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अनेकान्त
ज्येष्ठ, संवत् २००५ :: जून, सन् १९४८
संस्थापक-प्रवर्तक
वीर सेवामन्दिर, सरसावा
सम्पादक - मंडल
जुगलकिशोर मुख्तार
प्रधान सम्पादक
मुनि कान्तिसागर
दरबारीलाल न्यायाचार्य
अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (बिहार)
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वर्ष ६
किरण ६
सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
सुखका उपाय (आर्या )
जगके पदार्थ सारे वर्तै इच्छाऽनुकूल जो तेरी । तो तुझको सुख होवे, पर ऐसा हो नहीं सकता ॥ १ ॥ क्योंकि, परिणमन उनका शाश्वत उनके अधीन ही रहता । जो निज अधीन चाहे वह व्याकुल व्यर्थ होता है ॥ २ ॥ इससे उपाय सुखका, सच्चा, स्वाधीन-वृत्ति है अपनी । राग-द्वेष-विहीना, क्षण में सब दुःख हरती जो ॥ ३ ॥
—युगवीर
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विषय - सूची
विषय
१ बुढ़ापा (कविता) - [ कवि भूधरदास
२ षडावश्यक - विचार - [प्र० सम्पादक
३ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने, युक्त्तयनुशासन - [ सम्पादकय ४ अहिंसा-तत्त्व - [ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य ५. पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजीके हृदयोद्गार - [पं० दरबारीलाल कोठिया ६ रावण- पार्श्वनाथकी अवस्थिति - [ अगरचन्द नाहटा ७ वीरशासन- जयन्तीका पावन पर्व - [पं० दरबारीलालजी कोठिया शृंगेरिकी पार्श्वनाथ- वस्तीका शिलालेख - [ बा० कामताप्रसाद जैन ९ जैनपुरातन अवशेष (विहङ्गावलोकन ) - ( मुनि कान्तिसागर १० सम्पादकीय – [ अयोध्याप्रसाद गोयलीय
११ युगके चरण अलख चिर-चखल ( कविता ) - [ ' तन्मय' बुखारिया
वीर-शासन - जयन्तीका वार्षिकोत्सव समारोह
मुरार [ग्वालियर ] में
सम्पूर्ण जैन समाजको यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी इतिहास प्रसिद्ध पुण्य तिथि से सम्बद्ध भारतीय पावनपर्व 'वीर-शासनजयन्ती' का – भगवान महावीरके सर्वोदय - तीर्थप्रवर्तन-दिवसका – वीरसेवामन्दिर द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव इस वर्ष मुरार ( ग्वालियर) में पूज्य क्षुल्लक श्रीगणेशप्रसादजी वर्णी ( न्यायाचार्य ) की • अध्यक्षता में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा व द्वितीया तारीख २२-२३ जुलाई सन् १९४८ को बृहस्पतिवार तथा शुक्रवार के दिन विशेष समारोहके साथ मनाया जायगा । उत्सव की तैयारियाँ बड़े उत्साह के साथ प्रारम्भ होगई हैं।
इस बार वर्गीजीकी इच्छानुसार विश्वकी शान्ति और समुन्नतिको लक्ष्य में रखकर वीर - शासन के प्रचार और प्रसारादि सम्बन्धी अच्छा ठोस एवं स्थायी कार्य किया जानेको है ।
समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों, श्रीमानों तथा
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सरसावा ५-७-४८
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शासन सेवा के कार्यों में रस लेने वाले सभी सज्जनोंके पधारने की पूर्ण आशा है । वर्गीजी जैसे सन्त पुरुषके नेतृत्व में मनाया जाने वाला यह उत्सव अपनी खास विशेषता रखता है । छातः सर्वसज्जनोंसे सानुरोध निवेदन है कि आप इस शुभ अवसर पर अवश्य ही मित्रों सहित पधारनेकी कृपा करें और अपने इस सर्वातिशायी पावन पर्वको यथेष्ट रूपमें मनाने के लिये अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करते हुए इस संस्थाको आभारी बनायें । उत्सव में अपने पधारने के समयादिकी सूचना - 'संयोजक स्वागतकारिणी कमेटी, ठि० सेठ गुलाबचन्द गणेशीलालजी जैनका बगीचा पोस्ट मुरार ( ग्वालियर)' के पतेपर देनी चाहिए, जिससे समयपर ठहरने आदिकी सब योग्य व्यवस्था हो सके ।
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निवेदकजुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता, वीरसेवामन्दिर
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ॐ अहम्
वस्ततत्त्व-सघातक
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वाषिक मूल्य ५)
MOTI
एक किरणका
NIA नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।।
| परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
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वर्ष ९ किरण ६
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), सरसावा, जिला सहारनपुर ज्येष्ठ शुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत् २००५
जून १९४८
बुढ़ापा बालपनै बाल रह्यो पीछे गृहभार बह्यो, लोकलाज-काज बांध्यो पापनको ढेर है। अपनो अकाज कीनों लोकनमें जस लीनों, परभौ विसार दीनों विषै वश जेर है॥ ऐसे ही गई विहाय अलप-सी रही आय, नर-परजाय यह आँधेकी बटेर है । आये सेत भैया ! अब काल है अवैया, अहो ! जानी रे सयाने तेरे अजौं हूँ अँधेर है ॥११॥
बालपनै न सँभार सक्यो कछु, जानत नाहिं हिताऽहित ही को ।. यौवन वैस वसी वनिता उर, कै नित राग रह्यो लछमीको । यों पन दोइ विगोइ दये नर, डारत क्यों नरकै निज-जीको ।
आये हैं सेत अजौं शठ ! चेत, “गई सुगई अब राख रहीको" ॥२॥ सार नर देह सब कारजको जोग येह, यह तो विख्यात बात वेदनमें बँचै है । तामें तरुनाई धर्म-सेवनको समै भाई, सेये तब विषै जैसे माखी मधु रचै है ।। मोह-महामद-भोये धन-रामा-हित रोज रोये, यों ही दिन खोये खाय कोदों जिम मचे है । अरे सुन बौरे ! अब आये सीस धौरे, अजौं सावधान हो रे नर नरकसों बचै है॥३॥
-कवि भूधरदास
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V 0930-00-o SIMILYANVallhalvaliBlhalalalalalaLY avaiyalal
षडावश्यक-विचार [यह प्रन्थ भी कैराना जिला मुज़फ्फरनगरके बड़े मन्दिरकी उसी षट्पत्रात्मक ग्रन्थ-प्रतिपरसे उपलब्ध हुअा है जिसपरसे गत किरणमें प्रकाशित 'परमात्मराज-स्तोत्र' और उससे पहलेकी किरणोंमें प्रकाशित 'स्वरूप-भावना' और 'रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' उपलब्ध हुए थे और जिन सबको २० जनवरी सन् १९३३को नोट किया गया था। यह नव पद्योंका एक प्रकरण-ग्रन्थ है, जिनमेंसे पहले पद्यमें छह
आवश्यकोंके १ सामायिक, २ स्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान और ६ कायोत्सर्ग नाम देकर लिखा है कि इन क्रियाओंमें जो नीव वर्तमान होता है उसके संवर होता है-कर्मोंका श्रात्मामें अानाबंधना रुकता है । इसके बाद छह पद्योंमें छहों आवश्यकोंका आध्यात्मिक दृष्टिसे अच्छा सुन्दर स्वरूप दिया है, जो सहज-बोध-गम्य है। आठवें पद्यमें बतलाया है कि 'निजात्मतत्त्वमें अवस्थित हुअा जो योगी निरालस्य होकर (पूर्ण तत्परताके साथ) इस प्रकारसे षडावश्यक करता है उसके पापोंकी रोक होती हैपापासव रुकता है। अन्तके हवें पद्यमें उन चिह्नोंका निर्देश किया है जो ठीक अर्थमें षडावश्यक करने वालोंमें प्रकट होते हैं और वे हैं १ कालक्रमसे उदासीनता, २ उपशान्तता और ३ सरलता । मालूम नहीं इस प्रकरणके रचयिता कौन महानुभाव हैं । जिन विद्वानोंको इस विषयमें कुछ मालूम हो उन्हें उसको प्रकट करना चाहिए ।
-सम्पादक] सामायिके' स्तवे भत्तया वन्दनायां' प्रतिक्रमे । प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः ॥ १॥ यत्सर्व-द्रव्य-सन्दर्भ-रागद्वेष-व्यपोहनम् । आत्म-तत्त्व-निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ॥२॥ रत्नत्रयमयं शुद्धं चेतनं चेतनात्मकम् । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवज्ञैः स्तूयते स्तवः ॥ ३ ॥ पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयमुत्तमम्
। आत्मानं वन्दमानस्य वन्दनाऽकथि कोविदैः ॥ ४ ॥ कृतानां कर्मणां पूर्व सर्वेषां पाकमीयुषाम् । आत्मीयत्व-परित्यागः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ५ ॥ अगम्यागो-निमित्तानां भावानां प्रतिषेधनम् । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्ताऽऽत्माऽवलोकिभिः ॥ ६ ॥ ज्ञात्वा योऽचेतन कायं नश्वरं कर्म-निर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति सः ॥ ७ ॥ यः षडावश्यकं योगी स्वात्म-तत्त्व-व्यवस्थितः । अनालस्यः करोत्येवं संवृतिस्तस्य रेफसाम ॥८॥ कालक्रमव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जवम् । विज्ञेयानीति चिह्नानि षडावश्यककारिणाम् ॥ ९॥
नवपद्यानि षडावश्यक विचारस्य ।
विविक्तं स्तशुद्धं चेतनायकमुच्यते ।
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समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
सामान्य-निष्ठा विविधा विशेषाः पदं विशेषान्तर-पक्षपाति । होता, उसकी दूसरे विशेषों-पर्यायोंमें उपलब्धि देखी अन्तर्विशेषान्तर-वृत्तितोऽन्यत्समानभावं नयते विशेषम् ॥४० जाती है और इससे सामान्यका सर्व विशेषोंमें निष्ठ
(७वीं कारिकामें 'अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वं' इस होना भी बाधित पड़ता है । फलतः दोनोंको निरपेक्ष वाक्यके द्वारा यह बतलाया गया है कि वीरशासनमें रूपसे परस्परनिष्ठ मानना भी बाधित है, उसमें वस्तुतत्त्वको सामान्य-विशेषात्मक माना गया है, तब दोनोंका ही अभाव ठहरता है और .वस्तु आकाशयह प्रश्न पैदा होता है कि जो विशेष हैं वे सामान्यमें कुसुमके समान अवस्तु होजाती है।' निष्ठ (परिसमाप्त) हैं या सामान्य विशेषोंमें निष्ठ है
___(यदि विशेष सामान्यनिष्ठ हैं तो फिर यह शङ्का अथवा सामान्य और विशेष दोनों परस्परमें निष्ठ हैं ? इसका उत्तर इतना ही है कि) जो विविध विशेष
उत्पन्न होती है कि वर्णसमूहरूप पद किसे प्राप्त हैं वे मब सामान्यनिष्ठ हैं-अर्थात् एक द्रव्यमें रहने
करता है-विशेषको, सामान्यको, उभयको या अनुवाले क्रमभावी और सहभावीके भेद-प्रभेदको लिये
भयको अर्थात इनमेंसे किसका बोधक या प्रकाशक
होता है ? इसका समाधान यह है कि) पद जो कि हुये जो परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप नाना प्रकारके
विशेषान्तरका पक्षपाती होता है-द्रव्य, गुण, कर्म पर्याय' हैं वे सब एक द्रव्यनिष्ठ होनेसे ऊर्ध्वता
इन तीन प्रकारके विशेषोंमेंसे किसा.एकमें प्रवर्तमान सामान्य में परिसमाप्त हैं। और इस लिये विशेषोंमें इन निष्ठ सामान्य नहीं है; क्योंकि तब किसी विशेष
हुआ दूसरे विशेषोंको भी स्वीकार करता है, अस्वीकार (पर्याय) के अभाव होनेपर सामान्य (द्रव्य) के भी
___ करनेपर किसी एक विशेषमें भी उसकी प्रवृत्ति नहीं अभावका प्रसङ्ग आयेगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है—किसी
बनती-वह विशेषको प्राप्त कराता है अर्थात् द्रव्य, भी विशेषके नष्ट होनेपर सामान्यका अभाव नहीं
: गुण और कर्ममें से एकको प्रधानरूपसे प्राप्त कराता
है तो दूसरेको गौणरूपसे । साथ ही विशेषान्तरोंके १ क्रमभावी पर्याय परिस्पन्दरूप है जैसे उत्क्षेपणादिक । अन्तर्गत उसकी वृत्ति होनेसे दूसरे (जात्यात्मक)
सहभावी पर्याय अपरिस्पन्दात्मक हैं और वे साधारण, विशेषको सामान्यरूपमें भी प्राप्त कराता है-यह साधारणाऽसाधारण और असाधारणके भेदसे तीन सामान्य तिर्यकसामान्य होता है। इस तरह पद प्रकार हैं । सत्व-प्रमेयत्वादिक साधारण धर्म हैं, द्रव्यत्व- सामान्य और विशेष दोनोंको प्राप्त कराता है-एक जीवत्वादि साधारणाऽसाधारण धर्म हैं और वे अर्थ को प्रधानरूपसे प्रकाशित करता है तो दूसरेको गौण पर्याय असाधारण हैं जो द्रव्य द्रव्यके प्रति. प्रभिद्यमान रूपसे । विशेषकी अपेक्षा न रखता हुआ केवल और प्रतिनियत हैं।
... सामान्य और सामान्यकी अपेक्षा न रखता हुआ २ सामान्य दो प्रकारका होता है-एक ऊर्ध्वतासामान्य केवल विशेष दोनों अप्रतीयमान होनेसे अवस्तु हैं, दूसरा तिर्यक्सामान्य । क्रमभावी पर्यायोंमें एकत्वान्वय- उन्हें पद प्रकाशित नहीं करता । फलतः परस्पर
ज्ञानके द्वारा ग्राह्य जो द्रव्य है वह ऊर्ध्वतासामान्य है और . निरपेक्ष उभयको और अवस्तुभूत अनुभयको भी पद - नाना द्रव्यों तथा पर्यायोंमें सादृश्यज्ञानके द्वारा ग्राह्य जो प्रकाशित नहीं करता । किन्तु इन सर्वथा सामान्य,
सदृशपरिणाम है वह तिर्यक सामान्य है। .. सर्वथा विशेष, सर्वथा उभय और सर्वथा नुभयसे
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________________ 216 अनेकान्त [ वर्ष 9. विलक्षण सामान्य-विशेषरूप वस्तुको पद प्रधान और अनुक्त तुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्यभावानियम-द्वयेऽपि / गौणभावसे प्रकाशित करता हुआ यथार्थताको प्राप्त पर्यायभावेऽन्यतराप्रयोगस्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म-हीनम् // 42 // होता है; क्योंकि ज्ञाताकी उस पदसे उसी प्रकारकी 'जो पद एवकारसे रहित है वह अनुक्ततुल्य हैवस्तुमें प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है, प्रत्यक्षादि न कहे हुएके समान है-; क्योंकि उससे (कर्तृ-क्रिया प्रमाणोंकी तरह / ' विषयक) नियम-द्वयके इष्ट होनेपर भी व्यावृत्तिका यदेवकारोपहितं पदं तदस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति। अभाव होता है-निश्चयपूर्वक कोई एक बात न कहे पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्व पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् // 41 जानेसे प्रतिपक्षकी निवृत्ति नहीं बन सकती-तथा (व्यावृत्तिका अभाव होने अथवा प्रतिपक्षकी निवृत्ति 'जो पद एवकारसे उपहित है-अवधारणार्थक , न हो सकनेसे) पदोंमें परस्पर पर्यायभाव ठहरता 'एव' नामके निपातसे विशिष्ट है; जैसे 'जीव एव' / है, पर्यायभावके होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोंमें (जीव ही)-वह अस्वार्थसे स्वार्थको (अजीवत्वसे से भी चाहे जिस पदका कोई प्रयोग कर सकता है जीवत्वको) [जैसे] अलग करता है- अस्वार्थ और चाहे जिस पदका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभि(अजीवत्व) का व्यवच्छेदक है-[वैसे] सब स्वार्थ धेयभूत वस्तुजात अन्यसे च्युत-प्रतियोगीसे रहित पर्यायों (सुख-ज्ञा नादिक), सब स्वार्थसामान्यों (द्रव्यत्व -होजाता है और जो प्रतियोगीसे रहित होता है चेतनत्वादि) और सब स्वार्थविशेषों (अभिधानाs वह आत्महीन होता है-अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक विषयभूत अनन्त अर्थपर्यायों) सभीको अलग करता नहीं हो सकता / इस तरह भी पदार्थकी हानि है-उन सबका भी व्यच्छेदक है, अन्यथा उस एक पदसे ही उनका भी बोध होना चाहिये, उनके लिये ठहरती है।' व्याख्या-उदाहरणके तौरपर 'अस्ति जीवः' इस अलग-अलग पदोंका प्रयोग (जैसे मैं सुखी हूँ , ज्ञानी वाक्यमें 'अस्ति' और 'जीवः' ये दोनों पद एवकारसे हूं, द्रव्य हूँ, चेतन हूँ, इत्यादि) व्यर्थ ठहरता है रहित हैं / 'अस्ति' पदके साथ अवधारणार्थक एव' और इससे (उन क्रमभावी धर्मों-पर्यायों, सहभावी शब्दके न होनेसे नास्तित्वका व्यवच्छेद नहीं बनता धर्मों-सामान्यों तथा अनभिधेय धर्मों-अनन्त अर्थ और नास्तित्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'अस्ति' पर्यायोंका व्यवच्छेद-भाव-होनेपर) पदार्थकी / पदके द्वारा नास्तित्वका भी प्रतिपादन होता है, और (जीव पदके अभिधेयरूप जीवत्वकी) भी हानि उसी इस लिये अस्ति पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न प्रकार ठहरती है जिस प्रकार कि विरोधी (अजीवत्व) की हानि होती है क्योंकि स्वपर्यायों आदिके रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है / इसी तरह जीव अभावमें जीवादि कोई भी अलग वस्तु संभव का व्यवच्छेद नहीं बनता और अजीवत्वका पदके साथ 'एव' शब्दका प्रयोग न होनेसे अजीवत्वनहीं हो सकती। व्यवच्छेद न बन सकनेसे जीव पदके द्वारा अजीवत्व(यदि यह कहा जाय कि एवकारसे विशिष्ट जीव का भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'जीव' पद अपने प्रतियोगी अजीव पदका ही व्यवच्छेदक पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्त. होता है-अप्रतियोगी (स्वपर्यायों, सामान्यों तथा तुल्य होजाता है / और इस तरह अस्ति पदके द्वारा विशेषोंका नहीं; क्योंकि वे अप्रस्तुत-अविवक्षित नास्तित्वका भी और नास्ति पदकं द्वाग अस्तित्वका होते हैं, तो ऐसा कहना एकान्तवादियोंके लिये ठीक भी प्रतिपादन होनेसे तथा जीव पदके द्वारा अजीव नहीं है; क्योंकि इससे स्याद्वाद (अनेकान्तवाद)के अर्थका भी और अजीव पदके द्वारा जीव अर्थका भी अनुप्रवेशका प्रसङ्ग आता है, और इससे इनके प्रतिपादन होनेसे अस्ति-नास्ति पदोंमें तथा जीव. एकान्त सिद्धान्तकी हानि ठहरती है।) अजीव पदोंमें घट-कुट (कुम्भ) शब्दोंकी तरह परस्पर For Personal & Private Use Only
