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अनेका
भाद्रपद, संवत् २००५ :: सितम्बर, सन् १६४८
वर्ष 8
प्रधान सम्पादक
जुगलकिशोर मुख्तार
सह सम्पादक
मुनि कान्तिसागर
'दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (विहार)
Faraar faara
जीवनकी औ' धनकी,
आशा जिनके सदा लगी रहती ।
विधिका विधान सारा,
उनहीके अर्थ होता है ॥
२
विधि क्या कर सकता है,
उनका जिनकी निराशता आशा ?
भय - काम-वश न होकर, जगमें स्वाधीन रहते जो ॥
'युगवी'
1170
किरण &
सञ्चालक-व्यवस्थापक
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
-००-०००
संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा
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94
भारतके प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू
तेरी वर्षगाँठ पर गाँठे लगें और गाँठे खुल जायें
बन्ध - मोक्षके सम्मिश्रणसे जीवन-तन्तु नया बल पायें
१४ नवम्बरको आपकी देश-विदेशमें सर्वत्र ६०वीं वर्षगाँठ मनाई गई
३२७ ३२८
३२६ ३३३
विषय-सूची नाम लेख १ कामना (कविता)-[ 'युगवीर' २ मेरी द्रव्यपूजा (कविता)-[ जुगल किशोर मुख्तार ३ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने (युनयनुशासन)-[सम्पादक ४ मूर्तिकला-[श्रीलोकपाल .... ५ जैन-अध्यात्म-[पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ६ तीन चीत्र-[जमनालाल जैन ७ हिन्दीके दो नवीन महाकाव्य-[ मुनि कान्तिसागर ८ मथुरा-संग्रहालयकी महत्वपूर्ण जैन-पुरातत्त्व सामग्री-बालचन्द एम० ए० ह समाज-सेवकोंके पत्र-[ ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद १० व्यक्तित्व (स्मृतिकी रेखाएँ)-[गोयलीय । ११ साहित्य-परिचय और समालोचन १२ श्रद्धाञ्जलि (कविता)-[ श्रीब्रजलाल उर्फ भैयालाल जैन १३ सम्पादकीय-[ मुनि कान्तिसागर
३३५ ३४१
३४३ ३४५
३५१ ३५५ ३५८
३६२
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ॐ अहम्
-
பாடி
तत्त्व-सचातक
विश्व तत्त्वप्रकाशक
वार्षिक मूल्य ५)
TNPinmillimப்பா illgeria
एक किरणका मूल्य ॥) .
वा
.
नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।
वर्ष ६ । किरण ६
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर भाद्रपदशुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत् २००५
सितम्बर १९४८
ရွှေ
कामना
परमागमका बीज जो, जैनागमका प्राण । .. 'अनेकान्त' सत्सूयें सो, करो जगत्-कल्याण ॥१॥ 'अनेकान्त'-रवि-किरणसे, तम-अज्ञान-विनाश । । मिट मिथ्यात्व-कुरीति सब, हो सद्धर्म-प्रकाश ॥२॥ कुनय-कदाग्रह ना रहे, रहे न मिथ्याचार । तेज देख भागें सभी, दम्भी - शठ - बटमार ॥३॥ सूख जायं दुर्गुण सकल, पोषण मिले अपार । सद्भावोंको लोकमें, हो विकसित संसार ॥४॥ शोधन-मथन बिरोधका, हुआ करे अविराम ।
प्रेम-पगे रल-मिल सभी, करें कमें निष्काम ॥५॥ यगवीर &000999999999999999999999999999999
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मेरी द्रव्यपूजा
कृमि - कुल-कलित नीर है, जिसमें मच्छ कच्छ मेंडक फिरते, हैं मरते औ' वहीं जनमते, प्रभो ! मलादिक भी करते । दूध निकालें लोग छुड़ाकर बच्चेको पीते पीते, उच्छिष्ट- अनीतिलब्ध. यों योग्य तुम्हारे नहिं दीखें ॥ १ ॥ दही - घृतादिक भी वैसे हैं कारण उनका दूध यथा; फूलोंको भ्रमरादिक सूँघें, वे भी हैं उच्छिष् दीपक तो पतङ्ग - कालाऽनल जलते जिनपर कीट सदा; त्रिभुवनसूर्य ! आपको अथवा दीप दिखाना नहीं भला ॥ २ ॥ फल- मिष्टान्न अनेक यहाँ, पर उनमें ऐसा एक नहीं, मल- प्रिया मक्खीने जिसको आकर, प्रभुवर ! छुआ नहीं । यों अपवित्र पदार्थ, अरुचिकर, तू पवित्र सब गुणघेरा; किस विधि पूजूँ ? क्या हि चढ़ाऊँ ? चित्त डोलता है मेरा ॥ ३ ॥ औ' आता ध्यान, 'तुम्हारे क्षुधा तृषाका लेश नहीं, नाना रस-युत अन्न-पानका, अतः प्रयोजन रहा नहीं । नहिं वांछा, न विनोद-भाव, नहिं राग- अंशका पता कहीं, इससे व्यर्थ चढ़ाना होगा, औषध-सम, जब रोग नहीं' ।। ४ ।। यदि तुम कहो ' रत्न-वस्त्रादिक - भूषण क्यों न चढ़ाते हो. अन्यसदृश, पावन हैं, अर्पण करते क्यों सकुचाते हो' । तो तुमने निःसार समझ जब खुशी खुशी उनको त्यागा, हो वैराग्य- लीन-मति, स्वामिन्! इच्छाका तोड़ा तागा ॥ ५ ॥ तब क्या तुम्हें चढ़ाऊँ वे ही, करूँ प्रार्थना ' ग्रहण करो' ? होगी यह तो प्रकट अज्ञता तव स्वरूपकी सोच करो । मुझे धृष्टता दीखे अपनी और अश्रद्धा बहुत बड़ी. हेय तथा संत्यक्त वस्तु यदि तुम्हें चढ़ाऊँ घड़ी घड़ी ।। ६ ।। इससे 'युगल' हस्त मस्तकपर रखकर नम्रीभूत हुआ, भक्ति-सहित मैं प्रणमूँ तुमको, बारबार, गुण- लीन हुआ । संस्तुति शक्ति-समान करूँ औ' सावधान हो नित तेरी; काय - वचनकी यह परिणति ही अहो ! द्रव्यपूजा मेरी ॥ ७ ॥ भाव-भरी इस पूजासे ही होगा आराधन तेरा. होगा तव - सामीप्य प्राप्त औ' सभी मिटेगा जग - फेरा ॥ तुझमें मुझमें भेद रहेगा नहिं स्वरूपसे तब कोई, ज्ञानानन्द - कला प्रकटेगी, थी अनादिसे जो खोई ॥ ८ ॥ वरसेवामन्दिर, सरसावा जुगल किशोर मुसतार
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समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
नाना-सदेकात्म-समाश्रयं चेद्
प्रसंग आएगा और व्यक्तियोंके असदात्मकत्व, अन्यत्वमद्विष्ठमनात्मनोः क्व ।
अद्रव्यत्व, अगुणत्व अथवा अकर्मत्व-रूप होनेपर
सत्सामान्य, द्रव्यत्वसामान्य, गुणत्वसामान्य अथवा विकल्प - शून्यत्वमवस्तुनश्चेव- .
कर्मत्वसामान्य भी व्यक्तित्वविहीन होनेसे अभावतस्मिन्नमेये व खलु प्रमाणम् ॥५५॥ मात्रकी तरह असत् ठहरेगा, और इस तरह व्यक्ति 'नाना सतों-सत्पदार्थोंका-विविध द्रव्य-गुण
तथा सामान्य दोनोंके ही अनात्मा-अस्तित्वविहीनकर्मोका-एक आत्मा-एक स्वभावरूप व्यक्तित्व; जैसे
होनेपर वह अन्यत्वगुण किसमें रहेगा जिसे अद्विष्ठ
-एकमें रहने वाला माना गया है? किसी में भी सदात्मा, द्रव्यात्मा, गुणात्मा अथवा कर्मात्मा ही जिसका समाश्रय है ऐसा सामान्य यदि (सामान्य
उनका रहना नहीं बन सकता और इसलिए अपने वादियोंके द्वारा) माना जाय और उसे ही प्रमाणका
व्यक्तियोंसे सर्वथा अन्यरूप सामान्य व्यवस्थित विषय बतलाया जाय अर्थात् यह कहा जाय कि सत्ता
नहीं होता।' सामान्यका समाश्रय एक सदात्मा, द्रव्यत्वसामान्यका
यदि वह सामान्य व्यक्तियोंसे सर्वथा अनन्य समाश्रय एक द्रव्यात्मा, गुणत्वसामान्यका समाश्रय (अभिन्न) है तो वह अनंन्यत्व भी व्यवस्थित नहीं एक गुणात्मा अथवा कमत्व सामान्यका समाश्रय होता; क्योंकि सामान्यके व्यक्तिमें प्रवेश कर जानेपर एक कर्मात्मा जो अपनी एक सद्व्यक्ति, द्रव्य- व्यक्ति ही रह जाती है-सामान्यकी कोई अलग व्यक्ति, गुणव्यक्ति अथवा कर्मव्यक्तिके प्रतिभास- सत्ता नहीं रहती और सामान्यके अभावमें उस • कालमें प्रमाणसे प्रतीत होता है वही उससे भिन्न व्यक्तिकी संभावना नहीं बनती इसलिए वह अनात्मा द्वितीयादि व्यक्तियोंके प्रतिभास-कालमें भी अभि- ठहरती है, व्यक्तिका अनात्मत्व (अनस्तित्व) होनेपर व्यक्तताको प्राप्त होता है और जिससे उसके एक सत् सामान्यके भी अनात्मत्वका प्रसंग आता है और अथवा द्रव्यादिस्वभावकी प्रतीति होती है, इतने मात्र इस तरह व्यक्ति तथा सामान्य दोनों ही अनात्मा आश्रयरूप सामान्यके ग्रहणका निमित्त मौजूद है (अस्तित्व-विहीन) ठहरते हैं; तब अनन्यत्व-गुणकी अतः वह प्रमाण है. उसके अप्रमाणता नहीं है, योजना किसमें की जाय, जिसे द्विष्ठ (दोनोंमें रहने क्योंकि अप्रमाणता अनन्तस्वभावके समाश्रयरूप वाला) माना गया है ? किसीमें भी उसकी योजना नहीं सामान्यके घटित होती है, तो ऐसी मान्यतावाले बन सकती। और इसके द्वारा सर्वथा अन्य-अनन्यसामान्यवादियोंसे यह प्रश्न होता है कि उनका वह रूप उभय-एकान्तका भी निरसन हो जाता है; क्योंकि सामान्य अपने व्यक्तियोंसे अन्य (भिन्न) है या उसकी मान्यतापर दोनों प्रकारके दोषोंका प्रसंग अनन्य (अभिन्न) ? यदि वह एक स्वभावके आश्रय- आता है।' रूप सामान्य अपने व्यक्तियोंसे सर्वथा अन्य (भिन्न) 'यदि सामान्यको (वस्तुभूत न मान कर) अवस्तु है तो उन व्यक्तियोंके प्रागभावकी तरह असदात्म- (अन्याऽपोहरूप) ही इष्ट किया जाय और उसे कत्व, अद्रव्यत्व, अगुणत्व अथवा अकर्मत्वका विकल्पोंसे शून्य माना जाय-यह कहा जाय कि उसमें
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३३० ]
अनेकान्त
[ वर्ष ६
खरविषाणकी तरह अन्यत्व-अनन्यत्वादिके विकल्प 'यदि इसके विपरीत अन्वयहीन व्यावृत्तिसे ही नहीं बनते और इसलिए विकल्प उठाकर जो दोष · साध्य जो सामान्य उसको सिद्ध माना जाय तो वह दिये गये हैं उनके लिए अवकाश नहीं रहता-तो उस भी नहीं बनता-क्योंकि सवथा अन्वयरहित अतद्अवस्तुरूप सामान्यके अमेय होनेपर प्रमाणको व्यावृत्ति-प्रत्ययसे अन्यापोहकी सिद्धि होनेपर भी प्रवृत्ति कहाँ होती है ? अमेय होनेसे वह सामान्य उसकी विधिकी असिद्धि होनेसे-उस अर्थक्रियाप्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय नहीं रहता और रूप साध्यकी सिद्धिके अभावसे-उसमें प्रवृत्तिका इसलिए उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती।' विरोध होता है-वह नहीं बनती। और यह कहना
(इस तरह दूसरोंके यहाँ प्रमाणाभावके कारण भी नहीं बनता कि दृश्य और विकल्प्य दोनोंके किसी भी सामान्यकी व्यवस्था नहीं बन सकती।) ।
एकत्वाऽध्यवसायसे प्रवृत्तिके होनेपर साध्यकी सिद्धि
होती है; क्योंकि दृश्य और विकल्प्यका एकत्वाब्यावृत्ति-हीनाऽन्वयतो न सिद्धयद्
ध्यवसाय असम्भव है । दर्शन उस एकत्वका अध्यविपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम्। वसाय नहीं करता; क्योंकि विकल्प्य उसका विषय अतद्व्युदासाऽभिनिवेश-वादः
नहीं है। दर्शनकी पीठपर होनेवाला विकल्प भी उस
एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता; क्योंकि दृश्य पराभ्युपेताऽथे-विरोध-वादः ॥५६॥ विकल्पका विषय नहीं है और दोनोंको विषय करनेवाला 'यदि साध्यको-सत्तारूपपर सामान्य अथवा कोई ज्ञानान्तर सम्भव नहीं है, जिससे एकत्वाद्रव्यत्वादिरूप अपरसामान्यको-व्यावृत्तिहीनअन्वय ध्यबसाय हो सके और एकत्वाध्यवसायके कारण से-असत्की अथवा अद्रव्यत्वादिकी व्यावृत्ति (जुदा- अन्वयहीन व्यावृत्तिमात्रसे अन्यापोहरूप सामान्यकी यगी)के बिना केवल सत्तादिरूप अन्वय हेतुसे-सिद्ध सिद्धि बन सके। इस तरह स्वलक्षणरूप साध्यको माना जाय तो वह सिद्ध नहीं होता क्योंकि विपक्ष- सिद्धि नहीं बनती।'
व्यावृत्तिके विना सत-असत अथवा व्यत्व- 'यदि यह कहा जाय कि अन्वय और व्यावृत्ति अद्रव्यत्वादिरूप साधनोंके संकरसे सिद्धिका प्रसंग दोनोंसे हीन जो अद्वितयरूप हेतु है उससे सन्मात्रका आता है और यह कहना नहीं बन सकता कि जो प्रतिभास न होनेसे सत्ताद्वतरूप सामान्यकी सिद्धि सदादिरूप अनुवृत्ति (अन्वय) है वही असदादिकी होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा व्यावृत्ति है; क्योंकि अनुवृत्ति (अन्वय) भाव-स्वभाव- अद्वितयकी मान्यतापर साध्य-साधनकी भेदसिद्धि रूप और व्यावृत्ति अभाव-स्वभावरूप है और दोनोंमें नहीं बनती और भेदकी सिद्धि न होनेपर साधनसे भेद माना गया है। यह भी नहीं कहा जा सकता साध्यकी सिद्धि नहीं बनती और साधनसे साध्यका कि सदादिके अन्वय पर असदादिककी व्यावृत्ति सिद्धिके न होनेपर अद्वितय-हेतु विरुद्ध पड़ता है।' सामर्थ्यसे ही हो जाती है; क्योंकि तब यह कहना नहीं यदि अद्वितयको संवित्तिमात्रके रूपमें मानकर बनता कि व्यावृत्तिहीन अन्वयसे उस साध्यकी सिद्धि असाधनव्यावृत्तिसे साधनको और असाध्यव्यावृत्तिसे होती है, सामर्थ्यसे असदादिककी व्यावृत्तिको सिद्ध साध्यको अतव्युदासाभिनिवेशवादके रूपमें आश्रित माननेपर तो यही कहना होगा कि वह अन्वयरूप किया जाय तब भो (बौद्धोंके मतमें) पराभ्युपेतार्थके हेतु असदादिकी व्यावृत्तिसहित है, उसीसे सत्सा- विरोधवादका प्रसङ्ग आता है; अर्थात् बौद्धोंके द्वारा मान्यकी अथवा द्रव्यत्वादि सामान्यकी सिद्धि होती संवेदनाद्वैतरूप जो अर्थ पराभ्युपगत है वह अतद्है। और इसीलिए उस सामान्यके सामान्य विशेषा- व्युदासाभिनिवेशवादसे-अतव्यावृत्तिमात्र आग्रहख्यत्वकी व्यवस्थापना होती है।'
वचनरूपसे-विरुद्ध पड़ता है; क्योंकि किसी असाधन
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किरण ]
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
[ ३३१
तथा असाध्यके अर्थाभावमें उनकी अव्यावृत्तिसे निशायितस्तैः परशुः परघ्नः साध्य-साधन-व्यवहारकी उपपत्ति नहीं बनती और
स्वमूर्ध्नि निर्भेद-भयाऽनभिज्ञैः । उनको अर्थ माननेपर प्रतिक्षेपका योग्यपना न होनेसे द्वैतकी सिद्धि होती है। इस तरह बौद्धोंके पूर्वाभ्युपेत
वैतण्डिकैयः कुसृतिः प्रणीता अर्थके विरोधवादका प्रसङ्ग आता है।'
मुने ! भवच्छासन-दृक-प्रमूढः ॥५८॥ अनात्मनाऽनात्मगतेरयुक्ति
"(इस तरह) हे वीर भगवन् ! जिन वैतण्डिकोंने
-परपक्षके दूषणकी प्रधानता अथवा एकमात्र धुनको वस्तुन्ययुक्त यदि पक्ष-सिद्धिः।
लिये हुए संवेदनाद्वैतवादियोंने-कुमृतिका-कुत्सिता अवस्त्वयुक्त प्रतिपक्ष-सिद्धिः गति-प्रतीतिका-प्रणयन किया है उन आपके न च स्वयं साधन-रिक्त-सिद्धिः ॥५७॥ (स्याद्वाद) शासनकी दृष्टिसे प्रमूढ एवं निर्भेदके भयसे
अनभिज्ञ जनोंने (दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके (यदि बौद्धोंके द्वारा यह कहा जाय कि वे साधन- का
कारण) परघातक परशु-कुल्हाड़ेको अपने ही मस्तकपर को अनात्मक मानते हैं. वास्तविक नहीं और साध्य मारा है !! अर्थात जिस प्रकार दूसरेके घातके लिये
भी वास्तविक नहीं है, क्योंकि वह संवृतिक द्वारा उठाया हुआ कुल्हाड़ा यदि अपने ही मस्तकपर पड़ता . कल्पिताकाररूप है. अतः पराभ्युपेतार्थ के विरोधवाद- है तो अपने मस्तकका विदारण करता है और उसको का प्रसङ्ग नहीं आता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; उठाकर चलानेवाले अपने घातके भयसे अनभिज्ञ क्योंकि ) अनात्मा-निःस्वभाव संवृतिरूप तथा कहलाते हैं उसी प्रकार परपक्षका निराकरण करने असाधनकी व्यावृत्तिमात्ररूप-साधनके द्वारा उसा वाले वैतण्डिकोंके द्वारा दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त प्रकारके अनात्मसाध्यकी जो गति-प्रतिपत्ति (जान- होने के कारण जिस न्यायका प्रणयन किया गया है वह कारी) है उसकी सर्वथा अयुक्ति-अयोजना है-वह अपने पक्षका भी निराकरण करता है और इस लिये बनती ही नहीं।'
उन्हें भी स्वपक्षघातके भयसे अनभिज्ञ एवं हकप्रमृढ ____ यदि (संवेदनाद्वैतरूप) वस्तुमें अनात्मसाधनके समझना चाहिये।' द्वारा अनात्मसाध्यकी गतिकी अयुक्तिसे पक्षकी सिद्धि
भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मों मानी जाय-अर्थात् संवेदनाद्वैतवादियों के द्वारा यह
भावान्तरं भाववदहतस्ते । कहा जाय कि साध्य-साधनभावसे शून्य संवेदनमात्रके पक्षपनेसे ही हमारे यहाँ तत्त्वसिद्धि है. तो (विकल्पि. प्रमीयते च व्यपदिश्यते च. ताकार) अवस्तुमें साधन-साध्यकी अयुक्तिसे प्रति- वस्तु-व्यवस्थाऽङ्गममेयमन्यत् ॥५९॥ पक्षकी-द्वैतकी-भी सिद्धि ठहरती है। अवस्तुरूप (यदि यह कहा जाय कि साधनके विना साध्य. साधन अद्वैततत्त्वरूप साध्यको सिद्ध नहीं करता है; की स्वयं सिद्धि नहीं होती' इस वाक्यके अनुसार क्योंकि ऐसा होनेसे अतिप्रसङ्ग आता है-विपक्षकी संवेदनाद्वैतकी भी सिद्धि नहीं होती तो मत हो, भी सिद्धि ठहरती है।
परन्तु शून्यतारूप सर्वका अभाव तो विचारबलसे . 'और यदि साधनके विना स्वतः ही संवेदना- प्राप्त हो जाता है. उसका परिहार नहीं किया जा द्वैतरूप साध्यकी सिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नहीं सकता अतः उसे ही मानना चाहिये' तो यह कहना है क्योंकि तब पुरुषाद्वैतकी भी स्वयं सिद्धिका प्रसङ्ग भी ठीक नहीं है; क्योंकि) हे कीर अर्हन् ! आपके श्राता है, उसमें किसी भी बौद्धको विप्रतिपत्ति नहीं मतमें अभाव भी वस्तुधर्म होता है-बाह्य तथा हो सकती।'
आभ्यन्तर वस्तुके असम्भव होनेपर सर्वशून्यतारूप
'
पचवस्तुधी
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३३२]
तदभाव सम्भव नहीं हो सकता; क्योंकि स्वधर्मी के सम्भव होनेपर किसी भी धर्मकी प्रतीति नहीं बन सकती । अभावधर्मकी जंब प्रतीति है तो उसका कोई
अनेकान्त
(तर पदार्थ) होना ही चाहिये, इस लिये सर्वशून्यता घटित नहीं हो सकती । सर्व ही नहीं तो सर्व शून्यता कैसी ? तत् ही नहीं तो तदभाव कैसा ? अथवा भाव ही नहीं तो अ-भाव किसका ? इसके सिवाय, यदि वह अभाव स्वरूपसे है तो उसके वस्तुधर्मत्वकी सिद्धि है; क्योंकि स्वरूपका नाम ही वस्तुधर्म है । अनेक धर्मोमेंसे किसी धर्मके अभाव होनेपर वह अभाव धर्मान्तर ही होता है और जो धर्मान्तर होता है वह कैसे वस्तुधर्म सिद्ध नहीं होता ? होता ही है। यदि वह अभाव स्वरूपसे नहीं है तो वह अभाव ही नहीं है; क्योंकि अभावका भाव होनेपर भावका विधान होता है । और यदि वह अभाव (धर्मका अभाव न होकर) धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है - जैसे कि कुम्भका जो अभाव है वह भूभाग है और वह भावान्तर ( दूसरा पदार्थ ) ही है, यौगमतकी मान्यताके अनुसार सकल शक्ति - विरहरूप तुच्छ नहीं है । सारांश यह कि प्रभाव यदि धर्मका है तो वह धर्मकी तरह धर्मान्तर होने से वस्तुधर्म है और यदि वह धर्मीका है तो वह भावकी तरह भावान्तर ( दूसरा धर्मी) होनेसे स्वयं दूसरी वस्तु है - उसे सकलशक्ति - शून्य तुच्छ नहीं कह सकते। और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है, व्यपदिष्ट किया जाता है और वस्तु - व्यवस्था के अङ्गरूपमें निर्दिष्ट किया जाता है । '
