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तदभाव सम्भव नहीं हो सकता; क्योंकि स्वधर्मी के सम्भव होनेपर किसी भी धर्मकी प्रतीति नहीं बन सकती । अभावधर्मकी जंब प्रतीति है तो उसका कोई
अनेकान्त
(तर पदार्थ) होना ही चाहिये, इस लिये सर्वशून्यता घटित नहीं हो सकती । सर्व ही नहीं तो सर्व शून्यता कैसी ? तत् ही नहीं तो तदभाव कैसा ? अथवा भाव ही नहीं तो अ-भाव किसका ? इसके सिवाय, यदि वह अभाव स्वरूपसे है तो उसके वस्तुधर्मत्वकी सिद्धि है; क्योंकि स्वरूपका नाम ही वस्तुधर्म है । अनेक धर्मोमेंसे किसी धर्मके अभाव होनेपर वह अभाव धर्मान्तर ही होता है और जो धर्मान्तर होता है वह कैसे वस्तुधर्म सिद्ध नहीं होता ? होता ही है। यदि वह अभाव स्वरूपसे नहीं है तो वह अभाव ही नहीं है; क्योंकि अभावका भाव होनेपर भावका विधान होता है । और यदि वह अभाव (धर्मका अभाव न होकर) धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है - जैसे कि कुम्भका जो अभाव है वह भूभाग है और वह भावान्तर ( दूसरा पदार्थ ) ही है, यौगमतकी मान्यताके अनुसार सकल शक्ति - विरहरूप तुच्छ नहीं है । सारांश यह कि प्रभाव यदि धर्मका है तो वह धर्मकी तरह धर्मान्तर होने से वस्तुधर्म है और यदि वह धर्मीका है तो वह भावकी तरह भावान्तर ( दूसरा धर्मी) होनेसे स्वयं दूसरी वस्तु है - उसे सकलशक्ति - शून्य तुच्छ नहीं कह सकते। और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है, व्यपदिष्ट किया जाता है और वस्तु - व्यवस्था के अङ्गरूपमें निर्दिष्ट किया जाता है । '
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[ वर्ष ह
( यदि धर्म अथवा धर्मी के अभावको किसी प्रमाणसे नहीं जाना जाता तो वह कैसे व्यवस्थित होता है ? नहीं होता । यदि किसी प्रमाणसे जाना जाता है तो वह धर्म-धर्मी के स्वभाव-भावकी तरह वस्तुधर्म अथवा भावान्तर हुआ। और यदि वह अभाव व्यपदेशको प्राप्त नहीं होता तो कैसे उसका प्रतिपादन किया जाता है ? उसका प्रतिपादन नहीं बनता । यदि व्यपदेशको प्राप्त होता है तो वह वस्तुधर्म अथवा वस्त्वन्तर ठहरा, अन्यथा उसका व्यपदेश नहीं बन सकता । इसी तरह वह अभाव यदि वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग नहीं तो उसकी कल्पनासे क्या नतीजा ?' घटमें पटादिका अभाव है' इस प्रकार पटादिके परिहार द्वारा अभावको घट-व्यवस्थाका कारण परिकल्पित किया जाता है; अन्यथा वस्तुमें सङ्कर दोषका प्रसङ्ग आता है - एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप भी कहा जा सकता है, जिससे वस्तुकी कोई व्यवस्था नहीं रहती - अतः अभाव वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग है और इस लिये भावकी तरह वस्तुधर्म है ।)
'जो अभाव-तत्त्व (सर्वशून्यता) 'वस्तु-व्यवस्थाका अङ्ग नहीं है वह (भाव-एकान्तकी तरह) अमेय (अप्रमेय) ही है - किसी भी प्रमाणके गोचर नहीं है।'
( इस तरह दूसरोंके द्वारा परिकल्पित वस्तुरूप या अवस्तुरूप सामान्य जिस प्रकार वाक्यका अर्थ नहीं बनता उसी प्रकार व्यक्तिमात्र परस्पर-निरपेक्ष उभयरूप सामान्य भी वाक्यका अर्थ नहीं बनता; क्योंकि वह सामान्य अमेय है - सम्पूर्ण प्रमाणों के विषयसे अतीत है अर्थात किसी प्रमाणसे उसे जाना नहीं जा सकता । )
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