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किरण ६]
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
पर्यायभाव ठहरता है । पर्यायभाव होनेपर परस्पर भेदका-तब अस्तित्व बनता ही नहीं।' प्रतियोगी पदोंमें भी सभी मानवोंके द्वारा, घट-कुटः व्याख्या-उदाहरणके तौरपर-जो सत्ताऽद्वैतशब्दोंकी तरह, चाहे जिसका प्रयोग किया जा सकता (भावैकान्त)वादी यह कहता है कि 'अस्ति' पदका है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभिधेय अस्तित्व 'नास्ति' पदके अभिधेय नास्तित्वसे अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य प्रतियोगीसे च्युत सर्वथा अभेदी (अभिन्न) है उसके मतमें पदों तथा (रहित) होजाता है अर्थात् अस्तित्व नास्तित्वसे अभिधेयोंका परस्पर विरोध भेदका कर्ता है; क्योंकि सर्वथा रहित होजाता है और इससे सत्ताऽद्वैतका सत्ताऽद्वैत मतमें सम्पूर्ण विशेषों-भेदोंका अभाव होने प्रसङ्ग आना है । नास्तित्वका सर्वथा अभाव होनेपर से अभिधान और अभिधेयका विरोध है-दोनों सत्ताऽद्वैत आत्महीन ठहरता है; क्योंकि पररूपके घटित नहीं होसकते, दोनोंको स्वीकार करनेपर त्यागके अभावमें स्वरूप-ग्रहणकी उपपत्ति नहीं बन अद्वैतता नष्ट होती है और उससे सिद्धान्त-विरोध सकती-घटके अघटरूपके त्याग बिना अपने स्वरूप- घटित होता हैं । इसपर यदि यह कहा जाय कि की प्रतिष्ठा नहीं बन सकती । इसी तरह नास्तित्वके 'अनादि-अविद्याके वशसे भेदका सद्भाव है इससे सर्वथा अस्तित्वरहित होनेपर शून्यवादका प्रसङ्ग दोष नहीं तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि आता है और अभाव भावके बिना बन नहीं सकता, विद्या-अविद्या भेद भी तब बनते नहीं। उन्हें यदि इससे शून्य भी आत्महीन ही होजाता है । शून्यका माना जायगा तो द्वैतताका प्रसङ्ग आएगा और उससे स्वरूपसे भी अभाव होनेपर उसके पररूपका त्याग सत्ताऽद्वैत सिद्धान्तको हानि होगी-वह नहीं बन असंभव है-जैसे पटके स्वरूप ग्रहणके अभावमें सकेगा । अथवा अस्तित्वसे नास्तित्व अभेदी है यह शाश्वत अपटरूपके त्यागका असंभव है। क्योंकि कथन केवल आत्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी वस्तुका वस्तुत्व स्वरूपके ग्रहण और पररूपके त्याग- है (ऐसाच' शब्दके प्रयोगसे जाना जाता है); क्योंकि .. की व्यवस्थापर ही निर्भर
जब भेदका सर्वथा अभाव है तब अस्तित्व और कालकी अपेक्षा अवस्तु होजाती है । सकल स्वरूपसे नास्तित्व भेदोंका भी अभाव है। जो मनुष्य कहता शून्य जुदी कोई अवस्तु संभव ही नहीं है। अत: है कि 'यह इससे अभेदी है। उसने उन दोनोंका कोई भी वस्तु जो अपनी प्रतिपक्षभूत अवस्तुसे कथंचित् भेद मान लिया, अन्यथा वह वचन बन वर्जित है वह अपने आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं होती। नहीं सकता, क्योंकि कथंचित् (किसी प्रकारसे) भी . 'यदि (सत्ताद्वैतवादियों अथवा सर्वथा शून्य- भेदीके न होनेपर भेदीका प्रतिवेध-अभेदी कहनावादियोंकी मान्यतानुसार सर्वथा अभेदका प्रावलम्बन विरुद्ध पड़ता है-कोई भेदी ही नहीं तो अभेदी (न
। जाय कि पद-अस्ति या नास्ति- भेदी) का व्यवहार भी कैसे बन सकता है ? नहीं (अपने प्रतियोगि पदके साथ सर्वथा) अभेदी है- बन सकता।
और इसलिये एक पदका अभिधेय अपने प्रतियोगि यदि यह कहा जाय कि शब्दभेद तथा विकल्पपदके अभिधेयसे च्युत न होनेके कारण वह आत्म- भेदके कारण भेदी होनेवालोंका जो प्रतिषेध है वह हीन नहीं है तो यह कथन विरोधी है अथवा इससे उनके स्वरूपभेदका प्रतिषेध है तब भी शब्दों और उस पदका अभिधेय आत्महीन ही नहीं किन्तु विकल्पोंके भेदको स्वयं न चाहते हुए भी संज्ञीके विरोधी भी होजाता है; क्योंकि किसी भी विशेषका- भेदको कैसे दूर किया जायगा, जिससे द्वैतापत्ति होती १ "वस्त्वेवाऽवस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ।” है ? क्योंकि संज्ञीका प्रतिषेध प्रतिषेध्य-संज्ञीके विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात्तद्योतनः स्याद् णतो निपातः। अस्तित्व बिना बन नहीं सकता। इसके उत्तरमें यदि विपाद्य-सन्धिश्च तथाऽगभावादवाच्यता प्रायस लोपहेतुः ।।४३ यह कहा जाय कि 'दूसरे मानते हैं इसीसे शब्द और
तह परदव्य
-यंत्र
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अनेकान्त
[वर्ष ९
विकल्पके भेदको इष्ट किया गया है, इसमें कोई दोष 'सर्वथा अवक्तव्यता (युक्त नहीं है, क्योंकि वह) नहीं, तो यह कथन भी नहीं बनता; क्योंकि अद्वैता- श्रायस-मोक्ष अथवा आत्महितके लोपकी कारण हैवस्थामें स्व-परका (अपने और परायेका) भेद ही जब क्योंकि उपेय और उपायके वचन बिना उनका इष्ट नहीं तब दूसरे मानते हैं यह हेतु भी सिद्ध नहीं उपदेश नहीं बनता, उपदेशके बिना श्रावसके उपायहोता, और असिद्ध-हेतु-द्वारा साध्यकी सिद्धि बन का-मोक्षमार्गका अनुष्ठान नहीं बन सकता और नहीं सकती। इसपर यदि यह कहा जाय कि 'विचारसे उपाय (मार्ग)का अनुष्ठान न बन सकनेपर उपेयपूर्व तो स्व-परका भेद प्रसिद्ध ही है तो यह बात भी श्रायस (मोक्ष)की उपलब्धि नहीं होती । इसतरह नहीं बनती; क्योंकि अद्वैतावस्थामें पूर्वकाल और अवक्तव्यता श्रायसके लोपकी हेतु ठहरती है। अतः अपरकालका भेद भी सिद्ध नहीं होता। अतः सत्ता- स्यात्कार-लांछित एवकार-युक्त पद ही अर्थवान् है द्वैतकी मान्यतानुसार सर्वथा भेदका अभाव माननेपर ऐसा प्रतिपादन करना चाहिए, यही तात्पर्यात्मक 'अभेदी' वचन विरोधी ठहरता है, यह सिद्ध हुआ। अर्थ है।' इसी तरह सर्वथा शून्यवादियोंका नास्तित्वसे अस्तित्व- (इसतरह तो सर्वत्र 'स्यात्' नामक निपातके को सर्वथा अभेदी बतलाना भी विरोधदोषसे दूषित प्रयोगका प्रसङ्ग आता है, तब उसका पद-पदके प्रति है, ऐसा जानना चाहिए।
अप्रयोग शास्त्रमें और लोकमें किस कारणसे प्रतीत (अब प्रश्न यह पैदा होता है कि अस्तित्वका होता है ? इस शङ्काका निवारण करते हुए आचार्य विरोधी होनेसे नास्तित्व धर्म वस्तुमें स्याद्वादियों-द्वारा महोदय कहते हैं-) कैसे विहित किया जाता है ? क्योंकि अस्ति पदके तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोगः सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्तिः । साथ 'एव' लगानेसे तो 'नास्तित्व'का व्यवच्छेद- इति त्वदीया जिननाग! दृष्टिः पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ॥४४ अभाव होजाता है और 'एव'के साथमें न लगानेसे (शास्त्र में और लोकमें 'स्यात' निपातका) जो उसका कहना ही अशक्य होजाता है क्योंकि वह पद अप्रयोग है-हरएक पदके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग अनुकतुल्य होता है। इससे तो दूसरा कोई प्रकार न नहीं पाया जाता-उसका कारण उस प्रकारकाबन सकनेसे अवाच्यता-अवक्तव्यता ही फलित स्यात्पदात्मक प्रयोग-प्रकारका-प्रतिज्ञाशय हैहोती है। तब क्या वही युक्त है ? इस सब शङ्काके समा- प्रतिज्ञा प्रतिपादन करनेवालेका अभिप्राय सन्निहित धान-रूपमें ही आचार्य महोदयने कारिकाके अगले है। जैसे शास्त्रमें 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षतीन चरणोंकी सृष्टि की है, जिनमें वे बतलाते हैं-) मार्गः' इत्यादि वाक्यों में कहींपर भी 'स्यात्' या 'एव' ___'उस विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' नामका शब्दका प्रयोग नहीं है परन्तु शास्त्रकारोंके द्वारा निपात (शब्द) है जो स्याद्वादियोंके द्वारा संप्रयुक्त अप्रयुक्त होते हुए भी वह जाना जाता है; क्योंकि किया जाता है और गौणरूपसे उस धर्मका द्योतन उनके वैसे प्रतिज्ञाशयका सद्भाव है । अथवा (स्याद्वाकरता है-इसीसे दोनों विरोधी-अविरोधी (नास्तित्व दियोंके) प्रतिषेधकी-सर्वथा एकान्तके व्यवच्छेदकी अस्तित्व जैसे) धर्मोका प्रकाशन-प्रतिपादन होते -युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित होजाती है क्योंकि हुए भी जो विध्यर्थी है उसकी प्रतिषेधमें प्रवृत्ति नहीं 'स्यात्' पदका आश्रय लिये विना कोई स्याद्वादी नहीं होती। साथ ही वह स्यात् पद विपक्षभूत धर्मकी बनता और न स्यात्कारके प्रयोग विना अनेकान्तकी सन्धि -संयोजनास्वरूप होता है-उसके रहते सिद्धि ही घटित होती है; जैसे कि एवकार के प्रयोग दोनों धर्मों में विरोध नहीं रहता; क्योंकि दोनोंमें विना सम्यक् एकान्तकी सिद्धि नहीं होती। अतः अङ्गपना है और स्यात्पद उन दोनों अङ्गोंको जोड़ने स्याद्वादी होना ही इस बातको सूचित करता है कि वाला है।
उसका आशय प्रतिपदके साथ 'स्यात्' शब्दके प्रयोग
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अहिंसा-तत्त्व (लेखक-दुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य)
अहिंसा-तत्त्व ही एक इतना व्यापक है जो इसके गुणका घात है और इस लिये वहाँ भी हिंसा ही है। उदरमें सर्व धर्म आजाते हैं, जैसे हिंसा पापमें सर्व अतः जहाँपर आत्माकी परिणति कषायोंसे मलीन पाप गर्भित होजाते हैं। सर्वसे तात्पर्य चोरी, मिथ्या, नहीं होती वहींपर आत्माका अहिंसा - परिणाम अब्रह्म और परिग्रहसे है। क्रोध, मान, माया, लोभ विकासरूप होता है उसीका नाम यथाख्यात चारित्र ये सर्वात्म-गुणके घातक हैं अतः ये सर्व पाप ही हैं। है। जहाँपर रागादि परिणामोंका अंश भी नहीं इन्हीं कषायोंके द्वारा आत्मा पापोंमें प्रवृत्ति करता है रहता उसी तत्त्वको आचार्योंने अहिंसा कहा हैतथा जिनको लोकमें पुण्य कहते हैं वह भी कषायोंके 'अहिंसा परमो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः।' सद्भावमें होते हैं । कषाय आत्माके गुणोंका घातक है श्रीअमृतचन्द्रस्वामीने उसका लक्षण यों कहा है:अतः जहाँ पुण्य होता है वहाँ भी आत्माके चारित्र- .. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ का है, भले ही उसके द्वारा प्रयुक्त हुए प्रतिपदके साथमें 'स्यात' शब्द लगा हुआ न हो, यही उसके
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय पद-प्रयोगकी सामर्थ्य है।
. 'निश्चयकर जहाँपर रागादिक परिणामोंकी (इसके सिवाय, 'सदेव सर्वको नेच्छेत् स्वरूपादि- ..
उत्पत्ति नहीं होती वहीं अहिंसाकी उत्पत्ति है और
जहाँ रागदिक परिणामोंकी उत्पत्ति होती है वहींपर चतुष्टयात्' इसप्रकारके वाक्यमें स्यात पदका अप्रयोग है ऐसा नहीं मानना चाहिए; क्योंकि 'स्वरूपादि
हिंसा होती है, ऐसा जिनागमका संक्षेपसे कथन चतुष्टयात्' इस वचनसे स्यात्कारके अर्थकी उसी प्रकार
जानना ।' यहाँपर रागादिकोंसे तात्पर्य आत्माकी प्रतिपत्ति होती है जिसप्रकार कि 'कथश्चित्ते सदेवेष्टं'
परिणतिविशेषसे है-परपदार्थमें प्रीतिरूप परिणामइस वाक्यमें 'कश्चित्' पदसे स्यात्पदका प्रयोग
का होना राग तथा अप्रीतिरूप परिणामका नाम द्वेष, जाना जाता है। इसीप्रकार लोकमें 'घट आनय'
और तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप परिणामका होना मोह (घड़ा लाओ) इत्यादि वाक्योंमें जो स्यात् शब्दका
अर्थात् राग, द्वेष, मोह ये तीनों आत्माके विकार
भाव हैं। ये जहाँपर होते हैं वहीं आत्मा कलि (पाप)का अप्रयोग है वह उसी प्रतिज्ञाशयको लेकर सिद्ध है।) 'इसतरह हे जिन-नाग!-जिनोंमें श्रेष्ठ श्रीवीर
__ संचय करता है, दुखी होता है, नाना प्रकार पापादि भगवन् !-आपकी (अनेकान्त) दृष्टि दूसरोंके
" कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द राग हुआ तब सर्वथा एकान्तवादियोंके द्वारा अप्रधष्या है- परोपकारादि कार्यों में व्यग्र रहता है, तीव्र राग-द्वेष अबाधितविषया है और साथ ही परधर्षिणी है
हुआ तब विषयोंमें प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापोंदूसरे भावैकान्तादिवादियोंकी दृष्टियोंकी धर्षणा
में मग्न होजाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। करनेवाली है-उनके सर्वथा एकान्तरूपसे मान्य
यह सर्व अनुभूत विषय है । और जब रागादि सिद्धान्तोंको बाधा पहुँचानेवाली है।'
परिणाम नहीं होते.तब शान्तिसे अपना जो ज्ञातादृष्टा स्वरूप है उसीमें लीन रहता है, जैसे जलमें पङ्क के सम्बन्धसे मलिनता रहती है। यदि पङ्कका संबन्ध
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अनेकान्त
उससे पृथक् होजावे तब जल स्वयं निर्मल होजाता है । तदुक्तं- 'पंकापाये जलस्य निर्मलतावत् ।' निर्मताके लिये हमें पङ्कको पृथक् करनेकी आवश्यकता है । अथवा जैसे जलका स्वभाव शीत है। अग्निके सम्बन्ध से जल में उष्णता पर्याय होजाती है उस समय जल, देखा जावे तो, उष्ण ही है । यदि कोई मनुष्य जलको शीत-स्वभाव मानकर पान कर लेवे तब वह नियमसे दाहभावको प्राप्त होजावेगा । अतः जलको शीत करने के वास्ते आवश्यकता इस बातकी है जो उसको किसी बर्तन में डालकर उसकी उष्णता पृथकू कर देना चाहिये । इसी प्रकार आत्मामें मोहोदय से रागादि परिणाम होते हैं वे विकृतभाव हैं । इनसे आत्मा नाना प्रकारके क्लेशोंका पात्र रहता है। उनके होनेका यी उपाय है जो वर्तमान में रागादिक हों उनमें उपादेयताका भाव त्यागे, यही आगामी न होनेमें मुख्य उपाय है । जिनके यह अभ्यास होजाता है उनकी परिणति सन्तोषमयी होजाती है। उनका जीवन शान्तिमय बीतता है, उनके एक बार ही पर पदार्थोंसे निजत्व बुद्धि मिट जाती है । और जब परमें निजत्व - की कल्पना मिट जाती है तब सुतरां राग-द्वेष नहीं होते । जहाँ आत्मामें राग-द्वेष नहीं होते वहीं पूर्ण अहिंसाका उदय होता है । अहिंसा ही मोक्षमार्ग है । वह आत्मा फिर आगामी अनन्त काल, जिस रूप परिणम गया, उसी रूप रहता है। जिन भगवानने यही अहिंसाका तत्त्व बताया है अर्थात जो आत्माएँ राग-द्वेष-मोहके अभाव से मुक्त होचुकी हैं उन्हींका
है । वह कौन है ? जिसके यह भाव होगये वही जिन है। उसने जो कुछ पदार्थका स्वरूप दर्शाया उस अर्थ प्रतिपादक जो शब्द हैं उसे जिनागम कहते हैं। परम्मर्थसे देखा जाय तो, जो श्रात्मा पूर्ण अहिंसक होजाती है उसके अभिप्रायमें न तो परके उपकार के भाव रहते हैं और न अनुपकारके भाव रहते हैं । अतः न उनके द्वारा किसीके हितकी चेष्टा होती है और न अहितकी चेष्टा होती है। किन्तु जो पूर्वोपार्जित कर्म है वह उदयमें आकर अपना रस देता है। उस कालमें उनके शरीर से जो शब्दवर्गणा निकलती
[ वर्ष ९
हैं उनसे क्षयोपशमज्ञानी वस्तुस्वरूपके जाननेके अर्थ आगम-रचना करते हैं ।
आज बहुतसे भाई जैनोंके नामसे यह समझते हैं जो वह एक जाति विशेष है । यह समझना कहाँ तक तथ्य है, पाठकगण जानें। वास्तवमें जिसने आत्मा के विभाव-भावोंपर विजय पा ली वही जैन । यदि नामका जैनी है और उसने मोहादि कलङ्कोंको नहीं जीता तब वह नाम 'नामका नैनसुख आँखों का अन्धा' की तरह है । अतः मोह-विकल्पोंको छोड़ो और वास्तविक अहिंसक बनो ।
वास्तवमें तो बात यह है कि पदार्थ अनिर्वचनीय' है – कोई कह नहीं सकता। आप जब मिसरी खाते हो तब कहते हो मिसरी मीठी होती है-जिस पात्रमें रक्खी है वह नहीं कहता; क्योंकि जड है। ज्ञान ही चेतन है वह जानता है मिसरी मीठी है, परन्तु यह भी कथन नहीं बनता; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि ज्ञान ज्ञेयमें नहीं जाता और ज्ञेय ज्ञानमें नहीं जाता । फिर जब मिसरी ज्ञानमें गई नहीं तब मिसरी मीठी होती है, यह कैसे शब्द कहा जासकता है ? अथवा जब ज्ञानमें ही पदार्थ नहीं आता तब शब्दसे उसका व्यवहार करना कहाँ तक न्यायसङ्गत है । इससे यह तात्पर्य निकला - मोह - परिणामोंसे यह व्यवहार है अर्थात जब तक मोह है तब तक ज्ञानमें यह कल्पना है । मोहके अभाव से यह सर्व कल्पना विलीन हो जाती है - यह असङ्गत नहीं । जब तक प्राणीके मोह है तब तक ही यह कल्पना है जो ये मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। और ये मेरी भार्या है मैं इसका पति हूँ । मोहके अभाव में यह सर्व व्यवहार विलीन होजाते हैं— जब यह आत्मा मोहके फन्दमें रहता है तब नाना कल्पनाओं की सृष्टि करता है, किसी को हेय और किसीको उपादेय मानकर अपनी प्रवृत्ति बनाकर इतस्ततः भ्रमण करता है । मोहकें अभाव में आपसे आप शान्त होजाता है। विशेष क्या लिखूं, इसका मर्म वे ही जानें जो निर्मोही हैं, अथवा वे ही क्या जानें, उन्हें विकल्प ही नहीं ।
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पूज्य की गणेशप्रसादजीके हृदयोद्गार