[ वर्ष ह
( यदि धर्म अथवा धर्मी के अभावको किसी प्रमाणसे नहीं जाना जाता तो वह कैसे व्यवस्थित होता है ? नहीं होता । यदि किसी प्रमाणसे जाना जाता है तो वह धर्म-धर्मी के स्वभाव-भावकी तरह वस्तुधर्म अथवा भावान्तर हुआ। और यदि वह अभाव व्यपदेशको प्राप्त नहीं होता तो कैसे उसका प्रतिपादन किया जाता है ? उसका प्रतिपादन नहीं बनता । यदि व्यपदेशको प्राप्त होता है तो वह वस्तुधर्म अथवा वस्त्वन्तर ठहरा, अन्यथा उसका व्यपदेश नहीं बन सकता । इसी तरह वह अभाव यदि वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग नहीं तो उसकी कल्पनासे क्या नतीजा ?' घटमें पटादिका अभाव है' इस प्रकार पटादिके परिहार द्वारा अभावको घट-व्यवस्थाका कारण परिकल्पित किया जाता है; अन्यथा वस्तुमें सङ्कर दोषका प्रसङ्ग आता है - एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप भी कहा जा सकता है, जिससे वस्तुकी कोई व्यवस्था नहीं रहती - अतः अभाव वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग है और इस लिये भावकी तरह वस्तुधर्म है ।)
'जो अभाव-तत्त्व (सर्वशून्यता) 'वस्तु-व्यवस्थाका अङ्ग नहीं है वह (भाव-एकान्तकी तरह) अमेय (अप्रमेय) ही है - किसी भी प्रमाणके गोचर नहीं है।'
( इस तरह दूसरोंके द्वारा परिकल्पित वस्तुरूप या अवस्तुरूप सामान्य जिस प्रकार वाक्यका अर्थ नहीं बनता उसी प्रकार व्यक्तिमात्र परस्पर-निरपेक्ष उभयरूप सामान्य भी वाक्यका अर्थ नहीं बनता; क्योंकि वह सामान्य अमेय है - सम्पूर्ण प्रमाणों के विषयसे अतीत है अर्थात किसी प्रमाणसे उसे जाना नहीं जा सकता । )
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मूर्ति-कला (लेखक- श्रीलोकपाल')
स्थापत्य या मूर्तिकलाने जैनमूर्तियोंमें अपने चरम पूछनेपर उन्होंने भी कुछ संतोष-जनक उत्तर नहीं उत्कर्षको पाया है। बौद्धमूर्तियोंको देखनेपर भी कुछ दिया या कुछका कुछ दे दिया। शास्त्रोंका ज्ञान मेरा बहुत ऐसा ही भास होता है। पर जैन और बौद्धमूर्तियोंमें ही कम नहींके बराबर है। पर अब जबसे मैंने इधर एक सूक्ष्म,पर बड़ा भारी भेद है, जिसकी पूर्ण महत्ता दो चार सप्ताहोंसे चित्रों या मूर्तियोंपर लिखना तो वही बतला सकता है जो मूर्तिकलाका ज्ञाता होनेके आरम्भ कर दिया तब बातें अपने आप बहुत कुछ साथ ही साथ मनोविज्ञानका भी ज्ञाता हो और यदि साफ होती जाती है। पूरा विवरण-Details तो दर्शनमें भी दखल रखता हो तो फिर पूछना ही क्या मैं नहीं जानता, न उनका ब्योरेवार कारण ही जान है। मैं तो तीनोंमेंसे कोई भी नहीं जानता। यों ही बुद्धि- पाया हूँ पर अपनी विचार-प्रणालीपर चलते हुए मैंने पर जोर देनेसे मैं जो कुछ समझ सका हूँ उसी बूतेपर यह देखा है कि इन जैनमूर्तियोंपर अङ्कित एक-एक वह सब कुछ है जो मैंने लिखा है या लिखता हूँ। रेखा या बनावटका मतलब है-और यह सब कुछ बुद्धकी मूर्तियोंको देखनेसे यही ज्ञात होता है कि बुद्ध संयोगवश नहीं बल्कि बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक जानकिसी बड़े ही गम्भीर, गम्भीरतर या गम्भीरतम कारीके साथ ही की गई है-जैसे शिरोपरि, कान, विचारमें लीन हैं। कोई बात सोच रहे हैं-विचार वक्ष या हाथके ऊपरकी जो बनावटें हैं वे सब मूर्तिकी रहे हैं। इस तरह इनका मानसिक स्तरपर होना भव्यता, मज़बूती वगैरहसे सम्बन्धित होते हुए भी जाहिर होता है। जबकि जैनमर्तियोंमें जो मद्रा या गूढ मनोवैज्ञानिक महत्व रखती हैं। भाव अङ्कित हैं उनसे यही दीखता है कि जिनेन्द्र सचमुच ही यथाविधिरूपसे बनी हुई जैनमूर्तियों(तीर्थङ्कर) ध्यानमग्न या परम निर्विकार ध्यानमें लीन में 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का सच्चा समन्वय एवं हैं। इससे जैनमूर्तियाँ मानसिक स्तरसे निकाल कर दिग्दर्शन होता है-Plain living and high
आध्यात्मिक या आत्मिक ऊँचे स्तरपर पहुँचा दी गई thinking-अतिसरल स्वाभाविक सुन्दर मूर्ति है। इस तरह बुद्धकी मूर्तियाँ जब विचार-मुद्रा प्रद- और ऊँचेसे ऊँचे भाव उनपर अङ्कित होना ही र्शित करती हैं तब जैन मूर्तियाँध्यान-मुद्रा। इसध्यान- 'सत्यं शिवं सुन्दरम्'को साबित कर दिखलाते हैं जो में भी और ध्यानोंसे विशेषता है । ये मुद्राएँ ही और कहीं नहीं मिलता। अपूर्णता (अपूर्णज्ञान) और पूर्णता (पूर्णज्ञान एवं. बनारसके भेलू पुराके बड़े मन्दिर में मैंने एक मूर्तिनिर्विकारता)की द्योतक जान पड़ती हैं। इतना ही को देखा जिसमें प्राचीन परिपाटीसे हटनेकी चेष्टा की नहीं, मूर्तिमें क्या बात होनेसे उसका दर्शकके ऊपर गई है। मूर्ति विशेषरूपसे मानवाकृतिकी साधारण गम्भीर, स्थायी एवं गुरु (Serious) प्रभाव पड़ तौरसे बनाई गई है. जिसमें साधारण मानवसे जहाँ संकता है या पड़ेगा इसका भी हर तरहका खयालं तक हो सके सदृशता लानेकी कोशिश की गई है। या अचूक सूक्ष्म ध्यान रखा गया है। जैनमूर्तियोंके सिर या मस्तकके ऊपरकी बनावट या और सब बारेमें सोचनेपर अक्सर ही मैं उनपर अङ्कित कई Extra-अधिक चीजोंको निकाल दिया गया है। बातोंका कुछ मतलब नहीं लगा पायां हूं। लोगोंसे मैं जब भी उस मूर्तिके दर्शन करता तभी यह प्रश्न
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३३४ ]
मेरे मनमें बराबर उठता रहा कि क्यों इस मूर्तिका असर या प्रभाव मेरे ऊपर नहीं पड़ता जो पड़ना चाहिये। यह मैं सोचता हूं कि कोई मनोवैज्ञानिक कारण है — और उसी वजहसे हमारे पूर्वजोंने अपनी मूर्तियाँ बनवानेमें हर बातका हरएक रेखा - लाइनपर मुद्राको अङ्कित करनेमें इस मनोवैज्ञानिक जरूरत या आवश्यकताका बराबर ध्यान रखा है कि मूर्तिका प्रभाव जैसा पड़ना चाहिये या जिस कामको या मतलबको सम्पादन करनेके लिये मूर्तिका निर्माण हुआ है वह पूर्णरूपसे पूरा हो, जो केवल सीधा सादेरुपसे एक आदमीकी मूर्ति ज्योंका त्यों बना देनेसे नहीं होता था । बड़ी मूर्तियों और छोटी मूर्तियोंमें एवं धातुकी मूर्तियोंमें और पत्थर की मूर्तियोंमें फिर उनके रङ्गोंके कारण प्रभाव, असर तथा बनावटमें थोड़ा अन्तर हो सकता है - और पाया जाता है । पर उसमें भी नयाल रखा गया है कि स्वाभाविकतासे अलग जाना कमसे कम हो और मानसिक प्रभाव उसका ऐसा हो कि स्वाभाविकता का ही भान हम मूर्तिसे करें । बल्कि साधारण तौरसे मूर्ति बना देनेसे उसका असर जो पड़ता उसमें उतनी स्वाभाविकता - का भाव नहीं होता। और भी जो बड़ा भारी महान् भाव हमारे भीतर पैदा करना तथा मूर्तिपर दिखलाना था वह तो उसी तरीकेसे हो सकता था जैसा कि हम अपनी मूर्तियोंपर देखते हैं— अन्यथा सम्भव नहीं हैं । हाँ, ये सब बातें दिगम्बर मूर्तियों के सम्बन्ध में हैं। मालूम होता है कि जैनियोंने जब देखा कि लोग दिगम्बरका ठीक ठीक महत्व या मतलब नहीं समझते एवं उसका मखौल तक उड़ाते हैं तब उनमेंसे कुछ ऐसोंने ही जो जैनोंकी संख्या कम होना नहीं पसन्द करते थे श्वेताम्बर मूर्तियोंको प्रचलित किया । पर ध्यानके वास्ते और निर्विकार ध्यान या मुद्राके वास्ते दिगेम्बर मूर्तियाँ ही सर्वश्रेष्ठ हैं । बुद्धकी मूर्तियोंमें विचार- मुद्रा होनेसे वे सांसारिक अवस्था में मनके आधारपर रहते हैं, जबकि जिनेन्द्रकी मूर्तियोंमें
अनेकान्त
[ वर्ष.
ध्यानमुद्रा होनेसे वे सांसारिक और मनके आधार अलग ऊपर उठ जाते हैं । बुद्धकी मूर्तियोंमें सांसारिकता तो छूटी रहती है पर संसार अभी रहता है। जबकि जैनमूर्तियोंमें सांसारिकता और संसार दोनोंसे अलग ऊपर भाव हो जाते हैं। चित्रकला के ज्ञाता यदि निष्पक्ष ( Unbiased) होकर जैनमूर्तियोंका मन करें तो उन्हें बड़ी भारी जानकारीका लाभ होगा। ब्राह्मणधर्मने तो मूर्तिकलाको दिनपर दिन नीचे ही उतारा है । वहाँ तो मूर्ति में केवल सौष्ठव और श्रीडम्बरको ही स्थान दिया है- ध्यानसे कोई सम्बंध ही नहीं - और 'निर्विकार' होना तो बड़ी दूरी बात है । दिनपर दिन हमारी मूर्तिकलाका ह्रास होता गया है और जो कुछ भी हम देखते हैं वह विकृत, अन्यथामार्ग या गलत रास्तेपर चला हुआ हो गया है। इसे सुधारनेके लिये धार्मिक मनोभावनाओं को एवं धर्मान्धता को दूर करना होगा तभी वह सम्भव है । आज तो हमने बुद्धि और तर्क से तर्केमवालात' कर रखा है या उन्हें धर्मका दुश्मन बना दिया है। जब तक इनमें आपस में मेल, सहयोग एवं अतिनिकट सम्बन्ध या एकता नही स्थापित होती तब तक कुछ सुधार होना तथा भारतकी उन्नतिका होना स्थायी नहीं हो सकता । दो-चार नेता कर ही क्या सकते हैं ? वे आगे बढ़ेंगे - देशको आगे बढ़ावेंगे, पीछेसे धर्मान्धलोग उन्हें उनकी टाँगोंको पकड़कर खींच लेंगे — क्योंकि उन्हें बुद्धिसे तो कोई सरोकार (प्रयोजन) है ही नहीं। और संसार में सक्रिय प्रभाव-शक्ति या स्थायी जो कुछ भी हो सकता है वह बुद्धिसे ही हो सकता है। बाकी तो सब कुछ भ्रमपूर्ण - विकृत - उल्टापलटा एवं गलत ही हैचाहे भले ही हम अपनी बहुक या घमण्ड में या अज्ञानता में उसे ही ठीक सीधा या सही मानते रहें । पर फल तो हमारे मानने के ऊपर निर्भर नहीं करता वह तो वस्तुस्वभावपर एवं तथ्य, तत्त्व या सत्यपर ही निर्भर करता है ।
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जैन अध्यात्म
[पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य]
पदार्थस्थिति
सर्वव्यापी है। धर्म और अधर्म लोकाकाशके बराबर
हैं। पुद्गल और काल अणुरूप हैं। जीव असंख्यातप्रदेशी 'नाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते संतः' है और अपने शरीरप्रमाण विविध आकारोंमें जगतमें जो सत् है उसका सर्वथा विनाश नहीं हो मिलता है। एक पुद्गलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय सकता और सर्वथा नए किसी असत्का सद्रूपमें अन्य पुदलद्रव्योंसे मिलकर स्कन्ध बन जाता है और उत्पाद नहीं हो सकता। जितने मौलिक द्रव्य इस कभी कभी इतना रासायनिक मिश्रण हो जाता है कि जगतमें अनादिसे विद्यमान हैं वे अपनी अवस्थाओंमें उसके अणुओंकी पृथक् सत्ताका भान करना भी परिवर्तित होते रहते है । अनन्तजीव, अनन्तानन्त कठिन होता है। तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलपुद्गलअणु, एक धर्मद्रव्य. एक अधर्मद्रव्य, एक द्रव्यमें अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दसरे
आकाश और असंख्य कालाणु इनसे यह लोक. के निमित्तसे। पुद्गलमें इतनी विशेषता है कि उसकी व्याप्त है ! ये छह जातिके द्रव्य मौलिक हैं, इनमेंसे न अन्य सजातीयपुद्गलोंसे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी तो एक भी द्रव्य कम हो सकता और न कोई नया उत्पन्न होती है पर जीवकी दूसरे जीवसे मिलकर स्कन्ध होकर इनकी संख्या वृद्धि कर सकता है। कोई भी पर्याय नहीं होती। दो विजातीय द्रव्य बँधकर एक द्रव्य अन्यद्रव्यरूपमें परिणमन नहीं कर सकता, पर्याय नहीं प्राप्त कर सकते। इन दो द्रव्योंके विविध जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता। जिस तरह
९. परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्यजगत् है। विजातीय द्रव्यरूपमें किसी भी द्रव्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे सजातीयजीव- द्रव्य-परिणमनद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद्गलद्रव्यरूप- प्रत्येक द्रव्य. परिणामीनित्य है । पूर्वपर्याय नष्ट में सजातीय परिणमन भी नहीं कर सकता। प्रत्येक होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मूलद्रव्यकी धारा द्रव्य अपनी पर्यायों-अवस्थाओंकी धारामें प्रवाहित है .अविच्छिन्न चलती है । यही उत्पाद-व्ययकिसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरकी धारामें नौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, उसका परिणमन नहीं हो सकता । यह सजातीय अधर्म, आकाश और कालद्रव्योंका सदा शुद्ध परिया विजातीय द्रव्यान्तरमें असंक्रान्ति ही प्रत्येक णमन ही होता है। जीवद्रव्यमें जो मुक्त जीव हैं द्रव्यकी मौलिकता है। इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्य. अधर्म- उनका परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध द्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्योंका परिणमन सदा नहीं होता। संसारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध ही रहता है. इनमें विकार नहीं होता, एक जैसा शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकारका परिणमन होता परिणमन प्रतिसमय होता रहता है । जीव और पुद्गल है। इतनी विशेषता है कि जो संसारी जीव एकबार इन दो द्रव्योंमें शुद्धपरिणमन भी होता है तथा अंशुद्ध मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुश्रा वह परिणमन भी। इन दो द्रव्योंमें क्रियाशक्ति भी है जिससे फिर कभी भी अशुद्ध नहीं होगा. पर पुद्गलद्रव्यका
इनमें हलन-चलन.आना-जाना आदि क्रियाएँ होती हैं। कोई नियम नहीं है । वे कभी स्कन्ध बनकर अशुद्ध - शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं वे जहाँ हैं वहीं रहते हैं। आकाश परिणमन करते हैं तो परमाणुरूप होकर अपनी शुद्ध
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३३६ ]
अवस्थामें आजाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं. इस तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है। जीव और पुल भाविक शक्ति है जिसके कारण वे विभाव परिणमनको भी प्राप्त होते हैं। द्रव्यगतशक्ति
अनेकान्त
धर्म, धर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं । कालागु असंख्यात हैं । प्रत्येक कालार में एक जैसी शक्तियाँ हैं । वर्तना करने की जितने अविभागप्रतिच्छेदवाली शक्ति एक काला में है वैसी ही दूसरे कालाणुमें । इस तरह कालाणुओं में परस्पर शक्ति - विभिन्नता या परिणमन - विभिन्नता नहीं है ।
पुलद्रव्यके एक
में जितनी शक्तियाँ हैं उतनी ही और वैसी ही शक्तियाँ परिणमन-योग्यता अन्य पुगलाणुओंमें हैं। मूलतः पुद्गल-अगुद्रव्यों में शक्तिभेद, योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं है। यह तो सम्भव है कि कुछ पुद्गलागु मूलतः स्निग्ध स्पर्शवाले हों और दूसरे मूलतः रूक्ष, कुछ शीत और कुछ उष्ण, पर उनके ये गुण नियत नहीं, रूक्षगुणवाला भी स्निग्धगुणवाला बन सकता है तथा स्निग्धगुणवाला भी रूक्ष । शीत भी उष्ण बन सकता है उष्ण भी शीत । तात्पर्य यह कि पुहलाओं में ऐसा कोई जातिभेद नहीं है जिससे किसी भी पुद्गलागुका पुलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । मुलद्रव्यके जितने भी परिणमन हो सकते हैं उन सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक पुद्रला में स्वभावतः है, यही द्रव्यशक्ति कहलाती है। स्कन्धअवस्थामें पर्यायशक्तियाँ विभिन्न हो सकती हैं। जैसे किसी अभिस्कन्धमें सम्मिलित परमाणुका उष्ण - स्पर्श और तेजोरूप था, पर यदि वह अभिस्कन्धसे जुदा हो जाय तो उसका शीतस्पर्श तथा कृष्णरूप हो 'सकता है। और यदि वह स्कन्ध ही भस्म बन जाय तो सभी परमाणुओं का रूप और स्पर्श आदि बदल सकते हैं।
सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावशक्तियाँ एक जैसी हैं, ज्ञानादि अनन्तगुण और अनन्त चैतन्य
[ वर्ष
परिणमनकी प्रत्येक शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्यमें है । हाँ अनादिकालीन अशुद्धता के कारण उनका विकास विभिन्न प्रकारसे होता है। चाहे हो भव्य या अभव्य दोनों ही प्रकार प्रत्येक जीव एक जैसी शक्तियोंके आधार हैं. शुद्ध दशामें सभी मुक्त एक जैसी शक्तियोंके स्वामी बन जाते हैं और प्रतिसमय अखण्ड शुद्ध परिणमनमें लीन रहते हैं । संसारी जीवांमें भी मूलतः सभी शक्तियाँ हैं। इतना विशेष है कि अभव्यजीवोंमें केवलज्ञानादिशक्तियोंके अविर्भावकी शक्ति नहीं मानी जाती । उपर्युक्त विवेचनसे एक बात निर्विवादरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि चाहे द्रव्य चेतन हो या अचेतन, प्रत्येक मूलत: अपनी अपनी चेतनअचेतन शक्तियोंका धनी है उनमें कहीं कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं है। अशुद्धदशामें अन्य पर्यायशक्तियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं और विलीन होती रहती हैं । परिणमनके नियतत्वकी सीमा
उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि द्रव्यों में परिमन होनेपर भी कोई भी द्रव्य सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपमें परिणमन नहीं कर सकता । अपनी धारामें सदा उसका परिणमन होता रहता है द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत हैं। किसी भी पुद्रलारके वे सभी पुदलसम्बन्धी परिणमन प्रतिसमय हो सकते हैं और किसी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन ।
