Book Title: Bhavarivaran padpurti Stotra Sangraha
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી યશોવિજયજી K, જૈન ગ્રંથમાળા REETसाहेब, लाप२२. Behest-2020 : 300४८४७ वारिवारणपादपादिस्तोत्रसंग्रहः। संशोधक:मुनि-विनयसागरजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमतिकार्यालय प्रन्थाङ्क-३४ अहम् । वाचनाचार्यश्रीपद्मराजगणिसन्दृब्धः श्रीभावारिवारण-प्रादप्रति स्तोत्रादि-संग्रहः संग्राहकः संशोधकश्चखरतरगच्छालंकार-हिन्दीआगमोद्धारकश्रीमजिनमणिसागरसूरीश्वराणां शिष्यो मुनि-विनयसागरः acee(o)bsa Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:-- टन् भीहिन्दीजैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय . जैन प्रेस, कोटा. वीराब्द २४७४ ] प्रथमावृत्तिः [हिन्द सं०१ मेट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम् । विविधग्रन्थनिर्माणकारकाणां माहित्यवाचस्पतिनवरत्नश्रीगिारधरशम्मकविराजमहोदयानां सम्मतिः MOBILE विद्वद्वरमुनिराजश्रीपमराजगणिगुम्फितं भावारिवारणान्त्यपादसमस्यापृात्मकं स्वोपज्ञव्याख्यासहितं भगवतो जिनदेवस्य समसंस्कृतस्तवनं मया विगतनेत्रशक्तिना स्वपुत्र्याः शकुन्तलाकुमार्या वदनात् कर्णगोचरमकारि। स्तवन मिदं कर्तः शब्दशास्त्रोपरि महान्तमधिकारं सूचयति, वाचकानां च चित्तचमत्कृतिं जनयति । दुरूहस्यास्य मुद्रणं परमविद्यानुरागिमुनिराजश्रीमणिसागरसूरिमहोदयानां शिष्येणायुष्मता मुनिवर. विनयसागरमहोदयेन परिश्रमपूर्वकं सम्पाद्य कृतमिति प्रसीदति चेतः । सम्पादयितास्य शरदः शतं जीवतु, बहूनि पनि सत्कार्याणि च विदधद् गुरुजनानां लोकानां च सर्वेषां सुखशान्ति समर्पयतु । नवरतसरस्वतीभवनम् झालरापत्तनं नगरम् श्रीगिरिधरशर्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति शुद्धाशुद्धिपत्रम् । अशुद्धिः शुद्धिः भवपारण तव पारण पारणदाय दानेन सद्मसु-परणदायि मुझग दानेन परविश स्थूलता परमविसंस्थूलता मंडलं बिंब बिंब मण्डलं अगस्तयस्तं अगस्त्यस्त तरकांड तरंड पंचविंशतो पंचविंशति बहुभवभया बहुभवमयारंभरीणाय स्वकर्तरि स्तवकर्सरि निष्ककघपट्टाः निकषकषपट्टाः विवृत्ति विवृति कान्तिपयः कान्तिपंक्तयः भवन् असुरनिकरेणासुर वृन्देन-अमरनिकरामरवृन्देन पाच्यानां पाध्यायानां भवद् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन साहित्य की विविध विशेषताओं में पादपूर्ति साहित्य भी एक है। ११ वर्ष पूर्व मैंने अपने 'जैनपादपूर्ति साहित्य' शीर्षक लेख में तब तक ज्ञात समस्त छोटे बड़े जैन पादपूर्ति रचनाओं का परिचय प्रकाशित किया था, जो कि 'जैन सिद्धान्त भास्कर' के भा. ३ कि० २१३ में प्रकाशित हुआ था। अद्यावधि प्राप्त पादपूर्ति काव्यों में सब से प्राचीन श्रा. जिनसेन का पार्श्वभ्युदय काव्य है, जो कि महाकवि कालिदास के मेघदूत की समग्र पादपूर्ति के रूप में बनाया गया है । श्रा. जिनसेन का समय : वीं शती है । इसके पश्चात १५ वीं शती से यह क्रम पुनः चालू होता है, और १७ वी १८ वीं शती में बहुत तेजी पर आ जाता है, जोकि अबतक विद्यमान है । मेरे पूर्वोक्त लेखमें मेघदूत के ७, शिशुपाल वध के १. नैषध के 1, पादपूर्ति काव्य, एवं जैन स्तोत्रों में भक्तामर पर १७, कल्याणमंदिर परं ५, उवसग्गहरं पर १, (तेजसागर रचित ) संसारदावा की ५ *, अन्य स्तुतियों की ५; जैनेतर महिम्न स्तोत्र पर १, कलाप सन्धि पर १,अमरकोष प्रथम श्लोक को १, पादपुर्ति रचनाओं का परिचय दिया गया था। उसके पश्चात् और भी अनेक रचनाओं का पता चला है, जिनका नामोल्लेख यहां कर दिया जाता है१-रघुवंश तृतीयसर्ग पादपार्तरूप जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य र. उपा. समयसुन्दर (प्रेस कापी, हमारे संग्रह में) २-किरातार्जुनीय प्रथमसर्ग समस्या पर्वलेख, पत्र , विजय धर्मसूरि ___ज्ञानमंदिर, आगरा. नमें नं ३ का रचयिता वानसागर है, जिसकी प्रति हमारे संग्रह में हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। ३-महिम्न पादपूर्ति , ऋद्धिवर्द्धनसरि कृत ऋषमस्तोत्र, रसोक ३३ ( उ. सुखसागरजी व हरिसागरसरिजी के पास !. ४-भक्तामर पादपूर्ति १. भक्तामर शतद्वयी दि.पं लालाराम शास्त्री (प्रकाशित) २. भक्तामर पादपूर्त्यात्मकं गिरिधर शर्मा नवरत्न ३. चन्द्रामलक भक्तामर जयसागरसरि ४.पादपूर्त्यात्मकं स्तोत्रम् विवेकचन्द्र ५. हरिसागरसूरि गुणवर्णनरूप कवीन्द्रसामर ५-कल्याणमंदिर पारपूर्ति---- १. लक्ष्मीवल्लभ शि: लदमीसेन रचित श्लो.. (पत्र १ हमारे ग्रह में है) २. पूज्य गुणादर्शकाव्यम् ,स्था. घासीलाल (सानुवाद श्रीलालचरित्र में प्र.) ३, कालू भलामरम् तेरहपंथी साधु रचित ( उ. तेरापंथी इतिहास) ४ विजयक्षमासूरि लेख श्लो. ३८, स. १७७८ रचित (विजयधर्मसूरि ज्ञानमंदिर आगरा) ५. कल्याण मंदिर पादपूात्मकं स्तोत्रम् पं० गिरधरशर्मा १. उवसग्गहर पादपूर्ति, जिनप्रभसरि या लक्ष्मीकल्लोल रचित गा.२. ५. संसारदावा पादपूर्ति, लक्ष्मीवल्लभ रचित पार्श्वस्तक्न गा. १७ (भुवनभक्तिभंडार बं. १२, हमारे व मुनि विनयसागरजी के संग्रह में) समस्या स्तव के नाम से अन्य अनेक स्तोत्र प्राप्त हैं पर मावारिवारण की पादपूर्ति की कोई भी रचना अद्यावधि प्राप्त नहीं थी। हर्ष का विषय है कि मुनि श्रीविनयसागरजी की शोध से यह प्राप्त हुई है,एवं उन्हीं के प्रयन से यहां प्रकाश में भी भारही है । माशा है आपका साहित्यानुराग दिनोदिन इसी प्रकार प्रमिवृद्धि पाता रहेगा। भावारिवारण स्तोत्र के मूल रचयिता जिस भावारिवारण स्तोत्र की पादपूर्ति प्रस्तुत अन्य में प्रकाशित हो रही है, बस मूल स्तोत्र के रचयिता जिनवल्लभमरिबी-१२-राति के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्था समर्थ विद्वान थे, अापके अन्य अनेक सुन्दर स्तोत्र, काव्य एवं सैद्धान्तिक अन्य उपहब्ध हैं, जिसका संग्रह एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करने का मुनि विनयसागरजी का विचार है, अतः उनके सम्बन्ध में उसी ग्रंथ में प्रकाश डाम जायगा। भावारिवारण समसंस्कृत भाषा में है, ऐसी रचना निर्माण करने के लिये भाषा पर पूर्ण अधिकार एवं सन्दचयन के लिये विशाल शब्दकोष-ज्ञान अपेक्षित है, प्राचार्यश्री की विद्वता असाधारण थी, प्रस्तुत कृति आपकी सफल रचना है । ऐसी अन्य रचनाएं इनीगिनी ही प्राप्त है । समसंस्कृत में रचना का प्रारंभ आ• हरिभद्रसूरिजी के संसारदावा स्तुति से होता है । रसी ग्रंथ में प्रकाशित दूसरी रचना पार्श्वस्तोत्र पद्मराज की स्वोपज्ञ वृति महित है,) और तीसरी रचना संग्राम नामक दण्डकमयी जिनस्तुति के रचयिता भुवनहिताचार्य हैं, जिनके रचित नेमिनाथ स्तोत्र (गा. २५ आदि पद-सिरी मिरीसर रेक्य मंडल के अतिरिक्त कुछ मी ज्ञात नहीं है । ऐसी दण्डक स्तुतिये ४-५ ही अवलोकन में आई हैं, इसका छंद वहा लम्बा होता है । यह कृति मुक्ताहितसूरिजी की विद्वता की सूचक है। मावारिवारण पादपूर्ति के रचयिता की गुरूपरंपग इस प्रन्य में प्रकाशित *'भावारिवारण पादपूर्ति स्तव' आदि के रचयिता वा. पनराज खरतरगच्छाचार्य जिनहंससूरिजी के विद्वान शिष्य महोपाध्याय पुण्यसागरजा के शिष्य थे, अतः जिनहंससरि और महो. पुण्यसागरजी का संक्षिप्त परिचय देकर आपकी साहित्य सेवा एवं शिष्य संतति का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। जिनहंसमरिः-श्राप जिनसमुद्रसूरिजा के पट्टधर थे। सेत्रावा नगर वास्तव्य चोपड़ा गोत्रीय सा. मेघराज की धर्मपत्नी कमलादे (महिगबदे) की *मूल भावारिवारण स्तोत्र काव्यमाला में एवं जयसागर उपाध्याय की वृति सहित हीरालाल हंसराज द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इस स्तोत्र पर मेरुसुन्दर आदि की अन्य कई वृत्तिये, अपचुरि, और रबादि उपजाय हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) प्रस्तावना। कुक्षि से सं. १५२४ में भापका जन्म हुआ था । सं. १५३५ में १२ वर्ष की अल्पावस्था में जेसलमेर में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। सं१५५५ *के ज्येष्ठ शुक्ला ६ को बीकानेर के मंत्रि कर्मसिंह वच्छावत ने लक्ष पीरोजे द्रव्य व्ययकर प्राचार्य शान्तिसागरसूरि से सूरिमंत्र दिलाया,उस समय मंत्रीश्री ने पदोत्सव बड़े समारोह से किया ।प्रामानुगाम विहार कर धर्म प्रचार करते हुए एक समय आप आगरे पधारे । श्रीमालज्ञातीय डुंगरसी और उसके भाई पामदत्त ने प्रवेशोत्सव बड़े धूमधाम से किया, जिसका वर्णन उ.