[हालमें पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजीका एक मार्मिक पत्र मुझे मुरार (ग्वालियर)से प्राप्त हुआ है, जिसमें उन्होंने मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके कार्योंके प्रति अपना हार्दिक प्रेम प्रदर्शित करते हुए अपने कुछ हृदयोद्गार व्यक्त किये हैं, जो सारे जैन समाजके जानने योग्य हैं । अतः उनका वह पूरा पत्र यहाँ प्रकाशित किया जाता है । पाठक देखेंगे कि पूज्य वर्णीजीको मुख्तार सा के अनुसन्धान-कार्य कितने अधिक प्रिय हैं और वे उन्हें कितना अधिक पसन्द करते हैं तथा उनके इस अनुसन्धान विभागको स्थायित्व प्राप्त होनेकी कितनी शुभ भावनाअोंको अपने हृदयमें स्थान दिये हुए हैं। क्या ही अच्छा हो यदि जैन समाज वर्णीजीके इन हृदयोद्गारोंके मर्मको समझे, उनकी भावनाको 'भावनामात्र' न रहने दे और न उन्हें फिरसे यह कहनेका अवसर ही दे कि 'हमारे भाव तो मन ही में विलय जाते हैं।' -दरबारीलाल कोठिया
श्रीयुत कोठियाजी महोदय, दर्शनविशुद्धिः। आपके उत्सवको देखलूं । परन्तु यह इष्ट नहीं जो
केवल नाटक हो, कुछ कार्य हो। इस विभागकी पत्र आया। समाचार जाने । बाबूजी (मुख्तार महती आवश्यकता है। परन्तु इसकी पूर्ति कैसे हो, जुगलकिशोरजी) का कार्य तो मुझे इतना प्रिय है जो यह समझमें नहीं आता-समझमें नहीं आता, इसका उसके अर्थ अब भावना-मात्र रह गई है । ऐसे कार्यों- यह अर्थ है जो समाजने अभी इस विषयपर मीमांसा के लिये तो उनकी इच्छानुकूल पुष्कल द्रव्य होता नहीं की। केवल ऊपरी-ऊपरी बातोंपर इसका समय
और कमसे कम १० विद्वान रहते जिन्हें इच्छित द्रव्य जाता है। अन्तमें यही कहना पड़ता हैदिया जाता । सालमें उनें २ वार छुट्टी दी जाती १ त्वं चेन्नीचजनानुरागरभसादस्मासु मन्दादरः ।
मास जाड़ामें १ मास गर्मी में । जहाँपर यह तत्त्वानु- का नो मानद मानहानिरियती भूः किं त्वमेव प्रभुः ।। ' संधान होता वहीं पर १ स्थानपर उनका भोजन
गुजापुञ्जपरम्परापरिचयाभिल्लीजनैरुज्झितं ।। होता। वे सिवाय तत्त्वानुसंधानके अन्य कथा न
मुक्तादाम न धारयन्ति किमहो कण्ठे कुरङ्गीदृशः ।। करते । १ वृहत्स्थान होता जहाँपर सब ऋतुके
आ० शु० चि० अनुकूल स्थान होता। इस कार्यके लिये कमसे कम
गणेश वर्णी १० लाख रुपया होता उसके ब्याजसे यह कार्य चलता। यद्यपि यह होना कठिन नहीं परन्तु हमारी दृष्टि . नोट-अतः हमारा कहना बाबूजी (मुख्तार तो जड़वादके पुष्ट करने में लग रही है-अतः हमारे जुगलकिशोरजी) से कह दो। आपके बड़े २ धनाढ्य भाव तो मन ही में विलय जाते हैं । थोथा सभापति मित्र हैं । वे कब आपकी इच्छाकी पूर्ति करेंगे ? आप बननेसे जलविलोचनके सदृश प्रयास है । कोई ऐसा का जीवन ४ या ६ वर्ष ही तो रहेगा। यदि आपके व्यक्ति तलाशो जो इसकी पूर्तिकर सुयशका भागी समक्ष इन लोगोंने कुछ न किया तब पीछे क्या करेंगे? हो । हाँ यह मेरेको भी इष्ट है जो १ वार मैं भी
... (ज्येष्ठ सुदि)
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रावणफार्श्वनाथकी अवस्थिति
(लेखक-श्रीअगरचन्द नाहटा)
'अनेकान्त'के गत अक्तूबरके अङ्कमें पद्मनन्दि- १ क्षेमराज (१६वीं)के फलौधी-स्तवन (गा. २४)मेंरचित रावणपार्श्वनाथस्तोत्र प्रकाशित हुआ है। "थंभणपुरि महिमा निलो, गऊउडर गोडापु उसका परिचय कराते हुए सम्पादक श्रीमुख्तार जेसलमेरहि परगडो रावणि अलवर पूरइ बास । २० साहबने लिखा है कि “यह स्तोत्र श्रीपद्मनन्दि मुनिका २ साधुकीर्ति रचित (सं० १६२४) मौन - एकादशीरचा हुआ है और रावणपत्तनके अधिपति अर्थात् स्तवन (गाथा १७)में:वहाँ स्थित देवालयके मूलनायक श्रीपाश्वजिनेन्द्रसे "गढ नयर अलवर सुखहमंडप पास रावणसंपुण्यउ।" सम्बन्धित है; जैसा कि अन्तिम पद्यसे प्रकट है। ३ रत्नजय (१८वीं) कृत १५७ नाम गभित पार्श्वमालूम नहीं यह “रावणपत्तन" कहाँ स्थित है और स्तवन गा. १७)में:उसमें पार्श्वनाथका यह देवालय (जैनमन्दिर) अब . "अंतरीक वीजापुरै रे लाल अलवर रावणपास।" भी मौजूद है या नहीं, इसकी खोज होनी चाहिये।" ४ रत्ननिधान (१७वीं) कृत पार्श्वलघु - स्तवन
(गा. ९)मेंतीन वर्ष हुए श्वे. साहित्यमें रावणपार्श्वनाथका “जीरावलि सोवन गिरइ, अलवरगढ़ रावण जागइरे" उल्लेख अवलोकनमें आनेपर मेरे सामने भी यह प्रश्न ५ कल्याणसागरसूरि-रचित रावणपावाष्टकमेंउपस्थित हुआ था और अपनी शोध-खोजके फल- "अलवरपुररत्न रावणं पार्श्वदेवं, स्वरूप इसकी अवस्थितिका पता लग जानेपर जैन
प्रणतशुभसमुद्रं कामदं देवदेवं ।" सत्यप्रकाशके क्रमाक ११४में "रावणतीर्थ कहाँ है ?" रावणपार्श्वनाथकी प्रमिटिका पता अभी तक शीर्षक लेखद्वारा प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया गया श्वे० साहित्यसे ज्ञात था। पद्मनन्दिके स्तोत्रसे उसकी था। मेरे उक्त लेखसे स्पष्ट है कि रावणपार्श्वनाथ प्रसिद्धि दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसें रही ज्ञात कर वर्तमान अलवरमें स्थित है। इसके पोषक ९ उल्लेख- हर्ष होता है। वर्तमान मेल-जोलके युगमें ऐसी बातों १६वीं शताब्दीसे वर्तमान तकके-उस लेखमें दिये एवं तीर्थों आदिपर विशेषरूपसे प्रकाश डालना गये थे एवं रावणपार्श्वनाथकी नवीन चैत्यालय- अत्यन्त आवश्यक है, जो दोनों सम्प्रदायवालोंको स्थापना (जीर्णोद्धार)का सूचक सं० १६४५के शिला- समानरूपसे मान्य हों। अलवरके रावणपार्श्वनाथका लेखको भी प्रकाशित किया गया था। इसी समय इतिहास मनोरञ्जक एवं कौतूहलजनक होना चाहिये। अलवरसे प्रकाशित 'अरावली' नामक पत्रके वर्ष १ नामके अनुसार इस पार्श्वनाथ-प्रतिमाका सम्बन्ध अङ्क १२में "जैनसाहित्यमें अलवर" शीर्षक लेखमें रावणसे या अलवरका प्राचीन नाम रावणपत्तन भी इसके सम्बन्धमें प्रकाश डाला गया था। यहाँ होना विदित होता है। अतः अलवर निवासी जैन उसके पश्चात् जो कतिपय और उल्लेख अवलोकनमें भाईयों एवं अन्य विद्वानोंको उसका वास्तविक इतिआये हैं वे दे दिये जाते हैं:
हास शीघ्र ही प्रकाशमें लानेका प्रयत्न करना चाहिये।
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वीर-शासन - जयन्तीका पावन पर्व
इस युग अन्तिम तीर्थङ्कर श्रीवीर - वर्द्धमानने संसारके त्रस्त और पीडित जनसमूह के लिये अपने जिस अहिंसा और अनेकान्तमय शासन ( उपदेश ) का प्रथम प्रवर्त्तन किया था उस शासनकी जयन्तीका पावन पर्व इस वर्ष श्रावण कृष्णा प्रतिपदा ता० २२ जुलाई १९४८ वृहस्पतिवार को अवतरित होरहा है। भगवान वीरने इस पुण्य दिवसमें जिस परिस्थिति को लेकर अपना अहिंसादिका शासन (प्रथम उपदेश) प्रवृत्त किया था वह प्रायः आज जैसी ही थी । धर्मके नाम पर उस समय अनेक हिंसामयी यज्ञ-याग किये जाते थे, मूक पशुओं को निर्दयतापूर्वक उनमें होमा जाता था, स्त्री और शूद्र धर्माधिकारी नहीं समझे जाते थे, वे मनुष्यों की कोटिसे भी गये बीते थे । भगवान वीरने अपने श्रहिंसा प्रधान 'सर्वोदय तीर्थ' के द्वारा उन हिंसामयी यज्ञोंको पूर्णतया बन्द करके स्त्रियों और शूद्रों को भी उनकी योग्यतानुसार धर्माधिकार दिये थे और प्राणिमात्रके लिये कल्याणका द्वार खोला था ।
अतएव उनकी इस शासनप्रवर्त्तन तिथि - श्रावण कृष्णा प्रतिपदा–का बड़ा महत्व है और उसका सीधा सम्बन्ध जनताके आत्म-कल्याणके साथ है ।
आज सारा संसार त्रस्त और दुखी है। पशुओं की तो बात ही क्या, मनुष्य मनुष्योंके द्वारा मारे-काटे, अग्नि होमे तथा अपमानित किये जारहे हैं। सभी एक दूसरेसे भयातुर और परेशान हैं। यदि उनका दुख और भय तथा परेशानी दूर होसकते हैं तो भगवान बीरके द्वारा प्रबर्तित अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के शासनसे ही दूर होसकते हैं। महात्मा गाँधीने इस दिशा में प्रयत्न किया था और संसारको सुखी और शान्तिमय जीवन व्यतीत करने के लिये. अहिंसक,
उदार तथा अपरिग्रही बननेका अनुरोध किया था । यदि संसार गाँधीजीके मार्गपर चलता तो आज भय परेशानी और दुखोंका वह शिकार न होता ।
वीर-शासन के अनुयायियों का इस स्थितिको दूर करनेका सबसे अधिक और भारी उत्तरदायित्व है; क्योंकि उनके पास अहिंसा के अवतार भगवान महावीर के द्वारा दी हुई वह वस्तु है-वह विधि है जो जादूका सा काम कर सकती है और दुनिया में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, समभाव और मैत्रीकी व्यवस्था कर सकती है । यह निधि अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रहके मूल्यवान सिद्धान्त हैं, जिनका आज हमें भारीले भारी प्रचार और प्रसार करनेकी सख्त जरूरत है ।
सौभाग्य से इस वर्ष वीर- शासन- जयन्तीका वार्षिक उत्सव जिस महान् सन्तके नेतृत्वमें मुरार ( ग्वालियर) में विशेष समारोह के साथ होने जारहा है। वह जैन समाज और भारतका ही सन्त नहीं है अपितु सारे संसारका सन्त है। उसके हृदयमें विश्वभर के लिये अपार करुणा और मैत्री है । यह सन्त वर्षी गणेशप्रसाद के नामसे सर्वत्र विश्रुत हैं । सन्त के अतिरिक्त आप उच्चकोटिके विद्वान् (न्यायाचार्य) प्रभावक वक्ता और सफल नेता भी हैं।
आशा है ऐसे पुरुषोत्तमके नेतृत्वमें इस वर्ष वीरशासन जयन्ती के अवसरपर वीरशासन के प्रचारप्रसार, पुरातत्व तथा साहित्यके अनुसन्धान और देश तथा समाजके उत्कर्ष साधनादिका कोई विशिष्ट एवं ठोस कार्य किया जायगा ।
बीरसेवा मन्दिर, सरसावा ) ता० ६-७-१९४८
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दरबारीलाल कोठिया
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शृंगेरिकी पार्श्वनाथ - वस्तीका शिलालेख
(बा० कामताप्रसाद जैन, सम्पादक 'वीर')
["लॉजिकल सर्वे ऑफ मैसूर" सन् १६३३ में गेरि नामक स्थानके शिलालेख दिये हुये हैं । उनमें से एक शिलालेखको हम सधन्यवाद यहाँ उपस्थित करते हैं । - लेखक ]
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१. श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलां
शान्तिसेट्टिके पुत्र बासिसेट्टिकी बड़ी बहन थी । २. च्छनं जीयात् त्रैलोक्य - नाथस्य शासनं बणजमु और नानादेशी व्यापारियोंने भी बसदिके
जिनशासनं ।
लिए कतिपय वस्तुओं पर कर देना स्वीकार किया । अन्तमें जो इस दानको नष्ट करेगा उसे गङ्गापर एक सहस्र गौवध करनेका पातक लगेगा, यह उल्लेख है । इस लेख से स्पष्ट है कि पहले शृंगेरिमें जैनोंकी संख्या और मान्यता अधिक थी । (The inscription shows that Jainism had once a good following in Sringeri in former times.—Arch. Sur. of Mysore, 1933, p. 124)
३. स्वस्ति श्रीमत शकवर्षम् द १०८२
४. विक्रम संवत्सरद कुम्भ शु५. द्ध दशमि बृहवारदन्दु श्रीमान् — निडुगोड ६. विजयनारायण शान्तिसेट्टिय पुत्र बा - ७. सि-सेट्टियर अक्क सिरियबे - सट्टितियर म८. लु नागवे सेट्टितियर मगलु सिरिय९. ले- सेट्टितिगं हेम्माडि सेट्टिगं सुपुत्रन१०. प मारिसेट्टिगे पराक्षविनयक्के मा११. डिसिद बसदिगे बिट्ट दत्ति केरेय केलग१२. गहिरिय गदेय वसदिय बडगण होस १३. युं भंडियुं होलेयुं नडुवा हुदुविन होरद १४. मणु कण्डुग सुल्लिगोड अरुगण्डुग मरगु "बजमुं नानदेखि बिट्टय मलवेगे हाग हन्ज बोट्टिय मल ले मेलसिन मार के हागमुं १८. मत्तं पोत्तोब्बलुप्पु हेरिग् श्रय्वत्तेले रिसिनद मलवेगे विसक्के बिट्टं तपिदडे तप्पिदवनु गंगेय१९. लु सैर कविलेय कोन्द पातक
१५.
१६.
********
१७.
इसके अंग्रेजी अनुवादका भावार्थ निम्न प्रकार है: - "जिनशासन जयवंता प्रवर्तो जो त्रिलोकीनाथका शासन है और श्रीमत् परमगंभीर स्याद्वाद - लक्षण से युक्त है । स्वस्ति । शक संवत् १०८२ विक्रम वर्षके कुंभके शुक्लपक्ष की दशमी के वृहस्पतिवार को बसदि (जिनमन्दिर) के लिए दान दिया गया, जिसे हैम्माडि सेट्टिके पुत्र मारिसेट्टिकी एवं नागवेसेट्टितियरकी पुत्री सिरियबेसेट्टितिकी स्मृतिमें निर्माण किया गया था । सिरियबेसेट्टिति निडुगोडु - निवासी विजयनारायण
आजकल शृंगेरि ब्राह्मरण - सम्प्रदायका मुख्य केन्द्र और तीर्थ बना हुआ है । शङ्कराचार्यके समय से ही शृंगेर में ब्राह्मणधर्मकी जड़ जम गई थी और उपरान्तकालमें ब्राह्मण सम्प्रदाय में शृंगेरिमठके श्रीशङ्कराचार्य प्रसिद्ध होते आये हैं। आज वहाँ जैनायतन हतप्रभ होरहे हैं। जैनोंको उनका जरा भी ध्यान नहीं है । इस प्रकारकी अनेक कीर्ति - कृतियाँ भारत में बिखरी पड़ी हैं, पर हमारे जैनी भाई उनकी श्रोरसे बेसुध हैं ।
इस शिलालेख में व्यापारियोंके दो भेदों (१) बणजमु ( २ ) और नानादेशीका उल्लेख उनकी बणिज वृत्तिको ही सम्भवतः लक्ष्य में लेकर किया गया है । अनुमानतः जो लोग दूर दूर देशों में न जाकर स्थानीय देहातमें व्यापार करते होंगे वे बणजम् कहलाते होंगे । और दूर दूर देशोंमें जाकर से आकर ?) व्यापार करनेवाले नानादेशी कहलाते होंगे । दक्षिणके विद्वानोंको इसपर प्रकाश डालना चाहिये । इससे इतना स्पष्ट है कि इन व्यापारियों में जातिगत भेदभाव तबतक नहीं था ।
(
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जैनपुरातन अवशेष [विहङ्गावलोकन ]
( लेखक - मुनि कान्तिसागर )
तक्षण कलाके संरक्षण और विकास में जैन समाज बहुत बड़ा योगदान दिया है जिसकी स्वर्णिम गौरव गरिमाकी पताकास्वरूप आज भी अनेकों सूक्ष्मातिसूक्ष्म कला कौशलके उत्कृष्टतम प्रतीक-सम पुरातन मन्दिर, गृह-प्रतिमाएँ विशालस्तंभादि बहुमूल्यावशेष बहुत ही दुरवस्था में अवशिष्ट हैं। ये प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के ज्वलंत दीपक - प्रकाशस्तम्भ हैं । वर्षोंका अतीत इनमें अन्तर्निहित है | बहुत समय तक धूप-छांहमें रहकर इन्होंने अनुभव प्राप्त किया है । वे न केवल तात्कालिक मानव-जीवन और समाजके विभिन्न पहलुओंको ही आलोकित करते हैं अपितु मानों वे जीर्ण-विशीर्ण खण्डहरों, वनों और गिरिकन्दराओं में खड़े खड़े अपनी और तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक परि 'स्थितियोंकी वास्तविक कहानी, अतिगम्भीररूपसे पर मूकवाणीमें, उन सहृदय व्यक्तियोंको श्रवण करा रहे है जो पुरातन - प्रस्तरादि अवशेषोंमें अपने पूर्वपुरुषों की अमरकीतिलताका सूक्ष्मावलोकन कर स्वर्णतुल्य नवीन प्रशस्त मार्गकी सृष्टि करते हैं । यदि हम थोड़ा भी विचार करके उनकी ओर दृष्टि केन्द्रित करें तो बिदित हुए बिना नहीं रहेगा कि प्रत्येक समाज और जाति की उन्नत दशाका वास्तविक परिचय इन्हीं खण्डित अवशेषोंके गम्भीर अध्ययन, मनन और अन्वेषणपर अवलम्बित है । मेरा तो मानना है कि हमारी सभ्यता की रक्षा और अभिवृद्धिमें किसी प्राचीन साहित्यादिक ग्रन्थोंसे इनका स्थान किसी
से भी कम नहीं, स्थायित्व तो साहित्यादिसे इनमें अधिक है। साथ ही साथ यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्यकार जिन उदात्त भावोंका व्यक्तीकरण बहुत
स्थान रोककर करता है, जबकि कलाकार जड़ वस्तुओं पर अत्यन्त सीमित स्थान में अपनी छैनी द्वारा उन भावनाओंको विश्वलिपिके रूपमें व्यक्त करता है । निरक्षर जनता भी इस विश्वलिपिसे ज्ञान प्राप्त कर लेती है ! एक समय था जब इन कलाकारोंका समादर भारतमें सर्वत्र था, सांस्कृतिक अमरतत्त्वोंके प्रचारण एवं संरक्षण में वे सबसे अधिक दायित्व रखते थे । लौकिक जनोंकी रुचि और परिष्कृत विचारधारा के अक्षुण्ण प्रवाहको वे जानते थे । उनका जीवन सात्विक और मनोवृत्तियाँ आज के कलाकारोंके लिये आदर्शकी वस्तु थीं । इन्हीं किन्हीं कारणोंसे प्राचीन भारतीय साहित्य में इनको उच्च स्थान प्राप्त था। जैनाचार्य श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी - जो अपने समयके बहुत बड़े दार्शनिक और प्रतिभासम्पन्न विद्वान् प्रन्थकार थे-ने अपने षोडश प्रकरणोंमें कलाकारोंके सम्बन्धमें जो विचार व्यक्त किये हैं वे हमारे लिये बहुत ही मूल्यवान् हैं । वे लिखते हैं "कलाकारको यह न समझना चाहिये वह हमारा वेतन भोगी भृत्य है पर अपना सखा और प्रारम्भीकृत कार्य में परमसहयोगी मानकर उनको आवश्यक सभी सुविधाएँ प्रदान कर सदैव सन्तुष्ट रखना चाहिये, उनको किसी भी प्रकारसे ठगना नहीं चाहिये, वेतन ठीक देना चाहिये, उनके भाव दिन प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हों वैसा आचरण करनेसे ही वे उच्चकी रचनाका निर्माण कर समाजके आध्यात्मिक कल्याण में आंशिक सहायक प्रमाणित हो सकते हैं ।" और ग्रन्थोंमें भी इन्हीं भावोंको पुष्ट करने वाले अन्यान्य उद्धरण उपलब्ध हैं पर उनकी यहाँ विवक्षा नहीं ।
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अनेकान्त
[ वर्ष ९
यहाँपर प्रश्न यह उपस्थित होजाता है कि शिल्प तल्लीन होजाता है भले ही वह उनके मर्मस्पर्शी इतिहै क्या ? क्योंकि सर्वसभ्यताओंके लिये शिल्प परम हाससे परिचित न हो। एवं कलाविज्ञ तो इनमें