यह
तो सम्भव है कि कुछ पर्यायशक्तियोंसे सीधा सम्बन्ध रखनेवाले परिणमन कारणभूत पर्यायशक्तिके न होने पर न हों। जैसे प्रत्येक पुगल परमाणु यद्यपि घट बन सकता है फिर भी जबतक अमुक परमाणुस्कन्ध मिट्टीरूप पर्यायको प्राप्त न होंगे तबतक उनमें मिट्टीरूप पर्यायशक्तिके विकास से होनेवाली घटपर्याय नहीं हो सकती । परन्तु मिट्टी पर्याय से होनेवाली घट सकोरा आदि जितनी पर्यायें सम्भावित हैं वे निमित्तके अनुसार कोई भी हो सकती हैं । जैसे जीव में मनुष्यपर्याय में आँख से देखनेकी योग्यता विकसित है तो वह अमुक समयमें जो भी सामने आयेगा उसे देखेगा | यह कदापि नियत नहीं है कि अमुक समयमें
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किरण]
जैन अध्यात्म
अमुक पदार्थको ही देखनेकी उसमें योग्यता है शेषकी पुराने संस्कारोंके परिणामस्वरूप कुछ ऐसे निश्चित नहीं या अमुक पदार्थमें उस समय उसके द्वारा ही कार्यकारणभाव बनाए जा सकते हैं जिनसे यह नियत देखे जानेकी योग्यता है अन्यके द्वारा नहीं। मतलब किया जा सकता है कि अमुक समयमें इस द्रव्यका ऐसा यह कि परिस्थितिवश जिस पयोयशक्तिका द्रव्यम परिणमन हागा ही पर इस कारणताकी अब विकास हुआ है उस शक्तिसे होनेवाले यावत्कार्योंमेंसे भाविता सामग्रीकी अविकलता तथा प्रतिबन्धकजिस कार्यकी सामग्री या बलवान् निमित्त मिल जायेंगे कारणकी शून्यता पर ही निर्भर है। जैसे हल्दी और उसके अनुसार उसका वैसा परिणमन होता जायगा। चूना दोनों एक जलपात्रमें डाले गये तो यह अवश्यएक मनुष्य गर्द पर बैठा है उस समय उसमें हँसना- भावी है कि उनका लालरङ्गका परिणमन हो। एक रोना, आश्चर्य करना. गम्भीरतासे सोचना आदि अनेक बात यहाँ यह खासतौरसे ध्यानमें रखनेकी है कि अचेतन कार्योंकी योग्यता है। यदि बहुरूपिया सामने आजाय परमाणुओंमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती ।
और उसकी उसमें दिलचस्पी हो तो हँसनेरूप पर्याय उनमें अपने संयोगोंके आधारसे क्रिया तो होती हो जायगी। कोई शोकका निमित्त मिल जाय तो रो रहती है। जैसे पृथिवीमें कोई बीज पड़ा हो तो सरदी भी सकता है । अकस्मात् बात सुनकर आश्चर्यमें डूब गरमीका निमित्त पाकर उसमें अंकुर आजायगा और सकता है और तत्त्वचर्चा सुनकर गम्भीरतापूर्वक वह पल्लवित, पुष्पित होकर पुनः बीजको उत्पन्न कर सोच भी सकता है। इसलिए यह समझना कि देगा। गरमांका निमित्त पाकर जल भाप बन जायगा। प्रत्येक द्रव्यका प्रतिसमयका परिणमन नियत है उसमें पुनः भाप सरदीका निमित्त पाकर जलके रूपमें कुछ भी हेर-फेर नहीं हो सकता और न कोई हेर-फेर बरसकर पृथिवीको शस्यश्यामल बना देगा । कुछ एसे कर सकता है, द्रव्यके परिणमनस्वभावको गम्भीरतासे भी अचेतन द्रव्योंके परिणमन हैं जो चेतन निमित्तसे न सोचनेके कारण भ्रमात्मक है। द्रव्यगत परिणमन होते हैं जैसे मिट्टीका घड़ा बनना या रुईका कपड़ा नियत हैं अमुक स्थूलपर्यायगत शक्तियोंके परिणमन बनना । तात्पर्य यह कि अतीतके संस्कारवश वर्तमान भी मियत हो सकते हैं जो उस पर्यायशक्तिके अवश्यं- क्षणमें जितनी और जैसी योग्यताएँ विकसित होंगी भावी परिणमनोंमेंसे किसी एकरूपमें निमित्तानुसार और जिनके विकासके अनुकूल निमित्त मिलेंगे द्रव्यों• सामने आते हैं। जैसे एक अंगुली अगले समय टेढ़ी का वैसा वैसा परिणमन होता जायगा। भविष्यका हो सकती है, सीधी रह सकती है, टूट सकती है. घूम कोई निश्चित कार्यक्रम द्रव्योंका बना हुआ हो सकती है, जैसी सामग्री और कारण-कलाप मिलेंगे और उसी सुनिश्चित अनन्त क्रमपर यह जगत चल उसमें विद्यमान इन सभी योग्यताओंमेंसे अनुकूल रहा हो यह धारणा ही भ्रमपूर्ण है। योग्यताका विकास हो जायगा । उस कारणशक्तिसे नियताऽनियतत्ववादवह अमुक परिणमन भी नियत कराया जा सकता है जैन दृष्टिसे द्रव्यगत शक्तियाँ नियत हैं पर उनके जिसकी पूरी सामग्री अविकल हो प्रतिबन्धक कारणकी प्रतिक्षणके परिणमन अनिवार्य हैं। एक द्रव्यकी उस सम्भावना न हो ऐसी अन्तिमक्षणप्राप्त शक्तिसे समयकी योग्यतासे जितने प्रकारके परिणमन हो वह कार्य नियत ही होगा. पर इसका यह अर्थ कदापि सकते हैं उनमेंसे कोई भी परिणमन जिसके कि निमित्त नहीं है कि प्रत्येक द्रव्यका प्रतिक्षणका परिणमन और अनुकूल सामग्री मिल जायगी हो जायगा । सनिश्चित है उसमें जिसे जो निमित्त होना है नियति- तात्पर्य यह कि प्रत्येक व्यकी शक्तियाँ तथा उनसे चक्रके पेटमें पड़कर ही वह उसका निमित्त बना होनेवाले परिणमनोंकी जाति सुनिश्चित है । कभी भी रहेगा। यह अतिसुनिश्चित है कि हरएक द्रव्यका प्रति- पुद्गलके परिणमन जीवमें तथा जीवके परिणमन पुद्गल समय कोई न कोई परिणमन होना ही चाहिए। में नहीं हो सकते। पर प्रतिसमय कैसा परिणमन होगा
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अनेकान्त
- [वर्ष ६
यह अनियत है। जिस समय जो शक्ति विकसित होगी पाकर इलाहाबादमें बदली और इलाहाबादकी गन्दगी तथा अनुकूल निमित्त मिल जायगा उसके बाद वैसा आदिके कारण काशीकी गङ्गा जुदी ही हो जाती है। परिणमन हो जायगा। अतः नियतत्व और अनियतत्व यहाँ यह कहना कि “गङ्गाके जलके प्रत्येक परमाणुका दोनों धर्म सापेक्ष हैं । अपेक्षाभेदसे सम्भव है। प्रतिसमयका सुनिश्चित कार्यक्रम बना हुआ है उसका नियतिवाद नहीं
जिस समय परिणमन होना है वह होकर ही रहेगा" ___ जो होना होगा वह होगा ही. हमारा कुछ भी
द्रव्यकी विज्ञानसम्मत कार्यकारणपरम्पराके प्रतिकूल है। पुरुषार्थ नहीं है. इस तरह के निष्क्रिय नियतिवादके जं जस्स जम्मि' आदि भावनाएं हैंविचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं। जो द्रव्यगत स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें सम्यग्दृष्टिके चिन्तनमें ये शक्तियाँ नियत हैं उनमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं. दो गाथाएँ लिखी हैंहमारा पुरुषार्थ तो कोयलेकी हीरापर्यायके विकास जंजस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। करानेमें है। यदि कोयलेके लिए उसकी हीरापर्यायके पादं जिरोण णियदं जम्मं व अहव मरणं वा ॥३२शा विकासके लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो तं तस्स तम्मि देसे तेण विहारोण तम्मि कालम्मि । . वह जलकर भस्म बनेगा या फिर खानिमें ही पड़े पड़े को चालेदु सक्को ईदो वा अह जिणिं वा ।।३२२।। समाप्त हो जायगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमें अर्थात् जिसका जिस समय जहाँ जैसे जन्म या मरण उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमन भी निमित्त- होना है उसे इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी नहीं टाल से हो सकता है या निमित्तमें यह शक्ति है जो निरु- सकता. वह होगा ही। . पादानको परिणमन करा सके।
इन गाथाओंका भावनीयार्थ यही है कि जो जब उभय कारणोंसे कार्य
होना है होगा उसमें कोई किसीका शरण नहीं है कार्योत्पत्तिके लिए दोनों ही कारण चाहिएँ उपा
आत्मनिर्भर रहकर जो श्रावे वह सहना चाहिए । इस दान और निमित्त; जैसा कि स्वामीसमन्तभद्रने कहा
तरह चित्तसमाधानके लिए भाई जानेवाली भावहै कि “यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः' अर्थात् कार्य
नाओंसे वस्तुव्यवस्था नहीं हो सकती । अनित्य
भावनामें ही कहते हैं कि जगत् स्वप्नवत् है इसका बाह्य-श्राभ्यन्तर दोनों कारणोंसे होता है । यही अना
अर्थ यह कदापि नहीं कि शून्यवादियोंकी तरह जगत् द्यनन्त वैज्ञानिक कारण-कार्यधारा ही द्रव्य है जिसमें पूर्वपर्याय अपनी सामग्रीके अनुसार सदृश, विसदृश,
पदार्थोंकी सत्तासे शून्य है बल्कि यही उसका तात्पर्य है
कि स्वप्नकी तरह वह आत्महितके लिए वास्तविक कार्यअर्धसदृश, अल्पसदृश श्रादिरूपसे अनेक पर्यायोंकी उत्पादक होती है। मान लीजिए एक जलबिन्दु है
कारी नहीं है। यहाँ सम्यग्दृष्टिके चिन्तन-भावनामें
: स्वावलम्बनका उपदेश है । उससे. पदार्थव्यवस्था नहीं उसकी पर्याय बदल रही है, वह प्रतिक्षण जलबिन्दु
की जा सकती। रूपसे परिणमन कर रही है पर यदि गरमीका निमित्त मिलता है तो तुरन्त भाप बन जाती है। किसी मिट्री- सबसे बड़ा अस्त्र सर्वज्ञत्वमें यदि पड़ गई तो सम्भव है पृथिवी बन जाय । यदि नियतिवादी या तथोक्त अध्यात्मवादियोंका सबसे साँपके मुँहमें चली गई ज़हर बन जायगी। तात्पर्य बड़ा तर्क है कि सर्वज्ञ है या नहीं ? यदि सर्वज्ञ है यह कि एकधारा पूर्व-उत्तर पर्यायोंकी बहती है उसमें तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात् भविष्यज्ञ भी होगा। जैसे जैसे संयोग होते जायेंगे उसका उस जातिमें परि- फलतः वह प्रत्येक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण णमन हो जायगा। गङ्गाकी धारा हरिद्वारमें जो है वह जो होना है उसे ठीकरूपमें जानता है.। इस तरह कानपुर में नहीं. और कानपुरकी गटर आदिका संयोग प्रत्येक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है
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किरण.६]
जैन अध्यात्म
[३३६
उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी होना था। मानो जगतके परिणमनोंको ऐसा ही होना उसके ज्ञानके बाहिर नहीं है। सर्वज्ञ माननेका दूसरा था' इस नियति भगवतीने अपनी गोदमें लेरखा हो। अर्थ है नियतिवादी होना । पर, आज जो सर्वज्ञ नहीं अध्यात्मकी अकतत्व भावनाका उपयोगमानते उनके सामने हम नियतिचक्रको कैसे सिद्ध कर
__तब अध्यात्मशास्त्रकी अकर्तृत्वभावनाका क्या सकते हैं ? जिस अध्यात्मवादके मूलमें हम नियति
अर्थ है ? अध्यात्ममें समस्त वर्णन उपादानयोग्यताके वादको पनपाते हैं उस अध्यात्मदृष्टि से सर्वज्ञता व्यव
आधारसे किया गया है। निमित्त मिलानेपर यदि हारनयकी अपेक्षासे है । निश्चयनयसे तो आत्मज्ञतामें
उपादानयोग्यता विकसित नहीं होती, कार्य नहीं हो ही उसका पर्यवसान होता है जैसाकि स्वयं आचार्य
सकेगा। एक ही निमित्त-अध्यापकसे एक छात्र प्रथम कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८)में लिखा है
श्रेणीका विकास करता है जबकि दूसरा द्वितीय श्रेणी"जाणदि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । .
का और तीसरा अज्ञानीका अज्ञानी बना रहता है। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥"
अतः अन्ततः कार्य अन्तिमक्षणवर्ती उपादानअर्थात् केवली भगवान व्यवहारनयसे सब पदार्थोंको योग्यतासे ही होता है। हाँ. निमित्त उस योग्यताको जानते देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी विकासोन्मुख बनाते हैं. तब अध्यात्मशास्त्रका कहना आत्माको जानता देखता है।
है कि निमित्तका यह अहङ्कार नहीं होना चाहिए कि __ अध्यात्मशास्त्रमें निश्चयनयकी भूतार्थता और पर. हमने उसे ऐसा बना दिया. निमित्तकारणको सोचना मार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूतार्थतापर विचार चाहिए कि इसकी उपादानयोग्यता न होती तो मैं करनेसे तो अध्यात्मशास्त्रमें पूर्णज्ञानका पर्यवसान क्या कर सकता था अतः अपने में कतृत्वजन्य अन्ततः आत्मज्ञानमें ही होता है। अतः सर्वज्ञत्वकी अहङ्कारके निवृत्तिके लिए उपादानमें कतृत्वकी दलीलका अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थव्यवस्थामें उप- भावनाको दृढमूल करना चाहिए ताकि परपदार्थयोग करना उचित नहीं है।
कर्तृत्वका अहङ्कार हमारे चित्तमें आकर रागद्वेषकी नियतिवादमें एक ही प्रश्न एक ही उत्तर
___-सृष्टि न करे । बड़ेसे बड़ा कार्य करके भी मनुष्यका
यही सोचना चाहिए कि मैंने क्या किया? यह तो नियतिवादमें एक ही उत्तर है ऐसा ही होना था, उसकी उपादानयोग्यताका ही विकास है मैं तो एक जो होना होगा सो होगा ही' इसमें न कोई तर्क है, न साधारण निमित्त हं । क्रिया हि द्रव्यं विनयति कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । वस्तुव्यवस्थामें इस नाद्रव्यं' अर्थात् क्रिया योग्यमें परिणमन कराती है प्रकारके मृत विचारोंका क्या उपयोग ? जगत्में अयोग्यमें नहीं। इस तरह अध्यात्मकी अकतत्वविज्ञानसम्मत कार्यकारणभाव है । जैसी उपादान
भावना हमें वीतरागताकी ओर ले जानेके लिए है। योग्यता और जो निमित्त होंगे तदनुसार चेतन-अचे
न कि उसका उपयोग नियतिवादके पुरुषार्थ विहीन तनका परिणमन होता है । पुरुषार्थ निमित्त और
कुमार्गपर लेजानेको किया जाय ।। अनुकूल सामग्रीके जुटानेमें है । एक अग्नि है परुषार्थी यदि उसमें चन्दनका चरा डाल देतानो समयसारम निामत्ताधानउपादान पारणमनसुगन्धित धुआँ निकलेगा, यदि बाल आदि डालता है समयसार (गा० ८६-८८)में जीव और कर्मका तो दुर्गन्धित धुआँ उत्पन्न होगा । यह कहना कि चूरा- परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बताते हुए लिखा को उसमें पड़ना था. पुरुषको उसमें डालना था. अग्निको है किउसे ग्रहण करना ही था। इसमें यदि कोई हेर-फेर . "जीवपरिणामहेदु कम्मत्त पुग्गला परिणमंति । करता है तो नियतिवादीका वही उत्तर कि ऐसा ही पुग्गलकम्मणिमित्त तहेब जीवो वि परिणमदि ॥
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विकुव्वदि कम्मगुणेजीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अणोरणणिमित्तं रेण दु कत्ता श्रादा सएण भावेण ॥ पुग्गलकम्मक दाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ " अर्थात् जीवके भावोंके निमित्तसे पुलोंकी कर्मरूप पर्याय होती है और पुद्गलकर्मों के निमित्तसे जीव रागादिरूपसे परिणमन करता है । इतना समझ लेना चाहिए कि जीव उपादान बनकर पुगलके गुणरूपसे परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल उपादान बनकर जीवके गुणरूपसे परिणति कर सकता है। हाँ. परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध अनुसार दोनोंका परिणमन होता है। इस कारण उपादानदृष्टिसे आत्मा अपने भावोंका कर्त्ता है पुलके ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मात्मक परिणमनका कर्त्ता नहीं है ।
अनेकान्त
इस स्पष्ट कथनसे कुन्दकुन्दाचार्यकी कर्तृत्वविकी दृष्टि समझ में आ जाती है। इसका विशद अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमें उपादान है दूसरा उसका निमित्त हो सकता है उपादान नहीं । परस्पर निमित्तसे दोनों उपादानोंका अपने अपने भावरूपसे परिणमन होता है। इसमें निमित्त नैमित्तिकभावका निषेध कहाँ है ? निश्चयदृष्टिसे परनिरपेक्ष आत्मस्वरूपका विचार है उसमें कर्तृत्व अपने उपयोगरूप में ही पर्यवसित होता है। अतः कुन्दकुन्दके मतसे द्रव्यस्वरूपका अध्यात्ममें वही निरूपण है जो आगे समन्तभद्रादि आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें बताया है ।
मूलमें भूल कहां ? -
।
इसमें कहाँ मूलमें भूल है ? जो उपादान है वह उपादान है जो निमित्त है वह निमित्त ही है। कुम्हार घटका कर्त्ता है यह कथन व्यवहार हो सकता है कारण, कुम्हार वस्तुतः अपनी हलन चलनक्रिया तथा अपने घट बनानेके उपयोगका ही कर्त्ता है, उसके निमित्तसे मिट्टी के परमाणुमें वह आकार उत्पन्न हो जाता है। मिट्टीको घड़ा बनना ही था और कुम्हारके हाथको वैसा होना ही था और हमें उसकी व्याख्या ऐसी करनी ही थी. आपको ऐसा प्रश्न करना ही था
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और हमें यह उत्तर देना ही था । ये सब बातें न अनुभव सिद्ध कार्यकारणभाव के अनुकूल ही हैं और न तर्कसिद्ध ।
निश्चय और व्यवहार -
निश्चयनय वस्तुकी परनिरपेक्ष स्वभूत दशाका वर्णन करता है। वह यह बतायगा कि प्रत्येक जीव स्वभावसे अनन्तज्ञान-दर्शन या अखण्ड चैतन्यका पिण्ड है । आज यद्यपि वह कर्मनिमित्तसे विभाव परिणमन कर रहा है पर उसमें स्वभावभूत शक्ति अपने अखण्ड निर्विकार चैतन्य होनेकी है । व्यवहारनय परसाक्षेप अवस्थाओं का वर्णन करता है । वह जहाँ आत्माको पर घटपटादि पदार्थोंके कतृत्वके वर्णनसम्बन्धी लम्बी उड़ान लेता है वहाँ निश्चयनय रागादि भावोंके कतृत्वको भी आत्मकोटिसे बाहर निकाल लेता है और आत्माको अपने शुद्ध भावोंका ही कर्त्ता बनाता है अशुद्ध भावोंका नहीं । निश्चयनयकी भूतार्थताका तात्पर्य यह है कि वही दशा आत्मा के लिए वास्तविक उपादेय है, परमार्थ है, यह जो रागादिरूप विभाव परिणति है यह अभूतार्थ है अर्थात् आत्मा के लिए उपादेय नहीं है. इसके लिए वह अपरमार्थ है. है।
निश्चयनका वर्णन हमारा लक्ष्य है
निश्चयनय जो वर्णन करता है कि मैं सिद्ध हूँ बुद्ध हूँ निर्विकार हूँ निष्कषाय हूँ यह सब हमारा लक्ष्य है । इसमें 'हूँ' के स्थानमें 'हो सकता हूँ' यह प्रयोग भ्रम उत्पन्न नहीं करेगा । वह एक भाषाका प्रकार है। जब साधक अपनी अन्तर्जल्प अवस्था में अपने ही आत्माको सम्बोधन करता है कि हे आत्मन्, तू तो स्वभावसे सिद्ध है, बुद्ध है, वीतराग है, आज फिर यह तेरी क्या दशा हो रही है तू कषायी और अज्ञानी बना है । यह पहला 'सिद्ध है बुद्ध है वाला' अंश दूसरे 'आज फिर तेरी क्या दशा हो रही है तू कषायी अज्ञानी बना है' इस अंशसे ही परिपूर्ण होता है ।
इस लिए निश्चय हमारे लिए अपने द्रव्यगतमूलस्वभावकी ओर संकेत कराता है जिसके बिना
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किरण.]
