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________________ पपौरा : प्राकृतिक और पौराणिक पावन स्थल कैलाश मड़बैया बाल्मीकि रामायण में पंपापुरी के सरोवर पर मर्यादा | प्रमाणिक तौर पर, मैं बारहवीं-तेरहवीं सदी का मानता हूँ और यह पुरुषोत्तम राम और हनुमान के मिलने का वर्णन मिलता है- निर्माण क्रम गत सदी में भी जारी रहा तेरहवीं और पन्द्रहवीं सदी "पश्य लक्ष्मण ! पम्पाया वक:परमधार्मिकः" राम के, | की तो अनेक भव्य प्रतिमायें प्रामाणिक शिलालेखों सहित दर्शनीय अयोध्या से चित्रकूट के यात्रा काल में बिन्ध्य के इन सघन वनों के | हैं। मंदिरों का प्रांगण-पपौरा, देश में अपनी तरह का विशिष्ट भ्रमण का उल्लेख उपलब्ध है। बुंदेलखंड के वनों को कदाचित् | जिन-तीर्थ है। एक बड़े क्षेत्रफल में केवल मंदिर ही मंदिर हैं, इसीलिये प्राचीन काल से "रमन्ना" अर्थात् रामारण्य (राम का | आबादी यहाँ नहीं है। वन) कहा जाता है। भारत के मध्यप्रदेश स्थित बुंदेलखंड के | पाहन पानी और पादपमयी पपौरा टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से पूर्व दिशा की ओर लगभग पाँच चारों ओर प्रकृति की अद्भुत छटा बिखरी पड़ी है। आम, किलो मीटर की दूरी पर यह "रमन्ना" शुरू हो जाते हैं। टीकमगढ़ महुआ, अचार, कंजी, चिरौल, बांस, सेमर और जामुन के हरित पहुंचने के लिये मध्य रेलवे के ललितपुर स्टेशन से 45 किलोमीटर वृक्ष गलवहियाँ डाले पपौरा मार्ग पर वन्दनवार बनाये आपका की दूरी बस या निजी वाहन से तय करना पड़ती है। टीकमगढ़ से स्वागत करेंगे। करोंदी की गंध, मौलश्री के रंग-विरंगे सुमन और 5 कि. मी. दूर स्थित पपौरा के पास ही एक झील है जो अब मोर-कोयल का नृत्य-संगीत आपको लुभाये बिना नहीं रहेगा। अत्यंत क्षीण स्वरूप में विद्यमान है, “पम्पा ताल" कहलाता है टीकमगढ़ छोड़ते ही पपौरा की ओर दृष्टिपात करने पर आपको और यहीं है भारत में समतल पर स्थित अद्वितीय मंदिरों का नगर गगन चुम्बी जिन मंदिरों की शिखर-पंक्ति के दर्शन, पुलकित पपौरा। इससे पंपापुर का अपभ्रंश "पपौरा" माना जाता है। करने लगेंगे। पहुँचते ही सामने से विशाल रंगीन पाषाणी रथ, अनुमानत: रामायण में वर्णित आम के वृक्षों से घिरा पम्पापुर यही घोडों पर जैसे दौड़ता सा प्रतीत होगा। यह विलक्षण रथाकार संभावित है। रचना वस्तुत: एक पूर्ण मंदिर को ही, पपौरा के प्रमुख प्रवेश द्वार तत: पुष्करणीं वीरौ पंपा नाम गमिष्यथ: पर वास्तुकार द्वारा प्रदान की गई है जो विस्मयकारी है। प्रकृति के अशर्करां विभ्रंशा समतीर्था शैवलाम् पावन आँचल में बसे पपौरा में पाहन, पानी और पादक का राम संजातबालुकां कमलोत्पलशोभिताम्॥ मनोहारी समन्वय है। . (रामायण 3.73.10-11) समतल भूमि पर सर-कमलों से सुशोभित इस पम्पा झील | शिल्प का सुगढ़ सौन्दर्य पर राम के चरण पड़े थे। चूंकि कुछ ही दूरी पर यहीं द्रोणगिरी मध्ययुगीन वास्तु शिल्प का पपौरा केंद्र बिंद है। चारों (अब सेंधपा) भी स्थित है और कादम्बरी के साक्ष्य के अनुसार दिशाओं में तीर्थस्थल और कला केन्द्र अवस्थित हैं- खजुराहो, पम्पा सर दण्डकारण्य प्रदेश में ही होना चाहिए अतएव यदि यह देवगढ, बानपुर, ओरछा, चित्रकूट, द्रोणागिरि, अहार, कुण्डलपुर. अनुमानित तथ्य संभाव्य है तो पपौरा प्राकृतिक और पौराणिक, पन्ना और कलिंजर आदि। तीर्थराज की भाँति बहुसंख्य और उतुंग प्राचीन सौ से अधिक मंदिरों का यही नगर, वह पावन स्मारक मंदिरों का गढ़ पपौरा, चूना मिट्टी और देशी पत्थर के वास्तु होगा जहाँ भगवान राम ने सीता की खोज के लिये हनुमान से निर्माण का अपनी तरह का अनोखा कला केन्द्र है। आस-पास के मंत्रणा की थी। संभव है भौगोलिकों की दृष्टि में, यह महज स्थानीय विभिन्न पुरातात्त्विक स्थलों पर पपौरा का अद्भुत प्रभाव पड़ा है। आत्मगौरव की कल्पना ही हो। खैर ........ । पपारा की पावनता है यहाँ की प्रचीनता में, प्रांजलता है यहाँ के मंदिरों का मेला पौराणिक आख्यानों में और पुलक है पानीदार पापाणों में। परंतु पपौरा के सभी मंदिरों की चर्चा करना जहाँ इस लघु निबंध में भारत वर्ष में समतल पर स्थित इतनी अधिक संख्या में संभव नहीं है, वहीं मंदिरों के संसार से कुछ विशेष का वर्णन हेतु प्राचीन, विशाल और भव्य जिनालयों का एक साथ निर्माण अन्यत्र चयन भी असमंजस उत्पन्न करता है । तथापि कुछ विशिष्ट बिम्बों कही नहीं मिलता। एक सौ आठ मंदिरों ने पपौरा में एक अपूर्व सुमेरु की रचना की है। देवालयों की इस शिल्प-मणिमाला में पर आपकी दृष्टि केंद्रित करना मैं आवश्यक समझता हूँ। प्राचीन काल से वर्तमान तक की प्रचलित सभी मंदिर शैलियाँ प्राचीन समुच्चय संगृहीत हैं यथा मुकुलित कमल, रथाकार, अट्टालिका, वरण्डा. | एक मंदिर के चारों और स्थित बारह प्राचीन मठों के मठ, मेरु, मानस्तंभ, चौबीसी, भौयरे इत्यादि। यों पपौरा का शिल्प | सृजन से तीर्थंकर के समवशरण जैसी बारह सभाओं की संरचना 6 मई 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524273
Book TitleJinabhashita 2003 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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