आवश्यक है। जिस प्रकार प्राणीमात्रकी संवेदनाका महान् सत्यके दर्शन करते हैं; क्योंकि विषयको सर्वोच्च शिखर सङ्गीत है ठीक उसी प्रकार शिल्पका भनेकी शक्ति उनमें है । कथनका तात्पर्य केवल इतना विस्तृत और व्यापक भवन निर्माण है । जनतामें ही है कि मानव-संस्कृतिके विकास और संरक्षणमें आमतौरपर-अर्थात् लोकभाषामें शिल्पका सामान्य जिनका भी योग रहा है उनमें शिल्पकार सर्वप्रथम अर्थ ईटपर ईट या प्रस्तरपर प्रस्तर सजा देना ही स्थानपर है । मानवके आभ्यंतरिक जीवनसे भी शिल्प माना जाता है। परन्तु वस्तुस्थिति देखनेसे इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह अरण्यवासी यह परिभाषा भावसूचक नहीं मालूम देती-अपूर्ण ही क्यों न रहा हो। है। शिल्पकी सर्वगम्य व्याख्या करना भी तो भारतीय वास्तुकलाका इतिहास यों तो जबसे आसान नहीं।
मानवका विकास हुआ तभीसे ही मानना होगा पर' परन्तु फिर भी प्रो० मुस्कराज आनन्दने निम्न शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से कला-समीक्षकोंने मोहेंजोदडो पंक्तियों में जो परिभाषाकी है वह उपयुक्त है-"शिल्प एवं हरप्पासे माना है। इस युगके पूर्व जहाँ तक हम वही है जो निर्माण-सामग्रियों - द्वारा कल्पनाके समझते हैं जो युग बाँस, लकड़ी, पत्तोंकी झोंपड़ियों आधारपर बनाया जाय । उस शिल्पको हम कभी का था वह अधिक महत्वपूर्ण था, सात्विक भावअद्वितीय कह सकते हैं जिसकी कला एवं कल्पनाका नाओंको भी लिये हुए था, प्रकृतिकी गोदमें मानवको प्रभाव मनुष्यपर पड़ सके"। उपर्युक्त दार्शनिक पद्धति जो विचारकी मौलिक सामग्री मिलती है उसे ही वह की परिभाषासे कलाकारोंका जो उत्तरदायित्व बढ़ मानव-समाजकी भलाई के लिये कलाके द्वारा मूर्तरूप जाता है वह किसीसे अब छिपा नहीं। "मनुष्यपर देता है। इस प्रकार दिन प्रतिदिन वास्तुक प्रभाव" और "प्राप्त सामग्रियों-द्वारा निर्माण" ये विकास होता गया, अजंटा, जोगीमारा, बाग, इलोरा शब्द गम्भीर अर्थ रखते हैं। प्राप्त सामग्री यानि केवल चाँदबड़, पदुकोटा, एलिफंटा आदि अनेकों ऐसी कलाकारके औजार और एतद्विषयक साहित्यिक ग्रंथ गुफाएँ हैं जो भारतीय तक्षण और गृह-निर्माणकलाही नहीं हैं अपितु उनके वैयक्तिक विशुद्ध चरित्रकी को श्रेष्ठ प्रतीक हैं। वास्तुकलाका प्रवाह समयकी
ओर भी व्यंग्यात्मक संकेत है। कल्पनात्मक शिल्प गति और शक्तिके अनुरूप बहता गया, समय समय निर्माणमें जो मानसिक पृष्ठभूमि तैयार करनी पड़ती पर कलाविज्ञोंने इसमें नवीन तत्त्वोंको प्रविष्ट कराया है वह कला-समीक्षकोंके लिये अनुभवका ही विषय कि मानों वह यहाँकी ही स्वकीय सम्पत्ति हो, निर्माण है। कल्पना-द्वारा मानव जगतके आध्यात्मिक और पद्धति, औजार आदिमें भी क्रान्तिकारी परिवर्तन भौतिक संस्कृति के उच्चतम सिद्धान्तोंका समुचित हुए। जब जिस विषयका सार्वभौमिक विकास होता अङ्कन ही प्रभावोत्पादक हो सकते हैं। तभी तो है तब उसे विद्वान लोग लिपिबद्ध कर साहित्यका मानव उनके प्रभावसे प्रभावित होता है। आश्चर्य- रूप दे देते हैं, जिससे अधिक समय तक मानवके जनक वायुमण्डलमें सभी आकर्षण रखते हैं। जिन संपर्कमें रह सकें, क्योंकि कल्पना-जगतके सिद्धान्तों को प्राचीन खंडहरोंको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ की परम्परा तभी चल सकती है जब उत्तराधिकारी है यदि उनके साथ कलाप्रेमी और कलाके तत्वोंको मिलता है। गत पाँच हजारसे अधिक वर्षों का वास्तुन जानने वाले व्यक्ति साथ रहे हों तब तो कहना ही कलाका इतिहास महत्वपूर्ण, रोचक और ज्ञानवर्द्धक क्या ?-उनको अनुभव होगा कि प्राचीन शिल्प- है। इसके नमूनेके स्वरूप प्राचीन गृह, मन्दिर, मूर्तियाँ, कलात्मककृतियोंका जो कोई भी अवलोकन करता है किले, शस्त्रादि मानव समाजोपयोगी अनेक उपकरण
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किरण ६ ]
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वर्तमान हैं, जिनपर लाखों पृष्ठोंमें लिखा जाय तो कम है । मुझे तो प्रकृत निबन्ध में केवल जैनपुरातत्व के अंगीभूत जो अवशेष उपलब्ध होते हैं-नष्ट होने की प्रतीक्षामें हैं— उन्हींपर अपने त्रुटिपूर्ण विचार व्यक्त कर समाज के विद्वान और धनीमानी व्यक्तियोंका ध्यान अपनी सांस्कृतिक सम्पत्तिकी ओर आकृष्ट करना है और यही इस निबन्धका उद्देश्य है ।
जैनपुरातन अवशेष
आर्यावर्तका सम्भवतः शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँपर यत्किञ्चितरूपेण जैन- पुरातत्व के अवशेष उपलब्ध न होते हों, प्रत्युत कई प्रान्त और जिले तो ऐसे हैं जो जैनपुरातत्त्वकी सभी शाखाओंके पुरातनावशेषों को सुरक्षित रक्खे हुए हैं; क्योंकि सांस्कृतिक उच्चताके प्रतीक- सम इनके निर्माण में आर्थिक सहायक जैनोंने अपने द्रव्यका अन्य समाजापेक्षया सर्वाधिक व्यय कर जैन संस्कृतिकी बहुत अच्छी सेवा की है । बङ्गाल, मेवाड़ और मध्यप्रान्त आदि कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँपर कालके महाचक्र के प्रभावसे आज जैनोंका निवास नहीं है पर जैनकला के मुखको समुज्ज्वल करने वाले मन्दिर, स्तम्भ, प्रतिमा या खंडहर विद्यमान हैं। ये पूर्वकालीन जैनों के निवासके प्रतीक हैं । एक समय था जब बङ्गाल जैन संस्कृति से सावित था, पूर्वी बङ्गालमें जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । कलकत्ता विश्वविद्यालयके प्रो० गोस्वामीने मुझे बताया था कि पहाड़पुरदिनाजपुर में दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ निकली हैं वे प्राचीन कला-कौशल की दृष्टि से अध्ययनकी वस्तु हैं । (इन प्रतिमा-चित्रोंका प्रकाशन आ० स० इ० रि०में हो चुका हैं) ।
आज भी उस ओर जब कभी उत्खनन होता है तब जैनधर्मसे सम्बन्ध रखने वाली सामग्री निकलती
रहती है; पुरातत्व विभागवाले साधारण नोट कर इन्हें प्रकट कर देते हैं, वे बेचारे इन अवशेषोंकी विविधता और प्रसङ्गानुसार जो भव्यता है, किसके साथ क्या सम्बन्ध है आदि बातें ही आवश्यक साधनोंके अभाव से नहीं जान पाते हैं तो फिर करें भी तो क्या करें ?
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मेरे मित्र 'मोडर्नरिव्यु के बर्तमान संपादक श्रीमान् केदारनाथ चट्टोपाध्याय, जो पुरातत्त्वके अच्छे विद्वान हैं, बता रहे थे कि उनके गाँव बाँडाकी पहाड़ियोंमें बहुतसी जैन प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं जो रक्त पाषाणपर उत्कीर्णित हैं, इनके आगे वहाँकी जनता न जाने क्या-क्या करती है। पश्चिम बङ्गाल में सराकजातिके भाइयोंके जहाँ-जहाँपर केन्द्र हैं उनमें प्राचीन बहुतसी सुन्दर कलापूर्ण शिखरयुक्त मन्दिरप्रतिमाएँ सैकड़ों की संख्यामें उपलब्ध हैं । इन अवशेषों को मैंने तो देखा नहीं परन्तु मुनि श्री प्रभावविजयजी की कृपासे उनके फोटो अवश्य देखे, तबियत बड़ी प्रसन्न हुई । श्रीमान् ताजमलजी बोथरा - जो वर्तमान सराकजातिकी संस्थाके मन्त्री हैं-से मैं आशा करता हूँ कि वे सारे प्रान्तमें- जहाँ सराक बसते हैं — जहाँ कहीं भी जैन अवशेष हों उनके चित्र तो अवश्य ही लेलें । खोज की दुनिया से यह स्थान कोसों दूर है। कई ऐसे भी हैं जो प्राचीन स्मारक रक्षा कानूनमें न होने से उनके नाशकी भी शीघ्र संभावना है।
मेदपाट - मेवाड़ में भी कलाके अवतार-स्वरूप जैन मन्दिरोंकी संख्या बहुत बड़ी है, ये खासकर १४वीं शताब्दीकी बादकी तक्षरणकला से सम्बन्धित हैं। बड़े विशाल पहाड़ोंपर या तलहटीमें मन्दिर बने हैं जहाँ पर कहीं-कहीं तो जैनीके घरकी तो बात ही क्या की जाय मानवमात्र वहाँ है ही नहीं। ऐसे मन्दिरों में से लोग मूर्ति तो अवश्य ही उठा लेगये परन्तु प्रत्येक कमरोंमें जो लेख हैं उनकी सुधि आज तक किसीने नहीं ली। कहने को तो विजयधर्मसूरिजीने कुछ लेख अवश्य ही लिये थे पर उन्होंने लेखोंके लेनेमें तथा प्रकाशन में भी पक्षपातसे काम लिया, साम्प्रदायिक व्यामोहके कारण सर्व लेखों का संग्रह भी वे न कर सके, पुरातत्त्व के अभ्यासी के लिये यह बड़े कलङ्ककी बात है ।
अत्यन्त खेद की बात है कि उपर्युक्त साधनों पर न तो वहाँकी जैन जनताका समुचित ध्यान है और न वहाँकी सरकार ही कभी सचेष्ट रही है । अस्तु, अब ता प्रजातन्त्रीय राज्य है, मैं आशा करता हूं कि बाँके लोकप्रिय मन्त्री इस ओर अवश्य ध्यान देंगे ।
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अनेकान्त
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पद्धतिसे देखते हैं । वे नहीं चाहते हैं कि हमारी सभ्यतासे सम्बन्धित कोई भी साधन हमारी दृष्टिसे वश्चित रहे । कैसी खोजकी लगन ? जब हम तो बड़े आनन्दसे बैठे हैं, विशाल सम्पत्तिका स्वामी जैन समाज भी आज अकिश्चिन बनकर जीवन यापन करे यह उचित नहीं । जैनोंका तो प्रथम कर्तव्य है कि वे अपने कलात्मक खण्डों को एकत्र करें या उनपर अध्ययन करें। मैं मानता हूँ आज जैन समाज के सामने बहुत-सी ऐसी समस्याएँ हैं जिनको सुलझाना, समयकी गति और शक्तिको देखना अनि वार्य है, परन्तु जो प्राचीन संस्कृतिके रङ्गमें रङ्गे हुए हैं उनको तो पुरातन अवशेषोंकी रक्षाका प्रश्न ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण और शीघ्रातिशीघ्र ध्यान देने योग्य है । यह युग सांस्कृतिक उत्थानका है । स्वतन्त्र भारतका पुनर्निर्माण होने जारहा है। ऐसे अवसरपर चुप बैठना - जबकि आजका वायुमण्डल सर्वथा हमारे अनुकूल है -भारी अकर्मयता और पतनकी निशानी है । यों तो भारत सरकारने पुरातत्त्वकी खोजका एक स्वतन्त्र विभाग ही खोल रखा था, जिसके प्रथम अध्यक्ष जनरल कनिंघम ई० सन् १८६२ में नियुक्त किये गये थे । इन्होंने और बादमें इसी पदपर आने वाले महानुभावोंने अपने गवेषणा – खुदाई के समय जो जो जैन अवा शेष उपलब्ध हुए और जिस रूपमें वे प्राप्त साधनों के आधारपर उनका अध्ययन कर सके, उसी रूपमें यथासाध्य समझने का प्रयास किया। इस विभाग की रिपोर्ट में जैन पुरातन अवशेषोंके चित्र और विवरण भरे पड़े हैं । कहीं विकृतियुक्त भी वर्णन है । डा० जैन्स बर्जेस, कर्नल टॉड, डा० बूलर, डा० भांडारकर (पिता-पुत्र) डा० गेरिनॉड, डा० गौ० हीरा० ओझा, 'मि० नरसिंहाचारियर, मुनि जिनविजयजी, और स्व० बाबू पूर्णचन्दजी नाहर आदि अनेकों पुरातत्त्व के पण्डितोंने जैन पुरातन अवशेषोंकी जो गवेषणकर आदर्श उपस्थित किया है वह आज भी अनु करणीय है । पूर्व गवेषित साधनोंके आधारपर से स्वर्गीय ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने "प्राचीन जैन
मध्यप्रान्त और बरार छह वर्ष तक मेरे विहार का क्षेत्र रहा है, यहाँके पुरातत्त्वपर मैंने विशाल भारत १९४७ जुलाई, अगस्त, सितम्बर, नवम्बर, दिसम्बर आदि में कुछ लेख लिखे हैं । इनके अतिरिक्त लखनादौन, धुनसौर, कांकेर, बस्तर, पद्मपुर, आरङ्ग, पौनार, भद्रावती आदि प्रचीन स्थानोंमें यदि खुदाई करवाई जाय तो बहुत बड़ी निधि निकलनेकी पूर्ण सम्भावना है । इन सभी स्थानोंपर जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । यवतमालकी जैन रिसर्च सोसाइटीके कार्यकर्ताओं का ध्यान मैं इन क्षेत्रोंपर आकृष्ट करता हूं। वे कमसे कम मध्यप्रान्त और बरारके जैन पुरातत्त्वपर अन्वेषणात्मक ग्रन्थ प्रस्तुत करें ।
भारतीय जैन तीर्थ और मन्दिर आदिका केवल वास्तुकला की दृष्टिसे यदि अध्ययन किया जाय तो विदित हुए बिना न रहेगा कि तक्षणकलाके प्रवाहको जैनोंने कितना वेग दिया, पुरातन जैनोंका नैतिक जीवन कलाके उच्चातिउच्च सैद्धान्तिक रहस्योंसे श्रोतप्रोत था, आज कलाकी उपासना स्वतन्त्ररूपसे करना तो रहा दूर परन्तु जो अवशेष निर्मित हैं उनको सँभालना तक असम्भव होरहा है। एक लेखकने ठीक ही लिखा है कि "इतिहास बनाने वाले व्यक्ति तो गये परन्तु उनकी कीर्ति-गाथाको एकत्रित करने वाले भी उत्पन्न नही होरहे हैं" जैन समाजपर उपर्युक्त पंक्ति सोलहों खाना चरितार्थ होती है ।
आजके गवेषणा- युगमें इनकी उपेक्षा करना अपनी जानबूझकर अवनति करना है। इनके प्रति अन्यथा भाव रखना ही हमारे पूर्वजोंका भयङ्कर अपमान है— उनकी कीर्तिलताकी अवहेलना है । सांस्कृतिक पतनसे बढ़कर संसार में कोई पतन नहीं है । सुन्दर अतीत ही अनागतकालकी सुन्दर सृष्टि कर सकता है। गड़े मुर्दे उखाड़ना ही पड़ेगा, वे ही हामी युग निर्माण में मददगार होंगे। उनके मौनानुभव से हमको जो उत्साह-प्रद प्रेरणाएँ मिलती हैं वे अन्यत्र कहाँ मिलेंगी ? आज सारा विश्व अपनी अपनी सभ्यता के गहनतम अध्ययनमें व्यस्त हैं । वहाँके विद्वान् एक-एक प्रस्तर खण्डको विशिष्ट
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किरण ६ ]
जैनपुरातन अवशेष
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स्मारक" नामक संग्रहात्मक ग्रन्थोंकी रचना की है। यही सम्मति दूंगा कि जैनसमाजको सर्वप्रथम पुरातत्त्व
आज वह बिल्कुल अपूर्ण है। उसमें अनुकरणमात्र के उस भागको लेना चाहिये जो तक्षणकलासे सम्बन्ध है, थोडासा भी यदि स्वकीय खोजसे काम लिया रखता हो, वही उपेक्षित विषय रहा है। क्योंकि जाता तो काम अच्छा और पुष्ट होता । उन दिनों न इनकी संख्या भी सर्वाधिक है। मुझे स्पष्ट कर देना तो जैनसमाजकी सार्वभौमिक रुचि थी और न चाहिये कि अरक्षित अवशेषोंकी ओर ही केवल मेरा एतद्विषयक प्रवृत्तिमें सहायता प्रदान करने वाले संकेत नहीं है मैं तो चाहता हूँ जो प्राचीन मन्दिरसाधन ही सुलभ थे। आज सभी दृष्टिसे वायु- प्रतिमाएँ आज आमतौरसे पूजा-अर्चनाके काममें मण्डल सर्वथा अनुकूल है। जो सामग्री नष्ट होचकी आते हैं और कलापूर्ण हैं उनके उद्धारके लिये भी है उनपर तो पश्चात्ताप व्यर्थ ही है, जो अवशिष्ट है सावधान रहना अनिवार्य है। उद्धारका अर्थ कोई उनका भी यदि समुचित उपयोग कर सकें तो यह न लगा बैठे कि उनको नये सिरेसे बनवावें, सौभाग्य ! "जगे तबसे ही प्रातःकाल सही"। परन्तु उन कलापूर्ण सम्पत्तियोंके सुन्दर फोटू ले
पूर्व पंक्तियों में सूचित किया जाचका है कि जैन लिये जायें, जिस समयकी कला हो उस समयकी अवशेषोंका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जहाँपर जङ्गलों ऐतिहासिक सामग्रीका उपयोग कर उनका अध्ययन में जो प्रतिमाएँ हैं उनका कला या धार्मिक दृष्टिसे कर फल प्रकाशित करवाया जाय, नष्ट होनेसे बचाया कौन मूल्याङ्कन करे ? वहाँ तो सुरक्षित रहना ही जाय, अर्थात पुरातनताको प्रत्येक उपायसे बचाया असम्भव है । मैंने कई जगहपर (C. P. में) मूर्तियों- जाय । जहाँपर मालूम हो कि यहाँपर खुदाई करानेसे का पाषाण अच्छा होनेसे लोगोंको कुल्हाड़ी और जैनमन्दिर या अवशेष निकलेंगे वहाँपर भी भारत छुरे घिसते हुए देखा, कई स्थानोंपर तो उनके सामने सरकारके पुरातत्त्व विभागसे खुदाई करवानी अमानुषिक कार्य भी होते हैं । परम वीतराग चाहिये, आर्थिक सहायता करनी चाहिये। परमात्मा अहिंसाके अवतार-सम प्रतिमाके सामने क्योंकि सरकार तो समस्त भारतके लिये ग्रामीण लोग बलिदान तक करते देखे गये । सीमित अर्थ व्यय करती है। अतः इतने विशाल जबलपुरवाला बहुरीबन्द इसका उदाहरण है । यदि कार्यका उत्तरदायित्व केवल गवर्नमेण्टपर छोड़कर स्वतन्त्ररूपसे गवेषणा करें तो ऐसे अनेकों उदाहरण समाजको निश्चेष्ट न होना चाहिये। सरकार आपकी मिल सकते हैं।
है। अपने कर्तव्यसे समाजको च्युत न होना चाहिये। . शब्दकोशोंके और पुरातत्त्वकी सीमाका गम्भीर सारे समाज में जबतक पुरातत्त्वान्वेषणकी क्षुधा जागत अध्ययन करनेके बाद अवभासित होता है कि पुरा- नहीं होती तबतक अच्छे भविष्यकी कल्पना कमसे तत्त्व एक ऐसा शब्द है जो अत्यन्त व्यापक अर्थको कम मैं तो नहीं कर सकता। अतीतको जाननेकी लिये हुए है, इतिहास आदिके निर्माणमें जिन्हीं-किन्हीं प्रबल आकांक्षा ही को मैं अनागतकालका उन्नतरूप वस्तुओंकी–साधनोंकी-आवश्यकता रहती है वे मानता हूँ। कलकत्ताके विहार में मैंने केवल एक बाबू सभी इसके भीतर सन्निविष्ट हैं, उन सभी साधनोंपर छोटेलालजी जैनको ही देखा जो जैन पुरातत्त्व न तो प्रकाश डालने का यह स्थान है न कुछ पंक्तियों- विशेषतः राजगृही आदि जैन प्राचीन स्थानोंकी में उन सबका समुचित परिचय ही कराया जा सकता खुदाई और अन्वेषणके लिये तड़फते रहते हैं। वे है। वर्षोंकी साधनाके बाद ही वैसा करना सम्भव स्वयं भी न केवल पुरातत्त्वके प्रेमी हैं अपितु विद्वान् है। मैंने इस निबन्धमें अपना कार्य-प्रदेश बहुत ही भी हैं । वे वर्षों से स्वप्न देखते आये हैं कब जैन पुरासङ्कुचित रखा है। मुझसे यदि कोई पुरातत्त्वपर तत्त्वका संक्षिप्त इतिहास तैयार हो, दौड़ते भी वे अध्ययन करने-करानेके सम्बन्धमें प्रश्न करे तो मैं तो खूब हैं पर अकेला आदमी कर ही क्या सकता है ?