हम कषायपङ्कसे नहीं निकल सकते । अतः निश्चय नका सम्पूर्ण वर्णन हमारे सामने कागजपर मोटे मोटे अक्षरोंमें लिखा हुआ टँगा रहे ताकि हम अपनी उस परमदशाको प्राप्त करनेकी दिशा में प्रयत्नशील रहें । न कि हम तो सिद्ध हैं कर्मोंसे अस्पृष्ट हैं यह मानकर मिथ्या अहङ्कारका पोषण करें और जीवनचारित्र्यसे विमुख हो निश्चयैकान्तरूपी मिथ्यात्वको बढ़ावें ।
तीन चित्र
ये कुन्दकुन्द के अवतार
सोनगढ़ में यह प्रवाद है कि श्रीकानजीस्वामी कुन्दकुन्दके जीव हैं और वे कुन्दकुन्दके समान ही सद्गुरुरूपसे पुजते हैं । उन्हें सद्गुरुभक्ति ही विशिष्ट आकर्षणका कार्यक्रम है । यहाँसे नियतिवाद
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की आवाज अब फिरसे उठी है और वह भी कुछकुन्दके नामपर । भावनीय पदार्थ जुदा हैं उनसे तत्त्वव्यवस्था नहीं होती यह मैं पहले लिख चुका हूँ । यों ही भारतवर्षने नियतिवाद और ईश्वरवादके कारण तथा कर्मवाद स्वरूपको ठीक नहीं समझने के कारण अपनी यह नितान्त परतन्त्र स्थिति उत्पन्न कर ली थी । किसी तरह अब नव-स्वातन्त्र्योदय हुआ है। इस युगमें वस्तुतत्त्वका वह निरूपण हो जिससे सुन्दर समाजव्यवस्था घटक व्यक्तिका निर्माण हो । धर्म और अध्यात्म के नामपर और कुन्दकुन्दाचार्यके सुनामपर आलस्य - पोषक नियतिवादका प्रचार न हो । हम सम्यक तत्त्वव्यवस्थाको समझें और समन्तभद्रादि आचार्योंके द्वारा परिशीलित उभयमुखी तत्त्वव्यवस्थाका मनन करें। - भारतीयज्ञानपीठ काशी ।
देखने की वस्तु दीखे बिना कैसे रहे ? परन्तु यदि कोई उसे देख नहीं पाता तो वस्तुका क्या दोष ? और जो नहीं देखना चाहता उसे भी कैसे दोष दिया जाय ? ऐसे ही कई प्रश्नोंको लेकर मैं हैरतमें पड़ गया हूँ।'''''
एक कलाकार है । उसने अपनी मानसिक भूमिकापर गहराई तथा वेदनाको अनुभूतियोंका बल पाकर अपने पाँव स्थिर किये हैं और जगतको अपती साधना द्वारा सत्य, शिव तथा सुन्दरकी अभिव्यक्ति दी है। उसकी रेखा-रेखा में, शब्द शब्दमें, कल्पनाके करण-करणमें कविताकी लहर-लहर में जीवन बोल रहा है, गा रहा है, नाच रहा है। पढ़ते सुनते तथा देखते • समय ऐसा लगता है मानो प्रत्येक प्राणीकी आत्मपुकार उसकी अपनी व्यथामें समाहित हो गई है। की कला विश्वमानवताकी प्रतीक, प्रतिनिधि हो
तीन चित्र
( लेखक - श्री जमनालाल जैन, साहित्यरत्न )
उठी है । पर ?
पर वह अपने आपमें अकेला है, अनन्त का तथा विस्तृत वसुधाके बीच उसका अस्तित्व अधरताका प्रतीक है । उसका ऐसा कोई नहीं जो उसे अपना कह सके, कोई नहीं जो उसकी निन्दा करनेकी सामर्थ्य रख सके । प्रकृतिके जिन कुरूप सुरूप उपादानोंको. ज्योतिर्मण्डलके प्रकाशमान नक्षत्रोंको, नद-नदी- निर्झरोंको उसने अविभाज्य प्यार किया, अपने में आत्म-सात् किया, क्या वे भी उससे दूर नहीं हैं ? उसके एकाकी, निरीहपनको अनुभव कर शायद यह सब भी अपनी विवशताओं को, दुर्बलताओं को देख, आँखोंसे श्रोझल हो जाते रहते हैं। और वह है जो अपना कार्य अनवरत किये जा रहा है। विश्वकी मानवताको
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अनेकान्त
[वर्षे ६
प्रकाश देनेवाला वह. शायद अपने प्रति अंधकारके । परन्तु एक और है तीसरा चित्र . सिवा किसीकी कल्पना भी नहीं कर पा रहा है।
.. यह ? यह कौन ? जिसे अपनी ही सुध नहीं है, अपने अस्तित्व
____ हाँ, यह आदमी है आदमी। यह न कलाकार है तकसे बेखबर है, क्या ऐसा व्यक्ति दुनियादार हो सकता है ? और जो दुनियादार नहीं है, उस विश्व
न दुनियादार । यह तो वह है जो कलाके पीछे पड़कर वेदनासे व्यथित मानवको दुनियामें रहनेका क्या
. न दुनियासे दूर हटना चाहता है, न कुशलताका अधिकार है ?
आश्रय लेकर दुनियामें रहना चाहता है। यह यशसे
भागता है, पर वह उसके पीछे दौड़ता है। दुनियाको एक दूसरा चित्र
वह छोड़ना चाहता है. वह उसे नहीं छोड़ना चाहती। 'एक लेखक है, जो वक्ता भी है। शरीरसे सुन्दर, इसने विश्वके लिए अपनेको निर्मोही बना लिया है, वाणीमें माधुर्य । आँखोंमें चपलता. कार्यमें कुशलता। पर उसके प्रति मोह बढ़ता जाता है। दुनियादारने पाँवोंमें स्फूर्ति, अँगुलियोंमें चुटकी । कला और साधना पूछा, उत्तर मिला मैं कलाकार हूँ । कलाकारको उत्तर ऋषियोंकी थाथी है, हमें तो चाहिए पैसा। पैसा मिले मिला कि वह दुनियादार है। लेकिन वह स्वयं कहता इसी लिए लिखते हैं। लिखा कि टोली तैयार है, और जानता नहीं कि वह क्या है। बड़ा अजीब अखबारवाले मित्र हैं। व्यवसायी हैं तो विज्ञापनका. मामला है। और साधना? बाजार गर्म है। सभा-सोसाइटी, चाय-पार्टी, मीटिङ्ग- साधना ? साधना क्या ? वह स्वयं नहीं जानता वीटिङ्ग, गप-शपमें उन्हें सबके आगे देखा जा सकता कि उसकी साधना क्या है। उसे अचरज है कि सब है। दिखानेवाले साथ ही जो रहते हैं।
उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं। कहता है कि मैं __यों तादात्म्य किसी वस्तुसे नहीं, पर जा बैठे तो कुछ नहीं। किसीका उसे कुछ नहीं चाहिए सब तो सबके ऊपर । पत्रिकाओंने छापा. नेताओंका आशीर्वाद छोड़े दे रहा है । लो यह फेंका, फेंक ही तो दिया। मिला, वाणीकी कुशलताने कानोंको आनन्द दिया, लोगोंने कहा नहीं जी यह पक्का कलाकार है, पूरा रूप और आँखोंकी मोहकताने विश्वास दिलाया और साधक है । देखो न, कैसी सीधी पर चुभने वाली बातें यों मान लिए गये चोटीके कलाकार । नाम बढ़ा, यश करता है ! क्या ऐसा-वैसा दुनियादार इतनी गहरी मिला और धन भी घरमें आने लगा।
कह सकता है। यह जीवनका कलाकार है। - लेकिन ?
.. हाँ, है, होगा। पर ? . लेकिन कौन जानता है भीतर क्या है ! इतना
पर उसके भीतरको कौन जान पाया है ? उसने नाम, यश और धन पल्ले पड़नेपर भी ऐसी कौन-सी
अब तक कहा, सुना तथा समझाया। माना किसीने शक्ति है जो भीतर ही भीतर चोट कर रही है. पीडित
नहीं। क्यों माने ?. . कर रही है। पर दूसरोंको इससे क्या । इसे अपनी सुध है, दूसरोंकी हो तो हो । हीङ्ग लगे न फिटकरी - x रङ्ग चोखा लानेमें कुशल तो वे हैं ही । ऐसे ही चित्र प्रथम ?-दुख, किन्तु स्वयंके लिए सुख । श्रादमी तो होते हैं दुनियादार । हाँ, साहब इन्हें चित्र द्वितीय ?-सुख, किन्तु अन्तमें दुख । ही होता है अभिकार कि वे दुनिया में रहें।
चित्र तृतीय -सुख-दुखकी आँख-मिचौनी।
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हिन्दीके दो नवीन महाकाव्य
(मुनि कान्तिसागर)
"मुझे जैनोंके प्रति कोई विशेष प्रकारका पक्षपात सम्मुख रहना ही चाहिये । एवं जिस भाषाका युग नहीं है क्योंकि मानवमात्र मेरे लिए समान है। मैं होगा उसीमें उसे अपनी भाव-धारा मिला देनी होगी। जैनकुलमें पैदा हुआ हूँ इससे कुछ मोह अवश्य है। युगके साथ रहना है तो नूतन साहित्य सृजन करना अतः कहने में आ जाता है। हमारा जैनसमाज अपनी ही होगा जो मानसिक पौष्टिक खाद्यकी पूर्ति कर सके। साम्प्रदायिक सीमाओंकी रक्षाके लिए प्रतिवर्ष पर्याप्त जैन साहित्यका अन्वेषण करनेसे स्पष्ट हो जाता धन व्यय करता है। यदि उसमेंसे दशांश भी है कि जैन विद्वानोंने सदैव अपने विचारोंको रखने में साहित्यिक कार्यमें या कोई जनकल्याण कार्य, स्थायी सामयिक भाषाओंका अपनी कृतियोंमें बड़ी उदारताकार्योंमें व्यय करें तो कितना अच्छा हो ! भगवान महा- से उपयोग किया है। यही कारण है कि आज प्रान्तीय वीरकी सैद्धान्तिक प्रणालीके अनुसरण करने तक में
भाषाओंका साहित्य-भण्डार जैनकृतियोंसे चमक रहा हम पश्चात्पाद-से प्रतीत हो रहे हैं। हमारा प्राचीन है। जैन विद्वद्भोग्य एवं लोकभोग्य साहित्यके सृष्टा साहित्य ऐसा है जिसपर न केवल, हम भारतीय ही, थे। यदि स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया जाय कि "भारतीय अपितु सारा संसार गर्व कर सकता है। जब वर्तमान
भाषाओंके संरक्षण और विकासमें जैनोंने बहुत बड़ा जैनसाहित्यको देखते हैं तो मनमें बड़ी व्यथा योगदान किया है ।" तो अत्युक्ति न होगी। परन्तु होती है।"
वर्तमानमें जैनसमाजका बहुत बड़ा भाग उपयुक्त हिन्दीके सुप्रसिद्ध लेखक और कुछ अंशोंमें चिन्तक परम्पराके परिपालनमें असमर्थ प्रमाणित हो रहा है बाबू जैनेन्द्रकुमार जैन गत मास कलकत्ता जाते समय अर्थात् वह राष्ट्रभाषा हिन्दीकी उपेक्षा कर रहा है। पटनामें ठहरे थे । उस समय आपने मेरे सम्मुख जिस समय जिस भाषाका प्रावल्य हो उसीमें प्रसारित जैनसमाजको दान-विषयक भीषण अव्यवस्थाको सिद्धान्त ही सर्वग्राह्य हो सकते हैं। आज कहानी नग्न चित्र बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें उपस्थित करते हुए उपन्यास और कविताकी चारों ओर धूम मची हुई उपर्युक्त शब्द कहे।
है । गम्भीर साहित्यके पाठकोंकी संख्या अपेक्षाकृत श्रीजैनेन्दजीके शब्दों में कितनी वेदना भरी हुई है। अत्यल्प है। अतः क्यों नहीं उन्हींके द्वारा जैनअखण्ड सत्य चमक रहा है। हम प्राचीनतापर फले संस्कृतिके तत्वोंका प्रचार किया जाय । इससे दो नहीं समाते. परन्तु वर्तमानपर लेशमात्र भी विचार लाभ होंगे-आम जनता जैनसंस्कृतिके हृदयको तक नहीं करते जो वह भी एक दिन प्राचीन होकर सरलतासे पहिचानेगी एवं हिन्दी साहित्यकी श्रीवृद्धि रहेगा। अतः वर्तमान जैनसमाजपर साहित्यिक दृधि होगी। हमें प्रसन्नता है कि बनारससे श्रीयत बालसे विचार करना अत्यन्त वांछनीय है। समाजको चन्द्र जैन आदि कुछेक उत्साही युवकोंने वैसा प्रयास उच्च स्तरपर सामयिक साहित्य ही ले जा सकता है। चालू किया है । हम यहाँपर उन बन्धुओंका स्वागत प्रत्येक युग अपनी-अपनी समस्याएँ रखते हैं। इनकी करते हैं और भविष्यके लिए आशा करते हैं कि वे उपेक्षा करना हमारे लिए घातक सिद्ध होगा। युवक- अपनी धाराको शुष्क न होने देंगे। वर्ग क्या चाहता है यह प्रश्न साहित्य-निर्माताके विहारके प्रथम पंक्तिके कवियोंमें कविसम्राट
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१४४]
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अनेकान्त
[ वर्ष ६
श्रीरामधारी सिंह 'दिनकर'का स्थान अत्यन्त महत्व- कवियों द्वारा प्रशंसित हैं। स्वर्ण-सीता, मीरा-दर्शनपूर्ण और उच्च है । आपकी समस्त रचनाओंपर हमें (दीशशिखाके तौरपर) विद्यापति आदि रचनाओंने
आलोचना लिखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । उसपर- जनताके हृदयपर बड़ा गहरा स्थान प्राप्त कर लिया है। से हम कह सकते हैं कि दिनकरजीमें कल्पनाशक्ति आप अब भगवान महावीर और स्थविर स्थूलभद्र
और सूक्ष्मतम प्रतिभाका अद्भुत सामंजस्य है । भाषा- एवं गणिका कोशापर दो महाकाव्य प्रस्तुत करने जा में आवश्यक प्रवाह न होते हुए भी ओजको लिए रहे हैं। कल्पनामें नाविन्य और आध्यात्मिकता है जो कविकी खास सम्पत्ति होती है। अभी आप आपकी खास विशेषता है। आप चित्रकार होनेके विहार सरकारके डिप्टी डायरेकर ऑफ पब्लिसिटि कारण कुछ चित्रका भी निर्माण करेंगे। अरिष्टनेमिहैं। अतः साहित्यिक साधना शिथिल गतिसे चलती पर भी एक काव्य वे लिखना चाहते हैं, पर यह है। बुद्धदेवपर आपने बहुत कुछ लिखा है । वह भी विचाराधीन है। अधिकारपूर्ण! इन दिनों हमारा उनसे प्रायः मिलना उपयुक्त काव्य भले ही अजैन विद्वान कवियों होता ही रहता है । बातचीतके सिलसिलेमें यूहीं द्वारा निर्मित हों पर मेरा विश्वास है कि उनमें जैन
आपने एक दिन कहा-"भगवान बुद्धपर तो काव्य संस्कृतिके प्रति लेशमात्र भी अन्याय न होगा, तथा लिखे गये । गुप्तजीने बुद्ध, अल्ला-कल्लापर तो लिखा, कथित कवियों द्वारा निर्माण करवानेका हमारा केवल परन्तु महावीरपर तो एक भी काव्य आज तक नहीं इतना ही ध्येय है कि उनका विहारमें अपना स्वतन्त्र लिखा गया। यह भी एक आश्चर्य ही है। यदि कोई स्थान है और सार्वजनिकरूपमें इनकी रचनाएँ समाहत प्रयास करे तो क्या ही अच्छा हो ?” हमने कहा, की जाती है अतः नवीन महाकाव्यों द्वारा जितना अच्छा "सबसे अच्छा तो यही होगा कि आप ही के द्वारा व्यापक प्रचार होगा उतना शायद जैन कविकी रचनाका यह कार्य सम्पन्न हो। जब बुद्धपर आपने लिखा तो न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि जैन कवियोंमें वह महावीरपर क्यों नहीं। वे भी तो आप ही के प्रान्तकी क्षमता नहीं जो जानतिक अभिरुचिको अपनी ओर महान् विभूति थे ? अतः आपका कर्तव्य हो जाता है आकृष्ट न कर सकें। परन्तु प्रासङ्गिक रूपमें इतना कि भारतीय संस्कृतिके अद्भुत प्रकाशस्तम्भस्वरूप तो मुझे निःसंकोच भावसे कहना पड़ेगा कि ऐसे जैन वर्धमानपर श्रद्धाञ्जलिस्वरूपमें ही कुछ लिखें ।" विद्वान् कम हैं जिनके नाममात्रसे जनता प्रभावित हो।
जैनसमाजका सौभाग्य है कि दिनकरजीने श्रमण वैसी पृष्ठभूमि तैयार करना जरूरी है । श्रीवीरेन्द्र-. भगवान महावीरपर एक महाकाव्य लिखना स्वीकार कुमार उपर्युक्त पंक्तियोंके अपवाद हैं । मैंने देखा कर लिया है। शीघ्र ही कार्यारम्भ होगा। दिनकरजी जनतामें उनकी रचनाकी बड़ी प्रतीक्षा रहती है। महावीरके ही वंशज हैं। अतः उनका कर्तव्य है । हम, उनमें प्रतिभा है। उनका हार्दिक स्वागत करते हैं और उनसे भविष्यके हम तो और प्रान्तीय जैन जनतासे अनुरोध लिये आशा करते हैं कि जैनसंस्कृतिके उन तत्वोंको वे करेंगे कि वे अपने प्रान्तके प्रसिद्ध कवि, औपन्यासिक
अपनी कविताका माध्यम बनावेंगे जिनका सम्बन्ध और कहानीकारोंको जैन साहित्य अध्ययनके लिये विहारसे है या था।
. देकर उनसे जैन संस्कृतिपर प्रकाश डालनेवाला साहित्य . विहारके उदीयमान कवियोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं- तैयार करवाया जाय तो बहुत बड़ा काम होगा। 'अरुण,' जिनपर प्रान्तवासी मुग्ध हैं । वे सर्वोच्च पटना, ता० १०-१०-१६४८ . .
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मथुरा-संग्रहालयकी महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व-सामग्री
(श्रीबालचन्द्र जैन एम० ए०, संग्रहाध्यक्ष 'जैनसंग्रहालय सोनागिर')
मथुराका महत्त्व
कोई स्थान नहीं रह जाता कि प्राचीनकालमें जैनोंमें पुरातन कालमें मथुरा और उसके आसपास भी स्तूपों और चैत्योंकी पूजाका प्रचलन था। हिन्दू, जैन और बौद्ध तीनों धर्मोकी त्रिवेणी बहती . मथुरा-कला थी । जनतापर तीनों धर्मोके विचारों और मान्यताओं- .. मथुराकी जैनकला बौद्धकलाकी भाँति ही कुषाण का अच्छा प्रभाव था और उनके केन्द्र-स्थानोंकी और गुप्त राजाओंके समयमें क्रमशः विकसित होती स्थितिसे विदित होता है कि उस समय तीनों धर्मोके गई। इन दोनों युगोंकी जैन और बौद्ध मूर्तियों एवं माननेवाले पारस्परिक विद्वेषसे परे थे । वर्तमान अन्य शिल्पके तक्षणमें कोई विशेष अन्तर न था। खुदाईसे यह स्पष्ट ज्ञात हो गया है कि मथुरा केन्द्र सही बात तो यह है कि कला कभी किसी सम्प्रदायआपसी द्वेष और कलहके कारण नष्ट नहीं हुआ था विशेषके नामसे विकसित हुई ही नहीं। इस लिए बल्कि किसी भयङ्कर विदेशी आक्रमणकी बर्बरता जैनधर्म या सम्प्रदायके नामपर कलाका विभाजन
और उनकी तहसनहस नीतिका शिकार बनकर ही करना उचित नहीं प्रतीत होता । कलाका विकास यह भूगतवासी बन गया। मथुराकी संस्कृति और कालके अनुसार होता है। और जो मूर्ति या मन्दिर वहाँके पुरातत्त्वको नष्ट करनेवाली जाति हूण थी जो जिस कालमें निर्मित होते हैं उनपर उस कालका अपनी बर्बरता और असंस्कृतपनेके लिए प्रसिद्ध है। प्रभाव अवश्य रहता है चाहे वे जैन हों या बौद्ध या . उनसे भी जो कुछ बचा रहा वह मूर्तिपूजाके विरोधी अन्य कोई । यही कारण है कि जैन और बौद्ध स्तूपोंके मुसलमानोंकी आँखोंसे न बच सका और अन्ततोगत्वा तोरण, वेदिका आदिमें समानता है। मथुराकी वह कला सदाके लिए विलीन हो गई। डाकृर बूलरका मत है:. जैन इतिहासमें मथुराका एक ही स्थान है। "The early art of the Jains did not दिगम्बर सम्प्रदायका तो यह गढ़ था, प्राचीन आगमों differ materially from that of the
और सिद्धान्तग्रन्थोंकी भाषा मथुराकी शौरसेनी Buddhists. Indeed art was never प्राकृत ही है; अनेक विहार और श्रमणसंघ मथुरा- communal. Both sects used the same क्षेत्रमें स्वपरकल्याणमें प्रतृवृ थे। प्राचीनतम जैन ornaments, the same artistic motives मूर्तियाँ मथुरासे ही प्राप्त हुई हैं। और जितनी अधिक and the same sacred symbols, diffeसंख्यामें सुन्दर और कलापूर्ण मूर्तियाँ और शिल्प rences occuring chiefly in minor points यहाँके कङ्काली टीलेकी खुदाईमें प्राप्त हुए हैं उतने only. The cause of this agreement is किसी भी अन्य स्थानसे प्राप्त नहीं हुए
in all probobility not that adherents प्राप्त लेखों और आयागपट्टोंपर बनी हुई प्रतिकृति- of one sect immitated those of the से यह प्रमाणित हो गया है कि ईसासे दूसरी शती others, but that both drew on the पूर्व मथुरामें एक विशाल जैन स्तूप था जो बौद्ध national art of India and employed स्तूपोंकी भाँति सुन्दर वेदिका. तोरण आदिसे सुसजित the same artists." था। इस विशाल स्तूपके उल्लेखसे अब इसमें शङ्काको
Epigraphia Indica Vol.II Page 322.
