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किरण ]
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
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तथा असाध्यके अर्थाभावमें उनकी अव्यावृत्तिसे निशायितस्तैः परशुः परघ्नः साध्य-साधन-व्यवहारकी उपपत्ति नहीं बनती और
स्वमूर्ध्नि निर्भेद-भयाऽनभिज्ञैः । उनको अर्थ माननेपर प्रतिक्षेपका योग्यपना न होनेसे द्वैतकी सिद्धि होती है। इस तरह बौद्धोंके पूर्वाभ्युपेत
वैतण्डिकैयः कुसृतिः प्रणीता अर्थके विरोधवादका प्रसङ्ग आता है।'
मुने ! भवच्छासन-दृक-प्रमूढः ॥५८॥ अनात्मनाऽनात्मगतेरयुक्ति
"(इस तरह) हे वीर भगवन् ! जिन वैतण्डिकोंने
-परपक्षके दूषणकी प्रधानता अथवा एकमात्र धुनको वस्तुन्ययुक्त यदि पक्ष-सिद्धिः।
लिये हुए संवेदनाद्वैतवादियोंने-कुमृतिका-कुत्सिता अवस्त्वयुक्त प्रतिपक्ष-सिद्धिः गति-प्रतीतिका-प्रणयन किया है उन आपके न च स्वयं साधन-रिक्त-सिद्धिः ॥५७॥ (स्याद्वाद) शासनकी दृष्टिसे प्रमूढ एवं निर्भेदके भयसे
अनभिज्ञ जनोंने (दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके (यदि बौद्धोंके द्वारा यह कहा जाय कि वे साधन- का
कारण) परघातक परशु-कुल्हाड़ेको अपने ही मस्तकपर को अनात्मक मानते हैं. वास्तविक नहीं और साध्य मारा है !! अर्थात जिस प्रकार दूसरेके घातके लिये
भी वास्तविक नहीं है, क्योंकि वह संवृतिक द्वारा उठाया हुआ कुल्हाड़ा यदि अपने ही मस्तकपर पड़ता . कल्पिताकाररूप है. अतः पराभ्युपेतार्थ के विरोधवाद- है तो अपने मस्तकका विदारण करता है और उसको का प्रसङ्ग नहीं आता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; उठाकर चलानेवाले अपने घातके भयसे अनभिज्ञ क्योंकि ) अनात्मा-निःस्वभाव संवृतिरूप तथा कहलाते हैं उसी प्रकार परपक्षका निराकरण करने असाधनकी व्यावृत्तिमात्ररूप-साधनके द्वारा उसा वाले वैतण्डिकोंके द्वारा दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त प्रकारके अनात्मसाध्यकी जो गति-प्रतिपत्ति (जान- होने के कारण जिस न्यायका प्रणयन किया गया है वह कारी) है उसकी सर्वथा अयुक्ति-अयोजना है-वह अपने पक्षका भी निराकरण करता है और इस लिये बनती ही नहीं।'
उन्हें भी स्वपक्षघातके भयसे अनभिज्ञ एवं हकप्रमृढ ____ यदि (संवेदनाद्वैतरूप) वस्तुमें अनात्मसाधनके समझना चाहिये।' द्वारा अनात्मसाध्यकी गतिकी अयुक्तिसे पक्षकी सिद्धि
भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मों मानी जाय-अर्थात् संवेदनाद्वैतवादियों के द्वारा यह
भावान्तरं भाववदहतस्ते । कहा जाय कि साध्य-साधनभावसे शून्य संवेदनमात्रके पक्षपनेसे ही हमारे यहाँ तत्त्वसिद्धि है. तो (विकल्पि. प्रमीयते च व्यपदिश्यते च. ताकार) अवस्तुमें साधन-साध्यकी अयुक्तिसे प्रति- वस्तु-व्यवस्थाऽङ्गममेयमन्यत् ॥५९॥ पक्षकी-द्वैतकी-भी सिद्धि ठहरती है। अवस्तुरूप (यदि यह कहा जाय कि साधनके विना साध्य. साधन अद्वैततत्त्वरूप साध्यको सिद्ध नहीं करता है; की स्वयं सिद्धि नहीं होती' इस वाक्यके अनुसार क्योंकि ऐसा होनेसे अतिप्रसङ्ग आता है-विपक्षकी संवेदनाद्वैतकी भी सिद्धि नहीं होती तो मत हो, भी सिद्धि ठहरती है।
परन्तु शून्यतारूप सर्वका अभाव तो विचारबलसे . 'और यदि साधनके विना स्वतः ही संवेदना- प्राप्त हो जाता है. उसका परिहार नहीं किया जा द्वैतरूप साध्यकी सिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नहीं सकता अतः उसे ही मानना चाहिये' तो यह कहना है क्योंकि तब पुरुषाद्वैतकी भी स्वयं सिद्धिका प्रसङ्ग भी ठीक नहीं है; क्योंकि) हे कीर अर्हन् ! आपके श्राता है, उसमें किसी भी बौद्धको विप्रतिपत्ति नहीं मतमें अभाव भी वस्तुधर्म होता है-बाह्य तथा हो सकती।'
आभ्यन्तर वस्तुके असम्भव होनेपर सर्वशून्यतारूप
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पचवस्तुधी
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