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________________ ३३० ] अनेकान्त [ वर्ष ६ खरविषाणकी तरह अन्यत्व-अनन्यत्वादिके विकल्प 'यदि इसके विपरीत अन्वयहीन व्यावृत्तिसे ही नहीं बनते और इसलिए विकल्प उठाकर जो दोष · साध्य जो सामान्य उसको सिद्ध माना जाय तो वह दिये गये हैं उनके लिए अवकाश नहीं रहता-तो उस भी नहीं बनता-क्योंकि सवथा अन्वयरहित अतद्अवस्तुरूप सामान्यके अमेय होनेपर प्रमाणको व्यावृत्ति-प्रत्ययसे अन्यापोहकी सिद्धि होनेपर भी प्रवृत्ति कहाँ होती है ? अमेय होनेसे वह सामान्य उसकी विधिकी असिद्धि होनेसे-उस अर्थक्रियाप्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय नहीं रहता और रूप साध्यकी सिद्धिके अभावसे-उसमें प्रवृत्तिका इसलिए उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती।' विरोध होता है-वह नहीं बनती। और यह कहना (इस तरह दूसरोंके यहाँ प्रमाणाभावके कारण भी नहीं बनता कि दृश्य और विकल्प्य दोनोंके किसी भी सामान्यकी व्यवस्था नहीं बन सकती।) । एकत्वाऽध्यवसायसे प्रवृत्तिके होनेपर साध्यकी सिद्धि होती है; क्योंकि दृश्य और विकल्प्यका एकत्वाब्यावृत्ति-हीनाऽन्वयतो न सिद्धयद् ध्यवसाय असम्भव है । दर्शन उस एकत्वका अध्यविपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम्। वसाय नहीं करता; क्योंकि विकल्प्य उसका विषय अतद्व्युदासाऽभिनिवेश-वादः नहीं है। दर्शनकी पीठपर होनेवाला विकल्प भी उस एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता; क्योंकि दृश्य पराभ्युपेताऽथे-विरोध-वादः ॥५६॥ विकल्पका विषय नहीं है और दोनोंको विषय करनेवाला 'यदि साध्यको-सत्तारूपपर सामान्य अथवा कोई ज्ञानान्तर सम्भव नहीं है, जिससे एकत्वाद्रव्यत्वादिरूप अपरसामान्यको-व्यावृत्तिहीनअन्वय ध्यबसाय हो सके और एकत्वाध्यवसायके कारण से-असत्की अथवा अद्रव्यत्वादिकी व्यावृत्ति (जुदा- अन्वयहीन व्यावृत्तिमात्रसे अन्यापोहरूप सामान्यकी यगी)के बिना केवल सत्तादिरूप अन्वय हेतुसे-सिद्ध सिद्धि बन सके। इस तरह स्वलक्षणरूप साध्यको माना जाय तो वह सिद्ध नहीं होता क्योंकि विपक्ष- सिद्धि नहीं बनती।' व्यावृत्तिके विना सत-असत अथवा व्यत्व- 'यदि यह कहा जाय कि अन्वय और व्यावृत्ति अद्रव्यत्वादिरूप साधनोंके संकरसे सिद्धिका प्रसंग दोनोंसे हीन जो अद्वितयरूप हेतु है उससे सन्मात्रका आता है और यह कहना नहीं बन सकता कि जो प्रतिभास न होनेसे सत्ताद्वतरूप सामान्यकी सिद्धि सदादिरूप अनुवृत्ति (अन्वय) है वही असदादिकी होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा व्यावृत्ति है; क्योंकि अनुवृत्ति (अन्वय) भाव-स्वभाव- अद्वितयकी मान्यतापर साध्य-साधनकी भेदसिद्धि रूप और व्यावृत्ति अभाव-स्वभावरूप है और दोनोंमें नहीं बनती और भेदकी सिद्धि न होनेपर साधनसे भेद माना गया है। यह भी नहीं कहा जा सकता साध्यकी सिद्धि नहीं बनती और साधनसे साध्यका कि सदादिके अन्वय पर असदादिककी व्यावृत्ति सिद्धिके न होनेपर अद्वितय-हेतु विरुद्ध पड़ता है।' सामर्थ्यसे ही हो जाती है; क्योंकि तब यह कहना नहीं यदि अद्वितयको संवित्तिमात्रके रूपमें मानकर बनता कि व्यावृत्तिहीन अन्वयसे उस साध्यकी सिद्धि असाधनव्यावृत्तिसे साधनको और असाध्यव्यावृत्तिसे होती है, सामर्थ्यसे असदादिककी व्यावृत्तिको सिद्ध साध्यको अतव्युदासाभिनिवेशवादके रूपमें आश्रित माननेपर तो यही कहना होगा कि वह अन्वयरूप किया जाय तब भो (बौद्धोंके मतमें) पराभ्युपेतार्थके हेतु असदादिकी व्यावृत्तिसहित है, उसीसे सत्सा- विरोधवादका प्रसङ्ग आता है; अर्थात् बौद्धोंके द्वारा मान्यकी अथवा द्रव्यत्वादि सामान्यकी सिद्धि होती संवेदनाद्वैतरूप जो अर्थ पराभ्युपगत है वह अतद्है। और इसीलिए उस सामान्यके सामान्य विशेषा- व्युदासाभिनिवेशवादसे-अतव्यावृत्तिमात्र आग्रहख्यत्वकी व्यवस्थापना होती है।' वचनरूपसे-विरुद्ध पड़ता है; क्योंकि किसी असाधन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527259
Book TitleAnekant 1948 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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