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कङ्काली टीलेसे प्राप्त वेदिकास्तम्भ आदिकी निर्माणकला बौद्धस्तूपोंके वेदिका स्तम्भों आदिकी कला ही जोड़की है। प्राचीनता में भी जैनकला बौद्धकलांसे पिछड़ी नहीं है यह कङ्काली टीलासे प्राप्त लेखों में जैनस्तूपके उल्लेख से प्रमाणित हो जाता है ।
कुषाणोंके राज्यकालमें ही मथुराकी कलाका प्रभाव चारों कोनोंमें फैल गया था । सारनाथ, कौशाम्बी, सांची आदि स्थानोंसे मूर्तियोंकी मांग आती
कान्त
और मथुरा उसकी पूर्ति करता था । अन्य स्थानों के तक्षक और मूर्तिनिर्माता इन्हीं मूर्तियोंके आधारपर स्थानीय शैलीकी मूर्तियोंका निर्माण करते थे | मथुरामें गढ़ी गई मूर्तियाँ और शिल्प लाल चित्तेदार पत्थर की होती थीं जो यहाँ बहुतायत से मिलता है । यद्यपि यहाँकी कला सांची और भरहुतकी देशी कलाके साथ ही साथ कुछ अंशोंमें गांधारकी कलासे भी प्रभावित थी । तो भी मथुराकी कला में पूर्ण मौलिकता है । मूर्तियाँ चौड़े चेहरे, चिपटी नाक स्थूलकायकी विशेषताओंसे गुप्तकाल की मूर्तियोंसे सरलता से पृथकू की जा सकती हैं जिनके गोल चेहरे और नुकीली नाकमें सौन्दर्य भर दिया गया है। गुप्त-कालकी मूर्तियाँ विशेष आकर्षक और प्रभावक हैं । इस कालमें मूर्तिनिर्माणकला अपनी चरम सीमापर पहुँच चुकी थी । कुषाण-कालमें जो प्रभामण्डल अत्यन्त सादे बनाए जाते थे, इस कालमें वे अत्यन्त अलंकृत बनाए जाने लगे थे और उनमें हस्तिनख मणिबन्ध, तथा अनेक बेलबूटे भरे जाते थे । कुषाण युगकी मूर्तियों का सिर प्रायः मुण्डितमस्तक होता था पर गुप्तयुगमें छल्लेदार बालोंकी रचना और भी भली लगती है यह अन्तर मथुरा संग्रहालयके कुषाणकालीन सिर नं० बी ७८ और गुप्तकालीन सिर नं० बी ६९ में तथा कुषाणकालीन मूर्ति नं० बी २, बी ६३ और गुप्तकालीन मूर्ति नं० बी १, बी ६ आदिमें स्पष्ट लक्षित
।
किया जा सकता है।
खुदाईका इतिहास
मथुराके कङ्काली टीलेकी खुदाई सर्वप्रथम सन्
[ वर्ष ह
१८७१ में श्रीकनिंघमने की और इस खुदाई में उन्हें अनेक तीर्थङ्कर मूर्तियाँ - जिनपर कुषाणवंशी प्रतापी सम्राट् कनिष्ककें ५ वें वर्षसे वासुदेवके ह८वें वर्ष तक के लेख खुदे थे - मिलीं । दूसरी खुदाई १८८८-१ में विस्तृतरूपसे डाकूर फ्यूररने की और इसमें उन्होंने ७३७ मूर्तियाँ तथा अन्य शिल्प खोद निकाले । वे सब आज भी लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इसके पश्चात् पं० राधाकृष्णजीने भी कङ्काली टीलेकी खुदाई की और अनेक प्रकारकी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त की।
इस प्रकार कङ्काली टीला जैन सामग्रीके लिए खदान सिद्ध हुआ है। लखनऊ संग्रहालय इसी सामग्रीसे सजा हुआ है। पीछेकी सामग्री मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है और वहाँ सैकड़ों मूर्तियाँ और लेख विद्यमान हैं। उन्हींमेंसे कुछेकका संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया जाएगा । श्रयागपट्ट (क्यू २ )
संग्रहालयकी दरीची नं० २ ( Court B) के दक्षिणी भागमें एक वर्गाकार शिलापट्ट प्रदर्शित है, इसपर एक स्तूप तोरणद्वार और वेदिकाओं सहित बना हुआ है। पट्टपर खुदे हुए लेखसे विदित होता है कि इस प्रकार के शिलापट्टोंको आयागपट्ट कहा जाता था और ये पूजाके काममें लाए जाते थे । यह अनुमान किया जाता है कि उक्त आयागपट्टपर उत्कीर्ण तोरण और वेदिका - मण्डित स्तूप मथुरा के विशाल जैनस्तूपकी प्रतिकृति है जो ईसासे दूसरी शती पूर्व स्थित था ।
प्रस्तुत आयागपट्टपर एक लेख खुदा हुआ है जिसके अनुसार वृद्ध गरिएका लवणशोभिकाकी पुत्री और श्रमणोंकी श्राविका वसु नामक एक वेश्याने इसे दानमें दिया था । लेखकी लिपि ई० पू० पहली शतीकी है और मूल लेख निम्न प्रकार है:१९. नमो अरहतो वर्धमानस
२.
३.
रामे गनिका
ये लोणशोभिकाये धितु शमणसाविकाये नादाए गणिकाए वासु (यु) आरहातो देविक - ( उ ) ल
४. आयामसभा प्रपा शिलाप (तो) पतिस्ठापिता
निगथा
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किरण ह]
मथुरा-संग्रहालयकी महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व-सामग्री
[३४७
५. नां अरह (ता) यतने स (हा) मातरे भगिनीये नं० डी ६ ऋषभदेवकी यक्षिणी चक्रेश्वरीकी धिताए पुत्रेण
मूर्ति है। इसके आठ हाथ हैं और आठोंमें चक्र है। ६. सर्वेन च परिजनेन अरहतपूजाये
इसका वाहन गरुड है जो नीचे दिखाया गया है। इसी प्रकारके और भी अनेक आयागपट्र मथुरा- ऊपर ऋषभनाथकी पद्मासन ध्यानस्थ मूर्ति है। की खुदाईमें प्राप्त हुए हैं । नं० २५६३ भी एक ..
ये दोनों मूर्तियाँ मध्यकालकी हैं और कङ्काली आयागपट्टिका है जो शक सं० २१में दान की गई थी। टालेस प्राप्त हुई है। क्यू ३ भी आयागपट्ट ही है। इसके सिवाय अनेक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाए
आयागपट्ट लखनऊके प्रान्तीय संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। मथुरा संग्रहालयमें अनेक सर्वतोभटिका प्रतिमा नैगमेष मूर्तियां
हैं। इन प्रतिमाओंमें चारों ओर एक-एक तीर्थङ्करकी
मूर्ति बनी है। चारों ओरसे दर्शन होने तथा चारों दरीची नं० ३ (Court C)के दक्षिणी भागमें
ओरसे कल्याणकारी होनेसे इन प्रतिमाओंको 'प्रतिमा नं० ई १. ई २ और २५४७ नं०की तीन मूर्तियाँ रखी।
सर्वतोभद्रिका' कहा जाता था । इनपर खुदे हुए हई हैं। ये कुषाणकालीन है और इनके मुख बकरक लेखोंमें भी यही नाम मिला है। इस प्रकारकी कुषाणश्राकारके हैं । ये नैगमेष हैं और जैन मान्यताके
कालीन प्रतिमाएँ अधिकतर खड़ी होती हैं। नं० बीं अनुसार सन्तानोत्पत्तिके देवता हैं। इनके हाथोंमें या ।
७० एक ऐसी ही मूर्ति है जो सं० ३५में दान की गई कन्धोंपर खेलते हुए बच्चे चित्रित किए गए हैं।
थी । अन्य मूर्तियोंमें भी लेख हैं। नं० बी ७१ संवत् प्रस्तुत मूर्तियोंमें नं० ई २ नैगमेषका स्त्रीरूप है और
५ (ई० ८३)की है। सर्वतोभद्रिकाओंके कुषाणकालीन ई १ तथा २५४७ पुरुषरूप ।
अन्य नमूने बी ६७-६८ आदि हैं। पीछेकी सर्वतो___ मध्यकालमें जैन लोग सन्तानोत्पत्तिके लिए एक नए भद्रिकाओंके नमूने बी ६६ आदि हैं जो उत्तर गुप्तप्रकारकी मूर्तियोंकी स्थापना और पूजा करने लगे थे। कालकी हैं। नं०. बी ६६में चारों ओर चार तीर्थङ्कर इनमें जैन यक्ष और यक्षिणी कल्पवृक्षके नीचे विराज- पद्मासन और ध्यानमुद्रामें स्थित हैं। इसका ऊपरी मान अङ्कित किए जाते थे। दरीची नं०४ (Court
भागं खण्डित है। D) दक्षिणी भागकी २७८ नंकी मूर्ति इस प्रकारकी
तीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएं मूर्तियोंका नमूना है।
· यद्यपि कङ्काली टीलेसे प्राप्त उत्तमोत्तम मूर्तियाँ देवियोंकी मूर्तियां
लखनऊके प्रान्तीय संग्रहालयमें ले जाई गई हैं फिर - मथुरा संग्रहालयके षट्कोण गृह नं० ४में ब्राह्मण भी मथुरा संग्रहालयमें अनेक सुन्दर और कलापूर्ण
अनेक मूर्तियोंके साथ दो जैन देवियोंकी मूर्तियाँ तथा विभिन्न शैलीकी तीर्थङ्कर मूर्तियाँ अभी भी भी प्रदर्शित हैं। इनमें डी ७ बाईसवें तीर्थङ्कर नेमि- सुरक्षित हैं। स्थानकी कमीसे उनमेंसे मुख्य मुख्य ही नाथकी यक्षिणी अम्बिका है। इसके बाईं जंघापर प्रदर्शन मन्दिरमें सजाई गई हैं, अन्य सब गोदामोंमें गोदमें बालक है और नीचे इसका वाहन सिंह भरी पड़ी हैं। उत्कीणं है। ऊपर ध्यानस्थ नेमिनाथके दोनों ओर - मथुरासे प्राप्त तीर्थङ्कर मूर्तियाँ सबकी सब वैजयन्ती धारण किए वासुदेव कृष्ण और हलधारी दिगम्बर सम्प्रदायकी हैं । नग्न होनेके कारण ये बलरामकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । देवी लीलासनमें स्थित बुद्धमूर्तियोंसे सहज ही अलग पहचानी जा सकती हैं। है.और हार करधौनी आदि अनेक आभूषण धारण पद्मासन मूर्तियाँ श्रीवत्स चिह्नसे पहचान ली जाती किए हुए है। बालकके गलेमें भी कराठी है। हैं। पहचाननेका एक और साधन है, वह यह कि
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३४८ ]
अनेकान्त
[वर्ष
बुद्धके मस्तकपर उष्णीष होता है और जैन तीर्थङ्करों- हैं, पीछे छायामण्डल और छातीपर श्रीवत्साङ्क है। की मूर्तियोंमें इसका अभाव है।
कुषाणकलाका यह सुन्दर उदाहरण है। बी १२ मूर्ति-निर्माणकी दृष्टिसे हम मथुरा कलाको त्रिधा . ऋषभदेवकी प्रतिमा है और इसपर उनका चिह्न विभाजित कर सकते हैं:
बैल उत्कीर्ण है। । (१) कुषाणकालीन कला-कुषाणकालकी जैन (२) गुप्तकालीन कला-भारतीय कलाके इतिमूर्तियोंमें समयके प्रभावकी वहीं सब विशेषताएँ हैं जो हासमें गुप्तयुग स्वर्णयुग माना जाता है। इस युगमें बुद्ध मूर्तियोंमें हैं । इस समयकी जैन मूर्तियाँ खडुगासन श्राकर कला पूर्ण विकसित होचकी थी और भाव
और पद्मासन दोनों आसनोंमें पाई जाती हैं और प्रदर्शन उसका मुख्य लक्ष्य हो गया था। इस काल में उनमेंसे अधिकांश अभिलिखित हैं । नं० बी २-३-४- बनी मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर सुडौल समानुपात और ६३ श्रादि पद्मासन और बी ३५-३६ आदि खड्गा- प्रभावकतापूर्ण हैं । सारनाथकी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रासनके नमूने हैं।
में स्थित बुद्धमूर्ति और मथुराकी भिक्षु यशदिन्न द्वारा बी २ कुषाण राजा वासुदेवके राज्यकालमें शक दान की गई अभय मुद्रामें खड़ी बुद्धमूर्ति. (नं० ए ५) सं०८३में जिन-दासी द्वारा दान की गई थी। बी४ इसी कालकी देन हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी अभिलिखित प्रतिमा है और जैन मूर्तियों से मथुरा संग्रहालयकी नं० बी उसपर लिखा गया मूल लेख इस प्रकार है:- की मूर्ति विशेष महत्त्वकी है जो दरीची नं. २ १. सिद्ध महाराजस्य रजतिरजस्य देवपुत्रस्य (Court B) दक्षिणी भागमें अनेक मूर्तियोंके
(शाही) वासुदेवस्य राज्यसंवत्सरे ८० (+)४ साथ प्रदर्शित है। इसमें एक तीर्थङ्कर उत्थित पद्माग्रीष्ममासे द्वि २
.. सनमें समाधिमुद्रामें बैठे हैं। उनकी दृष्टि नासिकाके .. २. दि ५ पतस्य पूर्वाया भट्टदत्तस्य उगनिदकस्य कोणपर जमी हुई है. जो जैन शास्त्रोंमें ध्यानका
- वधुये 'स्य कुटुबिनी ये गुत्त"कुमार (द) आवश्यक अङ्ग बताया गया है । पीछे हस्तिनख, त्तस्य निर्वर्तन
मणिबन्ध और अनेक प्रकारके बेलबूटोंसे अलंकृत . ३. भगवतो अरहतो रिषभदेवस्य प्रतिमा प्रतिष्ठा- प्रभामण्डल है जो गुप्तकालकी विशेषता है । यह मूर्ति
पिता धरसहस्य कुटुबिनीये....... .... मथुरासे प्राप्त तीर्थकर मूर्तियोंमें कला और प्रभावइस लेखमें महाराज वासुदेवकी सभी राजकीय शीलतामें सर्वोत्कृष्ट है । उत्थित पद्मासन एक कठिन उपाधियों तथा संवत् ८४में भगवान अर्हत् ऋषभदेव- आसन माना गया है और यह उसका उदाहरण है। की प्रतिमा प्रतिष्ठित किए जानेका उल्लेख है।
मूर्ति संख्या बी ६-७-३३ गुप्तकालीन कलाके नं०४६० वर्धमान स्वामीकी प्रतिमा थी जिसकी अन्य नमूने हैं। बी ३३ खड़गासन मूर्ति है जिसके चौकी मात्र अवशिष्ट रह गई है। इसे संवत् ८४ नीचे और ऊपरका भाग टूट गया है. सिर्फ धड़ बाकी (१६२ ई०)में दमित्रकी पुत्री पोखरिका आदिने दानमें है। तीर्थङ्करके दोनों ओर दो पार्श्वचर (?) कमलपर दिया था। मूल लेख इस प्रकार है:- .. खड़े हैं और पीछे अलंकृत प्रभामण्डल है। नं- बी १. सिद्ध स८० (+) ४ व ३ दि २० (+) ६-७ पद्मासन और ध्यान मुद्राकी मूर्तियाँ हैं और
५ एतस्य पूर्वाया दमित्रस्य धितु ओख ऋषभनाथकी हैं। इनके कन्धोंपर बाल लटक रहे है २. रिकाये कुटुबिनीये दत्ताये दीनं वर्धमान प्रतिमा जो ऋषभनाथका विशेष चिह्न है। दोनों मुनियोंमें
३. गणातो कोट्टियातो.............................. दोनों ओर पार्श्वचर है और पीछे पूर्ववत् बेलबूटोंसे बी ६३ पद्मासन मूर्ति है और इसमें चौकीपर धर्मचक्र- अलंकृत प्रभामण्डल भी है। की पूजाका दृश्य है। तीर्थङ्करके दोनों ओर दो पार्श्वचर . . वैसे तो इस कालकी और भी अनेकों मूर्तियाँ
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किरण]
संग्रहालय में प्रदर्शित हैं पर उनमेंसे बी २० और सर्प - फरयुक्त पार्श्वनाथ ( १५०५ ) के साथ ही साथ २६८, ४८८ नं० की भी दृष्टव्य हैं।
मथुरा-संग्रहालयकी महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व सामग्री
उत्तरगुप्त और मध्यकालकी कला - जहाँ गुप्तकाल अपनी सरल भावव्यंजना के लिये प्रसिद्ध मध्यका कृत्रिम अलंकरण और सजावटके लिये ध्यान देने योग्य है। इस कालकी बनी मूर्तियों में वह स्वाभाविकता नहीं रही जो गुप्त कालके तक्षकों की छैन निसृत हुई थी।
मथुरा संग्रहालयकी १५०४ नं० की ऋषभनाथकी मूर्ति उत्तरं गुप्त कालकी है । इसका आसन बहुत सुन्दर है और मस्तकपर तीन छत्र तथा पीछे प्रभामंडल है । ऊपर पंच जिन हैं । नं० बी ६६ उत्तरगुप्त कालकी सर्वतोभद्रका प्रतिमा है जिसका उल्लेख पहिलेसे किया जा चुका है।
अन्य मूर्तियोंमें बी ७७ सुन्दर अलंकृत आसन पर ध्यानमुद्रा में स्थित तीर्थकर नेमिनाथकी मूर्ति है । इसकी चौकीपर शंख चिन्ह, ऊपर छत्र तथा पीछे प्रभामंडल हैं। नं० बी ७५ कमलाकार प्रभामंडल और हरिण चिन्ह युक्त शान्तिनाथकी मूर्ति है । बरामदे में रखी २७३८ नं० पद्मासन मूर्ति भी इसी काकी है।
तीर्थङ्कर मूर्तियोंके सिर
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, जैन तीर्थकरोंकी मूर्तियोंके सिर उष्णीषहीन होनेसे बुद्धसिरांसे अलग किये जा सकते हैं। मथुरा संग्रहालयमें इस प्रकारके सिरोंकी संख्या कम नहीं है और वहाँ कुषाण और गुप्त दोनों कालोंके मूर्तिसिर प्रदर्शित हैं ।
षटकोण गृह नं० १ सिरोंका प्रदर्शनगृह है । यहाँ अनेक बुद्ध, बोधिसत्व और हिन्दू देवताओंके सिरोंके साथ ही जन तीर्थङ्करोंके सिर भी दीवारके सहारे एक कतार में सजे हुये हैं। नं० बी ७८ किसी तीर्थङ्करका कुषाण कालीन सिर है, चौड़ा चेहरा
[ ३४६
चपटी नाक और मुंडित मस्तक इसके प्रमाण हैं । नं० बी ४५ गुप्तकालीन सिर है यह उसके घुंघराले बाल. गोल चेहरे आदिसे जाना जा सकता है । नं० बी ५१ में लहरिया केश हैं और भ्रूमध्य में ऊर्णा चिन्ह बना हुआ है ।
सबसे अधिक महत्वका है नं० बी ६१ जो षट्कोण गृह नं० ३ के बीचोबीच चबूतरेपर सजा हुआ है । यह किसी विशाल मूर्तिका सिर है और इसकी ऊँचाई २ फुट ४ इंच है। मूर्तिनिर्माणकलाका यह. अद्वितीय नमूना है । यह गुप्तकालीन है और मथुराके चित्तेदार लाल पत्थरका बना हुआ है।
बाहर बरामदे में भी सिर प्रदर्शित हैं जो कम महत्वके हैं। बी ४४ किसी तीथङ्करका कद्दावर सिर है और बी ६२ तीथङ्कर पाश्वनाथका षट्फण युक्त सिर है जो दृष्टव्य हैं। ये दोनों कुषाणकालीन हैं।
सिरोंकी बनावट के अन्य दो और प्रकार प्रतिमा नं० ४८८ और प्रतिमा नं० २६८ में भी लक्षित किये जब सकते हैं । उपसंहार
इसके अतिरिक्त कंकाली टीलेसे प्राप्त अन्य शिल्प, मिट्टीके खिलौने, वेदीका स्तम्भ, तोरणोंके अंश आदि भी उक्त संग्रहालय में प्रदर्शित हैं । और इस प्रकार मथुरा संग्रहालयने जैन कलाका संरक्षण और वैज्ञानिकरूपेण प्रदर्शन करके जैन समाज भारी उपकार किया है। संग्रहालय के
*
क्यूरेटर श्रीकृष्णदत्तवाजपेयी सब क्यूरेटर श्रीचतुर्वेदी अत्यन्त सरलप्रकृति और मिलनसार व्यक्ति हैं । जैन पुरातत्त्वमें आप दोनोंकी विशेष रुचि है और हमारे लिये प्रसन्नताकी बात है ।
अंतमें मैं जैनसमाजके कलापारखियों और पुरातत्त्व प्रेमियोंसे अनुरोध करूंगा कि वे ऐसी योजना बनायें जिससे यहाँ वहाँ बिखरे पुरातत्वकी रक्षा हो सके ।
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SHARMEREMALE
KTERTYSHERE
अतिशयक्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजीके जलमन्दिर
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समाज-सेवकोंके पत्र
जैनधर्मभूषण ब्र० सीतलप्रसादजीके पत्र
[हमारे यहाँ तीर्थङ्करोंका पूरा प्रामाणिक जीवन-चरित्र नहीं, प्राचार्यों के कार्य-कलापकी तालिका नहीं। जैन सङ्घके लोकोपयोगी कार्योंकी कोई सूची नहीं । जैन राजाओं, मन्त्रियों, सेनानायकोंके बलपराक्रम और शासनप्रणालीका कोई लेखा नहीं, साहित्यिकोंका कोई परिचय नहीं । और तो और हमारी आँखोंके सामने कल-परसों - गुज़रनेवाले-दयाचन्द गोयलीय, बाबू देवकुमार, जगमन्दरदास जज़, वैरिस्टर चम्पतराय, ब्र बाबू सूरजभान, अर्जुनलाल सेठी आदि विभूतियोंका ज़िक्र नहीं, और ये जो हमारे दो-चार बड़े-बूढ़े मौतकी चौखटपर खड़े हैं, इनसे भी हमने इनकी विपदाओं और अनुभवोंकी नहीं सुना है और शायद भविष्यमें एक पीढ़ीमें जन्म लेकर मरजानेवालों तकके लिये उल्लेख करनेका हमारे समाजको उत्साह नहीं होगा।
... प्राचार्योंने इतने ग्रन्थ-निर्माण किये, परन्तु अपने गुरुका जीवन-चरित्र न लिखा । खारवेल, अमोघवर्ष जैसे जैनसम्राटोंके सम्बन्धमें उनके समकालीन आचार्यों ने एक भी पंक्ति नहीं लिखी । चार-पाँच स्मारकग्रन्थ लिखने वाले ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीसे अपनी आत्म-कथा नहीं लिखी गई । स्वर्गीय आत्माओंकी इस उपेक्षाकी चर्चा करके हम धृष्टता जैसा पाप नहीं करना चाहते । परन्तु दुःख तो जब होता है जब कि जीवित महानुभावोंसे निवेदन किया जाता है कि आपके उदर-गहवरमें जो सामाजिक संस्मरण छुपे पड़े हैं उन्हें दया करके बाहर फेंक दें । परन्तु सुनवाई नहीं होती। कौन ग्रन्थ पुराना है, फलाँ श्लोक शुद्ध है या अशुद्ध, निब रोज़ाना कितना घिसता है, इनकी ओर तो सतत् प्रयत्न होता है, परन्तु समाजके इतिहासकी ओर ध्यान नहीं है।
- अतः हमने सोचा है कि इतिहास सम्बन्धी जो भी बात हमारे हाथ आये, उसे हम तत्काल प्रकाशित कर दें । इतिहासके लिये पत्रोंका भी बड़ा महत्व है । उर्दू साहित्यमें ऐसे पत्रोंके कितने ही सङ्कलन पुस्तकाकार छप चुके हैं । हम भी 'अनेकान्त में यह स्तम्भ जारी कर रहे हैं। . , जैन साहित्योद्धारका मूककार्य करनेवाले दिल्लीके भाई पन्नालालजीके पास अनेक कार्यकर्ताओंके हजारों पत्र सुरक्षित हैं । मेरी अभिलाषानुसार उन्होंने ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीके पत्रोंका सार लिखकर भेजा है।
यह सब पत्र भाई पन्नालालजीको लिखे हुए हैं । ब्रह्मचारीजीने अपने प्रत्येक पत्रमें उन्हें 'भाई साहब' और 'प्रतिदर्शन' लिखा है । हस्ताक्षरमें अपने नामके साथ 'हितैषी' लिखा है । अतः पत्रसे इतना अंश हमने अलग कर दिया है । पत्रमें ब्रह्मचारीजी तारीख और मास तो लिखते थे, परन्तु सन् नहीं लिखते थे। अतः पोष्ट
आफ़िसकी मुहरमें जहाँ सन् पढ़ा गया है साथमें लिख दिया गया है । ब्रह्मचारीजीके पत्र न साहित्यिक हैं न रोचक । फिर भी उनमें जैन समाजके लिये कितनी लगन और चाह थी यह ध्वनित प्रत्येक पत्रसे होता है।
-गोयलीय]
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३५२ ]
अनेकान्त
[वर्ष ६
दाहोद (पंचमहाल) (६)
जमनालाल बजाज जैनपाठशाला १६-१०
१२-११-२७ भाई जौहरीमलजीको धर्मस्नेह कहें
ट्रैक नं० ४८ किस विषयका-आप एक कोई (२) प्रभाचन्द शास्त्री सुना है—यहाँ नौकरी इतिहास मुझे भेजिये जो वर्तमान पठनक्रममें चलता की है वह धर्मको न त्यागे इसपर ध्यान- हो मैं देखकर उत्तर लिख भेजूंगा उसे आप मंजूर
(३) देहलीमें एक जैनबोर्डिङ्गकी बड़ी जरूरत है करावें फिर दूसरी पुस्तकको भेजें या प्रोफेसर इसका प्रयत्न करावें।
हीरालालजी कर सकते हैं। (५) कर्मानन्दजीका क्या हाल है।
जमनालाल बजाज सर्वसे धर्मस्नेह कहें।
२-११-२७ . हिसार, महावीरप्रसाद वकाल कार्ड पाया मैं ता० १८ नवम्बर तक यहाँसे बाहर ६-११-३६
- नहीं जा सकता हूं इसलिये आप पं० जुगलकिशोरजी• वैरिस्टर चम्पतराय क्या देहली आयेंगे, कब तक को बुला लेवें या बाबू न्यामतसिंहजी हिसारको। किस दिन किस समय आवेंगे, ठीक पता हो तो जौहरीमलजीका पता क्या है धर्मस्नेह कहें। . लिखें । व, वे देहलीमें कहाँ ठहरेंगे।
(E)
खंडवा, २५-१०-२७ ___ मैं १४ या १५ को यहाँसे चलूँगा यदि अवसर हो
याद अवसर हा मैं अस्वस्थ हूँ चिन्ता की बात नहीं है। जयन्ती
* तो मिलता जाऊँगा। ..
