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मेरी द्रव्यपूजा
कृमि - कुल-कलित नीर है, जिसमें मच्छ कच्छ मेंडक फिरते, हैं मरते औ' वहीं जनमते, प्रभो ! मलादिक भी करते । दूध निकालें लोग छुड़ाकर बच्चेको पीते पीते, उच्छिष्ट- अनीतिलब्ध. यों योग्य तुम्हारे नहिं दीखें ॥ १ ॥ दही - घृतादिक भी वैसे हैं कारण उनका दूध यथा; फूलोंको भ्रमरादिक सूँघें, वे भी हैं उच्छिष् दीपक तो पतङ्ग - कालाऽनल जलते जिनपर कीट सदा; त्रिभुवनसूर्य ! आपको अथवा दीप दिखाना नहीं भला ॥ २ ॥ फल- मिष्टान्न अनेक यहाँ, पर उनमें ऐसा एक नहीं, मल- प्रिया मक्खीने जिसको आकर, प्रभुवर ! छुआ नहीं । यों अपवित्र पदार्थ, अरुचिकर, तू पवित्र सब गुणघेरा; किस विधि पूजूँ ? क्या हि चढ़ाऊँ ? चित्त डोलता है मेरा ॥ ३ ॥ औ' आता ध्यान, 'तुम्हारे क्षुधा तृषाका लेश नहीं, नाना रस-युत अन्न-पानका, अतः प्रयोजन रहा नहीं । नहिं वांछा, न विनोद-भाव, नहिं राग- अंशका पता कहीं, इससे व्यर्थ चढ़ाना होगा, औषध-सम, जब रोग नहीं' ।। ४ ।। यदि तुम कहो ' रत्न-वस्त्रादिक - भूषण क्यों न चढ़ाते हो. अन्यसदृश, पावन हैं, अर्पण करते क्यों सकुचाते हो' । तो तुमने निःसार समझ जब खुशी खुशी उनको त्यागा, हो वैराग्य- लीन-मति, स्वामिन्! इच्छाका तोड़ा तागा ॥ ५ ॥ तब क्या तुम्हें चढ़ाऊँ वे ही, करूँ प्रार्थना ' ग्रहण करो' ? होगी यह तो प्रकट अज्ञता तव स्वरूपकी सोच करो । मुझे धृष्टता दीखे अपनी और अश्रद्धा बहुत बड़ी. हेय तथा संत्यक्त वस्तु यदि तुम्हें चढ़ाऊँ घड़ी घड़ी ।। ६ ।। इससे 'युगल' हस्त मस्तकपर रखकर नम्रीभूत हुआ, भक्ति-सहित मैं प्रणमूँ तुमको, बारबार, गुण- लीन हुआ । संस्तुति शक्ति-समान करूँ औ' सावधान हो नित तेरी; काय - वचनकी यह परिणति ही अहो ! द्रव्यपूजा मेरी ॥ ७ ॥ भाव-भरी इस पूजासे ही होगा आराधन तेरा. होगा तव - सामीप्य प्राप्त औ' सभी मिटेगा जग - फेरा ॥ तुझमें मुझमें भेद रहेगा नहिं स्वरूपसे तब कोई, ज्ञानानन्द - कला प्रकटेगी, थी अनादिसे जो खोई ॥ ८ ॥ वरसेवामन्दिर, सरसावा जुगल किशोर मुसतार
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