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प्रत्येक व्यक्तिको इस बातका सदैव स्मरण रखना चाहिये कि जिस विषयपर उसकी रुचि हो या जिसे वह अध्ययन करना चाहे उसे सबसे पहले तदनुकूल मानसिक पृष्ठभूमि तैयार करनी होगी जो विषयके आन्तरिक तत्त्वोंको हृदयङ्गम करनेमें सहायक प्रमाणित हो सकें । पुरातत्व के अध्ययनको चलती भाषामें पत्थरोंसे सर फोड़ना या "गड़े मुर्दे उखाड़ना" कह सकते हैं। पर हृदय कोमल और भावुक चाहिये। यह जाल - चाहे आप रुचि कह लें - ही ऐसा विलक्षण है कि इसमें जो फँसता है वह इस जीवनमें तो नहीं निकल सकता, वह साधना ही बड़ी कठोर और भीषण श्रम साध्य है । पाषाण जगतके खण्डोंमें सदैव रत व्यक्तियकोंका मानसिक अध्ययन करेंगे तो मालूम होगा मानो विश्वके बहुतसे तत्वोंका यहीं समीकरण हुआ है।
अनेकान्त
पुरातन शिल्प और कलाके अभ्यन्तरिक मर्म को जाननेके लिये वर्तमान में निम्न बातोंपर ध्यान देना अनिवार्य है । मैं ऊपर ही कह आया हूँ मेरा क्षेत्र अत्यन्त संकुचित है। भारतीय जैन शिल्पका अध्ययन तब तक अपूर्ण रहेगा जबतक वास्तुकला के अङ्ग-प्रत्यङ्गोंपर विकासात्मक प्रकाश डालने वाले साहित्यकी विविध शाखाओं का यथावत् अध्ययन न किया जाय; क्योंकि तक्षणकला और उसकी विशेषता में परस्पर साम्य होते हुए भी प्रान्तीय भेद या तात्कालिक लोकसंस्कृतिके कारण जो वैभिन्न पाया जाता है एवं उस समयके लोक जीवनको शिल्प कहाँ तक समुचिततया व्यक्त कर सका है। उस समयपर जो वास्तुकला विषयक प्रन्थ पाये जाते हैं उनमें जिन जिन शिल्पकलात्मक कृतियों के निर्माणका शास्त्रीय विधान निर्दिष्ट है उनका प्रवाह कलाकारोंकी पैनी छैनी द्वारा प्रस्तरोंपर परिष्कृतरूपमें कहाँ तक उतरा है ? यहाँ तक कि शिल्पकला जब तात्कालिक संस्कृतिका प्रतिबिम्ब है तब उन दिनोंका प्रतिनिधित्व क्या सचमुच ये शिल्प कृतियाँ कर सकती हैं ? आदि अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का परिचय तलस्पर्शी अध्ययन और मनन के बाद ही सम्भव है।
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जैन अवशेषों को समझने के लिये सारे भारतवर्ष में पाये जाने वाले सभी श्रेणी के अवशेषोंका अध्ययन भी अनिवार्य है क्योंकि जैन और अजैन शिल्पात्मक कृतियोंका सृजन जो कलाकार करते थे वे प्रत्येक शताब्दी में आवश्यक परिवर्तन करते हुए एक धारा में बहते थे, जैसा कि वास्तुकलाके अध्ययनसे विदित हुआ है । प्रान्तीय कलात्मक अवशेषोंको ही लीजिये उनमें साम्प्रदायिक तत्त्वोंका बहुत ही कम प्रभाव पायेंगे, परन्तु शिल्पियोंकी परम्परा जो चलती थी वह अपनी कलामें दक्ष और विशेषरूपसे योग्य थी । मध्यकाल के प्रारम्भिक जो अवशेष हैं उनको बारहवीं शतीकी कृतियोंसे तोलें तो विहार, मध्यप्रान्त और बङ्गालकी कलामें कम अन्तर पाएँगे। मैंने कलचूरी और पालकालीन जैन तथा अजैन प्रतिमाओंका इसी दृष्टिसे संक्षिप्तावलोकन किया है उसपरसे मैंने सोचा है १०-१२ तक जो धारा चली वही तीर्थ प्रान्तोंको लेकर चली थी अन्तर था तो केवल बाह्य आभूषणोंकाही - जो सर्वथा स्वाभाविक है । कथनका तात्पर्य यह है कि एक परम्परामें भी प्रान्तीयकला भेदसे कुछ पार्थक्य दीखता है । प्राचीन लिपि और उनके क्रमिक विकासका ज्ञान भी विशेषरूपसे अपेक्षित है। मूर्तिविधान के अनेक अङ्गका अध्ययन ठोस होना अत्यन्त आवश्यक है । इतिहास और विभिन्न राजवंशोंके कालोंमें प्रचलित कलात्मक शैली आदि अनेक विषयोंका गम्भीर अध्ययन पुरातत्त्वके विद्यार्थियों को रखना पड़ता है । क्योंकि ज्ञानका क्षेत्र विस्तृत है । यह तो सांकेतिक ज्ञान ठहरा । उपर्युक्त पंक्तियों को छोड़कर अन्य व्यक्तियोंकी जानकारी भी अपेक्षित है ।
शिल्पकी आत्मा वास्तुशास्त्र में निवास करती है । परन्तु जैन शिल्पका यदि अध्ययन करना हो तो हमें . बहुत कुछ अंशोंमें इतर साहित्यपर निर्भर रहना पड़ेगा, कारण कि जैनोंने जो शिल्पकलाको प्रस्तरों पर प्रवाहित करने करानेमें जो योगदान दिया है उसका शतांश भी साहित्यिकरूप देने में दिया होता तो आज हमारा मार्ग स्पष्ट और स्थिर हो जाता,
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किरण ६]
जैनपुरातन अवशेष
प्रसङ्गानुसार कुछ उल्लेख आते हैं जिनका सम्बन्ध जैन तक्षण कलावशेषोंको अध्ययनकी सुविधाके शिल्पके एक अङ्ग-प्रतिमाओंसे है । यक्ष-यक्षिणी आदि लिये, निम्न भागोंमें बाँट दें तो अनुचित न होगा:की मूर्तियोंके निर्माणपर उनके आयुधोंपर कुछ प्रकाश १ मन्दिर, २ गुफाएँ, ३ प्रतिमाएँ–(प्रस्तर डालने वाले “निर्वाणकलिका" जैसे ग्रन्थ हैं पर वे धातु और काष्ठकी), ४ मानस्तम्भ, ५ अभिलेखअपूर्ण ही कहे जा सकते हैं, जो कुछ हैं वे उस समय (शिलालेख व प्रतिमालेख), ६ फुटकर । के हैं जबकि जैनसमाज शिल्पकलाकी साधनासे विमुख होचका था या उसमें रुचिका अभाव था। १ मा ठक्कुर' फेरूने "वास्तुसार प्रकरण" अवश्य ही किसी भी आस्तिक सम्प्रदायके लिये उसका निर्माण किया है । प्रतिष्ठादिके साहित्यमें उल्लेख आये अपना आराधना-स्थान होना बहुत आवश्यक है, हैं पर सार्वभौमिक उपयोगिता नहींके बराबर है। जहाँपर आध्यात्मिक साधना की जासके। अतः जैनोंको अपने अवशेषोंका अध्ययनकर प्रकाश जैनसमाजने पूर्वकालमें पर्याप्त मन्दिरोंका निर्माण में लाने में जरा कष्टका सामना करना पड़ेगा, साहित्य बड़े उत्साह पूर्वक किया, जिनमेंसे कुछ तो भारतीय के अभावमें अवशेषोंसे ही शिल्पकलाका प्रकाश लेकर तक्षणकलाके उत्कृष्टतम नमूने हैं । इन मन्दिरोंकी इसी प्रकाशसे अन्याय अवशेषोंकी गवेषणा करनी रचना-पद्धति अन्य सम्प्रदायोंकी आराधना-स्थानोंकी होगी, काम कठिन अवश्य है पर उपेक्षणीय भी तो अपेक्षासे बहुत ही उन्नत और आंशिकरूपमें स्वतन्त्र नहीं है । श्रमजीवी और बुद्धिजीवी मानव-विद्वान ही भी है। भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें मन्दिर पाये जाते हैं वे इन समस्याओं को सुलझा सकते हैं।
अपनी पृथक्-पृथक् विशेषता रखते हैं । इनके १ ठाकुर जैनसमाजके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थकार इतिहास प्रेमी निर्माणका हेतु भी अत्यन्त व्यापक था, वास्तुशास्त्र में
सजनोंके प्रथमश्रेणी में आते हैं इनके जीवन और कार्यके आया है धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी साधनाके लिये देखें "विशाल भारत," मई-जून सन् १९४७ ।।
लिये मन्दिरोंकी सृष्टि होती है । यह सिद्धान्त इतर २ परिस्थितियोंपर विचार करनेके बाद यह प्रश्न तीब्रता
मन्दिरोंपर सोलहों आना चरितार्थ होता है, परन्तु से उठता है कि जैन शिल्पकलाका इतिहास क्यों नहीं ?
, हाँ, प्राचीन जैन मन्दिरोंके अवलोकनसे विदित होता जब प्रतीक मौजूद हैं तो इतिवृत्त अवश्य चाहिये। जैन
है कि जैनोंने इनको लोकभोग्य-आकर्षक बनानेका विद्वानोंको गम्भीरतासे सोचकर एक ऐसी समिति नियत भरसक प्रयास किया था, मन्दिरोंके बाहरके भागमें कर देनी चाहिये, जो इसका अनुशीलन प्रारम्भ कर दे। जो पंक्तिबद्ध अलंकरण एवं शिखरके निम्न भागमें इलाहाबाद विश्वविद्यालयके अध्यापक डा. प्रसन्नकमार जो भिन्न-भिन्न शिल्पके स्थान है उनमें तात्कालिक प्राचार्य और पटना वाले डा. विद्यापद भट्टाचार्य लोक जीवनके तत्त्व कहीं-कहीं खोदे गये हैं। शिखर भारतीय शिल्प स्थापत्यकला और एतद्विषयक साहित्यके निमोणकलाको तो जैनोंकी मौलिक देन कहें तो कल गम्भीर विद्वान् है : इनसे भी लाभ उठाना चाहिये। है कि जिन जिन प्रकारके शिल्पोल्लेख साहित्यमें श्राए
अाज भी गुजरात-काठियावाड़ में सोमपुरा नामक हैं वे पाषाणपर कहाँ कैसे और कब उतरे हैं, इनका एक जाति है जिसका प्रधान कार्य ही शास्त्रोक्त शिल्प- प्रभाव विशेषतः किन किन प्रान्तोंके जैन अवशेषोंपर विद्याके संरक्षण एवं विकासपर ध्यान देना है । ये पड़ा है, बादमें विकास कैसे हुआ, अजैनसे जैनोंने और प्राचीन जैन शिल्प स्थापत्यके भी विद्वान् और क्रियात्मक जैनसे अजैन कलाकारोंने क्या लिया दिया आदि बातोंअनुभवी हैं । इन लोगोंकी मददसे एक आदर्श जैन का उल्लेख सप्रमाण, सचित्र होना चाहिये। काम निःसंदेह शिल्पकला-सम्बन्धी ग्रन्थ अविलम्ब तैयार हो ही जाना श्रमसाध्य है पर असम्भव नहीं है, जैसा कि अकर्मण्य चाहिये । इसमें इन बातोंका ध्यान रखा जाना अनिवार्य मान बैठते हैं।
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अंशोंमें अनुचित नहीं । पश्चिम भारतके प्रायः तमाम मन्दिरोंके शिखर एक ही पद्धतिके हैं। अन्य प्रान्तोंमें वहाँके प्रान्तीय तत्वोंका प्रभाव है। गर्भगृह, नवचौकी, सभामण्डप आदि में अन्तर नहीं, परन्तु मन्दिर में गर्भगृहके अग्रभाग में सुन्दर तोरण, स्तम्भ एवं तदुपरि विविधवाद्यादि सङ्गीतोपकरण धारक पुतलियाँ, उनका शारीरिक गठन, अभिनय, आभूषण तथा शिखरके ऊपरके भाग में जो अलङ्करण हैं उनमें प्रान्तीय कलाका प्रभाव पाया जाना सर्वथा स्वाभविक है | जैनमन्दिरोंके निर्माणका सब अधिकार सोमपुराओं को था, वे आज भी प्राचीन पद्धतिके प्रतीक हैं, जिनमें भाई शङ्कर भाई और प्रभाशङ्कर भाई, नर्मदाशङ्कर आदि प्रमुख हैं। पं० भगवानदास जैन भी शिल्पविद्याके दक्ष पुरुषोंमें हैं। आबू, जैसलमेर, राणकपुर, पालिताना, खजुराहा. देवगढ़ और श्रवणबेलगोला, जैनकाची, पाटन आदि अनेक नगरोंके मन्दिर स्थापत्यकला के मुखको उज्ज्वल करते हैं ।
बूके तोरण-स्तम्भ और मधुच्छत्र भारतमें विख्यात हैं । मध्यकालीन जैन शिल्पकलाके विकास के जो उदाहरण मिले हैं उनमें अधिकांश जैनमन्दिर ही हैं। इनके क्रमिक इतिहासपर प्रकाश डालने वाला एक
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प्रकाशित हुआ, जिससे अजैनकलाप्रेमी भी जैनकलासे लाभान्वित होसकें । यह इतिहास तैयार होगा तब बहुतसे ऐसे तत्त्व प्रकाशमें आवेंगे जो आज तक वास्तुकला के इतिहासमें आये ही नहीं । न जाने उस स्वर्ण दिनका कब उदय होगा ?
कलकत्ता-विश्वविद्यालयकी ओरसे हाल हीमें "हिन्दु टेम्पल" नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित हुआ है जिसे एक हंगेरियन स्त्री डॉ० स्टेलाक्रेमशीशने वर्षोंके परिश्रमसे तैयार किया. है । इसमें भारतवर्षके विभिन्न प्रान्तोंमें पाये जाने वाले प्रधानतः हिन्दूमान्य मन्दिर, उनका वास्तुशास्त्र की दृष्टि से विवेचन, मन्दिरों में पाई जाने वाली अनेक 'शिल्पकृतियोंके जो चित्र प्रकाशित किये हैं वे ही उन की महत्ता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। मैंने अपनी परिचिता डॉ० स्टेलाक्रेमशीशसे यों ही बातचीत के सिलसिले में
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कहा कि आपका कार्य त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इनमें जैन. मन्दिरोंकी पूर्णतः उपेक्षा की गई है जो कलाकौशलमें किसी दृष्टिसे प्रकाशित चित्रोंसे कम नहीं पर बढ़कर हैं। वह कहने लगी मैं करूँ क्या मुझे जो सामग्री मिली है उसके पीछे कितना श्रम करना पड़ा है आप जानते हैं ।
मैं तो बहुत ही लज्जित हुआ कि आज के युग में भी हमारा समाज संशोधकको न जाने क्यों घृणित दृष्टि से देखता है। मेरे लिखनेका तात्पर्य इतना ही है कि हमारी सुस्ती हमें ही बुरी तरह खाये जारही है, . इससे तो दुःख होता है। न जाने आगामी सांकृतिक निर्माण में जैनोंका जैसा योगदान रहेगा, वे तो अपने ही इतिहास के साधनों पर उपेक्षित मनोवृत्ति रक्खे हुए हैं । जैन मन्दिरोंमें से जो भरतीय शिल्प और वास्तुकला की दृष्टिसे अनुपम मन्दिर हैं उनका एक आल्बम तैयार होना चाहिए जिसमें मन्दिर और उनकी कला के क्रमिक विकास पर आलोक डालने वाला विस्तृत प्रास्ताविक भी हो ।
२ गुफाएं -
जिस प्रकार मन्दिरोंकी संख्या पाई जाती है उतनी गुफाओंकी संख्या नहीं है गुफाओंको यदि कुछ अंशोंमें मन्दिरोंका अविकसितरूप मानें तो अनुचित नहीं, यह रामटेक, चाँदवड, एलोरा, ढक्क आदि पर्वतोत्कीर्ण गुफाओंसे प्रमाणित होता है। इनका इतिहास तो पूर्णान्धकाराच्छन्न है, जो कुछ गजेटियर्स और आँग्ल पुरातत्त्ववेत्ताओंने लिखा है उसीपर आधार रखना पड़ता है। इनमें एक भूल यह होगई है कि बहुसंख्यक जैन गुफाएँ बौद्धस्थापत्यावशेषों के रूपमें आज भी मानी जाती हैं। उदाहरण के लिये राजगृहस्थित रोहिणेयकी ही गुफा लीजिये, जो पाँचवें पहाड़पर अवस्थित है। जनता इसे "सप्तपर्णी गुफा" के रूप में पहचानती है आश्चर्य तो इस बात का है कि पुरातत्व विभागकी ओरसे बोड भी वैसा ही लगा है। और भी ऐसे अनेक जैन सांस्कृतिक प्रतीक मैंने देखे हैं जो इतर सम्प्रदायोंके नाम
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गुफाओं का निर्माण जिन विशेष परिस्थितियों में किया गया था वे तत्व ही आज विलुप्तप्राय हैं। आध्यात्मिक साधनाके उन्नत पथपर अग्रसर होने वाली भव्यात्माएँ यहाँपर निवास कर, दर्शनार्थ आकर पूर्व शान्तिका अनुभव कर आत्मिकतत्त्व के रहस्य तक पहुँचनेका शुभ प्रयास करती थीं, प्राकृतिक वायुमण्डल भी पूर्णतः उनके अनुकूल था, स्वाभाविक शान्ति ही चित्तवृत्तियोंको स्थिरकर एक निश्चित मार्ग की ओर जानेके लिये इंगित करती है । इनमें उत्कीर्णित विशालकाय ध्यानावस्थित जिन प्रतिमाएँ प्रत्येक दर्शनार्थीको एक बहुत बड़ा अनुपम सौंदर्य देती हैं, राग, द्वेष, मद, प्रमाद तथा आत्मिक प्रवच नासे बचने के लिये, शून्यध्यानमें विरत होनेमें जो साहाय्य देती हैं वह अन्यत्र कहाँ ? कुछ गुफाएँ तो अनेक जिनमूर्ति एवं तदङ्गीभूत समस्त उपकरणोंसे सुसज्जित दृष्टिगोचर होती हैं जिनको देखनेसे अव भासित होता है कि मानो यहाँ शिल्पकला उन कलाकारों की जीवित छैनीका तीव्र परिचय कराती है। कथनका तात्पर्य यह कि मानवोंके दैनिक जीवन और उनके प्रति औदासीन्यभावोंकी प्रेरणात्मक जागृति कराने वाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वोंका समीकरण दृष्टिगोचर होता है । मानवके उन्नत मस्तिष्क के चरम विकासका जीवन प्रतीक हमें वहाँ दीखता है ।
इन गुफाओंके दो प्रकार किसी समय रहे होंगे या एक ही गुफा में दोनोंका समावेश हुआ होगा, कारण कि जैनोंका सांस्कृतिक इतिहास हमें बताता है कि पूर्वकालमें जैनमुनि अरण्यमें ही निवास करते थे केवल भिक्षार्थ - गोचरीके लिये - ही नगर में पधारते १ राजगृहमें शालिभद्रका एक सुन्दर विशाल 'निर्माल्यकूप' है जिसे आजकल "मलिमारम” कहते हैं। मंणिनाग नामक कोई बौद्ध महन्त थे, अत: उनके नाम के साथ यह प्राचीन स्मारक जुड़ गया, सांस्कृतिक पतनका इससे बढ़ कर और क्या उदाहरण मिल सकता है । भारतमें ऐसे स्मारक बहुत हैं, विद्वान लोग प्रकाश डालें। मुगलकाल की मस्जिदें पूर्वमें जैन मन्दिर थे ।
थे । ऐसी स्थिति में लोग व्याख्यानादि औपदेशिक वाणीका अमृतपान करने के लिये जङ्गलों में जाया करते थे जैसाकि पौराणिक जैन आख्यानोंसे विदित होता है। जिनमन्दिरकी आत्मा - प्रतिमाएँ भी नगरके बाहिर गुफाओं में अवस्थित रहा करतीं थीं । ऐसी स्थिति में सहज में कल्पना जागृत हो उठती है कि या तो दोनोंके लिये स्वतन्त्र स्थान रहे होंगे या एक हीमें दोनों के लिये पृथक्-पृथक् स्थान रहे होंगे, मैंने कुछ गुफाएँ ऐसी देखी भी हैं। प्राचीन मन्दिरके नगर बाहर बनाए जानेका भी यही कारण है। मेवाड़ादि प्रदेशों में जो जैन मन्दिर जङ्गलोंमें बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं वे गुफाओंकी पद्धतिके अवशेषमात्र हैं । वहाँ ताला वगैरह लगाने की आवश्यकता ही क्या थी ? क्योंकि वहाँ न तो आभूषण थे और न वैसी संपत्ति के लूटे जानेका ही कोई भय था, यह प्रथा बड़ी सुन्दर और सर्व लोगों के दर्शन के लिये उपयुक्त थी । आज दशा भिन्न है । यही कारण है कि आज निवृत्ति प्रधान जैन संस्कृतिका प्रवाह रुक-सा गया है । :
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प्राचीन गुफाओं में उदयगरी खण्डगिरी, अइहोल सित्तन्नवासल्ल 'चाँदवाड़, रामटेक, एलूस । इन गुफाओंसे मानना होगा कि दशम शती तक सात्विक प्रधाका 'परिपालन होता था) ढङ्कगिरी, जोगीमारा, गिरनार आदि विभिन्न प्रान्तोंमें पाई जाने वाली हाति प्राचीन और भारतीय तक्षण कलाकी उत्कृष्ट मौलिक सामग्री है । गुफाओं के सौन्दर्य अभिवृद्धि करनेके ध्यानसे जोगीमारा, सित्तन्न त्रासल्ल आदि में चित्रोंका अङ्कन भी किया गया था, इन भित्तिचित्रोंकी परम्पराको मध्यकाल में बहुत बड़ा बल मिला, भारतीय चित्रकला विशारदोंका तो अनुभव है कि आज तक किसी न किसी रूप में जैनोंने भित्तिचित्रं परम्परा के विशुद्ध प्रवाहको आज तक कुछ अंशतक सुरक्षित रखा है ।