भक्तिलाभ रचित गीत xमें पाया जाता है। बादशाह सिकन्दर ने पिशुनों के कथन एवं इर्ष्यावश आपको बंदी कर लिया पर आपने उसे चमत्कार दिखाकर ५०० कैदियों को छुड़ा "बंदी छोड़" विरुद प्राप्त किया। इससे जैन शासन की बड़ी प्रभावना हुई । स. १५८२ (१५७२?) में आपने प्राचारांगसूत्र की दीपिका बीकानेर में बनाई । आपके रचित कल्पान्तर्वांच्य की ६७ पत्रों की प्रति डुंगरजी भन्डार जैसलमेर में प्राप्त है । आपने अनेकों विद्वानों को उपाध्यायादि पद प्रदान किये और मंदिर व मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं की । सं. १५८२ में धर्म प्रचार करते हुए आप पाटण पधारे और ३ दिन का अनशन कर स्वर्ग सिधारे । * महोपाध्याय पुण्यसागर भापके शिष्य हर्षकुल रचित गीत के अनुसार आप उदयसिंह की धर्म पत्नी उत्तमदेवी के पुत्र थे। जिनहंससूरि के शिष्य होने के कारण आपकी दीक्षा १५८२ के पूर्व ही संभव है । उस समय १०/१२ वर्ष की आयु रही किसी पहावलि में सं, १५५६ लिखा है सम्भवतः इसका कारण मारवाड़ी गुजराती संवत प्रचलन समय का फेर है। ३ ४३. . जैन काव्य संग्रह पृ. ५३. ४ देशाई, वेलणकरादि ने इसका रचनाकाल सं० १५८२ लिखा है पर संभवतः १५७२ होगा। दीपिका की प्रशस्ति में "मुनि शरचन्द्रमित वर्षे" पाठ है, संभव है कि मुनिके आगे का द्वि. शब्द छूट गया हो। ' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। हो तो जन्म सं. १५७० के लगभग संभव है। सैद्धान्तिक ज्ञान आपका बहुत बढ़ा चढ़ा था। अपने समय के आप महान् गीतार्थ थे। यु. जिनचन्द्रसूरि आदि भी सैद्धान्तिक विषयों में आप से सलाह लेते थे। सं १६०४ में जिनमाणिक्यसूरिजी के आदेश से रचित सुबाहु सन्धि में आपने उपाध्याय पद का सूचन किया है अतः इससे पूर्व ही जिनमाणिक्यसूरिजी ने श्रापको उपाध्याय पद प्रदान किया निश्चित है । जिनचन्द्रसरिजी के समय में तो तत्काल उपाध्याय पदस्थ मुनियों में सबसे बड़े होने से आप महोपाध्याय पद से प्रसिद्ध हुए। आपकी भाषा बढ़ी प्रौढ़ एवं प्राचीनता को लिये हुए थी, अतः आपकी : ७ वीं शताब्दि की रचनाओं में भाषा १५-१६ वीं का सा आभास मिलता है। यु. जिनचन्द्रसूरिजी के पौषधप्रकरणवृत्ति का आपने संशोधन किया व उनके आदेश से ही साधुवंदना (गा. ८६) एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति की रचना की । सं. १६१६ में जेसलमेर में मंत्रि श्रीवंत पुत्र पद्मसिंह ने परिवार सह आपको संदेहविषौषधि पत्र ६८ की प्रति बहराई थी। सं. १६४० में जिनवल्लभसूरिजी के प्रश्नोत्तरषष्टिशतक काव्य पर वृत्ति *(प्र. १५.०) बनाई एवं सं. १६४५ में जेसलमेर में जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति (ग्र १३२७५) की रचना की । वृद्धावस्था के कारण इन दोनों वृत्तियों की रचना में आपके शिष्य पद्मराज ने सहायता की थी । जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति का प्रथमादर्श आपके प्रशिष्य ज्ञानतिलक ने तैयार किया था। सं. १६५० में जेसलमेर में जिनकुशलसूरिजी की चरण पादुका की प्रतिष्ठा की, और संभवतः इसके पश्चात् शीघ्र ही वहीं स्वर्ग सिधारे । ___ आपकी उल्लेखनीय बड़ी रचनाओं का निर्देश उपर किया जा चुका है. अब स्तवनादि की सूचि दी जा रही है १. चौवीस जिन स्तवन (नामकरण गर्भित) गा. २० हमारे संग्रह में २. , ,, ,, (५ कल्याणक गर्भित) गा. २२ प्रकाशित. *इसकी एक प्रति मुनि विनयसागरजी के संग्रह में है, और उसके प्रकाशन का भी विचार कर रहे हैं। x2. जैसलमेर लेख संग्रह भा.३ पृष्ट १२१ लेखांक २५९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३. श्रादिनाथ स्तवन गा. २६. बीकन्यर, प्रकाशित ४. श्रादिनाथ स्तवन 1. पैतीस अतिशय गर्भित स्तवन गा. १७ ६. जिन प्रतिमापूजा स्तोत्र गा. १५ हमारे संग्रह में ७. ८. नेमिस्तवन गा. ५-६, ____.. पार्श्व जन्माभिषेक स्तवन गा. १६ जेसलमेर संग्रह में १०. संखेश्वरपार्श्व स्तवन गा. ५ ११. पार्श्व स्तवन गा. ७ १२. वीर स्तवन. गा. २१, सं. १३. भी सीमंधर श्रष्टक संस्कृत गा १४. गौतमगीत गा. ५. १५. मणिधारीजिनचन्द्रसूरि अष्टक गा. ६ १६. नववाड़ ब्रह्मवत सज्माय. गा. २० १७. चौसरण गीत गा. ६. १८. नमि राजर्षि गीत गा. ५४. १६. पंच निग्रंथी सज्माय गा. ८. २०. वैराग्य सज्झाय गा. १२. उपाध्याय पद्यराज उ. पद्मराज भी अच्छे विद्वान थे। आपके नामकी दीक्षित राज नंदी पर विचार करने पर आपकी दीक्षा सं. १६२३ के लगभग होनी चाहिए । सं. १६२८ में अहमदाबाद में श्रापके लिखित धर्मशिक्षा सावचूरि पत्र ३ प्राप्त है । जिसका पुषिका लेख इस प्रकार है “लिखिता श्रीपुण्यसागरोपाध्याय मतल्लिकानां पादपद्मचचरीकेण पं. पद्मराज मुनिना। श्रीअहमदावाद महानगरे। सं. १६२८ वर्षे ज्येष्ट ३ दिनेगाधर्मशिक्षा कठिन काव्य है, उसे शुद्ध लिखने के लिये कम से कम १८-२० वर्ष की आयु अपेक्षित है, एवं दीक्षा समय १६२३ में १३ वर्ष के भी तो जन्म सं. १६५० के लगभग संभव है सं. १६४०-४५ में स्वगुरु रचित वृत्तियों में आपके सहाय करने का उल्लेख पूर्व आ ही चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित दराडक वृत्ति सं. १६४३ के (संवत् के उल्लेख वाली ) आपकी सर्वप्रथम रचना है, और सं. १६६६ की शेष रचना मनतकुमार गस हैं। किसी भी अन्य व.वि के रचित काव्य के । चरण को लेकर ३ चरण स्वयं बनाकर उसे अात्मसात कर लेना कठिन एवं विद्वत्तापूर्ण कार्य है। प्रस्तत रचना पधराज की विद्वता की परिचाम । इस अन्य में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। प्रकाशित *दण्डक स्तुति दय की टीका की प्रति पद्मराजजी के स्वयं लिखित बीकानेर की राजकीय अनूप संस्कृत लायब्रेरी में प्राप्त है । जिसकी प्रतिलिपि करवा के मैंने मुनि विनयसागरजी को प्रकाशनार्थ भेज दी थी । पार्श्व स्तोत्र सावचूरि की प्रेस कापी उपा० सुखसागरजी से प्राप्त हुई थी जिसे मैंने कलकत्ते से सिजवाई थी। अब पद्मराज की समस्त रचनाओं की सूची नीचे री जा रही है। १. भुवनहितसरि रचित दण्डक वृत्ति सं. १६४३ २. जिनेश्वरसूरि ,, रुचिर , , सं. १६४४. फलौदी ३. उवमगहर बालावबोध स. १६४६ जेसलमेर पत्र ५ (डुंगरजी भंडार जेसलमेर) ४. अमयकुमार चौपाई सं. १६५० जेसलमेर ५. भावारिवारणपादपूर्ति स्तव स्वोपज्ञ वृत्ति स. १६५६ विजयदशमी जेसलमेर ( इसी ग्रंथ में प्रकाशित ) क. बोबीयजिन र बोल गर्मित स्तवन सं. १६६७., (गा. २७ संग्रह में) .. 'दुल्लक ऋषि प्रबंध सं. १६६७ का. सु ५ मुलतान (गा. १४१) हमारे संग्रह में । ८. सनतकुमार रास स. १६६ १. पार्श्वनाथ लघु स्तवन साक्चूरि (इसी ग्रन्थ में प्रकाशित ). १०. शीतलजिन स्तवन गा. ११ ११. वासुपूज्य स्तवन गा." १२. मरोट नेमिनाय ,, ,, १७ १३. नेमिधमाल ,, ,, ११ १४-१५. नेमि स्तवन , ५-५ १६ महावीर स्तवन ., १५ १७. अष्टापद ,, ,,१४ १८. नवकार छंद , १६.२०. गातमाष्टक गा. गीत गा. ३ २१. जिनवाणी गीत ,, ११ इनमें से एक प्रस्तुत ग्रन्थ में छपी है, दूसरी 'जिनेश्वर दण्डक स्तुते, त्रय टीकोपेता' नाम से स्वतंत्र पुस्तिका मुनिबिमयमागरजी के सम्पादित शीघ्र ही प्रकाशित होगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) प्रस्तावना। ८. ॥ २२ से २५. जिनचन्द्रसूरिजी गीत गा. १४-७-५-४ २६. सनतकुमार गीत गा २४ २७.भरतचक्री सज्माय गा. ८ २८, चादह गुण स्थान स्तवन गा. २१ २६. दशार्णभद्र गीत गा. ६ ३०. बाहुबलि सज्माय गा.१४ ३१. १२ भावनामय पार्श्वस्तव गा. १२ ३२. जंबू गीत , ८ ३३. वयर स्वामी गीत , ३ ३४, पंचेन्द्रिय सज्झाय ,, ३५. स्थूलिभद्र गीत ,, ४ ३६. मोहविलास गीत , ३७ सीमंधर स्तवन ,, १६ ३८. शत्रुजय स्तवन , ३६. यमकालंकार शृंखलाबद्ध स्तवन गा. ३६ ४०. चतुर्विशतिजिन स्तवन गा. २५ ज्ञानतिलक जिस प्रकार विद्वान गुरु के श्राप विद्वान शिष्य थे, उसी प्रकार आपके मी ज्ञानतिलक नामक सुयोग्य शिष्य थे। सं. १६४५ में रचित जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्तिका प्रथमादर्श आपने लिखा था,जिसका उल्लेख पूर्व किया जा चुका है।सं. १६६ ० की दीवाली को आपने गौतम कुलक की विस्तृत टीका बनाई अन्य फुटकर प्राप्त कृतियों में (१) नेमिधमाल गा. ४६, (२) पार्श्वस्तवन गा. ७, (३) नंदीरेण सज्झाय गा. २३, (४) नारी त्याग वैराग्य गीत गा. ११ (५) नेमिनाथ गीत गा. १६ (६) प्रहेलिकाएं आदि हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित पार्श्वलघुस्तव अवचूरि की लेखन प्रति से ज्ञात होता है कि पद्मराजजी के अन्य शिष्य कल्याण कलश थे, जिनके शि, उपा. आनन्द विजय शि• वाचनाचार्य सुखहर्ष शि• नयविमल के सतीर्थ भुवननंदन सं. १७४१ तक विद्यमान थे। प्रमाणाभाव से इसके भागे कब तक आपकी परंपरा विद्यमान रही, नहीं कहा जा सकता। अगरबंद वाटा दीपमालिका सं० २००४ बीकानेर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीगौतमाय नमः ॥ महामहोपाध्याय श्रीमत्पुण्यसागरगाणि विपधिपिछज्यरत्न प्राशुकवि श्रीमत्पद्मराज गणि गुम्फितं-स्वोपज्ञवृत्या चालंकृतम् भावारिवारणांत्यपादसमस्यामयं ® समसंस्कृतस्तवनम् 0 (वृत्तिकार मंगलाचरणम् ) श्रीवर्द्धमानममिनम्य जिनं समस्यास्तोत्रं निजस्मृति कृते विवृणोमि किंचित् । भावारिवारणवरस्तवतुर्यपादबद्धं परोपकृतये समसंस्कृतं च ॥१॥ वन्दे महोदयरमारमणीललामं , कामं महामहिमधामविलासधामम् । वीरं भवारिभयदावकरालकीला संभार-संहरण तुंगतरङ्गतोयम् ॥ १॥ वन्दे इत्यादि । अहं वीरं-वर्द्धमान जिनं चन्दे-रसवीमीति सम्बन्धः। वदि अभिवादन स्तुत्योरिति वचनात् अत्र स्तुत्यर्थे प्रयुक्तः। किविशिष्टं वीरं ? महोदयरमा-मोक्षश्री सैव रमणीसलनांतस्या ललामं-इवललामं तिलकं काम-मत्यर्थ, तथा महांश्वासौमहिमा च महामहिमाधामसेजस्ततोद्वंद्वे महामहिमधामनी तयो विलासधाम-लीलाहम् महामहिमधामविलासधाम, धाम शब्दोऽकारांतोऽपि गृहवाची। तथा भवा-संसाररस एव दुःख दायकत्वादरिःवैरीभवारिस्तस्यययं तदेव परितापहेतुत्वाहाबोदवाग्निस्तस्ययः करालो रौद्रः कीलासंभारोज्वालासमूह स्तShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) स्य संहरण-निराकरणं तत्र तुंगत रंग- उच्च कल्लोलं यत्तोयं तदिव यः स तं भवारिभयदावकराल कीला संभार संहरण तुंगतरंगतोयम् ॥ इति प्रथमवृत्तार्थः ॥ १ ॥ " अथ प्रभोः सर्वगुणोत्कीर्त्तने सुरादीनामशक्ति संभाव्यस्वगर्व परिहरन्नाह - देवा - इत्यादि । देवा:- सुरा नरा मनुष्या उभयेऽपि की दृशा:- विमलबुद्धिगुणा निर्मलमतिमंतो हि-निश्चयेन न अवगच्छंति न जानन्ति । हे देव ! निखिलं समग्रं गुण संचयं गुणवृन्दं ते तव । अतो मंतु ज्ञातुं न नैव तं त्वगुणसंचयं समं सर्व मिन्नोको प्रयुज्यमानत्वान्न पौनरुक्त्यं । अथवा समं सप्रमाणं कतिपयं भलं समर्थो जडपुंगवो - महामूर्खोह मित्यात्म निर्देशे । ततः किं करोमीत्याह- किंतु तथाप्यर्थे हे देव ! तव गुणाणुमेवज्ञानादिगुणलेशमेव उच्छामि गृहीतधान्यावशिष्टकणादानमिव स्तोकं २ गृहामीत्यर्थः ॥ २ ॥ अथगुणलवग्रहणमेव सकलेऽपि स्तोत्रे प्रादुर्भावयिष्य जाह देवानरा विमल बुद्धिगुणाहिनावगच्छन्ति देव ! निखिलं गुण संचयन्ते । मंतुं न तं सममलं जडपुंगवोह छामि किन्तु तव देव ! गुणाणुमेव ॥ २ ॥ pop वीरही सुरसिंधुर सिद्धसिन्धुडिंडीर - पिण्डधवला गुणधोरणी ते । गोविंदवारिरुह संभववामदेव मायाविदेव निवहे न मलीमसा वा ॥ ३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे वीरेत्यादि । हे वीर ! वर्द्धमान स्वामिन् ते तव गुणधोरणी-गुणानां झानादीनां रूपसौभाग्यादीनां वा घोरणी-णिगुं णधोरणी शोभत इति शेषः । कथंभूता गुणधोरणी ? हीरोवन मणिः सुरसिन्धुर ऐरावणः सिद्धसिंधुगंगा तस्या डिंडीरपिंडः फेनपुंजः सिद्धसिंधुडिंडीरपिंडस्ततो द्वन्हे, हीरसुरसिंधुरसिद्ध सिंधु डिंडीरपिण्डास्ते इव धवला शुभ्रा या सा तथा ईदृशी गुणावली किमन्यत्राप्यस्तीत्यत आह-गोविन्दो-विष्णुरिरहसंभवोब्रह्मावामदेवः-शिवः एषां द्वन्द्वे, तेच ते देवलक्षणरहितत्वान् मायाविदेवाश्च । गोविन्द-वारिरुह संभव-वामदेव माया. विदेवास्तेषां निवहः समूहः स तथा तत्र सा गुणावली न नैवा•स्तीत्यर्थः। वा अथवा चेदस्ति तदा मलीमसा मलीनामषी श्यामे. त्यर्थः । इयता देवान्तरेषु दोषा एवोका भवंतीति. यतो दोषान् श्यामान गुणान् शुभ्रान् वर्णयेदिति, को विस्मयः ? ततो गुणाचिच्यात् प्रभुरेव सेव्य इत्यर्थः ॥ ३॥ निस्संगरंग ! तव संगममन्तरेण, चिन्तामणी सुरगवी करणिं चिरेण । नारायणं च मिहिरं च हरं महन्तो, विंदन्ति जंतु निवहा न हि सिद्धभावं ॥४॥ निस्संगेत्यादि । संगः स्वजनादि संबन्धो रंगो विषयादिषु रागः ततो द्वन्द्वे, संगरंगौ ताभ्यां निर्गतो निस्संगरंगस्तत् संबोधनं, हे निस्संगरंग! हे स्वामिन् तवसंगमं मिलनमन्तरेण विना जंतुनिवहाः प्राणिगणाः सिद्धमावं सिद्धत्वं सिद्धिमित्यर्थः । चिरेण चिरकालेनाऽपि न हि नैवविन्दति लभन्ते इति सम्बन्धः । किंभूतं संगम ? चिन्तामणी सुरगवीकरणि मनोवांच्छितसिद्धिदायकत्वात् सुरमणी कामधेनु सदृशं । किंकुर्वम्तो जंतुनिवहाः नारायणं-विष्णु-मिहिरं-सूर्ये च शदो समुShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये हरं-महेश्वरं महंतः पूजयन्तः ॥४॥ भथैकवाक्योक्त्या काव्यद्वयेन प्रभुंस्तौति - छिन्नामयं परमसिद्धिपुरेवसन्तमुल्लासिवासरमणिं महसा हसंतम् । मायातमो निलयसंगममढदेवा , हंकारकंदलदली करणासिदंडं ॥५॥ देवं दया कमलकेलिमरालवालं, धीमन्दिरं सरसवाणि रमारसालम् । चित्तेवहामि वरसिद्धि-रसाल कीरं, संसारसागस्तरी करणिं च वीरम् ॥६॥ छिन्नेत्यादि । देवमित्यादि । अहं वीरं देवं चित्त वहामिध्यायामीत्यर्थः । इति क्रियाकारक सम्बन्धः । किंभूतं वीरं ? छिन्नामयं-निराकृतरोगं परममविनश्वरत्वादुत्कृष्टं यत्सिद्धिपुरं परमसिद्धिपुरं तत्र वसंतं-तिष्ठन्तं । उल्लासी चासौ वासरमणिश्वउल्लासिवासरमणि स्तं देदीप्यमान सूर्य महसा-तेजसा हसन्तं जयन्तमित्यर्थः। मायानिकृतिः तमः पापंतप्तो द्वन्द्वे, मायातमसी, अथवा मायैवतमोध्वान्तं मायातमस्तयोस्तस्य, वा निलय-आश्रयोमाया-तमोनिलयः स चासौ संगममूढदेवश्च संगमामिधमूढसुरो-मायातमोनिलयसंगममूढदेवस्तस्य योऽहंकारोऽहं प्रमुंक्षोभयिष्यामीति गर्वः स एव मनोभूमिजातत्वात् कंदलं नवोत्थितो वनस्पत्यवयवस्तस्य दलीकरां-छेदनं तत्राऽसिदड इवाऽसिदएडः खङ्गपात इत्यर्थस्तं ॥५॥ तथा देवं दीव्यति कीडति परमानन्दपदे इति देवस्तं, दयैष कमलं पगं तत्र या केलिः क्रीडा तया मालमत इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) मरालवालो-हंस शिशुस्तं । धीमंदिरं बुद्धिसदनं सरसा या वाणीरमा - वाग्लक्ष्मीः सरखवाणिरमा तथा रसाल इव-रसाल इक्षुः सतं सरसवाणिरमारसालं । चित्ते बहामीति प्रायोजितमेव । वरसिद्धिरेव प्रधान मुक्तिरेव रसालः - सहकारस्तत्र कीर इब कीरः शुक्रस्तं, वरसिद्धिरबालकीरं । संसार एव दुरुत्तरत्वात् सागर संसारसागरस्तत्र पर पारप्रापणसाधर्म्यात्तरीकर गिन सदृशस्तं । चकारो विशेषणसमुच्चये, वीरं चरमजिनं ॥ ६ ॥ अथ विकारहेतुसद्भावेऽपि प्रभुचेतसो निश्चलवं काव्यत्रयेणा रम्भावभासि करिणीकरपीवरोरुसंरंभमुच्चकुचकुम्भभरेण मन्दम् । अंगं सरंग - परिरंभ - कलासु धीरं, मंजीरचारुचरणं सरसं वहन्ती ||७|| लीलाविलासपरिहासत रंगवेणी, रोलंब पुञ्ज कलकज्जल मञ्जुवेणी / छायावहा कुसुमवाणपुलिन्दपल्ली, भल्लीत्र विद्धबहुकामिकुरंगसंघा ॥८॥ पंकेरुहारुण कराकलकंठरामा वामाग्वा तरुणचित्तकरेणुरेवा । नारी विभासुर ! सुरासुरसुंदरी वा, नालं निरंतु मिह ते विमलाभिसन्धिम् ||९|| त्रिभिःकुलकं रम्मेत्यादि । लीलेत्यादि । पंकेत्यादि । हे विभासुर ! काम्स्या दीप्यमान देव! तव विमलाभिसन्धिं-निर्मळ चित्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat · www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव, निहन्तुं अन्यथाकतं । नारी-मानुषी वा-अथवा सुरासुरसुन्दरी-देवासुररमणी नाऽलं न समर्थेति । तृतीयवृत्तस्थ द्वितीयार्द्ध वोक्ति युक्तिः। किंभूता नारी ? देवी वा ? अंगं - देई घरती-बिभ्रती। किंभृतं अंगं ? रम्भावभासी-कोमलत्वात् कदलीस्तम्भविभ्राजी करिणीकरपीवरो मांसलत्वात्-हस्तिनीशुण्डावत्पीनः । ततः कर्मधारयः। ईदृशः ऊरुसंरंभः-सच्ळ्याटोपो यत्र तत् । तथा उचकुचकुम्भभरेण-उन्नतस्तनकलशभारेण मन्न-मन्थरं सरंगा-सहर्षा याः। परिभकटा-मालिंगनकला अष्टविधा वात्स्यायनकोकशास्त्रप्रसिद्धास्तास्तासु सरंगपरिरं. भकलासु धीरं-निश्चलं वत्तं वा । मंजीरे-नूपुरे, ताभ्यां चारू मनोहरी चरणो यस्मिस्तत्, सरसं-शृंगारादिरसोपेतं, एतादृशं अंगं वहती ॥७॥ पुनर्नारीदेव्योर्विशेषणान्याह-लीला-क्रीडाविलासो-नेत्रचेष्टा परिहासो-नर्म, ततो द्वंद्वे, त एव तरंगा:-जनमनःक्षोभहेतुत्वात् कल्लोलास्तेषां वेणीव वेणी जलप्रवाहः सातथा। रोलंबपुञ्जो-भ्रमरोकर:-कलकजलंप्रधानाअनं ततो द्वंद्वे, रोलवपुञ्जकलकजले तद्वन्मंजू-रम्या वेणीकेशबन्धविशेषो यस्याः सा, वेणी सेतुपवाहयोः देवताडे केश बन्धे इति हैमानेकार्थे । छायावहा-शोभायुक्ता, कुसुमबाणःकामः स एव पुलिदो-मिल्लस्तस्य पल्लीव पल्ली, तदाश्रयभूतस्वात् कुसुमबाणपुलिंदपल्ली, पुलिदशब्दो भिल्लवाची औणादिकः ' कल्पलिपुलिकुरिकणिमणीभ्य इंदक्' इति हैमोणादौ। तथा भल्लोव-इन शब्दस्यतुल्पार्थवाचकत्वात् प्रहरणविशेषतुल्येत्यर्थः । कुत इत्याह-यतो विद्धबहुकामिकुरंगसंघा विद्धास्तोष्ण कटाक्षक्षेपेणांतर्भेदितो बहुकामिनश्चटुलस्वभावत्वात् कुरंगसंघो हरिणयूथं यया सा तथा ॥८॥ पंकेरुह-कमलं तहदरुणी-आरको करो-पाणी यस्याः सा तथा कलकंठररमाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) कोकिलानदारवटामो-मनोहर पारवः-शम्दो यस्याःमा तथा। 'शाकपार्थिवादित्वा' मध्यस्थारवशब्दस्य लोपः।तरणा-युवानस्तेषां चित्तानि मनांसि, तान्येव मदनमदोन्मत्तत्वसाधात् करेणवो-गजास्तेषां प्राहादहेतुत्वानेवेवरेवा-नर्मदातरुणचित्तकरेणुरेवा। नागेनी हे विभासुर! • दीप्र! सुगसुरसुन्दरी सामान्येन देवांगना वा 'जातिनिर्देशादेकवचन' ते-तव विमलाभिसंधिं विमलो-विकारकारणसद्भावेऽपि विकारमलरहितो योऽमिसंधिश्चित्तभावस्तं । अथवा विमलेति भगवतः सम्बो. धनं । किमित्याह-निहंतुं पातयितुमन्यथाकर्तुमिति यावत् इह जगति नाऽलं न समर्थाभूदिति काव्यत्रयार्थः ॥७-८९॥ त्रिभिःकुलकमित्येकवाक्येनैव काव्यत्रयोपनिबन्धमापक'मित्यर्थः ॥ अंहोमयं निविडसंतमसं हरन्ती, सन्देहकीलनिवहं सममुद्धरन्ती। हिंसानिबद्धसमयानयधीदुरूह सम्बन्धबुद्धिहरणी तव देव ! वाणी॥१०॥ मंहोमयेत्यादि । अंहोमयं-पापरूपं निविडसंतमसंसान्द्राधिकारं हरन्ती-नाशयन्ती । संदेहा एव मनःशल्यतुल्यताधायित्वात् कीलाः शंकवस्तेषां निवहः-मूहस्तं संदेह कोलनिवहं समं-सर्व समकालमेव वा उद्धरंती-उत्खनन्ती। एकवचसैवभगवतः सर्वसंदेहसंदोहापोहात् । हिंसानिबद्धाःप्राणिवघोक्तियुक्ता ये समयाः सिद्धान्ता: पापधुतानि, अनयधियः- अन्यायबुद्धयो दुलहा दुर्वितस्तितो द्वन्द्वस्तेषु या संबंधबुद्धिरभिनिवेशावत्यासक्तिस्तस्या हरणी, तन्निवारिणीत्यर्थः ।दशी हे देव! तव वाणी-वाङ्मम प्रमाणमिति गम्यते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) इत्यर्थः ॥१०॥ गम्भीरिमालयमहापरिमाणमंग, सम्बद्धभंगलहरीबहुभंगिचंगम् । नीगलयं नयमणीकुलसंकुलं वा, देवागमं तव नरा विरला महन्ति ॥११॥ गंभीरिमेत्यादि । गंभीरिमा गांमीर्ये तस्य पालयो गंभीरिमालयो महत्परिमाण-प्रमाणं यस्य स महापरिमाणस्ततः कर्मधारयस्तं गंभीरिमालयमहापरिमाणं अथवा गंभीरिमाल येति भवगतः संबोधनं । तथा अंगेषु-आचारादिषु संबद्धाःप्रतिपादिता ये भंगा-भंगकास्त एव लहर्योऽतिगहनसंख्यस्वात् कल्लोलास्तासां बहुभंगयो-बहुविच्छित्तयोऽवान्तरमेदरूपास्ताभिश्चंगो-मनोहरस्तं । 'नीरालयं नयमणीकुलसंकुलं वा' अत्र पादान्तस्थो धा शब्द इवार्थे । स च नीरालय मित्यस्याग्रे योज्यस्ततश्च नीरालयं वा-समुद्रमिव । नगा एव चतुरपरिच्छेद्यत्वान्मणीकुलानि-रत्नसमूहास्तैः संकुलो-व्याप्तः स तथातं। हे देव! तवागम-द्वादशांगाख्यं प्रवचनं नरा-भव्यपुरुषाः विरलाः केचिदेवासन्नसिद्धिका महंति:द्रव्यतो भावतश्चाभ्यर्चयन्ति । अत्र भगवदागमः सागरोपम या वर्णितः सागरोs पिगांभीर्याश्रयो महाप्रमाणः कल्लोलरम्यो रत्नपूर्णश्च भवतीत्युपमालेषः ॥१९॥ मेरीरणं दिवि सुदायगिरं भणन्तो, देवा वहन्ति तव पारणदायिगेहे। घाराचयं वसुमयं च सचेलचालं, मंदारकुन्दकबरं कुसुमं किरति ॥१२॥ मेरीत्यादि । मेरीरणे दुंदुभिनादं दिषि-गगने · सुदायShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) गिरं सुदानगिरं अहो सुदानं २ इति रूपां वाचं भणंत उद्घोषयन्तो देवा वहंति प्रापयन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः। क्की भवपारणदायिगेहेप्रथमादि पारणदातगृहे एकवचनं जात्यपेक्षया, तथा धाराचयं धारासमूहं वसुमयं द्रव्यमयं वसुधारावर्षणरूपमित्यर्थः । च शब्दः पुनरर्थे स चायोक्ष्यते सचेलचालं सचेलोत्क्षेपं यथा स्याचथा, मंदाराणि कल्पवृक्ष प्रसूनानि कुदानि प्रसिद्धानि तत एषां द्वन्द्वे, मन्दार कुन्दानि तैः कबरं मिश्रं मन्दारकुन्दकवरं कुसुमं च पंचवर्ण 'पुष्पमेकवचनं जात्यपेक्षया' किरंति विक्षि. पंति सर्वतो विस्तारयन्ति पुष्पवृष्टिं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ अत्र काव्ये भगवतः पारणदाय दानेन सद्मसु देवाः पंचदिव्यानि प्रकटयन्तीति निवेदितं ॥१२॥ उदंड चण्ड करणोरुतुरंगवारमुद्दाम तामस करेणु बलं च वीरम् । संमोह भूरमण भूरि बलं दलंत मुत्तंगमारकार केसरिणं नमामि ॥१३॥ उइंडेत्यादि । अहं वीरं वर्द्धमानस्वामिनं नमामि नमः स्करोमीयुक्ति योजना। किंभूतं वीरं ? उहंडचंडानिदुर्जेयत्वाः दतिहढानि यानि करणानि-इन्द्रियाणि तान्येवातिचपलत्वादुरवो गरिष्ठास्तुरंग धारा अश्वसमूहा यत्र तत्तथा, उइंडचंडकरणोरुतुरंगवारं । तथा उहामंदुर्निवारं यत्तामसं पापपटलं नदेव परविशं स्थूलता हेतुत्वात् करेणु बलं हस्ति सामर्थ्य यस्य यत्र वा उत्तथा, उद्दामतामसकरेणु बलं । च समुच्चये, ईदृश संमोह भूरमण भूरिबलं दलतं सहरंतं संमोह पच सर्वकर्मसु दुर्जेयत्वादिना मुख्यत्वाद्रमणो राजा तस्य यद्धरि प्रचुरं बलं सैन्यं तत्प्रकृति समुदायरूपं तत्तथा, संमोहभूरमण भरिबलं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कंचम्मूत वीरं ? उत्तंगमार:-प्रचण्डस्मरः सएव दुर्घर्षस्वभावत्वात् करी हस्ती तत्र केसरीव केसरीसिंहस्तं । ईदृशं वीरं नमामि ॥१३॥ चंदारु चारु सुर किन्नर सनिकायं, विच्छिन भीमभय कारण संपरायम् । निस्सीम केवलकला-कमला-सहायं, वीरं नमामि नव हेम समिद्धकायम् ॥१४॥ बन्दार इत्यादि । बन्दारयः सानन्दं प्रणमनपराचारवो रम्याः सुराणां देवानां किन्नराणां व्यन्तर-विशेषासां सनिकायाः संगत समूहा यस्य स तं, विच्छिन्नाः समूल मुन्मूलिता मीमभयकारणानि संपरायाः कषावा येनं स तथा तं, । संपराय शब्दः कपायवाची जैनागम प्रसिद्धो यशात् सूक्ष्मसंपरायं चारित्रं सक्षमसंपरायं गुणस्थानमागमे गीयते । अथवा मपास्त भीमभयहेतु संग्रामं निस्सीमा-अपरिमिता या केवलकक्षा केवलबान चातुरी सैव कमलालक्ष्मीः सा सहायो यस्य सत। एवं विघं वीरं वर्द्धमानजिनं नमामि नमस्यामि । नवहे. मबत् नव्यकांचनवत् समिद्धो दीप्तिमान कायो यस्य सतं ॥१४॥ आरामधाम गिरि मंदर कंदरासु, मायन्ति भूमिवलये गुणमंडलं ते । नारी नरा सुरवरा अमरा अमंद, संदेह रेणु हरणोरु समीर वीर ! ॥१५॥ मारामेत्यादि । हे वीर! नारी नरा सुरवरास्तथा अमरास्ते नव गुणमण्डलं गुणगणं गायन्तीत्युक्ति युक्तिः । कुत्र दिवाहमारामानन्दनादि वनानि घामानिमंचन विमानाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) दीनि स्थानानि । मिरयो वर्षधराद्याः शैला दरोमेक-कादय: गुहास्ततो द्वन्द्वस्तासु आरामधामगिरिमंदरकंदरासु।पुनः? भूमिवलये पृथ्वीमण्डले नार्यश्च नराश्व असुरकिनारीनरासु. रवराः तथा अमराः सुराः अमंदेति प्रभोः संबोधनं । हे ममंद ! सभाग्य "मंदो मूढे शनौरोगिण्यलसे भाग्यवर्जिते । गज जाति प्रमेदेल्पे स्वैरे मंदरतेखले ॥” इति हैमानेकातः अथवा अमंदा बहवो ये संदेहाः संशयास्तएव कालुष्यापादकत्वाद्रेणपस्तेषां हरणे उरूः प्रचण्डः समीरोवायुस्तत्संबोधन हे अमन्द ! संदेहरेणु हरगोरु समीर वीरेति प्रासंबदं ॥१५॥ संसारि काम परिपूरण कामकुम्भ, संचारि हेमनवकंज परंपरासु । सेवामि ते घरमदेव ! समंतसेवि, संघावली दमिगणं चरणं चरन्तम् ॥ १६॥ संसारीत्यादि । हे चरमदेव ! अतिमनिनवसमान स्वामिते-तव चरणयुग्मं 'जात्यपेक्षायामेकवचनं मह सेवामि प्रामादिना श्रयामि सेवामीति परस्मैमदं, आत्मनेपदमनित्वमित्युक्तरदुष्टं । कथंभूतं चरण ? संसारिणो जीवास्तेषां कामयरिपूरणे मनोवांछितदाने काम कुंभव कामकुम्भस्तं । पुनः कथंभूतं ? संचारीणि चरिष्णूनि देवैः संचार्यमाणानि सनि हेमनवकंजानि स्वर्णमयनवसंख्वकमलानि 'वं पीयूषफ्नयोरिति हैमानेकार्थोक्तः। ततः कर्मधारये तानि तेषां परंपरा क्सयस्तासु, संचारिहेमनवकंजपरंपरासु। चरतं गमनं कुर्वन्तं। पुनः फिचरणं? समंतसेवि संघावली चतुर्वर्णसंध लिन दमिमणः साधुसमूहस्ततो द्वन्द्वे संघाचली दमिगौलवंसं समीपं सेवत इति समंत से विनौ संघावलीद मिगौ रस्वा पत्र वा तं समंतसेवि संघावली दमियां साधुगणस्व संगांतर्गत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) त्वेऽपि यत्पार्थक्येनोपादानं तत्तस्य प्राधान्यख्यापनार्थ मिति सन्नद्ध धीरवर वीर सवेग-बाण, छायानिरुद्ध तरुणारुण चंडबिंबे । संपन्न घोरतुमुले गुरु भीरुकम्पे, . कंकाल संकुल भयावह भूमि भागे ॥ १७॥ भल्लासि भिन्न हय वारण वारवाण, साडंबरारिकरणा-वरणे दुरंते । चित्ते चिराय तव नाम वरं वहन्तो, वीरं नरा रणभरेरि बलं जयन्ति ॥१८॥ युगलकं । सन्नद्धत्यादि । भल्लेत्यादि । अत्र काव्यद्वयेन संबन्धः । पूर्व संग्रामविशेणानि वाच्यानि । ततोरिपुपराजयो वाच्यः। सनद्धाः कनचादिमंतो धीरा अभीरवो वरा युद्ध कुशला एषां द्वन्द्वे सन्नद्धधीरवराः ये वीराः सुभटाःप्रतिभटास्तेषां सवेगा महाप्राण मुक्तत्वेन वेगवन्तो ये बाणास्तेषां छायाः श्रेण्यः । 'छायापंक्ती प्रतिमायामयोषित्यनातपे । उत्कोचे पालने कांती शोभायां च तमस्यपि ॥ इति हैमानेकार्थेोक्तेः। ताभिनिरुद्धं आच्छादित तरुणारुणस्य तरुणार्कस्य चण्डं मंडलं विवं यत्र स तस्मिन् । संपन्नोजातो घोरो रोद्रस्तुमुलो व्याकुलो ध्वनि यंत्र स तथा तस्मिन् । गुरुर्महान् भीरूणां कातराणां कंपो वेपथुर्यस्मात् स तथा तस्मिन् । कंकाल संकुलोऽस्थिपिञ्जरव्याप्तोऽत एवमयावहो भयंकरोभूमिभागो रणक्षेत्रं यत्र स तथा तस्मिन् ॥१७॥ 'भलं भल्लूकबाणयोरिति अनेकार्थेक्तिः। भल्ला बाणा लोकोक्त्या कुंता वा असयः खङ्गास्ततो द्वन्द्वे ते तथा ते मि. नानि विदारितानि, हया अश्वा वारणा गजावारवाणा: कंचुकाः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) साडंपरारीणां ससंरंभं रिपूणां करणानि शरीराणि आवरणानि खेटकादीनि ततो द्वन्छे तानि यत्र स तथा तस्मिन् । दुरंते दुरवगाहे एवंविधे रणभरे संग्रामपूरे हे स्वामिन् ! तव नाम वीरेत्यभिधानं वरं-प्रशस्यं चित्त-मनसि चिराय-चिरकालं वहंतो ध्यानकतानतया स्मरन्तो नराः शूरपुरुषा वीरं रणनिपुणं अरिवलं विपक्षसैन्यं जयन्ति पराभवन्ति-पराङ्गमुखी कुर्वन्तीति । तदिदमापनं यदैहलौकिकजयार्थिनाऽपि भगवन्नामैव ध्येयमिति । काव्य युगलकार्थः ॥ १७-१८ ॥ संवित्ति वित्त करुणारस वारिकुण्डं, पीडाहरं गुण-समूहमणीकरंडम् । संसार सिंधुजल कुम्भभवं भवन्तं, सेवंतिकेन भगवंत-पघं हरन्तम् ॥ १९ ॥ संवित्तीत्यादि । संवित्तिः शेमुषीज्ञानमित्यर्थस्तया वित्तः प्रसिद्धः स तथा, तस्यामंत्रणं हे संवित्तिवित्त ! हे प्रभो भवंतं त्वां के जना न सेवन्ति अपितु सर्वेऽपि सेवन्ति । किंभूतं करुणारसः कृषारसः स एव सर्वप्राणिजीवन त्वाद्वारिजलं तस्य कुण्डमिव कुण्डं करुणारसवारिकुण्ड, पीडाहरं व्यथावारकं गुण समूहमणीकरंडं गुणगणरत्नभाजनं संसारएवापारत्वात् सिन्धुः समुद्रस्तस्य जलं तत्र कुंभभवोऽगस्तयस्तं । भगवन्तं शानादिगुणसमृद्ध अघं-पापं हरन्तं-स्फेटयन्तं ॥ १९ ॥ संचारभूचरण-केवल-सिद्धिवास, संवासवासर वरा इह वीरदेव ।। देवा सुरोरगकुमार सहेल भूमी, चारेण ते परम मुद्धव मावहन्ति ॥२०॥ संचारेत्यादि । संचारो देवानन्दायास्त्रिशलायाश्च गर्भShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पतारो भूर्जन्मचरणं व्रतग्रहणं केवलं केवलशाने सिद्धिवासे सि. द्धिसौधे संवासोऽवस्थानं ततो द्वन्द्धे, ते तथा तेषां वासरवरादिनप्रवरास्ते संचारभूचरण केवलसिद्धिवास संवास-वासरवरा इह जगति । हे वीरदेव ! देवा वैमानिक-ज्योतिष्का असुरा-असुरकुमारा-उरगकुमारा-नागकुमारास्ततोद्वन्द्वे, ते तथा तेषां सहेलं सविलास यो भूमीचारो भगवजन्म स्थानादौ आगमनं स तेन देवासुरोरगकमारसहेलभूमीचारेण, ते-तव परममुत्कृष्टमुद्धवमुत्सव मावहंति-प्रापयन्ति । अनेन तव जन्मा. दिकल्याणकदिनेषु देषादय इहागत्य महोत्सवं विदधतीति क्षापितमिति भावः ॥ २०॥ हे वीर ! मेरुगिरिधीर ! वसुंधगलंकारामतारक्सुअरिमयोरुसाल । आरोहि मंगलमहीरुहकंदमिन्न, संसारचार जय जीव समूह बंधो! ॥२१ ।। हे वीरेत्यादि । हे वीर ! चरमजिन त्वं जय जयवान् भव इत्युक्ति युक्तिः । अथ सर्वाणि संशोधनांतानि विशेषणान्याह-हे मेरुगिरिधीर ! वसुंधराया भूमेरलंकाराम श्राभरणसमः तार-तारं रूप्यं वसु-वसुरत्नं-भूरिमयो-भुरिस्वर्ण रजत रत्न हेममय उरुर्विशालःसालः प्राकारोयस्य स तत्सबोधनं वसुंधरालंकाराभतारवसुभूरिमथोरुसाल। आरोहि समुच्छ्रा. यवत् अत्युन्नतिमत् यन्मंमलं तदेव महीरुहस्तस्य कंद इव कंदस्तत्संबोधनं प्रारोह मंगलमहीरुहकंद । अथवा आरोहि मंगल. महीरहेकंदो मेघस्दामंत्रणे। भिन्नोवस्तःसंसास्वारोभवका. रागारं भवाबा काबेन स ततः संबोधनं । जीवसमूहस्य बंधुरिक स्वसंबोषवं हे जीवसमूहबंधो-११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) धीरोह सुरुहचली-करणे धुरीणा, दुरं तमो विसररेणु विसारिणो मे । वाला समीरण रया इव तुल पूलं, चित्तं हरन्ति भण किंकर वाणि देव ॥२२॥ धीरोइत्यादि । धीरा-पंडितानां य ऊहो वितर्क-स्तस्वातत्त्वविचारः स एव भुरुहो वृक्षस्तस्य चलीकरणं चापल्यापादनं तत्र धुरीणा अग्रेसराः दरमत्यर्थ तमो विसर एव अज्ञानपटलमेव रेणु-धूलिस्तस्य विसारिणो-विस्तारिणः तमोविसररेणुविसारिणः। एवंविधा बालाः स्त्रियस्ता एव चापल्यापादन मस्थैर्वकरण साधात् समीरणरयाः पवनपूराः, बाला समीरगरया मे-मम चित्तं तूल पूल मिव-अर्कतूलपुञ्जमिवहरन्ति।ललित लीला कटाक्षक्षेपादिभिामोहत्यादयानादन्यतो नयन्ति । ततो भण-हि- किशब्दः प्रश्नार्थस्ततः किंकरवाणि किंकरवै।हे देव! आदेश देहीति भावः यथा त्वदादेशेन दृढममा भवामीति ॥२२॥ इच्छा ज़ले कलिमले चिलचित्तकच्छे, रूढं विरुद्धरस भावफलावलीढम् । आरंभदंभचिरसंभव-वल्लिजालं, हे वीर सिन्धुर ! समुद्धर मे समूलं ॥ २३ ॥ इच्छेत्यादि । इच्छा-स्त्रीधनाद्याकांक्षा सैष आरंभदंभव. ल्ल्युत्पत्ति हेतुत्वाजलं यत्र स तत्र । कलिः-कलहो मलं-पापं ततो द्वन्द्वस्ते, तथा ताभ्यामाविले-मलिनं यश्चित्तं तदेव कच्छ:सरसप्रदेशः स तत्र, 'कच्छोछमेदेनौकांगेऽनूगमायतटेऽपि चाइति हैमानेकार्थोक्तेः । कलिमलाविलचित्त कच्छे रूढंसमुत्पन्न तत्तथा । विरुद्धरसानि यानि भावफखानि नरकतिर्यः ग्मतिरूपाणि तैरवलीढंच्याप्तं तत्तथा । एवंविधं मे-मम आरंभो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) जीवोपमर्दः दंभः कंपटं ततो द्वन्द्वस्तावेव चिरसंभवं चिरकालीनं वल्लिजाल-लतावितानस्तत्तथा, आरंभदंभचिरसंभव वल्लिजालं । हे वीरसिन्धुर ! वर्द्धमान गजेन्द्र समूलं समुद्धर मूलतोप्युत्पाटय यथाऽहं लब्धात्मलाभः सम्परमं सुखमनुभवामीत्यर्थः ॥ २३ ॥ सेवापरायण नरामरतारचूडालंकारसार करमंजरि पिंजराय । वीराय जंगम सुरागम संगमाय, कामं नमो / सम-दया दम-सत्तमाय ॥ २४ ॥ सेवेत्यादि । सेवापरायणा-भक्तिकरणप्रवणा ये नरामरा नरसुरास्तेषां तारा-दीप्रा ये चुडालंकारा- शिरोभूषणानि तेषां सारा- उत्कृष्टा ये कराः किरणास्तएव प्रसरणशीलत्वान्मंजरयो मंजर्यस्ताभिः पिंजर इव पिंजरः पीतरक्तः स तस्मै वीराय वर्द्धमानाय काममत्यर्थे नमः - नमस्कारोऽस्तु इत्युक्तियोगः । पुनः कथंभूताय वीराय ? जंगमञ्चरिष्णु र्यः सुरागमः सुराणां श्रगमोवृक्षः, सुरागमः सुरतरुस्तद्वन्मनोवांछितपुरकत्वात् सं. गमः प्राप्तिर्यस्य स तथा तस्मै । असमौ अतुल्यौ यौ दयादमौ कृपेन्द्रियजयौ ताभ्यां सत्तमः श्रेष्ठः स तस्मै ॥ २४ ॥ हे देव ! ते चरणवारिरुहं तरंड - मारोहिणो दरभरं हर देहि देहि । पारं परं भवदुरुत्तर नीरपुरे, भूयोसमंजस निरंतर चारिणो मे ।। २५ ।। हे देवेत्यादि । हे देव ! देवार्य ते तव चरण- वारिरुहंपदपद्मं तरंडं-तरकांडसदृशं श्ररोहिणः- आश्रितवतो, मे-मम दरभरं- भयपूरं हर- अपनय, तथा भव एव दुरुतरो- दुर्लभ्यो यो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीरपूरो-जलपूरः स तस्मिन् भवदुरुत्तर नीरपूरे, परं पारं देहि देहि, भूयो बहु असमंजसेन-लोक-धर्मविरुद्धचरणलक्षणेन. कदाचरणेन निरंतरं-सततं चरितुं प्रवर्तितुं शील यस्य स, तथा तस्य एवं विधस्य मम । अत्र पंचविंशती काव्येषु वसन्ततिलका छन्दः ॥२५॥ अविलयमकलंक सिद्धिसंपत्तिमूलं, भवजलरयकूल केवलंधारिणोऽलम् । चरणकमलसेवा लालसं किंकरं ते , विमलमपरिहीणं, हे महावीर ! पाहि ॥ २६ ॥ अविलयेत्यादि । अवलयं-अक्षयं अकलंक-निर्दोष सिद्धि सम्पत्तिमूलं-मुक्तिसंपत्कारणं भव एव जलरयो नीरप्रवाहो भव. जलरयस्तस्य कूल मिव कूलं तत्तथा, संसारोदधितटभूतं ईदक्केवलज्ञान धारिणो बिभ्रतोऽलमत्यर्थ, ते-तव चरणकमलसेवालालसं पदकमलपर्युपास्ति परं किंकर-दासं मामिति गम्यते । हे महावीर ! वर्द्धमानप्रभो! पाहि-रक्ष । पुनः किंभूतं केवलं वि. मलं सर्वावरणमुक्त अपरिहीणं संपूर्ण ॥ २६ ॥ अत्र मालिनी तरुणतरणि जीवाजीवावमासविसारणे, सबलकरिणो मायाकुंजे दयाग्ससारणिम् । चरणरमणीलीलागारं महोदयसंगमे, सरलसरणिं सेवे मूढो गिरं तव वीर हे ! ॥२७॥ तरुणेत्यादि । हे वीर ! अहं मूढस्तव गिरं वाणी सेवेमाधयामि इत्युक्ति योगः। अथ गीविशेषणान्याह-तरुणतरणि प्रचन्डसूर्य, के जीवा? एकेन्द्रियादयः अजीवाधर्मास्तिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायादयः ततो द्वन्द्वस्तेषामवभासो यथावस्वरूपप्रकाशस्तस्य विसारणं-विस्तारणं तत्र, किंभूतस्य ? तव सबलकरिणो-मत्तगजस्य कुत्र ? मायैव गुपिलत्वात् कुंजोवृक्षादि गहनेस्तत्र मायावनभंजने हस्ति तुल्यस्येत्यर्थः । पुनगिरं विशिनष्टि, दयारससारिणिं कृपाजलकुल्यां, चरणरमणीलीलागारं चारित्ररामा क्रीडागृहं महोदयसंगमे अपवर्गप्राप्तौ सरलसरणिं ऋजुमार्ग। अत्र हरिणीनाम छन्दः ॥ २७ ॥ लसंतं संसारे सुरनर समुल्लासकरणं, वहे वारंवारं तव गुणगणं देव ! विपलम् । अपारं चित्ते वा बहुल सलिले बिंदुनिवहं, महापारावारेऽमरणमय ! कल्लोलकलिले ॥२८॥ लसंतमित्यादि। लसंतं-प्रसरंतं संसारे-लोके सुरनरसमुल्लासकरणं देवमानवहर्षजनकं, हे देव! एवंविधं तव गुणगणं-चा. नादिगुणग्राम वारं २-पुनः २ अहं चित्ते-मनसि वहे-धारयामि, असाधारण धारणया संस्मरामीत्यर्थः। किंभूतं गुणगणं? विमलंउज्वलं अपारं-अनन्तं, कमिव ? महापारावारे-स्वयंभूरमणाख्य समुद्रे बिंदु निवहं वा, वा शब्द इवार्थः, बिदुनिवहमिव-जलबिंदुवृन्दमिव अपारं-असंख्यं यथाहि-चरमाधौजलबिंदु संख्याकर्त न शक्यते, तथा भगवद्गणानामपि एतच्चोपमानं देशतः प्रभुगुणानामनन्तत्वात् । किंभूते ? महापारावारे-बहुलसलिले भूरिजले-कल्लोलकलिले-तरंगगहने, हे अमरणभय ! मृत्युभयवर्जित इति भगवत्संबोधनं । अत्र शिखरिणीनाम छन्दः ॥२८॥ गुंजापुंजारुणकररुहाऽऽयाम संपनबाहो, ___ मंदारामे कुसुपसमयं वीरदेवाविलम्बम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगानीरामलगुणलवं ते समुच्चारिणे मे, सिद्धावासं बहुभवभयारंभरीणाय देहि ॥२९॥ गुंजेत्यादि । गुंजापुंजवदरुणा भारताः कररुहा नखा यस्य स तत्सम्बोधनं । आयामो दैर्ध्य तेन संपन्नौ प्रलंवावित्यर्थे बाहू यस्य स तत्संबोधनं । भंदारामे-कल्याणवने कुसुमसमयंवसन्ततु एवंविधं गुणलवं, हे वीरदेव ! ते-तव समुच्चारिणेकथकाय मे-महयं अविलम्बं-शीघ्र सिद्धावासं-मोक्षं देहि । किं. भूताय महायं? बहुभवभया-भूरिभवातंकोपक्रमखिन्नाय गंगानीरवरमलं निर्मल गंगानीरामले ति प्रभोः संबोधनं । ननु गुणलवं समुञ्चारिणे इत्यस्य कथंसिद्धिः ? उच्यते-अवश्यं समुचारयिप्यामीति समुचारी तस्मै, अत्र णिन् वावश्यकाधमये इत्यनेनैध्यत्यर्थे गम्यमानावश्यकार्थे च णिन् प्रत्यये 'सत्येष्यहणेन' इत्यनेन सूत्रेण कर्मणि षष्ठी प्राप्ति निषिध्यते, वर्तमानता प्रतीतिस्तु प्रकरणवशादित्यस्य सिद्धिः॥ अत्र मन्दाक्रान्ता छंदः ॥ २९ ॥ एवं श्रीजिनवल्लभप्रभुकृत स्तोत्रांत्यपादग्रहात्, कृत्वा ते ममसंस्कृतस्तवमहं पुण्यं यदापं मनाक् । संसेव्यक्रम पद्मराज निकरैः श्रीवीरतेनार्थये , नाथेदं प्रथय प्रसाद विशदां दृष्टि दयालो! मयि ॥३०॥ इति श्री खरतरगच्छाधिराज श्रीजिनहंसमरि शिष्य महोपाध्याय श्रीपुण्यसागर शिष्येण वाचक पद्मराज गणिना कृतं भावारिवारणांत्यपादसमस्यामयं समसंस्कृतस्तवनं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवमित्यादि । एवं पूर्वोक्त प्रकारेण श्रीजिनवल्लमप्रभुमिः . श्रीजिनवल्लभपूज्यैः कृतं यत्स्तोत्रं-स्तवनं भावारिवारणाभिध तस्य योऽत्यस्तुर्यः पादस्तस्यग्रहो- ग्रहणं आश्रयणं स तस्मात् । हे प्रभो ! से-तव समसंस्कृतस्तव-संस्कृतप्राकृतशब्दैः सममेकसदृशं संस्कृत-संस्करणं समसंस्कृतं तेन संबद्धः-ग्रथितः स्तव:स्तवनं समसंस्कृतस्तवस्तं कृत्वा-अहं स्तवकर्ता यन्मनाक् किंचित्पुण्यं सुकृतं पापं प्राप्तवान् । संसेव्यं-सेवनीयं कमपनंचरणकमलं यस्य स तत्संबोधनं । हे संसेव्यक्रमपन ! के राजनिकरैः पार्थिवसाथैः हे श्रीवीर! वर्द्धमानविमो! तेन पुण्येनाहमिदमर्थये याचे प्रार्थनामेव प्रकटयति। हे नाथ! हे दयालो! कृपापर ! प्रसादविशदामनुग्रहोज्ज्वलां स्वीयां दृष्टिं दृशं मयि भक्या स्वकर्तरि प्रथय-विस्तारय, यथा तव सौम्यहम् विलोकनेन मम सर्व समीहित सिद्धिर्भवतीति भावः । किंचेह-संसेव्यक्रम पद्मराजेत्यनेन-पदेन लिषं कविना पद्मराजेति स्वनामस्चितं ॥ अथ शार्दूल विक्रीडितं नाम छन्दः ॥ ३० ॥ इति श्री पुण्यसागर महोपाध्याय शिष्य पनराज वाचकेन विरचिताश्रीमावारिवारणामिधस्तवतुर्यपादनिबद्ध समसंस्कृतसमस्यास्तव वृत्तिः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः । खरतरगणे नवांगी-वृत्ति कृता-मभयदेवसीयां। वंशे क्रमादभूवन् , श्रीमजिनहंससीन्द्राः॥१॥ तेषां शिष्य वरिष्ठाः, समग्र-समयार्थ निष्ककषपाः । श्रीपुण्यसागर महो-पाध्याया जज्ञिरे विज्ञा॥२॥ तेषां शिष्यो विवृत्ति, वाचकवर-पराज-गणिरकरोत् । भावारिवारणांतिम, चरणनिबद्ध स्तवस्यैतां ॥३॥ प्रह करण दर्शनेन्दु (१६५९) प्रमितेन्दे चाश्विनासित दशम्यां। श्रीजेसलमेरुपुरे, श्रीमज्जिनचन्द्रगुरु राज्ये ॥४॥ अत्र यदुक्तमयुक्तं, मतिमांद्यादनुपयोगतश्चापि । तच्छोध्यं धीमद्भिः, प्रसादविशदाशयः ___ श्रीरस्तु । अग्न्यभ्रशून्ययुग-विक्रमवर्ष-राज्ये, शुभ्राचिने स्मरतिथौ कुजवासरे च । कोटापुरे विनयसागर साधुना हि, शिष्ट्योपकारि सुगुरोः प्रतिलेखितेयं ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री : वाचनाचार्य श्रीपद्मराजगणिनिर्मित-स्वोपज्ञ वृत्तिसुशोभितयमकमयम्श्रीपार्श्वनाथ-लघु-स्तोत्रम् । (भुजङ्गप्रयात छन्दः) समानो ! समानोऽसमानो समानों , महेला महेला महेला महेला । सिताराऽसितारासितारासितारावधीरावधीरावधी रावधीरा ॥१॥ गमाभागमाभागमाभागमाभागमीरो गमीरोगमी रोगमीरो। गवीरा गवीरागवीरागवीराऽसुधा मासुधामा सुधामासुधामा ॥२॥ युगलकम् । व्याख्या-समानो, गमामा, इत्यादि वृत्तद्वयेन संबन्धः। हे पार्श्वनाथ ! त्वं मा-मां अव-रक्ष । किम्भूतस्त्वम् ? समेषुसाधुषु आ-समन्तात् नुः-स्तुतिर्यस्य स तदामंत्रणं हे समानो!। पुनः किम्भूतः ? सह मानेन-पूजया वर्तते यः सा समानः । पुनः कीहक् ? न समानः असमानः असहशः, अथवा असमानः शोभमानो गुणैरिति शेषः, मस दीप्त्यावानयोःरति धातुपाठवचनात् । पुनः कीदृशः? समानः-सगर्वः तनिषेधादसमानः-गवरहित इत्यर्थः। पुनः कीदृशः? महेलेति-महती स्त्री मामा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) रोगा हेला क्रीडा, एता प्रस्थति-निराकरोतीति.महेलाः, महेलाप्रामवत् हेलया अस्थतीति वा । पुनः कीरशः महती ईडा स्तुति महेडा, महा:-उत्सवास्तेषां इला-भूमिः स्थानं महेलामहेलाः डलयोरैक्यान्महेलाः, यथोक्तम्-यमकश्लेषचित्रेषु, बवयोर्डलयोनमित् । नानुस्वारविसर्गौ तु, चित्रभंगाय संमतौ॥१॥ सितं विध्वस्त पारअरिसमूहो येन स तदामंत्रणं हे सितार !। पुनः कीदृशः? असिःखङ्गःतारा-कनीनिका तद्वदसितःश्यामः असिता रासितस्तदामंत्रणं हे असितारासित !, आरा-शस्त्री असि:कृपाणस्तारं-रूप्यम् एतानि अवधीरयति-अवगणयतीति आरासितारावधीरस्तदामन्त्रणं, हे आरासितारावधीर ! अवेतियोजितम् , पुनः कीहक् ? धीरेषु अवधिः-सीमा धीरावधिः। पुनः कीदृशेन? रावण-ध्वनिना धियं-बुद्धिं राति-वदाति रावधीराः 'विप् प्रत्ययः' यमकत्वाद्विसर्गादुष्टता, कचित् रुद्रटालकारादौ तथादर्शनात् ॥१॥ गमाभा, गमैः-सहशपाठेराभान्तीति गमाभाः आगमा:- सिद्धान्ता यस्य स गमाभागमस्तदामंत्रणं-हे गमाभागम! आभाया आगमेनाभातीति आभागमामः, भा-समन्तात् भागो-भागधेयं तस्य मा-लक्ष्मीस्तया मातीति वा,न गच्छतीत्यगा-नित्या मा-ज्ञानं तां भजतीति अगमाभाग्तशमन्त्रणं हे अगमाभाग, अभीरो-निर्भयः, गभीरो-गम्भीर:अगाःसास्तेषां मीः अगमीः,रोगभी रुजभयंरो अग्निः,एभ्यो ऽवतीति तदामन्त्रणं हे अगभीरोः !, यमकत्वात् कचिदनुस्वारादौष्ट्यम् । पुनः कीदृशः? गो:-स्वर्गलक्ष्मीःगवी तारातीति. गवीराः, गवि कामो, इ:-कामो रागः-अभिष्वङ्गस्तावेव वीरागौ-सुभटसप्यौ तौ विशेषेण ईरयति यः स तत्सम्बोधन हे इरागवीरागवीर ! । पुनः कीदृक् ? असून-प्राणान् दधतीति प्र. सुधा:-प्राणिनस्तेषु मां-लक्ष्मी सुष्ठु दधाति-पुष्णातीति असुधामासुधाः 'उभयत्र विप्प्रत्ययः' मा मां इति प्रायोजितम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४) पुनः कीदृशः? सुष्टु धाम-तेजस्तस्य श्रा-श्रीस्तस्याःसुष्टु धाम.. ग्रहं सुधामासुधाम ! 'मा' इत्याश्चर्ये संबोधने वा ॥२॥ घनांभाषनाभाऽघनाभाषनामा कलापं कलापं कलाकलापम् । गदामोगदा मोगदा-भोगदाभो, दितानंदितानं दितानंदितानं ।। ३ ॥ महा वामहावाऽऽमहावा महावा गतारं गतारंगतारं गतारं । समाया-समायाऽसमायाऽसमाया भवेशं भवे शंभवेशं भवेशम् ॥४॥ युग्मम् ॥ व्याख्या-घनामा, महावा, अत्रापि वृत्तद्वयेन संबनधः । हे भव्य ! भवे-संसारे मह-पूजय पार्श्वजिनं प्रक्रमात्संवध्यते। कीदृशं जिनम् ? घनस्य-देहस्य प्राभा-कान्तिः (यस्य सः) घनाभा प्रघनाभः अघस्य-पापस्य नामो-विनाशो यस्मात्स अघनाभः, 'णभतुभ हिंसायामिति धातुपाठवचनात् , मासमन्ताद् धनः-प्रचुरः आमाकलापः-शोभासमूहो यस्य स प्रघनाभाकलापः, ततो विशेषणत्रयकर्मधारयस्तम् । पुनः कीदृशं ? कलानां-विज्ञानानाम् आपः-आप्तिर्यत्र स तम् । पुनः कीदृशं ? कलो-मधुरः अपङ्को-निष्पापो सापो वचनं यस्य स तं कलापङ्कलापम् । पुनः कीदृशं ? गदानां-रोगाणां प्राभोगोविस्तारस्तं दाति-लुनाति यति-खण्डयति वा यः स गदामोगदाः विष्प्रत्यया, भोगस्य-सुखस्य दा-दानं तेन प्राभाति बमस्ति-शोभते इति भोगदाभम् औषधकल्पं फर्मरोगापहारित्वात् , यदुदित-वचनं तेन आनन्दिता -माहादिता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) माना:-प्राणा: प्राणिनो येन, धर्मधर्मिणोरमेदोपचारात् स त. था,ततो विशेषणद्वयंकर्मधारयः ।पुनः कीदृशं? दितः-खण्डि. त:-अनन्दितान:-असमृद्धिविस्तारो येन स तं दितानन्दितानम् ॥ ३॥ 'महावा.' मह-पूजयेति प्राक्संबद्धम् , वामः-कन्दों हावी-मुखविकारः, वामश्च हावश्च वामहावी, न विद्यते वामहावौ यस्य स तथा, 'वामः-कामे सव्ये पयोधरे उमानाथेप्रति. कुले' इति हैमानेकार्थवचनात् , अामान्-रोगान् हन्तीति आमहः, अवतीति अवः, आ-समन्तान्महती-योजनगामिनी बाग्-वाणी यस्य सः, न विद्यते तारं-रूप्यं सर्वपरिग्रहोपलक्षणं यस्य स तथा, ततो विशेषणपश्वकर्मधारयः तं तथा। पुनः कीदृशम् ? गतोऽरङ्गो यस्याः सा गतारंगा-यातालक्ष्मीः तीर्थकृत्संबन्धिनी तया राजते यः स तं गतारङ्गतारं, गत-सानं तस्य प्रार:-प्रीतिर्यस्य स तम् , ये गत्यर्थास्ते प्राप्त्यर्था ज्ञानार्थाश्च इत्युके, मथवा गायन्तीति गा-भगवद्गुणगातारस्तान् तारयतीति स तं गतारम् । पुनः कीदृशं ? समं-सर्व आयासं-भवभ्रमणोद्भूतं प्रयासं मीनाति-विध्वंसयतीति समायासमायः, असमः-असदृशः अयो-भाग्यं यस्य स असमायः, असमायामो-निर्मायशोभो वेशो-नेपथ्यं यस्य सः असमायाभवेशः, वेशो वेश्यागृहे नेपथ्ये च इति हैमानेकार्थोक्तः, ततः पदत्रयंकर्मधारये तं, भवे इति प्राग्व्याख्यातम् ; शं सुखं तस्य भवः-उत्पत्तिर्यस्मात्स शम्भवः, स चासौ ईशश्च-स्वामी शंभवेशस्तम् । पुनः कीदृशं ? भवा-शिवस्तद्वत् ई कामं श्यतिविनाशयतीति भवेशस्तम् ॥ ४॥ क्षमारक्ष मारक्षमा रक्षमार!, प्रभाव प्रभावप्रभाव प्रभाव । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) परागोऽपरागोपरागोऽपरागो वदाताऽवदातावदाताऽऽवदाता ॥५॥ ' व्याख्या-'क्षमारक्ष'हे क्षमारक्ष! पृथ्वीपालक ! रक्ष पालय मा मां, मार:-स्मरः स एव तो-राक्षसस्तं मारयतीतिमारक्षमारस्तत्संबोधनं हे मारक्षमार ! प्रभावः-अनुभावःप्रभाकान्तिस्ताभ्याम् अवति-प्रीणातीति सः, ततः सम्बोधनम्, प्रकपेण भासत इति प्रभावो, वप्रः-प्राकारस्तस्य भावः-प्राप्तिर्यस्य तदामम्त्रणम् , यदि वा प्रगतोभावो-जन्म यस्य स तदामन्त्रणम्, प्रकृष्टो भावः-स्वभावो यस्य स तदामन्त्रणम् , किंभूतः पर:-प्रकृष्टोऽगो-वृक्षोऽर्थादशोकतर्यस्य स परागः, यदि वा परा भा-समन्ताद्गौः-वाणी यस्यासौ परागुस्तदामन्त्रणं हे प. रागो!, अप गतो राग एव उपरागः-उपप्लवो यस्य सः अपरागोपरागः, न विद्यन्ते परे-वैरिणो यस्य सोऽपरस्तदामन्त्रण हे अपर! पुनः कीदृशस्त्वम् ? आगः-पापम् अवधति-खण्डयतीति मागोवदाता 'आगः स्यादेनोवदायमंती' इत्यनेकार्थोकेः,अवदाता-निर्मला अवदाताः-चरित्राणि यस्य स तथा, तदामन्त्रणं हे अवदातावदात ! पुनः कीदृशस्त्वम् ? 'अव रक्षणकान्ति प्रीत्यादिषु, इति धातुपाठोके:-श्रावनम् भाव:-प्रीतिस्तं ददातीति प्रावदाता ॥ ५॥ इत्थं मया परमया रमया प्रधानस्तोत्रं पवित्रयमकैर्विहितं हितं ते । पार्श्वप्रभो ! त्रिभुवनाश्तपत्रराजदिन्दीवरच्छवितनो ! वितनोतु सातम् ॥६॥ ॥ इति श्रीपार्श्वनाथलघु-स्तवनम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) व्याख्या-'इत्थं मये-ति । इत्थम्-अमुना प्रकारेण मया विहितं कृतं ते तव स्तोत्रं-स्तवनं हे पाचप्रभो! सातं मुखं वितनोतु-विस्तारयतु । किम्भूतं स्तोत्रं ? पवित्रयम-निदोषयमकालङ्कारबद्धकाव्यैः, हितं हितकारि । परमया उत्कृष्टया रम.. या सक्षम्या प्रधान! इत्यादीनि संबोधनान्तानि श्रीपार्श्वनाथस्य ! विशेषणानि ज्ञेयानि । त्रिभुवने जगत्त्रये अद्भुता अत्युत्कटा पमा रूपश्रीर्यस्य स त्रिभुवनाद्भुतपनस्तदामन्त्रणं क्रियते हे त्रिभुवनाद्भुतपन्न ! राजत् शोभमानं यदिन्दीवरं नीलकमलं तेन सहर विर्यस्या साईडशी तनुर्यस्य स, राजदिन्दीवरच्छवितनुस्तदामंत्रणं क्रियते-हे राजदिन्दीवरच्छवितनो! कधिना निजमतिचतुरतया 'पद्मराज, इति खनाम सूचितम् ॥ ६॥ इति श्रीखरतरगच्छाधिराजश्रीमच्छी श्रीजिनहंससरिसूरीश्वर- . शिष्य श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायश्रीपञराजोपनिर्मिता . स्वोपक्षश्रीपार्श्वजिनयमकस्तववृत्तिः समाता विनिर्वाच्यमानाचिरंनन्दतात् श्रेयः॥ उपाध्याय श्रीपद्मराजगणिनामन्तेवासी विद्वजनवरिष्ट पंडितश्रीकल्याणकलशगणि सुन्दराणां शिष्योपाध्याय श्रीमानन्दविजयगणिपुङ्गवानामन्तिषदाचनाचार्य श्रीमुखहर्षगणिवराणां शैक्षपंडितप्रवर नयविमलगशिनां सतीर्थेन भुवननन्दनगणिनाऽदः स्तवनं लिखितम् । संवति १७४१ प्रवर्त्तमाने चैत्रवदिपच्छे १४ वारसोमे श्रीडेलाणामध्ये श्रीखरतरगच्छे श्रीमच्छी श्रीजिनचन्द्रसूरि तशिष्य पं रित जैतचीनिखितं ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छीय श्री जिनभुवनहिताचार्य प्रणीता दंडकमया वाचनाचार्य श्री पद्मराज निर्मिता--सवृत्तिका卐 जिन-स्तुतिः।) प्रणयविनयपूतस्वांतकांतप्रभूत, क्षितिपति पुरुहूत श्रेणिभिर्योभिनूतः । शिवपथरथसूतस्तात्सकल्पद्रभूतः, सततमनभिभूतः श्रेयसे नाभिस्तः ॥ १॥ भुवनहित सूरि विरचित रुचिर-गुणोइंड दण्डक स्तुत्याः। व्याख्या विदधामि गुरोः, प्रसादतो मुग्धबोधार्थम् ॥२॥ इह दंडकस्तुतिप्रारंभे । पूर्व दंडक परिपाटी प्रदर्शयते । तथाहि-षविंशत्यक्षराछंदस उपरि चंड वृष्ण्यादयो दंडकास्तावद्भवंति यावदेको न सहनाक्षरः पादः, यदुक्तं छंदोवृत्ती एकोनमहस्ताक्षर-पर्यंता दंड कांहयः प्रोक्ताः। वर्णत्रिकगणवृद्ध्या, न द्वितयाद्या महामतिमिः ॥१॥ अत्र स्तुतौ तु संग्रामनामा दंडकः। तत्र प्रतिचरणं सप्तपंचाशदक्षराणि ५७, तत्रादौ नगण द्वयं ततः सप्तदश रगणा भवंतीति । चतुः पद्यात्मिका च स्तुतिस्तत्राभिधेयं यथा-प्रथमे पद्ये एकादि सर्व जिनस्तवनं । द्वितीये सर्वक्षेत्रकालादि भावितीर्थकृतवर्णनं । तृतीये सिद्धान्तस्तुतिः । चतुर्थे शासन श्रतदेवतादि स्तवन मिति । अतः प्रथमे दंडके चतुर्विशति जिनान स्तौति। