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मूर्ति-कला (लेखक- श्रीलोकपाल')
स्थापत्य या मूर्तिकलाने जैनमूर्तियोंमें अपने चरम पूछनेपर उन्होंने भी कुछ संतोष-जनक उत्तर नहीं उत्कर्षको पाया है। बौद्धमूर्तियोंको देखनेपर भी कुछ दिया या कुछका कुछ दे दिया। शास्त्रोंका ज्ञान मेरा बहुत ऐसा ही भास होता है। पर जैन और बौद्धमूर्तियोंमें ही कम नहींके बराबर है। पर अब जबसे मैंने इधर एक सूक्ष्म,पर बड़ा भारी भेद है, जिसकी पूर्ण महत्ता दो चार सप्ताहोंसे चित्रों या मूर्तियोंपर लिखना तो वही बतला सकता है जो मूर्तिकलाका ज्ञाता होनेके आरम्भ कर दिया तब बातें अपने आप बहुत कुछ साथ ही साथ मनोविज्ञानका भी ज्ञाता हो और यदि साफ होती जाती है। पूरा विवरण-Details तो दर्शनमें भी दखल रखता हो तो फिर पूछना ही क्या मैं नहीं जानता, न उनका ब्योरेवार कारण ही जान है। मैं तो तीनोंमेंसे कोई भी नहीं जानता। यों ही बुद्धि- पाया हूँ पर अपनी विचार-प्रणालीपर चलते हुए मैंने पर जोर देनेसे मैं जो कुछ समझ सका हूँ उसी बूतेपर यह देखा है कि इन जैनमूर्तियोंपर अङ्कित एक-एक वह सब कुछ है जो मैंने लिखा है या लिखता हूँ। रेखा या बनावटका मतलब है-और यह सब कुछ बुद्धकी मूर्तियोंको देखनेसे यही ज्ञात होता है कि बुद्ध संयोगवश नहीं बल्कि बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक जानकिसी बड़े ही गम्भीर, गम्भीरतर या गम्भीरतम कारीके साथ ही की गई है-जैसे शिरोपरि, कान, विचारमें लीन हैं। कोई बात सोच रहे हैं-विचार वक्ष या हाथके ऊपरकी जो बनावटें हैं वे सब मूर्तिकी रहे हैं। इस तरह इनका मानसिक स्तरपर होना भव्यता, मज़बूती वगैरहसे सम्बन्धित होते हुए भी जाहिर होता है। जबकि जैनमर्तियोंमें जो मद्रा या गूढ मनोवैज्ञानिक महत्व रखती हैं। भाव अङ्कित हैं उनसे यही दीखता है कि जिनेन्द्र सचमुच ही यथाविधिरूपसे बनी हुई जैनमूर्तियों(तीर्थङ्कर) ध्यानमग्न या परम निर्विकार ध्यानमें लीन में 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का सच्चा समन्वय एवं हैं। इससे जैनमूर्तियाँ मानसिक स्तरसे निकाल कर दिग्दर्शन होता है-Plain living and high
आध्यात्मिक या आत्मिक ऊँचे स्तरपर पहुँचा दी गई thinking-अतिसरल स्वाभाविक सुन्दर मूर्ति है। इस तरह बुद्धकी मूर्तियाँ जब विचार-मुद्रा प्रद- और ऊँचेसे ऊँचे भाव उनपर अङ्कित होना ही र्शित करती हैं तब जैन मूर्तियाँध्यान-मुद्रा। इसध्यान- 'सत्यं शिवं सुन्दरम्'को साबित कर दिखलाते हैं जो में भी और ध्यानोंसे विशेषता है । ये मुद्राएँ ही और कहीं नहीं मिलता। अपूर्णता (अपूर्णज्ञान) और पूर्णता (पूर्णज्ञान एवं. बनारसके भेलू पुराके बड़े मन्दिर में मैंने एक मूर्तिनिर्विकारता)की द्योतक जान पड़ती हैं। इतना ही को देखा जिसमें प्राचीन परिपाटीसे हटनेकी चेष्टा की नहीं, मूर्तिमें क्या बात होनेसे उसका दर्शकके ऊपर गई है। मूर्ति विशेषरूपसे मानवाकृतिकी साधारण गम्भीर, स्थायी एवं गुरु (Serious) प्रभाव पड़ तौरसे बनाई गई है. जिसमें साधारण मानवसे जहाँ संकता है या पड़ेगा इसका भी हर तरहका खयालं तक हो सके सदृशता लानेकी कोशिश की गई है। या अचूक सूक्ष्म ध्यान रखा गया है। जैनमूर्तियोंके सिर या मस्तकके ऊपरकी बनावट या और सब बारेमें सोचनेपर अक्सर ही मैं उनपर अङ्कित कई Extra-अधिक चीजोंको निकाल दिया गया है। बातोंका कुछ मतलब नहीं लगा पायां हूं। लोगोंसे मैं जब भी उस मूर्तिके दर्शन करता तभी यह प्रश्न
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