• ता० ८-३-४८को शान्तिनिकेतनमें कलाभवन के आचार्य और चित्रकलाके परम मर्मज्ञ श्रीमान् नन्दलालजी बोसको मैंने अपने पासकी हस्तलिखित जैन सचित्र कृतियाँ एवं बड़ौदा निवासी श्रीमान् डॉ०
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मंजुलाल भाई मजूमदार-द्वारा प्रेषित दुर्गासप्तशतीके कलापर विस्तृत विवेचनात्मक प्रकाश डालनेवाला मध्यका लीन चित्र बतलाये, उन्होंने देखते ही इनकी विवरण एवं महत्वपूर्ण भागोंके चित्र देकर एक ग्रन्थ कला और परम्परापर छोटासा व्याख्यान दे डाला प्रकाशित किया जाना चाहिए । यह इतिहास हमारी जो आज भी मेरे मस्तिष्कमें गुञ्जायमान होरहा है। संस्कृतिके महत्वपूर्ण अङ्ग जो देवस्थान, मुनिस्थान हैं उसका सार यही था कि इन कलात्मक चित्रोंपर उनके विकासपर बहुत बड़ा प्रकाश डालेगा। भारतीय एलोराकी चित्र और शिल्पकलाका बहुत प्रभाव है। पुरातत्त्व-विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल श्रीमान् जैन-शैलीके विकासात्मक तत्त्वोंका मूल बहुत अंशोंमें हरगोविन्दलाल श्रीवास्तव जैन-गुफाओंपर काम एलोरा ही रहा है । चेहरे और चक्षु तो सर्वथा उनकी करनेवाले जैन विद्वानोंकी खोजमें हैं वे हर तरहसे देन है । रङ्ग और रेखाओंपर आपने कहा कि जिन- सहायता प्रदान करनेको कटिबद्ध भी हैं, जैनोंको जिन रङ्गोंका व्यवहार एलोराके चित्रोंमें हुआ है वे ऐसा सुअवसर हाथसे न जाने देना चाहिए.। अस्तु । ही रङ्ग और रेखाएँ आगे चलकर जैन-चित्रकलामें ३ प्रतिमाएं-निम्न उपविभागोंमें विभाजितकी ' विकसित हई। यह तो एक उदाहरण है इसीसे
जा सकती है:समझा जा सकता है कि जैन-चित्रकलाकी दृष्टिसे भी
(अ) तीर्थंकरोंकी प्रस्तर प्रतिमाएँ इन स्थापत्यावशेषोंका कितना बड़ा महत्व है जिनको
(आ) तीर्थंकरोंकी धातु प्रतिमाएँ हम भूलते चले जारहे हैं।
(इ) तीर्थकरोंकी काष्ठ प्रतिमाएँ ___ज्यों-ज्यों सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ
__ (ई) यक्ष-यक्षिणीकी प्रतिमाएँ खड़ी होती गई या स्पष्ट कहा जाय तो विकसित होती
(उ) फुटकर गई त्यों-त्यों पर्वतोंमें गुफाओंका निर्माण कम होता
(अ) प्रथम भागको हम अपनी अधिक सुविधा गया और आध्यात्मिक शान्तिप्रद स्थानोंकी सृष्टि के लिये दो उपभागोंमें बाँटेंगे। जनावास-नगरों-में होने लगी। इतिहास इसका
१ मथुराकी प्रतिमाओंसे लगाकर १०वीं शती तक साक्षी है। मेरा तो वैयक्तिक मानना है कि इससे की समस्त पाषाण प्रतिमाएँ एवं अयाग पट्ट मिले हैं हमारी क्षति ही हुई, स्थानोंकी अभवृद्धि अवश्य ही उनका महत्व सर्वोपरि है। प्राप्त जैन प्रतिमाओंमें हाई परन्तु वह आत्मविहीन शरीरमात्र रह गई। यहाँके कंकाली टीलेमे प्राप्त प्रतिमाएँ एवं अन्य जैनाप्रक्रतिसे जो सम्बन्ध स्थापित था वह रुक गया, जो वशेष सर्व प्राचीन हैं। मर्तिका आकार-प्रकार भी आनन्द कुटियामें-जहाँ आवश्यकताओंकी कमी पर अच्छा ही है। गुप्तोंके समयमें मूर्ति निर्माणकलाकी ही ध्यान दिया जाता था-है वह महलोंमें कहाँ ? धारा तीव्रगतिसे प्रवाहित होरही थी। बौदोंने इससे स्व० महात्माजीका निवास इसका प्रतीक है । शान्ति- खूब लाभ उठाया, क्योंकि उस समयका वायुमण्डल निकेतनमें मैंने महात्माजीका निवास स्थान देखा, दूर अनुरूप था। नालंदाको अभी ही गत मास मुझे से विदित होता है मानो कोई गुफा बनी हुई है, देखनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, यहाँपर जो जैन भातरी व्यवस्था भी पूर्व स्मृतिका स्मरण करा देती है। प्रतिमाएँ अवस्थित हैं वे मथुराके बाद बनने वाली
उपर्युक्त पंक्ति कथित (?) साधन हमारी संस्कृति प्रतिमाओंमें उच्च हैं, गुप्तकालीन कलाका प्रभाव उनपर के वास्तविक रूपको प्रकट करते हैं। भारतीय स्था• बहुत अधिक पड़ा है। इनके सम्मुख घण्टों बैठे रहिए पत्यकलाका चरम विकास उन्हींमें अन्तर्निहित है। मन बड़ा प्रसन्न होकर आध्यात्मिक शक्तिका अनुभव परन्तु जैनोंने अपनी इस निधिको आजतक उपेक्षित करने लगता है। शुभ परिणामोंकी धारा बहने वृत्तिसे देखा। मैं तो चाहता हूँ अब समय आगया है लगती है। अनेकों सात्विक विचार और परम वीतइन गुफाओंका विस्तृत अध्ययन कर उनकी शिल्प- राग परमात्माके जीवन के रहस्यमय तत्त्व मस्तिष्कमें
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चक्कर लगाते रहते हैं। विहार प्रान्त प्राचीन जैन उपस्थितकी जा सकती हैं। कहीं-कहीं तो आधा भाग प्रतिमाओंका विशाल केन्द्र रहा मालूम होता है। ही है। जैनोंकी बेदरकारीके कारण न जाने संस्कृति कुण्डलपुर, राजगृह, विहार, पटना, लछबाड़ आदि को कितना नुक्सान उठाना पड़ेगा, इस बातका कुछ नगरोंमें मैने प्राचीन और प्रायः एक ही पद्धतिकी अनुभव जैनोंको करना चाहिए। २५-३० प्रतिमाएँ (गुप्त और अन्तिम गुप्तकालीन) मुझे यहाँपर बिना किसी अतिशयोक्तिके साथ देखी हैं। इनपरसे मेरा तो मत और भी दृढ़ होगया कहना चाहिए कि उपर्युत्त वर्णित जैन-प्रतिमाएँ गुप्तहै कि भारतमें जैन और बौद्ध दो ही ऐसे लोक कालीन बौद्ध मूर्तियोंसे संतुलित की जा सकती हैं। कल्याणकारी सम्प्रदाय हैं जिनकी प्रतिमाओंके सामने इस युगमें प्रतिमाएँ एक पाषाणपर उत्कीर्णकर चारों बैठनेसे अत्यधिक आनन्दका अनुभव होता है। ओर काफी रिक्त स्थान छोड़ दिया जाता था। इस विशुद्ध भावोंकी सृष्टि होती है । अद्भुत प्रेरणा युगकी जो प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं उनमें श्वेताम्बर मिलती है।
दिगम्बरका कोई भेद भी पाया नहीं जाता, मालूम ___उपर्युक्त कालकी जो देखनेमें प्रतिमाएँ आई उनपर होता है ज्यों-ज्यों साम्प्रदायिकता बढ़ी त्यों-त्यों लेख बहुत ही कम मिलते हैं, जो हैं वे बौद्धमोटो "ये शिल्पमें विकृति आने लगी। धम्मा" हैं, कारण कि १०वीं शती पूर्व वैसी पृथा ही २ इस विभागमें वे मूर्तियाँ रखी जा सकती हैं कम थी। लाच्छन भी सम्भवतः नहीं मिलते, केवल जो १०वीं शताब्दीकी हैं। उत्तरकालमें २०० वर्षांतक पार्श्वनाथ ऋषभदेव ( केशावली और कभी-कभी तो कलाकारोंके हृदय, मस्तिष्क और हाथ बराबर वृषभका चिह्न कहीं मिल जाता है ) इन तीर्थंकरोंके कलात्मक सृजनमें लगे रहे, पर बादमें तो केवल हाथ चिह्न तो मिलते हैं पर अन्य नहीं मिलते, परन्तु ही काम करते रहे । न मस्तिष्कमें विविध उदात्तभाव लाँछन स्थानपर दोनों मृगोंके बीच “धर्मचक्र" रहे न हृदय ही सात्विक था और न उनके अत्रोंमें मिलता है जिसे बहुतसे लोग सुन्दर कमलाकृति वह शक्ति रह गई थी जो सजीव आकृति निर्मित कर समझ बैठते हैं।
सके। ऐसी स्थितिमें कला-कौशलकी धारा शुष्क हो ___ एक दृष्टिसे जैन प्रतिमाओंका यह मौलिक चिह्न गई, यही कारण है कि बादकी अधिकांश मूर्तियाँ है । यह जैन धर्मका प्रधान और परम पवित्र प्रतीक कला-विहीन और भद्दी मालूम देती हैं । हाँ ! कलचूरी, है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामीजीने इसकी पाल, गङ्ग और चालुक्यों आदिके शासन-कालके कुछ प्रवर्तनाकी थी और बादमें ईस्वी पूर्व ३-४ शदीमें अवशेष ऐसे हैं जिनके दर्शनसे कला-समीक्षक सन्तुष्ट जैनोंसे बौद्धोंने इस चिह्नको अपना लिया, अशोकने हो सकता है । १३वीं शतीके अनन्तर मूर्तियाँ प्रायः इसे जिन शिल्प स्थापत्योंमें स्थान दे दिया वे प्रकाशमें धार्मिक दृष्टिसे ही महत्वकी रहीं, कलाकी दृष्टिसे नहीं।
आगये और जैन अवशेष दबे पड़े रहे, अतः पुरातत्व मुझे इसके दो प्रधान कारण मालूम होते हैं। प्रत्येक विभाग और भारत सरकारके प्रधान कार्यकर्ताओंने राष्ट्रकी राजनीतिका प्रभाव भी उसकी सभ्यता और इसे अशोककी मौलिक कृत्ति मानकर राष्ट्रध्वजपर भी संस्कृतिके विकास में महत्वका भाग रखता है। १३० स्थान दे दिया, निष्पक्षपात मनोभावोंसे यदि देखें शतीके बाद भारतकी राजनैतिक स्थिति और विशेषतो मानना होगा कि धर्मचक्र जैन संस्कृतिकी मुख्य कर जहाँ जैनोंका अधिकांश भाग रहता था वहाँकी वस्तु है। इसका प्रधान कारण यह भी है कि गुप्त तो स्थिति अत्यंत भीषण थी । विदेशी आक्रमण या अन्तिम गुप्तकालके अनन्तर भी प्रतिमाओंमें और प्रारम्भ होगये थे, जान-मालकी चिन्ता जहाँ सवार विशेषकर धातुकी मूर्तियों में धर्मचक्रका बराबर स्थान हो वहाँ कलात्मक सृजनपर कौन ध्यान देता है ? रहा है। हजारों प्रतिमाएँ इसके उदाहरण स्वरूप ऐसी स्थितिमें पाषाणकी प्रतिमाकी अपेक्षा लघुतम
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धातु-मूर्तियोंका निर्माण अधिक होने लगा जो गृहमें मिली हैं। चौबीसी भी प्राप्त है। उत्तर भारत और भी आसानीसे रखी जा सकती हैं । दसवीं शतीके दक्षिण भारतकी कलामें जो पार्थक्य पाया जाता है बादकी प्रतिमाएँ आजतक बहुत ही कम प्रकाशमें वह स्पष्ट है। प्रभावलीसे ही दोनोंका पार्थक्य स्वयं आई हैं । मध्यप्रान्तमें जबलपुर, धुनसौर, सिवनी होजाता है । इसमें लेख भले ही न हों पर दूरसे पता आदि नगरोंमें इस युगकी प्रतिमा-सामग्री है । १६वीं चल जाता है । घंटाकृति आसन और साँचीके तोरण शताब्दीमें जीवराज पापड़ीवालने तो गज़ब ढा दिया, की आकृतियाँ कहीं-कहीं- हैं जो अन्तिम गुप्तकालीन हजारों प्रतिमाएँ तो आजतक मैं देख चुका हूँ । इनके बौद्धकलाकी देन हैं। १३वीं शताब्दी तक तो धातु द्वारा प्रतिष्ठित मतियाँ तो दरसे ही पहचानी जाती हैं। मर्तियोंक निर्माणपर जैनोंने खूब सावधान होकर हाँ, इस युगकी प्रतिमाओंपर लेख खूब विस्तृतरूपसे ध्यान दिया, परन्तु बादको तो जो दशा हुई उसको मिलते हैं । जो मूर्तियाँ मिली हैं वे स्वतन्त्र फलकपर आज देखते हैं तो बड़ा दुःख होता है। परिकर युक्त इसप्रकार बनाई हैं कि मानो आगे स्थान ही नहीं प्रतिमाएँ तो पाषाण और धातुकी और भी मिली हैं। रहा । कहनेका तात्पर्य यह है कि परिकरवाली इन दिनोंमें तो परिकरको इस प्रकार विस्तृत कर प्रतिमाएँ कम मिली हैं । जो है वे ११से १३वीं शती दिया कि मूर्ति के मूल भावोंकी रक्षाकी कोई चिन्ता तककी ही सुन्दर हैं। पूर्वकालमें परिकरके स्थानपर नहीं रक्खी । जो स्वतन्त्र धातुविम्ब विशालकाय प्रायः प्रतिमाएँ या चामरादि लिये परिचायक, छत्र निर्मित हुये वे निःसन्देह अच्छे हैं। चामरादिसे विभूषित देव हैं-अष्ट प्रातिहारिज हैं। १०वी ११वीं शती पूर्वके जिनविम्बोंको जिस
३ (आ) इस श्रेणीमें वे मृतियाँ आजाती हैं जो प्रकार अग्रभागपर ध्यान देकर सुन्दर बनाया जाता सप्तधातुओंसे बनी हैं । इसप्रकारकी प्रतिमाएँ पाषाण है पर पश्चात भाग खरखरा ही रहने दिया जाता था की अपेक्षा सरक्षा और कला-कौशलकी दृष्टिसे अधिक पर बादमें १३वीं शती बाद तो वह भाग बहत प्लैन उपयोगी हैं । पाषाणकी प्राचीन प्रतिमाएँ देखते हैं तो दीखता है कारण कि लेख यहीं खोदे जाते हैं । कहींकहीं पपड़ी खिर जाती है या ज़मीनमें खुदाईके समय कहीं पीछे भी चित्रोत्कीर्णित हैं । १ स्वर्ण और २ रजत खण्डित होजाती हैं । धातुमूर्तिको कोई स्वर्णके लोभ की प्रतिमाएँ भी देखनेमें आती हैं । १९वीं शती तक से गला भले ही दे .............पर खण्डित नहीं कर यह प्रथा चली । साधारण जैन जनतामें मूर्ति विषयक सकता । कलाकारको भी इनके निर्माणमें अपेक्षाकृत ज्ञान कम होनेसे बड़ा नुक्सान होरहा है। बहुत ही कम श्रम करना पड़ता है; क्योंकि ये ढाली जाती थीं। सुन्दर हँसमुख मूर्तिको लोग तुरन्त कह डालते हैं यह धातुमूर्तियोंका इतिहास तो बहुत ही अन्धकारमें है। तो बौद्ध प्रतिमा है। वर्धा जिलान्तर्गत आर्वीके जैन यद्यपि कुछेक चित्र अवश्य ही प्रकट हुए हैं पर उनकी मन्दिरमें मैंने १२वीं शताब्दीकी उत्तर भारतीय कला सार्वभौमिक व्याप्तिका पता उनसे नहीं चलता। की अत्यन्त सुन्दर जैन प्रतिमा एक कोनेमें-जिसपर पीडवाड़ा और महुड़ीमें जो जैन धातुप्रतिमाएँ प्राप्त काफी धूल जमी हुई थी-पड़ी देखी थी, मैंने वहाँके हो चुकी हैं वे कला-कौशलके श्रेष्ठ प्रतीक हैं और गुप्त- खंडेलवाल भाइयोंसे कहा कि यह मामला क्या है ? कालकी बताई जाती हैं। इनके बादकी भी मूर्तियाँ वे कहने लगे प्रथम तो हम इसे पूजामें रखते थे मिली अवश्य हैं पर उनमें धातुकी सफाई अच्छी नहीं पर जबसे इसके बौद्ध होनेका हमें पता चला तभीसे पाई जाती है और न उनका सौष्ठवत्व ही आकर्षक हमने कोने में पटक रक्खी है । यह हालत है । बीकानेर
शती पर्वकी प्रतिमाएँ एक साथ पाँच या के चिन्तामणि पार्श्वनाथमन्दिरके गर्भगृहमें १०८० तीन जुड़ी हुई मिली हैं । यों तो ११वी १२वीं शताब्दी धातु प्रतिमाएँ हैं, जिनमें कलाकी दृष्टिसे बहुमूल्य में नवग्रह युक्त, शासनदेव-देवी सहित अधिक मूर्तियाँ भी हैं ।
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उनपर इस दृष्टिसे आजकल किसीने अध्ययन जिनके परिकर या पासमें एक ही चट्टानपर अधिष्ठाकरनेका कष्ट नहीं उठाया, सुना है वहाँ जैनोंकी यक खुदे हुए हैं। परन्तु कुछ कालके बाद स्वतन्त्र तदाद भी काफ़ी है । तुर्रा यह कि बड़े-बड़े कलाकारों प्रतिमाएँ बनने लगी, उपासकोंकी भक्ति ही इनके का वह आवास है।
निमोणका प्रधान कारण है । जैनमन्दिरके गर्भगृहके ___"धातुप्रतिमाएँ-विकास और पतन" शीर्षक दाएँ-बाएँ और अक्सर छोटे-छोटे गवाक्षोंमें इनकी निबन्ध मैं लिख रहा हूँ । अतः यहाँ नहीं लिखा। स्थापना रहती है। कुछ प्राचीन पद्यावती, सिद्धायिका
३ (इ) इस विभागकी सामग्री भारतमें बहुत ही देवी और अम्बिकाकी ऐसी भी मूर्तियाँ देखी हैं कम मिलती है, इसका कारण मुझे तो यही प्रतीत जिनमें प्रधानता तो इनकी रहती है, पर इनके मस्तक होता है कि काष्ठका प्रयोग जिस समय भवननिर्माण पर पार्श्वनाथ, महावीर और नेमनाथजीकी प्रतिमाएँ आदि कलामें विशेष रूपसे होता था उन दिनों जैन क्रमशः हे। रोहणखेड आदि नगरोंमें स्वतन्त्र यक्षप्रतिमाओंके निर्माणमें काष्ठका उपयोग इसलिये वर्जित यक्षिणीकी खण्डित प्रतिमाएँ भी पाई जाती हैं । कहीं कर दिया होगा, क्योंकि वह तो अल्पायु है-पाषाण कहीं जिनवेदीके ठीक निम्नभागमें इनको देखते हैं । अधिक समय टिक सकता है । फिर भी प्राचीनका- इसमें कोई सन्देह ही नहीं, प्राचीन जैन प्रतिमालीन कुछ काष्ठ-प्रतिमाएँ मिली हैं। मैंने कलकत्ता विधानमें इनका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। धातु विश्वविद्यालयके आशुतोष - आश्चर्यगृहमें एक जैन तथा पाषाण दोनोंपर ये खोदी जाती थीं। मैं तो इन प्रतिमा काष्ठपर खुदी हुई देखी है जो बङ्गालसे ही कलात्मक प्रतिमाओंका महत्व केवल जैन होनेके नाते प्राप्त की गई थी, इसका काल मेरे मित्र डी०पी० घोषने ही नहीं समझा, पर भारतीय कलाके सुन्दर सिद्धान्त २००० वर्ष पूर्व निश्चित किया है। काष्ठको देखनेसे और विविध उपकरणोंका जो क्रमिक विकास इनमें मालूम होता है कि वह बहुत वर्षों तक जलमग्न रहा पाया जाता है वह प्रत्येक एतद्विषयक गवेषीको होगा, क्योंकि उसमें सिकुड़न बहत है। बीचके भागमें आकृष्ट किये बिना नहीं रहता; कारण कि वस्त्र और रेखाएँ ही रेखाएँ दीखती हैं । अमेरिकास्थित पेनीसि- केश-विन्यास, शारीरिक गठन, आभूषण, विविध लटोनिया विश्वविद्यालयके संस्कृत विभागके और शस्त्रास्त्र, चेहरा, आँखोंका सुन्दर रजतकटाव, कलाके अध्यक्ष तथा जैन सहित्यके विशेषज्ञ सुप्रसिद्ध आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ इनमें हैं जिनका महत्व कला-समीक्षक श्रीयुत डा० विलियम नॉमन ब्रॉउनसे भारतीय कला और कौशलके इतना अधिक समीप ता० १-१-४८ को मैंने कलकत्तामें काष्ठकी जैन प्रति- है कि हम उनकी कदापि उपेक्षा नहीं ही कर सकते । माओंके सम्बन्धमें वार्तालाप किया था, आपने कहा जैनसमाजके बहुत ही कम व्यक्तियोंको उनके विविध कि हमारे देशमें भी चार जैन काष्ठप्रतिमाएँ आजतक रूपों और वाहनोंके शास्त्रीय ज्ञानका पता है । नासिक उपलब्ध हुई हैं, जिनका समय १५०० वर्ष पूर्वका है। जैनमन्दिरमें एक स्फटिक रत्नकी जैन प्रतिमा है सम्भव है यदि गवेषणा की जाय तो और भी काष्ठ जिसका रजत परिकर सुन्दर और अलग है । इनके प्रतिमाएँ मिल सकती हैं । जैन वास्तुशास्त्र में काष्ठ साथ गोमेदकी और नीलमकी प्रतिमाएँ हैं । एक तो प्रतिमाका उल्लेख आया है। चन्दन आदि वृक्षोंका मानो गणेश ही हैं। मुझसे कुछ लोगोंने कहा यह उसमें प्रयोग होता है।
गणेशजीकी पूजा अपन कबसे करते आये हैं ? यह ३ (ई) जैन स्थापत्यकलामें तीर्थकरोंकी प्रतिमाओं गणेश नहीं पर पार्श्व-यक्ष हैं। इनके रूपमें शास्त्रीय के बाद उनके अधिष्टायक यक्ष-यक्षिणीकी मूर्तियोंका सूक्ष्मान्तर है, जो सर्वगम्य नहीं। इससे आगे चल स्थान आता है। प्राचीनकालकी कुछ तीर्थकर प्रतिमाएँ कर अनर्थ खड़े होसकते हैं। एक बात मुझे स्पष्ट ऐसी भी देखनेमें आती हैं जो प्रस्तर-धातुकी हैं और कहनी चाहिए कि देवियोंकी प्रतिमाओंके कारण जैन