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) नतसुरपतिकोटिकोटीरकोटीतटीश्लिष्टपुष्ट प्रकृष्टद्युति घोतिताशाननाकाशसर्वावकाशप्रदेशोल्लसनीलपीतारुणश्यामवर्णाट्यरत्नावली। प्रसूपरकरवारविस्तारनिर्मेरनीरांतरानीरजन्मेंदिरा सारसंभारसारानुकारप्रकारक्रमन्यासपावित्र्यपात्रीकृतानार्यवर्यार्यभूमंडली। . बहुलतिमिरराशिनि शिभासामधीशांशुसंदोहसंकाशसत्केवलज्ञानसंलोकितालोकलोकस्वरपासुरूपायवैताब्यवासीशमुख्यमुख्यैः श्रिता जिनपतिविततिस्तनोतु श्रियं श्रायसी ज्यायसी प्राप्रभाजां सदाभक्तिभाजा कलाकैलिकेलीसमारंभरमा महास्तंभहेलादलीकारकुंमीशसाराभुता ॥ १॥ व्याख्या-जिनपतीनां ऋषभादिचतुर्विशत्यहतां विततिः-श्रेणिः जिनपतिविततिः,प्राणभाजांप्राणिनां श्रायसी मुक्तिभवां श्रियं-लक्ष्मी शोभा वा तनोतु-विस्तारयतु इत्यन्वयः। श्रेयसि भवं श्रायसं, देविकाशिशिपादित्यूहदीर्घसत्रश्रेयसामाद इति सूत्रेण अणि प्रत्यये श्रायसमिति, स्त्रियां तु श्रायसीति सिद्धम् । किविशिष्टयं श्रियं ज्यायसी-प्रतिप्रशस्यां वृद्धां वा। ज्यायान् वृद्धे प्रशस्येच इत्यनेकार्थोक्तः। किंभूतानां प्राणमाजांसदा-नित्यं भक्तिभाजां-सेवापराणाम् । किविशिष्टाजिनपतिविततिः, कमाकेलि:-कन्दर्पस्तस्य केली क्रीरा तस्याः समारम्मःसमुत्पादः स एव रम्भा महास्तम्मः-कदलीप्रकाण्टस्तस्य हे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) या-लीलया यो दलीकारो-भञ्जनं तत्र कुम्भीशवत्-गजेन्द्रवत् सारेण-बलेन अद्भुता-आश्चर्यकारिणी, कलाके लिकेलीसमारम्भरम्भामहास्तम्भहेलादलीकारकुम्भीशलाराद्भुता।पुनःकिभूता जिनपति विततिःनता नम्रीभूता याःसुरपतिकोटय इन्द्राणां चतुःषष्टिसंख्यत्वेऽपि ज्योतिष्केन्द्राणां चन्द्रसूर्याणामसंख्यातत्वविवक्षयाऽदोषात्, इन्द्रकोटयस्तासां कोटीराणि-मुकुटानि तेषां कोटीतटीषु-अग्रभागेषु श्लिष्टानि-सम्बद्धानि पुष्टप्रकृष्टद्यतिमिः-पीवरप्रवरकान्तिभिः द्योतिता-आशाननानि च दिङमुखानि आकाशसर्वावकाशप्रदेशाश्व गगनसर्वांतराल प्रदेशा प्राशाननाकाशसर्वावकाश प्रदेशा यैस्तानि उल्लसन्नीलपीतारुणश्यामवर्णेराव्यानि समृद्धानि यानि रत्नानि-इन्द्रनीलादीनि तेषामावली-श्रेणिस्तस्याः प्रसृमराः-प्रसरणशीला ये करवारा:-किरणकलापास्तेषां विस्तार आभोगः स एव, निर्मेरंनिर्मर्यादं प्रभूतं नीरं-जल तस्य अन्तरा-मध्यभागे नीरजन्मेन्दिराया:-पद्मशोभायाः सार:-श्रेष्ठो यः सम्भारः समूहस्तद्वत्सार उचितोऽनुकारप्रकार प्रायम्यविधि येषां ते तथा, तथाविधानां क्रमाणां-चरणानां न्यासेन-निक्षेपेण पावित्र्यपात्रीकृता-नैर्मल्यास्पदीकृता अनार्या-म्लेच्छभूमिःवर्या-प्रघाना श्रार्यभूमण्डली च-आर्यदेशभूमियया सा । नतसुरपति०। आर्यानार्यदेशेषु भगवद्विहारस्यास्खलिततया सम्भवात् । पुनः किंभूता जिनपतिविततिः-बहुलतिमिरराशेः प्रचुराज्ञानपटलस्य निर्नाशो यस्याः। प्राठान्तरे तस्य वा निर्नाशीति, केवलज्ञान'विशेषणं । अथवा बहुलतिमिरराशिनि शी प्रभूततमःस्तोमविध्वंसी यो भासामधीशः सूर्यस्तस्यांशुसन्दोहः कर प्रकरस्तेन संकाशं समानं सत्प्रधानं सत्यं वा यत्केवलज्ञानं तेन संलोकितं सम्यग्दृष्टं अलोकलोकयोः स्वरूपं यया साबहुलतिमिर०॥ भासामधीश इत्यत्र वारांनिध्यादिशब्दषषष्ठ यलुक् । पुनः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) किंभूता जिनपतिविततिः सुष्टुरूपेण-सौन्दर्येण बाढया युक्ता ये वैताढयवासिनो विद्याधरास्तेषामीशाः स्वामिनस्तन्मुख्यस्तत्प्रभृति मिः सुरूपाढयवैताढयवासीशमुख्यैः नृमुख्यैः पुरुषश्रेष्ठैः श्रिता सेविता । इति प्रथम दण्डक व्याख्या ॥१॥ अथ द्वितीये सर्वजिनानभिष्टौतिअमरनिकरक्लप्तकिकिल्लिसम्फुल्लफुल्लावलीप्रान्तवेल्लन्मधुस्यन्दनिःस्पन्दबिन्दुप्रपापानसंजायमाना समानध्वनिध्वानसन्धानरोलम्बमत्ताङ्गना। विरचितनवरङ्गभङ्गीतरङ्गीभवच्चङ्गरागाङ्गसङ्गीतिरीतिस्थितिस्फीतिसंप्रीणितिप्राणिसारङ्गचित्तं महानन्दभित्तं रमाकन्दवृत्तं सुवृत्तं सदा ॥ समवसरणमण्डपं भूषयन्तो नयं नव्यभव्यान् वचश्वस्तरीविस्तरैस्तयन्तो मयं भीमभावारिवीरो दयं निर्दयं दान्तदुर्दान्तसर्वेन्द्रियाः। विदधतु विबुधाबाधामगाधा जिनाधीश्वरा भाखरा मेदुरां सम्पदं दन्तिदन्तान्तराकापतिप्रान्तविश्रान्तकान्तिच्छटाकूटपेटद्यशः सञ्चयाः॥२॥ व्याख्या-जिनाः सामान्यकेवलिनस्तेषां मध्येऽष्टमहाप्रातिहार्यादिसमृद्धया, अधि-आधिक्येन ईश्वराः स्वामिनः अधीश्वरा जिनाधीश्वरास्तीर्थकरा देहिनां-प्राणिनां सदा-नित्यं सम्पदं मुक्तिरूपां विदधतु-कुर्वन्तु । कीदृशानां देहिनां विबुधां विशेषेख बुध्यन्ते जीवाजीवादिपदार्थसाथै जानन्तीति विपि प्रत्यये विबुधस्तेषां सम्यग्दृष्टिविदुषामित्यर्थः । किंविशि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) ष्टां सम्पदं मेदुरां पुष्टां। पुनः किंभूतां सम्पदं अबाधां-बाधारहितां । किंविशिष्टा जिनाधीश्वराः-अगाधा-गम्भीराः । पुनः किंभूता जिनाधीश्वराः-भास्वराः कान्त्यादीप्यमानाः । पुनःकिभूताजिनाधीश्वरा-दन्तिदन्तवत्-हस्तिदन्तवत् शुभ्रत्वेन अन्तः स्वरूपं यस्य स ईदृग् यो राकापतिः पूर्णिमाचन्द्रस्तस्य प्रान्तेषु विश्रान्ताः स्थिता याः कान्तिच्छुटा:-कान्तिपङ्कयः। मध्यस्थितानां चन्द्ररुचीनां कलङ्ककलुषितत्वेनाविवक्षणात् । तासां कूटं वृन्दं । अतिबहुत्वन्यापनार्थमित्थमुपन्यासः । तद्वत् , अथवा तासां कूटेन दम्भेन पेटत् पुजीभवन् यशःसञ्चयः-कीर्तिनिचयो येषां ते दन्तिदन्तान्त। पिट् शब्दसंघातयोरितिधातोः शतप्रत्यये पेटत् इति भवति । किंकुर्वन्तो जिनेश्वराः-समवसरणमेव मण्डप आश्रयविशेषस्तं समवसरणमण्डपं भूषयन्तः अलङ्कर्वन्तः । किविशिष्टं समवसरणमण्डपं असुरविकरेणासुरवृन्देन क्लुप्तो निर्मितो यः किंकिल्लिरशोकतरुस्तस्य सम्कुल्ला विकस्वरा या फुल्लावली पाठान्तरे वा पुष्पावली कुसुमश्रेणिस्तस्याः प्रान्तेषु वेल्लन् क्षरन् यो मधुस्यन्दो मकरन्दरसस्तस्य निस्पन्दा निश्चलाये बिन्दवस्त एव प्रपा पानीयशाला तत्र यत्पानं मकरन्दविन्दुवृन्दाऽऽरसास्वादनं तेन संजायमानं असमानयोरसदृशयो निध्वानयो लघुमहानादविशेषयोः सन्धान निरन्तरतया विधानं यासांता एवंविधा या रोलम्बमत्ताङ्गना मत्तमधुकर्यस्तामिविरचिताः कृता नवरङ्गभङ्गीमिनूतनरङ्गविच्छितिमिस्तरंगी भवङ्गरागाङ्गा प्रादुर्मवद्रम्यरागाभ्युपाया संगीतिरीतिः संगीतपद्धतिस्तस्याः स्थितिरवस्थानं तस्याः स्फीति वृद्धिस्तया संप्रीणितानि मानन्दितानि प्राणिन एव सारंगामृगाः प्राणिसारंगास्तेषां चित्तानि येन स तं अमरनिकर० । पुनःकिविशिएं समबरणमंडपं-महानम्बस्य-परमपदस्य मिशमिव साहमिव महानन्द मिसमवसरणस्थितजनानां निर्वाणShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) स्थायिनामिव क्षुत्पिपासादिपीडा नियमात्परमारहलोत्पादनावेत्युपमानं पुनः कीदृशं समवसरणमंडरमावा-मोक्षलक्ष्म्याः कन्दमिव वृत्तं चरित्रं यत्र तत् रमाद। पाठान्तरे रमाकन्दवित्तं तत्रैवं व्याख्या, रमया-रत्नादिमयप्राकारत्रयायात्मिफया भिया कं-सुखं ददातीति रमाकन्दः विजः प्रसिहस्तवः 'कर्मधारये रमाकंदवित्तस्तं । पुनः कीदृशं समष• सुष्टु-वृतं वर्तुलं सुवृत्त । पुनः किंकुर्वन्तो जिनेश्वराः ववश्वस्तरीवचनवैचित्री लक्षणया वा वाकूचातुरी तस्या विस्तरैः प्रपश्चैः वधश्वस्तरीविस्तरैःनव्यभव्यान् नयं न्यायमार्गे नयन्त:-प्रापयन्तः, पिओ द्विकर्मकत्वादन कर्मद्वयं । पुनः किकुर्वन्तः भयं तयन्तो निराकुर्वन्तः। किंभूतं भयं भीमभावारिधीरेभ्योरौद्ररागा. 'दिसुभटेभ्य उदय उत्पत्ति यस्य तीमभावारिवीरोदयं । किविशिष्टा जिनेश्वराः निर्दयं निष्करुणं यथा स्यात्तथा दान्तानि वशीकृतानि दुर्दान्तानि-दुर्दमानिसर्वाणि इन्द्रियाणिस्ते कान्तादुर्दान्तसर्वेन्द्रियाः॥२॥ अथ तृतीये सिद्धान्तं स्तौति कुनयनिचयवादसंवादि-दुर्मादकादंबिनीसा' दरोदोदरीदूरसंचारतारीभवद्भरिझंज्ञासमीरं सुतीरं जडापारसंसारनीराकरस्यानिशं । कलमलदलजालजंबालनिक्षालनसम्बनी सायानलप्रज्वलज्ज्वालसंतापितांगांगिसंतापनिर्वापणांभः करीरं कुटीरं लसन-संपदा संविदाः। ., Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४) कुमतपितततुंगनिर्मगसारंगनाथं शिवश्रीसनाथं कृताचप्रमाथं महायाममायामही दार--सीरं गमीर-महो मन्दिरं भावतो। घनतमगमसंगम संगिभिर्दुर्गमं सत्रमन्नाकिभूमीरुहं जंगम मुक्तिमेद्यन्महानन्दमाकन्दराधागमं संस्तुवे संश्रये श्रीजिनेन्द्रागमम् ॥ ३ ॥ व्याख्या-अहं श्रीजिनेन्द्रागम-अर्हत्प्रणीतसिद्धान्तं भाषत-प्रान्तरप्रीतितः संस्तुवे । सद्भूतगुणप्रतिपादनेन सम्यग् वर्णयामि। यदि वा संस्तुवे परिचितं करोमि, तथा संश्रये सेवे। किंविशिष्टं श्रीजिनेन्द्रागमं प्रमाणप्रतिपन्नाथैकदेशपरामर्शा नया नैगमाधास्त एवाभिप्रेतधर्मावधारणात्मतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्त्तमानाः कुत्सिता नयाः कुनयास्तेषां निचयः समूहस्तस्य वादः कुनयनिचयवादस्त सम्यग् वदन्तीति कुनयनिचयवादसंवादिनस्तेषां दुर्वादो भवोन्मादः स एव कादंबिनी मेघमाला,सम्यग्बोधरविनिरोघहेतुत्वेन वागाडम्बरगर्जितसमन्वितत्वेन च, तस्याः सादे विध्वंसने रोदसी द्यावापृथिव्यावेव दरीगुहा तत्र दूरसंचारेण-अत्यन्तप्रचारेण तारीभवन् उचैः एवं कुर्वन् भूरिः प्रचुरो झंझासमीर इव झंझासमीरः घनाघनघनपटलपाटनपटुपवनविशेषः स तं कुनयनिचयपुनःकि विशिष्टं श्रीजिनेन्द्रागमं जडै मूखैरपारः अलब्धपारः। उलयोरैक्याद्वा, जन्मजरामरणादि दुःखमेव दुस्तरत्वाजलं तेन अपारोयःसंसार एव नीराकरःसमुद्रस्तस्य जडापारसंसारनीराकरस्थ सुतीरमिव सुतीरं शोभनतटं । अनिशं निरन्तरं ।