पर आनेके सम्बन्धमें अभी कुछ नहीं कह सकता हूं। श्राविकाश्रम, तारदेव अबके वर्ष आप तीनों दिन भाई चम्पतरायजीको
बम्बई ३-११ सभापति बनावें व उनका बढ़िया छपा हुआ. भाषण मैं १५ दिनसे बीमार था। अब ठीक हूँ.। जूता पाया। करावें व बाँटें । चम्पतरायजीसे काम लेना चाहिये नाप ठीक हुई, आपका धर्मप्रेम सराहनीय है। क्या नहीं तो वे फिर वकालतमें फंस जावेंगे। देहलीमें बो० की कोई तजबीज है।
यदि लाला लाजपतरायसे कुछ जैनमतकी प्रशंसा सर्राफसे व सबसे धर्मप्रेम कहें।
पर कहला सकें तो बहुत प्रभाव हो। .
- खंडवा, १५-१०-२७ मेर पुस्तक मिली पढ़कर यदि कामताप्रसाद
____ पत्र पाया व पुस्तकें पाई । नागपुर भेजा बहुत चाहेंगे तो भेज देंगे । लेख निकल गया होगा।
अच्छा किया उदू पुस्तकें पहले मिली थीं। आप जैनगजट अङ्क ४३ अभी आया नहीं आप सूरत
खूब धर्मप्रचार करें। मेरा लिखा ट्रैक यह अशुद्ध से मँगा लें व वहीं कहींसे देख लें।
छपा है क्योंकि मेरे अक्षर सिवाय सूरनवालोंके और उपजातिविवाह आन्दोलनको जोर देना चाहिये।
कोई पढ़ नहीं सका। यदि आप कोई हिन्दी ट्रैक
वो, २२-३-२७ चाहते हों तो मैं.लिख सकता हूं पर आप कमेटीसे ___ यदि बैरिस्टर साहब तैयार हैं तो मंडलकी ओरसे पास करालें कि वह सूरत ही शीघ्र छपे तो मैं लिखू उन्हींको गुरूकुलके उत्सवमें भेजिये । यदि मुझे भेजना पं० मथुरादासको समझाकर बोलपुर शान्तिनिकेतन हो तो नियत तिथि होनी चाहिये व एक जैनी रसोईके भिजवावे वहाँ बहुत जरूरत है अधिक वेतनका लोभ लिये साथ चाहिये तथा उनकी स्वीकारता श्रापके ही न करें यहाँ उनकी भी योग्यता बढ़ेगी उनका जवाब द्वारा आनी चाहिये।
लेकर लिखना।
(३)
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किरण ]
समाज-सेवकोंके पत्र
[३५३
(१०)
खंडवा, १-१०-२७ (२) माईदयाल वाला ट्रेक नहीं मिला। जैनकलाके सुधारके लिये ब्रह्मचारी कुँवर (३) सत्यार्थप्रकाशका खंडन लिखकर लाला दिग्विजयसिंह नागपुरमें उद्यम कर रहे हैं पता-परवार देवीसहाय फीरोजपुरको भेजा है। वे पं० माणकचन्द दि० जैनमन्दिर इतवारी बाजार । कुछ पुस्तकें हिन्दीकी न्यायाचार्यको दिखाकर सत्यार्थदर्पणमें बढ़ाकर बाँटनेको भेजें । सनातन जैन १० प्रति जिनेन्द्रमत- छापेंगे पंडित माणकचन्दका देखना काफी होगा हर दर्पण १० प्रति अन्य हिन्दीके उपयोगी ट्रैकृ ५-५ एकके दिखलानेसे पुस्तक बिगड़ जाती है । ऋषभदास फिर जो वे मँगावें भेजते रहें। ५ सनातन जैन का खंडन सूरजभानको दिखाकर छापें। मुझे भेज दें।
सनातनजैनपत्र मिला होगा प्रचार करें सत्यको
___२९-३-२७ प्रकट किये बिना काम नहीं चल सकता था इससे . प्रूफ व कापी मामनचन्द प्रेमीके द्वारा भेजी है उद्यम किया है । नवयुवकोंको मदद देनी चाहिये। मिले होंगे। लेख मेरे पास है मैं लाहौर अहिक्षेत्र (१५)
सूरत, १-३-२५ होकर जाता हूं। पता-बलवंतराय बैङ्कर पुरानी कार्ड ता० २६ का पाया अनारकली लाहौर।
मुझे श्रीमहावीरजी चौदसको सवेरे जाना है उदूके कुछ ट्रैक भेंटरूप धर्मस्वरूप, कर्ताखंडन इसलिये मैं तेरसको ७ अप्रैलको रातको हा॥ बजेकी आदिक एक-एक मलके दो-दो ५ व ७ प्रकारके भेज दें गाड़ीसे महावीरजी जाना चाहता हूं। वस यदि मेरा लिख दें बाँट दें।
व्याख्यान उस समयके भीतर होसके तो मैं आनेको - ला० प्रभुराम जैन मास्टर गवर्नमेंट स्कूल महाम तैयार हूं इसी आशयका तार आपको किया है। जिला रोहतक पता पूछा है कुछ नहीं जानते निराकुलता रहे इससे सफरखर्चकी बात भी लिख दी जरूर भेजें।
है आप जवाब जरूर देना यदि उपयोग न हो तो भी
४-२-२७ जवाब देना जिससे मैं न आनेके लिये निश्चिंत होजाऊँ। ट्रैक पाये लाला लाजपतरायकी पुस्तकपर नोट अर्जुनलाल सेठीजीका भाषण बहुत मर्यादामें होना मैंने पहले उनको भेजे थे। अब वह पुस्तक मेरे पास चाहिये वे ऐसी ऐसी बातें कह जाते हैं कि अस्पृश्योंनहीं है यदि वह बदलना स्वीकार करें, आप उनसे को मूर्ति स्पर्श कराई जावे सो कोई जैन सुननेको मिलें तो पुस्तक भिजवा दें। मैं फिर नोट लिखकर तैयार नहीं है । इससे उनका भाषण व भगवानदीनका भेज दूंगा।
भाषण विचारे हुए शब्दोंमें होना चाहिये जिससे ___ सनातनजैनमत सूरतमें ही छपवाना वह हमारे शान्ति रहे क्षोभ न रहे जल्सा आप दिनमें शुरू करें अक्षर पढ़ सकेंगे।
वही चलता रहे। . (१३)
कटक, १६-३-२४ पुराने लोगोंको साथ लेकर अपना काम बनाना ला कमेटीका क्या काम होरहा है । अहिंसा धर्मके ठीक होगा। दो ट्रैक भेज देना मेरे नाम C/सेठ जोखीराम (१६)
७-5-२६ मूंगराज १७३ हरीसनरोड कलकत्ता ज़रूरत है। (१) इटलीकी कापी पढ़ी 'लौटाते हैं. सब (१४) - बम्बई, श्राविकाश्रम जुबलीबाग श्वेताम्बर ग्रन्थ हैं।
तारदेव २७-११-२७ (२) हमारा एक बढ़िया लेक्चर जैनगजट आपके पत्र ता० १६ ॥ १८-११ के पाए। मदरासमें निकल रहा है। दो अङ्कमें निकल चुका है (१) प्राचीनस्मारककी प्रतियाँ लागतके मूल्यमें शेष और निकलेगा उसे आप ट्रैकृरूप छपवा लें बहुत सूरतसे प्राप्त होंगी मुफ्त नहीं।
.. ही उपयोगी पड़ेगा। मार्च व मईमें निकला है। .
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३५४ ]
अनेकान्त
.[ वर्ष ६..
.
(३) चम्पतरायजीका वास्तवमें भले प्रकार
लखनऊ, ४-१०-२६ सम्मान करना चाहिये। पदवी मेरी रायमें नीचे १-जैनगजटकी खबरका खण्डन किसी बड़े लिखेमेंसे हो।
आदमीके नामसे छपवावें। - (१) जैनसिद्धान्तरत्नाकर (२) जैनतीर्थोद्धारक · २-रिलीजन ऑफ इम्पायर पुस्तकमें क्या जैन- (३) जैनतत्त्वसागर (४) जैनधर्मकुमदेन्दु धर्मका कुछ विशेष हाल लिखा है यदि हो तो आप
(५) जैनबोधमार्तण्ड (६) जैनदर्शन सूर्य पढ़ने भेज दीजियेगा। ए० सी० बोसका लेक्चर भी छपवा लें ट्रैकृमें ३-गोम्मटसार जीवकांड करीब आधा छप ___(४) आगामी जयन्तीमें ऐसे अजैन विद्वानोंको गया है । १ मासके अनुमानमें शायद पूर्ण होजायगा सभापति करें जो हरएक जल्सेमें हाजिर हो कार्यवाई फिर कर्मकांड १ तिहाई तर्जुमा हुआ है सो छपेगा करे यदि महर्षि शिवव्रतलाल रह सकें तो ठीक फिर और ग्रन्थ मि० जैनीका तर्जुमा उन्हींके खर्चसे अन्यथा मि० बोस ही सभापति रहें।
___ छप रहा है। लैक्चरर
४-सेठ हकमचन्दके विरोधमें एक बड़ी सभा ___ ऋषभदास वकील-मस्तराम एम० ए० लाहौर, देहली आदि कहीं होकर विजातीय विवाहकी पुष्टिमें प्रो० हीरालाल एम० ए० अमरावती, कस्तूरचन्द जैन प्रस्ताव सब पञ्चायतमें जावें। सभापति प्यारेलाल वकील जबलपुर, पं० दरबारीलाल इन्दौर, पं० वकीलके समान कोई व्यक्ति हो। आप ट्रैकृका तो माणिकचन्दजी. पं० कुँवरलालजी न्यायतीर्थ, रतन- प्रचार करते रहें। लाल वकील बिजनौर, वर्णी गणेशप्रसादजी, फनी- (२०)
लखनऊ, १-६-२६ भूषण अधिकारी बनारस, विंध्यभूषण भट्टाचार्य १–सूचनायें सूरत भेजी जाचुकी हैं। शान्तिनिकेतन, बोलपुर बङ्गाल आदि विद्वानोंको २–कविता पूजाकी करना बहुत कठिन काम है
अजितप्रसाद वकील कर सकते हैं यदि परिश्रम करें। उत्साहपूर्वक ट्रैकोंको खूब बाँटें । धर्मका प्रचार . ३-पूजामें भूमिका ठीक करनेकी जरूरत है उस करें। काममें शिथिलता न करें। पहाड़ी हाई स्कूल में तेरह-पंथकी रीति दी है चाहिये. दोनों रीति देना। की रक्षा करावें । देहलीमें जैनबोर्डिङ्ग करावें। हमने शब्द व शब्द वाँचा नहीं तथापि तर्जुमा ठीक (१८)
७-१२-२६ होगा वारिस्टर साहबका काम है। . . आपके सब ट्रैक व सैंससका उतारा पाया मैं (२१)
... वर्धा, १५-३-२६ यथाशक्ति आनेकी कोशिश करूँगा अजितप्रशादजीको आज लेख मुक्ति व उसके साधनपर भेजा है १५-२० दिन पहले लिखना अभी वे हाँ नहीं करेंगे सदुपयोग करें व सूरतमें ही छपावें बड़ी मेहनतसे मैं एक ट्रैक "हमारा सनातन जैनमत” लिखना चाहता लिखा है। हूँ इसीपर व्याख्यान दूंगा उसको आप छपवाकर . यदि मेरे बुलानेका विचार हो जयन्तीपर तो बँटवा सके तो मैं लिखनेका कष्ट उठाऊँ। ४० पृष्ठके सम्मति करके बुलावें व पूर्ववत् सम्मानसे बिठाले व करीब होगा उत्तर दीजियेगा।
भाषण अपने विषयपर दिलावें यदि राय न पड़े तो __ चन्द्रकुमार शास्त्री, कुँवरलाल शास्त्री, दरवारी- कभी न बुलावें आपका जल्सा निर्विघ्न हो सो करें। लालजी, जुगलकिशोरजी, बनवारीलाल मेरठ आदि एक दिन २ घण्टे विशेष पूजा सब मिलकर करें। को बुलावें तथा आप जितने बड़े-बड़े अजैन विद्वानों उत्सवके साथ जिसे अजैन भी देखें । मंडपमें श्रीजीको को जानते हैं उनसे message मँगावें। काम उत्साह विराजमान करके करें फिर पूजाके पीछे वहीं. पहुँचा से करें । धर्मकी महिमा प्रगटे सो उपाय करें। , देवें । पहुँच देवें लेखकी।
बुलावें।
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स्मृतिकी रेखाएँ
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-
--
यादा
-
HALLPAPER
--
(लेखक- अयोध्याप्रसाद गोयलीय) [वी किरणका शेष]
बिना हलद-फिटकरी लगे उस वक्त जियारत नसीब सन् १९३१में गान्धी-अरविन समझौतेके अनु- हो सकी। . सार प्रायः सभी राजनैतिक बन्दी छोड़ दिये गये। मियाँवाली जेलमें तीन राजनैतिक बन्दी पहलेसे परन्तु मेरे भाग्यमें इन खैराती होटलोंके स्वादिष्ट ही मौजूद थे चार हम पहुँच गये। सातों एक ही भोजनकी रेखाएँ शेष थीं, इसलिये एक वर्षके लिये छोटेसे कमरेमें जमीनपर कम्बल बिछाकर सोते थे।
और रोक लिया गया। लेकिन खाली बैठा तो दामाद . अभी हमें पहुंचे दो-तीन घण्टे ही हुए थे कि देखा भी भारी हो उठता है। इस तरह डण्ड पेल-पेलकर कि दो सिक्ख पटापट ततैये मार रहे हैं। परस्पर रोटियाँ तोड़ना अधिकारीवर्गको कबतक सुहाता ? होड़-सी लगी हुई थी। कमरेमें आने वाले ततैयोंको मंजबूरन उन्होंने मियाँवाली जेलमें चालान कर दिया; उछल-उछलकर कहकहे लगा लगाकर मार रहे थे। क्योंकि यहाँ भी राजनैतिक बन्दी रोक लिये गये थे। मैं उनकी इस हरक़तसे हैरान था कि गान्धीजीके
मियाँवाली जेलका तो ज़िक्र ही क्या. मियाँवाली सैनिक यह कौन-सा अहिंसा-यज्ञ कर रहे हैं ? अभी जिलेमें बदली होते सुनकर बड़े-बड़े ऑफिसर काँप एक-दूसरेसे परिचित भी न हो पाये थे। उनकी इस उठते हैं। कोई भूल या अपराध किये जानेपर प्राय- संहार-लीलापर क्या कहा जाय ? यह मैं सोच ही श्चित्तस्वरूप ही उनका यहाँ ट्रांसफर होता है। रहा था कि मेरे साथ आये पाण्डेय चन्द्रिकाप्रसादसे रेतीलाप्रदेश. अधिकाधिक गर्मी-सर्दी. अस्सी-अस्सी न रहा गया और वे आवेश भरे स्वरमें बोले-सरघण्टेकी लगातार आँधी पानीकी कमी. मनोरञ्जनका दारजी. यदि आपको दया-धर्म छू नहीं गया है तो अभाव. क्रूर और मूर्ख जङ्गली लोगोंका इलाका अपने साथी जैन साहबकी मनोव्यथाका तो ध्यान हर-एकको रास नहीं आता। जरा-जरासी बातपर रखना था ! आप क्या नहीं समझते कि आपके इस खून हों जाना यहाँ आम रिवाज है । बादशाही काण्डसे इनको कितनी वेदना हो रही होगी ? इतना जमानेमें जिनं हत्यारों और पापियोंको देश निकालेकी सुनते ही एक सरदारजी तो तत्काल अपनी भूल सजा दी जाती थी। वह इसी प्रदेशमें छोड़ दिये जाते समझ गये और ततैयेकी हत्या बन्द करके मुझसे क्षमाथे। उन्हीं अपराधियोंके वंशज यहाँ के मूल निवासी याचना कर ली। यह सरदार साहब मास्टर काबुलहैं। अब तो यह प्रदेश पाकिस्तानमें चला गया है सिंह थे ! जो ७-८ वर्षसे जेल जीवन बिता रहे थे
और बिना पासपोर्टके देखना असम्भव होगया है। और आजकल पञ्जाब असेम्बलीके सदस्य हैं। बड़े भाग्य ही अच्छे थे जो इस समयकी विलायतकी . सहृदय, तपस्वी औरः उच्च विचारोंके राष्ट्रवादी
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३५६]
- अनेकान्त
[वर्ष ६ .