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तन्त्रोंमें कुछ विकास अवश्य हुआ है। मूर्तिकला भी प्रत्येक समय नये तत्त्व अपनाने को तैयार थी; क्योंकि यहाँ उनको पर्याप्त स्थान था जो जिनमूर्ति में न था, वहाँ नियमों का पालन और मुद्राकी घोर ध्यान देना अनिवार्य था ।
जैन सरस्वती की भी प्रस्तर धातु प्रतिमाएँ पाई गई हैं। बीकानेर के राज आश्चर्यगृह में विशाल और अत्यन्त सुन्दर दो जैनसरस्वती की भव्य मूर्तियाँ हैं जो कलाकौशलमें १२वीं १३वीं शतीके मध्यकालीन शिल्पस्थापत्य-कलाका प्रतिनिधित्व करती हैं। मैंने सरस्वती की मूर्तियाँ तो बहुत देखी पर ये उन सबमें शिरोमणि हैं। मैंने स्टेलाक्रेमशीशको जब इनके फोटो बताये वे मारे प्रसन्नताके नाच उठीं, उनका मन आल्हादित हो उठा, तत्क्षण उनने अपने लिये इसकी प्रतिकृति लेली । धातुकी विद्यादेवीकी प्रतिमाएँ तिरुपति - कुनरममें सुरक्षित हैं। इनकी कलापर दक्षिणी भारत की शिल्पका बहुत बड़ा प्रभाव है ।
३ ( उ ) उपर्युक्त पंक्तियोंमें सूचित प्रतिमाओंसे भिन्न और जो-जो प्रतिमाएँ जैन- संस्कृति से सम्बन्धित पाई जाती हैं वे सभी इस विभाग में सम्मिलित की जाती हैं, जो इस प्रकार हैं:
१ - जैन- शासनकी महिमा में अभिवृद्धि करनेवाले परम तपस्वी त्यागी विद्वान् आचार्य या मुनियोंकी मूर्तियाँ भी निर्मित हुई हैं । इनमें से कुछ ऐतिहासिक भी हैं - गौतम स्वामी, धन्ना, शालीभद्र, (राजगृह) हेमचन्द्रसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनप्रभसूरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनकुशलसूरि, अमरचन्द्रसूरि, हीरविजयसूरि, देवसूरि आदि अनेक आचार्यों की स्वतन्त्र मूर्तियाँ उनके भक्तों द्वारा पूजी जाती हैं। कहीं-कहीं तो गुरु-मन्दिर स्वतन्त्र हैं । इन सभी में " दादा साहब " - जो श्रीजिनदत्तसूरिजीका ही प्रचलित संक्षिप्त नाम है-की व्यापक प्रतिष्ठा है । इन प्रतिमाओं में कोई खास कला - कौशल नहीं मिलता, केवल ऐतिहासिक महत्व है ।
२- जैन राजा और मन्दिरादि निर्माण कराने वाले सद्गृहस्थ भी अपनी करबद्ध प्रतिमा बनवाकर
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जैन-मन्दिर में जिनदेवके सम्मुख खड़ी कर देते थेआज भी कहीं-कहीं इस प्रथाका परिपालन किया जाता है । कलाकी दृष्टिसे इनका खास महत्व नहीं है । धातु और कहीं पाषाण-प्रतिमाओं में भी भक्तोंका प्रदर्शन अवश्य ही दृष्टिगोचर होता है। बौद्ध-मूर्तियों में तो सम्पूर्ण पूजनकी सामग्री तक बताई जाती है । ऐसी मूर्ति मेरे संग्रह में है । श्राबू पादलितपुरकी यात्रा करनेवाले उपर्युक्त प्रतिमाओं की कल्पना कर सकते हैं। वस्तुपाल, तेजपाल, उनकी पत्नी, वनराज चावड़ा, मोतीशा श्रादिकी प्रतिमाएँ एक-सी हैं। मैं स्पष्ट कर दूँ कि इस प्रकार की मूर्ति बनवाने में उनका उद्देश्य खुदकी पूजा न होकर एकमात्र तीर्थङ्करकी भक्ति ही था, हाथ जोड़कर खड़ी हुई मुद्रा इसीलिये मिलती हैं ।
(
३ - वास्तुकला के सम्बन्धमें जो उल्लेख जैनसाहित्य में आये हैं, उनमें यह भी एक है कि जैनमन्दिर या अन्य आध्यात्मिक साधनाके जो स्थान हों वहाँपर जैनधर्म और कथाओं से सम्बद्ध भावोंका अन अवश्य ही होना चाहिए जिसको देखकर के आत्म-कर्तव्य की ओर मानवका ध्यान जाय। इस प्रकार के अवशेष विपुलरूपमें उपलब्ध हुए भी हैं जो तीर्थङ्करों का समोसरण, भरत- बाहुबलि युद्ध, श्रेणिककी सवारी, भगवानका विहार, समलिविहार भृगुच्छ ) की पूर्व कहानी आदि अनेकों भाव उत्कीर्ण पाये जाते हैं; परन्तु इन भावोंके विस्तृत इतिहास और परिचय प्राप्त करनेके आवश्यक साधनोंके अभाव में लोग तुरन्त उन्हें पहिचान नहीं पाते । अतः कहीं-कहीं तो इनकी उपेक्षा और अनावश्यकतापर भी कुछ कह डालते हैं । जीर्णोद्धार करनेवाले बुद्धिहीन धनी तो कभी-कभी इन भावोंको जान-बूझकर चूना-सीमेण्टसे ढकवा देते हैं- राणकपुरमें कोशाका नृत्य और स्थूलभद्रजीके जीवनपर प्रकाश डालनेवाले भाव प्रस्तरोंपर अङ्कित थे जो साफ तौर से बन्द करवा दिये गये, जब वहाँ जैनकला के विशेषज्ञ साराभाई पहुँचे तब उन्हें ठीक करवाया । धनिकों को अपना धन कलाकी हिंसा - हत्या में व्यय न करना चाहिए । विवेक न रखनेसे हमारे ही अर्थसे
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किरण ६ ]
जैनपुरातन अवशेष
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हमारी कलाकी हिंसा हम ही कर रहे हैं। लोग तो पूर्णतः इनपर उपेक्षित भावसे काम लेते
दक्षिण-भारतमें दिगम्बर कथाओंपर ऐतिहासिक आये हैं । मेरे परम मित्र डा० हँसमुखलाल सांकप्रकाश डालनेवाले भाव उत्कीर्णित मिले हैं सबसे लिया, श्रीशान्तिलाल छगनलाल उपाध्याय, उमाकान्त अधिक आवश्यक कार्य इन अवशेषोंका है जो सर्वथा प्रेमानन्दशाह, मि० रामचन्द्रम् आदि कुछ अजैन ही उपेक्षित हैं।
विद्वानोंने जैनमूर्ति-विधान, कला-कौशलके विभिन्न ३ (ऊ) अष्टमङ्गल, स्वस्तिक, नंद्यावर्त और अङ्ग-प्रत्यङ्गोंपर बड़ा गम्भीर अन्वेषण कर जो कार्य स्तूपाकृतिमें जो प्रतिमाएँ पाई जाती हैं उनका समावेश किया है और आज भी वे इसी विषयमें पूर्णतः मैं इस विभागमें करता हूँ; क्योंकि ये भी हमारी संस्कृति संलग्न हैं, वह हमारी समाजके विद्वानोंके लिये के विशिष्ट अङ्ग हैं, ये अवशेष जङ्गलोंमें पड़े रहते हैं। अनुकरणीय आदर्श है । कलकत्ता में प्रोफेसर इनकी सुधि कौन ले ? नालन्दामें मैंने एक स्वस्तिक अशोककुमार भट्टाचार्य हैं, जो जैनमूर्ति शास्त्रपर -जो ईटोंमें उठा हुआ है-देखा, वह इतना सुन्दर बृहत्तर ग्रन्थ प्रस्तुत करने जारहे हैं । मैंने उनके था कि देखते ही बनता है। उसकी रेखाएँ एवं मोड कामको देखा, स्तब्ध रह गया ! अजैन होते हुए सुन्दर थे। जैन-मन्दिरों में जो स्तम्भ लगाये जाते हैं भी उनने जैनकलाके बहुसंख्यक सुन्दर और उपेक्षित उनमेंसे किसी-किसीमें वीतरागकी प्रतिमाएँ अडित तत्त्वाको खोज निकाला है । परन्तु मुझे अत्यन्त रहती हैं। बौद्धोंके स्तूपोंकी जैसी आकति बनती है परितापके साथ सूचित करना पड़ रहा है कि इन वैसी ही आकृतिवाली जैन-प्रतिमाएँ स्तूपमें मैंने अजैन विद्वानोंकी रुचि तो बहुत है पर उनको अपने महादेव' सिमरिया (मुंगेर जिला) रोहणखेडमें देखी
विषयमें सहाय करने वाले साधन प्राप्त नहीं होते, है। इन प्रतिमाओं में अधिकांश नग्न ही रहा यही कारण है कि अजेन विद्वानसि भूलें होजाती करती थीं।
हैं। तब हमारा समाज चिल्ला उठता है कि उसने उपयक्त पंक्तियोंसे विदित होगया है कि जैनोंकी बड़ी गलती की। जब हम स्वयं न तो अध्ययन करते प्रतिमाकला-विषयक सम्पत्ति कितनी महान् और
हैं और न करनेवालोंको सहायता ही पहुंचाते हैं। स्पर्द्धा उत्पन्न करनेवाली है । इन सभी प्रकारोंपर
जैनसमाजको अब करना तो यह चाहिये कि आजतक किसी भी विद्वानके द्वारा सार्वभौमिक
उपर्युक्त प्रतिमाओंमेंसे जो सुन्दर, कलापूर्ण हैं उनका प्रकाश डाला जाना तो दूर रहा, किसी एक प्रधान अङ्ग
एक या अधिक भागोंमें अल्बम तैयार कराया जाय,
जिससे अजैन विद्वानों तक वह वस्तु पहुँच सके । पर भी नहींके बराबर काम हुआ है। जैन-समाजके
आज हम देखते हैं भारतमें और बाहरकी जनताको १ यह स्थान गिद्धौर राज्यके अन्तर्गत है। यहाँ पर बड़ा जितना ज्ञान बौद्धपुरातत्त्वका है उसका शतांश भी प्रसिद विशाल शैव-मन्दिर है, इसकी निर्माणकला शद्ध जैनोंका नहीं, जो है वह भी भ्रमपूर्ण है। जैन है और वहाँ के जमींदारसे भी मालूम हुआ कि ४ स्तम्भपूर्वमें यह जैन-मन्दिर ही था, पर प्रतापी नरेशने ५०. मध्यकालीन भारतमें जैनमन्दिरके सम्मुख ६० वर्ष पूर्व इसे परिवर्तित कर शिव-मन्दिरका रूप दे १ लाहौरसे प्रकाशित "जैन इकोनोग्राफी" मेरे अवलोकनमें दिया । यहाँपर किसी कालमें जैनी अवश्य ही रहे होंगे, आई है। यह जैन दृष्टि से बहुत त्रुटिपूर्ण है। उदाहरण के क्योंकि लछवाड़ भी समीप है तथा काकन्दीके पास ही तौरपर प्रथम ही जो चित्र दिया है वह स्पष्टरूपसे है। यहाँ के मन्दिरमें बौद्ध-मूर्तिएँ अच्छी-अच्छी ऋषभदेवजीकी प्रतिमा है जब कि उसके निम्न भागमें सुरक्षित हैं, जिनपर लेख भी हैं । विचित्रता यहाँपर यह महावीर लिखा है । ऐसी भूलें अक्षम्य हैं। है कि कुम्भार पंडे हैं।
देखें "जैन प्रतिमाएँ", शीर्षक मेरा निबन्ध ।
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विशाल स्तम्भ करनेकी प्रथा विशेषतः दिगम्बर जैन समाज में ही रही है। चित्तौड़का कीर्तिस्तम्भ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैनधर्मकी दृष्टिसे इन स्तम्भोंका बड़ा महत्व भले ही हो । परन्तु शिल्पकलाके इतिहासपरसे मानना होगा कि यह जैन वास्तुकी दैन है जिसको जैनोंने अपना स्वरूप देकर अपना लिया, ये स्तम्भ भी दक्षिण भारतमें बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। इनमें जो कलाकौशल पाया जाता है उसके महत्व से जैनसमाज तक अनभिज्ञ है । सांचीके उपरिभागमें जिन प्रतिमाएँ रहती थीं, कहा जाता है कि ये शूद्रोंके दर्शनार्थ रखी जाती थीं । आज भी प्रत्येक दिगम्बर जैनमन्दिरके आगे एक स्तम्भ यदि खड़ा हो तो समझना चाहिये कि यहाँ मानस्तम्भ है । इनपर भी एक ग्रन्थ आसानीसे प्रस्तुत किया जासके इतनी सामग्री विद्यमान है । ५ लेख
अनेकान्त
जैन पुरात की आत्मा है किसी भी राष्ट्रकी राजनैतिक स्थितिके वास्तविक ज्ञान वृद्धयर्थ उसके शिलालेखों का परिशीलन आवश्यक है ठीक उसी प्रकार जैन संस्कृतिके तत्त्वोंका अनुशीलन अनिवार्य है । इसमें धार्मिक और सामाजिक इतिहासकी विशाल सामग्री भरी पड़ी है। राजनैतिक दृष्टि से भी ये उपेक्षणीय नहीं । तत्कालीन मानव जीवनके सम्बन्धमें जो बहुमूल्य तत्वोंका समीकरण हुआ था उनका आभास भी इन प्रस्तरोत्कीर्ण शिलाखण्डोंसे मिलता है । पश्चिम भारतके लेख ब्राह्मी या अधिकांशतः देवनागरीमें मिले हैं जब दक्षिणभारतमें कनाडी में । जैन लेखोंको यों तो कई भागों में बाँटा जा सकता है पर मैं यहाँ केवलदो भागों में विभाजित करूँगा । (१) शिला पर उत्कीर्ण लेख (२) प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेख
1
प्रथम श्रेणी के लेख बहुत ही कम मिलते हैं । खारवेलका लेख अत्यन्त मूल्यवान् है जो ईस्वी पूर्व दूसरी शतीका है । उदयगिरि खण्ड गिरिमें और भी जो प्राकृत शिलालेख पाये जाते हैं उन सभीपर विस्तृत विवरण के साथ पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजय
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जीने श्रमपूर्वक प्रकाशित करवाये हैं । मथुराके लेख जैन- इतिहासमें बहुत बड़ा महत्व रखते हैं । डा० याकोबीने इनकी भाषा के आधारपर ही जैन आगमोंकी भाषा की तीक्ष्ण जाँचकर प्राचीन स्वीकार किया है । विन्सेण्टस्मिथने मथुरा के पुरातत्त्वपर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही प्रकट किया है । डा० अग्रवाल आदि महानुभाव समय-समयपर यहाँकी जैन पुरातत्त्व विषयक सामग्रीपर प्रकाश डालते रहे हैं ।
कलकत्ता निवासी स्व० बाबू पूर्णचन्दजी नाहरने मथुराके तमाम शिलालेखोंकी जाँच दुबारा स्वयं जाकर की थी, डा० स्मिथने जो भूलें की थीं उनका संशोधन करके अनन्तर उन समस्त जैन लेखों का मूल पाठ शुद्धकर, हिन्दी और अँग्रेजी भाषाओं में उनका अनुवाद कर एक विशाल संग्रह तैयार कर रखा था, पर अकालमें ही उनकी मृत्युने इस महान् कामको रोक दिया, वरना न जाने क्या क्या साधन प्रस्तुत करते । जैन साहित्य में जहाँ जहाँ मथुराका उल्लेख भी आया है उन कई उल्लेखोंको नोट करके वहाँकी जैन संस्कृति विषयक प्रचण्ड सामग्री भी सचित कर रखी थी । उनके सुयोग्य पुत्र राष्ट्रकर्म्म श्रीविजयसिंह जी नाहर सहर्ष प्रकट करने को भी तैयार हैं। मैं अपने सहयोगियोंकी खोज में हूँ । यदि समय और शक्ति ने साथ दिया तो काम किञ्चित् तो हो ही जायेगा ।
गुप्तकालीन भारतका उत्कर्ष चरम सीमापर था, इस कालके संवत् वाले जैनलेख अल्प मिले हैं। राजगृहीमें सोन भण्डार में जो लेख लिखा है वह जैनधर्मसे सम्बन्धित होना चाहिये; क्योंकि वह स्मारक ही शुद्ध जैन-संस्कृति से सम्बद्ध है । जैन प्रतिमाएँ स्पष्टरूपसे उत्कीर्णित हैं । भारत सरकार के प्रधान लिपि वाचक श्रीयुत डा० बहादुरचन्द छावड़ाने इसका इम्प्रेशन गत मासमें मँगवाया है इससे अंदाज हैं कि वे इसपर प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे | आचार्य मुनि वैरदेव के नामका एक लघु लेख श्रीयुत भँवर - लालजी जैनने मुझे कलकत्तामें बताया था, लिपि अन्तिम गुप्तकालीन थी । नालन्दाकों तलहटी में एक गुफा बनवानेका उल्लेख था । (गली किरण में समाप्त)
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सम्पादकीय
निस्पृही कार्यकर्त्ता
बीसवीं शताब्दीरूपी वधूका डोला अभी आया भी नहीं था कि उसके स्वागत-समारोहके लिये समूचे भारत में इस छोरसे उस छोरतक उत्साहकी लहर दौड़ गई । जनतामें सेवा, तप, त्याग, बलिदान के भाव अङ्कुरित हो उठे, और बड़े ही लाड़-प्यार और चावसे जीवन-सन्देशनी नववधूका स्वागत हुआ । वह अपने साथ राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिकचेतना दहेजस्वरूप लाई । परिणाम यह हुआ कि मुसलमान, ईसाई, सनातनी, आर्य्य, सिक्ख सम्प्रदायोंसे निस्पृही कार्यकर्त्ताओं के जत्थे के जत्थे कार्यक्षेत्रमें आने लगे ।
जैन समाज में भी एक होड़ सी मच गई। राजा लक्ष्मणदास और डिप्टी चम्पतराय आदि महासभा की स्थापना कर ही चुके थे। पं० गोपालदास वरैया भी मोरेना में श्रासन मारकर बैठ गये और न्यायाचार्य गणेशप्रसादजी व बाबा भागीरथदासजी वर्णी बनारसमें धूनी रमा बैठे | श्री अर्जुनलाल सेठी चौमूँ ठिकानेकी दीवानगिरीका मोह त्याग जयपुरमें करो या मरोका मन्त्र जपने लगे । महात्मा भगवानदीन हस्तिनागपुर- श्राश्रमको गुरुकुल - काँगड़ी बना देनेकी धुन में स्टेशनमास्टरीको तिलाञ्जलि दे आये । बा० शीतलप्रसादजी लखनवी गृही- जीवनको धता बताकर जोगी बन गये, और सारे जैन समाज में अलख जगा दी । मगनबहन, ललिताबाई और चन्दा सुकुमारी पति वियोग में न झुलसकर जैन-बद्दनों को सीता, अञ्जना, राजमती बनानेमें लग गई । जैनी ज्ञानचन्द और पं० पन्नालाल बाकलीवालने साहित्योद्वारका बीड़ा उठाया देवबन्द के तीन सपूतों-बा० सूरजभानजी वकील, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, बा० ज्योतिप्रसादजी जैन—ने देवबन्दसे ही
जिनवाणी - माताको बन्दी बनाकर रखने वालोंके गढ़ों पर समीक्षाओं, परीक्षाओं और आलोचनाओंके वाले भी हड़बड़ाकर उठ बैठे । सेठ माणिकचन्द जैन वे गोले बरसाये कि कुम्भकरणी नीदको मात करने
होस्टलोंकी दाराबेल डालने में जुटे तो आके देव जैन भरी जवानीमें शास्त्रोद्धारकी क़सम खा बैठे।
फिर नाथूराम प्रेमी, दयाचन्द गोयलीय, कुमार देवेन्द्रप्रसाद, रिषभदास वकील, माणिकचन्द खंडवा का युवक हृदय कब चुप रह सकता था ? ये कार्यक्षेत्र में युवकोचित ही ढङ्गसे आये, जिन्हें देख जनता साधुवाद कह उठी । इन सब अलबेले कर्मवीरों को नजर न लग जाए, इस आशङ्का से प्रेरित जैनी जियालालजी भी अपने ज्योतिष- पिटारे के बलपर दुनियाए बदनज़रकी नज़र से बचानेको निकल पड़े ।
इन निस्पृही कार्यकर्त्ताओंकी लगन और दीवा - नगी देखकर जुगमन्दरदास और चम्पतराय अपनी बैरिस्टरी भूलकर यकायक दीवाने होगये ।
I
चारों ओर समाजमें जीवन ज्योति प्रज्वलित हो उठी । गाँव-गाँवमें पाठशालाएँ खुल गई । पचासों विद्यालय और हाईस्कूल स्थापित होगये । सैकड़ों पुस्तकालयोंका उद्घाटन हुआ। शहर-शहर में सभासमितियाँ बनीं । पत्र निकले, जैन-साहित्य प्रकाशमें
या ट्रेक्टों के ढेर लग गये । इन निस्पृही सेवकों के सम्मान में श्रीमन्तोंने रुपयोंकी थैलियाँ खोल दीं । लेनेवाले थक गये पर श्रीमन्त आज भी थैलियों के मुँह खोले हुए अपने निस्पृही कार्यकर्त्ताओं की बाट में बैठे हुए हैं। क्या श्रेयाँसको जैसे ऋषभनाथ और भिलनीको जैसे राम घर बैठे मिल गये थे, इनको भी अपनी समाज के श्रमिट, अडोल, निस्पृही कार्यकर्त्ताओं के फिर दर्शन होंगे ? क्या इन्हें एक बा
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अनेकान्त
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भी सुपात्र-दान देकर जन्म सुफल करनेका अवसर कभी सुननेको मिलता, किन्तु रोजाना मस्जिदमें, मिलेगा ?
