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बालवार्ता
लालच की जड़ मिटा दी
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती'
धन्यपुर नगर इसलिए धन्य नहीं था कि उसका नाम | है किन्तु धन तो मैं ही रखूगा। एक बार लालची मन और कुटिल धन्यपुर था बल्कि इसलिए भी धन्य था क्योंकि वहाँ धन्यकुमार | आँखों से निद्राग्रस्त भाई को देखा और निर्णय कर लिया कि इसे
और धन्यपाल नाम के दो भाई निवास करते थे। एक ही माता- | इसी समुद्र में फैंक दूंगा ताकि धन पर उसी का एकाधिकार रहे। पिता के पुत्र एक जैसी शिक्षा और एक जैसे संस्कार। दोनों | इसी बीच पानी की हिलौरें किसी बड़े जन्तु से टकरायीं परिश्रमी तो थे ही महत्त्वाकांक्षी भी थे। व्यापार में निपुण दोनों | और उसके छींटे धन्यपाल के चेहरे पर पड़े मानो लालच का भाई जो भी व्यापार करते दिन-रात परिश्रम करते और खूब लाभ परदा धोने के लिए ही वे छींटे पड़े हों। लगा जैसे धन्यपाल कमाते, किन्तु अन्याय, अनीति से धन कमाना उन्हें इष्ट नहीं था। | किसी गहरी खाई में गिरते-गिरते बच गया हो। वह हाय, हाय वे राज्य कर भी पूरा चुकाते थे यही कारण है कि राज्य अधिकारियों करने लगा। हे भगवान् ! मैंने यह क्या विचार किया? भाई, बड़े को कभी उन्हें कर भरने के लिए सूचित नहीं करना पड़ा। दण्ड, | भाई को मारने का विचार, वह भी मात्र तुच्छ धन के लिए। अरे जुर्माना या रिश्वत तो वे जानते ही नहीं थे क्योंकि ऐसा अवसर । नीतिकारों ने ठीक ही कहा है "अर्थमनर्थं भावय नित्यं ।' अर्थात् उनकी जिन्दगी में कभी आया ही नहीं था। उन्होंने अपने व्यापारिक अर्थ की अनर्थता (नश्वरता)का प्रतिदिन विचार करो। कितना केन्द्र पर ठीक अपनी गद्दी के सामने लिखवा रखा था- बुरा होता यदि मैं भाई को मार डालता ? माँ क्या सोचती? मुझे साईं इतना दीजिए जामैं कुटुम समाय।
भी दण्ड का भागीदार बनना पड़ता। अब इस पाप का प्रायश्चित मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय॥
तो करना ही पड़ेगा। हाँ, मैं प्रायश्चित करूँगा। क्षण भर में धन प्राप्ति भी उन्हें ऐसी होती रही कि न वे कभी भूखे | निर्णय हो गया- मन ही मन । एक क्षण को लगा कि भाई क्या रहे ओर न उनके द्वार से कभी साधु भूखा गया। सभी लोगों से | कहेंगे? किन्तु निश्चय अटल था। उसने धन का थैला निकाला उनका व्यवहार अत्यन्त सदाशयता से पूर्ण था। वे लोगों की | और एक-एक करके सब धन समुद्र में डाल दिया। उसे तो एक जरूरतें समझते ओर जो उनसे सहायता बनती करते। सब कुछ | ही विचार बार-बार आ रहा था कि आज धन्यपुर का धन्यपाल साझा था किन्तु न धन्यकुमार ने कभी धन्यपाल को रोका, न | कलंकित होने से बच गया। इधर धन समुद्र में डूबते-उतराते कभी धन्यपाल ने धन्य कुमार को। नगर में समन्वय, सौहार्द | डब रहा था उधर वह सन्तोष की साँस ले रहा था। और सदाशयता की जीवन्त किंवदन्ती थे वे । सब लोग आपस में । इधर नींद खुलते ही धन्यकुमार ने हथेलियाँ फैलाकर उनके गुणों का बखान करते और प्रशंसा करते नहीं अघाते। पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर सिर से हथेलियों का स्पर्श किया और
एक बार दोनों भाईयों को व्यापार के सिलसिले में विदेश | भाई की ओर देखा। अचानक नजर पड़ी तो देखता है धन का जाना पड़ा। वहाँ विदेश मैं वे जो माल भेजते थे उसका भुगतान थैला नहीं है। सारी खुमारी मानों भाग गयी। बैचेन हो भाई लाना शेष था। ठंड के दिन थे और विदेश की ठंड उन्हें कचोटने | धन्यपाल से पूछा "थैला कहाँ है !" लगी। उन्होंने सभी व्यापारियों से रूपये वसूल किये, नया माल प्रश्न सुनते ही धन्यपाल अपने आँसू रोक नहीं पाया। भेजने का आश्वासन दिया और चल पड़े पानी के जहाज में। | बोला भाई आज धन और धन्य की लड़ाई में मैंने धनको हरा पानी का जहाज अपनी गति से बढ़ रहा था, ठंड बढ़ती जा रही | दिया, भाई को पा लिया। और रोते-रोते पूरा वृन्तान्त सुना दिया। थी कब धन्यकुमार की नींद लग गयी, पता ही नहीं चला। बड़े भई के चरण स्पर्श किये, बड़े भाई ने आशीर्वाद दिया।
इधर-धन्यपाल भी पानी में उठने वाली लहरें देखते- अचानक दोनों भाईयों ने समुद्र में देखा पानी के बुलबुले उठ रहे देखते न जाने कब विचारों के समुद्र में गोते खाने लगा उसे पता | हैं, फुट रहे हैं। धन्यकुमार ने विचारा धन और शरीर तो इसी ही नहीं चला। अचानक उसके दिमाग में संसार में प्रतिष्ठा धन से | पानी के बुलबुले के समान क्षणिक, नश्वर हैं और धन्यपाल को ही होती है। नीति भी कहती है- “सर्वे गुणा: काञ्चनमा श्रयन्ति'' | गले से लगा लिया तथा कहा- भाई! अच्छा किया जो तुमने बस उसने तय कर लिया। मैं अपना धन किसी और से साझा | लालच की जड़ ही मिटा दी। नहीं करूँगा, बँटवारा भी नहीं। यह धन्यकुमार बड़ा भाई अवश्य
एल-65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.),
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