सिक्ख हैं। किन्तु दूसरे सरदारजी न माने और क्षुब्ध हो उठे और बोले- सरदारजी. झूठ बोलते कड़ककर बोले-"तो क्या हम जैन साहबकी वजहसे शर्म आनी चाहिये, एक जैन मांस-अण्डे खानेकी शर्त हार जाएँ । ततैयोंने हमें काटा तो हमने भी इजाजत देगा यह नामुमकिन है। यह बात कहकर प्रतिज्ञा कर ली कि १०० ततैये मार कर ही दम जैन साहबका तुमने दिल दुखाया है. इसके लिये लेंगे। हममेंसे जो पहले १०० मार लेगा वही शत उनसे माफ़ी माँगो।” . जीतेगा। अगर जैन साहबको काट ले तो क्या यह नहीं मारेंगे ? अगर ये न मारें तो हम भी मारना मियाँवाली जेलमें रहते हुए जब १५-२० रोज़ छोड़ सकते हैं।"
होगये । तब एक रोज़ तीसरा साथी मुहम्मद ___ अब मेरी बन आई ! मैंने कहा-"जब मैं उनके शरीफ बोलासतानेकी भावना नहीं रखूगा. तब वे मुझे हरगिज़ “लालाजी: क्या आप सचमुच जैन हैं ?" . नहीं काटेंगे । और यदि वह आपके धोखेमें मुझे "जी, इसमें भी क्या शक है ?" काट भी लें तब भी मैं उन्हें नहीं मारूँगा। अगर "मुझे तो यक़ीन नहीं आता. कि आप जैन हैं, मारूँ तो तुम फिर ततैये मारनेमें स्वतन्त्र रहोगे। फिर आप तो बहुत अच्छे इन्सान मालूम होते हैं।” तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।" आश्चर्यकी बात यह हुई कि "तो क्या जैन इन्सान नहीं होते ?" । मक्खियोंकी तरह अधिक संख्यामें उड़ने वाले उन . "खुदा-क़सम पाधाजी (एक बन्दी जो रिहा हो ततैयोंने मुझे नहीं काटा और मेरी पत रख ली, इस गये थे) अक्सर कहा करते थे, जैनियोंकी परछाँहीसे बातका उन सरदारजीपर बड़ा असर हुआ किन्तु बचना, यह इन्सानका खून चूस लेते हैं । मैं तो दुख है कि अधिक गर्मी बर्दाश्त न होनेके कारण खयाल करता था कि यह लोग बनमानुषकी क़िस्मके १०-१५ रोजमें ही उन्हें उन्माद हो गया और हमसे लोग होते होंगे और इन्हें किसी अजायबघरमें पृथक कर दिये गये।
देखूगा। मगर जब आप यहाँ तशरीफ लाये और राजनैतिक बन्दियोंके विचारोंकी थाह लेनेके लिये मालूम हुआ कि आप जैन है तो मैं फौरन घबरा जेलमें सी. आई. डी. के आदमी भी सत्याग्रह आन्दो- कर कमरेसे बाहर आगया था। और आपने महसूस लनमें सजा लेकर आजाते थे। यह लोग कितना किया होगा कि ४-५ रोज़ मैं आपसे बचा-बचासा गहरा काटते हैं यह तो किसी और प्रसङ्गमें लिखा रहता था। आपके साथीसे आपकी तारीफ सुनकर जायगा। यहाँ तो केवल इतना लिखना है कि एक यकीन नहीं आया था। जब आपको इतने नज़दीकसे एसे छद्मवेषी सजन हमारे पास और भेज दिये देखा है तब भरम दूर हुआ है।" गये। ये हजरत एक रोज़ सिविलसर्जनसे स्वास्थ्य- . मैंने कहा-"पाधाजीने ग़लत नहीं कहा. उनका लाभके नामपर गोश्त और अण्डोंकी माँग कर बैठे। किसी जैनने सताया होगा. तभी उनकी ऐसी धारणा डाकृरने कहा-आपका यह खान-पान जैन साहबको बनी होगी । एक मछली सारे तालाबको गन्दा . अखरेगा तो नहीं।
कर देती है।" नहीं. "मैंने इनसे इजाजत ले ली है।"
मैं यह सुनकर किं कर्तव्य विमूढ़ हो गया. यह मियाँवाली जेल में अमर शहीद यतीन्द्रनाथदास. . कहूँ कि मुझसे क़तई नहीं पूछा तो साथी झूठा बनता भगतसिंह और हरिसिंह रह चुके थे, सौभाग्यसे है. राजनैतिक बन्दियोंकी शानमें फर्क आता है और उन्हीं बैरिकों और कोठरियोंमें मुझे भी रहनेका चुप रहता हूँ. तो यह सब देखा कैसे जायगा ? मैं अवसर मिला। ४५ माह बाद ४ नजरबन्द बङ्गाली कुछ निश्चय कर भी ने पाया था कि सिविलसर्जन और आगये। जो हमसे संर्वथा दृर और गुप्त रखे
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किरण ६]
व्यक्तित्व
[३५७
गये। किन्तु पता उनके आनेसे पहले ही हमें चल मैं उनका मतलब ताड़ गया। यदि वास्तविक गया और हममेंसे एक साथीका जेलमें उनसे पत्र घटना बतलाता हूँ तो एक साथी मुसीबतमें फँसता है, द्वारा 'विचारोंका आदान-प्रदान होने लगा। साथी मेरे दामनपर देशद्रोहका दारा लगता है। इसलिये सी० आई० डी०के संकेतपर एक पत्र जेलवालोंमे बातको बचाकर बोला-"बेशक, जैन कोई ऐसी बात पकड़ लिया और उससे बड़ी खलबली मच गई । उस नहीं कहते जिससे किसीका दिल दुखे या कोई संकट वक्त मैं और एक वे पत्र व्यवहार करने वाले साथी में फँसे ।" दो ही जेलमें थे । पत्र पकड़े जाते ही उन्हें अन्यत्र भेज .. "बेशक, जैनियोंकी ऐसी ही तारीफ़ सुनी है !" दिया और मुझे फाँसीकी १० नं० कोठरीमें इसलिये फिर वह इधर-उधर की बात करके बोले-"क्यों भई भेज दिया कि मैं घबराकर सब भेद खोल दूं। इस जैन साहब, वह बात आखिर क्या थी ?" . १० नं. की कोठरीमें फासीकी सजा पाने वाला वही "जी. कौनसी" व्यक्ति एक रात रखा जाता था जिसे प्रातः फाँसी . "भई वही, तुम तो बिल्कुल अजान बनते हो ?" देनी होती थी ! कोठरियोंमें बन्द मृत्युकी सजा पाये मेरे होंटसे सूख गये. मैं थूकको निगलता हुआ फिर हुए बन्दियोंका करुण क्रन्दन नींद हराम कर देता था बोला-"मैं आपकी बातोंको क़तई नहीं समझा ।" ऐसा मालूम होता था कि श्मशानभूमिमें बठे धू-धू "जैनसाहब, सच-सच कह दो हम तुम्हें यकीन, जलती चिताओंको देख रहा हूँ। ३-४ रोज बन्द रहने दिलाते हैं तुमपर जरा भी आँच न आयेगी। जैन पर जब अधिकारियोंको विश्वास होगया, मारे भयके
होकर झूठ न बोलो।" अब सब उगल देगा तो कलकर जेल सुपरिन्टेन्डेन्ट के साथ मेरे पास आया। मैं उस वक्त कोठरीके
___"मुझे अफसोस है कि मेरे कारण आपको हमारी बाहर बैठा चरखा कात रहा था। वे मुझसे बिना बोले
जातिपरसे विश्वास उठ रहा है। मैं आपको कसम मुआयनेके बहाने मेरी कोठरीमें गये और किसी काम
खाकर यकीन दिलाता हूँ कि झूठ बोलना तो दरलायक कॉगजकी खोजके लिये मेरी किताबोंको इस तरह
किनार. जिससे किसीका दिल दुखे हम ऐसा एक भी देखने लगे जैसे लाइब्रेरीमें पुस्तकोंको यूँहीं उलट
शब्द नहीं बोलते ?" पलटकर देखा जाता है। फिर बोलनेका बहाना ढूंढ
____ कलकर खुद अपने जालमें फंस गया था वह क्या कर कलकर बोले-"अच्छा तो आप दीवाने ग़ालिब
बात चलाये लाचार मुँह लटकाये चला गया। कोई समझ लेते हैं।"
भेद न मिलनेके कारण जब वे मेरे साथी रिहा कर
दिये गय तब १ माह बाद मेरी सजा पूरी होनेपर "जी. समझा तो नहीं हूँ. समझनेकी बेकार कोशिश
उन्हें मुझको भी छोड़ना पड़ा। करता रहता हूँ।" . .
सी० आई० डी० सुपरिन्टेन्डेन्ट और जेल सुप"आप तो जैन हैं न?"
रिन्टेन्डेन्टने काफी तरकीबें लड़ाई पर सफलता "जी "
न मिली। "भई, सुना है जैन झूठ नहीं बोलते !"
१७ नवम्बर सन १६४८
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साहित्य-परिचय और समालोचन
. १ भारतीय संस्कृति और अहिंसा-मूल पुस्तकके 'अवलोकन' (प्रस्तावना) में उसके लेखक लेखक, स्व. धर्मानन्द कोसम्बी । अनुवादक, पं० पं० सुखलालजीने उनके इस सन्देहका उचित समाविश्वनाथ दामोदर शोलापुरकर । प्रकाशक, हिन्दीग्रंथ- धान कर दिया है । अतः उस सम्बन्धमें यहाँ लिखना रत्नाकर कार्यालय बम्बई। मूल्य. दो रुपया। अनावश्यक है । लेखकने जो एक खास बातका उल्लेख
प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान स्व. कोसम्बीजीने यह किया है वह यह है कि जैन-तीर्थकर पावके पहले पुस्तक मराठीमें हिन्दू संस्कृति आणि अहिंसा' नाम अहिंसासे भरा हुआतत्त्वज्ञान नहीं था-उन्हींने उसका से लिखी थी। उसीका यह हिन्दी संस्करण है, जिसे उपदेश सुसम्बद्धरूपमें दिया था। लिखा हैहिन्दी भाषाभाषियोंके लाभार्थ हिन्दी-साहित्यके "पाश्वका धर्म बिल्कुल सीधा सादा था। हिंसा प्रसिद्ध सेवी और प्रकाशक पं.नाथरामजी प्रेमीने असत्य, स्तेय तथा परिग्रह इन चार बातोंके त्याग अपने स्वर्गीय पुत्र हेमचन्द्रकी स्मृतिमें हिन्दीग्रन्थ- करनेका वह उपदेश देते थे। इतने प्राचीनकालमें रत्नाकर कार्यालयद्वारा प्रकाशित किया है और जो अहिंसाको इतना सुसम्बद्धरूप देनेका यह पहला ही हेमचन्द्रमोदी-पुस्तकमालाका प्रथम पुष्प है। उदाहरण है। ___ प्रस्तुत पुस्तकमें भारतकी प्राचीन वैदिक, श्रमण . xxतात्पर्य यह है कि पावके पहले पृथ्वीपर
और पौराणिक इन तीन संस्कृतियों, उनके अङ्ग- सच्ची अहिंसासे भरा हुआ धर्म या तत्त्वज्ञान था ही नहीं। प्रत्यङ्गों, विविध मतों, अनेक मतप्रवर्तकों, राजनैतिक पाश्वं मुनिने एक और भी बात की। उन्होंने घटनाओं आदिपर ऐतिहासिक और स्वतन्त्र नई दृष्टि- अहिसाको सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीनों से विचार किया गया है। साथ ही पाश्चात्य संस्कृति नियमोंके साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो
और उसकी सामाजिक व्यवस्थापर प्रकाश डालते अहिंसा ऋषि-मुनियोंके आचरण तक ही थी और हुए भारतीय सामाजिक क्रान्ति और महात्मा गांधीकी जनताके व्यवहारमें जिसका कोई स्थान न.था. वह राजनीति, साम्राज्यके गुण-दोषोंपर विचार करके अब इन नियमोंके सम्बन्धसे सामाजिक एवं अहिंसाका प्राचीन और अर्वाचीन तुलनात्मक स्वरूप व्यावहारिक होगई। बतलाया है । अतएव पुस्तकको वैदिक-संस्कृति श्रम- पार्श्वमुनिने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन णसंस्कृति, पौराणिक-संस्कृति, पाश्चात्य-संस्कृति तथा धर्मके प्रचारके लिये उन्होंने संघ बनाये । बौद्ध संस्कृति और अहिंसा इन पाँच मुख्य विभागों- साहित्यसे इस बातका पता लगता है कि बुद्धके समय अध्यायोंमें रखा गया है। लेखकने अपने विशाल जो संघ विद्यमान थे उन सबोंमें जैन-साधु और अध्ययन और कल्पनाक आधारपर जहाँ इसमें साध्वियोंका संघ सबसे बड़ा था।" कितना ही स्पष्ट स्वतन्त्र विचार किया है वहाँ अनेक . पुस्तक नई दिशामें लिखी गई है और नये बातोंकी तीव्र आलोचना भी की है। जैनोंके ऋषभदेव विचारोंको लिये हुए है। अतः कितने ही पाठकोंके आदि २२ तीर्थङ्करोंके चरित, उनके शरीरकी ऊँचाई क्षोभका कारण बन सकती है। पर संशोधक और और जैन साधुसंघोंकी बृहद्रूपता आदिपर भी संदेह गुणज्ञ तटस्थ विचारकोंके लिये नूतन और निर्भीक व्यक्त किया है और उन्हें काल्पनिक बतलाया है। स्पष्ट विचार करनेकी एक नवीन दिशा प्रदर्शित करती
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किरण ]
साहित्य-परिचय और समालोचन
[३५६
है। हिन्दी-साहित्यमें ऐसी पुस्तकको प्रस्तुत करनेके विन्यास अच्छा है । लेखकका यह प्रथम प्रयास लिये लेखक और प्रकाशक दोनों धन्यवादाह हैं। सराहनीय है और पुस्तक प्रचारके योग्य है। छपाई-सफाई सब सुन्दर है।
४. जैनधर्मपर लोकमत–संग्राहक और २. भाग्य-फल (भाग्य-प्रकाशक-मार्तण्ड)- प्रकाशक, 'स्वतन्त्र' सूरत। मूल्य, जैनधर्म प्रचार । लेखक, पं० नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य न्याय- इसमें महात्मा गान्धीसे लेकर राजगोपालाचार्य ज्योतिषतीर्थ साहित्यरत्न । प्रकाशक और प्राप्तिस्थान तक लगभग पचपन भारतीय और पाश्चात्य उच्चकान्तकुटीर, आरा। मूल्य सजिल्द ११-) और कोटिके विद्वानोंके जैनधर्मपर प्रकट किये गये मतोंअजिल्द १) ।
विचारोंका सङ्कलन किया गया है। पुस्तक संग्रहणीय
तथा प्रचारके योग्य है। - हरेक व्यक्ति यह जाननेके लिये उत्सुक होता है कि मेरा भाग्यफल कैसा है ? मुझे कब और क्या ५. विश्वविभूति-स्वर्गारोहः-(श्री गान्धीहानि-लाभ तथा सुख-दुख होगा ? विद्वान् लेखकने गुणगीताञ्जलिः) लेखक, मुनि श्रीन्यायविजय । इस पुस्तकद्वारा इन्हीं सब बातोंपर अपने प्रशंसनीय प्रकाशक, श्री केशवलाल मङ्गलचन्द शाह पाटण ज्योतिषज्ञानका प्रकाश डाला है । इसमें वैशाखसे (गुजरात) । मूल्य कुछ नहीं। प्रारम्भ करके चैत्र तक बारह महीनोंमें उत्पन्न हुए प्रस्तुत छोटी-सी १६ पद्यात्मक रचना मुनि न्यायपुरुषों और स्त्रियोंका तिथि तथा दिनवार फलादेश विजयजीने गान्धीजीके स्वर्गारोहणपर संस्कृतमें रची (शुभाशुभ फलका प्रदशन) प्रस्तुत किया है। पुस्तक है और गुजराती अनुवादको लिये हुए है। रचना भारतीय और पाश्चात्य ज्योतिर्विदोके विविध ग्रन्थों ललित और सरल है। तथा प्राचीन और अर्वाचीन विचारोंके आधारसे. ६. वस्तुविज्ञानसार-प्रवक्ता, अध्यात्मयोगी लिखी गई है। भाषा सरल और चालू है। हिन्दी श्रीकानजी स्वामी । हिन्दो-अनुवाक, पं० परमेष्ठीदास साहित्यके भण्डारमें ऐसी अच्छी भेट उपस्थित करने जैन न्यायतीर्थ । प्रकाशक, श्रीजैन स्वाध्यायमन्दिर के लिये लेखक अवश्य ही अभिनन्दनके योग्य है। ट्रस्ट सोनगढ़ (काठियावाड़)। मूल्य, कुछ नहीं। हम उनकी इस सत्कृतिका समादर करते हुए पाठकोंसे अनुरोध करते हैं कि वे इस पुस्तकको जरूर मँगाकर
____ यह श्रीकानजी स्वामीके गुजरातीमें दिये गये पढ़ें और अपने फलाफलको ज्ञात करें।
आध्यात्मिक प्रवचनोंका महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें
अनन्त पुरुषार्थ, आत्मस्वरूपकी यथार्थ समझ, उपा. ३. सम्राट खारवेल-लेखक, जयन्तीप्रसाद दान-निमित्त आदि सात विषयोंपर अच्छा विवेचन
जैन साहित्यरत्न । प्रकाशक और प्राप्तिस्थान, नवयुग किया गया है। स्वाध्याय-प्रेमियोंके लिये पुस्तक पठजैन साहित्य-मन्दिर खतौली। मूल्य ११)। नीय और संग्रहणीय है।
यह एक नाटक ग्रन्थ है जिसमें जम्बूकुमार ७. सत्य हरिश्चन्द्र-रचयिता. मुनि श्रीअमर(अन्तिम केवली जम्बूस्वामी), अञ्जन मुक्तियज्ञ और चन्द्र कविरत्न । प्रकाशक, सन्मतिज्ञानपीठ आगरा। सम्राट् खारवेल ये चार नाटक निबद्ध हैं। इनमें मूल्य १॥) । सम्राट् खारवेल अन्य नाटकोंसे बड़ा है और इस · सत्य हरिश्चन्द्र भारतीय इतिहासमें प्रसिद्ध हैं। 'लिये. उसकी प्रधानतासे पुस्तकका नाम भी सम्राट गाँव-गाँवमें और नगर-नगरमें उनकी गुण-गाथा गाई खारवेल रखा गया जान पड़ता है। नाटक सभी जाती है । उन्होंने सत्यके लिये स्त्री. पुत्र और अपना भावपूर्ण और शिक्षाप्रद हैं। शब्द और भाव दोनोंका तन भी उत्सर्ग कर दिया था और भारतके पुरातन .
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३६० 1
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अनेकान्त
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[ वर्ष ।
उज्ज्वल आदर्शको उन्नत किया था। मुनिजीने हिन्दी अच्छा और सरल हुआ है । पं० बनारसीदासजीका पद्योंमें उन्हींकी बडे सन्दर ढनसे गण-गाथा गाई है। भाषा कल्याणमन्दिर-स्तोत्र भी इसके पुस्तक अच्छी बन पड़ी है और लोकरुचिके अनुकूल निबद्ध है। है। भाषा और भाव सरल तथा हृदयग्राही हैं। १० श्रीचतविंशति-ज़िनस्तुति(वृत्ति सहित)
८. सामायिकसूत्र-लेखक, उक्त उपाध्याय लेखक, विद्यावारिधि श्रीसुन्दरगणि। प्रकाशक, श्रीमुनि श्रीअमरचन्द कविरत्न, प्रकाशक, सन्मतिज्ञान- हिन्दीजैनागम -प्रकाशक - सुमतिकार्यालय, जैन-प्रेस पीठ आगरा। मूल्य ३॥)।
कोटा (राजपूताना) । मूल्य ।)। _ मुनिजीने इसमें सामायिकके सम्बन्धमें विस्तृत . इसमें ऋषभादि चौबीस जैन तीथङ्करोंकी संस्कृत
किया है और अपनी स्थानकवासी परम्परा- भाषामें गणीजीने स्तुति की है और स्वयं उसकी संस्कृत नुसार सामायिकसूत्रोंका सङ्कलन और सरल हिन्दी वृत्ति भी लिखी है । पुस्तक उपादेय है। व्याख्यान दिया है। पुस्तकके मुख्य तीन विभाग हैं। ११.श्रीभावारिवारण-पादपूर्त्यादिस्तोत्र संग्रहपहले-प्रवचन विभागमें विश्व क्या है. चैतन्य, मनुष्य संग्राहक और संशोधक मुनिविनयसागर । प्रकाशक,
और मनुष्यत्व, सामायिकका शब्दार्थ आदि सामा- उक्त जैनप्रेस कोटा । मूल्य भेंट। यिकसे सम्बन्ध रखनेवाले कोई २७ विषयोंपर विवेचन है। दूसरे ‘सामायिकसूत्र'में नमस्कारसूत्र आदि ११
____ इस संग्रहमें तीन छोटे-छोटे सवृत्ति स्तोत्रोंका सूत्रोंका अर्थ है और अन्तिम तीसरे विभागमें परि- सकलन है। पहला समसस्कृत अ
संकलन है। पहला समसंस्कृत और अन्य दोनों शिष्ट है, जिनकी संख्या पाँच हैं। प्रन्थके प्रारम्भमें स
संस्कृत भाषामें हैं। प्रथम भावारिधारणपादपूर्ति और पं० वेचरदासजीका विद्वत्तापूर्ण अन्तर्दर्शन' (भमिका) दूसरे पार्श्वनाथलघुस्तोत्र तथा दोनोंकी वृत्तियों के है । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के सामायिकों
रचयिता वाचनाचार्य श्रीपद्मराजगणि हैं । और पर भी संक्षेपमें प्रकाश डाला है। दिगम्बर परम्पराके
तीसरी 'सवृत्ति जिनस्तुति' रचनाके कर्ता श्रोजिनआचार्य अमितगतिका सामायिकपाठ भी अपने भुवनहिताचार्य है। तीनों रचनाएँ प्रायः अच्छी हैं। हिन्दी अर्थके साथ दिया है । पुस्तक योग्यतापूर्ण और १२. चतुर्विंशति - जिनेन्द्रस्तवन-रचयिता, सुन्दर निर्मित हुई है। भाषा और भाव दोनों और वाचनाचार्य श्रीपुण्यशील गणी । प्रकाशक, उपर्युक्त आकर्षक हैं। सफाई-छपाई अच्छी है। लेखक और प्रेस कोटा । मूल्य भेंट। प्रकाशक दोनों इसके लिये धन्यवादके पात्र हैं। नाना रागों और रागनियोंमें रची गई यह एक
९. कल्याणमन्दिर-स्तोत्र-लेखक और प्रका- संस्कृतप्रधान रचना है । इसके कुछ स्तवनोंमें देशियोंशक, उपर्युक्त मुनिजी तथा पीठ । मूल्य ॥)।
का भी उपयोग किया गया है। इस रचनामें कुल २५
- स्तवन हैं। २४ तो चौबीस तीर्थङ्करों के हैं और अन्तिम ___ कल्याणमन्दिर-स्तोत्र जैनोंकी तीनों परम्पराओंमें मान्य है। यह स्तोत्र बड़ा ही भावपूर्ण और हृदय- .
