________________
साहित्य-परिचय और समालोचन
. १ भारतीय संस्कृति और अहिंसा-मूल पुस्तकके 'अवलोकन' (प्रस्तावना) में उसके लेखक लेखक, स्व. धर्मानन्द कोसम्बी । अनुवादक, पं० पं० सुखलालजीने उनके इस सन्देहका उचित समाविश्वनाथ दामोदर शोलापुरकर । प्रकाशक, हिन्दीग्रंथ- धान कर दिया है । अतः उस सम्बन्धमें यहाँ लिखना रत्नाकर कार्यालय बम्बई। मूल्य. दो रुपया। अनावश्यक है । लेखकने जो एक खास बातका उल्लेख
प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान स्व. कोसम्बीजीने यह किया है वह यह है कि जैन-तीर्थकर पावके पहले पुस्तक मराठीमें हिन्दू संस्कृति आणि अहिंसा' नाम अहिंसासे भरा हुआतत्त्वज्ञान नहीं था-उन्हींने उसका से लिखी थी। उसीका यह हिन्दी संस्करण है, जिसे उपदेश सुसम्बद्धरूपमें दिया था। लिखा हैहिन्दी भाषाभाषियोंके लाभार्थ हिन्दी-साहित्यके "पाश्वका धर्म बिल्कुल सीधा सादा था। हिंसा प्रसिद्ध सेवी और प्रकाशक पं.नाथरामजी प्रेमीने असत्य, स्तेय तथा परिग्रह इन चार बातोंके त्याग अपने स्वर्गीय पुत्र हेमचन्द्रकी स्मृतिमें हिन्दीग्रन्थ- करनेका वह उपदेश देते थे। इतने प्राचीनकालमें रत्नाकर कार्यालयद्वारा प्रकाशित किया है और जो अहिंसाको इतना सुसम्बद्धरूप देनेका यह पहला ही हेमचन्द्रमोदी-पुस्तकमालाका प्रथम पुष्प है। उदाहरण है। ___ प्रस्तुत पुस्तकमें भारतकी प्राचीन वैदिक, श्रमण . xxतात्पर्य यह है कि पावके पहले पृथ्वीपर
और पौराणिक इन तीन संस्कृतियों, उनके अङ्ग- सच्ची अहिंसासे भरा हुआ धर्म या तत्त्वज्ञान था ही नहीं। प्रत्यङ्गों, विविध मतों, अनेक मतप्रवर्तकों, राजनैतिक पाश्वं मुनिने एक और भी बात की। उन्होंने घटनाओं आदिपर ऐतिहासिक और स्वतन्त्र नई दृष्टि- अहिसाको सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीनों से विचार किया गया है। साथ ही पाश्चात्य संस्कृति नियमोंके साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो
और उसकी सामाजिक व्यवस्थापर प्रकाश डालते अहिंसा ऋषि-मुनियोंके आचरण तक ही थी और हुए भारतीय सामाजिक क्रान्ति और महात्मा गांधीकी जनताके व्यवहारमें जिसका कोई स्थान न.था. वह राजनीति, साम्राज्यके गुण-दोषोंपर विचार करके अब इन नियमोंके सम्बन्धसे सामाजिक एवं अहिंसाका प्राचीन और अर्वाचीन तुलनात्मक स्वरूप व्यावहारिक होगई। बतलाया है । अतएव पुस्तकको वैदिक-संस्कृति श्रम- पार्श्वमुनिने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन णसंस्कृति, पौराणिक-संस्कृति, पाश्चात्य-संस्कृति तथा धर्मके प्रचारके लिये उन्होंने संघ बनाये । बौद्ध संस्कृति और अहिंसा इन पाँच मुख्य विभागों- साहित्यसे इस बातका पता लगता है कि बुद्धके समय अध्यायोंमें रखा गया है। लेखकने अपने विशाल जो संघ विद्यमान थे उन सबोंमें जैन-साधु और अध्ययन और कल्पनाक आधारपर जहाँ इसमें साध्वियोंका संघ सबसे बड़ा था।" कितना ही स्पष्ट स्वतन्त्र विचार किया है वहाँ अनेक . पुस्तक नई दिशामें लिखी गई है और नये बातोंकी तीव्र आलोचना भी की है। जैनोंके ऋषभदेव विचारोंको लिये हुए है। अतः कितने ही पाठकोंके आदि २२ तीर्थङ्करोंके चरित, उनके शरीरकी ऊँचाई क्षोभका कारण बन सकती है। पर संशोधक और और जैन साधुसंघोंकी बृहद्रूपता आदिपर भी संदेह गुणज्ञ तटस्थ विचारकोंके लिये नूतन और निर्भीक व्यक्त किया है और उन्हें काल्पनिक बतलाया है। स्पष्ट विचार करनेकी एक नवीन दिशा प्रदर्शित करती
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org