सभा - सोसायटियोंमें और व्यावहारिक जीवनमें न जाने हमारी इस निस्पृहताको किस बदनजर मजहबी दीवानों और तास्सुबी लोगोंके जबानके की नज़र लेगी है कि एक-एक करके सब छीजते चटखारे रोज़ सुननेको मिलते। जारहे हैं। जो बचे हैं वे भी हमारी नालायकियोंसे इधर काँग्रेसी-व्याख्यान भूले भटके किसीने तङ्ग आकर चलते बनें, कुछ भरोसा नहीं, वे तो अब सुना भी तो अभी वह पूरी तरह उसको समझ भी हमारे लिये वन्दनीय और दर्शनीय हैं, जितने दिन भी नहीं पाया है कि मुहल्ले में होने वाले रोजाना लीगी उनका साया बना रहे हमारा सौभाग्य है। लेक्चरोंने सब गुड़ गोबर कर दिया । उसपर यह
पर, जो कहते हैं- "ज्योतिसे ज्योति जलती आये दिन हलाल और झटका, गौ और सूअर, आई है, वह कभी बुझती नहीं।" उनसे हम पूछते अजाँन और बाजा, ताजिये और सड़कके पेड़, हिन्दी हैं कि हमारी इस दीपमालाको क्या हुआ ? जो दीप और उर्दूके झगड़े नित नया गुल खिलाते रहे।
नवीन क्यों नहीं जलता ! यह पंक्तिकी काँग्रेसी इत्तहाद और अहिंसाका बराबर उपदेश देते पंक्ति क्यों प्रकाशहीन होती जारही है ?
रहे; परन्तु यह आये दिन झगड़े क्यों होते हैं, न ___ हमारी इस आकुलताका क्या कोई अनुभवी इसका कभी हल निकाला न कोई उपाय सोचा न सज्जन निराकुल उपाय बतानेकी दया करेंगे? उन उपद्रवी स्थलोंपर पहुंचकर सही परिस्थितिका जैन-एकता
निरीक्षण किया । जब घर फुक जाते, बहन-बेटी __ जैन-एकताका नारा नया नहीं, बहुत पुराना है। बेइज्जत होजातीं, सर्वस्व लुट जाता और प्रतिष्ठित परन्तु जिस प्रकार हिन्दु-मुस्लिम राज्यका नारा व्यक्ति पिट जाते तब उन्हींको यह कहकर कि "आपस जितनी-जितनी ऊँची आवाज और तेजीसे बुलन्द ।
में लड़ना ठीक नहीं", लानत मलामत देते। लुटेरे किया, उतनी ही शीघ्रता और परिमाणमें अविश्वास और शोहदे खिलखिलाते और ये काँग्रेसकी भेड़ें
और आशङ्काकी खाई चौड़ी होती चली गई। उसी गर्दनें झुकाकर रह जातीं। तरह जैन समाजके तीनों सम्प्रदायके सङ्गठनका चंकि ये भेड़ें काँग्रेसका मरते दम तक साथ वक्षारोपण जितनी बार किया गया है, घातक फल ही निभानेकी प्रतिज्ञा कर बैठी थीं. इसलिये मार खाकर देता रहा है। तीनों सम्प्रदाय एक होने तो दूर, एक भी मिमयाती तो नहीं थीं, पर पिटना क्यों ठीक है, एक सम्प्रदायमें अनेक शाखाएँ उपशाखाएँ बढ़ती यह उनकी समझमें नहीं आ पाता था और वह भेड़ियों जारही हैं।
से मेल-मिलाप करते हुए शङ्कित ही रहती थीं । यदि हिन्दु-मुस्लिम इत्तहादमें जो काँग्रेस सदैव भूल उन भेड़ियोंको भी काँग्रेसने भेड़ बनाया होता तो करती रही है, उसीका अन्ध-अनुकरण हमारे यहाँ बिना प्रयासके ही इत्तहाद होगया होता। होता रहा है । काँग्रेसने इत्तहादका नारा तो बुलन्द काँग्रेसने कभी मुसलमानोंके सामाजिक और किया पर अपनेसे भिन्न सम्प्रदायके हृदयमें घर नहीं धार्मिक जीवनमें आनेका प्रयत्न नहीं किया ! परिणाम बनाया। काँग्रेसी मञ्चसे व्याख्यान देते रहे, अपील इसका यह हुआ कि हर मुसलमान काँग्रेसी नेताको निकालते रहे । परन्तु उनके साम्प्रदायिक गढ़ोंमें न केवल हिन्दु समझता रहा । अपनी क़ौमका नेता वह कभी गये, न उनकी रीति-रिवाजका अध्ययन किया, उन्हींको समझता रहा जो उनकी रोजाना जिन्दगीमें न इत्तहादके मार्गकी कठिनाइयोंको समझा, न उनका दिलचस्पी लेते रहे । और दुर्भाग्यसे काँग्रेसने भी हल हुआ । परिणाम इसका यह निकला कि मुस्लिम उन्हीं मजहबी दीवानोंको उनका नेता तस्लीम कर जनताको काँग्रेसी नेताका व्याख्यान तो शाजोनादिर लिया जो मुसलमानोंको रोजाना काँग्रेसके विरुद्ध
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किरण ६]
सम्पादकीय
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भड़का रहे थे । परिणाम सबके सामने है।
गत ३-४ वर्षों में इस निर्जीव बुतको विवाहादि इसी तरह जैनों में एकताकी बात उठती रही है। अवसरोंपर मिटीके गणेशकी जगह पजवाकर देवत्व तीनों सम्प्रदायोंकी प्रतिनिधि सभाओंने अनेक बार लानेका प्रयत्न किया है । परिणाम स्वरूप व्यावरमें जैन-एकताके प्रस्ताव पास किये हैं । परन्तु इनके इसका स्वतन्त्र अधिवेशन भी हमने अपनी होशमें कार्य ऐसे रहे हैं कि इतर पक्षको विश्वास बढ़नेके पहलीबार होते सुना है। बजाय आशङ्का ही हुई है।
अभिनन्दनीय हैं वे लोग जो सचमुच जैनएकता जैन महामण्डल जिसका निर्माण तीनों सम्प्रदाय के लिये प्रयत्नशील हैं । हम भी २३ वर्षोंसे इस साध की एकताके लिये किया गया था। वह पुद्गल शरीर को अपने सीनेमें छिपाये बैठे हैं। परन्तु प्रश्न तो यह है बनकर रह गया । इंजेक्शनोंके जोरसे भी उसमें कि बिल्लीके गलेमें घण्टी कौन बाँधे । व्यक्तिगत प्राण प्रतिष्ठा न हो पाई । हम हैरान हैं कि इस निर्जीव प्रभावसे अधिवेशन करा भी लिया १०-५ को किसी शरीरको अबतक कैसे ढोते रहे, जब कि उसके कार्य- तरह एकत्र भी कर लिया, या जैन-एकता कार्यालय कर्ता स्वयं जैन-एकतासे दूर भागते रहे । जीवनभर भी बना लिया । २-४ अच्छे स्वासे वेतन-भोजी क्लर्क अपना-अपना सम्प्रदाय उनका कार्यक्षेत्र बना रहा, भी मिल गये, पर इन सब कार्योंसे एकता कैसे तीर्थक्षेत्रोंके मुक़दमोंमें एक सम्प्रदायके विरुद्ध दूसरे होसकेगी ? की पैरवी करते रहे । और एकताका निर्जीव पुतला आये दिन जो यह तीर्थोपर उपद्रव होते रहते भी उठाते रहे।
हैं । यह क्यों होते हैं और क्योंकर रोके जा सकते ___ महामण्डलकी ओरसे जैन-एकताका आन्दोलन हैं ? एक दूसरेके विरुद्ध पत्रों और ट्रेक्टों द्वारा विषलगभग आर्यसमाजकी तरह रहा है । आर्यसमाजके वमन होता रहता है । वह कैसे रोका जाय ? दिगम्बर उत्सवोंमें दिनको तो हिन्दु-सङ्गठन पर प्रभावशाली कार्यकर्ता श्वेताम्बरोंमें और श्वेताम्बर कार्यकर्ता व्याख्यान-भजन होते और रात्रिको जैन, सनातनी, दिगम्बरोंमें निःस्वार्थ भावनासे किस प्रकार कार्य सिक्ख आदिको शास्त्रार्थके लिये ललकारा जाता। करें और कौन-कौन करें ? जब तक यह अमली कार्यउनके उनके धार्मिक विश्वासोंका मखौल उड़ाया जाता क्रम नहीं बनता है। और वे लोग जिनकी अपने
और महापुरुषोंको असभ्य शब्द कहे जाते । दिनमें यहाँ भी आवाजका कोई मूल्य नहीं है उनके प्रयत्नसे वे कभी हिन्दु सङ्गठनपर व्याख्यान देनेसे न चूके जैन-एकता तो नहीं हो सकेगी । हाँ वह भी हमारे
और रातको शास्त्रार्थ करनेसे कभी बाज न आये। अनगिनत नेताओंकी श्रेणीमें खड़े होकर भोली परिणाम इसका यह हुआ कि आर्यसमाजका हिन्दु- जनताको लानतमलामत देनेका अधिकार पा सकेंगे। सङ्गठन आन्दोलन बाजीगरके तमाशेसे भी कम आकर्षक होगया है।
१४-५-१९४८
-गोयलीय
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வது
युगके पर अलख चिर- चंचल !
[ 'तन्मय' बुखारिया ]
१
,
रविकी गति से, शशिकी गतिसे, भूत, भविष्यतसे, सम्प्रतिसे कभी यहाँ, फिर कभी वहाँ जो उस मतवाले मनकी मतिसे; सम्भव कभी सभी रुँध जाएँ, - किन्तु न युगकी आँखोंमें जल ! युगके चरण अलख चिर- चञ्चल !!
३
,
पर, न सदा यह अन्धकार ही, प्राणोंपर विजयी विकार ही ; मेरे जीवन ! उठो, न असमय सचमुच, बनकर रहो भार ही ! क्योंकि कभी तो कविकी वाणी बिखराएगी ही निज प्रतिफल !! ( जब तव पद - नखकी कोरोंपर, लोट- लोट जाएँगे जल-थल !!! ) युगके चरण अलख चिर- चञ्चल !
ललितपुर, १७ – ६ – ४८
वीरसेवामन्दिरको प्राप्ति
•गत किरण में प्रकाशित सहायताके बाद प्राप्त हुई रकमें १०००) ‘सन्मति-विद्या-निधि’के रूपमें बाल-साहित्य के प्रकाशनार्थ जुगलकिशोर मुख्तार ने अपनी दोनों दिवंगत पुत्रियों सन्मति और विद्यावती की ओर से प्रदान किये ।
२५) श्रीमती पुतलीदेवी धर्मपत्नी ला० रोढामलजी जैन चिलकाना जि० सहारनपुर से सधन्यवाद प्राप्त मार्फत भाई महाराजप्रसाद जैन बजाज सरसावाके (बीमारीके अवसरपर निकाले हुए दानमेंसे) ।
'अधिष्ठाता 'वीर सेवा मन्दिर '
२
"
आज परस्पर अविश्वास, सच, निर्गति-सा नरका विकास, सच रक्त रक्तको भूल रहा-सा, चेतन जड़का क्रीत दास, सच, परिवर्तनके पग बढ़ते जब, तब होता ही है कोलाहल ! युगके चरण अलख चिर- चञ्चल !!
B-61-SS-Scre
धन्य
नेकान्तको सहायता
गत चौथी किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्तको निम्न सहायता और प्राप्त हुई है जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं
५)
ला० प्रतापसिंह प्रसादीलालजी बाँदीकुई चि० चित्रारानी पुत्रीके निधनपर निकाले गये दानमेंमे ।
१०)
५)
सेठ थालालजी बड़जात्या के सुपौत्र और सेठ गेंदीलालजी कासलीवालकी सुपौत्री के विवाहोपलक्ष्य में (मार्फत पं० भँवरलालजी शास्त्री जयपुर )
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन
१. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टीका सहित मूल्य १२)।
२. करलक्खण—(सामुद्रिक-शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)।
३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा० । मू०5)
४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ० ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४/-)
५. हिंदी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास र तथा परिचय । मूल्य २॥)।
६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३||)।
७. मुक्ति-दूत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाँस) मू०४॥)
८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)।
९. पथचिह्न-( हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक ) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २) ।
१०. पाश्चात्यतक शास्त्र—(पहला भाग ) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४||)।
११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)।
१२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०)।
वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं
प्रचारार्थ पुस्तक मॅगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ .. भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस ।।
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________________ Regd. No. A-731 कीरसेकामन्दिर सरसाकाके प्रकाशन JOS 1 अनित्यभावना-मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी 6 न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण) के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित / इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य 50 दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण बार पढ़ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी खास विशेषता रखता है। अबतक प्रकाशित इसके पाठसे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें संस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली प्रारही थीं उनके प्राचीन प्रसन्नता और सरसता अाजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोंपरसे संशोधनको लिये हुए यह सस्करण मूल ग्रन्थ योग्य है। मूल्य / ) और उसके हिन्दी अनुवादके साथ पाक्कथन, सम्पादकीय, 2 आचार्य प्रभाचन्दका तत्त्वार्थसत्र नया 101 पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई प्राप्त संक्षिप्त सूत्रगन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी परिशिष्टोंसे संकलित है, साथमें सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित सानुवाद व्याख्या सहित। मूल्य।) 'काशाख्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण भी लगा हुआ है, 3 सत्साधु-स्मरण-मङ्गलपाठ-मुख्तार श्री जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंको खुलासा करता जुगलकिशोरजीकी अनेक प्राचीन पद्योंका लेकर नई योजना, हा विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-सहित / इसमें श्रीवीर है / लगभग 400 पृष्ठों के इस सजिल्द वृहत्संस्करणका वद्धमान और उनके बादके, जिनसेनाचार्य पर्यन्त,२१ लागत मूल्य 5) रु. है। कागजकी कमीके कारण थोड़ी महान् आचार्योंके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा ही पतियाँ छपी हैं और थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई हैं। किये गये महत्वके 136 पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और अतः इच्छुकांको शीघ्र ही मँगा लेना चाहिये। शुरूमें १लोकमंगल-कामना, 2 नित्यकी अात्म-प्रार्थना 7 विवाह-समुहेश्य-लेखक पं० जुगल किशोर 3 साधुवेषनिदर्शन-जिनस्तुति, 4 परमसाधुमुखमद्रा और मुख्तार, हालम प्रकाशित चतुर्थं संस्करण / सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण है। पुस्तक पढ़ते यह पुस्तक हिन्दी-साहित्यमें अपने दंगकी एक ही समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है। इसमें विवाद-जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही श्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने प्राजाता मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है / अनेक है / नित्य पाठ करने योग्य है। मू / ) विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-पवृत्तियों से उत्पन्न हई 4 अध्यात्म-कमल-मासण्ड-यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्यांग्राको बड़ी यक्तिके तथा लाटी संहिता आदि ग्रन्थोंके को कविधर राजमल्ल साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण-द्वारा सुलझाया गया है और इस की अपूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजेमें बन्द तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है / विवाह किया गया है। साथमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी क्यों किया जाता है? धर्मसे, समाजसे ओर गृहस्थाश्रमकोठिया और पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीका सन्दर से उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये? अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोर उसके लिये वर्ण और जातिका क्या नियम होसकता है ? जीकी लगभग 80 पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है? बढ़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है। मू० 1) का इत्यादि बातोंका इस पुस्तकमें बड़ा ही युक्ति पुरस्सर 5 उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा-मख्तार एव हृदयग्राही वर्णन हे / बढ़िया आर्ट पेपरपर छपी है। भीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाओंका प्रथम अंश. विवाहांके अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू०॥) अन्य-परीक्षाओंके इतिहासको लिये हुये 14 पेजकी नई प्रकाशन विभागपस्तावना-सहित / मू.) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) Pooooo----- Jain Educim...-पं० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित,..