सामान्यतः जिनेन्द्रका स्तवन है। लेखकका उद्देश्य ग्राही है। प्रस्तुत पुस्तक उसीका हिन्दी अनुवाद है।
लोकरुचि-प्रदर्शनका रहा है। पुस्तक ग्राह्य है।
' -कोठिया । ग्रन्थके आरम्भमें मुनिजीने इसे सिद्धसेन दिवाकरकी कृति बतलाई है जो युक्तियुक्त नहीं है। यह दिगम्बरा- १३. कुन्दकुन्दाचार्यके तीनरत्न- लेखक, चार्य कुमुदचन्द्रकी रचना है. जैसा कि ग्रन्थके अन्तमें गोपालदास जीवाभाई पटेल । अनुवादक पंडित 'जननयनकुमुदचन्द्र' इत्यादि पदके द्वारा सूचित भी शोभाचन्द्र भारिल्ल । प्रकाशक. भारतीय ज्ञानपीठ, किया गया है। मुनिजीका यह अनुवाद भी प्रायः, काशी । पृष्ठ संख्या १४२ । मूल्य सजिल्द प्रतिका २) ।
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किरण '६]
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साहित्य-परिचय और समालोचन
[३६१
इस पुस्तकमें आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चास्तिकाय, . वंदित्ता अरिहंते सिद्ध आयरिय सव्वसाहूय । प्रवचनसार और समयसार नामके तीन ग्रन्थोंके संखेवेण महत्थं कररेहालक्खणं वुच्छं ॥१॥ मुख्य विषयोंका अपने ढङ्गसे एकत्र संग्रह और
-लिखित प्रति सङ्कलन किया गया है। इससे संक्षेप-प्रिय पाठकोंको मुद्रित प्रतिमें मङ्गलाचरणके बाद निम्न गाथा विषय-विभागसे तीनों ग्रन्थोंका रसास्वादन एक साथ दी हुई है:होजाता है । लेखकका यह प्रयत्न और परिश्रम पावइ लाहालाहं सुहदुक्खं जीविअं च मरणं च । प्रशंसनीय है । पुस्तकके उपोद्धातमें ग्रन्थकर्ता, उनके रेहाहिं जीवलोए पुरिसोविजयं जयं च तहा ॥२॥ ग्रन्थों तथा उनकी गुरुपरम्पराका भो संक्षेपमें परिचय परन्तु लिखित प्रतिमें इस स्थानपर निम्न दो दिया है। पुस्तक अच्छी उपयोगी एवं संग्रहणीय है। गाथाएँ दी हुई हैं, जिनमेंसे प्रथम गाथाका चतुर्थ छपाई-सफाई सब ठीक है।
चरण भिन्न है. शेष तीन चरण मिलते-जुलते हैं। १४. करलक्खण (सामुद्रिकशास्त्र)--संपादक किन्तु तीसरी गाथा मुद्रित प्रतिमें नहीं मिलती। प्रफुल्लकुमार मोदी एम० ए०. प्रो० किङ्ग एडवर्ड कॉलेज पावइ लाहाऽलाहं सुह दुक्खं जीविय मरणं च । अमरावती। प्रकाशक. भारतीय ज्ञानपीठः काशी। पृष्ठ, रेहाए जीवलोए पुरिसो महिलाइ जाणिज्जइ ॥२॥ संख्या सब मिलाकर ३८ ! मूल्य. सजिल्द प्रतिका १)
आउं पुत्त च धणं कुलवंसं-देह-संपत्ती । ___ इस अज्ञात कतृक पुस्तकके नामसे ही उसके ... पुवभव संचियाणि य पुनाणि कहंति रेहाओ ॥३॥ विषयका परिचय मिल जाता है। इसमें शारीरिक इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि एक ग्रन्थपर दसरेका विज्ञानके अनुसार हाथकी रेखाओंकी आक्रति. प्रभाव अवश्य है। बनावट. रूप. रा. कोमलता. कठोरता. स्निग्धता और १५. मदनपराजय-मूल लेखक, कवि नागदेव । रूक्षता तथा सूक्ष्म-स्थूलतादिकी दृष्टिसे विभिन्न अनुवादक-सम्पादक, पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य।
विभिन्न फल बतलाया गया है। शरीर प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ. काशी । पृष्ठ संख्या. सम्बन्धी चिह्नों या रेखाओंके द्वारा मानवीय प्रवृत्तियोंके सब मिलाकर २४२ । मू०. सजिल्द प्रतिका) रुपया। शुभाशुभ फलका निर्देश करना भारतीय सामुद्रिकग्रन्थों- प्रस्तुत ग्रन्थ एक रूपक-काव्य है. जिसमें कामदेव की प्राचीन मान्यता है। इस विषयपर भारतीय साहित्य- के पराजयकी कथाका भावपूर्ण चित्रण किया.गया है। में अनेक ग्रन्थोंकी रचना हुई है । प्राक्कथनद्वारा डार्कर कविने अपनी कल्पना-कलाकी चतुराईसे कथावस्तुकी ए.एन.उपाध्ये एम.ए.ने इसपर संक्षेपत:प्रकाश डाला है। घटनाको अपूर्व ढङ्गसे रखनेका प्रयत्न किया है और
वीरसेवामन्दिरमें भी एक अज्ञात कर्तृक कररेहा- वह इसमें सफल भी हुआ है । प्रस्तुत रचना बड़ी ही लक्खण' नामका ५६ गाथाप्रमाण छोटा-सा सामुद्रिक सुन्दर एवं मनोमोहक है और पढ़ने में अच्छी रुचिकर प्रन्थ है. जो एक प्राचीन गुटकेपरसे उपलब्ध हुआ है। जान पड़ती है। सम्पादकद्वारा प्रस्तुत ग्रंथका मूलानुइन दोनों ग्रन्थोंका विषय परस्पर मिलता-जुलता है गामी हिन्दी अनुवाद भी साथमें दिया हुआ है। ग्रन्थके
और कहीं-कहींपर गाथा तथा पदवाक्य भी मिलते हैं। आदिमें महत्वपूर्ण प्रस्तावनाद्वारा भारतीय कथापरन्तु मङ्गलाचरण दोनोंका भिन्न-भिन्न है। दोनों ग्रंथों- साहित्यका तुलनात्मक विवेचन करके उसपर कितना को सामने रखनेपर ऐसा प्रतीत होताहै कि उनपर एक ही प्रकाश डाला गया है। पं० राजकुमारजी जैनदूसरेका प्रभाव स्पष्ट है। वे मङ्गल पद्य इस प्रकार है:- "समाजके एक उदीयमान विद्वान और लेखक हैं। पणमिय जिणममित्रगुणं गयरायसिरोमणि महावीरं । आशा है भविष्यमें आपके द्वारा जैन-साहित्य-सेवाका वुच्छं पुरिसत्थीणं करलक्खणमिह समासेणं ॥१॥ कितना ही कार्य सम्पन्न हो सकेगा । प्रस्तुत ग्रन्थ
· मदित प्रति पठनीय व संग्रहणीय है। -परमानन्द शास्त्री
द्रा माता
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श्रद्धांजलि
[ यह श्रद्धाञ्जलि पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के मुरार ( ग्वालियर) से प्रस्थान करने के अवसरपर पढ़ी गई ].
( रचयिता - श्रीब्रजलाल उर्फ भैयालाल जैन "विशारद" मुरार )
हे पूज्यवर्य गुरुवर तुम हो, विद्या निधान मानव महान !
शचि शान्ति-सुधा वर्षण करके, जन-मनमें प्रेम बढ़ाया है । मानव-कर्तव्य स्वयं करके, युगधर्म हमें दर्शाया है ॥ देकर ज्ञान-दान, जगका तुम करने चले आत्म-कल्याण || हे पूज्य० अज्ञान मिटा करके तुमने लघु-जनको विद्या दान दिया । निजवरद हस्त देकर हमको आत्मोन्नतिका सद्ज्ञान दिया || तुम धर्मस्नेह लेकर आये करने मानवको दीप्तिमान ॥ हे पूज्य०
निज जीवन कर अर्पण तुमने मानव संस्कृति - विस्तार किया ।
" स्याद्वाद” “सत्तर्क भवन” से जैन सिद्धान्त प्रसार किया. ॥
तुम ज्ञान - कोष लेकर आये देने जीवोंको अमर दान || हे पूज्य० उपहार नहीं ऐसा कुछ है, उत्साह बढ़ाऊँ मैं श्रद्धाञ्जलि भक्ती "भैया" ले मात्र उपस्थित हूँ इससे ॥
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गुरुदेव इसे स्वीकार करो कर अपराधोंका क्षमा- दान || हे पूज्य० चिरजीवो तुम युग-युग वर्णी शुभ यही भावना है प्रतिक्षण । गुरुवर तेरे उपकारोंसे है ऋणी हुआ जगका कण-कण ॥ अभिनन्दन करने हम आये कर भावोंकी माला प्रदान || हे पूज्य०
छैह मास हुए जबसे हमने प्रिय वाणीका आस्वाद लिया || दिल्ली प्रस्थान दिवस सुनकर, है हमें मोहने घेर लिया || हृद्गत भक्ति नयनोंमें, हे देव ! सफल हो तब प्रस्थान || हे पूज्य०
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सम्पादकीय
जैन-साहित्यपर विहारके शिक्षामन्त्री इतिहास, पुरातत्वकी तमाम शाखा, जैन, साहित्य,
शिलालिपि, टेराकोटा, मुद्रा, प्रतिमाएँ आदि जितनी जबसे मैंने विहार प्रान्तमें प्रवेश किया है तभीसे भी मौलिक साधन-सामग्री समुपलब्ध हो रही है
मनमें एक बात बहुत ही खटक रहा है कि इस उनका विस्तृत वैज्ञानिक रूपसे गम्भीर अध्ययन किया प्रान्तका सर्वाङ्गपूर्ण इतिहास, क्योंन तैयार कराया
र कराया जाय, तदनन्तर संक्षिप्त रूपमें उपर्युक्त साधनोंकी जाय, क्योंकि नालन्दा, राजगृह, पावापुरी, वैशाली, उपयोगिता, महत्ता और उनके जन-जीवनसे सम्बन्ध गया आदि दर्जनों प्राचीन ऐतिहासिक स्थान ऐसे हैं; ज्ञापक साहित्य तैयार करवाकर एक ग्रन्थ संग्रहीत जिनका मूल्य न केवल विहार प्रान्तीय दृष्टिस हा ह कर प्रकाशितकर जनताके सम्मख उपस्ि अपितु शिक्षा और संस्कृतिका जहाँ तक सम्बन्ध है, जाय, यह काम कुछ श्रम और अर्थसाध्य तो अवश्य उनका अन्तर्राष्ट्रीय महत्व भी अधिक है । मुझे कुछेक ही है पर सरकारका सर्वप्रथम कार्य भी यही होना खण्डहरोंमें घूमनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उसपरसे. चाहिये । यह विहारका सर्वाङ्गपूर्ण इतिहास नहीं मैं कह सकता हूँ कि वहाँ विचारोंका प्रवाह इतने होगा पर आगामी लिखे जाने वाले इतिहासकी पूर्व जोरोंसे बहता है, कि दो-दो शार्ट हैण्ड रखें तो भी भूमिकाका एक मागदर्शक अङ्ग होगा, हमारा कार्य उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। उनके कण- साधनोंका संग्रह होना चाहिये, लेखन कार्य अगली कणमें मानों विहारकी सांस्कृतिक आत्मा बोल रही है
पीढ़ी करेगी जो मानसिक स्वातन्त्र्यके युगमें शिक्षा जहाँपर विहार और विभिन्न प्रान्तीय या देशीय पाकर अपनी दृष्टिसे अपने पूर्वजोंके कृत्योंकी समीक्षा विद्वानोंने बैठकर ज्ञान-विज्ञानकी समस्त शाखाओंका करनेकी योग्यता रखती हो। गम्भीर, बहुमुखी अध्ययन किया, जहाँ के पण्डितोंने विदेशोंमें आर्यसंस्कृतिकी विजय-वैजयन्ती फहराई। आज हम जो कुछ भी लिखते-सोचते हैं केवल परन्तु आज अतिखेदके साथ सूचित करना पड़ रहा अंग्रेजोंद्वारा प्रस्तुत किये तथ्योंके आधारपर ही । जो है कि उपयुक्त ऐतिहासिक विशाल-साधन सामग्रीकी उनकी अपनी एक दृष्टिसे प्रस्तुत किये गये हैं। परन्तु उपेक्षा; जितना बाहर वाले नहीं करते उससे कहीं अबतो समयने बहुत परिवर्तन ला दिया है। हमारे
अधिक विहारके विद्वानों द्वारा हो रही है । मैं यहाँ प्रान्त या सारे देशमें ऐसे कितने प्रतिभा सम्पन्न .देखता हूँ कि किसीको पुरातत्वके साधनोंके प्रति विद्वान हैं; जो खंडहरोंकी खाक छानकर ऐतिहासिक हमदर्दी ही नहीं है। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि स्थानोंमें परिभ्रमणकर, जंगलोंमें यातना सहकर,
यह विषय इतना सूखा है कि कहानी-कविताकी उपा- वहाँकी पुरातन सामग्रीको अपनी दृष्टिसे देखकर • सना करने वाला वर्ग इनको नहीं समझ सकता। लिखनेकी योग्यता रखते हैं, जिनमें अपनी स्वकीयता वर्षोंकी ज्ञान उपासना करनेके बाद ही उनकी सार्व- हो। किसी भी वस्तुके वास्तविक मर्मको बिना समझे भौमिक महत्ताको आत्मसात् किया जासकता है । यह उसे आत्मसात् करना असम्भव है और बिना उपेक्षा अग्रिम निर्माणमें बड़ी घातक सिद्ध होगी। आत्मसात् किये कुछ लिखना-पढ़ना कोई अर्थ नहीं . गत दिसम्बर मासमें मैं इस सम्बन्धमें विहार रखता, जिनमें अनुभूति न हो । सच कहना यदि सरकारके अर्थमन्त्री डाकूर अनुमहनारायणसिंहसे उलटा न माना जाय तो मैं जोरदार शब्दोंमें कहूँगा मिला था, उनके सम्मुख मैंने अपनी एक योजना कि अभी तो विहारके विद्वानोंने विहारकी संस्कृति रखी, जिसमें बताया गया था कि विहार प्रान्तके और इतिहासके विभिन्नतम साधनोंका समुचित
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३६४ ]
. अनेकान्त
[ वर्ष ६
अध्ययन नहीं किया प्रत्युत उस ओर सर्वथा पक्षपात- बहुतसे ऐसे तत्व प्रकाशमें आयेंगे जिनका ज्ञान हमें पूर्ण या उपेक्षित मनोवृत्तिसे काम लिया है। यही. आजतक न था। मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि विहारका कारण है कि इतनी विशाल ऐतिहासिक सामग्रीके इतिहास भारतका इतिहास है । विहारका इतिहास रहते हुए भी योग्य विद्वानके अभावमें आज वह • बहुत कुछ अंशोंमें जैनसाहित्यके अध्ययनपर सामग्री विधुरत्वका अनुभवकर रही है।
निर्भर है। अतः बिना जैनसाहित्यके अन्वेषणके ___ता० ७-१०-४८ को विहारके कविसम्राट श्रीयुत् हम अपने प्रान्तका इतिहास लिखनेकी कल्पना रामधारीसिंह 'दिनकर' के साथ मैंने अपनी हार्दिक .. तक नहीं कर सकते। व्यथा विहार सरकारके शिक्षामन्त्री श्रीयुत् बद्रीनाथ हमारे प्रान्तकी प्राचीनतम भाषाका स्वरूप भी. वर्माके सन्मुख रखी । मुझे वहाँ मालूम हुआ कि वे जैनोंने अपने साहित्यमें सुरक्षित रखा है। अतः भी इसी रोगसे पीड़ित हैं, वे स्वयं चाहते हैं कि हम हम उन्हें कैसे भूल सकते हैं, बल्कि मैं तो कहूँगा अपनी दृष्टिसे ही अपने प्रान्तका सर्वाङ्गपूर्ण इतिहास कि हमारा प्रान्त उन जैन विद्वानोंका सदैव ऋणी तैयार करवावें । आपने अपनी युद्धोतर योजनामें रहेगा जिन्होंने हमारे सांस्कृतिक तत्व सुरक्षित संशोधन सम्बन्धी भी एक योजना रखी है जिसपर . रखनेमें हमारी बड़ी मदद की। मैं यह चाहता हूँ भारत सरकारकी मंजूरी भी मिल गयी है. परन्तु उसे और आपसे प्रार्थना करता हूँ कि यदि आप स्वयं मूर्तरूप मिलनेमें पर्याप्त समयकी अपेक्षा है । आदर्श जैनसाहित्यमें विहार, नामक एक ग्रन्थ तैयार कर की सृष्टि करना उतना कठिन नहीं जितना उनको दें तो बड़ा अच्छा हो । हमारी सरकार इस कार्यमें मूर्तरूप देना कठिन है ।-प्रसंगवश मैने विहारकी हर तरहसे मदद करनेको तैयार है। सरकार ही संस्कृतिके बीज जैन-साहित्यमें पाये जानेकी चर्चाकी इसे प्रकाशित भी करेगी । हमारी तो वर्षोंकी 'तो उनका हृदय भर आया। मुखाकृति खिल उठी। मनोकामना है कि प्रत्येक धर्म और साहित्यकी इस समय आपने सद्भावनाओंसे उत्प्रेक्षित होकर दृष्टियों में हमारे प्रान्तका स्थान क्या है ? हम जाने जो शब्द जैन-साहित्यपर कहे उन्हें मैं सधन्यवाद और वर्तमानरूप देनेमें आवश्यक सहायता करें। उधृद्त किये देता हूं:
यदि आप अभी लेखन कार्य चालू करें तो "जैनसाहित्य बड़ा विशाल विविध विषयोंसे
४००) रुपये तक मासिक जो कुछ भी क्लर्क या समृद्ध है । अभी तक हमारे विहार प्रान्तके
सहायक विद्वान्का खर्च होगा, हम देंगे।" विद्वानोंने इस महत्वपूर्ण साहित्यपर समुचित ध्यान
- उपयुक्त शब्द बद्री बाबूके हृदयके शब्द हैं। इनमें नहीं दिया है। विहार प्रान्तके इतिहास और पॉलिश नहीं है । उनके शब्दोंसे मेरा उत्साह और भी संस्कृतिकी अधिकतर मौलिक सामग्री जैनसाहित्य- आगे बढ़ गया। मैने उपयुक्त शब्द इस लिए उद्धृत में ही सुरक्षित है । विशेषतः श्रमण भगवान
किये हैं कि हमारे समाजके विद्वान जरा ठंडे दिमारासे महावीर कालीन हमारे प्रान्तका सांस्कृतिक चित्र सोचें कि हमारे साहित्यमें कितनी महान निधियाँ जैसा जैनोंने अपने साहित्यमें अङ्कित कर रखा है भरी पड़ी हैं जिनका हमें ज्ञान तक नहीं और अजैन वैसा अजैन-साहित्यमें हर्गिज नहीं पाया जाता। लोग जैनसाहित्यको केवल विशुद्ध सांस्कृतिक दृष्टिसे साहित्य-निर्माण और संरक्षणमें जैनोंने बड़ी उदा- देखते हैं तो उन्हें बड़ा उपादेय प्रतीत होता है। वे रतासे काम लिया है। यदि हम जैनसाहित्यका मुग्ध हो जाते है। केवल सांस्कृतिक दृष्टिसे ही अध्ययन करें तो १०-१०-१९४८
मुनि कान्तिसागर
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SARASTRAKAREENAX
भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन
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१. महाबन्ध—(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग | हिन्दी टाका सहित मूल्य १२) ।
२. करलक्खण—(सामुद्रिक-शास्त्र) SN हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका
नवीन ग्रन्थ । सम्पादक--प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)।
३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा० । मू5)
४. जैनशासन—जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना। । हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ० ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४___५. हिन्दी जैन-साहित्यका संक्षिप्त
इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास PR तथा परिचय । मूल्य २)।
६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३॥)।
७. मुक्ति-दूत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाँस) मू० ४॥
८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)।
९. पथचिह्न-(हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक ) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)।
१०. पाश्चात्यतक शास्त्र-(पहला भाग) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी | पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४||)।
११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)।
१२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची–(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १३) ।
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वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं ।
प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुंण्ड रोड, बनारस ।
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________________ care situaska@res Regd. No. A-731 ஓவாஜா இவலைதா@mages शेर-ओ-शायरी [उर्दू के सर्वोत्तम 1500 शेर और 160 नज़्म] प्राचीन और वर्तमान कवियोंमें सर्वप्रधान लोक-प्रिय 31 कलाकारोंके मर्मस्पर्शी पोंका सङ्कलन और उर्दू-कविताकी गति-विधिका आलोचनात्मक परिचय प्रस्तावना-लेखक हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सभापति महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं “शेरोशायरी"के छ सौ पृष्ठोंमें गोयलीयजीने उर्दू - कविताके विकास और उसके चोटीके है कवियोंका काव्य-परिचय दिया / यह एक कवि-हृदय, साहित्य-पारखीके आधे जीवनके परिश्रम और साधनाका फल है। हिन्दीको ऐसे ग्रन्थोंकी कितनी आवश्यकता है, इसे कहनेकी आवश्यकता नहीं / उर्दू-कवितासे प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालोंके लिये इन बातोंका जानना अत्यावश्यक है। गोयलीयजी जैसे उर्दू-कविताके मर्मज्ञका ही यह काम था, जो कि इतने संक्षेपमें उन्होंने उर्दू "छन्द और कविता"का चतुमुखीन परिचय कराया / गोयलीयजीके संग्रहकी पंक्ति-पंक्तिसे उनकी अन्तर्दृष्टि और गम्भीर अध्ययनका परिचय मिलता है / मैं तो समझता हूँ इस विषयपर ऐसा ग्रन्थ वही लिख सकते थे।" RECORICADRAShreण्याCHORI कर्मयोगीके सम्पादक श्रीसहगल लिखते हैं "वर्षों की छानबीनके बाद जो दुर्लभ सामग्री श्रीगोयलीयजी भेंट कर रहे हैं इसका जवाब हिन्दी-संसारमें चिराग़ लेकर ढूँढनेसे भी न मिलेगा, यह हमारा दावा है।" arer OGRaGiaase सुरुचिपूर्ण मुद्रण, मनमोहक कपड़ेकी जिल्द पृष्ठ संख्या ६४०-मूल्य केवल आठ रुपए @RASAS भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, बनारस RarwasaSSERIESASTEREOGASERECGHSSION प्रकाशक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा राँयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित al Education Intemortal For Personal s ite Use Only