिन मंदिरों से मण्डित कर दिया था।" (वही, पृष्ठ २३९)
आचार्य जी ने खारवेल के उक्त शिलालेख के 'कलिंगजिन' (भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा) पाठ को कलिंगजन पाठ माना है, अत: उन्होंने उससे जिनप्रतिमा अर्थ नहीं लिया है। (वही, पृष्ठ २३५)। इसे छोड़कर आचार्य जी का सम्पूर्ण कथन श्वेताम्बर जिन-प्रतिमाओं के सन्दर्भ में युक्तिसंगत प्रतीत होता है। निश्चय ही छठी शताब्दी ई. के पूर्व की कोई भी ऐसी जिनप्रतिमा प्राप्त नहीं हुई है, जो प्रवचन-परीक्षाकार एवं मुनि श्री आत्माराम जी के अनुसार न नग्न हो, न अञ्चलिकायुक्त। न ही ऐसी प्रतिमा उपलब्ध हुई है, जो मुनि कल्याणविजय जी के कथनानुसार देवदूष्यवस्त्र से आवृत हो और न ही वर्तमान श्वेताम्बर जिन-प्रतिमाओं के सदृश वस्त्राभूषणों से अलंकृत प्रतिमा उपलब्ध हुई है। सबसे प्राचीन सवस्त्र प्रतिमा जीवन्तस्वामी (राजकुमार महावीर) की प्राप्त हुई है, जो ई. सन् ५५० में निर्मित हुई थी। दूसरी सवस्त्र तीर्थंकर प्रतिमा भगवान् ऋषभदेव की है, जो कांस्यनिर्मित एवं कायोत्सर्गमुद्रा में है। यह ई. सन् ६८७ में प्रतिष्ठापित की गई थी। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वस्तुत: छठी शती ई. के पहले श्वेताम्बरों के द्वारा जिन-प्रतिमाओं का निर्माण ही. . नहीं कराया गया। अत: तब तक श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। छठी शती ई. से सवस्त्र जिन प्रतिमाओं का निर्माण शुरु हुआ और तभी से श्वेताम्बर परम्परा में पूजा-प्रथा प्रारंभ हुई। इस प्रमाण से भी श्वेताम्बर बन्धुओं का यह कथन असत्य सिद्ध हो जाता है कि वे नग्न जिनप्रतिमाओं की भी पूजा करते हैं।
ईसा की छठी शताब्दी के पहले की जितनी भी जिन-प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे सब सर्वथा अचेल एवं नग्न हैं। उनमें हड़प्पा तथा पटना के लोहानीपुर में उपलब्ध दो जिनप्रतिमाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ये क्रमश: ३००० ई.पू. एवं ३०० ई.पू. की हैं तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में सर्वथा अचेल एवं नग्न हैं। दोनों मस्तकविहीन हैं और उनमें अत्यन्त साम्य है। सभी पुरातत्त्वविदों ने इन्हें जैन तीर्थंकर की प्रतिमा माना है। ये प्रतिमाएँ प्रमाणित करती हैं कि दिगम्बर (सर्वथा अचेल निर्ग्रन्थ) परम्परा में अत्यन्त प्राचीनकाल से जिनप्रतिमाओं का निर्माण होता आया है और तभी से मूर्तिपूजा भी प्रचलित है।
रतनचन्द्र जैन
मई 2003 जिनभाषित
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