पुनः कीर. श्रीजिनेन्द्रागमं कलमलं-पापं, कलिमलं वा दुज्यमा पापं तस्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५) दलानि पुगलास्तेषां जालं वृन्दं तदेव जम्बालं कर्दमस्तस्य निक्षाखाने-पाठान्तरे वा प्रज्ञालनेऽपनयने स्वच्छनीरमिव-निर्मलसलिलमिव स्वच्छनीरं कलमलदलजालजम्बालनिक्षालनस्वच्छमीरं । पुनः कीदृशं श्रीजिनेन्द्रागमं कषाय एवानलो वह्निस्तस्य प्रज्वलज्ज्वालैः जाज्वल्यमानज्वालाभिः सन्तापितानि अंगानि येषां ते तथा ईदृशो येऽगिनः प्राणिनस्तेषां यः सन्ताप उष्मा तस्य निर्वापणे उपशमने अम्भः करीर इव अम्भः करीरः पूर्णकुम्भः सतं कषायानलप्रज्वलज्ज्वालसन्तापितांगांगिसन्तापनिपिणाम्भःकरीरं। वन्हे यो लिकीलावित्यमरकोषोतरत्रज्वा . लशब्दस्य पुल्लिङ्गता । पुनः कीदृशं श्रीजिनेन्द्रागमं लसत्सम्पदा स्फुरद्गुणोत्कर्षाणां संविदां सम्यग् ज्ञानानां कुटीरं आश्रयं । सम्पदा द्वौ गुणोत्कर्षे इत्युक्तेः । पुनः कीदृशं श्रीजिनेन्द्रागमं कुमतानि योगसौगतकाणादकपिलजैमिनीयबार्हस्पत्यादीनितान्येव वितता विस्तीर्णास्तुंगा-उन्नता निर्गतो भंग:-पराजयो येषां ते निर्मगा दुर्जयाः सारंगाग्रजास्तेषां निर्भगे निश्चयेन भंजने सारंगनाथ व सारंगनाथस्तं कुमतविततः । पुन: किविशिष्टं श्रीजिनेन्द्रागमं शिवधीः कल्याणलक्ष्मीरथवा शिवहेतु मोक्षहेतु र्या श्रीः शिवश्रीस्तया सनाथं सहितं शिवश्रीसनाथं पुनः किविशिष्टं श्रीजिनेन्द्रागमं कृतः अघस्य पापस्य प्रमाथो मथनं येन स तं कृताघप्रमाणं । पुनः किंविशिष्ट्र श्रीजिनेन्द्रागम महान् आयामो दैर्घ्य यस्याः सा, एवंविधा या माया सैव महीं भूमिस्तस्याः दारे विदारणे सीरं हलं महायाममायामहीपारसीरं । पुनः किंविशिष्टं श्रीजिनेन्द्रागमं गभीरं-मलधमध्यं, एकस्यापि सूत्रपदस्यानन्तार्थकलितत्वात् । पुनः किंविशिष श्रीजियेन्द्रागमं महसां उत्सवानां या मन्दिरं । महस्ते अस्युत्सवे चेति हैमानेकार्थोकेः। पुनः किविशिष्टं श्रीजिनेन्द्रा गमं घनतमा प्रतिबहवो ये गमा सहशपाठास्तेषां संगमः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) संयोगो यत्र स तं घनतमगमसंगमं । पुनः किविशिष्टं श्रीजिनेन्द्रागम-संगिभिः संगयुक्तैजनैर्दुर्गमं दुज्ञेय । पुनः 'किंभूतंसन्नमतां प्रणमजनानां नाकिभूमीरुहं कल्पवृक्ष सामनाकिम्मीरुहं । पुनः किंभूतं जंग-संचरिष्णुं । पुनः किंभूतं मुके मोक्षस्य मेद्यन् पुष्टीमवन् महान् आनन्दोऽमन्तसुखमहादो यस्मात् स तं मुक्तिमेदयन्महानन्दं । पुनः किंभूतं-भान न्द एव माकन्दः सहकारस्तत्र राधस्य वैशासस्व प्राममो राधागमस्तं आनन्दमाकंदराघागमं ॥ ३ ॥ अथ चतुर्थे श्रतदेवी प्रशंसति हिमकरकरहारनीहारहीराट्टहासो छलत्क्षीरनीराकर-स्फारडिंडीरपिण्डप्रकाण्डस्फुरत्पाडिमाडम्बरोद्दण्ड-देहद्युतिस्तोमविस्तारिशंखच्छटा। धवलितसकलाशिलाकीतलाकुण्डलालीढगण्डस्थला हारसंचारणाहारिवक्षःस्थलानूपुरारावसंराविदिङमण्डलाहंसवंशावतंसाविरोहोज्वला विनमदमरसुन्दरी कण्ठपीठीलुठत्तारहारामलाम्लसंक्रान्त पादाम्बुजव्याजनिनिसंदर्शिनस्वान्त-विधान्त-सेतातिहेवाकसंसारभावोद्भवा। अवनहितकरं परं-धाम सौवं प्रसव प्रधान्ममषिघवन्धं बिभिन्द्यान्मणीमालिका-पुस्तिकाकच्छपी नीररुदशस्तहस्ता विहस्ता सदा-सारा शारदा ॥४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) व्याख्या-सरस्वती-शारदा देवी प्रसद्य-प्रसादं विधाय भुवनहितकरं-विश्वहितविधायक परं-प्रकृष्टं सौवं आत्मीयं धामतेजः परब्रह्माख्यं प्रदद्यात्-ददातु। तथा मम अवद्यबन्धं पापकर्मबन्धनं विभिद्यात्-मिनत्त । किंविशिष्टा शारदा? हिमकरस्य चन्द्रस्य करा:-किरणा हारो मुक्ताकलापो नीहारो-हिमं हीरस्यईश्वरस्य अहहासो-महाहास्यं । उच्चलन् क्षीरनीराकरस्य-क्षीरसमुद्रस्य स्फारो विस्तीणों डिंडीरपिण्डः-फेनप्रकरस्तस्य प्रकाण्डः-प्रशस्तः स्फुरन्नुल्लसन् यः पाण्डिमाडम्बर:-शुभ्रत्वाडंबरः तद्वत् उद्दण्डा-उत्कृष्टा या देहातिः-कायकान्तिस्तस्याः स्तोमः-समूहः स एव विस्तारिणी शंखच्छटा-कम्बुश्रेणिस्तया धवलितं सकलं-सर्व त्रिलोकी सलं भूर्भुवस्स्वस्त्रयीलक्षण यया सा हिमकर ॥ पुनः कीदृशी शारदा? कुण्डलाभ्यां-नानारत्ननिचयखचित-कर्णाभरणाभ्यां आलीढे-स्पृष्टे गण्डस्थले-कपोलतले यस्याः सा कुण्डलालीढगण्डस्थला । पुनः कीदृशी शारदा? हारस्य-मुक्तावल्याः संचारणया-कण्ठपीठनिवेशनेन हारि-मनो. हरं वक्षःस्थल-हृदयं यस्याः साहारसंचारणाहारिवक्षःस्थला। पुनः कीटशी शारदा? नूपुरारावेण-मञ्जीरसिञ्जितेन संराविशब्दायमानं कृतं दिङ्मण्डलं-ककुचक्रं यया सा नूपुरारावसंपविदिमण्डला । पुनः कीदृशी शारदा? हंसवंशे-गजहंसकुले हंसवन्देऽवतंसः-शेखरभूतो भारतीवाहन-सक्तः प्रधानराजहंसस्त अधिरोहेण उज्ज्वला-निर्मलादीमा वा या तथा, अथवा हंसस्य-सितच्छदस्य वंशः पृष्ठावयवस्तत्र अवतंसवत्मुकुटवच्छोभाविधायित्वादधिरोहो यस्याः सा हंसवंशावतंसाधिरोहा। उज्वले ति पृथग्भारतीविशेषणं । वंश संधे चये पृष्ठावयवे कीचकेपि च-इत्यनेकार्थोंकेः । पुनः कीदृशी शारदा? विनमन्त्यः-प्रणमन्त्यो या अमरसुन्धयों-देवाङ्गनास्तासां कण्ठपीठीषु-कण्ठस्थलेषुलुठन्तश्चलन्तो ये तारहारा-निर्मलमोShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८) क्तिकहारास्तेषु अमलं आमूलं यावत् संक्रान्तं प्रतिबिम्बितं यत्पादाम्बुजं-चरणकमलं तस्य व्याजेन-कपटेन निर्व्याज-नि यं यथा स्यात्ता, संदर्शितः स्वान्तेषु-चित्तेषु विश्रान्तःस्थितः सेवाया अतिहेवाकोऽत्याग्रहो येषां ते स्वान्तविश्रान्तसेवातिहेवाकास्तेषां स्वान्तविश्रान्तसेवातिहेवाकानां संसारे भावानां-जीवादिवस्तूनां उद्भवा-ज्ञानप्रादुर्भावा यया सा विनमदमरसुन्दरी० । अत्रायं परमार्थः-यथा वन्दारुवृन्दारकसुन्दरीहृदयस्थोदारहारेषुप्रचलननलिनमम लिनतया प्रतिबिंबित तथा मद्भक्तिरसिकहृदयेष्वहं भुवनभाविभावानवमासयामीति सरस्वती ज्ञापयति । पुनः कीदृशी शारदा? मणीमालिका-विचित्ररत्नमयी जपमालिका पुस्तिका प्रतीता कच्छपी भारती वीणा नीररुट्-कमलं ततः कर्मधारये, तानि तैः शस्ता-प्रशस्या हस्ता यस्याः सा मणीमालिका० । पुनः कीदृशी शारदा? अविहस्ताअव्याकुला , भक्तजनकार्यसाधने सावधानेत्यर्थः । पुनः कीदृशी शारदा? सदा-नित्यं सारं-द्रव्यं ददातीति सारदा ॥१॥ अथवा सन्-प्रशस्त आसारो-वेगवान् वर्षस्तं ददातीति सदा सारदा, सरस्वती ध्यानस्य विशिष्ट वृष्टिप्रदायकत्वात् ॥२॥ अथ सन्तं सत्यं आसारं-सुहृद्धलं दयते-पालयतीति सदा सारदा । देङ् पालने-इति धातुपाठोक्तेः ॥ ३ ॥ अथ-असतांअसाधूनां प्रासारं-प्रसारं द्यति-खन्डयति या सा असदासारदा । 'आसारो वेगवद्वर्षे सुहृदलप्रसारयोरित्यनेकार्थोके' ॥४॥अथ सदा-नित्यं सारं-जलं तद्वत् दायति-शोधयति जाड्यमलं या सा सारदा। दि प्रशोधने इत्युक्तः ॥ ५॥ अथसारं उत्कृष्टद्रव्यं ददातीति, सारं बलं ददातीति सारदा ॥६॥ अथ-सारो युक्तो दा-दानं यस्याः सा सारदा ॥७॥ 'सारो मजास्थिरांशयोः । बले श्रेष्ठे च सारं तु द्रविणे न्याय्ये वाइत्यनेकार्थोके । सह दासैः-अमरकिंकरैर्वर्तते या सा सदासा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) ॥ ८॥ तथा रो वह्निस्तस्माद् दयते रक्षतीति रदा ॥९॥ असदीप्त्यादानयोरिति धातुपाठोक्तेः । असनं प्रासः सन् प्रशस्य प्रादीप्तियेषां ते सदासा ॥ १० ॥ सत्कान्तयः प्रा-समन्तात् रदा. दन्ता यस्याः सा सदा सारदा ॥ ११ ॥ अथ-सदा असां-अलक्ष्मी रदति-विलिखति अपनयतीति असारदा ॥ १२॥ अथ-सन विद्यमान प्रासो धनुर्यस्य, लज्जाधपलक्षण चैतत् तत् सदा 'सं । प्रारं-परिवृन्दं द्यति-छिनत्तीति, दो 'अवखण्डने 'सद्विद्यमाने सत्येव, प्रशस्तावित्तासाधुषु इत्यनेकार्थोक्तेः' ॥१३॥ अथसदा नित्यं सालक्ष्मीस्तस्या प्रार:-प्राप्तिस्तं ददातीति सारदा १४ ॥ तद्ध्यानविशेषस्थ लक्ष्मीदायकत्वादिति । अर्थचतुदशकं चेतश्चमत्कारकमावि वितं । एवमन्येप्यर्थाः सुधिया (स्वधिया यथा सम्भवमभ्यूह्याः। अत्र च भुवनहित इति पदेन कविना स्वाभिधानमसूचि । श्रीमत्खरतरगच्छीय श्रीभुवनहिताचार्येणेयं दण्डकस्तुतिः कृतेति तात्पर्य ॥ इति दण्डकस्तुतिव्याख्या ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) वृत्तिकार-प्रशस्तिः - - - - - - - mmmmmmmmm - - - - - -- - - - खरतरगच्छाधिपति श्रीमज्जिनहंसमरिशिष्याणां । श्रीपुण्यसागरमहो-पाध्यानां विनेयाणुः ॥ १॥ भुवनयुगरसरसाब्दे, ( १६४३) वृत्तिमिमां व्यधित पद्मराजगणिः । यद्यत्र विकृतमनृतं, तच्छोऽयं सदुदयैः सदयैः ॥२॥ इति श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायशिष्यवाचनाचार्यवर्यपद्मराजगाणि विर-- चिता दण्डकस्तुतिवृत्तिः सम्पूर्णा । IH! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय प्रकाशित सस्ती और मनोहर पुस्तकों की सूची७. बृहत्पर्युषणा निर्णयः- षट् कल्याणक निर्णयः मेटा आत्म भ्रमोच्छेदन भानुः। साधु साध्वी योग्य प्रतिक्रमण सूत्राणि देव द्रव्य निर्णयः प्रथम भाग आगमानुसार मुहपति का निर्णयः जाहिर उद्घोषणा नं. १-२-३ कल्प सूत्र हिंदी भावार्थ दशवैकालिक मूल-मूलार्थ पर्वकथा संग्रह संस्कृत अनुत्तरोववाइ सूत्र मूल-मूलार्थ अंतगड दशाङ्ग सूत्र , आवश्यक विधि संग्रह द्वादश पर्व व्याख्यान हिन्दी उपासक दशाङ्ग सूत्र--मूल-मूलार्थ टीका टीकार्य साध्वी व्याख्यान निर्णयः गौतम पृच्छा-सार खरतरगच्छीय राइदेवसी प्रतिक्रमण सविधि देवचदजी की चौवीशी बीसी संस्कृत व अनेकरागमय. चतुर्विंशति-चिनेन्द्रस्तवनानि सामायिक जिन दर्शन विधि चतुर्विशति-जिनस्तुतिः खरतरगच्गीय राइदेववसी प्रतिक्रमण मूल श्रीनवकार महामन्त्रस्मरण (१०८ मूल) भात्मभावना भावारिवारणपादपूादिस्तोत्रसंग्रह मेट मर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 यश पावनगर veshy DIRE സമയം पुस्तके मिलने का पताश्री हिन्दी जैनागम प्रकाशकसुमति कार्यालय जैन प्रेस, कोटा (राजपूताना) काढलाइल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com