________________
३३४ ]
मेरे मनमें बराबर उठता रहा कि क्यों इस मूर्तिका असर या प्रभाव मेरे ऊपर नहीं पड़ता जो पड़ना चाहिये। यह मैं सोचता हूं कि कोई मनोवैज्ञानिक कारण है — और उसी वजहसे हमारे पूर्वजोंने अपनी मूर्तियाँ बनवानेमें हर बातका हरएक रेखा - लाइनपर मुद्राको अङ्कित करनेमें इस मनोवैज्ञानिक जरूरत या आवश्यकताका बराबर ध्यान रखा है कि मूर्तिका प्रभाव जैसा पड़ना चाहिये या जिस कामको या मतलबको सम्पादन करनेके लिये मूर्तिका निर्माण हुआ है वह पूर्णरूपसे पूरा हो, जो केवल सीधा सादेरुपसे एक आदमीकी मूर्ति ज्योंका त्यों बना देनेसे नहीं होता था । बड़ी मूर्तियों और छोटी मूर्तियोंमें एवं धातुकी मूर्तियोंमें और पत्थर की मूर्तियोंमें फिर उनके रङ्गोंके कारण प्रभाव, असर तथा बनावटमें थोड़ा अन्तर हो सकता है - और पाया जाता है । पर उसमें भी नयाल रखा गया है कि स्वाभाविकतासे अलग जाना कमसे कम हो और मानसिक प्रभाव उसका ऐसा हो कि स्वाभाविकता का ही भान हम मूर्तिसे करें । बल्कि साधारण तौरसे मूर्ति बना देनेसे उसका असर जो पड़ता उसमें उतनी स्वाभाविकता - का भाव नहीं होता। और भी जो बड़ा भारी महान् भाव हमारे भीतर पैदा करना तथा मूर्तिपर दिखलाना था वह तो उसी तरीकेसे हो सकता था जैसा कि हम अपनी मूर्तियोंपर देखते हैं— अन्यथा सम्भव नहीं हैं । हाँ, ये सब बातें दिगम्बर मूर्तियों के सम्बन्ध में हैं। मालूम होता है कि जैनियोंने जब देखा कि लोग दिगम्बरका ठीक ठीक महत्व या मतलब नहीं समझते एवं उसका मखौल तक उड़ाते हैं तब उनमेंसे कुछ ऐसोंने ही जो जैनोंकी संख्या कम होना नहीं पसन्द करते थे श्वेताम्बर मूर्तियोंको प्रचलित किया । पर ध्यानके वास्ते और निर्विकार ध्यान या मुद्राके वास्ते दिगेम्बर मूर्तियाँ ही सर्वश्रेष्ठ हैं । बुद्धकी मूर्तियोंमें विचार- मुद्रा होनेसे वे सांसारिक अवस्था में मनके आधारपर रहते हैं, जबकि जिनेन्द्रकी मूर्तियोंमें
Jain Education International
अनेकान्त
[ वर्ष.
ध्यानमुद्रा होनेसे वे सांसारिक और मनके आधार अलग ऊपर उठ जाते हैं । बुद्धकी मूर्तियोंमें सांसारिकता तो छूटी रहती है पर संसार अभी रहता है। जबकि जैनमूर्तियोंमें सांसारिकता और संसार दोनोंसे अलग ऊपर भाव हो जाते हैं। चित्रकला के ज्ञाता यदि निष्पक्ष ( Unbiased) होकर जैनमूर्तियोंका मन करें तो उन्हें बड़ी भारी जानकारीका लाभ होगा। ब्राह्मणधर्मने तो मूर्तिकलाको दिनपर दिन नीचे ही उतारा है । वहाँ तो मूर्ति में केवल सौष्ठव और श्रीडम्बरको ही स्थान दिया है- ध्यानसे कोई सम्बंध ही नहीं - और 'निर्विकार' होना तो बड़ी दूरी बात है । दिनपर दिन हमारी मूर्तिकलाका ह्रास होता गया है और जो कुछ भी हम देखते हैं वह विकृत, अन्यथामार्ग या गलत रास्तेपर चला हुआ हो गया है। इसे सुधारनेके लिये धार्मिक मनोभावनाओं को एवं धर्मान्धता को दूर करना होगा तभी वह सम्भव है । आज तो हमने बुद्धि और तर्क से तर्केमवालात' कर रखा है या उन्हें धर्मका दुश्मन बना दिया है। जब तक इनमें आपस में मेल, सहयोग एवं अतिनिकट सम्बन्ध या एकता नही स्थापित होती तब तक कुछ सुधार होना तथा भारतकी उन्नतिका होना स्थायी नहीं हो सकता । दो-चार नेता कर ही क्या सकते हैं ? वे आगे बढ़ेंगे - देशको आगे बढ़ावेंगे, पीछेसे धर्मान्धलोग उन्हें उनकी टाँगोंको पकड़कर खींच लेंगे — क्योंकि उन्हें बुद्धिसे तो कोई सरोकार (प्रयोजन) है ही नहीं। और संसार में सक्रिय प्रभाव-शक्ति या स्थायी जो कुछ भी हो सकता है वह बुद्धिसे ही हो सकता है। बाकी तो सब कुछ भ्रमपूर्ण - विकृत - उल्टापलटा एवं गलत ही हैचाहे भले ही हम अपनी बहुक या घमण्ड में या अज्ञानता में उसे ही ठीक सीधा या सही मानते रहें । पर फल तो हमारे मानने के ऊपर निर्भर नहीं करता वह तो वस्तुस्वभावपर एवं तथ्य, तत्त्व या सत्यपर ही निर्भर करता है ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org